नये भारत की खोज-(तीसरा प्रवचन)
तीसरा प्रवचन (५ मई १९६९, पूना, प्रातः)
आत्मघाती परंपरावाद
मेरे प्रिय आत्मन्!एक छोटी सी कहानी से आज की बात मैं शुरू करना चाहूंगा। वह कहानी तो आपने सुनी होगी, लेकिन अधूरी सुनी होगी। अधूरी ही बताई गई है अब तक। पूरा बताना खतरनाक भी हो सकता है। इसलिए पूरी कहानी कभी बताई ही नहीं गई। और अधूरे सत्य असत्यों से भी ज्यादा घातक होते हैं। असत्य सीधा असत्य होता है, दिखाई पड़ जाता है। आधे सत्य सत्य दिखाई पड़ते हैं और सत्य होते नहीं। क्योंकि सत्य कभी आधा नहीं हो सकता है। या तो होता है या नहीं होता है। और बहुत से अधूरे सत्य मनुष्य को बताए गए हैं, इसलिए मनुष्य असत्य से मुक्त नहीं हो पाता है। असत्य से मुक्त हो जाना तो बहुत आसान है। अधूरे सत्यों से मुक्त होना बहुत कठिन हैं। क्योंकि वे सत्य होने का भ्रम देते हैं और सत्य होते भी नहीं हैं। ऐसी ही यह आधी कहानी भी बताई गई है।
छोटे-छोटे बच्चों को हम स्कूल में पढ़ाते हैं। सभी को वह कहानी पता होगी। वह कहानी है कि एक सौदागर टोपियां बेचता है। वह टोपियां बेचने एक बाजार की तरफ गया है। रास्ते में थक गया है और एक वृक्ष के नीचे सो गया। वृक्ष पर बंदरों का निवास है। उस सोए हुए सौदागर को देख कर वे नीचे उतरे हैं। उन्होंने उसकी टोकरी खोल ली है। वह सौदागर टोपियां बना कर बेचता है। उन बंदरों ने वे टोपियां पहन लीं और वृक्ष पर चढ़ गए।
सौदागर की नींद खुली। सारी टोपियां वृक्ष पर बंदरों के पास चली गई थीं। बड़ा मुश्किल था उन टोपियों को बंदरों से वापस लेना। लेकिन मुश्किल नहीं भी था। नकलचियों से कुछ भी करवा लेना बहुत मुश्किल नहीं होता। सौदागर ने अपनी सिर पर पहनी टोपी निकाल कर रास्ते पर फेंक दी। बंदरों ने भी अपनी टोपियां निकाल कर रास्ते पर फेंक दीं। सौदागर ने टोपियां इकट्ठी कर लीं और घर लौट आया। इतनी कहानी आपने सुनी होगी। यह आधी कहानी है। फिर सौदागर का बेटा बड़ा हुआ और उस बेटे ने भी टोपियां बेचनी शुरू कीं। क्योंकि बहुत कम बेटे ऐसे होते हैं जो बाप से आगे बढ़ते हों। हालांकि दुनिया उन थोड़े बेटों से आगे बढ़ती है जो बाप से आगे बढ़ते हैं। लेकिन कोई बाप नहीं चाहता कि बेटे बाप की सीमा को पार करके आगे जाएं। और ऐसे सब बाप खतरनाक सिद्ध होते हैं, क्योंकि समाज के लिए ऐसे सब बाप जंजीरें साबित होते हैं। बाप ने बेटे को भी टोपियां बेचना सिखाया। बाप वही सिखा सकता है जो खुद सीखा हो। बेटा टोपियां बेचने गया, और उसी झाड़ के नीचे रुका, जहां उसका बाप रुक गया था। नालायक बेटे वहीं ठहर जाते हैं, जहां बाप ठहरते हैं। और उसने वहीं वह अपनी टोकरी रखी, जहां बाप ने रखी थी। क्योंकि और दूसरी जगह कैसे रख सकता था? बंदरों की भी पीढ़ी बदल गई थी। नये बेटे वृक्ष पर बैठे थे। सौदागर सो गया। वे बंदर नीचे उतरे, उन्होंने टोपियां लगाईं और वृक्ष पर चले गए।
सौदागर की नींद खुली। उसे खयाल आया, बाप ने कहा था, एक बार बंदर उसकी टोपियां ले गए थे तो उसने अपनी टोपी फेंक दी थी। वह हंसा, उसने कहा, पागलो, तुम्हें पता नहीं। तुमने समस्या खड़ी की है, लेकिन मेरे पास समाधान है। मेरे बाप ने मुझे समाधान दिया है। उसने अपनी टोपी सड़क पर फेंक दी। लेकिन बड़ा चमत्कार हुआ, एक बंदर नीचे उतरा, उस टोपी को भी उठा कर ऊपर चला गया। क्योंकि बंदर अब तक सीख गए थे। जो धोखा एक बार खा गए थे अब वह दुबारा खाने को राजी नहीं थे। लेकिन वह आदमी का बेटा, वही समाधान पकड़े था जो बाप ने पकड़ाया था। समस्या बदल गई थी, क्योंकि बंदर बदल गए थे। समय बदल गया था, लेकिन समाधान पुराना था। यह आधी कहानी आपको पता नहीं होगी, और आधी कहानी ज्यादा जरूरी है पहली आधा कहानी से।
क्यों इससे अपनी बात शुरू करना चाहता हूं? इसलिए कि भारत की समस्याओं और भारत की प्रतिभा के संबंध में सोचते समय दूसरा सूत्र, एक सूत्र मैंने कल कहा, एस्केपिज्म, पलायनवाद भारत की प्रतिभा का आत्मघात सिद्ध हुआ है। दूसरा सूत्र आज कहना चाहता हूं: परंपरावाद, ट्रेडिशनलिज्म। इसने भारत की प्रतिभा को विकसित नहीं होने दिया है। समस्याएं रोज बदल जाती हैं और समाधान हमारे बदलते ही नहीं। समाधान हमारे शाश्वत हैं। और समस्याएं क्षण-क्षण में बदल जाती हैं। इससे कोई समस्याओं को नुकसान नहीं होता, इससे पकड़े हुए जो समाधान को बैठे हैं वे पराजित हो जाते हैं, हार जाते हैं, और जीवन का मुकाबला नहीं कर पाते। बदली हुई समस्या बदला हुआ समाधान चाहती है।
लेकिन परंपरावादी की दृष्टि यह होती है कि जो समाधान परंपरा ने दिया है, वही सत्य है। जो पुराने से आया है, वही सत्य है। नये की खोज करना पाप है, पुराने को मानना पुण्य है और धर्म है। और जो समाज पुराने को मानने को ही धर्म समझ लेता है और नये से भयभीत हो जाता है उस समाज की प्रतिभा का विकास अवरुद्ध हो जाए, तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि प्रतिभा विकसित होती है नये की खोज से, निरंतर नये की खोज से। जितना हम नया खोजते हैं, उतना हमारा मस्तिष्क विकसित होता है। जितना हम पुराने को पकड़ लेते हैं, उतना ही मस्तिष्क के विकास की जरूरत समाप्त हो जाती है। नई समस्या एक मौका बनती है कि हम नई चुनौती स्वीकार करें, नया समाधान खोजें, ताकि हम विकसित हो जाएं। न समस्या का उतना मूल्य है, न समाधान का उतना मूल्य है, लेकिन समस्या समाधान को खोजने की चुनौती देती है। अंतिम मूल्य चेतना के विकास का है। लेकिन जो लोग पुराने समाधान से चिपट कर रह जाते हैं, उनकी चेतना चुनौती खो देती है, और वे विकसित नहीं हो पाते हैं।
भारत की प्रतिभा पुराने समाधानों को पकड़ कर ठहर गई है। और इतनी हैरानी मालूम होती है कि पता नहीं कब ठहर गई है, कितने हजार वर्ष पहले, यह भी कहना मुश्किल है? ऐसा ही लगता है कि ज्ञात इतिहास, जब से हम जानते हैं इतिहास को, तब से भारत ठहरा ही हुआ है। और जितना पुराना समाधान हो, हमारे मन में उसका उतना ही आदर है। जितनी पुरानी किताब हो, उतना ही सम्मान है। यह पुराने का आदर और पुराने का सम्मान नये को कैसे जन्म होने देगा? और जो प्रतिभा नये को जन्म देना बंद कर देती है, वह प्रतिभा बहुत पहले मर चुकी, अब उसकी जीवंतता खो गई, अब वह जीवित नहीं है। जीवन की प्रत्येक बात के उत्तर हमने खोज लिए हैं, पता नहीं कब खोज लिए हैं। और ऐसा मालूम होता है कि जिन शास्त्रों को पकड़ कर हम बैठे हैं, वे शास्त्र भी यह कहते हैं कि फलां ऋषि से फलां ऋषि से सुना, फलां ऋषि ने फलां ऋषि से सुना, उनसे हमने सुना। जो हमने सुना है, उसी को स्मरण करके हम कहते हैं।
