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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

नये भारत की खोज-(प्रवचन-06)

नये समाज की खोज-(प्रवचन-छठवां)

छठवां प्रवचन (६ मई १९६९, पूना, रात्रि)

हिंसक राजनीतिज्ञ

इन तीन दिनों की चर्चाओं के आधार पर बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि क्या सारा अतीत ही गलत था, क्या सारा अतीत ही छोड़ देने योग्य है? क्या अतीत में कुछ भी अच्छा नहीं है?
इस संबंध में दोत्तीन बातें समझ लेनी चाहिए।
पहली बात, पिता मर जाते हैं, हम उन्हें इसलिए नहीं दफनाते हैं कि वे बुरे थे, इसलिए दफनाते हैं कि वे मर गए हैं। और कोई भी यह कहने नहीं आता कि पिता बहुत अच्छे थे, तो उन्हें दफनाना नहीं चाहिए, उनकी मरी हुई लाश को भी घर में रखना जरूरी है। अतीत का अर्थ है: जो मर गया, जो अब नहीं है। लेकिन मानसिक रूप से हम अतीत की लाशों को अपने सिर पर ढो रहे हैं। उन लाशों से दुर्गंध भी पैदा होती है, वे सड़ती भी हैं। और उन लाशों के बोझ के कारण नये का जन्म असंभव और कठिन हो जाता है। अगर किसी घर के लोग ऐसा तय कर लें कि जो भी मर जाएगा, उसकी लाश को हम घर में रखेंगे। तो उस घर में नये बच्चों का पैदा होना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
और अगर बच्चे पैदा भी होंगे, तो पैदा होते से ही पागल हो जाएंगे या आत्महत्या कर लेंगे। वह घर एक पागलखाना हो जाएगा। लाशें ही लाशें घर में इकट्ठी हो जाएं तो नये जीवन का अंकुर फूटना मुश्किल हो जाता है।
अतीत का अर्थ है: जो अब नहीं है, जो मर चुका है। जो मर चुका, उसे हमें विदा करने की हिम्मत होनी चाहिए। दुख होता है तो भी विदा करने का सामर्थ्य होना चाहिए। उसे मन के तल पर बचा-बचा कर रखना बहुत ही खतरनाक है। तो जब मैं कहता हूं अतीत को छोड़ देने के लिए, तो मेरा अर्थ है, ताकि हम भविष्य की तरफ देख सकें। मेरा अर्थ है कि जहां से हम गुजर गए, वहां से हम गुजर ही जाएं। मन हमारा उन रास्तों पर न भटकता रहे जहां हम अब नहीं हैं, कभी थे। जहां हम हैं उन रास्तों पर हमारी दृष्टि हो, ताकि हम वहां पहुंच सकें जहां हम अभी नहीं हैं। लेकिन जहां हम नहीं हैं, उनकी स्मृतियों में खोया हुआ चित्त भविष्य के निर्माण में और वर्तमान के जीवन में असुविधाएं पैदा कर लेता है।
अगर रूस के बच्चों से जाकर पूछो, तो वे चांद पर बस्तियां बसाने के लिए योजना बना रहे हैं। अगर अगर अमेरिका के बच्चों से पूछो, तो वे आने वाले भविष्य के निर्माण के लिए न मालूम कितनी कल्पनाएं ढूंढ़ रहे हैं। उनका चित्त भविष्य में है। और हमारे बच्चे? हमारे बच्चे रामलीला देख रहे हैं। रामलीला देखना बुरा नहीं है और राम बहुत सुंदर हैं, अदभुत हैं। लेकिन रामलीला ही देखते हुए रुक जाना, और रामलीला ही देखते रहना, और रामलीला की तरफ ही चित्त का मुड़ा रहना बहुत खतरनाक है। क्योंकि यह पीछे की तरफ मुड़ी हुई गर्दन धीरे-धीरे पैरालाइज्ड हो जाती है, फिर यह आगे की तरफ नहीं देखती। जैसे किसी कार में पीछे लाइट लगा दिया गया हो। वे तो कारें पश्चिम में बनती हैं और हम उनकी नकल में बनाते हैं, अगर हम शुद्ध भारतीय कार बनाएं, तो उसमें एक लक्षण यह होगा कि उसके लाइट पीछे की तरफ लगे होंगे। चलेगी गाड़ी आगे, देखेगी पीछे। धूल उड़ रही है उस रास्ते पर रोशनी पड़ेगी और आगे अंधेरा होगा जहां जाना है।
प्रकाश वहां होना चाहिए जहां जाना है। जहां से चल चुके हैं वहां अंधेरा भी हानिकर नहीं है। क्योंकि पीछे तो कोई जा ही नहीं सकता। जाना तो सदा आगे ही पड़ता है। और जहां हम नहीं जा सकते वहां ध्यान को अटकाना, निश्चित ही जहां हम जा सकते हैं वहां से ध्यान को वंचित करना है, एक बात। दूसरी बात, यह अतीत का इतना गुण-गान जो हम करते हैं, अतीत के स्वर्ण-युग होने की, गोल्डन एज होने की, राम-राज्य होने की जो हम बातें करते हैं, यह अतीत इतना सुंदर कभी था नहीं, जितनी हम कहानियां बनाए हुए हैं। लेकिन हमने ये कहानियां क्यों बना ली हैं? इन कहानियों के बनाने के पीछे कुछ मनोवैज्ञानिक कारण हैं।
एक बच्चा पैदा होता है, तो बच्चा भविष्य की तरफ देखता है। उसके पीछे कोई अतीत नहीं होता। एक बूढ़ा आदमी है, बूढ़ा आदमी बैठ कर अपनी आराम कुर्सी पर आंख बंद करके अतीत की तरफ देखता है--बचपन, जवानी, जो बीत गए। क्योंकि बूढ़े के आगे कोई भविष्य नहीं है। बूढ़े के आगे मौत है। मौत वह देखना नहीं चाहता। वह पीछे लौट कर अतीत की स्मृतियां देखता रहता है। और जिन जवानी की स्मृतियों को वह बड़ा सुखद पाता है, जब वह जवान था, तब वे इतनी सुखद नहीं थीं। और जिन बचपन की बातों को अब वह इतना स्वर्णिम बना लेता है, सपने बना लेता है; वह बचपन वैसा ही साधारण बचपन था जैसा सबका होता है। लेकिन दुखद को तो छोड़ देता है आदमी, सुखद को संजो लेता है। एक चुनाव चलता है पूरे वक्त। दुखद को हम भूलते चले जाते हैं, सुखद को याद करते चले जाते हैं। बाद में जब लौट कर देखते हैं तो सुखद की एक लंबी धारा दिखाई पड़ती है, दुखद भूल चुका होता है। हमारे अहंकार को दुखद बरदाश्त नहीं है। उसे हम अंधेरे में सरका देते हैं। सुखद को याद रखते हैं।
बच्चों से पूछो, कोई बच्चा नहीं कहेगा कि बचपन बहुत आनंद दे रहा है। बच्चे पूरे वक्त इस कोशिश में लगे हैं कब जवान हो जाएं। क्योंकि उन्हें दिखाई पड़ रहा है कि जवानी बहुत आनंद मालूम पड़ रही है। छोटे-छोटे बच्चे रास्तों के किनारे गलियों में छिप कर सिगरेट पी रहे हैं। यह मत सोचना कि बच्चे सिगरेट इसलिए पी रहे हैं कि सिगरेट पीने में उन्हें बहुत आनंद आ रहा है? वे बड़ों को सिगरेट पीते देख रहे हैं, सिगरेट बड़े होने का सिंबल है। वे उसे पीकर बड़े होने की अकड़ से भर रहे हैं।
एक दिन सुबह मैं घूमने निकला था, एक पोस्ट आफिस के पास से जा रहा था। एक छोटा सा बच्चा हाथ में छड़ी लिए हुए, छोटी सी मूंछ दो आने की खरीद कर लगाए हुए, रास्ते पर चल रहा था। मुझे देखा, एकदम घबड़ा गया, झाड़ के पीछे छिप गया। मैं उसके पीछे गया। उसने जल्दी से अपनी मूंछ निकाल ली। मैंने कहा, यह तू क्या कर रहा है? उसके पिता से मैं परिचित था। दोपहर उसके पिता से मिला। उसके पिता ने कहा, हमें पता नहीं, यह मूंछ काहे के लिए लगा कर सुबह सड़क पर घूम रहा था!
