जीवन तो अंधकार है, लेकिन
जिनके पास सत्य का दीपक है, वे सदा प्रकाश में ही जीते हैं।
जिनके भीतर प्रकाश है, उनके लिए बाहर का अंधकार रह ही नहीं
जाता। बाहर अंधकार की मात्रा उतनी ही होती है, जितना कि वह
भीतर होता है। वस्तुतः बाहर वही अनुभव होता है, जो कि हमारे
भीतर उपस्थित होता है। बाट अनुभव भीतर की उपस्थितियों के ही प्रक्षेपण हैं। यह
कारण है कि इस एक ही जगत से भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न जगतों में रहने में
समर्थ हो जाते हैं। इस एक ही जगत में उतने
ही जगत हैं जितने कि व्यक्ति हैं। और किसे किस जगत में रहना है, यह स्वयं उसके सिवाय और किसी पर निर्भर नहीं। हम स्वयं ही उस जगत को बनाते
हैं, जिसमें हमें रहना है। हम स्वयं ही अपने स्वर्ग या अपने
नर्क हैं। अंधकार या आलोक जिससे भी जीवन
पथ पर साक्षात होता है, उसका उदगम कहीं बाहर नहीं, वरन हमारे भीतर होता है। क्या कभी अपने सोचा है कि सूर्य अंधकार से परिचित
नहीं है? उसकी अभी तक अंधकार से भेंट ही नहीं हो सकी है? जेम्स लावेल ने कहा हैः ‘सत्य को
हमेशा सूली पर लटकाए जाते देखा और असत्य को हमेशा सिंहासन पाते! मैं कहता हूं कि
यह बात तो सत्य है, किंतु आधी सत्य है, क्योंकि सत्य सूली पर लटका हुआ भी
सिंहासन पर होता है और असत्य सिंहासन पर
बैठकर भी सूली पर ही लटका रहता है। सत्य
विश्वास नहीं है। सब विश्वास अंधे होते हैं और सत्य तो आत्म चक्षु है। वह विश्वास
नहीं, विवेक है। और विवेक के जन्म के लिए समस्त विश्वासों की
जंजीरें तोड़ देनी होती हैं, क्योंकि जिसे सत्य को जानना है
उसे सत्य को मानने का अवकाश ही नहीं है। क्या कोई अंधा अंधा रहकर भी प्रकाश को
देखने में समर्थ हो सकता है और क्या कोई तट पर जंजीरों से बंधा हुआ जहाज भी सागर
की यात्रा कर सकता है? सत्य सिद्धांत नहीं, अनुभूति है। इससे शास्त्र में
नहीं, स्वयं में ही उसे खोजना है। शब्दों से हुआ उसका ज्ञान
तो अक्सर अज्ञान से भी घतक है। क्योंकि अज्ञान में एक पीड़ा है और उसके ऊपर उठने की
आकांक्षा है, लेकिन तथाकथित थोथा शास्त्रीय ज्ञान तो उल्टे
अहंकार की दृष्टि बन जाता है, अहंकार अज्ञान से भी घतक है
वस्तुतः तो ज्ञान का अहंकार, अज्ञान का ही अत्यंत घनीभूत रूप
है- इतना घनीभूत कि वह फिर अज्ञान ही प्रतीत नहीं होता है। सत्य शक्ति है। असत्य अशक्ति इसलिए असत्य को
चलने के लिए सत्य के ही पैर उधार लेने होते हैं। सत्य के सहारे के बिना यह एक पल
भी जीवित नहीं रह सकता। फिर भी हम ऐसे पागल हैं कि उसका ही सहारा खोजते हैं जो कि
स्वयं ही सहारे की खोज में है। क्या भिखारी से भीख मांगने जैसा ही यह उपक्रम नहीं
है? जीवन में दो ही
चीजें पाने जैसी हैं। सत्य और प्रेम, लेकिन जो सत्य को पा
लेता है, वह अनजाने ही प्रेम में प्रतिष्ठित हो जाता है और
जिसका प्रवेश प्रेम के मंदिर में हो जाता है वह पाता है कि वह सत्य के समक्ष खड़ा
हुआ है। प्रेम सत्य का प्रकाश और सत्य है प्रेम की यात्रा की पूर्णता। लेकिन यदि
सत्य का साधक स्वयं में प्रेम को विकसित होता हुआ न पावे, तो
जानना चाहिए कि वह किसी भ्रांत मार्ग पर है और ऐसे ही प्रेम की साधना में ज्ञात हो
कि सत्य निकट नहीं आ रहा है तो निश्चित है कि प्रेम के नाम से किसी भांति की
मूर्च्छा और मादकता ही सीधी जा रही है। सत्य के पथ पर प्रेम कसौटी है और प्रेम पथ
पर सत्य परीक्षा है। क्या आपको ज्ञात है
कि हीरा मूलतः कोयला ही है! कोयले में ही हीरा छिपा होता है? ऐसे ही स्वयं हम में ही सत्य भी छिपा हुआ है। सत्य ही एकमात्र धर्म है। और अधार्मिक वह नहीं
है, जो कि तथाकथित धर्मों के विरोध में खड़ा है, क्योंकि अक्सर तो वही सत्य के अधिक निकट होता है। अधार्मिक तो वह है जो कि
सत्य के विरोध में खड़ा होता है और तब बहुत से धार्मिक अधार्मिक ही हैं। सत्य स्वयं
ही धर्म है, इसीलिए सत्य का कोई भी धर्म नहीं है। सत्य का
कोई संप्रदाय नहीं है, नहीं हो सकता है। संप्रदाय तो सब
स्वार्थ के हैं। सत्य का कोई संगठन नहीं है क्योंकि सत्य तो स्वयं ही शक्ति और उसे
संगठन की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती है।
सत्य की कोई शिक्षा नहीं होती है। प्रेम की भी नहीं होती। सिखाया गया प्रेम
क्या होगा! सिखाया हुआ सत्य नहीं होता है।
सत्य एक ही है। इसलिए जहां विचार है, वहां सत्य नहीं
होगा, क्योंकि विचार अनेक हैं। विचारों को छोड़कर जब चित्त
निर्विचार होता है, तभी सत्य की अनुभूति होती है। सत्य
साक्षात का द्वार विचार नहीं, निर्विचार समाधि है।
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