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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

नये भारत की खोज-(प्रवचन-05)

नये भारत की खोज-(पांचवा-प्रवचन)

पांचवां प्रवचन (६ मई १९६९, पूना, प्रातः)

आत्मघाती आदर्शवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीते दो दिनों में भारत की समस्याएं और हमारी प्रतिभा, इस संबंध में कुछ बातें मैंने कहीं। पहले दिन पहले सूत्र पर मैंने यह कहा कि भारत की प्रतिभा अविकसित रह गई है, पलायन, एस्केपिज्म के कारण।
जीवन से बचना और भागना हमने सीखा है, जीवन को जीना नहीं। और जो भागते हैं, वे कभी भी जीवन की समस्याओं को हल नहीं कर सकते।
भागना कोई हल नहीं है। समस्याओं से पीठ फेर लेना और आंख बंद कर लेना कोई समाधान नहीं है। समस्याओं को ही इनकार कर देना, झूठा कह देना, माया कह देना, समस्याओं से आंख बंद कर लेना तो है, लेकिन इस भांति समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती। मन को राहत मिलती है कि समस्याएं हैं ही नहीं, लेकिन समस्याएं जीवित रहती हैं, वे हैं।
और समस्याएं जितना नुकसान पहुंचा सकती हैं वे पहुंचाती हैं। और जो समस्या बिना हल किए हुए रह जाती है, वह मस्तिष्क में घाव और बीमारी की गांठ बन जाती है, कांप्लेक्स बन जाती है। और भारत ने अपने इतिहास में समस्याएं इतनी इकट्ठी कर ली हैं कि आदमी उनके नीचे दब गया है, जैसे पहाड़ के नीचे दब गया हो।
दूसरे दिन मैंने कहा कि भारत की प्रतिभा के विकास में दूसरी बात बाधा बन गई है और वह है परंपरावादी, ट्रेडिशनलिज्म। परंपरावादी चित्त हमेशा पीछे की तरफ देखता है, आगे की तरफ उसकी आंखें नहीं होती हैं। समस्याएं आगे से आती हैं और परंपरावादी चित्त के समाधान पीछे से आते हैं। समस्याएं सदा आगे से आती हैं और समाधान सदा पीछे से आते हैं। उनका कोई तालमेल नहीं बैठ पाता। उसमें कोई संबंध नहीं हो पाता। समाधान अलग इकट्ठे होते चले जाते हैं, समस्याएं अलग इकट्ठी होती चली जाती हैं। और एक चमत्कार घटित होता है--समस्याओं के बोझ से भी हम दब जाते हैं और समाधानों के बोझ से भी। भारत की प्रतिभा को समस्याएं भी नुकसान पहुंचा रही हैं और भारत के तोते की तरह सीखे गए समाधान भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। यदि समाधान पकड़ लिए जाएं, और समस्याओं से उनका कोई मेल न होता हो, तो वे समाधान नये समाधान खोजने में बाधा बनते हैं। और हमें यह भ्रम पैदा होता है कि हम तो समाधान जानते हैं।
भारत को ज्ञानी होने का भ्रम पैदा हो गया है और इसलिए भारत ज्ञानी नहीं हो सकता है, नहीं हो पा रहा है। हम अपने अज्ञान में ठहर गए हैं, क्योंकि ज्ञानी होने का भ्रम पैदा हो गया है।
एक छोटी सी कहानी से मैं यह बात साफ करूं और फिर तीसरे सूत्र पर आपसे बात करूं।
एक छोटी कहानी आपने सुनी होगी। सुना होगा, बहुत पुरानी कहानी है। सुना होगा कि एक राजमहल के चूहों ने बैठक की और विचार किया कि हम बहुत परेशान हैं, बल्लियां सदा से हमें परेशान कर रही हैं, हम क्या करें बचाव का उपाय? तो उन चूहों के बूढ़े चूहों ने कहा, एक ही रास्ता है कि बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जाए। लेकिन घंटी कोई कैसे बांधे? घंटी कौन बांधे? फिर हजारों साल बीत गए इस बात को। जब भी बिल्ली ने चूहों को परेशान किया, चूहों ने सभा की और फिर वही समाधान बूढ़ों ने दिया कि घंटी बांध दो। लेकिन फिर चूहों ने कहा, घंटी कौन बांधे? घंटी कैसे बांधी जाए? समाधान तो मालूम है कि बिल्ली के गले में घंटी बंध जाए, घंटी बजती रहे तो चूहे सावधान हो जाएं और बिल्ली हमला न कर पाए। लेकिन यह समाधान समाधान ही है, बिल्ली चूहों को खाती ही चली जाती है। और यह समाधान पूरा हो नहीं पाता। और चूहों के पुराणों में लिखा है कि यह तो पहले से ही समाधान गुरुओं ने दिया हुआ है, ऋषि-मुनियों ने। लेकिन समाधान पूरा नहीं हो सकता।
फिर मैंने सुना है कि बीसवीं सदी में फिर एक महल में यही मुसीबत? यह मुसीबत सदा रहेगी, जब तक चूहे हैं, बिल्ली है, मुसीबत रहेगी। फिर चूहे इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा, क्या करें, कैसे बिल्ली से बचें? फिर बूढ़े चूहों ने कहा, समाधान तो हमारे ग्रंथों में लिखा हुआ है। ऋषि-मुनियों ने बताया हुआ है कि बिल्ली के गले में घंटी बांध दो। लेकिन फिर सवाल यह है कि घंटी कौन बांधे? घंटी कैसे बांधे?
दो जवान चूहों ने कहा, घंटी कल सुबह हम बांध देंगे। बूढ़े हंसने लगे और उन्होंने कहा, नासमझ हो, बच्चे हो। घंटी कभी बांधी नहीं गई, बांधोगे कैसे? लेकिन दूसरे दिन सुबह उन चूहों ने घंटी बांध दी। और बूढ़े बहुत हैरान हुए! यह तो कभी न हुआ था। और उन जवान चूहों से पूछने लगे, तुमने घंटी बांधी कैसे?