मैंने कहा, पता होना चाहिए। बच्चों को बचपन बहुत साधारण मालूम होता है। जवानी बहुत असाधारण, बड़ी ताकत, बड़ी प्रतिष्ठा है। तो छोटा बच्चा भी मूंछ लगा कर हाथ में छड़ी लेकर सिगरेट पीना चाहता है। वह कोशिश करता है उन प्रतीकों को चुनने की जो बड़ों के हैं। लेकिन यही बच्चा कल बूढ़ा होकर बचपन की याद करेगा और कहेगा, बहुत सुंदर दिन थे।
जो कौम बूढ़ी हो जाती है, वह याद करती है अतीत के संबंध में। जो जवान होती है कौम, वह हमेशा भविष्य के संबंध में विचार करती है। यह कौम बूढ़ी हो गई है, इसलिए पीछे लौट-लौट कर देखती है। और यह बड़ा खतरनाक है। आदमी का बूढ़ा होना स्वाभाविक है, कौम का बूढ़ा होना दुर्घटना है। एक-एक आदमी को तो बूढ़ा होना पड़ेगा। लेकिन फिर भी शरीर ही बूढ़ा हो, आदमी के मन को बूढ़ा होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। आदमी का मन मरते क्षण तक जवान हो सकता है, रह सकता है। शरीर तो बूढ़ा होगा, हो जाए। लेकिन समाज को तो बूढ़ा होने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि समाज तो सदा जवान है, वह कभी बूढ़ा नहीं होता। लेकिन भारत में एक दुर्घटना घट गई, समाज भी बूढ़ा हो गया। समाज भी पीछे की तरफ देखता है।
यह पीछे की तरफ देखने का कारण यह नहीं है कि पीछे बहुत सुंदर दुनिया बीत गई है। पीछे की तरफ देखने का कारण यह है कि भविष्य का निर्माण करने की क्षमता और साहस हमने खो दिया है। भविष्य में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता सिवाय अंधकार के। तो पीछे लौट कर मन को समझाते रहते हैं, पीछे लौट कर देखते रहते हैं।
और तीसरी बात, एक बहुत अदभुत तार्किक भूल हो रही है और वह यह हो रही है, जैसे आज, आज से दो हजार साल बाद न तो मुझे कोई याद रखेगा, न आपको कोई याद रखेगा, लेकिन गांधी का नाम दो हजार साल बाद लोग याद रखेंगे और दो हजार साल बाद लोग कहेंगे, गांधी इतना अच्छा आदमी, उस जमाने के लोग कितने अच्छे रहे होंगे। और उस जमाने के लोग? उस जमाने के लोगों का गांधी से क्या संबंध है? लेकिन गांधी की याद रहेगी, हम सब भूल जाएंगे। और गांधी की याद पर हमारे संबंध में निर्णय लिया जाएगा कि बहुत अच्छे लोग थे। और हम? हमारा गांधी से तो कोई भी संबंध नहीं है, गोडसे से संबंध हो भी सकता है। गांधी से हमारा क्या लेना-देना? लेकिन गांधी हमारे प्रतीक बन कर इतिहास में जिंदा रहेंगे और लोग गलती करते रहेंगे हमेशा, वे कहेंगे, गांधी-युग, कितने अच्छे लोग थे।
वही भूल सदा होती है। हम कहते हैं, राम-राज्य, राम का युग। कितने अच्छे लोग थे। राम याद रह गए, और वह जो वृहत्तर मनुष्य था, उसका हमें कुछ भी पता नहीं कि वह कैसा था। वह बहुत अच्छा नहीं रहा होगा। बुद्ध याद रह गए, महावीर याद रह गए। उस जमाने का आम आदमी हमें याद नहीं रहा। मैं कहता हूं, वह बहुत अच्छा नहीं रहा होगा। क्यों कहता हूं? आप कहेंगे, जब उसके संबंध में कुछ पता नहीं तो ऐसा मैं क्यों कहता हूं? कुछ कारण से कहता हूं। इसलिए कहता हूं कि बुद्ध सुबह से सांझ तक लोगों को समझाते हैं, चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो, बेईमानी मत करो। किसको समझाते हैं? अच्छे आदमियों को? महावीर सुबह से सांझ तक, चालीस साल तक यही समझाते रहे--संयम साधो, असंयम बुरी चीज है, चोरी बुरी चीज है; ज्यादा मत खाओ, कम खाओ। किन लोगों को समझा रहे थे महावीर यह? अच्छे लोगों को? जो चोर नहीं थे उनको समझा रहे थे चोरी मत करो? और अगर महावीर ने चालीस साल में एकाध बार कहा होता कि चोरी मत करो, तो हम समझते कि एकाध आदमी मिल गया होगा चोर। लेकिन सुबह से सांझ तक महावीर यही चिल्लाते हैं कि चोरी मत करो, हिंसा मत करो। इससे क्या पता चलता? इससे दो बातें हो सकती हैं, या तो महावीर का दिमाग खराब रहा हो या समाज खराब रहा हो। तो मुझे लगता है, महावीर का दिमाग तो खराब नहीं है। समाज चोरों और बेईमानों का रहा होगा, इसलिए बेचारे महावीर को सुबह से सांझ तक यही समझाना पड़ता है।
शिक्षाएं बताती हैं कि लोग कैसे थे। शिक्षाओं से पता चलता है कि लोग कैसे थे। शिक्षाएं खबर देती हैं कि किनको दी गई होंगी। महावीर और बुद्ध से पता नहीं चलता कि जमाना कैसा था। महावीर और बुद्ध की शिक्षाओं से पता चलता है कि जमाना कैसा था। क्योंकि महावीर-बुद्ध से तो महावीर-बुद्ध का पता चलता है कि कैसे थे। लेकिन शिक्षाओं से पता चलता है कि जिनको वे शिक्षा दे रहे थे, वे कैसे थे।
दुनिया की पुरानी से पुरानी किताब यही कहती है कि आजकल के लोग खराब हो रहे हैं, पहले के लोग अच्छे थे। चीन में छह हजार वर्ष पुरानी किताब है और उसकी भूमिका को अगर पढ़ें तो ऐसा लगेगा, पूना के किसी दैनिक अखबार में एडिटोरियल लिखा हो। भूमिका में लिखा हुआ है कि आजकल के लोग बिलकुल ही अनैतिक हो गए हैं, दुराचारी हो गए हैं, व्यभिचारी हो गए हैं। आजकल के लोग बिलकुल धार्मिक नहीं रहे। आजकल के लोगों में कुछ नहीं रहा जो अच्छा है। पहले के लोग बहुत अच्छे थे। छह हजार साल पहले की किताब है! तो पहले के लोग कब थे जो अच्छे थे? कभी थे? अब तक ऐसी एक भी किताब नहीं मिली, जिसमें यह लिखा हो कि इस समय के लोग अच्छे हैं। सब किताबें कहती हैं, पहले के लोग अच्छे थे। ये पहले के लोग बहुत काल्पनिक मालूम पड़ते हैं। ये पहले के कुछ अच्छे लोगों की स्मृति के कारण सारे लोगों को अच्छे मानने की कल्पना मालूम पड़ती है।
मैंने सुना है, बेबीलोन में, खुदाई करने वाले, पुरातत्व की खोज करने वाले लोगों को एक ईंट मिली है, जो ईंट अंदाजन दस हजार से पंद्रह हजार साल पुरानी होनी चाहिए। उस ईंट पर जो लिखा हुआ है, उसको खोज करने वालों ने पता लगाया है कि क्या लिखा है। उस ईंट पर एक मोटो लिखा हुआ है, चोरी करना पाप है। पंद्रह हजार साल पुरानी ईंट पर लिखा है, चोरी करना पाप है। क्या मतलब है इसका? इसका मतलब है कि पंद्रह हजार साल पहले भी चोरी बड़े जोर से चल रही थी। ईंटों पर लिख कर मकानों पर लगाना पड़ता था, चोरी करना पाप है। लोग कहते हैं कि मकानों में ताले नहीं लगाना पड़ते थे। इसका एक ही कारण हो सकता है कि लोग ताला बनाना न जानते हों। चोरी तो जारी थी। या इसका दूसरा कारण यह हो सकता है कि ताले में रखने योग्य पास में कुछ भी न रहा हो। लेकिन चोरी तो जारी थी, क्योंकि पुरानी से पुरानी किताब कहती है कि चोरी करना पाप है। चोरी नहीं करनी चाहिए, चोरी करने वाले को नर्क में सड़ना पड़ता है। चोरी करने वाले को बहुत-बहुत कष्ट देने का वर्णन है। चोरी करने वाले को बहुत-बहुत दंड का डर है। यह क्या है?
समाज कभी भी अच्छा नहीं था। आदमी कुछ अच्छे पैदा हुए हैं, व्यक्ति कुछ अच्छे पैदा हुए हैं। समाज आज से पहले से हर हालत में अच्छा है, समाज! समाज रोज अच्छा हो रहा है। आने वाला समाज कल और भी अच्छा हो सकता है। समाज विकास कर कर रहा है। इसलिए पीछे की स्मृति और गुणवान बहुत धोखे के हैं। और खतरनाक हैं। खतरा यह है कि जो लोग यह मान लेते हैं कि पीछे का समाज बहुत अच्छा था, वे जाने-अनजाने अपने समाज को एक हीनता के भाव से भर देते हैं। और वह हीनता आदमी को बुरा होने की तरफ ले जाती है, अच्छे होने की तरफ नहीं।
और भारत में तो एक बहुत अजीब धारणा है। हमारा तो खयाल यह है कि पतन हो रहा है, विकास नहीं हो रहा। पहले था सतयुग, अब चल रहा है कलियुग। अच्छे युग पहले हो चुके, बुरे युग अब चल रहे हैं। आदमी रोज पतित हो रहा है। हिंदुस्तान के सोचने का जो ढंग है, वह कहता है कि समाज पतित हो रहा है। ढंग खतरनाक है।
विकसित, श्रेष्ठतर आगे आ रहा है, यह अगर खयाल और धारणा हो, तो हम श्रेष्ठतर होने का प्रयास करते हैं। और अगर यह पक्का ही है कि कलियुग आ रहा है, बुरा होना जरूरी है, तो फिर भले होने की कोशिश कौन करे? हमारा कसूर भी नहीं है, क्योंकि कलियुग चल रहा है, हम बुरे हैं। पंचम-काल चल रहा है, हम बुरे हैं। हमारा बुरा होना मजबूरी है। हम क्या कर सकते हैं? समय ऐसा है कि बुरे हैं।
ये धारणाएं समाज की प्रतिभा को ऊंचा उठाने का कारण नहीं बनतीं, रोकने का कारण बनती हैं। महापुरुष हुए हैं, महान मनुष्य अब तक पैदा नहीं हुआ। महान मनुष्य को पैदा होना है। और जो महापुरुष पैदा हुए हैं, वे महापुरुष भी इसीलिए महापुरुष मालूम पड़ते हैं, यह चौथी बात आपसे कहना चाहता हूं।
बुद्ध को हुए ढाई हजार वर्ष हो गए। ढाई हजार वर्ष तक बुद्ध को याद रखने की जरूरत क्या है? आप कहेंगे, बुद्ध को याद न रखें? महावीर को याद न रखें? नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि ढाई हजार वर्ष तक महावीर, बुद्ध या राम और कृष्ण को याद रखना पड़ता है, उसका एक ही कारण हो सकता है कि राम, बुद्ध और महावीर जैसे आदमी मुश्किल से पैदा होते हैं। गिने-चुने, कभी अंगुलियों पर गिने जा सकें। अगर दुनिया में बहुत अच्छे आदमी पैदा होंगे, तो महापुरुषों को याद रखना मुश्किल हो जाएगा। महापुरुष अति न्यून हैं, इसलिए ये याद रखे जा सकते हैं।
और ध्यान रहे, महापुरुष पैदा ही इसलिए हो पाते हैं कि चारों तरफ हीन आदमियों का जमघट है।
 स्कूल में शिक्षक लिखता है काले बोर्ड पर सफेद खड़िया से। उससे कहो न कि काली खड़िया से क्यों नहीं लिखते? या उससे कहो कि सफेद दीवाल पर क्यों नहीं लिख कर काम चला लेते सफेद खड़िया से? वह कहेगा, पागल हो गए हो, सफेद खड़िया से लिखूंगा सफेद दीवाल पर, लिख तो जाएगा, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगा। सफेद खड़िया का लिखा हुआ दिखाई पड़ता है काले ब्लैक बोर्ड पर। महापुरुष दिखाई पड़ते हैं काली मनुष्यता के बोर्ड के ऊपर, नहीं तो दिखाई नहीं पड़ेंगे। कैसे दिखाई पड़ेंगे? महापुरुष होंगे, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेंगे। अगर दुनिया अच्छी होगी, तो महावीर, बुद्ध, ऐसे लोग खो जाएंगे, इनका पता नहीं चलेगा कहां हैं। लेकिन आदमी की काली तख्ती का लंबा फैलाव है। उस ब्लैक बोर्ड पर कभी किसी महावीर के हस्ताक्षर सफेद खड़िया में हो जाते हैं। हजारों साल बीत जाते हैं और हम उन्हें देखते रहते हैं, क्योंकि वे दिखाई पड़ते हैं। और उन हस्ताक्षरों पर भी नये हस्ताक्षर करने वाले नहीं आते हैं, कि वे दब जाएं, वे दिखाई ही पड़ते रहते हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि महापुरुष इतने कम हैं कि अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक-एक महापुरुष को दो-दो चार-चार हजार साल तक याद रखना पड़ता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि महामनुष्यता नहीं है इसलिए महापुरुष पैदा होते हैं, दिखाई पड़ते हैं। महापुरुष तो पैदा होते रहेंगे, लेकिन दिखाई नहीं पड़ने चाहिए। इतनी अच्छी आदमियत को जन्म देना जरूरी है।
मैं कहता हूं, पीछे अच्छे लोग हुए हैं। अच्छा समाज आगे होगा। और अच्छे समाज पर ध्यान देना जरूरी हो गया है। अच्छे लोगों पर ध्यान देने से कुछ भी नहीं हुआ। एक आदमी अच्छा हो जाए इससे क्या होता है?