हमारे पुराने शास्त्रों का नाम है--श्रुति और स्मृति। श्रुति यानी जो सुना है, जाना नहीं। स्मृति यानी जो याद किया गया है, जाना नहीं। हम सदा से सुनते और याद ही करते रहे हैं। हमेशा पिछले से सुना है और आगे दोहरा दिया है। हजारों वर्ष से हम दोहरा रहे हैं। दस दोहराने में, इस रिपीटीशन ने जंग लगा दी है हमारे सारे मस्तिष्क को, सारी मेधा को। हमारी सारी बुद्धि सड़ गई है। हमारे मस्तिष्क के पास सिवाय पुराने, उधार, सड़े हुए समाधानों के और कुछ भी नहीं है। इसीलिए जिंदगी में हम रोज हारते चले गए हैं और आज भी हार रहे हैं। और कल भी बहुत कम आशा दिखाई पड़ती है कि हम जीत सकें। क्योंकि जब तक यह मस्तिष्क है, यह पुराना दिमाग, तब तक हमारी जीत, जीवन संघर्ष में हमारी विजय असंभव मालूम होती है। क्योंकि प्रत्येक नई समस्या कहती है, नया समाधान लाओ। और हम अपनी किताब में खोजने चले जाते हैं और पुराना समाधान ले आते हैं। वह पुराना समाधान काम नहीं करेगा।
कोई पुरानी स्थिति फिर दुबारा नहीं दोहरती है। जो लोग कहते हैं, हिस्ट्री रिपीट इट सेल्फ वे बिलकुल झूठ कहते हैं। जगत में कुछ भी नहीं दोहरता है, इतिहास कभी नहीं दोहरता है। कुछ भी नहीं दोहरता है, कुछ भी दोहर नहीं सकता है। कोई पुनरुक्ति नहीं हो सकती। इतना अनंत जाल है कि पुनरुक्ति होना असंभव है। फिर से वही नहीं हो सकता, जो था। ठीक वैसा नहीं हो सकता, जैसा था। और अगर हमें दिखाई पड़ता है कि वैसा ही है तो वह सिर्फ हमारे देखने की नासमझी है। वह देखने की कम गहराई का सबूत है। वह देखने के सूक्ष्म विकास नहीं हो सका, इसलिए हमें वैसा ही दिखाई पड़ता है। आप कल सुबह भी आए थे, न तो आप वही हैं, मैं कल सुबह भी आया था, मैं भी वही नहीं हूं। चौबीस घंटे में गंगा का बहुत पानी बह चुका। आपकी चेतना का भी बहुत जल बह चुका। आप वही नहीं हैं, और अगर वही हैं तो बहुत दुखद है यह बात, क्योंकि आप फिर मरे हुए आदमी हैं। सिर्फ मरा हुआ नहीं बदलता, जीवन तो बदलता चला जाता है। आप वही नहीं हो सकते जो कल थे। और इस घंटे भर के बाद जब आप इस हाल से निकलेंगे तो वही नहीं होंगे, जो इस हाल में प्रवेश करते समय थे। कैसे वही हो सकते हैं? घंटे भर में कितना सब बदल जाएगा। घंटे भर में चित्त कितनी नई बातें सोचेगा, कितना पुराना बह जाएगा, कितना नये का प्रवेश हो जाएगा।
जीवन में पुराना कहीं भी नहीं है। जीवन तो प्रतिपल नया है। लेकिन हमारा मन पुराना है। पुराने मन और नये जीवन में जोड़ नहीं बैठता, तालमेल नहीं बैठता। और तब, तब जिच पैदा होती है, तब परेशानी पैदा होती है, तब चिंता पैदा होती है।
भारत के सामने जो बड़ी से बड़ी चिंता है, वह यह है कि जिंदगी रोज नये-नये सवाल खड़ी कर देती है और हमारे पास पुरानी किताबें हैं, और पुराने समाधान हैं। अगर अछूत के संबंध में फिर से सोचने का सवाल है तो मनु की स्मृति खोल कर बैठे हुए हैं लोग। और खोज रहे हैं कि मनु स्मृति में क्या लिखा हुआ है। कोई तीन हजार वर्ष पहले मनु ने क्या कहा है, उसका आज क्या उपयोग हो सकता है, क्या अर्थ हो सकता है? समस्या आज की है और बिलकुल नई है, लेकिन हम समाधान सदा पुराने खोजेंगे।
जिंदगी का सवाल उठेगा और आदमी गीता खोल कर समाधान खोजेगा। गीता किसी समस्या का उत्तर थी। अर्जुन के सामने कोई सवाल खड़ा हो गया होगा। और गीता उस सवाल का उत्तर थी। लेकिन जब अर्जुन ने सवाल खड़ा किया था तो कृष्ण ने कोई पुरानी किताब खोल कर समाधान नहीं खोजा था। वे नहीं गए थे कि खोल लेते वेद, और वेद पढ़ कर सुनाने लगते अर्जुन को। एक समस्या सामने खड़ी थी अर्जुन के। युद्ध था, बुद्ध से भागने का मन था। हिंसा थी, हिंसा से छूटने का मन था। अपने ही प्रियजन थे, उनकी हत्या करने का सवाल था। और अर्जुन का मन डांवाडोल हो गया है। तो कृष्ण कोई बहुत पुरानी किताब खोजने नहीं चले गए। कृष्ण ने उस समस्या का सामना किया, एनकाउंटर किया, एक कोई जवाब दिया। वह जवाब लिख कर हम बैठे हुए हैं। और गांधी के सामने कोई समस्या हो, तो गीता-माता को खोल कर बैठ जाएंगे।
खतरनाक है यह प्रवृत्ति! सवाल नये हैं, किताबें सब पुरानी हैं। किताबें नई कैसे हो सकती हैं? लिखी गई कि पुरानी हो गयीं। कोई उत्तर दिया गया कि पुराना हो गया। सभी उत्तर पुराने हैं, क्योंकि देते ही पुराने हो जाएंगे। और सब सवाल नये हैं। और नया सवाल, नई चेतना की मांग करता है।
नई चेतना का क्या अर्थ है? नई चेतना का अर्थ है, जिसके पास कोई बंधा हुआ उत्तर नहीं है। जिसके पास कोई बंधे हुए सूत्र नहीं हैं। जिसके पास जागती हुई चैतन्य आत्मा है और उस आत्मा को वह सवाल के सामने खड़ा कर देता है। जैसे हम आईने के सामने किसी को खड़ा कर दें, जो खड़ा हो जाता है आईने में उसी की तस्वीर बन जाती है। आईने के पास अपनी कोई तस्वीर नहीं है, अपना कोई चित्र नहीं है, अपना कोई ईमेज नहीं है, अपना कोई उत्तर नहीं है। आईना यह नहीं कहता कि ऐसी पकड़ होनी चाहिए, ऐसी आंख होनी चाहिए, तब में चित्र बनाऊंगा। आईना कहता है, जो भी होगा, उसका चित्र बन जाएगा। आईने की सफलता यही है कि आईना बिगाड़े न, जैसा है उसको वैसा ही बता दे। नई चेतना का अर्थ है, सवाल जो सामने खड़े हों, आईने की तरह हमारी चेतना के सामने स्पष्ट और साफ हो जाएं, जैसे वे हैं। लेकिन वे कभी स्पष्ट नहीं होंगे, अगर हमारे पास उत्तर पहले से मौजूद हैं।
उत्तर सवाल को समझने में सबसे बड़ी बाधा है। तैयार उत्तर, रेडीमेड उत्तर, समस्या को समझने ही नहीं देता। और समस्या को समझ न सकें तो समाधान कैसे खोजा जा सकता है? सच तो यह है, किसी सवाल को ठीक से समझ लेना ही उसका समाधान है। किसी सवाल को उसके पूरी जड़ों तक समझ लेना, उसका सवाल का जवाब है। जवाब तो आ जाएगा चेतना से, लेकिन सवाल को समझने का सवाल है। और सवाल को हम नहीं समझ पाते, क्योंकि हमारे पास जवाब सब पहले से तय हैं।
भारत की प्रतिभा में जो सबसे बड़ा अवरोध है, वह उसका परंपरा, परंपरावाद। परंपराएं तो होंगी, लेकिन परंपरावाद बिलकुल दूसरी बात है। ट्रेडीशंस तो होंगी, लेकिन ट्रेडीशनलिज्म बिलकुल दूसरी बात है। परंपराएं तो बनेंगी, लेकिन अगर परंपरावादी चित्त न हो, तो हम कभी उनसे बंधे नहीं होंगे, उनसे सदा ऊपर उठते रहेंगे, उनको ट्रांसेंड करते रहेंगे, रोज उनके पार जाते रहेंगे। लेकिन अगर परंपरा का वाद पैदा हो गया कि जो अतीत में है, जो पुराना है, उसे पकड़ना है, क्योंकि वही सत्य है, वही ऋषि-मुनियों का जाना हुआ है, वही ज्ञानियों का कहा हुआ है। हम अज्ञानी कैसे खोज सकते हैं? हम तो सिर्फ मान सकते हैं। तो फिर, फिर पूरे मुल्क की जीवन-चेतना, एक कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगाने लगेगी। फिर सीधी रेखा में गति नहीं होगी, फिर हम चक्कर लगाते रहेंगे। फिर हमारा एक ही काम होगा कि हम पुराने को सिद्ध करने की सारी ताकत लगाते रहें। समस्याएं हमारी फिक्र नहीं करेंगी, वे बदलती चली जाएंगी। वे इस बात की चिंता नहीं करेंगी कि आपके लिए रुकी रहें, वे रोज बदलती चली जाएंगी। और हम रोज पिछड़ते चले जाएंगे।