उन जवान चूहों ने कहा, आपने समाधान पकड़ लिया था। और यह बात भी पकड़ ली थी कि यह हो नहीं सकता। और जो नहीं हो सकता, उसको पकड़ा था और नहीं हो सकता, यह भी पकड़ा था। इसलिए सोचने के आगे द्वार बंद हो गए। यह तो बहुत आसान बात थी। उन दो जवान चूहों का एक केमिस्ट की दुकान में आना-जाना था। वे नींद की गोली निकाल लाए और बिल्ली के दूध में गोली डाल दी और घंटी बांध दी। बिल्ली सो गई, बेहोश हो गई और घंटी बांध दी गई। लेकिन हजारों साल से बूढ़े चूहे यही कह रहे थे कि समाधान यही है, और यह हो नहीं सकता। दोनों बातें पकड़े हुए थे। सोचना मुश्किल हो गया था आगे।
भारत के मन में भी समस्याएं पुरातन हैं, समाधान भी पुरातन हैं। और करीब-करीब सब समाधान ऐसे हैं कि उनके साथ यह भी जुड़ा है कि यह हो नहीं सकता। हिंसा है, अहिंसा समाधान है। और हम सब जानते हैं, अहिंसा हो नहीं सकती। गरीबी समस्या है, अपरिग्रह समाधान है। कि धन का त्याग कर दो, और यह भी हम जानते हैं कि यह हो नहीं सकता। समाधान है, वह भी हम जानते हैं, नहीं हो सकता, यह भी हम जानते हैं। और इन सबको पकड़े हुए बैठे हैं। समस्याएं खाए चली जाती हैं। समाधान दोहराए चले जाते हैं। नहीं हो सकता है, यह भी जाने चले जाते हैं। प्रतिभा के लिए नये उपाय, नये आयाम, नये द्वार तोड़ने का मार्ग नहीं रह जाता।
तीसरे सूत्र में आपसे मैं कहना चाहता हूं, जो समाज भी आदर्शवादी होगा, वह समाज सड़ जाएगा, मर जाएगा, वह समाज विकसित नहीं हो सकता। यथार्थवादी समाज होना चाहिए। प्रतिभा का विकास यथार्थवाद के मार्ग से तो होता है, आदर्शवाद के मार्ग से नहीं होता। वह जो आइडियलिस्ट है, वह बातें तो आकाश की करता है और समस्याएं जमीन की हैं। और उसकी बातें बहुत अच्छी लगती हैं। लेकिन वे आकाश की हैं। और समाधान चाहिए पृथ्वी पर, और पृथ्वी से उसका कोई संबंध नहीं है।
भारत अच्छे लोगों के चक्कर में है और अच्छी बातों के चक्कर में है। और अच्छे लोगों का चक्कर उतना ही खतरनाक है--जैसे किसी आदमी के हाथ में सोने की जंजीरें डाल दी जाएं। जंजीरें तो खतरनाक होती हैं, लेकिन सोने की जंजीरें और खतरनाक होती हैं। क्योंकि वे जंजीरें भी होती हैं और सोने की वजह से उनको छोड़ने की हिम्मत भी जुटानी मुश्किल हो जाती है। भारत के चित्त पर जो जंजीरें हैं, वे जंजीरें भी हैं और साथ सोने की हैं, अच्छी-अच्छी बातों की हैं। संतों की हैं, साधु-संन्यासियों की हैं। उनको छोड़ना भी मुश्किल है। और वे जंजीरें भी हैं और वे चित्त को पकड़े हैं, वे चित्त को विकसित भी नहीं होने देती। वे चित्त को नये ढंग से सोचने की हिम्मत, नये ढंग से सोचने का साहस भी नहीं जुटाने देती।
आदर्शवाद का क्या अर्थ होता है?
आदर्शवाद का अर्थ होता है: जो है, वह महत्वपूर्ण नहीं है; जो होना चाहिए, वह महत्वपूर्ण है। और जो है, वही वस्तुतः महत्वपूर्ण है, जो होना चाहिए उसका कोई भी मूल्य नहीं है, क्योंकि वह नहीं है। जो होना चाहिए वह है नहीं, उसका महत्वपूर्ण है आदर्शवादी चित्त में। और जो है उसका कोई मूल्य नहीं है। और जो है, उससे ही सारे मार्ग निकल सकते हैं।
बीज वृक्ष हो सकता है, लेकिन बीज वृक्ष है नहीं। बीज है बीज--वृक्ष होने की संभावना है। संभावना हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। लेकिन बीज है, होने न होने का सवाल नहीं है। और अगर बीज कहीं वृक्ष होने के सपनों में पड़ जाए, सपने देखने लगे और सपने में मानने लगे कि मैं वृक्ष हो गया हूं, तो बीज बीज रह जाएगा और वृक्ष कभी नहीं हो पाएगा। बीज को अगर वृक्ष भी होना है, तो अपने बीज होने को ही समझना पड़ेगा। उसके बीज होने से ही वह मार्ग निकलेगा, जो वृक्ष तक पहुंचता है। लेकिन बीज एक सपना देखने लगे कि मैं वृक्ष हो गया हूं और वृक्ष होने की कल्पना में खो जाए, दिव्य स्वप्न में खो जाए, तो बीज बीज ही बना रहेगा, वृक्ष सपना होगा और वृक्ष वह कभी भी नहीं हो पाएगा।
भारत, मनुष्य जो है उसे भुलाने की कोशिश में लगा है और जो नहीं है, और जो होना चाहिए, उसकी तस्वीर मनुष्यों के चित्त पर, उसका ढांचा, उसकी आकृति को खोदने में लगा है। हम एक-एक आदमी को समझा रहे हैं कि तुम स्वयं परमात्मा हो। सचाई यह है कि हर आदमी परमात्मा नहीं है, सिर्फ पशु है। आदमी पशु है, यह तथ्य है, आदमी परमात्मा हो सकता है, यह संभावना है। लेकिन हम समझा रहे हैं, आदमी परमात्मा है। साधु-संन्यासियों के पास पापी बैठ कर बहुत सिर हिलाते हैं और कहते हैं, धन्य महाराज, बहुत ठीक आप कह रहे हैं। क्योंकि वे साधु-संन्यासी समझाते हैं क्या? वे समझाते हैं, तुम परमात्मा हो। तुम्हारे भीतर स्वयं सच्चिदानंद ब्रह्म का निवास है, तुम वही हो। और पापी बड़ा प्रसन्न होता है। अपने को भूलने में सुविधा मिल जाती है। वह जो है, उससे बचने का रास्ता मिल जाता है। सपने में वह ब्रह्म हो जाता है और वस्तुतः वह पशु बना रहता है। और उसके पशु होने में और ब्रह्म होने में एक दीवाल खड़ी हो जाती है। होता है पशु, उसे छिपा लेता है। जो नहीं होता, उसका अभिनय करने लगता है। और इस तरह भारत का पूरा व्यक्तित्व स्प्लिट पर्सनैलिटी है, पूरा व्यक्तित्व खंड-खंड हो गया। दो बड़े खंडों में टूट गया--जो हम नहीं हैं, वह हम अपने को मानते हैं और जो हम हैं, वह हम अपने को जानना भी नहीं चाहते हैं, मानने की तो बात दूर है। हम उस तरफ आंख भी नहीं उठाना चाहते हैं। बड़ी तरकीब है यह।
आदमी पशु है, यह भारत में आज तक स्वीकृत नहीं हो सका। और आदमी पशु है। पशुओं की बड़ी जमात का ही एक हिस्सा है। और जब तक हम आदमी की इस पशुता के तथ्य को, यह रियलिटी है, यथार्थ है, इसको स्वीकार नहीं करते, तब तक इसके रूपांतरण का भी कोई मार्ग नहीं मिल सकता है।
हमने क्या रास्ता निकाला है? हमने पशुता को इनकार ही कर दिया है, हमने परमात्मा होने को स्वीकार ही कर लिया। हमारे शास्त्र घोषणा कर रहे हैं, आदमी परमात्मा है। और वह जो हम हैं, इस परमात्मा के शोरगुल में उसको छिपाए बैठे हैं। ऊपर बातें चलती जाती हैं आदर्श की, भीतर वह जो असली आदमी है, वह मौजूद है। और तब एक बड़ा तनाव पैदा होता है, बड़ी एंग्जाइटी, बड़ी चिंता पैदा होती है कि यह क्या है? और एक बड़ा दुख पैदा होता है, बहुत खिंचाव पैदा होता है कि यह क्या है? हम हैं कुछ, और होने के कुछ और भ्रम में पड़े हुए हैं। और जो हम नहीं हैं, उसको दिखाने का अभिनय कर रहे हैं, उसे दिखाने की पूरी चेष्टा कर रहे हैं। और जो हम हैं, उसे छिपाने की चेष्टा कर रहे हैं। भारत की प्रतिभा के विकास में एक जिच पैदा हो गई है, एक खाई पैदा हो गई है। और वह खाई है यथार्थ और आदर्श के बीच की खाई। और वह खाई इतनी बड़ी है कि हमने एक तरकीब से उसे पूरा कर लिया, यथार्थ को हमने भुला ही दिया है, और आदर्श को हमने स्वीकार कर लिया है कि हम ये हैं। बीज ने मान लिया है कि वह वृक्ष है और वृक्ष होने की यात्रा बंद हो गई है।
मनुष्य की पशुता को स्वीकार करने में भी बड़ी कठिनाई होती है, क्योंकि हमारे अहंकार को चोट लगती है। जब डार्विन ने पहली दफा यह बात कही और डार्विन ने मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान के लिए एक बहुत बड़ा सूत्र स्थापित किया कि आदमी पशुओं से आता है। तो सारी दुनिया के धार्मिक लोग डार्विन के विरोध में खड़े हो गए, उन्होंने कहा, यह क्या बात कर रहे हो? आदमी और पशुओं से! आदमी तो परमात्मा से पैदा हुआ। आदमी तो परमात्मा है। आदमी तो परमात्मा का पुत्र है। पशुओं का पुत्र! झूठ है यह बात। यह हम स्वीकार नहीं करते। लेकिन क्यों? क्योंकि पशुओं की संतति होने में अहंकार को चोट लगती है। वह जो आदमी ने अपनी ही कल्पना में अपने को परमात्मा मान रखा है, वह खत्म हो जाता है। लेकिन तथ्य यही है।
क्या है हमारे भीतर जो पशुओं के भीतर नहीं है?