पूना में अगर पांच लाख आदमी हैं और एक आदमी स्वस्थ हो जाए, तो ठीक है, लेकिन क्या होगा? पांच लाख आदमी बीमार हैं और एक आदमी स्वस्थ है। इसका स्वास्थ्य भी पांच लाख लोगों की बीमारी में सुंदर नहीं मालूम होगा। इसका स्वस्थ होना भी एक दुर्घटना मालूम होगी, एक एक्सीडेंट मालूम होगा। होना ऐसा चाहिए कि पांच लाख लोग स्वस्थ हों, कभी कोई एकाध आदमी अस्वस्थ हो जाए। होना यह चाहिए कि दुनिया में जो बुरे आदमी पैदा हों उनका नाम हम अंगुलियों पर गिन सकें। अच्छा आदमी आम बात हो। बुरा आदमी मुश्किल हो जाए, वह कभी पैदा हो, तो हम याद रख सकें कि फलां आदमी बुरा पैदा हुआ था दो हजार साल पहले। जब तक हम अच्छे आदमियों को याद रखते हैं, तब तक समझ लेना कि समाज बुरा है। जिस दिन समाज अच्छा होगा, बुरे आदमी की याद रहेगी, अच्छे आदमी का कोई हिसाब नहीं रह सकता है। ऐसा समाज भविष्य में हो सकता है। ऐसा समाज अतीत में नहीं था। इसलिए मैं कहता हूं कि अतीत से मुक्त होकर निरंतर, निरंतर भविष्य की तरफ गति जरूरी है।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं कि भारत ने पांच हजार सालों में कुछ भी नया नहीं सोचा। तो उन्होंने एकाध-दो उदाहरण दिए कि गांधी जी ने नॉन-कोआपरेशन, असहयोग का आंदोलन नया सोचा। रामदास ने राष्ट्रधर्म की धारणा नई सोची।
फिर वे मेरी बात नहीं समझ पाए। यह ऐसा ही है कि जैसे कोई मरुस्थल में जाकर कहे कि मरुस्थल में पानी बिलकुल नहीं है और एक पागल आ जाए और वह कहे कि चलिए मैं दिखाता हूं, एक जगह छोटे से डबरे में पानी भरा हुआ है। हम गलत करते हैं आपकी बात को। एक डबरे में पानी भरा हुआ है, यह रहा। और आप कहते हैं मरुस्थल में पानी बिलकुल नहीं है। मरुस्थल में पानी बिलकुल नहीं है, इसका मतलब? इसका मतलब यह नहीं है कि मरुस्थल में कहीं दो-चार डबरे न मिल जाएंगे, जहां पानी नहीं होगा।
पांच हजार वर्षों तक भारत ने नये तरह से सोचने की प्रवृत्ति विकसित नहीं की है। इसका मतलब, यह हमारी मूलधारा है। कभी इक्का-दुक्का कोई आदमी कुछ नया सोचता है, लेकिन इससे भारतीय संस्कृति की मूलधारा पता नहीं चलती। मूलधारा हमारी पुराने को पकड़ रखने की है। जोर से पकड़ रखने की है।
कभी कोई एक गांधी कोई नई बात सोचता है, लेकिन गांधी की बात भी बहुत नई नहीं है, जितना हम सोचते हैं। सिर्फ नये संदर्भ में प्रयोग है, पर वह भी नया...। ऐसे तो गांधी की बात रस्किन, थॉरो और टाल्सटाय से ली गई है। भारतीय लोगों को यह दिमाग से खयाल बहुत छोड़ देना चाहिए कि गांधी जी भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि हैं। गांधी के तीनों गुरु अ-भारतीय हैं। थॉरो, रस्किन, टाल्सटाय, इन तीनों आदमियों से गांधी की दृष्टि का जन्म हुआ है। इन तीनों में से कोई भी भारत का नहीं है। नॉन-कोआपरेशन का, असहयोग की धारणा थॉरो से मिली।
लेकिन, ऐसे असहयोग की धारणा बहुत पुरानी है। घरों में स्त्रियां पतियों से हमेशा असहयोग करती रही हैं। असहयोग कमजोर हमेशा प्रयोग करते रहे हैं। स्त्रियां कमजोर हैं, इसलिए पुरुषों के खिलाफ असहयोग, नॉन-कोआपरेशन का हजारों साल से प्रयोग करती रही हैं। अभी भी घर में स्त्री कुछ नहीं करती तो नॉन-कोआपरेट करती है। आप कहते हैं, सिनेमा चलो, वह देर तक साड़ी पहनती रहती है, वह नॉन-कोआपरेशन है। कमजोर हमेशा से असहयोग करता रहा है। कमजोर और कर क्या सकता है? ज्यादा से ज्यादा यह कर सकता है कि आपको सहयोग न दे।
भारत कमजोर था। उस कमजोरी में भारत को गांधी की बात समझ में आ गई, असहयोग की। उसका मतलब यह मत समझ लेना कि भारत ने असहयोग की दृष्टि को स्वीकार कर लिया। भारत को अपनी कमजोरी को छिपाने का मौका मिल गया। और उस असहयोग को उसने मान लिया और चल पड़ा। कमजोर हमेशा से वही करते रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि गांधी ने कुछ नया नहीं किया। गांधी बहुत सी दृष्टियों में नये ढंग से सोचे। वह सोचना गलत हो सकता है, लेकिन फिर भी नया है। नये होने से ही कोई चीज ठीक नहीं हो जाती, यह मत समझ लेना कि मैंने कह दिया कि गांधी ने कुछ नया सोचा तो वह ठीक हो गया। नये होने से कुछ ठीक नहीं हो जाता। लेकिन फिर भी पुराने के पकड़े रहने से नया सोचना बेहतर है। नया सोचना भी गलत हो सकता है। नये सोचने में भी सैकड़ों विकल्प हो सकते हैं ठीक और गलत के।
यह मैं नहीं कह रहा हूं कि भारत में कभी ऐसे लोग ही पैदा नहीं हुए। बुद्ध ने बहुत कुछ नया सोचा, चार्वाक ने बहुत कुछ नया सोचा; नागार्जुन के पास बहुत कुछ नया है, शंकर के पास भी बहुत कुछ नया है। लेकिन भारत का जो आम दिमाग है, भारत का जो ट्रेडीशनल दिमाग है, जो मूलधारा है, जो भारत की गंगा है, उस गंगा में कभी-कभी कोई एक छोटी सी धारा थोड़ी देर को चमकती है और खो जाती है। लेकिन मूल-गंगा की जो धारा है, जो मेन स्ट्रीम है भारतीय चेतना की, वह अतीतगामी है, वह पुरातनपंथी है, वह परंपरावादी है। उसके खिलाफ मैंने बातें कही हैं। इसलिए कोई इक्के-दुक्के उदाहरण खोज कर यह मत सोचना कि मेरी बातों के विरोध में कुछ सोच लिया। डबरे बताए जा सकते हैं मरुस्थल में, लेकिन इससे मरुस्थल मरुस्थल ही रहता है। इससे मरुस्थल कुछ उद्यान सिद्ध नहीं हो जाता है।
लेकिन कई बार मुझे ऐसा लगता है कि कमजोर चित्त अपने को बचाने की न मालूम कैसी-कैसी कोशिश करता है।
अभी एक मित्र ने, रास्ते में मैं आया हूं, उन्होंने कहा कि आपने सुबह सांड का उदाहरण दिया। सांड़ तीन साल में जवान होता है और आपने कहा एक साल में। अब मुश्किल हो गई, सांडों का मैं कोई हिसाब रखता हूं। कोई वैटेनरी का डाक्टर नहीं हूं। सांडों से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। जो बात कही थी, वह क्या कही थी? वे मित्र कह रहे हैं कि सांड़ तीन साल में जवान होता है। कहा मैंने यह था कि सांड़ जब सोचेगा, तो गाय के संबंध में सोचेगा। वह उसका सोचना, वह उसके सांड़ के माइंड का सवाल है, वह तीन साल में सोचेगा तो तीन साल में सही। उतना फर्क कर लेना। लेकिन उससे कुछ मतलब ही नहीं होता, उससे कोई प्रयोजन नहीं है। ऐसी-ऐसी बातें लिख कर भेजते हैं कि मुझे हैरानी होती है कि हम सोचते हैं, सुनते हैं या क्या कर रहे हैं? जैसा हमने सोचना बंद ही कर दिया है! तो जो मूल-आधार होता है, उसकी तो बात ही भूल जाते हैं और न मालूम क्या-क्या उसमें से खोजते हैं कि यह ऐसा होगा। सांड़ तीन साल में जवान होगा! हो तीन साल में हो कि तीस साल में! और न भी हो तो कोई चिंता नहीं है। जो मैंने कहा, उससे इसका कुछ लेना-देना नहीं है। मेरा प्रयोजन कुल इतना है कि हम जो हैं वही सोचते हैं और जो हम सोचते हैं उससे पता लगता है कि हम कौन हैं?