भारत कंटेम्प्रेरी नहीं है। हम बीसवीं सदी में नहीं रह रहे हैं। हम रह रहे हैं कोई ईसा से एक हजार साल पहले। कोई तीन हजार वर्ष पहले। हम वहीं ठहरे हैं जहां गीता और मनु, महावीर और बुद्ध ठहर गए हैं। हम उसके आगे नहीं बढ़े हैं। तीन हजार साल से हमारी चेतना एक चक्कर में घूम रही है। और एक ही काम कर रही है कि पुराने का गुणगान करो, पुराने को सिद्ध करो, पुराना ठीक है, और पुराने को ज्यादा पुराना सिद्ध करो। जाहिर है कि हमारे वेद पांच हजार वर्ष से ज्यादा पुराने नहीं है। लेकिन हमारे मन को बड़ी चोट लगती है, अगर कोई यह कहे कि वे पांच हजार वर्ष पुराने हैं। ऐसे लोग हैं इस मुल्क में जो पचहत्तर हजार वर्ष पुराना सिद्ध करना चाहते हैं, नब्बे हजार वर्ष पुराना सिद्ध करना चाहते हैं। ऐसे लोग भी हैं जिनकी तृप्ति इससे भी नहीं होती, जो कहते हैं, वह सनातन है, वह हमेशा से है, समय में उनको बांधा ही नहीं जा सकता। ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं, पहले वेद बना और फिर सब बना। यह पीछे खींचने का पागल मोह क्या है? क्यों पीछे खींचना चाहते हैं? यह पीछे खींचने का मोह इसलिए है कि हमारा खयाल यह है कि जो जितना पुराना है, उतना सत्यतर है, उतना शुद्धतर है। जो जितना नया है उतना अशुद्ध है, उतना गलत है। पुराना होना ही बड़े बहुमूल्य बात है।
शराब के संबंध में तो कहा जाता है कि पुरानी शराब अच्छी होती है, लेकिन सत्य पुराने अच्छे नहीं होते। लेकिन हम सत्य के साथ भी शराब का ही व्यवहार कर रहे हैं। उसको भी पुराना सिद्ध करने में बड़ी ताकत लगाते हैं।
अब सत्य कोई नशा लाने के लिए थोड़े ही है। शराब इसलिए अच्छी होती है कि जितनी पुरानी होती है, उतनी सड़ जाती है। जितनी सड़ जाती है, उतनी नशे वाली हो जाती है। सत्य जितना पुराना हो जाता है, उतना ही सड़ जाता है, उतना ही खतरनाक हो जाता है, उतना फेंकने योग्य हो जाता है। सत्य रोज नया चाहिए। हां, शराब पुरानी चल सकती है। लेकिन कुछ लोग शास्त्रों के साथ भी वही करते हैं, जो शराब के साथ करते हैं। शास्त्र भी उनकी शराब है। और इसलिए पुराना सिद्ध करने की कोशिश चलती है कि हमारा शास्त्र तुमसे ज्यादा पुराना है।
हिंदुस्तान की प्रतिभा का ज्यादा समय इस तरह की नानसेंस में, बेवकूफियों में खर्च होता है। मैं एक सभा मैं बोल रहा था। एक सज्जन खड़े हुए और उन्होंने मुझसे कहा कि आपसे मुझे एक बात पूछनी है कि उम्र महावीर की बड़ी थी कि बुद्ध की बड़ी थी? मैं तीन साल से शोध कर रहा हूं। मैंने कहा कि मुझे पता नहीं और कोई जरूरत भी नहीं है कि बुद्ध की उम्र बड़ी थी कि महावीर की उम्र बड़ी थी। एक बात तय है कि तुम्हारी तीन साल की उम्र खराब हो गई। वह कुछ भी कोई बड़ा रहा हो, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन नहीं, इसमें भी अगर महावीर को उम्र में बड़ा सिद्ध किया जा सके, तो जैसे वे बड़े हो जाएंगे बुद्ध से। या बुद्ध को बड़ा सिद्ध किया जा सके तो वे बड़े हो जाएंगे महावीर से, वे ज्यादा पुराने हो जाएंगे।
यह पुराने का मोह, यह पुराने का मोह अकारण नहीं है, इसके पीछे कारण हैं। और वे कारण हमारी समझ में आ जाएं, तो हम भारत की प्रतिभा को नये के लिए मुक्त कर सकते हैं। वे कारण समझने चाहिए।
पहली बात, पुराना सुरक्षित है, सिक्योरिटी है उसमें। वह जाना-माना है। वह परिचित है। उसे हम भलीभांति जानते हैं। वह शास्त्र में रेखाबद्ध है, लिखा हुआ है। वह लीक पीटी हुई है। उस पर जाने में डर नहीं है। नया हमेशा खतरनाक है, डेंजरस है। पता नहीं क्या हो? लीकबद्ध नहीं है, रेखाबद्ध नहीं है, कोई नक्शा नहीं है, अनचार्टर्ड है। तो नये में डर मालूम पड़ता है, असुरक्षा मालूम पड़ती है। कहीं ऐसा न हो कि पुराने को छोड़ दें और नया भटका दे। इसलिए पुराने को पकड़े रहो, नये पर मत जाओ।
जो कौम जितनी भयभीत होती है, उतना पुराने का आदर करती है। पुराने के आदर के पीछे फियर, भय काम करता है। जो कौम जितनी निर्भय होती है, उतने नये की खोज करती है। नये का एडवेंचर, नये का साहस--जो नहीं जाना है उसे जानना है, निश्चित ही उसमें खतरे हैं। क्योंकि हो सकता है नया रास्ता गङ्ढों में ले जाए, पहाड़ों में ले जाए, खतरों में ले जाए, ऐसी जगह ले जाए जहां जिंदगी मुश्किल में पड़ जाए। नया खतरे में ले जा सकता है। पुराना पहचाना हुआ है। उसी रास्ते से हजारों बार हम गुजरे हैं, हजारों लोग गुजरे हैं। उस रास्ते पर हजारों लोगों के चरण-चिह्न हैं। वह पहचाना, परिचित है, उस पर चलने में सुविधा है, सुरक्षा है। लेकिन ज्ञात होना चाहिए, जितना जीवन सुरक्षित हो जाता है, उतना ही मर जाता है। जितनी असुरक्षा को वरण करने की हिम्मत हो, जीवन उतना ही लिविंग और जीवंत होता है।
क्यों? सच तो यह है कि जीवन स्वयं एक असुरक्षा है। जो मर गए हैं, वे ही केवल सुरक्षित हैं। अब उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ा जा सकता। इसलिए कब्र से ज्यादा सुरक्षित कोई स्थान नहीं है। कोई बीमा कंपनी इतनी सुरक्षा नहीं दे सकती, जितना मरघट देता है। क्योंकि उसके बाद कुछ भी नहीं बिगड़ सकता। पहली तो बात यह है कि मरने के बाद फिर आप मर नहीं सकते। मर गए और मर गए, अब खत्म, अब वह बात खत्म हो गई। अब मरने का कोई डर नहीं है। मरने के बाद बीमार नहीं पड़ सकते। मरने के बाद पाप नहीं कर सकते, अपराध नहीं कर सकते। मरने के बाद कुछ भी नहीं हो सकता। नया कुछ भी नहीं होगा। मरने का मतलब है कि नये का होना बंद हो गया। अब जो हो गया, सब चीजें वहीं ठहर जाएंगी। एक आदमी मर गया एक तारीख को महीने की, तो दो तारीख नहीं आएगी, तीन तारीख नहीं आएगी, अब कुछ नहीं आएगा। एक तारीख पर सब ठहर गया उस आदमी के लिए। अब नया नहीं होगा। अब जो हो गया, हो गया। अब सिर्फ इतिहास होगा, भविष्य नहीं होगा। मरे हुए आदमी का सिर्फ अतीत होता है, भविष्य नहीं होता। भविष्य खतरनाक है।
लेकिन जीवन ही एक खतरा है। जीवन ही एक असुरक्षा है। जो लोग जीवन को प्रेम करते हैं, वे असुरक्षा को भी प्रेम करते हैं। जीवन का प्रेम अनिवार्य रूप से खतरे का प्रेम है। जो लोग जीवन को प्रेम नहीं करते, स्युसाइडल हैं, आत्मघाती हैं, वे सुरक्षा को प्रेम करते हैं। वे सब तरह का इंतजाम कर लेते हैं।
मैंने सुना है, एक सम्राट ने एक मकान बनाया, एक महल। और सब तरह का इंतजाम किया कि कोई खतरा न हो। तो डर के कारण उसने सिर्फ एक दरवाजा रखा उस महल में। दूसरे दरवाजे-खिड़कियां रखना खतरनाक है। रात कोई दुश्मन घुस जाए, चोर घुस जाए, डाकू घुस जाए। फिर बहुत दरवाजे हों, तो बहुत पहरेदार रखने पड़ेंगे। फिर बहुत पहरेदार हों, तो पहरेदारों से भी डर हो सकता है। इसलिए एक दरवाजा रखा। और अपने ही आदमी रखे। और अपने आदमियों पर भी और अपने आदमी रखे। एक हजार पहरेदार रखे, एक के ऊपर एक पहरेदार, एक के ऊपर एक पहरेदार। खतरे का कोई उपाय नहीं। कोई खतरा नहीं हो सकता। एक दरवाजा, एक खिड़की नहीं, दूसरा दरवाजा नहीं, सारा महल बंद। सिर्फ एक दरवाजा भीतर-बाहर जाने को।
पड़ोस का राजा उसका महल देखने आया और बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा, ऐसा महल मैं भी बना लूंगा। यह तो बिलकुल सुरक्षित है। जब पड़ोस का राजा प्रशंसा करके द्वार से निकल रहा था और महल का मालिक खुश हो रहा था कि मैंने एक अदभुत महल बना लिया, तो सड़क के किनारे बैठा हुआ एक बूढ़ा भिखारी जोर से हंसने लगा। उस महल के मालिक ने पूछा, क्यों हंसता है? क्या हो गया? कोई भूल रह गई?