वह जो पशुओं के भीतर है, वही हममें नये-नये रूपों में प्रकट हुआ है। वह जो पशुओं के भीतर है, उसी शृंखला की हम आगे की एक कड़ी हैं। लेकिन, आदमी बेईमान है और उसने अपने को धोखा दे रखा है। और जो चीजें पाशविक हैं, उनको भी वह बहुत ऊंचे सिद्धांतों के नाम पर सोने-चांदी का मुल्ममा चढ़ा कर पेश करता है। अगर मेरी पत्नी किसी की तरफ मुस्कुरा कर देख ले, तो मेरे दिल में आग लग जाती है, छुरा निकल आएगा बाहर। प्रेम वगैरह सब विलीन हो जाएगा। वह वही की वही बात है। एक पशु की मादा अगर दूसरे पशु की तरफ देख ले, तो खूंखार पशु फौरन दुश्मन पर टूट पड़ेगा। वह उसके बरदाश्त के बाहर है। लेकिन हमने बड़े अच्छे सिद्धांत बनाए हुए हैं, कि यह पत्नी धर्म है, यह पति धर्म है, यह एक पतिव्रता है, यह प्रेम एक साथ ही हो सकता है। और वह जो पशुता की वृत्ति है कि प्रेम भी पजेसन, प्रेम भी मालकियत चाहता है।
प्रेम भी मालिक बनने का ही एक ढंग है। वह जो पशु की प्रवृत्ति है, वह काम कर रही है। लेकिन अच्छे सिद्धांतों में हम उसको घेर रहे हैं। पशु अपनी जमीन पर अगर दूसरे पशु को आ जाना बरदाश्त नहीं कर सकता, वह जिस जमीन पर रहता है, जिस झाड़ के नीचे रहता है, उसके नीचे दूसरे को ठहरना बरदाश्त नहीं कर सकता। हार जाए तो ठहर सकता है, जीत जाए तो हटा देगा दुश्मन को। लेकिन शेयर नहीं कर सकता, बांट नहीं सकता। व्यक्तिगत संपत्ति उसी पशुता का हिस्सा है। मेरी जमीन, मेरा मकान, मेरा घेरा, मेरा मकान की बाउंड्री की दीवाल, इस तरफ मत आना। एक इंच जमीन छोड़ना मुश्किल है। और हम आदमी हैं, और हम परमात्मा हैं, और भीतर वही पशु बैठा है, जो कहता है, मेरी जमीन के घेरे में मत घुसना। लेकिन पशु बेचारे सीधे साफ हैं, वे जैसे हैं, वैसे हैं। उन्होंने कोई फिलासफीज खड़ी करके धोखे की आड़ नहीं ली।
मैंने सुना है कि एक आदमी और उसकी पत्नी ने यह तय किया हुआ था कि दोनों में से जो पहले मर जाए, वह मरने के बाद जो जीवित है, उससे संपर्क स्थापित करने की कोशिश करे और उस जीवन के संबंध में बताए, जहां वह पहुंच गया है। पति को मरे हुए एक वर्ष हो गया। पत्नी रोज राह देखती रही कि पति संपर्क साधेगा, अब साधेगा, लेकिन नहीं कुछ पता नहीं चला। कोई उपाय भी नहीं था सिवाय प्रतीक्षा के। लेकिन एक सांझ पत्नी अखबार पढ़ रही थी, अचानक उसे पति की आवाज सुनाई पड़ी। और पति ने कहा, अरे, सुनती हो? क्या कर रही हो? क्या खबर है आज की? और पत्नी तो हैरान हो गई! वह ऐसे पूछ रहा है जैसे अभी दस मिनट पहले किनारे के चौरस्ते पर चाय पीने गया हो, लौट के आया हो। लेकिन एक वर्ष हो चुका उसको मरे हुए। पत्नी ने चौंक कर देखा, वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता। उसने खुशी से कहा, अच्छा तो तुम हो, कहां हो? मजे में तो हो?
उस आवाज ने कहा, बहुत मजे में हूं और देखती हो, पास के खेत में जो गाय चर रही है, उस गाय की चमड़ी बड़ी मुलायम है, बहुत सुंदर है। उस पत्नी ने कहा, और सुनाओ, उस जीवन के बाबत? उसे बड़ी हैरानी हुई कि गाय के बाबत बता रहा है! और बताओ उस जीवन के बाबत? उस आदमी ने कहा, इतनी सुंदर गाय मैंने नहीं देखी, बहुत सुंदर है, बहुत आकर्षित करती है। उसकी पत्नी ने कहा, छोड़ो उस मूर्ख गाय को, उससे क्या लेना-देना है। सवाल यह है, मैं जानना चाहती हूं उस जीवन के संबंध में कि तुम जहां हो वहां के संबंध में कुछ बताओ? उस आदमी ने कहा, शायद में बताना भूल गया कि मैं सांड हो गया हूं और सिवाय गाय के मुझे और कुछ भी नहीं सूझ रहा है।
लेकिन एक पशु सीधा है, साफ है। वह कहता है, मैं सांड हो गया हूं, मुझे गाय के सिवाय कुछ भी नहीं सूझ रहा है। पुरुष को स्त्री के सिवाय कुछ भी नहीं सूझता; स्त्री को पुरुष के सिवाय कुछ भी नहीं सूझता। लेकिन, हम सीधे और साफ भी नहीं हैं। हम न मालूम कितनी कल्पनाओं में और न मालूम कितने आदर्शों में तथ्यों को छिपाएंगे, छिपाएंगे और ऐसा कर देंगे कि पहचानना मुश्किल हो जाए कि क्या है! पहचानना मुश्किल हो जाए कि क्या है! चक्र के भीतर चक्र और डब्बे के भीतर डब्बों को छिपाते चले जाएंगे और जो छिपाएंगे वह वही पशुता है। उस पशुता को छिपा कर आदर्शों की खोल में, आदर्शों के वस्त्रों में हम छिपा तो सकते हैं, लेकिन मिटा नहीं सकते। छिपाना मिटाने का उपाय नहीं है। वह मौजूद रहेगी, नये-नये रूपों में प्रकट होती रहेगी, नई-नई बातों में प्रकट होती रहेगी, अच्छे-अच्छे शब्दों में जाहिर होती रहेगी, नये-नये रूप लेगी।
हिंसा भीतर है, सेक्स भीतर है; ब्रह्मचर्य की आड़ में उसे छिपाया जा सकता है। लेकिन वह नये रूपों में प्रकट होना शुरू हो जाएगा, वह नये सपनों में प्रकट होने लगेगा, वह नये मार्गों से प्रकट होने लगेगा। और तब कठिनाई हो जाएगी।
ब्रह्मचर्य संभव है, लेकिन सेक्स को छिपा कर नहीं, सेक्स को जान कर, सेक्स को पहचान कर, उसके अतिक्रमण से। अहिंसा संभव है, लेकिन हिंसा को छिपा कर नहीं, हिंसा को जान कर, हिंसा को पहचान कर। परमात्मा होना संभव है, लेकिन पशु को वस्त्रों में ढांक कर नहीं, पशु को पहचान कर, उघाड़ कर, पशु से मुक्त होकर।
लेकिन हम उलटा ही काम कर रहे हैं। हम कर रहे हैं छिपाने का काम, और छिपाने को हमने बदलाहट का नाम दिया हुआ है।
छिपाना रूपांतरण नहीं है। और इस छिपाने में जितनी शक्ति लगती है, उससे बहुत कम शक्ति में क्रांति हो सकती है, रूपांतरण हो सकता है।
जीवन भर छिपाते हैं, छिपाते हैं, दबाते हैं। किसको दबाते हैं? किसको छिपाते हैं? अपने को ही! कौन दबाएगा? कौन छिपाएगा? हम हीं! हम हीं अपने को दबाएंगे, छिपाएंगे। यह संभव कैसे हो पाएगा? किसी न किसी कोने में हम जानते रहेंगे कि सत्य क्या है। फिर धीरे-धीरे हम उसे भी नहीं जानना चाहेंगे, दूसरे को भी धोखा देंगे और अंततः अपने को भी धोखा देंगे।