मैं यह कह रहा था सुबह कि आदमी भी पशु है। पशुओं में भी एक पशु है। उसके चिंतन का अगर हम गौर करेंगे, तो हम पाएंगे कि वह वही है, जो पशुओं का है। वह पशुओं के ऊपर उठ सकता है, लेकिन उठ नहीं गया है। और अपने को धोखा देना खतरनाक है, कि हम अपने को मान लें कि हम पशु नहीं हैं, हम परमात्मा हैं। यह धोखा खतरनाक है।
आदमी परमात्मा हो सकता है, है नहीं। यह संभावना है, सत्य नहीं है। और संभावना को सत्य मान लेना धोखा है। संभावना को सत्य बनाने का प्रयत्न बिलकुल दूसरी बात है। और उस प्रयत्न में पहली बात यह होगी कि हम अपने तथ्य को समझें। हजारों-लाखों साल हो गए, जब आदमी जानवरों से दूर हो गया। लाखों साल हो गए, अंदाजन दस-लाख साल हुए होंगे। दस लाख साल से आदमी वृक्षों से नीचे उतर आया है, बंदर नहीं रह गया है। आज बंदर में और आदमी में कोई भी समानता नहीं है। लेकिन बहुत भीतर गौर करें तो बहुत समानताएं मिल जाएंगी। आप हैरान होंगे, दस लाख साल में भी बुनियादी आदतों में कोई अंतर नहीं पड़े हैं। अभी हम रास्ते पर चलते हैं, तो आपने देखा, दोनों हाथ हिलते हैं--बाएं के साथ दायां हाथ हिलता है, दाएं पैर के साथ बायां हाथ हिलता है। ये काहे के लिए हिल रहे हैं? चलने में इनसे कुछ मतलब है? कोई मतलब नहीं है। दस लाख साल पहले हम चारों हाथ-पैर से चलते थे, उसकी याददाश्त बाकी रह गई शरीर में। वह शरीर उसी ढंग से काम कर रहा है। वह मैकेनिकल हो गया, उसे पता ही नहीं कि अब इसकी कोई जरूरत नहीं है। आपके लोकॅमोशॅन में, आपकी गति में, हाथों के हिलाने से कोई संबंध नहीं है। दोनों हाथ काट दें, तो भी आप इतनी ही तेजी से चल सकते हैं। लेकिन दाएं पैर के साथ बायां हाथ क्यों हिल रहा है? बाएं पैर के साथ बायां हाथ क्यों नहीं हिलता? क्योंकि पशु, जो चार हाथ-पैर से चलता है, जब उसका बायां पैर आगे उठेगा तो पीछे का दायां पैर आगे उठेगा। वह दोनों के मूवमेंट का आंतरिक संबंध है। दस लाख साल से हम नहीं चले चार-हाथ पैर से, लेकिन हाथ की आदत वही है। वह हाथ की आदत बताती है कि हमारा पूर्वज कभी न कभी चारों हाथ-पैर से चलता रहा है।
अगर हम आदमी के भीतर खोज-बीन करें तो पता चलेगा कि उसके भीतर पशु मौजूद है और उस पशु को पहचानना जरूरी है, ताकि हम उसे बदल सकें। जिसे भी हम जान लेते हैं, उसे हमें बदलने का हक मिल जाता है। जिसे हम नहीं जान पाते हैं, हम उसके हाथ में खिलौने होते हैं। अज्ञान के हाथ में हम खिलौने हैं।
यह बिजली जल रही है। यही तीन हजार साल पहले वेद का ऋषि हाथ जोड़े इंद्र भगवान से कह रहा था कि हे भगवान, नाराज मत होना, बिजली मत चमकाना! आज का स्कूल का छोटा बच्चा भी यह नहीं कहेगा कि इंद्र भगवान बिजली मत चमकाना। आज का छोटा सा बच्चा भी जानता है, बिजली क्यों चमकती है। इसमें इंद्र भगवान का कोई भी कसूर नहीं है। उनका हाथ ही नहीं है बेचारों का। सच तो यह है कि वे है ही नहीं, तो उनका हाथ हो ही नहीं सकता। बिजली चमकती थी, हम डरते थे, क्योंकि अनजान थी बिजली, पहचान नहीं थी उससे कुछ। हमारे प्राणों को कंपा देती थी। कभी गिरती थी; वृक्ष जल जाता था, आदमी मर जाता था। हम डरते थे, घबड़ाते थे। सोचते थे, इंद्र सजा दे रहा है।
अब हमने बिजली को कैद कर लिया, हमने बिजली के राज को जान लिया। अब इंद्र भगवान पानी की टंकी चला रहे हैं, इंद्र भगवान घर में पंखा चला रहे हैं। अब इंद्र भगवान से कहो कि जरा पंखा ठीक से चलाना? कोई नहीं कहेगा, क्योंकि पंखे की जो राज है, बिजली, वह हम जानते हैं। ज्ञान ने हमें बिजली का मालिक बना दिया।
आदमी अपने भीतर के संबंध में जब तक अज्ञान में है, तब तक अपना मालिक नहीं हो सकता। विज्ञान ने हमें प्रकृति का मालिक बना दिया, धर्म हमें अपना मालिक बनाता है। लेकिन अपना मालिक कोई भी ज्ञान के बिना नहीं बनता। अज्ञान में कोई कभी मालिक नहीं बन सकता है। और हम अपने संबंध में अज्ञान में हैं। और बड़े से बड़े अज्ञान ऐसे हैं कि उन्हें हम उघाड़ना भी नहीं चाहते, क्योंकि डर लगता है कि कहीं हमारे भीतर का असली आदमी प्रकट न हो जाए।
असली आदमी हमारा पशु है। हां, उस पशु को जान कर रूपांतरित किया जा सकता है। और हम ऐसी सीमाएं छू सकते हैं जिनकी कल्पना भी नहीं है। हम ऐसे वृक्ष देख सकते हैं, जो कभी नहीं देखे गए हैं। हम वहां पहुंच सकते हैं, जहां कभी कोई नहीं पहुंचा। हम वह जान सकते हैं, जो कभी नहीं जाना गया। हम उसे पा सकते हैं, जिसे पा लेने पर सब पा लिया जाता है।
लेकिन, उस यात्रा को करना तो हमें पड़ेगा। और हम अगर अपने ही प्रति अज्ञानी हैं तो यह नहीं हो सकता है। इसलिए मैंने वह बात कही।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि धर्मों ने दुनिया को लड़ाया। और आदमी को वैज्ञानिक होना चाहिए। लेकिन अब तो साइंस दुनिया को लड़ा रही है। एटम बम, हाइड्रोजन बम बना रही है।
उन मित्र को मैं कहना चाहूंगा, साइंस दुनिया को नहीं लड़ा रही है। एटम तो जरूर साइंस बना रही है, लेकिन साइंस यह नहीं कह रही है कि एटम को जाकर हिरोशिमा पर पटको। ये बेवकूफ राजनीतिज्ञ कर रहे हैं। विज्ञान तो सिर्फ शक्ति खोज रहा है और नासमझ राजनीतिज्ञों के हाथ में शक्ति दे रहे हैं आप। राजनीतिज्ञ लड़ा रहा है। धर्मों ने लड़ाया, राजनीति लड़ा रही है। विज्ञान तो एक कर रहा है। इस वक्त दुनिया में वैज्ञानिकों की कम्युनिटी ही अकेली एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय संप्रदाय है, एकमात्र। जापान में एक वैज्ञानिक कुछ खोजता है, वह भारत के वैज्ञानिक की संपत्ति हो जाती है। अमेरिका में एक वैज्ञानिक कुछ खोजता है, वह फ्रांस के वैज्ञानिक की संपत्ति हो जाती है। सिर्फ रूस और चीन के मामले में झंझट हो गई है, क्योंकि उन्होंने लोहे की दीवालें खड़ी कर रखी हैं। उनका वैज्ञानिक क्या खोजता है, वे बड़ी मुश्किल से पता चलने देते हैं।
यह जो विज्ञान है, वह तो जोड़ रहा है सबको। लेकिन राजनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ नहीं जोड़ना चाहता। क्यों? क्योंकि राजनीतिज्ञ की सारी ताकत लोगों के लड़ने पर निर्भर है। अगर आप लड़ते हैं, तो राजनीतिज्ञ मालिक रहेगा। अगर आप नहीं लड़ते हैं, तो राजनीतिज्ञ बेकार हो जाएगा। इसलिए राजनीतिज्ञ सीमाएं बनाता है--हिंदुस्तान की, पाकिस्तान की, चीन की, बर्मा की, रूस की, अमेरिका की। ये सीमाएं कहीं भी पृथ्वी पर नहीं हैं। और ये सीमाएं कोई वैज्ञानिक नहीं खींचता, ये सीमाएं पहले धर्मों ने खींची हैं, अब राजनीतिज्ञ खींच रहा है। और ये सीमाएं वह क्यों खींच रहा है? क्योंकि जब वह आपको सीमाओं में बांट देता है और जब वह दो सीमाओं में बंटे हुए लोगों को लड़ने के लिए राजी कर लेता है, तब वह मालिक हो जाता है। जब आप लड़ते हैं, तब आपको नेता चुनना पड़ता है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: नेता बनने के लिए खतरा पैदा करना जरूरी है। अगर हिंदुस्तान में नेता बनना हो, खबर पैदा करो कि चीन का खतरा है! जिन्ना को नेता बनना है, खबर करो कि इस्लाम पर खतरा है! हिंदुओं को इकट्ठा करना है, तो गोलवेल्कर से सीक्रेट पूछो कि क्या है सीक्रेट! वह सीक्रेट यह है कि हिंदू-धर्म नष्ट हो रहा है, हिंदू-धर्म खतरे में हैं। इकट्ठे हो जाओ। दुश्मन चारों तरफ इकट्ठे हैं। दुश्मन इकट्ठे हैं। दुश्मन कौन बना रहा है? और वे जो दुश्मन इकट्ठे हैं, हिंदुस्तान का नेता कह रहा है कि इकट्ठे रहो, क्योंकि पाकिस्तान का डर है। पाकिस्तान का नेता पाकिस्तान की गरीब जनता को कह रहा है, इकट्ठे रहो, क्योंकि हिंदुस्तान का डर है। लेकिन डर किसका है? जब दोनों डरे हुए हो, छोड़ दो डर, खत्म। लेकिन राजनीतिज्ञ मर जाएगा, अगर डर छोड़ दे। कौन मानेगा नेता? दुनिया को भयभीत रखना जरूरी है। बांट कर खंड-खंड में रखना जरूरी है। जब तक दुनिया बंटी है, तब तक राजनीतिज्ञ मालिक रहेगा।