उस भिखारी ने कहा, मालिक, आपने पूछा है तो बता दूं। जब से यह महल बन रहा है तभी से मैं देख रहा हूं, एक भूल रह गई। सम्राट ने कहा, कौन सी भूल? हम उसे ठीक कर लें।
उस भिखारी ने कहा, इसमें एक दरवाजा भी नहीं होना चाहिए। आप भीतर हो जाइए और दरवाजा बंद करवा लीजिए। आप बिलकुल सुरक्षित हो जाएंगे। यह एक दरवाजा खतरनाक है, इससे मौत भीतर घुस सकती है।
उस राजा ने कहा, पागल, अगर इसको भी मैंने बंद कर लिया, तो में मरने के पहले ही मर जाऊंगा।
तो उस भिखारी ने कहा, तो फिर ठीक सुन लें। जितने दरवाजे आपने बंद किए, उसी अंश में आप मरते चले गए। थोड़े से जिंदा हैं, एक दरवाजे की वजह से। यह भी बंद कर लें, तो बिलकुल मर जाएंगे। मेरा भी महल था, लेकिन मैंने पाया कि महल में जिंदा रहना पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि पहरा है। और जहां पहरा है, वहां जिंदगी पूरी कैसे हो सकती है? दीवालें हैं। और मैंने पाया कि जितने ज्यादा दरवाजे हों, जिंदगी उतनी होती है। तो फिर मैंने दरवाजे खोलने शुरू किए। फिर धीरे-धीरे मुझे एक खयाल आया कि क्यों मैं खुले आकाश के नीचे क्यों न चला जाऊं, जहां जीवन पूरा होगा, टोटल होगा। इसलिए मैं महल छोड़ कर खुले आकाश के नीचे आ गया। मैं आपसे कहता हूं, अगर मरना हो, तो सुरक्षा पूरी कर लें और अगर जीवित रहना हो, तो असुरक्षा के वरण और स्वागत करने की हिम्मत और साहस होना चाहिए।
यह भारत की जो परंपरावादिता है, यह जो पुराने को पकड़ लेने का आग्रह है, यह नये का भय है। नये का भय जीवन का भय है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं, भारत की प्रतिभा स्युसाइडल है, आत्मघाती है। हम मरने मैं ज्यादा उत्सुक हैं, जीने में कम। इसलिए हम मोक्ष की ज्यादा बातें करते हैं, जीवन की कम। हम इस बात में ज्यादा आतुर हैं कि मरने के बाद क्या है? मरने के पहले क्या है, हमारी इसमें कोई उत्सुकता नहीं है। हम स्वर्ग और नर्क के लिए ज्यादा चिंतित हैं। हम यह पृथ्वी स्वर्ग बने या नर्क बने, इसके लिए बिलकुल चिंतित नहीं हैं। हम अभी और यहां, हमारा कोई रस नहीं है, हमारा रस सदा वहां है--मृत्यु के पार, मृत्यु के बाद।
मुझे लोग रोज मिलते हैं, जो पूछते हैं, मरने के बाद क्या होगा? मैं उस आदमी की तलाश में हूं जो पूछे कि मरने के पहले क्या हो? वह नहीं कोई पूछता कि मरने के पहले क्या हो? लोग पूछते हैं, मरने के बाद क्या हो! ऐसा प्रतीत होता है कि हम मृत्यु की छाया में जी रहे हैं। और हमारी प्रतिभा ने मृत्यु की छाया को बहुत बड़ा करके बता दिया है। और इतना बड़ा करके बता दिया है कि धीरे-धीरे हम यह भूल ही गए कि जीना है। हम सिर्फ इसी फिक्र में लगे हैं कि मृत्यु से किस तरह बच जाएं, या मृत्यु से किस तरह पार हो जाएं। हम भयभीत हैं, और भय से भरे हुए लोग कभी भी जीवंत नहीं हो सकते हैं। परंपरावाद से मुक्त होना हो तो सुरक्षा के अति मोह से मुक्त होना जरूरी है।
और मजे की बात यह है कि जीवन में सुरक्षा हो ही नहीं सकती। सब सुरक्षा भ्रम है। मैं कितना ही बड़ा मकान बनाऊं और कितने ही लोहे कि दीवालें बनाऊं और कितनी ही संगीनें पहरे पर रख दूं, तो भी मैं मरूंगा। मरने से, बीमार होने से क्या सुरक्षा है? मैं कितने ही विवाह के कानून बनाऊं, मैं कितनी ही अदालतें बिठाऊं, जरूरी नहीं है कि जो पत्नी मुझे आज प्रेम करती है, वह कल भी मुझे प्रेम करे। मैं कितना ही दोहराऊं कि प्रेम शाश्वत है, लेकिन इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं है। न प्रेम, और न कुछ और। इस जगत में सभी कुछ बदलता हुआ है, इसलिए कितने ही कानून बिठाओ, कितनी ही अदालतें बनाओ, कितने ही नियम बनाओ, कोई सुरक्षा नहीं है कि जिसने मुझे आज प्रेम दिया वह कल भी मुझे प्रेम देगा। कल असुरक्षित है।
एक खतरा और है। अगर मैंने सुरक्षा का बहुत इंतजाम किया तो शायद कानून की व्यवस्था इतनी सख्त हो जाए कि वह आज मुझे प्रेम दे सकता था, वह भी न दे पाए। इतना मुक्त न रह जाए कि प्रेम आज भी दे सके। न प्रेम का कोई भरोसा है, न जीवन का कोई भरोसा है। सांस चल रही है, एक क्षण बाद नहीं चले। ऐसा क्षण आएगा ही कि एक क्षण बाद नहीं चलेगी। क्या सुरक्षा है?
मित्र का कोई भरोसा है? जो मित्र है, वह कल मित्र न रह जाए। शत्रु का तक भरोसा नहीं है, जो शत्रु है, वह कल शत्रु न रह जाए। शत्रु का ही जहां भरोसा नहीं, मित्र का जहां भरोसा नहीं, जहां किसी चीज का कोई भरोसा नहीं है, वहां हम एक इल्यूजरी, एक सिक्योरिटी बना कर, एक काल्पनिक सुरक्षा का जाल बना कर, उसके भीतर बैठे कर मर जाते हैं।
नहीं; जीवन असुरक्षा है। जीवन ही इनसिक्योरिटी है। जीवन है ही ऐसा। जीवन के इस तथ्य को, यह जीवन की जो सचनेस है, यह जीवन ऐसा है कि जहां जन्म है, यहां मृत्यु है; यहां स्वास्थ्य है, यहां बीमारी है; यहां मिलना है, यहां बिछुड़ना है। यहां दोस्ती है, यहां दुश्मनी है, यहां सांस आएगी और जाएगी भी। और जाना भी उतना ही सुखद है, जितना आना। और जन्म भी उतना ही आनंद है, जितनी मृत्यु। लेकिन सिर्फ उसके लिए जिसने सुरक्षा का पागल मोह नहीं पकड़ लिया।
सुकरात मर रहा था। जहर देने के पहले उसके मित्रों ने सुकरात को पूछा कि हमने पता लगाया है, जिन लोगों ने तुम्हें मृत्यु की सजा दी है, वे कहते हैं, कि अगर तुम सत्य के संबंध में बोलना बंद कर दो, तो तुम्हें क्षमा किया जा सकता है, तुम बच सकते हो।
सुकरात ने कहा, क्या वे यह कहते हैं कि फिर मैं सदा बच सकूंगा? अगर वे ऐसा कहते हों तो मैं सोचूं?
मित्रों ने कहा, सदा बचने का भरोसा कोई भी नहीं दे सकता।
तो सुकरात ने कहा, जब मरना ही है तो फिर मरने से सुरक्षा के लिए असत्य बोलना समझ में नहीं आता। जब मरना ही है तो फिर सत्य बोलते ही मरना अच्छा है। फिर जहर पीसा जाने लगा। बाहर जहर पीसा जा रहा है। और सुकरात बार-बार पूछने लगा अपने मित्रों से कि देखो, बड़ी देर हुई जाती है। जहर पीसने वाला बहुत देर लगा रहा है। मित्र रो रहे हैं और वे कहने लगे, तुम पागल हो गए हो! जितनी देर हो जाए, उतना अच्छा, तुम जितनी देर और जी लो उतना अच्छा। इतनी उत्सुकता क्या है मरने की?
सुकरात कहने लगा, मृत्यु नई है, अपरिचित है, उसे जानने का मन होता है। उसे कभी जाना नहीं। वह बिलकुल नया है। वह मृत्यु कैसी है? वह मृत्यु का लोभ कैसा है? हम बचते हैं कि नहीं बचते हैं? मैं उसे जानने के लिए आतुर हूं। मैं नये को जानने के लिए आतुर हूं। जीवन तो जाना जा चुका, वह पुराना पड़ चुका।
सुकरात जैसे लोगों को मारा नहीं जा सकता, क्योंकि उन्हें मृत्यु भी नई है और जीवन का एक हिस्सा है। जो जानता है, वह जन्म और मृत्यु को समान ही मानेगा।
जन्म भी अगर हम बहुत खयाल से देखें, तो एक खतरा है। हमें पता नहीं है, यह दूसरी बात है। जो बच्चा मां के पेट में है, वह बहुत सुरक्षित है। आपको पता है? उससे ज्यादा सुरक्षा फिर कब्र में ही मिलेगी, और कहीं भी नहीं मिलेगी। मां के पेट में जो बच्चा है, न नौकरी करनी पड़ती, न दुकान करनी पड़ती, न जिंदगी के खतरे हैं, न खाने की चिंता है, न पीने की चिंता है। मां के पेट में वह करीब-करीब मोक्ष में है। वहां कुछ भी नहीं करना पड़ता, सिर्फ जीता है। सब मां करती है, सब मां से होता है, वह सिर्फ जीता है, वह सिर्फ जीता है। वहां कुछ भी नहीं करना पड़ता। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष की कल्पना लोगों को पैदा हुई, वह मां के गर्भ की स्मृति से ही पैदा हुई है। वह जो हमारा अनकांशस माइंड है, उसको पता है कि एक सुख का क्षण था, जो खो गया। एक ऐसा वक्त था कि जब न कोई चिंता थी, न कोई दुख था, न कोई पीड़ा थी। वह हमारे अचेतन चित्त को पता है। वह किसी कोने में हमें ज्ञात है। वह मां के पेट में वह जो सुख था, जब बच्चे को मां के पेट के बाहर आना पड़ा होगा, तो अगर वह प्रार्थना कर सका होगा, तो उसने हाथ जोड़ कर कहा होगा, हे भगवान, कहां असुरक्षा में भेज रहे हो? कहां खतरे में भेज रहे हो? सब सुरक्षा छूटती है, जीवन की सब व्यवस्था छूटती है। सब इंतजाम था, वह छूटता है। कहां खतरे में भेजते हो?