आदर्शवाद अंततः मनुष्य को सेल्फ डिसेप्शन, आत्मवंचना में ले जाता है। अपने को भी धोखा देना वह शुरू कर देता है। लेकिन आत्मवंचना के रास्ते इतने सूक्ष्म हैं कि अगर पहचान में न आएं तो जिंदगी, अनेक जिंदगियां भी बीत सकती हैं और वे पहचान में न आएं।
मैं एक संन्यासी के पास गया हुआ था। उन्होंने सब छोड़ दिया है। घर-द्वार छोड़ दिया है, मकान छोड़ दिया है, धन छोड़ दिया है, पत्नी-बच्चे छोड़ दिए हैं। वे कहते हैं, मैंने सब छोड़ दिया है। लेकिन नये रूपों में उन्होंने सब फिर बसा लिया है। बड़ा आश्रम बन गया है। और जब भी कोई जाए तो वे दिखाते हैं कि इस बिल्डिंग में एक लाख रुपया खर्च हुआ है, यह जमीन इतने सौ एकड़ है, इसके दाम इतने हैं। और उन्होंने सब छोड़ दिया है। यह तो आश्रम की बात कर रहे हैं वे। और यह आश्रम किसका है? यह आश्रम मेरा है।
मैं जब उनसे मिलने गया तो वे एक बड़े तख्त पर बैठे हुए थे। उनके तख्त के नीचे एक छोटा तख्त लगा हुआ था, उस तख्त पर एक दूसरे संन्यासी बैठे हुए थे। उस तख्त के भी नीचे जमीन पर और संन्यासी बैठे हुए थे। सबसे बड़े तख्त पर बैठे हुए संन्यासी, जो गुरु हैं, जिनका वह आश्रम है, जिन्होंने सब छोड़ दिया है, उन्होंने मुझसे कहा, आपको पता है, कि छोटे तख्त पर बैठे हुए सज्जन कौन है? मैंने कहा, मुझे पता करने की कोई जरूरत नहीं है; अपना ही पता हो जाए वही बहुत है। फिर भी आप चाहते हैं तो बता दें। उन्होंने कहा, आपको मालूम नहीं है, इसलिए ऐसा कह रहे हैं, यह जो आदमी बैठा हुआ है, यह साधारण आदमी नहीं है, यह हाईकोट का जस्टिस था, इसने सब छोड़ दिया है। लेकिन बहुत विनम्र आदमी है। कभी मेरे साथ तख्त पर नहीं बैठता, हमेशा छोटे तख्त पर बैठता है। मैंने कहा, विनम्रता तो जाहिर है, छोटे तख्त से पता चल रही है। लेकिन आपको उनकी विनम्रता में जो मजा आ रहा है, वह क्या है? आपको बड़ा मजा आ रहा है कि यह आदमी बड़ा विनम्र है। विनम्रता आपके अहंकार को तृप्ति दे रही है। अगर यह आपके साथ तख्त पर बैठे तो तकलीफ होगी?
और मजा यह है कि यह आपसे छोटे तख्त पर बैठा है, लेकिन दूसरे संन्यासियों से ऊंचे तख्त पर बैठा है। और संन्यासी जमीन पर नीचे बैठे हुए हैं, और यह आपके मरने की राह देख रहा है कि जब आप मर जाओ तो यह बड़े तख्त पर बैठ जाएगा। नीचे वाला काम्पिटीटर छोटे तख्त पर आ जाए। और यह भी लोगों से कहे कि बहुत विनम्र आदमी है। जानते हो, यह कौन है? यह मिनिस्टर था! यह कोई साधारण आदमी नहीं है। और यह जो बन कर बैठा हुआ है, आंख बंद किए हुए बिलकुल सीधा-सादा बन कर बैठा हुआ है। लेकिन बैठा तो छोटे तख्त पर है। छोटे तख्त के नीचे भी लोग हैं। हायरेरकी चल रही है, नीचे-ऊपर पद चल रहे हैं। बच्चों का खेल चल रहा है। और यह आदमी कहता है, मैं सब छोड़ कर आ गया, और यह आदमी भी कहता है, मैं सब छोड़ कर आ गया हूं। लेकिन क्या छोड़ कर आ गए? वह खेल, वह समाज के अहंकार का खेल, वह जारी है। वह एक शक्ल में चलता था वहां। पड़ोस वाले का मकान छोटा था, अपना मकान बड़ा था, वह वहां चल रहा था। अब वह यहां चल रहा है कि पड़ोस वाला नीचे तख्त पर बैठा है, हम ऊंचे तख्त पर बैठे हैं। खेल जारी है। शक्ल बदल गई है, वह पशुता का खेल जारी है। लेकिन बदली हुई शक्ल में पहचानना और मुश्किल हो गया, और कठिन हो गया।
एक गांव में मैं गया, वहां एक यज्ञ था और उस यज्ञ में कोई साठ संन्यासी इकट्ठे हुए थे। यज्ञ करने वालों ने चाहा था कि साठों संन्यासी एक ही मंच पर एक साथ बैठें तो बड़ा सुखद होगा। लेकिन उस बड़ी मंच पर एक-एक संन्यासी ने बैठ कर ही व्याख्यान दिया, क्योंकि साठों एक साथ, एक ही तल पर बैठने को राजी नहीं हुए! किसी ने कहा कि मुझे सोने का सिंहासन चाहिए, मैं उसी पर बैठूंगा। मैं जगतगुरु हूं, मैं कोई छोटा-मोटा आदमी तो नहीं हूं! मैं फलां पीठ का शंकराचार्य हूं, मेरा चार इंच ऊंचा होना चाहिए तख्त! साठ आए थे, लेकिन कोई किसी से नीचे-ऊंचे बैठने को राजी नहीं था! तब एक ही उपाय था कि उस बड़ी मंच पर एक-एक बैठ कर बोलें। एक-एक बैठ कर ही बोला, वे साठ इकट्ठे नहीं बैठाए जा सके। इन्होंने सब छोड़ दिया है? लेकिन चार इंच तख्त नीचा हो कि ऊंचा, यह इनसे नहीं छूट पाया। बड़ी अदभुत बात है! छोटे-छोटे बच्चे खड़े हो जाते हैं कुर्सियों पर और अपने बाप से कहते हैं, हम आपसे बड़े हैं, देखते हैं, हम आपसे ऊंचे हैं। उन बच्चों को क्षमा किया जा सकता है, बच्चे हैं। लेकिन एक संन्यासी, जगतगुरु होने का जिसे भ्रम है, ऐसा आदमी कहता है, चार इंच ऊपर मेरा तख्त होना चाहिए, इसको चाइल्डिश कहें, बच्चा कहें, क्या कहें? सब छोड़ दिया है। लेकिन क्या छोड़ दिया है? सब मौजूद है, नई शक्लों में मौजूद है।
हमारी जो पशुता है, वह मिट नहीं पाती, क्योंकि हम आदर्श ओढ़ लेते हैं, पशुता दूसरे मार्गों से निकल कर प्रकट होनी शुरू हो जाती।
यह बहुत हैरानी की बात है, हिटलर जैसे लोगों में, हिटलर बरदाश्त नहीं कर सकता किसी आदमी को कि मेरे साथ खड़ा हो। हिटलर का कोई नाम नहीं ले सकता कि कोई कह दे हिटलर, फ्यूहरेर ही कहना पड़ेगा। आदर-सूचक शब्द ही उपयोग करने पड़ेंगे। कोई हिटलर के कंधे पर हाथ नहीं रख सकता। हिटलर का अहंकार। लेकिन किसी जगतगुरु के कंधे पर हाथ रख सकते हैं आप? किसी महात्मा के कंधे पर हाथ रख सकते हैं? महात्मा बड़ा मुस्कुराता है जब आप उसके पैर में सिर रखते हैं। लेकिन कंधे पर कभी हाथ रख कर देखा? तो महात्मा एकदम नाराज हो जाएगा। महात्मा एकदम विलीन हो जाएगा और भीतर का हिटलर दिखाई पड़ने लगेगा। वह भीतर हिटलर बैठा हुआ है। गेरुआ वस्त्र से कोई हिटलर बदल जाता है? लेकिन हिटलर फिर भी एक अर्थों में ईमानदार और साफ है। गेरुआ वस्त्र के भीतर छिपा हुआ फ्यूहरेर जो है, वह उतना साफ नहीं है, उतना स्पष्ट नहीं है। वह ज्यादा धोखे में है। दूसरे को धोखा देना तो ठीक भी है, लेकिन वह खुद के भी धोखे में है कि मैं बदल गया, मैं दूसरा आदमी हो गया हूं, मैं महात्मा हो गया हूं।