दुनिया को राजनीतिज्ञ लड़ा रहा है। राजनीति नहीं लड़ा रही है। राजनीति नये तरह के धर्म पैदा कर दिए हैं उसने। पुराने धर्मों के नाम थे--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन। ये पुराने धर्मों के नाम हैं। सच में पूछिए तो ये पुरानी पॉलिटिक्स के नाम हैं, पुरानी राजनीति के। नई राजनीति के नाम हैं--कम्युनिज्म, सोशलिज्म, कैपिटलिज्म, डेमोक्रेसी। ये नये धर्म हैं, नई राजनीति है। इनके भी मक्का-मदीना हैं। इनके भी पोप, जगतगुरु हैं। वह कम्युनिस्ट क्रेमलिन की तरफ उसी तरह देखता है, जैसे हिंदू काशी की तरफ देखता है, मुसलमान मक्का की तरफ देखता है। क्रेमलिन पर चमकता हुआ रेड स्टार वही मतलब रखता है, जो काशी में विश्वनाथ के मंदिर के ऊपर का झंडा रखता है। दिमाग वही है, नये ढंग से आदमी को फिर बांट दिया गया है।
विज्ञान ने तो मौका पैदा किया है कि आदमी को बांटने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि विज्ञान ने वे खोजें की हैं, अब विज्ञान कहता है कि अगर एक शूद्र की और एक ब्राह्मण की हड्डी निकाली जाए, तो दोनों में कोई फर्क नहीं है। और बड़े से बड़ा खोज करने वाला वेद का ज्ञाता भी नहीं बता सकता कि यह हड्डी ब्राह्मण की है और यह शूद्र की है। कि बता सकता है? कोई रास्ता नहीं है। हड्डियां एक सी हैं। और जब एलोपैथ डाक्टर के पास एक शूद्र जाता है, तो वह यह नहीं कहता कि तुझे, तुझे दूसरी दवा कारगर होगी। ब्राह्मण के लिए है यह, यह जो पैनिसिलिन है, यह शुद्ध ब्राह्मणों के लिए है, तेरे लिए कोई शूद्र पैनिसिलिन खोजनी पड़ेगी, वह अभी है नहीं? वह दोनों को लगा देता है। और बड़े मजे की बात है कि पैनिसिलिन बड़ी नासमझ है, वह दोनों को ठीक कर देती है, ब्राह्मण को भी शूद्र को भी। कोई फर्क नहीं करती।
दुनिया के बड़े-बड़े संत हार गए, थक गए चिल्ला-चिल्ला कर कि सब एक हैं। शूद्र भाई है, फलां-ढिकां। और संतों-वंतों की किसी ने नहीं सुनी। रेलगाड़ी चली, और ब्राह्मण बैठा है, उसके बगल में शूद्र बैठ कर सिगरेट पी रहा है। ब्राह्मण बेचारा अपना खाना खा रहा है, और बगल में शूद्र बैठा है। कुछ पता नहीं चल रहा कि कौन कौन है, क्योंकि रेलगाड़ी में हजार आदमी बैठे हैं। रेलगाड़ी ने ब्राह्मण को, शूद्र को पास बिठा दिया, जो हजारों संत नहीं कर सके। रेलगाड़ी महा संत है। रेलगाड़ी को नमस्कार करना चाहिए कि धन्य है तू जिसने ब्राह्मण और शूद्र को साथ-साथ बिठा दिया। अगर आदमी पैदल चलता रहता, बैलगाड़ी में चलता रहता, तो शूद्र और ब्राह्मण कभी पास नहीं बैठ सकते।
यूरी गागरिन पहली दफा जब अंतरिक्ष में गया, तो वहां से जो उसने मैसेज भेजी, उसका पता है, उसने क्या कहा? उसने कहा, यहां आकर पहली दफा मुझे लग रहा है, माई अर्थ, मेरी पृथ्वी। यहां से मुझे ऐसा नहीं लगता, मेरा रूस। वहां रूस दिखता ही नहीं। अंतरिक्ष में दिखता है पृथ्वी। वहां न कोई रूस है, न कोई चीन है, न कोई भारत है। उसने यह नहीं कहा वहां से, माई रसिया। यूरी गागरिन ने कहा, कहां है रूस? यहां से तो सिर्फ पृथ्वी दिखाई पड़ती है, मेरी पृथ्वी। अगर चांद की यात्रा शुरू हो गई, और चांद पर आप गए; समझ लें मंगल पर गए, और मंगल पर अगर निवास करने वाले लोग हुए और उन्होंने पूछा, कहां से आते हैं? तो आपको कहना पड़ेगा, पृथ्वी से। यह नहीं कि महाराष्ट्र से आ रहे हैं। वह मंगल का आदमी महाराष्ट्र का कोई मतलब नहीं समझ पाएगा। अगर हमें चांद पर पहुंचा दिया विज्ञान ने, तो पृथ्वी एक हो जाएगी। धारणा बदल जाएगी, दृष्टि बदल जाएगी।
विज्ञान ने इतने जोर का कम्युनिकेशन के साधन पैदा किए हैं कि आज एक हिंदू लड़का अमेरिका में जाकर शादी कर सकता है, अमरीकी लड़की भारत आकर शादी कर सकती है। कितना सुंदर और सुखद है। अगर सारी दुनिया के बच्चे दूर-दूर शादी कर लेंगे, तो दुनिया में युद्ध होना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अगर युद्ध जारी रखना है, अपनी ही जाति में शादी करना। अगर युद्ध मिटाना है, जाति में भूल कर शादी मत करना। क्योंकि जितने हमारे संबंध दूसरी जातियों में फैल जाते हैं, उतने दूसरी जातियों से हमारा खून जुड़ जाता है, हम एक हो जाते हैं।
दुनिया के पुराने धर्मों ने सिखाया, अपनी जाति के बाहर मत जाना! यह लड़ाई का अड्डा है। अगर हिंदुस्तान में एक-दूसरी जाति में विवाह होता रहता, तो संतों-वंतों को समझाने की कोई जरूरत नहीं थी। सब एक अपने आप ही होते। हिंदुस्तान इतना टूटा हुआ है, उसका कारण यह है कि सब अपने-अपने घेरे में विवाह कर रहे हैं। घेरे के बाहर कोई संबंध ही पैदा नहीं हो पाता। घेरे के बाहर प्रेम के बढ़ने का कोई उपाय नहीं है।
विज्ञान ने सब सीमाएं तोड़ दी हैं। आने वाले पचास वर्षों में बची-खुची सीमाएं टूट जाएंगी और दुनिया एक हो सकेगी। लेकिन राजनीतिज्ञ बाधा डाल रहा है। राजनीतिज्ञ, जैसे पहले धार्मिक लोगों ने बाधा डाली थी, विज्ञान को नहीं बढ़ने दिया था, क्योंकि धर्म के लोगों को डर लगा कि अगर विज्ञान बढ़ेगा तो धर्म की जो कपोल कल्पनाएं, पोप लीलाएं, मूढ़तापूर्ण कथाएं हैं, वे सब मिट्टी हो जाएंगी। वे सब मिट्टी हो गईं। तो धार्मिक गुरु डरा, उसने कहा कि विज्ञान नहीं बढ़ना चाहिए, क्योंकि हमने जो जाल फैला रखा है, वह सब टूट जाएगा।
लेकिन सत्य को ज्यादा देर तक नहीं रोका जा सकता। सत्य विज्ञान के पक्ष में था। धर्मों को हार जाना पड़ा, विज्ञान जीता। अब राजनीतिज्ञ विज्ञान में बाधा डाल रहा है, क्योंकि अब विज्ञान एक दुनिया, वन वर्ल्ड पैदा कर रहा है, और राजनीतिज्ञ को लग रहा है कि मेरी राजनीति गई। तो अब राजनीतिज्ञ कह रहा है कि यह तो बड़ा मुश्किल है। राजनीति नहीं जानी चाहिए। धर्मगुरु चला गया, अब राजगुरु के जाने का मौका आ रहा है। विज्ञान के खिलाफ वह अड?गे डाल रहा है। लेकिन वह भी नहीं जीतेगा। पक्ष फिर विज्ञान के पक्ष में है। सत्य फिर विज्ञान के साथ है। विज्ञान का अर्थ ही है: सत्य की खोज। और सत्य जीतता चला जाएगा। इसलिए यह मत कहिए कि विज्ञान लड़ा रहा है।
एटम बनाया है विज्ञान ने यह सच है, अणु शक्ति खोजी है। लेकिन अणु शक्ति से आप आदमियों को मारें, यह किस वैज्ञानिक ने कहा है? शायद आपको पता न होगा, सारे दुनिया के पांच हजार वैज्ञानिकों ने दस्तखत करके यू.एन.ओ. को दिए हैं कि हम जो शक्तियां खोज रहे हैं, वह इसलिए नहीं खोज रहे हैं कि उनके द्वारा हत्या की जाए। लेकिन उनकी कौन सुनता है? हिरोशिमा पर एटम बम गिरा, तो सारे दुनिया के वैज्ञानिकों की बुद्धि चौंक गई, उनकी समझ में नहीं आया कि हमने इसलिए बनाया था कि एक लाख आदमी मर जाएगा कुछ घड़ी में?