जन्म बहुत बड़ा खतरा है। और खतरा शुरू हो होता है। शायद बच्चा पैदा होते से ही इसलिए रोता हो, चिल्लाता है, कि कहां मुसीबत में डाल दिया? हंसते हुए बच्चे के पैदा होने की कोई खबर नहीं सुनी गई। उसकी सुरक्षा छिन गई है, उसका सब छिन गया, वह अपरूटेड कर दिया गया, जैसे किसी वृक्ष को उसकी जड़ों से उखाड़ लिया गया। मां के भीतर उसकी जड़ें थीं, वह मां का एक हिस्सा था। कोई चिंता न थी, कोई एंग्जाइटी न थी, कोई समस्या न थी, सब समाधान था। मां के पेट में बच्चा समाधि में था। वहां से निकाल कर बाहर फेंक दिया गया। फिर रोज-रोज असुरक्षा बढ़ती चली जाएगी। जब तक छोटा होगा, मां की गोद होगी। धीरे-धीरे मां की गोद भी छोड़ देनी पड़ेगी। स्कूल आएगा, और खतरे आने शुरू होंगे। और फिर स्कूल के बाद जिंदगी आएगी। और समस्याएं आनी शुरू होंगी। मां से दूर होता चला जाएगा और खतरों में उतरता चला जाएगा।
जिंदगी का नाम खतरा है। मौत ही खतरा नहीं है, जन्म के बाद सभी कुछ खतरा है। लेकिन इस खतरे से हमने एक मानसिक बचाव का उपाय कर लिया है कि बचा लो अपने को। तिजोड़ियां खड़ी करते हैं, महल खड़े करते है, पद-प्रतिष्ठा बनाते हैं, मित्र, संगी-साथी बनाते हैं, शिष्य, चेले बनाते हैं। बाप बेटे को खड़ा करता है। बिना बेटे के असुरक्षा अनुभव करता है। परिवार बनाता है, सारा इंतजाम करता है। किस बात के लिए? सिर्फ एक बात के लिए कि जिंदगी में कोई खतरा, कोई असुरक्षा, कोई समस्या न हो। सब तरह से सुरक्षित हो जाऊं। वह, वह जो मां का गर्भ था, वह मिल जाए। फिर वैसा ही हो जाए सब।
वह कभी नहीं हो पाता। वह हो ही नहीं पाएगा। वह सिर्फ कब्र में होगा। वह सिर्फ मरने पर होगा। मृत्यु वहीं पहुंचा देगी, जहां जन्म ने आपको हटाया था। इसलिए मरने की कामना भी पैदा होती है। मरने की कामना भी हमारे भीतर इसीलिए पैदा होती है। यह बहुत समझने की बात है! मरने से बचने की कामना भी सुरक्षा के लिए पैदा होती है और मरने की कामना भी सुरक्षा के लिए पैदा होती है। जब आदमी बहुत असुरक्षित हो जाता है, जिससे प्रेम करता है, वह भटक जाता है, खो जाता है, जिसे चाहता है, वह बिछुड़ जाता है, जिस धन को इकट्ठा किया था, वह डूब जाता है, जिस मकान को बनाया था, उसमें आग लग जाती है, तब वह एकदम मरना चाहता है। वह कहता है, अब मैं मरना चाहता हूं, मैं जीना नहीं चाहता। क्यों मरना चाहते हैं आप? शायद मन भीतर से कहता है, अब मरने में ही सुरक्षा मिल सकती है। मर जाओ, सुरक्षित हो जाओ।
आदमी शराब पी कर चिंता को भूलना चाहता है। क्यों? आदमी सो कर चिंता को भूलना चाहता है। क्यों? सोने में थोड़ी देर के लिए अस्थायी मृत्यु घटित हो जाती है, टेम्प्रेरी डेथ, थोड़ी देर के लिए आप मर जाते हैं। थोड़े देर के लिए दुनिया खत्म हो जाती है, आप खत्म हो जाते हैं। वही शराब भी काम करती है। शराब में थोड़ी देर के लिए सब मिट जाता है, आप मर जाते हैं। वह भी टेम्प्रेरी डेथ है। शराब पीने वाला भी आत्मघाती है। अपने को भुलाने की सब कोशिश आत्मघात है। या जिंदगी में इतनी चिंता आ जाती है कि सुरक्षा नहीं मिलती, तो आदमी मर जाता है।
पश्चिम में रोज हजारों लोग आत्महत्या कर रहे हैं। क्यों? घबड़ा गए हैं जिंदगी की असुरक्षा से। मर जाने में लगता है कि सब ठीक है, मर जाओ। मर जाने से सब छुटकारा हो जाता। मरने से बचने की चेष्टा भी सुरक्षा के लिए है और अंत में मर जाने की कामना भी सुरक्षा के लिए है। और मोक्ष की कामना भी सुरक्षा के लिए है। स्वर्ग और भगवान के चरणों को पकड़ लेने की कामना भी सुरक्षा के लिए है।
लेकिन यह ध्यान रहे कि जो सुरक्षित हो जाता है, वह जीवन से पीठ फेर लेता है। और सारा आनंद है जीवन में, और सारी मुक्ति है जीवन में, और सारा परमात्मा है जीवन में। उस जीवन में जहां मृत्यु भी है, उस जीवन में जहां चिंता भी है, उस जीवन में जहां समस्याएं भी हैं, उन सबका इकट्ठा स्वीकार ही जीवन को जीवन की कला है।
यह जो हमारा अतीत से मोह, वह सुरक्षा के कारण है। भय को छोड़ना पड़ेगा। जीवन का भय। बहुत कम लोग हैं, जो जीने की हिम्मत जुटा पाते हैं। यह बात अजीब मालूम पड़ेगी, लेकिन बहुत कम लोग हैं, जो जीने की हिम्मत जुटा पाते हैं। मरने की हिम्मत बहुत लोग जुटा लेते हैं, जीने की हिम्मत बहुत कम लोग जुटा पाते हैं।
जो जीने की हिम्मत जुटा लेता है, उसे ही मैं संन्यासी कहता हूं। संन्यासी का मतलब है, जिसने सुरक्षा को छोड़ दिया, असुरक्षा को वरण कर लिया।
लेकिन जिसको हम संन्यासी कहते हैं, वह संन्यासी नहीं है। वह छोटी सुरक्षा को छोड़ता है, बड़ी सुरक्षा को वरण कर लेता है। और मौलिक सुरक्षा को कभी नहीं छोड़ता। एक संन्यासी संन्यासी हो जाने के बाद भी हिंदू बना रहता है, मुसलमान बना रहता है, जैन बना रहता है। क्यों? वह कहता है, मैंने घर छोड़ दिया, सुरक्षा छोड़ दी। मैंने पत्नी छोड़ दी, सुरक्षा छोड़ दी। मैंने धन छोड़ दिया, सुरक्षा छोड़ दी। लेकिन जैन होना नहीं छोड़ता। क्योंकि अगर जैन होना छोड़ दे, तो वह जैन समाज से जो सुरक्षा मिल रही है, वह मिलनी बंद हो जाएगी। अगर हिंदू होना छोड़ दे, तो हिंदू जो कहते हैं, जगतगुरु हैं ये, वे कहना बंद कर देंगे। अगर मुसलमान होना छोड़ दे, तो मस्जिद ठहराएगी नहीं। मकान उसने छोड़ दिया, क्योंकि मस्जिद ठहरने को मिल गई है। अगर वह गुरु होना छोड़ दे, तो शिष्य उसको छोड़ देंगे। उसने, बाप था, बेटे छोड़ दिए हैं, लेकिन एक बेटे छोड़ कर उसने पचास बेटे इकट्ठे कर लिए हैं। शिष्य इकट्ठे कर लिए, शिष्याएं इकट्ठी कर लीं। और फिर सुरक्षा का इंतजाम इकट्ठा कर लिया। घर छोड़ दिया, अब एक आश्रम बना लिया है, लेकिन सुरक्षा के नये उपाय कर लिए।
और एक बड़ी सुरक्षा उसने यह कर ली है कि वह भगवान को पाने की कोशिश में लगा है। वह पुण्य कर रहा है। पुण्य धन का सिक्का है, मोक्ष में चलता है। यहां नहीं चलता। वह पुण्य इसलिए कर रहा है कि यह सिक्का चल सके स्वर्ग में, मोक्ष में। वह भगवान को पा लिया है। भगवान को पाने की कोशिश कर रहा है। वह मोक्ष पाने की कोशिश कर रहा है। वह मोक्ष का मतलब? जहां कोई समस्या नहीं होगी, सिद्धशिला पर बैठ कर सारी समस्याओं से आदमी मुक्त हो जाएगा।
लेकिन जहां कोई समस्या नहीं होगी, वहां कोई जीवन भी नहीं होगा। समस्याओं से बचने की कोशिश, जीवन से बचने की कोशिश है। समस्याओं को जीतना है, इसलिए नहीं कि समस्याएं समाप्त हो जाएंगी, बल्कि इसलिए कि नई समस्याएं खड़ी होंगी। जीवन एक सतत संघर्ष है। समस्याएं कभी समाप्त नहीं हो जाएंगी। एक समस्या बदलेगी, नई समस्या होगी। नीचे की समस्याएं बदलेंगी, ऊपर की समस्याएं होंगी।
गरीब आदमी के सामने एक समस्या होती है, भूख की, अभाव की। अमीर आदमी के सामने दूसरी समस्या खड़ी हो जाती है, अतिरेक की, एफ्लुअंस की। हिंदुस्तान की समस्या है, पेट कैसे भरे? अमेरिका की समस्या है कि पेट भर गया, अब क्या करें? योग करें, ध्यान करें, माला फेरें, क्या करें? अमेरिका की समस्या वही है, जो बुद्ध और महावीर की समस्या रही होगी। अमीर के बेटे थे, पेट भरा था, कपड़े उपलब्ध थे। सब उपलब्ध था, जो उपलब्ध हो सकता था। फिर समस्या खड़ी हो गई, अब सब है, अब क्या करें?