भारत आत्मवंचना में तल्लीन है। और इसलिए भारत के पास, जिसको चरित्र कहें, वह पैदा नहीं हो पाया। आज पृथ्वी पर हमसे ज्यादा चरित्रहीन समाज खोजना मुश्किल है। लेकिन हम कहेंगे, हमसे ज्यादा चरित्रहीन! हमसे ज्यादा माला जपने वाले लोग कहां है? हमसे ज्यादा मंदिर जाने वाले लोग कहा हैं? हमसे ज्यादा राम-राम कहने वाले लोग कहां है, हमसे ज्यादा रामायण और गीता पढ़ने वाले लोग कहां हैं? हम तो बहुत चरित्रवान हैं। लेकिन इन चीजों से चरित्र का क्या संबंध है?
मेरे एक मित्र हैं दिल्ली में, एक डाक्टर हैं। एक मेडिकल कांफ्रेंस में भाग लेने वे लंदन गए थे। लौट कर आए तो मुझे वहां की कई घटनाएं सुनाने लगे। एक घटना मुझे खयाल आती है। हाइट पार्क में पांच सौ डाक्टरों की एक बैठक थी। खाना-पीना भी था, गपशप भी थी, मिलना-जुलना भी था। वे मित्र भी, वे दिल्ली के डाक्टर भी वहां गए थे। जहां यह बैठक चल रही है, लोग गपशप कर रहे हैं, खा-पी रहे हैं, एक-दूसरे से मिल-जुल रहे हैं, वहीं पास की एक बेंच पर एक युवक और एक युवती आंख बंद किए, एक-दूसरे के गले में हाथ डाले मौन बैठे हैं, जैसे किसी और दुनिया में खोए हों। मेरे मित्र डाक्टर का मन कांफ्रेंस में नहीं रहा। भारतीय का मन वह उस बेंच पर जाने लगा। सीधा देख भी नहीं सकते, तिरछी आंखों से देखने लगे। और मन में होने लगा, कैसी चरित्रहीनता है? यह क्या चरित्रहीनता है कि एक जवान युवक और एक जवान युवती पांच सौ लोगों के सामने गले में हाथ डाले हुए बैठे हैं? यह क्या बात है? यह बहुत बुरा है! कोई पुलिस वाला आकर इनको रोकता क्यों नहीं है? बार-बार मन वहीं जाने लगा। मुझे कहने लगे कि मेरे पड़ोस के डाक्टर ने, एक डच ने मेरे कान में कहा कि मित्र बार-बार वहां मत देखें, लोग आपको चरित्रहीन समझेंगे। यह उनका काम है कि वे क्या कर रहे हैं, आप क्यों परेशान हुए जा रहे हैं?
और पुलिस बुलाने की आड़ में, उनके चरित्रहीनता की आड़ में और कोई रस नहीं है? रस दूसरा है। और अगर भीतर यह डाक्टर अपने मन में घुसे और मैंने कहा कि अपने मन में जाओ थोड़ा, अपने रस को खोजो कि रस क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उस युवक की जगह तुम बैठना चाहते हो? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो मौका तुम्हें मिलना चाहिए, वह कोई दूसरा लिए ले रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि पुलिस वाले को बुलाने के पीछेर् ईष्या है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस चरित्रवान और चरित्र होने के खयाल में तुम उन दो युवकों को मिलते हुए देखने का भी रस लेना चाहते हो? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उस जवान लड़की को देखने का मन बार-बार वहां ले जा रहा है? लेकिन चरित्र की आड़ में वहां देखने जा रहे हो? सीधे भी नहीं जा रहे कि सुंदर युवती को देखना है, तो सीधे देख लो। उसमें भी एक चरित्र होगा कि युवती सुंदर है और हम देखना चाहते हैं। यह भी चरित्र होगा एक। लेकिन युवती को कहीं इस बहाने तो नहीं देख रहे हो कि देखना भी चाहते हैं, लेकिन चरित्र की आड़ कि यह बहुत गलत हो रहा है, यह हम नहीं होने देंगे।
सारे जगत में धीरे-धीरे मनुष्य के यथार्थ को स्वीकृति मिलनी शुरू हो गई है, वह जैसा है। हम अस्वीकार कर रहे हैं, जैसा है उसे। और जैसा वह नहीं है, उसको आरोपित कर रहे हैं, उसको इम्पोज कर रहे हैं, उसको ऊपर थोपते जा रहे हैं और चरित्रवान बनते जा रहे हैं। तो चरित्र हमारा ऊपर होता है, लेकिन चरित्र की बातों की आड़ में दुश्चरित्रता छिपी होती है। उस आड़ के पीछे कुछ दूसरी जलन, कोई दूसरी पीड़ा, कोई दूसरी इंस्टींट, कोई दूसरी वृत्तियां काम करती हैं। आदर्शवादी इसीलिए दूसरे को बहुत गाली देता हुआ दिखाई पड़ता है। उस गाली देने मेंर् ईष्या है, बदला है, रिवेंज है, प्रतिशोध है, वह जो स्वयं नहीं कर पाया, उसका क्रोध भी है।
लेकिन जिस व्यक्ति का जीवन रूपांतरित होता है, जिसके भीतर क्रांति घटित होती है--जहां अंधकार है, वहां प्रकाश आता है, जहां पशु है--पशु धीरे-धीरे विसर्जित होता है और परमात्मा प्रकट होता है। उसके भीतर दूसरों के प्रति दया तो हो सकती है, क्रोध नहीं हो सकता। और उसके प्रति दूसरे की स्थिति को समझने के लिए सदभाव हो सकता है, दंड देने की कामना नहीं हो सकती। वह जानेगा कि यही स्वाभाविक है जो हो रहा है। इससे श्रेष्ठतर भी हो सकता है, लेकिन स्वाभाविक की निंदा उसके मन में नहीं होगी। श्रेष्ठतर का जन्म हो, इसकी प्रार्थना होगी, लेकिन स्वाभाविक की निंदा नहीं होगी।
मनुष्य के स्वभाव को, निसर्ग को हम इनकार करते चले आ रहे हैं पांच-हजार वर्षों से। सब तरफ से हमने आदमी के स्वभाव को इनकार करके एक लोहे की कैद खड़ी कर दी है। उस कैद के भीतर आदमी को खड़ा कर दिया है। उसकी सारी मुक्ति छीन ली है, क्योंकि उसका सारा स्वभाव छीन लिया है। और आश्चर्य की बात यह है कि तथ्यों के इस अस्वीकार से, तथ्यों के इस निषेध से, तथ्यों से आंख चुरा लेने से तथ्य बदल नहीं गए हैं, सिर्फ छिप गए हैं और उन्होंने भीतर से काम शुरू कर दिया, वे अनकांशस हो गए हैं। और जो तथ्य अचेतन में उतर जाते हैं, अंधेरे में, और वहां से काम करते हैं, उनका काम और भी आत्मघाती हो जाता है।
