आत्म विश्वास-ओशो
आत्म-विश्वास का अभाव ही समस्त अंधविश्वासों का जनम है। जो स्वयं में विश्वास नहीं करता, वह किसी और में विश्वास करके अपने अभाव की पूर्ति कर लेता है। यह पूर्ति बहुत आत्मघती है क्योंकि इस भांति व्यक्ति स्वयं के विकास और पूर्णता की दिशा से वंचित हो जाता है। जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं, उसे सिवाय अनुकरण और किसी पर निर्भर होने के और उपाय ही क्या है? पर निर्भरता हीनता लाती है और किसी की शरण पकड़ने से दीनता पैदा होती है। चित्त धीरे-धीरे एक भांति की दासता में बंध जाता है और दास चित्त कभी भी प्रौढ़ नहीं हो सकता। प्रौढ़ता आती है- स्वयं के पैरों पर खड़े होने से स्वयं की आंखों से देखने से और स्वयं के अनुभवों की कठोर चट्टान पर जीवन निर्मित करने से। स्वयं के अतिरिक्त स्वयं के सृजन का और कोई द्वार नहीं है। मैं किसी और मैं श्रद्धा करने को नहीं कहता हूं। दूसरों में श्रद्धा करने के कारण ही सब भांति के पाखंड पैदा हुए है। वस्तुतः किसी को किसी का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रत्येक किसी दूसरे जैसा नहीं, वरन स्वयं ही होने को पैदा हुआ है।
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