समस्याएं मिट नहीं सकतीं। समस्याओं के तल बदलते हैं। और चेतनी ऐसी होनी चाहिए, जो हर तल पर हर नई समस्या का साक्षात कर सके, आनंद से; भय से नहीं। क्योंकि भय से किया गया साक्षात, कभी साक्षात नहीं हो सकता। स्वीकार से, अस्वीकार से नहीं। क्योंकि जिसने अस्वीकार कर लिया, वह पीठ कर लेता है। पीठ करके कभी साक्षात नहीं हो सकता। सहज भाव से कि जीवन ऐसा है, और जीवन जैसा है और जैसा होगा, वैसा मुझे अंगीकार है। मैं दावे नहीं करता कि वह ऐसा ही हो, जैसा कल था। आने वाला कल बिलकुल नया कल होगा। आने वाला सूरज बिलकुल नया सूरज होगा। सुबह उठेंगे, फिर कल का साक्षात्कार करेंगे। नहीं उठ सके, तो मौत का साक्षात्कार करेंगे। जो होगा, उसका साक्षात्कार करेंगे। और हमारी तैयारी इतनी होनी चाहिए कि हम हर साक्षात्कार के बाद ज्यादा ज्ञान, ज्यादा आनंद, ज्यादा अनुभव, ज्यादा जीवंत होकर बाहर निकल आएंगे। लेकिन इतनी हिम्मत नहीं है, इतना करेज नहीं है, इसलिए पुराने को पकड़े हुए बैठे हैं। पुराने को पकड़ना हमेशा साहस की कमी है। भय का लक्षण है।
इसलिए पहली बात, अगर परंपरावाद से भारत की प्रतिभा को मुक्त होना हो, तो भय छोड़ देना पड़ेगा। और सबसे बड़ा भय जीवन का भय है। और जीवन के भय से ही मृत्यु का भय पैदा होता है। जो जीवन से डरते हैं, वे ही मृत्यु से डरते हैं। जो जीवन को जीते हैं, वे मृत्यु को भी जीते हैं। उन्हें कोई भी भय नहीं है। भय का कोई सवाल नहीं है। और भयभीत होकर जीवन बदल नहीं जाता, सिर्फ हम एक मेंटल कैपसूल में, एक झूठी कल्पना के घेरे में अपने को बंद कर लेते हैं।
मेरे एक मित्र हैं, बूढ़े हैं, कुछ दिनों से उन्होंने सब पूजा-पाठ, मंदिर जाना, सब छोड़ दिया था। मुझसे कहते थे कि सब मैंने छोड़ दिया, अब मैं सबसे मुक्त हो गया हूं। मैंने उनसे कहा, आप बार-बार कहते हैं कि सब छोड़ दिया, सबसे मुक्त हो गए; इससे शक होता है कि ठीक से मुक्त नहीं हो पाए हैं, ठीक से छूट नहीं पाया है। फिर उनको हृदय का दौरा हुआ, हार्ट-अटेक हुआ। मैं उन्हें देखने गया। वे करीब-करीब आधी बेहोशी में पड़े थे और बेहोशी में ही उनके मुंह से राम-राम-राम-राम का पाठ चल रहा था। मैंने उन्हें हिलाया और मैंने पूछा, यह क्या कह रहे हो? तुम तो कहते थे, सब छोड़ दिया। वे कहने लगे, मैं भी सोचता था कि सब छोड़ दिया, लेकिन जब मौत सामने आई, तो न मालूम कैसे मशीन की तरह भीतर से राम-राम होने लगा कि करो राम-राम। कहीं राम हों न, और अगर हुए तो भूल हो जाएगी। फिर हर्ज भी क्या है? राम-राम जप लेने में हर्ज भी क्या है? नहीं हुआ, तो कुछ हर्ज न हुआ। अगर हुआ, तो सुरक्षा का इंतजाम कर लिया। वह मौत सामने खड़ी है तो आदमी राम-राम जप रहा है।
वे जो मंदिर में हाथ जोड़े खड़े हैं, उन्हें भगवान से कोई मतलब नहीं है। और वे जो मालाएं फेर रहे हैं, उन्हें भगवान से कोई मतलब नहीं है। और वे जो शास्त्रों में आंखें गड़ाए हुए कंठस्थ कर रहे हैं सूत्रों को, उनको भगवान से कोई मतलब नहीं है। ये सब भय से पैदा हुई प्रवृत्तियां हैं। जिसे हम धर्म कहते हैं, वह हमारा फियर है। और वह धर्म जो अभय से, फियरलेसनेस से आता, उसका हमें कोई पता ही नहीं। ये जो मंदिर और मस्जिद, और यह जो पूजा और काबा और काशी खड़े हैं, ये मनुष्य के भय से उत्पन्न हुए हैं। और ये जो मूर्तियां, और ये जो भगवान की पूजाएं चल रही हैं, ये मनुष्य के भय से जन्मी हैं। हम भयभीत हैं, हम डरे हैं, हम सुरक्षा चाहते हैं। अज्ञात से हम सुरक्षा चाहते हैं। हम किसी के चरण पकड़ना चाहते हैं, हम कोई सहारा चाहते हैं।
यह जो गुरुडम चल रही हैं सारे देश, यह जो जगह-जगह छोटे-बड़े गुरु, छोटे-बड़े महात्मा, आधे और पूरे महात्मा इकट्ठे हैं सारे मुल्क में और उनके आस-पास लोग चरण पकड़े हुए हैं--यह गुरुडम किसी ज्ञान या किसी सत्य की खोज पर नहीं चल रही है। भय, हम डरे हुए हैं और डरने में हम किसी का भी सहारा चाहते हैं। कहते हैं न, आदमी डूबता हो तो तिनके का भी सहारा पकड़ लेता है। फिर इसी भय में वह कहता है, मेरे गुरु बहुत महान गुरु हैं। इसलिए नहीं कि उसको पता चल गया वे महान हैं, बल्कि अपने को समझाता है कि अगर महान नहीं हैं, तो मैं डूबा। तो अपने गुरु को महान बताता है, अपने तीर्थंकर को श्रेष्ठ बताता है, अपने अवतार को असली बताता है। दूसरों के अवतारों को नकली बताता है। क्योंकि वह यह कह रहा है कि मेरी सुरक्षा मजबूत होनी चाहिए। जो मैंने पकड़ा है, वह सच्चा और खरा है। वह आंख बंद करके पकड़ता है। वह आंख बंद करके ही पकड़े रहता है। वह कभी आंख खोल कर देखता भी नहीं कि यह क्या हो रहा है। वह देख भी नहीं सकता। वह डरा हुआ है। वह खुद ही डरा हुआ है। आंख खोल कर देखेगा तो एक आदमी पाएगा अपने ही जैसा, जिसके वह चरण पकड़े हुए है और भगवान समझे हुए है। लेकिन वह आंख नहीं खोलेगा। और आप आंख खोलने को कहेंगे तो वह नाराज होगा।
भय भीतर है। अगर आप आंख खोल कर देखने को कहते हैं, तो खतरा है कि कहीं गुरु विलीन न हो जाए, कहीं भगवान खो न जाए, कहीं मूर्ति न मिट जाए, कहीं मंदिर खो न जाएं, कहीं प्रार्थनाएं भूल न जाएं। फिर क्या होगा? मैं तो अकेला हूं।
लेकिन सच यह है कि आप अकेले ही हैं। इस सत्य को झुठलाने से कुछ भी न होगा। आदमी अकेला है। आदमी बिलकुल अकेला है। और कोई सहारा नहीं है। और जिंदगी असुरक्षा है। और सब सुरक्षाएं काल्पनिक, इमेजीनरी है। यह सत्य जितना स्पष्ट हो जाए और इस सत्य की जितनी स्वीकृति हो जाए, आदमी उतना ही भय से मुक्त हो जाता है और जब आदमी भय से मुक्त हो जाता है। तो पुराने से मुक्त हो जाता है। जब आदमी भय से मुक्त हो जाता है, तो शास्त्रों से मुक्त हो जाता है। और जब आदमी भय से मुक्त हो जाता है, तो गुरुओं से मुक्त हो जाता है। और जब आदमी भय से मुक्त हो जाता है, तो समाज, परंपरा, रूढ़ियां, उनसे मुक्त हो जाता है। और जिसकी प्रतिभा इन सबसे मुक्त है, पहली बार उस इंटेलीजेंस का, उस चेतना का, उस बुद्धिमत्ता का जन्म होता है, जो सत्य को जान सकती है। उस बुद्धिमत्ता का, उस विज़डम का जन्म होता है, जो जीवन की हर समस्या का साक्षात्कार कर सकती है। उस सजगता का, उस बोध का जन्म होता है, जिस बोध की अग्नि में जीवन की कोई चिंता नहीं टिकती, हर चिंता का अतिक्रमण हो जाता है। और वैसा अतिक्रमण अगर चेतना, प्रतिभा न कर पाए, तो जीवन एक बोझ है, जीवन एक भार है, जीवन एक दुख है।
दुख होगा ही, क्योंकि हम गलत, हम बिलकुल ही गलत, हम बिलकुल ही काल्पनिक, हम बिलकुल ही झूठी दुनिया में खो गए हैं, जो है ही नहीं।