मैंने सुना है, एक मां, रात नींद में उठने की उसे आदत है। वह रात नींद में उठ आई है और अपने मकान के पीछे के बगीचे में चली गई है। वह सपने में है, और नींद में ही जोर-जोर से बोल रही है और अपनी जवान लड़की को गालियां दे रही है, और कह रही है कि इसी दुष्ट के कारण मेरी जवानी नष्ट हो गई है। यह जवानी तो लड़की पर चली गई और मैं बूढ़ी हुई जा रही हूं। तभी उसकी लड़की की भी नींद खुल गई है, वह भी रात नींद में चलने की आदी है। वह बगीचे में पहुंच गई है। वह नींद में उस बुढ़िया को वहां देखती है आधी खुली आंखों से और सोचती है, यह दुष्ट बुढ़िया यहां भी मौजूद है, इसने मेरे जीवन को कांटा बना दिया है। इसके मौजूद, जब तक यह जिंदा है तब तक मुझे स्वतंत्रता नहीं मिल सकती, तब तक मेरा जीवन एक परतंत्रता है। वे दोनों नींद में एक-दूसरे को गालियां दे रही हैं, तभी मुर्गा बाग देता है, दोनों की नींद खुल जाती है। सुबह की ठंडी हवा, बूढ़ी कहती है, बेटी, इतनी जल्दी उठ आई? सर्दी न लग जाए, शाल नहीं डाल ली है? बेटी अपने मां के पैर छूती है और कहती है, मां भीतर चल, सुबह बहुत सर्द है, कहीं तुझे सर्दी-जुकाम न पकड़ जाए। नींद में वे क्या कह रही थीं? जाग कर वे क्या कह रही हैं?
हम कहेंगे, नींद! नींद तो सपना थी, झूठ थी। जो जाग कर कह रही हैं, वह सच है! बात उलटी है। जो जाग कर वे कह रही हैं, वह झूठ है, जो नींद में उन्होंने कहा था, वह सच था।
हम यही सोचते हैं कि सपने में जो हम देख रहे हैं वह झूठ है, लेकिन अब मनोविज्ञान कहता है कि सपने में जो आप देख रहे हैं, वह जो जाग कर आप देखते हैं, वह उससे ज्यादा सत्यतर है। क्योंकि सपने में वही प्रकट हो रहा है जिसे आपने भीतर छिपा लिया है। बेटे बाप की हत्या कर रहे हैं सपने में। सुबह उठ कर कहते हैं, अरे सपना था।
वह सब झूठ है। लेकिन ऐसा बेटा खोजना मुश्किल है, जिसने बाप की हत्या की कामना को कहीं अचेतन में छिपा न दिया हो। आदमी सपने में पड़ोसी की स्त्री को लेकर भाग गया है। सुबह उठ कर कहता है, अरे, ये सब क्या बातें हैं, यह सब सपना है। लेकिन पड़ोसी की स्त्री को लेकर भागने की अगर कोई कामना अचेतन में न दबा दी गई होती, तो सपना आसमान से पैदा नहीं होता। वह सपना भीतर से आया है। वह सपना कहीं छिपा है। वह सपने को दबा दिया है। उसने मौका पाया, जब आप सो गए और आपका कंट्रोल ढीला हो गया, नियंत्रण ढीला हो गया, चित्त शिथिल हो गया तो वह जो भीतर दबा था, वह प्रकट हो गया और चित्त के पर्दे पर चलने लगा।
सपने हमारे जाग्रत सत्य से ज्यादा सत्यतर हैं, क्योंकि हमारे छिपे हुए मन को प्रकट कर रहे हैं।
साधु-संन्यासियों के सपने देखिए, तो वे वही होंगे, जो अपराधियों ने जागने में किया है। साधु-संन्यासी सपनों में वही कर रहे हैं। अपराधी तो देख सकते हैं सपने साधु होने के, लेकिन साधु अपराधी होने के सपने देखते हैं। इसलिए साधु नींद लेने से डरते हैं। नींद में बहुत डर लगता है, क्योंकि नींद में वह जो साधु चौबीस घंटे साधुता साधी है, वह एकदम खो जाती मालूम पड़ती है। समझ नहीं पड़ता कि क्या हो जाता है, बिलकुल उलटा आदमी भीतर से प्रकट होने लगता है। वह उलटा आदमी कहीं आसमान से नहीं उतरता, वह हमने दबाया है, वह हमारा तथ्य है, वह हमारा फैक्ट है, वही हम हैं।
इस हम को इनकार करने का एक उपाय था, जो हमने उपयोग किया भारत में। और वह उपाय यह था, भीतर हिंसा है, बाहर से अहिंसा ओढ़ लो! भीतर हिंसा है, पानी छान कर पीओ, रात खाना मत खाओ! भीतर हिंसा है, मांसाहार छोड़ दो, अहिंसक हो जाओ! अहिंसक होना इतनी सस्ती बात नहीं है कि कोई मांसाहार छोड़ने से अहिंसक हो जाए। अहिंसक कोई हो जाए तो मांसाहार छूट सकता है, वह दूसरी बात है। लेकिन मांसाहार छोड़ने से कोई अहिंसक नहीं हो सकता। कोई अहिंसक हो जाए तो कुछ चीजें छूट सकती हैं, लेकिन कुछ चीजों के छूटने से कोई अहिंसक नहीं हो जाता। हिंसा भीतर है, तो ऊपर से अहिंसा का वर्तन व्यक्तित्व को दो हिस्सों में तोड़ देगा, हिंसा भीतर सरकती रहेगी, अहिंसा ऊपर घूमती रहेगी। भीतर हिंसक आदमी तैयार रहेगा, जरा छेड़ दो और प्रकट हो जाए। जरा छेड़ दो और प्रकट हो जाए।
हिंदुस्तान में कितनी अहिंसा की बात गांधी जी ने और उनके साथियों ने की, और आजादी आई और हिंसा में डूब गया पूरा मुल्क! कोई दस लाख लोगों की हत्या हुई और करोड़ों लोगों को हत्या से भी ज्यादा दुख झेलना पड़ा। यह कैसा देश है? अहिंसा की बातें कर रहा था! फिर एकदम हिंसा का यह उबाल कहां से आ गया? यह कहां से पैदा हो गई? वह अहिंसा की बातें सब ऊपर थीं, भीतर हिंसा थी, और हिंसा प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई मौका मिल जाए।
अभी हम यहां कितने अहिंसक भाव से बैठे हुए हैं। कोई किसी को मार नहीं रहा, कोई किसी की गर्दन नहीं दबा रहा। लेकिन अभी पता चल जाए बाहर कि हिंदू-मुस्लिम दंगा हो गया है और आप बगल के आदमी की गर्दन दबा देंगे कि यह मुसलमान है कि यह हिंदू है, मारो छुरा इसको। ये आदमी अभी दोनों शांत साथ बैठे थे। धर्म की बातें सुनते थे। गीता पढ़ते थे, कुरान पढ़ते थे, मस्जिद में हाथ जोड़े खड़े थे। अचानक पता चला कि हिंदू-मुस्लिम दंगा हो गया, ये आदमी बदल गए, इनके भीतर का आदमी बाहर आ गया।
भीतर कौन बैठा हुआ है? भीतर हिंसा बैठी हुई है, भीतर घृणा बैठी हुई है, भीतर क्रोध बैठा हुआ है, भीतर जंगली जानवर बैठा हुआ है। और उस जंगली जानवर को हम ऊपर अच्छे-अच्छे शब्दों के वस्त्र और अच्छे-अच्छे आदर्शों के वस्त्र ओढ़ कर छिपा रहे हैं। यह कामचलाऊ व्यवस्था है। यह व्यवस्था बहुत महंगी है। यह धोखे की व्यवस्था है। जिंदगी भी गुजर सकती है और पता न चले कि भीतर कौन था!
