अहंकार-ओशो
मैं अपने से पूछता थाः आत्मा और परमात्मा के बची में कौन सी दीवार है? बहुत खोजा लेकिन कोई भी उत्तर नहीं पाया। फिर थककर बैठ गया तब अचानक दिखा कि मैं ही तो दीवार हूं! अहंकार ही स्वयं और सत्य के बीच एकमात्र दूरी हैं। अहंकार दबाया जा सकता है और विनम्रता ओढ़ी जा सकती है। वह कोई बहुत कठिन बात भी नहीं, लेकिन तब अहंकार और भी गहरा और सूक्ष्म होकर चित्त को पकड़ लेता है। यह पकड़ क्रमशः अचेतन होती जाती है और स्वयं व्यक्ति को भी उसका बोध नहीं रह जाता। किंतु स्मरण रहे कि ज्ञात शत्रुओं से अज्ञात शत्रु ज्यादा घतक होता है। यह दमित अहंकार विनम्रता से ही प्रकट होने लगता है। अहंकार को विसर्जन करने का मार्ग दमन नहीं, संघर्ष नहीं, वरन उसकी समस्त अभिव्यक्तियों और उसके समस्त मार्गों का सूक्ष्मतम अवलोकन और बोध है।मन के जिस तल पर अहंकार का साक्षात हो जाता है, अहंकार उसी तल पर अपना आवास छोड़ देता है। जैसे प्रहरी सजग हो तो चोर घर में नहीं आते हैं, ऐसे ही हम यदि सतत जागरूक और सचेत हों तो क्रमशः अहंकार शून्य होने लगता है। और जहां अहंकार शून्य है, वहीं आत्मा अपनी पूर्णता में प्रकट होती है। अहंकार को खोने वाले हानि में नहीं रहे हैं। क्या देखते नहीं है कि बीज मिटकर वृक्ष को पा लेता है और सरिता स्वयं को खोकर सागर हो जाती है? स्वयं को खोना ही स्वयं को पाना भी है।
ओशो
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