भारत की पूरी चेतना पीछे की तरफ देख रही है, भविष्य के भय के कारण। भारत की पूरी चेतना गुरुओं को पकड़े हुए हैं, अकेले होने के डर के कारण। पति पत्नी को पकड़े हुए है, पत्नी पति को पकड़े हुए है। दोनों अकेले हैं, दोनों डरे हुए हैं, दोनों एक-दूसरे को पकड़े हुए हैं। और कोई भी नहीं पूछ रहा कि दो डरे हुए आदमी अगर इकट्ठे हो जाएं, तो डर दो-गुना हो जाता है, आधा नहीं। गुरु शिष्यों को पकड़े हुए हैं, शिष्य गुरुओं को पकड़े हुए हैं। गुरु भी डरा हुआ है कि अगर शिष्य खो गए तो मैं अकेला पड़ जाऊंगा। तो गुरु भी संख्या रखता है कि कितने अपने शिष्य हैं। एक शिष्य खोने लगता है तो मन को बड़ी पीड़ा होती है। जैसे एक ग्राहक को खोते देख कर दुकानदार दुखी होता है, एक शिष्य को खोते देख कर गुरु दुखी होता है। शिष्य को डर लगता है, कहीं गुरु न छोड़ दे। और दोनों डरे हुए हैं, एक-दूसरे को पकड़ कर भीड़ किए हुए हैं।
और यह भीड़ करीब-करीब वैसी ही है, जैसे कोई नाव डूब रही हो और डूबती हुई नाव में सारे लोग एक ही तरफ, एक ही कोने में दौड़ कर इकट्ठे हो जाएं, उनके दौड़ने और इकट्ठे होने से नाव बचेगी नहीं, जल्दी डूबेगी। वे अकेले-अकेले खड़े रहें नाव पर, तो नाव बच भी सकती है। लेकिन जहां सब भाग रहे होंगे, वहीं नाव के सारे यात्री भागेंगे और एक ही कोने में सब एक-दूसरों को पकड़ कर करीब-करीब खड़े हो जाएंगे। जैसे करीब-करीब खड़े होने से अकेलापन मिटता है? किसी को कितना ही छाती से लगा लो फिर भी अकेलापन नहीं मिटता। जिसे छाती से लगाया, वह भी अकेला है; जिसने लगा लिया, वह भी अकेला है। अकेलापन नहीं मिटता है। सिर्फ भ्रम पैदा होता है कि कोई साथ है। कोई साथ नहीं है। और जो आदमी इस सत्य को समझ लेता है कि कोई साथ नहीं है, टोटल अलोन, टोटली अलोन, समग्रीभूत रूप से अकेला हूं। और इस बात की पूरी-पूरी समझ है कि इस अकेलेपन से बचने के सब उपाय झूठे हैं, कोई उपाय कारगर नहीं है। जिस दिन यह समझ पूरी साफ हो जाती है, उसी दिन आदमी भय से मुक्त हो जाता है, उसी दिन अभय को उपलब्ध हो जाता है। उसी दिन भविष्य के लिए उन्मुख हो जाता है, उसी दिन नये के लिए स्वागत का द्वार खुल जाता है। उसी दिन जीवन को जीने की क्षमता, साहस, एडवेंचर, अभियान शुरू हो जाता है। एक व्यक्ति के लिए भी यह सच है, एक समाज के लिए भी यही सच है--चेतना मुक्त होनी चाहिए भय से।
लेकिन भय से हम मुक्त नहीं हैं और इसीलिए हम अतीत से बंधे हैं। एक बात, मौलिक कारण जो है, वह सुरक्षा का आग्रह है। और सुरक्षा का आग्रह भयभीत आदमी की मांग है। और भयभीत आदमी कितनी ही सुरक्षा करे, कुछ हो नहीं सकता, सब सुरक्षा और भयभीत करेगी। फिर और सुरक्षा करनी पड़ेगी, फिर और सुरक्षा करनी पड़ेगी।
रवींद्रनाथ के घर में कोई सौ लोग थे। बड़ा परिवार था। मनों दूध आता था। रवींद्रनाथ के एक भाई थे, उन्होंने देखा कि दूध में पानी मिल कर आता है। तो उन्होंने एक नौकर रखा और कहा कि दूध का निरीक्षण करो, पानी मिला दूध घर में न आने पाए। लेकिन घर के लोग हैरान हुए! जिस दिन से नौकर रखा, उस दिन से दूध में और ज्यादा पानी आने लगा। क्योंकि उस नौकर का हिस्सा भी जुड़ गया। भाई जिद्दी थे, उन्होंने उसके ऊपर एक सुपरवाइजर रखा। लेकिन घर में और हैरानी हुई, दूध में और ज्यादा पानी होने लगा! क्योंकि सुपरवाइजर का हिस्सा भी जुड़ गया।
रवींद्रनाथ के पिता ने उन्हें बुला कर कहा कि अब और चीफ सुपरवाइजर रखने का इरादा तो नहीं है? रवींद्रनाथ के भाई ने कहा, मेरा तो इरादा है। मैं तो किसी तरह इस पानी को आने से रोकूंगा। एक और आदमी को जो निकट परिवार से संबंधित थे, उनको चीफ सुपरवाइजर रखा। उसी दिन पानी में एक मछली भी आ गई। रवींद्रनाथ के पिता ने कहा, सबको विदा कर दो। क्योंकि जिस बात की सुरक्षा के लिए तुम उपाय कर रहे हो, वे सब उपाय और सुरक्षा मांगेंगे, फिर और सुरक्षा मांगेंगे, फिर और सुरक्षा मांगेंगे। और इसका कोई अंत नहीं है।
आदमी जो इंतजाम करता है--पहले वह धन कमाता है, कि धन से भय से मुक्त हो जाएगा, मेरे पास धन है। फिर धन है इसका भय पैदा हो जाता है कि कहीं चोरी न चला जाए धन? तो तिजोरी खरीद कर लाता है। तिजोरी में ताले लगाता है। फिर डरता है कि यह चाबी चोरी न चली जाए? फिर रात भर सोता नहीं। फिर इस चाबी की फिकर करता है। फिर घर पर पहरेदार रखता है। फिर डर लगता है कि कहीं पहरेदार ही भीतर घुस कर बंदूक छाती से न लगा दे? और यह डर चलता चला जाता है और यह इंतजाम और यह इंतजाम और यह इंतजाम होता चला जाता है।
स्टैलिन और हिटलर के संबंध में कहा जाता है, उन्होंने अपने डबल रख छोड़े थे। स्टैलिन ने एक आदमी रख छोड़ा था जो स्टैलिन जैसा दिखाई पड़ता था। यह बड़े मजे की बात है। आदमी नेता होना चाहता है इसलिए कि हजारों, लाखों लोगों की भीड़ उसे स्वागत करे। लेकिन जब हजारों-लाखों लोगों की भीड़ स्वागत करती है तो डर पैदा होता है कि कोई गोली न मार दे? तो स्टैलिन ने एक आदमी रख छोड़ा था, जो स्टैलिन जैसा दिखाई पड़ता था। स्टैलिन अपने कमरे में बंद रहता और जब हजारों लोगों की भीड़ में जाना पड़ता तो वह नकली स्टैलिन हाथ जोड़ कर वहां खड़ा रहता, स्वागत करता। कोई गोली मार दे तो नकली आदमी मरे।
किसलिए यह भीड़ इकट्ठी की थी? यह भीड़ इसलिए इकट्ठी की थी कि कभी हजारों लोग सम्मान देंगे, उसका मजा लेंगे। और जो भी भीड़ इकट्ठी कर लेता है, फिर भीड़ से बचना पड़ता है। फिर पहरेदार इकट्ठे करने पड़ते हैं। फिर राष्ट्रपति के आस-पास बंदूकें चल रही हैं कि कहीं कोई मार न दे, कहीं कोई पत्थर न फेंक दे। फिर खतरा बढ़ता चला जाए तो फिर असली राष्ट्रपति नहीं चलेगा घोड़ागाड़ी में, नकली राष्ट्रपति चलेगा; असली राष्ट्रपति घर के भीतर बंद रहेगा।
हिटलर ने मरते दम तक शादी नहीं की, मरने के दो घंटे पहले शादी की। क्योंकि हिटलर इतना भयभीत था कि पता नहीं पत्नी जहर दे दे। सब पर तो पहरा रखोगे, पत्नी पर कैसे पहरा रखोगे? पत्नी तो उसी कमरे में सोएगी, जिसमें आप सोते हो? रात को उठे और गर्दन दबा दे? कोई पत्नी को मिला ले? विश्वास नहीं किया जा सकता किसी दूसरे का। तो हिटलर ने शादी नहीं की। जिस स्त्री से उसका प्रेम चलता था बारह वर्षों से वह उसको टालता रहा कि अभी मुझे फुर्सत नहीं है। कुछ लोगों को प्रेम करने की फुर्सत भी नहीं होती। क्योंकि दूसरे इतने जरूरी काम मालूम पड़ते हैं। टालता रहा। जिस दिन बर्लिन पर बम गिरने लगे, और जिस दिन हिटलर जहां छिपा था नीचे जमीन में, उसके बाहर गोलियां चलने लगीं; तब उसने खबर भेजी कि तू जल्दी आ जा और एक पुरोहित को ले आ, हम विवाह कर लें। क्योंकि अब कोई खतरा नहीं है, अब मौत सामने ही आ गई है। मरने के दो घंटे पहले एक तलघरे में--एक कोई भी आदमी को, पुरोहित को नींद से उठा कर बुला लिया गया और दोनों का विवाह करवा दिया उसने। और दो घंटे बाद दोनों ने जहर खाकर गोली मार ली।
आदमी जीवन से इतना भयभीत हो सकता है। और इंतजाम किसलिए करता है? और इंतजाम इसलिए करता है कि भय के बाहर हो जाए। और सारे इंतजाम और भय में गिराते चले जाते हैं!