और भारत ने इसी तरह पांच हजार वर्ष की एक पाखंडी संस्कृति खड़ी की है, जिस संस्कृति ने ऊपर से चीजें थोप ली हैं और भीतर का आदमी नहीं बदला है। निश्चित ही इस तरह की जबरदस्ती थोपी गई व्यवस्था प्रतिभा के विकास में अवरोध बनी थी।
प्रतिभा के लिए चाहिए इंटीग्रेशन, व्यक्तित्व एक हो, इकट्ठा हो। और हमने व्यक्तित्व को तोड़ दिया दो टुकड़ों में, और विरोधी टुकड़ों में। हमने एक-एक व्यक्ति की शक्ति को दो हिस्सों में बांट दिया और दोनों हिस्सों को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया। व्यक्ति स्वयं से लड़ कर ही नष्ट हो जाता है। उसके पास इतनी ऊर्जा, इतनी एनर्जी, इतनी शक्ति नहीं बच पाती कि वह कुछ और क्रिएट कर पाए, वह कुछ और सृजन कर पाए। इसलिए भारत पूरा का पूरा अनक्रिएटिव हो गया है, असृजनात्मक हो गया है।
हम विध्वंस ही कर सकते हैं, क्योंकि हमने जो अपने भीतर किया है, वही हम बाहर कर सकते हैं। हम लड़ ही सकते हैं--हिंदू मुसलमान से लड़ सकता है, मराठी गुजराती से लड़ सकता है, हिंदी बोलने वाला गैर हिंदी बोलने वाले से लड़ सकता है, हिंदू मुसलमान से लड़ सकता है। हम सिर्फ लड़ ही सकते हैं, क्योंकि भीतर हम अपने से ही लड़ने की शिक्षा लिए हैं। हम अपने से ही लड़ते रहे हैं। हम भीतर ही हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बंटे हुए हैं। एक-एक आदमी अपने भीतर ही टुकड़ों में बंटा हुआ है। भारत के पास इकहरा व्यक्तित्व, जिसको हम व्यक्तित्व कहें, इंडिविजुअलिटी कहें, जुड़ा हुआ एक आदमी नहीं है। और एक आदमी जुड़ा हुआ न हो तो खुद के खंड आपस में लड़ कर शक्ति को नष्ट कर देते हैं। और शक्ति नष्ट हो जाए तो प्रतिभा कैसे विकसित हो? और प्रतिभा न हो तो समस्याओं का समाधान कौन देगा? कौन भगवान, कौन देवता, कौन वेद, कौन ऋषि, कौन मुनि देगा? समाधान हमें लाने हैं अपनी ही प्रतिभा से। और हमारे प्रतिभा क्षीण-क्षीण खंड-खंड होकर बह गई है।
अगर भारत को प्रतिभा को जन्म देना है, अगर भारत को अपनी छिपी हुई ऊर्जा को पूरी अभिव्यक्ति देनी है, तो यह तीसरा सूत्र खयाल में रख लेना जरूरी है। और वह यह है, आदर्शों की बकवास बंद करो। आदमी का जो तथ्य है, यथार्थ है, वह जो वस्तुतः आदमी है, उसे पहचानो।
लेकिन इसका क्या यह मतलब है कि मैं यह कह रहा हूं कि हिंसक हो जाओ, क्रोधी हो जाओ, घृणा से भर जाओ, पशु हो जाओ? नहीं, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि इसे जितना हम पहचानेंगे, उतनी ही पहचान के द्वारा इसमें रूपांतरण और परिवर्तन शुरू होते हैं। अगर कोई आदमी अपने भीतर देख ले कि उस-उस दिशा में उसके भीतर पशु है, सिर्फ देख ले, कुछ और करना नहीं है, पहचान ले कि में इस दिया में पशु हूं और परिवर्तन शुरू हो गया। पहचानते ही परिवर्तन शुरू हो गया। जैसे ही मैंने यह पहचाना कि मेरी यह घृणा, मेरा यह प्रेम, मेरा यह क्रोध, मेरी यह मालकियत, मेरा यह डामिनेशन एक पशु का हिस्सा है। सुना हुआ नहीं, किसी और का कहा हुआ नहीं, मैंने अपने भीतर पहचाना। मैंने अपने भीतर खोज की कि यह मेरा पशु है। और मैं आपसे कहता हूं, यह पहचान, यह रिकग्नीशन, यह प्रतिभिज्ञा कि मैंने पहचाना कि यह पशु है, और मेरे भीतर परिवर्तन की शुरुआत हो गई। क्योंकि कोई भी पशु नहीं रह सकता है, नहीं रहना चाहता है।
पशु हम तभी तक रह सकते हैं, जब तक पशु अनजान हो, अननोन हो, अनरिकग्नाइज्ड हो, पहचाना न गया हो, जाना न गया हो, आंख की रोशनी उस पर न पड़ी हो, तभी तक हम पशु रह सकते हैं। और हमारे आदर्शवाद ने यह काम पूरा कर दिया। आदर्श पर हमारी आंख लगी है, आदर्श पर, जो हम नहीं हैं। और जो हम हैं, वहां से आंख हट गई है। हम देख रहे हैं आदर्श पर; आगे, भविष्य में, कल, परसों अहिंसक हो जाऊंगा मैं। और हिंसा? हिंसा बिना देखी भीतर काम कर रही है। आज नहीं कल, परमात्मा हो जाऊंगा में। आज नहीं कल, इस जन्म में, अगले जन्म में मोक्ष मिल जाएगा। नजर वहां लगी है भविष्य पर और जो मैं हूं वहां से नजर हट गई है। जहां से नजर हट गई है, वहां अंधेरा हो गया। जहां अटेंशन नहीं है, ध्यान नहीं है, वहां अंधकार हो गया। और जहां अंधकार हो गया वहां रूपांतरण कैसे होगा? बदलाहट कैसे होगी?