अणु की शक्ति तो इतनी सृजनात्मक है कि अगर अणु की शक्ति खेतों में उपयोग की गई, कारखानों में उपयोग की गई, तो दुनिया से दरिद्रता हमेशा के लिए मिट जाएगी। और जैसा हम सुनते हैं कि देवता तरसते हैं पृथ्वी पर पैदा होने को, अब तक तो नहीं तरसे, लेकिन अगर अणु शक्ति का प्रयोग हुआ तो देवता अर्जी लगा कर, क्यू लगा कर खड़े हो जाएंगे कि हमको पृथ्वी पर पैदा होना है।
लेकिन राजनीतिज्ञ विज्ञान जो शक्ति पैदा कर रहा है उसका समुचित सृजनात्मक, क्रिएटिव उपयोग नहीं होने देना चाहता। क्योंकि राजनीति मूलतः हिंसा पर खड़ी है। हिंसा ही राजनीति है। तो वह हिंसक राजनीतिज्ञ का क्या होगा? वह बाधा डाल रहा है, विज्ञान बाधा नहीं डाल रहा है।
इसलिए दुनिया को धर्मों से मुक्त होने की जरूरत है, और राजनीतिज्ञों से भी, ताकि जीवन की सारी चिंतना धीरे-धीरे-धीरे-धीरे वैज्ञानिक होती चली जाए, और हम जीवन को सुंदर से सुंदर बनाने में समर्थ हो सकें। यह हो सकता है। यह इसके पहले कभी नहीं हो सकता। और अगर यह नहीं हुआ तो राजनीतिज्ञ सारी दुनिया की हत्या का कारण बन जाएंगे। सारी दुनिया की हत्या का कारण वे बनेंगे।
आज हम समुद्र से भोजन निकाल सकते हैं और समुद्र में इतना भोजन पड़ा है, कि अभी जमीन की आबादी साढ़े तीन अरब है, अगर जमीन की आबादी तीन सौ अरब भी हो जाए तो किसी आदमी को भूखा मरने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन साढ़े तीन अरब में ही हम भूखे मरने शुरू हो गए हैं। आधी दुनिया भूखी मर रही है। क्योंकि आणविक शक्ति का समुद्रों में प्रयोग करके समुद्र से भोजन निकाला जा सकता है। वह भोजन निकाले कौन? हमें तो एटम बम बनाना है, पड़ोसी पर डालने को! पड़ोसी को भी एटम बम बनाना है, हम पर डालने को! पड़ोसी भी भूखा मर रहा है, हम भी भूखे मर रहे हैं। और दोनों के नासमझ राजनीतिज्ञ, दोनों को बरगला रहे हैं और धोखा दे रहे हैं कि लड़ने में तुम्हारा हित है। लड़ने में किसी का भी हित नहीं है। किसी का भी हित नहीं है, नक्शों पर लकीरें बदल जाने में किसी का भी हित नहीं है। लेकिन बड़े मजे की बात है, चीन और हिंदुस्तान लड़े, समझ में आता है। महाराष्ट्र और मैसूर भी लड़ते हैं, तब सिर ठोंक लेने का मन होता है कि हद हो गई!
पागलों के हाथ में सारा का सारा मामला मालूम होता है। अगर दुनिया में कोई ताकत उतर आए और सारी राजधानियों के राजनीतिज्ञों को पकड़ ले और पागलखानों में डाल दे, तो दुनिया आज शांत हो जाए, अभी शांत हो जाए। सारे पागल राजधानियों में इकट्ठे हो गए हैं और उन्होंने सारी दुनिया को मैड हाउस बना दिया है।
अब जहां आज मिसाइल्स रखे हुए हैं रूस ने और अमेरिका ने, एक चाबी एक आदमी घुमा दे और सब गड़बड़ हो जाए। तो एक-एक मिसाइल की चाबी तीनत्तीन आदमियों को दी हुई है। जब तीन आदमी चाबी लगाएं, तब मिसाइल चल सकता है, अणु बम फेंका जा सकता है। क्योंकि खतरा है, एक आदमी का झगड़ा हो जाए पत्नी से, और वह गुस्से में आ जाए, और गुस्से में आदमी को क्या नहीं सूझता, सोचता है, खत्म करो! और एक आदमी का अपनी पत्नी से झगड़ा हो गया, वह मिसाइल पर लादे एटम या हाइड्रोजन बम फेंक दे न्यूयार्क पर या मास्को पर, तो आग लग जाए, सारी दुनिया इसी वक्त बर्बाद हो जाए। तो तीनत्तीन आदमियों को चाबी दी है। लेकिन तीन आदमी सांठ-गांठ कर लें तो? या तीन आदमियों का दिमाग खराब हो जाए? हजारों आदमियों का एक साथ दिमाग खराब हो जाता है तीन की क्या बात है?
हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ तो हमने नहीं देखा कि हजारों आदमी एक साथ पागल हो गए। तीन आदमी का दिमाग खराब नहीं हो सकता है? तीन आदमी जरा ज्यादा शराब पी जाएं? आज दुनिया में कोई पचास हजार उदजन बम इकट्ठे हैं और इन इकट्ठे उदजन बमों से कितना बड़ा खतरा पैदा हो सकता है, इतनी आग कि इस तरह की सात पृथ्वीयां जल कर नष्ट हो जाएं। इस खतरे पर हम बैठे हैं और राजनीतिज्ञों के हाथ में ताकत है। और आप पूछते हैं कि विज्ञान खतरा ला रहा है? विज्ञान खतरा नहीं ला रहा है। विज्ञान सिर्फ ताकत ला रहा है। ताकत गलत लोगों के हाथ में पड़ जाती है, तो खतरा शुरू हो जाता है।
ताकत तो शुभ है, या कहना चाहिए, ताकत न शुभ है, न अशुभ है। ताकत के उपयोग पर निर्भर करता है कि हम क्या उपयोग करते हैं। लेकिन हमारा चिंतन अगर वैज्ञानिक न हो तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है। एक आदमी यहां आकर खड़ा हो कर कह देता है कि हिंदू-मुस्लिम दंगा हो गया, और हम लड़ना शुरू कर देते हैं। कोई भी नहीं पूछता कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है? कैसे पता चला कि मैं हिंदू हूं? कुछ मालूम नहीं है, कहीं लिखा हुआ नहीं है। भगवान के यहां से कोई सर्टिफिकेट लेकर नहीं आता कि यह हिंदू है। कहीं चमड़ी पर खुदा हुआ नहीं है कि यह हिंदू है। सिर्फ बचपन से सिखाया गया इस आदमी को कि तू हिंदू है, तू हिंदू है, तू हिंदू है, वह बेचारा चिल्ला रहा है कि मैं हिंदू हूं! फलां को सिखाया कि तू मुसलमान है, वह चिल्ला रहा है, मैं मुसलमान हूं! ये दो शब्द सिखा दिए, और ये दो शब्द एक-दूसरे की छाती में छुरा भौंक देंगे! कैसा पागलपन है? दो शब्दों की शिक्षा कि मैं हिंदू हूं, और एक आदमी मुसलमान है, और छुरे चल जाएंगे, और एक-दूसरे की छाती में घुस जाएंगे! और धर्म गुरु कहेगा, घबड़ाओ मत, धर्म के जेहाद में जो मरता है, वह स्वर्ग जाता है! धर्म का जेहाद हो सकता है? धर्म के जेहाद में जो-जो मरेंगे, अगर कहीं नर्क है, तो उस नर्क से कभी नहीं छूट सकते। क्योंकि धर्म का जेहाद नहीं हो सकता। धर्म का? क्या हिंसा हो सकती है धर्म से? धर्म से युद्ध हो सकता है? तो फिर अधर्म से क्या होगा?
राजनीतिज्ञ और धर्मगुरु ने पीड़ित किया है जगत को। इसलिए मैंने इन तीन दिनों में कहा कि हमारे पास एक साइंटिफिक एटिटयूड, सोचने का एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना जरूरी है।
एक-दो छोटे प्रश्न और हैं, फिर मैं अपनी बात पूरी करूं।
एक मित्र ने पूछा है कि आप डिस्ट्रक्शन पर, विध्वंस पर बहुत जोर देते हैं। कंस्ट्रक्शन पर इतना जोर क्यों नहीं देते, निर्माण पर इतना जोर क्यों नहीं देते?
पहली तो बात यह, एक आदमी बीमार पड़ा हो, पैर सड़ गया हो और वह सर्जन के पास जाए और सर्जन कहे, पैर काटना पड़ेगा। वह आदमी कहे, विध्वंस की क्यों बातें करते हैं, निर्माण की बात करिए, कंस्ट्रक्शन की बात करिए। तो वह सर्जन कहेगा, तो जाइए, लेकिन कल तक, जब तक आएंगे, तब तक दोनों पैर काटना पड़ेंगे, और अगर परसों तक आए, तो फिर बचना मुश्किल है।
समाज सड़ गया है, सब अंग सड़ गए हैं, और आप कह रहे हैं रचनात्मक? वे जितने लोग रचनात्मक कार्यक्रम चला रहे हैं, वे सब इसी सड़े-गले समाज को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। थेगड़े लगा रहे हैं इसी समाज को। मकान गिरने के करीब है, सब दब कर मर जाएंगे उसमें। वे इसी में बल्लियां लगा रहे हैं, पलस्तर बदल रहे हैं, बोर्ड पेंट कर रहे हैं, दरवाजों पर नया रंग-रोगन कर रहे हैं। कंस्ट्रक्टिव वर्क कर रहे हैं, रचनात्मक कार्यक्रम कर रहे हैं। सर्वोदय का आंदोलन चला रहे हैं। उसी समाज में, जो सड़ गया है!