वही आदमी भय के बाहर होता है, जो अकेले होने की स्थिति को स्वीकार कर लेता है। वही आदमी सुरक्षित होता है, जो इनसिक्योरिटी को, असुरक्षा को अंगीकार कर लेता है। वही आदमी मृत्यु के भय के ऊपर उठ जाता है, जो मृत्यु को जीवन का अंग मान लेता है। मान नहीं लेता, जान लेता है कि मृत्यु जीवन का अंग है, बात खत्म हो गई। जीवन की तथाता है, सचनेस है, जीवन जैसा है, उससे बचने का उपाय मत करिए। जीवन से कैसे बच सकते हैं? जीवन जैसा है, उस जीवन के साथ बहा जा सकता है, बचा नहीं जा सकता। बचने की कोशिश में जीवन खो जाता है।
हमारे चित्त ने जीवन खो दिया। हम जीवन की धारा से बहुत पीछे खड़े हैं। एक क्षण में हम जीवन की धारा में आ सकते हैं। लेकिन भय जाए, सुरक्षा की कामना जाए, तो यह हो सकता है। और हमारी परंपरावादिता, हमारा पुराणपंथ, हमारी पुरानी किताब, पुराना गुरु, हमारा उसके चरणों को पकड़े चले जाना, हमारे सिर्फ भयभीत होने का सबूत है।
यह दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं, भारत की प्रतिभा को भय का पक्षाघात, पैरालिसिस लगा हुआ है। भार की प्रतिभा भयभीत है। वह अभय नहीं है। इसलिए वह कुछ भी जानने से डरती है। वह कुछ भी जानने से डरती है। और जहां-जहां उसे डर लगता है कि कोई नई बात जानी जाएगी, वहां वह देखती ही नहीं, वहां वह आंख ही नहीं उठाती। वहां से वह अपने को बचा लेती है, भूल जाती है। अपने भीतर भी वह वह नहीं देखना चाहता जिससे डर हो सकता है। वह आंख चुरा लेता है, वह भजन-कीर्तन करने लगता है। वह भूला देता है कि होगा कुछ, हमें मतलब नहीं है। और धीरे-धीरे इतना भूल जाता है कि खुद का जो असली है, वह छिप जाता है और खुद का जो नकली है, वह असली मालूम पड़ने लगता है। हम सब नकली आदमी हैं।
मैंने सुना है कि एक खेत में एक नकली आदमी खड़ा है। सभी खेतों में नकली आदमी खड़े हैं। ऐसे तो दुकानों में, दफ्तरों में, आफिसों में, सब जगह नकली आदमी खड़े हैं। लेकिन उनको पहचानना जरा मुश्किल है, क्योंकि वे चलते-फिरते हैं, बातचीत करते हैं। वह खेत में नकली आदमी सब पहचान लेते हैं--डंडा गड़ा है, हंडी लगी है, कुर्ता पहना हुआ है। वह खेत में किसान लगाए हुए है जानवरों को डराने के लिए।
एक दार्शनिक खेत के नकली आदमी के पास से गुजरता था। अनेक बार गुजरा था, वर्षा, धूप, गर्मी, रात-दिन वह नकली आदमी वहीं अकड़ कर खड़ा रहता। नकली आदमी हमेशा अकड़े हुए रहते हैं। क्योंकि अगर अकड़ चली जाए तो कहीं नकल न खुल जाए। तो जहां भी अकड़ा हुआ आदमी देखें, समझना कि नकली आदमी है। और नकली आदमी अकड़ की जगह की तलाश में रहता है। ऐसी कुर्सी मिलनी चाहिए जिस पर अकड़ कर बैठ सके, तो वह दिल्ली तक की यात्रा करता है। वह सब नकली आदमियों की यात्रा है। वह खेत में नकली आदमी खड़ा है। वह कई दफे दार्शनिक वहां से निकला है। कई दफे उसका मन हुआ कि इस मूरख से पूछें कि तू अकेला खड़ा रहता है, कभी घबड़ाता नहीं है, ऊबता नहीं, बोर्डम नहीं मालूम पड़ती--न कोई संगी, न कोई साथी? वर्षा आती है, धूप आती है, तू खड़ा ही रहता है, तुझे मजा क्या है? और जब भी मैं निकलता हूं, तू अकड़ा रहता है। और ऐसा लगता है कि बड़ा खुश है।
एक दिन हिम्मत जुटा कर वह दार्शनिक उसके पास गया। दार्शनिक को हिम्मत जुटानी पड़ती है, क्योंकि नकली आदमियों से प्रश्न पूछना बड़ा खतरनाक है, क्योंकि नकली आदमी नाराज हो जाता है। क्योंकि उसने सभी प्रश्नों के झूठे उत्तर मान रखे हैं। अगर आप उससे प्रश्न पूछिए तो उसके झूठे उत्तर खिसकने लगते हैं। वह कहता है, प्रश्न पूछो ही मत। नकली आदमी सिर्फ उत्तर की मांग करता है, प्रश्न की कभी मांग नहीं करता। जो आदमी उससे प्रश्न पूछता है, वह कहता है, गोली मार देंगे। सुकरात को इसलिए तो जहर पिला देता है, क्योंकि सुकरात नकली आदमियों को सड़क पर पकड़ लेता है और कहता है, रुको, और मेरे प्रश्न का जवाब दो? अब प्रश्न का जवाब नहीं, और हर नकली आदमी समझता है, सब जवाब मेरे पास है। और जब पूछने वाला मिलता है तो जवाब बह जाते हैं पानी में। जैसे नकली रंग, कच्चा रंग बह जाता है। तो वह नकली आदमी था, दार्शनिक ने सोचा, पूछूं या न पूछूं, कहीं नाराज न हो जाए? लेकिन एक दिन सोचा कि चलो पूछ ही लूं। नाराज ही होगा। वह दार्शनिक उस नकली आदमी के पास गया और कहा, मेरे मित्र! उस नकली आदमी ने गुस्से से देखा, क्योंकि नकली आदमी किसी को मित्र देखना पसंद नहीं करता। या तो आप उसके शत्रु हो सकते हैं या उसके अनुयायी हो सकते हैं, नकली आदमी का मित्र कोई नहीं हो सकता। उसके शिष्य हो सकते हैं, शत्रु हो सकते हैं, नकली आदमी के मित्र नहीं हो सकते। हिटलर का कोई मित्र नहीं है। मित्र बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि मित्र जो है, वह समान होने का दावा करता है। नकली आदमी किसी को समान नहीं मानता। उसने कहा, मित्र! तुमसे मेरी क्या मित्रता है?
फिर भी उसने कहा, मैंने सिर्फ संबोधन किया, नाराज मत हो जाओ! मुझे कुछ सूझा नहीं, इसलिए मैंने यह संबोधन किया। यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है, मैं कुछ और पूछने आया हूं। मैं यह पूछने आया हूं कि वर्षा, धूप, रात-दिन, तुम अकेले खड़े रहते हो, ऊब नहीं जाते, घबड़ा नहीं जाते, बेचैन नहीं हो जाते?
वह नकली आदमी खिलखिला कर हंसने लगा। उसने कहा, बेचैन, ऊब! अरे बड़ा आनंद है यहां। दूसरों को डराने में बड़ा आनंद आता है। पक्षी डर कर भागते हैं, बहुत मजा आता है। जानवर डर कर भागते हैं, बहुत मजा आता है। दूसरों को डराने में बहुत आनंद है। एकदम आनंद ही आनंद है।
उस दार्शनिक ने कहा, तुम ठीक कहते हो। नकली आदमियों को सिर्फ दूसरों को डराने में ही आनंद आता है, और कोई आनंद नहीं आता।
अपने पास बड़ी तिजोड़ी है, छोटा तिजोड़ी वाला डर जाता है। अपने पास बड़ा मकान है, छोटा मकान वाला डर आता है। अपने पास दिल्ली का पद है, पूना का पद वाला डर जाता है। नकली आदमी को दूसरे को डराने में मजा आता है। उसका आनंद सिर्फ एक है, दूसरे को भयभीत करना। और ध्यान रहे, जो आदमी दूसरे को भयभीत करने में आनंदित होता है, वह आदमी स्वयं भयभीत होना चाहिए, अन्यथा यह आनंद असंभव है। जो भयभीत है, वही भयभीत करके आनंद लेता है। क्यों? क्योंकि जब वह दूसरे को भयभीत कर देता है, तो उसे विश्वास आता है कि अब मैं भयभीत नहीं हूं। जब वह दूसरे को डरा देता है तो वह कहता है, बिलकुल ठीक! मुझसे दूसरे डरते हैं, मुझे डरने की क्या जरूरत है? वह डराने के लिए है, किसी से न डरने के लिए है। लेकिन चाहे डराने के लिए तलवार हो और चाहे न डरने के लिए तलवार हो, तुम डरे हुए आदमी हो, तलवार हर हालत में सिद्ध करती है। उस दार्शनिक ने कहा कि बिलकुल ठीक कहते हो, नकली आदमी सदा दूसरों को डराने में आनंद लेते हैं। वह फिर खिलखिला कर हंसने लगा और उसने कहा, तुमने कभी कोई असली आदमी भी देखा? उस दार्शनिक से उस नकली आदमी ने पूछा खेत के, तुमने कभी असल आदमी भी देखा?
उस नकली आदमी ने कहा, मुझे तो बड़ी हैरानी होती है कि मुझे लोग नकली कहते हैं! मैंने तो सब आदमी ऐसे ही देखे हैं! हां, थोड़ा फर्क है कि मैं जरा चल-फिर नहीं सकता। लेकिन चल-फिर कर तुम करते क्या हो, दूसरों को डराते ही हो न? मैं बिना ही चले-फिरे डरा लेता हूं। तो फर्क क्या है? जो काम मैं बिना चले कर लेता हूं, वह तुम चल-फिर कर करते हो न? तुम्हारी सारी स्पीड, तुम्हारे यान, तुम्हारा चांद तक जाना। चांद तक जाने के लिए है कि किसी को डराने के लिए है? वे जो रूस के यान चांद की तरफ भाग रहे हैं और अमेरिका के, वह चांद तक जाने के लिए है? चांद से न रूस को मतलब है, न अमेरिका को। रूस अमेरिका को डराना चाहता है, अमेरिका रूस को डराना चाहता है। जो पहले पहुंच जाएगा, वह डराने में समर्थ हो जाएगा। सारी गति डराने के लिए चल रही है। उस नकली आदमी ने कहा, तुम्हें कोई असली आदमी मिला? उसका उत्तर वह दार्शनिक नहीं दे सका। आपसे भी पूछा जाए तो उत्तर बिलकुल मुश्किल है। असली आदमी मिलना बहुत मुश्किल है।
असली आदमी तो वही हो सकता है, जो जीवन की तथ्यता को, वह जो जीवन की फैक्टिसिटी है, वह जो जीवन की सचनेस है; जीवन जैसा है उसको वैसा स्वीकार करता है--न भयभीत है, न सुरक्षा की खोज में है, न चिंता में है। जीवन जैसा है--जन्म है तो जन्म, मृत्यु है तो मृत्यु, स्वास्थ्य है तो स्वास्थ्य, बीमारी है तो बीमारी, सबको अंगीकार करता है। जीवन की प्रत्येक स्थिति का जिसके मन में स्वीकार है और नये अनजान, अज्ञात, अपरिचित रास्तों पर जाने की जिसकी हिम्मत है, जो डरा हुआ नहीं है, वही आदमी आथेंटिक, असली हो सकता है, प्रामाणिक हो सकता है।
भारत नकली आदमियों की जमात हो गया है। क्योंकि भारत ने पुरातन परंपरा को पकड़ कर असली आदमी को पैदा होने की व्यवस्था बंद कर दी है।
यह दूसरा सूत्र है: जो पुरातन से बंधा है वह नकली आदमी है। जो अतीत से बंधा है वह भयभीत है। और भयभीत आदमी कभी असली, आथेंटिक, प्रामाणिक नहीं हो सकता है। भारत की आत्मा आथेंटिक नहीं रह गई, प्रामाणिक नहीं रह गई, अप्रामाणिक हो गई है। और फिर दूसरी जितनी अप्रामाणिकता पैदा हुई है, वह इसी से पैदा हुई है। और जब तक यह बुनियादी अप्रामाणिकता नहीं मिटती है तब तक और किसी तरह की अप्रामाणिकता नहीं मिट सकती, क्योंकि वह इसकी बाइ-प्रॉडक्ट है, वह उससे आई है।
कल सुबह तीसरे सूत्र पर आपसे बात करूंगा।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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