आंख ले जानी है वहां, जहां मैं हूं, जो मैं हूं। लेकिन एक ही कठिनाई है। वही कठिनाई रोकती है स्वयं को देखने से। और वह कठिनाई यह है कि स्वयं को देखना बहुत कष्टपूर्ण है, बहुत तपश्चर्यापूर्ण है। क्योंकि हमने अपने अहंकार में अपनी एक प्रतिमा बना रखी है, जो बड़ी सुंदर है। और हम बड़े कुरूप हैं, हम बहुत अग्ली हैं और प्रतिमा हमने बड़ी सुंदर बना रखी है। उस प्रतिमा को देख कर, दिखाने के हम आदी हो गए हैं। हमारे अहंकार ने कहा है कि यही मैं हूं। अब उस प्रतिमा को तोड़ना पड़ेगा, अगर भीतर असली कुरूपता को देखने जाना है। इसलिए हिम्मत नहीं जुटा पाते हम। इसको ही मैं तपश्चर्या कहता हूं।
स्वयं निर्मित अपने ही अहंकार की प्रतिमाओं के खंडन का नाम तपश्चर्या है। उससे ज्यादा आरडुअस, उससे ज्यादा श्रमपूर्ण, उससे ज्यादा कठिन और कुछ भी नहीं है। अपनी ही प्रतिमाओं को अपने हाथ से गिरा देना और उसे देखना जो मैं वस्तुतः हूं। जो मेरी कल्पना नहीं, जो मेरा आदर्श नहीं, जैसा मैं हूं। कैसा हूं मैं, उसे देख लेना, उसकी नग्नता में पहचान लेना क्रांति की शुरुआत है, बदलाहट की शुरुआत है।
और जैसे ही कोई व्यक्ति अपने भीतर स्वयं को देखने जाता है, वैसे ही एक नये व्यक्ति का जन्म शुरू हो जाता है, एक नया व्यक्ति पैदा होने लगता है।
यह जो नया व्यक्ति है, शक्तिशाली होगा, क्योंकि शक्ति आपस में बंटेगी नहीं। यह नया व्यक्ति बुद्धिमान होगा, क्योंकि इसने बुद्धि का प्रयोग किया है, बुद्धि विकसित होगी। यह नया व्यक्ति प्रतिभाशाली होगा, क्योंकि इसने चुनौती को स्वीकार किया है, चुनौती का सामना किया है और चुनौती के ऊपर उठ गया है।
प्रतिभा का जन्म एक आत्मज्ञान का परिणाम है। और हम आत्म अज्ञान में जी रहे हैं, यद्यपि हम आत्मज्ञान की सर्वाधिक बातें करते हैं! लेकिन आत्मज्ञान से हमने मतलब समझ रखा है--उपनिषद पढ़ो, गीता-पढ़ो, गीता उपनिषद के वचन कंठस्थ कर लो। और सुबह आंख बंद करके उनको दोहराते रहो, दोहराते रहो कि अहं-ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं, मैं सच्चिदानंद ब्रह्म हूं, परमात्मा हूं, प्रभु हूं, शुद्ध-बुद्ध हूं, यह दोहराते रहो अपने भीतर। इसको रिपीट करते रहो, इसको दोहराते रहो। दोहराते-दोहराते धीरे-धीरे यह विश्वास बैठ जाएगा कि मैं यही हूं। लेकिन यह विश्वास धोखा होगा। दोहरा कर कोई सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। नहीं, मैं ब्रह्म हूं यह दोहराने से कोई ब्रह्म नहीं हो जाएगा। मैं जो हूं, उसे जानने से, पहचानने से, उसके रूपांतरण से, उसकी बदलाहट से, उसकी क्रांति से व्यक्ति ब्रह्म के द्वार तक पहुंचता है।
मनुष्य परमात्मा हो सकता है, है नहीं! संभावना है उसकी, पोटेंशियलिटी है, लेकिन है वह पशु! पशुता तथ्य है! परमात्मा होना, बीज के भीतर से वृक्ष के आने की जैसी संभावना है। और अगर कोई बीज अपने को मान कर बैठ जाए कि मैं वृक्ष हूं, तो वह बीज कभी वृक्ष नहीं हो सकता। हम अपने को मान कर बैठ गए हैं कि हम परमात्मा हैं। इसलिए हम परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते हैं, पशु ही रह जाते हैं। इस पशुता को पहचानना, जानना, खोजना साधना है, तपश्चर्या है। अपनी ही निर्मित अपनी ही झूठी प्रतिमाओं को तोड़ देना त्याग है, तप है। और इस तप से जो गुजरता है, वह एक नये व्यक्तित्व को उपलब्ध हो जाता है, जहां प्रतिभा अपनी पूरे प्रकाश में प्रकट होती है।
भारत की प्रतिभा प्रकट हो सकती है, लेकिन आदर्श के पाखंड छोड़ देने होंगे।
टायनबी ने कहा है कि पश्चिम की संस्कृति सेन्स्यूअल कल्चर है, एंद्रिक संस्कृति है। टायनबी को शायद यह भ्रम हो कि पूरब की संस्कृति स्प्रिचुअल है; तो टायनबी को अपना भ्रम ठीक कर लेना चाहिए। पश्चिम की संस्कृति एंद्रिक है, यह बात टायनबी की हिंदुस्तान के साधु-संन्यासी लोगों को समझाते हैं कि देखो, पश्चिम के लोग खुद कह रहे हैं कि पश्चिम की संस्कृति एंद्रिक है, हमारी आध्यात्मिक है। मैं आपसे कहना चाहता हूं, पश्चिम की संस्कृति सेन्स्यूअल है और हमारी संस्कृति हिपोक्रेट है। वह उनकी संस्कृति एंद्रिक है और हमारी संस्कृति पाखंडी है। और मैं आपसे कहता हूं, एंद्रिक संस्कृति कभी न कभी आध्यात्मिक बन सकती है, क्योंकि इंद्रिय एक सत्य है। लेकिन पाखंडी संस्कृति कभी भी आध्यात्मिक नहीं बन सकती, क्योंकि पाखंड एक झूठ है, स्व-निर्मित एक है।
मनुष्य के तथ्य का स्वीकार मनुष्य के सत्य तक ले जाने की राह है। अगर हम मनुष्य के सत्य तक पहुंचना चाहते हैं, तो मनुष्य के तथ्य को हमें परिपूर्ण स्वीकृति देनी जरूरी है। वह कितना ही नग्न हो, वह कितना ही कुरूप हो, वह कितना ही बेहूदा हो। उसे हम अंगीकार न करें, आंख चुराएं तो हम भटक जाते हैं। हम भटक गए हैं।
इन तीन दिनों में, इन तीन सूत्रों में, पलायन से, परंपरा से और आदर्श से, इन तीन से मुक्त होने के लिए मैंने कहा। अगर ये तीन पत्थर हट जाएं तो भारत की प्रतिभा का स्रोत मुक्त हो जाए, वह भारत की सरिता सागर की तरफ दौड़ने लगे। लेकिन अगर ये तीन पत्थर भारत की प्रतिभा की सरिता को रोके रहें, तो हम एक डबरा बन गए हैं, जो दौड़ता नहीं, चलता नहीं, कहीं पहुंचता नहीं। सड़ता है, सड़ता जाता है, गंदगी बढ़ती चली जाती है, रोग बढ़ता चला जाता है। बीमारी, घाव बढ़ते चले जाते हैं, मवाद इकट्ठी होती चली जाती है, दुर्गंध फैलती चली जाती है। और हम आंख बंद करके इस सबको माया, माया; झूठ है, झूठ है; आंख बंद करके अपने को संतोष खोजते रहते हैं। इस संतोष से नहीं हो सकता है, तोड़ना पड़ेगा इस धारा को, इसे सागर की ओर उन्मुख करना पड़ेगा, ताकि एक दिन मनुष्य पशु से उठे और परमात्मा तक पहुंच जाए।
परमात्मा का मंदिर निकट है, लेकिन पशु को भुला कर, झूठला कर नहीं; पशु को जान कर, पहचान कर। ट्रांसेंडेंस से, उसके अतिक्रमण से। और ज्ञान अतिक्रमण का मार्ग है। जानना अतिक्रमण की, ट्रांसेंडेंस की विधि है। अज्ञान आत्मघात है। ज्ञान आत्मक्रांति है।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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