उस सड़े समाज में जो भी रचना का काम कर रहा है, वह उस सड़े समाज को बचाने की कोशिश कर रहा है, वह उसको जिलाए रखने की कोशिश कर रहा है। वे मरे-मरे आदमी को आक्सीजन पीला रहे हैं कि किसी तरह बच जाए। क्यों? इतना बचाने का मोह क्या है? जो मर गया है, उसे मर जाने दो। नया सदा जिंदा होने को है। नया सदा पैदा होता है। पुराने पत्ते गिरते हैं पतझड़ में, वृक्ष चिल्ला कर नहीं कहते कि हे परमात्मा, यह क्या विध्वंस कर रहे हो, सब पुराने पत्ते गिराए दे रहे हो, हम बिलकुल नंगे हो जाएंगे। नहीं, वृक्ष नहीं कहते। वृक्षों की अपनी विज़डम है, अपना ज्ञान है। वे जानते हैं कि जो पुराने पत्ते गिरे, उन्हीं जगह से नये पत्ते निकल आएंगे। पुराने का विध्वंस होना जरूरी है, ताकि नये का जन्म हो।
और ध्यान रहे, विध्वंस सृजन की प्रक्रिया का पहला चरण है। विध्वंस विध्वंस ही नहीं है। विध्वंस के बिना सृजन ही नहीं होता। विध्वंस बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तोड़ डालो, क्योंकि तोड़ने में बहुत मजा आता है। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि तोड़ो ताकि बनाया जा सके। लेकिन बनाने के पहले इस सड़े-गले को तोड़ना जरूरी हो गया।
इस पर क्यों जोर दे रहा हूं? इस पर जोर इसलिए दे रहा हूं कि इसे हम तोड़ने को राजी हो जाएं, तो फिर बनाने का भी विचार किया जाए। लेकिन आप कहते हैं, तोड़ने की बात मत करिए, बनाने के संबंध में कुछ समझाइए? और आपको बनाने के संबंध में समझाया जाए, तो आप इसी सड़े-गले समाज में बनाने की कोशिश करेंगे। और अब यह समाज आमूल जड़ से सड़ गया है, इसे उखाड़ना जरूरी है।
लेकिन हमें विध्वंस से बड़ा डर लगता है। जिसने पूछा है, उन्होंने बड़े भय से पूछा, लगता है। उन्होंने पूछा, विध्वंस ही विध्वंस, तोड़ो ही तोड़ो, बहुत डर लगता है। इतना डर क्या है तोड़ने से? क्या बनाने की ताकत बिलकुल नहीं बची है, कि तोड़ने से इतना डर पैदा होता है? बनाने की ताकत हो, तोड़ने से कोई डर नहीं है। यह बात जरूर है कि तोड़ने के लिए तोड़ने का कोई मतलब नहीं है।
मैं नहीं कहता कि तोड़ने के लिए तोड़ो, डिस्ट्रक्शन फॉर डिस्ट्रक्शंस सेक, यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, डिस्ट्रक्शन फॉर क्रिएशंस सेक, विध्वंस सृजन के लिए। और निर्माण की बात मैं नहीं कह रहा हूं, मैं बात कह रहा हूं सृजन की। कंस्ट्रक्शन और क्रिएशन में फर्क खयाल है आपको? सृजन में और निर्माण में क्या फर्क है? निर्माण पुराने का ही लीप-पोत कर बनाया हुआ ढोंग-धतूरा होता है। सृजन नये का जन्म है। निर्माण ऐसे है, जैसे एक बूढ़े आदमी की एक टांग टूट गई तो लकड़ी की टांग लगा दी, एक आंख फूट गई तो पत्थर की आंख लगा दी, एक हाथ उखड़ गया तो एक नकली हाथ लगा दिया, दांत निकल गए तो नकली दांत लगा दिए। यह निर्माण है। यह रचनात्मक कार्यक्रम है। सृजनात्मक का मतलब है कि बूढ़ा अब विदा होने के करीब आ गया, उसे प्रेम से विदा कर दो। दुनिया में नये बच्चों के लिए जगह बनाओ। आने दो, नया बच्चा भगवान देने को तैयार है। सृजन का मतलब है: नया और निर्माण का मतलब है: वही पुराना।
लेकिन कुछ लोग होते हैं, मैंने सुना है, एक आदमी ने शादी की। बड़ी उम्र में शादी की, चालीस साल का हो गया, तब शादी की। बहुत दिन तक लोगों ने देखा कि अब शादी का निमंत्रण मिलेगा, अब मिलेगा। मिला ही नहीं, फिर लोग भूल ही गए कि अब शायद नहीं मिलेगा। चालीस साल में निमंत्रण मिला। लोग बड़े चौंके! एक मित्र नहीं जा पाया शादी में। महीने भर बाद एक होटल से दूल्हा और दुल्हन बाहर निकलते थे। वह मित्र नहीं जा पाया था, उससे क्षमा मांगने के लिए रुका। लेकिन दुल्हन को देख कर तो वह बहुत हैरान हो गया! सब बाल नकली थे। आंख एक पत्थर की थी। जरा सा मसल हिलती थी तो दांत खड़खड़ाते थे, सब नकली थे। एक टांग लकड़ी की थी, एक हाथ था ही नहीं। उसने कहा, मेरे भगवान! इससे शादी की है तुमने? इस मरी हुई स्त्री से तुमने शादी की है? उस आदमी ने खिलखिला कर हंस कर कहा, घबड़ाओ मत, जोर से बोलो, बेफिक्री से, शी इज़ डेफ टू, वह बहरी भी है, तुम घबराओ मत, यह उसे नहीं सुनाई पड़ता।
यह आदमी बड़ा रचनात्मक दृष्टि का रहा होगा। यह जो दुल्हन लाए हैं, बड़ी कंस्ट्रक्टिव है। इस मुल्क में ऐसे कंस्ट्रक्शन करने वाले बहुत लोग हैं। वे कहते हैं, पुराने को टीम-टाम, ठीक-ठाक करके, फिर लीप-पोत कर खड़ा कर दो। लेकिन नये के सृजन की हिम्मत हमने खो दी है। नये का सृजन करना हो तो पुराने का विध्वंस करना जरूरी है। पुराने को जाने दें; नया आ सके, जगह खाली हो।
हिरोशिमा पर, नागासाकी पर एटम बम गिरा, तो लोग सोचते थे, अब हिरोशिमा और नागासाकी कभी भी पनप नहीं सकेंगे। सब बंजर हो गया, सब जमीन से मिल गए मकान, सब दरख्त टूट गए, सब बदल गया, सब खत्म हो गया, वीरान हो गया। लेकिन जाओ--अभी मेरे मित्र लौटे जापान से, वे कहने लगे, मैं दंग रह गया। हिरोशिमा देखा, बिलकुल नया हो गया। और हिरोशिमा के लोग कहते हैं कि बड़ी कृपा रही कि एटम हम पर ही गिरा, दूसरे नगर पर नहीं गिरा। सब पुराना खत्म हो गया। पुराने झोपड़े, मकान, पुराना सब खत्म हो गया। एकदम सब नया बन सका।
वहां जर्मनी में इतना विध्वंस हुआ--युद्ध से गुजरे, पहले महायुद्ध से गुजरे। लोग सोचते थे, अब सौ वर्ष लग जाएंगे जर्मनी को लड़ने के लिए तैयार होने में। वह पंद्रह साल में फिर तैयार हो गया। फिर दूसरे महायुद्ध में कितना भयंकर विध्वंस हुआ। दुनिया की सारी ताकतें लग कर जर्मनी को रौंद डाली। आज जाकर जर्मनी को देखें, वह फिर नया हो गया। और हिंदुस्तान में पता है, युद्ध कब से नहीं हुआ। महाभारत के बाद नहीं हुआ। पांच हजार साल कम से कम, और महाभारत का भी हुआ कि नहीं, कहना बहुत कठिन है। उससे जो विध्वंस हो गया महाभारत के युद्ध से, वह अभी तक पूरा नहीं हो पाया। अभी भी जाएं पूना में, खोजें गली-कूचे में, वह मकान मिल जाएगा जो महाभारत के जमाने में बना होगा, जिसमें कौरव-पांडव ठहरे होंगे। जरूर मिल जाएगी वह जगह जहां रामचंद्र जी निकले होंगे। और जहां सीता जी ठहरी हुई होंगी जिस झाड़ के नीचे, वह जरूर पूना में होगा। सब जगह हैं वे। वे मिटते ही नहीं। कोई विध्वंस नहीं हुआ इस मुल्क में, तो भी यह सड़ा हुआ जी रहा है। और बहुत इकट्ठा हो गया कचरा। मैं यह नहीं कहता हूं कि युद्ध हो जाए। मैं यह कहता हूं, हमें खुद ही हिम्मत जुटानी चाहिए पुराने को जाने देने की। और पुराने को जाने देंगे तो नये को बनाना ही पड़ेगा, क्योंकि बिना बनाए हम नहीं रह सकते। एक बार पुराने को जाने देने का साहस जब इकट्ठा कर लेती है कौम, तो नये को बनाने में लग जाती है।
आपको शायद अंदाज न हो, इस समय पृथ्वी पर जिन दो मुल्कों में अदभुत प्रगति हुए है, जैसी कभी नहीं हुई थी। उन दोनों मुल्कों की प्रगति का कारण आपको पता है? रूस ने उन्नीस सौ सत्रह में पुराने को विदा दे दी, नमस्कार कर ली। और कोई कारण नहीं है रूस की प्रगति का। पचास साल में रूस में इतनी प्रगति हुई है, जितनी हम जैसे लोग पांच हजार साल में नहीं कर सकते। पचास साल में रूस क्या से क्या हो गया। लेकिन क्या किया रूस ने? राज क्या है? सीक्रेट क्या है? सीक्रेट यह है कि उन्नीस सौ सत्रह की तारीख में कसम खाकर उन्होंने पीछे को नमस्कार कर लिया कि तुम पीछे, हम आगे जाते हैं। अब हमें क्षमा करो, अब हमारे ऊपर सिर पर मत सवार रहो। अमेरिका ने इतनी प्रगति क्यों की, आपको पता है? अमेरिका नया मुल्क है। उसके पास कोई पुराना अतीत नहीं है। उसकी उम्र ही केवल तीन सौ साल की है। तीन सौ साल कुल उनकी सभ्यता की उम्र है। उसके पास पुराना कुछ है ही नहीं। कोई इतिहास जैसी चीज नहीं है। कोई अतीत नहीं है। इसलिए अमरीका ने आकाश छू लिया। संपत्ति का इतना निर्माण हुआ, जैसा कभी न हुआ। शक्ति इस तरह फूटी, जिस तरह कभी नहीं फूटी। आज सारी दुनिया को भोजन दे रहे हैं।
एक हम हैं, पांच हजार साल से सिवाय खेती के और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मुल्क के नब्बे आदमी सौ में से खेती में लगे हैं। बाकी दस में से आठ भी वह खेती में जो लगे हैं, वे उनकी चीजें लाने, ले जाने की दलाली कर रहे हैं। सारा मुल्क पांच हजार साल से खेती कर रहा है और जब देखो तब हाथ जोड़े खड़ा है कि अकाल पड़ गया, भूख हो गई, फलांना हो गया। और अब तो बीस साल से हम युनिवर्सल बैगिंग कर रहे हैं, खड़े हैं सारी दुनिया के सामने भिखारी बने हुए, हमको भीख दो। और जिनसे भीख मांग रहे हैं, उनको गाली दे रहे हैं कि तुम, तुम मैटीरियलिस्ट हो, हम स्प्रिचुअलिस्ट हैं! क्योंकि हम पैदा करते, हम सिर्फ मांगते हैं। हम भी पैदा करते हैं, सिर्फ एक चीज पैदा करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं। हम आध्यात्मिक लोग हैं। भौतिक लोग गेहूं पैदा करते हैं, गेहूं पदार्थ है। भौतिक लोग मशीनें बनाते हैं, कारें बनाते हैं। हम आध्यात्मिक, हम आत्माएं पैदा करते हैं। हम बच्चे पैदा करते हैं। हम, सिर्फ एक इंडिस्ट्री है हमारी, बच्चे पैदा करने की, वह हम करते जाते हैं। अमेरिका तीन सौ वर्ष में आसमान छू लिया, हम तीन हजार वर्ष में भी कुछ नहीं कर पाते। रूस ने पचास साल में कैसी गति की, जिसकी कल्पना करनी मुश्किल है, और हम? हो क्या गया है हमें? हम तोड़ने से डर गए हैं। हम तोड़ते ही नहीं, हम उसी को बचाए चले जाते हैं, बचाए चले जाते हैं।
मैं एक घर में कुछ दिन तक मेहमान था। बहुत लखपती आदमी थे, जिनके घर मैं ठहरा। लेकिन देख कर हैरान हो गया, घर देखा तो ऐसा लगा जैसे किसी कबाड़ी का घर हो। पुराने डिब्बे भी इकट्ठे हैं, पुरानी बुहारियां भी, जो टूट गई, ठूंठ रह गई, जिनसे अब कोई उपाय झाड़ने का नहीं है, वह भी सम्हाल कर रखी हुई हैं! उस घर से कभी कोई चीज फेंकी ही नहीं गई ऐसा मालूम पड़ता है, वहां सब इकट्ठा ही है। घर के लोगों को रहने की मुसीबत हो गई है। न मालूम बाप-दादों की शादी हुई होगी, तो उनके साथ जो ट्रंक सूटकेस आए होंगे, वे सब रखे हुए हैं, ढेर लगा हुआ है! दो-चार-दस पीढ़ी पहले जिन पलंग पर उनके घर में कोई सोता होगा, उनकी निवाड़ और उनके टूटे हुए अंग भी रखे हुए हैं! वह घर एक ऐतिहासिक नमूना है। उस घर में जिंदा आदमी का रहना मुश्किल है, क्योंकि मरे हुए के इतने सामान वहां इकट्ठे हैं। मैंने उनसे पूछा, यह काहे के लिए इकट्ठे किए हुए हो? इनको फेंको। वे कहने लगे, पता नहीं, कब कौनसी चीज काम पड़ जाए।
यही भारत का दिमाग है। कुछ फेंको मत, सब बचा कर रखो! पता नहीं कब किस चीज की जरूरत पड़ जाए। जरूरत किसी चीज की नहीं पड़ेगी, सिर्फ अरथी की पड़ेगी, और उसमें हमारी अरथी निकलेगी। और यह सब सामान यहीं रखा रहेगा, हमारी अरथी निकल जाएगी। अगर विध्वंस की तैयारी नहीं है, तो विध्वंस होगा। उसमें हम मरेंगे। सामान बच जाएगा, इतिहास की किताबें बच जाएंगी, गीता-रामायण सब बच जाएंगी, आदमी मर जाएगा। अब दो में से एक निर्णय करना है, या तो आदमी को बचाना हो, तो इस सामान को आग लगाओ, फेंको, अलग करो इसे और जगह बनाओ। स्पेस की कमी पड़ गई है, चित्त में जगह नहीं रह गई है, इतना कबाड़ इकट्ठा है। इसमें जगह बनाओ, ताकि इस जगह में नया आ सके, नया अंकुर आ सके।
तो विध्वंस से मुझे कोई रस नहीं है। कोई मुझे मजा नहीं आता कि चीजें टूट जाएं तो मुझे बहुत मजा आएगा। विध्वंस के लिए जो कहता हूं, उसका कुल कारण इतना है कि वह मार्ग साफ करेगा। जैसे कोई आदमी एक जमीन पर बगीचा लगाए, तो पहले घास-पात को उखाड़ कर फेंक देता है, जमीन को खोद कर जड़ें निकाल कर फेंक देता है। आप खड़े हैं दरवाजे के बाहर और कह रहे हैं, क्या यह विध्वंस कर रहे हो? अरे बीज बोओ, निर्माण करो। घास है तो रहने दो, जड़ें पुरानी हैं तो रहने दो, तुम तो बीज बोओ, निर्माण करो! हम निर्माण को मानते हैं। हम घास को उखाड़ेंगे नहीं, हम जड़ों को उखाड़ेंगे नहीं। वह आदमी कहेगा फिर? फिर बीज खो जाएंगे घास में, फूल पैदा नहीं होंगे। घास-पात इतना इकट्ठा हो गया है कि उसे साफ करना जरूरी है। देश के चित्त की भूमि साफ करनी जरूरी है। कोई चीजें तोड़ने का उतना सवाल नहीं है जो मैं कह रहा हूं। जो मैं कह रहा हूं वह जो माइंड है हमारा, वह जो जरा-जीर्ण हो गया चित्त है, उसे तोड़ने और बदलने का सवाल है ताकि वह नया हो सके। और वह नया हो सके तो भारत की प्रतिभा का जन्म हो सकता है।
और मैं आपसे अंत में यह कहना चाहता हूं, अगर भारत यह हिम्मत कर ले और नये चित्त का स्वागत करने को तैयार हो जाए, तो शायद भारत में इतनी प्रतिभा प्रकट हो, जितनी दुनिया का कोई दूसरा देश प्रकट नहीं कर पाया। उसका कारण है। जैसे कोई खेत बहुत दिन तक बंजर पड़ा रहे, उस पर कोई खेती-बाड़ी न हो और पड़ोस के खेतों पर खेती-बाड़ी होती रहे। तो जिन खेतों में खेती-बाड़ी होती रही है, वे अपशोषित हो जाते हैं। उनका सारा का सारा जो भी सार तत्व है, वे वृक्ष पी जाते हैं। फिर खेती क्षीण होने लगती है, फिर कम फसल होने लगती है। और खेत पड़ा है, जिसमें हजारों साल से खेती नहीं हुई, खाली पड़ा है। उस पर अगर आज कोई दाने फेंक दें, तो सारे पड़ोस के खेत पीछे पड़ जाएं, उसमें जो फसल आए, उसका मुकाबला न हो। भारत अगर नया होने की तैयारी कर ले, तो शायद भारत से बड़ी प्रतिभा खोजना पृथ्वी पर मुश्किल है। लेकिन हमारी नये होने की तैयारी न हो, तो फिर सिवाय निराशा के भविष्य में और कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
लेकिन निराश होने का मैं कोई कारण नहीं देखता हूं। मुझे लगता है कि नया हुआ जा सकता है। नये के सूत्र खोजे जा सकते हैं। नये को आमंत्रित किया जा सकता है।
(द्वार बंद है। द्वार खोल दें, सूरज की किरणें अपने आप आ जाएंगी। पुरानी हवाएं, सड़ी हवाएं, अपने आप बाहर निकल जाएंगी। द्वार-खिड़की खोल दें, नई हवाएं आ जाएंगी। हम द्वार-खिड़की-दरवाजे जब बंद करके भीतर बैठे हैं। सांस घुट गई है--न रोशनी आती है, न हवाएं आती हैं, न नये बादल झांकते हैं। कुछ भी नया नहीं होता। कि हम बैठे हैं और किसी प्रतीक्षा में? भाग्य की प्रतीक्षा में कि कुछ होना होगा तो भगवान करेगा। घंटी बजा रहे हैं वहीं, वहीं, अपने ही बनाए हुए भगवान रखे हैं, उसी अंधेरी कोठरी में!) (नाट इन द टेप)
स्वयं चंदन टीका लगा रहे हैं, वहीं भोग लगा रहे हैं। खुद भूखे बैठे हैं, भगवान को भोग लगा रहे हैं। घंटी बजा रहे है, भजन-पूजन चल रहा है कि हे भगवान, रोशनी भेजो! और दरवाजे बंद हैं। हे भगवान, नया करो सब! हे भगवान, सांस घुटी जा रही है, नया झोंका भेजो! लेकिन भाग्य की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
एक छोटी कहानी और बात मैं पूरी करूं।
मैंने सुना है, एक बार ज्योतिषियों ने यह खबर की कि सात साल तक पानी नहीं गिरेगा। एक किसान बेचारा अपने खेत की तैयार कर रहा था। वर्षा आने के करीब थी। छोटी-छोटी बदलियों ने निकलना शुरू कर दिया था। वह खेत खोद रहा था। सुनी खबर लोगों ने कहा, सुना ज्योतिषी कहते हैं, सात साल तक अब वर्षा नहीं होगी! तो उसने अपना सामान हल-बक्खर उठा कर मकान के भीतर सम्हाल कर रख दिए कि जब वर्षा ही नहीं होगी, तो फिर खेत क्या तैयार करना! सात दिन घर में बैठे-बैठे बहुत घबड़ा गया, हाथ-पैर ढीले पड़ गए। सोचा कि सात दिन में यह हालत हो गई मरने की। कुछ न करूंगा तो सात साल में तो मैं नहीं बचूंगा और अगर बच भी गया मरा-खुरा किसी तरह, तो सात साल में खेती कैसे की जाती, यह न भूल जाऊं? तो उसने सोचा, जब होगा, जो होगा; हम खेत तो खोदे हीं। खेत तो खोदते ही रहें, कम से कम अभ्यास तो जारी रहेगा, कम से कम जानते तो रहेंगे कि खेती कैसे की जाती है। उसने आकर बाहर सात दिन बाद खेत खोदना शुरू कर दिया।
एक छोटी सी बदली ऊपर से निकलती थी, उसने कहा, अरे मूर्ख किसान, तुझे पता नहीं कि ज्योतिषियों ने कहा है, वर्षा सात साल तक नहीं होगी! क्या कर रहा है यह, सुना नहीं तूने?
उस किसान ने कहा, मैंने सुना है देवी! सात दिन बैठा रहा, बैठे-बैठे घबड़ा गया। बैठना तो मौत हो गई। मैंने सोचा, कहीं भूल न जाऊं सात साल में? कहीं मर न जाऊं? कहीं भूल गया खेती करना, तो वर्षा भी होगी तो किसी काम पड़ेगी। इसलिए मैं अपना काम जारी रखे हूं। जब होगी वर्षा, तब ठीक है। तब तक कम से कम काम का अभ्यास तो रहेगा।
उस बदली ने सोचा, यह भी ठीक कहता है। कहीं सात साल में ऐसा न हो कि मैं पानी बरसाना भूल जाऊं? भाड़ में जाएं ज्योतिषी! उसने वहीं पानी बरसा दिया। सात साल में भूल गए पानी बरसाना, तो और मुश्किल हो जाएगी।
जो श्रम करता है, वहां भाग्य आ जाता है। भाग्य श्रम की छाया है। और हम भाग्य की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और देख रहे हैं कि जो होगा उसे देखते रहेंगे। तमाशबीन की तरह खड़े हुए हैं। राहगीर जैसे दर्शक एक-दूसरे को देख रहा हो कि क्या हो रहा है। ऐसे भारत की प्रतिभा नहीं जन्म सकती है।
इन तीन दिनों में ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
(भारत में वर्षा हो सकती है, भारत में भी समृद्धि आ सकती है, असीम प्रतिभाओं का जन्म हो सकता है, यदि हम पुराने को हटा कर, नये की जगह बना दें। पुराने का विध्वंस कर दें, नये को आमंत्रित करें तो निश्चित ही प्रतिभाओं का जन्म होगा, नई संपदा का जन्म होगा। मैं जो कह रहा हूं, उसे मान मत लें; उस पर सोचें, विचार करें, और ठीक लगे तो नये श्रम में लग जाएं।)
(नाट इन द टेप)

मेरी बातों को इतने प्रेम और इतनी शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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