धर्म-ओशो
मैं आपको देखता हूं तो दुख अनुभव करता हूं, क्योंकि किसी भी भांति बिना सोचे विचारे, मूर्छित रूप से जिए जाना जीवन नहीं, वरन धीमी आत्महत्या है। क्या आपने कभी सोचा कि आप अपने जीवन के साथ क्या कर रहे हैं? क्या आप सचेतन रूप से जी रहे हैं? क्योंकि यदि हम अचेतन रूप से बहे जा रहे हैं और जीवन के अचेतन सृजन में नहीं लगे है, तो सिवाय मृत्यु की प्रतीक्षा के हम और क्या कर रहे हैं? जीवन तो उसी का है जो उसका सृजन करता है। आत्मसृजन जहां नहीं, वहां आत्मघत है। मित्र, जन्म को ही जीवन मत मान लेना। यह इसलिए कहता हूं कि अधिक लोग ऐसा ही मान लेते हैं। जन्म तो प्रच्छन्न मृत्यु है। वह तो आरंभ है और मृत्यु उसका ही चरम विकास और अंत। वह जीवन नहीं, जीवन को पाने का एक अवसर भर है। लेकिन जो उस पर ही रुक जाता है, वह जीवन पर नहीं पहुंच पाता। जन्म तो जीवन के अनगढ़ पत्थर को हमारे हाथों में सौंप देता है। उसे मूर्ति बनाना हमारे हाथों में है। यहां कलाकार और कलाकृति और कला और कला के उपकरण सभी हम ही हैं। जीवन के इस अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाने की अभीप्सा धर्म है। धर्म जीवन से भिन्न नहीं है जो धर्मजीवन से भिन्न है, वह मृत है। मैं कैसे जीता हूं, वही मेरा धर्म है। यह मत पूछिए कि मेरा कौन सा धर्म है क्योंकि धर्म बस धर्म है। और उसमें किसी विशेष्ण को लगाने का क्या सवाल? जहां विशेष्ण है और विशेष्ण का आग्रह है, वही धर्म, धर्म नहीं है। धर्म जीवन को परमात्मा में जीने की विधियां है। संसार में ऐसे जीया जा सकता है, जैसे कि कमल सरोवर की कीचड़ में जीते हैं। क्या उचित नहीं होगा कि आपका धर्म कि आपका धर्म आपके धर्मग्रंथों और धर्म स्थानों में नहीं, वरन आप में ही दिखाई पड़े? वह भी मात्र अपनी वाणी में ही प्रकट हो, तो असत्य है। सत्य का प्रमाण शब्द नहीं, केवल जीवन ही होता है। कायलर ने कहा हैः दीपक बोलता नहीं, जलता है। धर्म भी जब स्वयं के जीवन में जलता है, तभी बोलता है। क्या आप असंभव से डरते हैं? असंभव से मत डरो। असंभव को चुनने से ही भीतर प्रसुप्त शक्तियां जाग्रत और सक्रिय होती है। जो सदा संभव की सीमा में ही चलता है, वह अपनी ही पूर्ण संभावनाओं के साक्षात से वंचित रह जाता है। असंभव की अभीप्सा में ही स्वयं की शक्तियों का जागरण है। और सर्वाधिक असंभव क्या है? परमात्मा में जीना सर्वाधिक असंभव है। इसलिए मैं धर्म को सबसे बड़ा साहस कहता हूं। लेकिन जो साहस को करता है, वह सरलतम और सहजतम जीवन को पा लेता हूं, क्योंकि स्वयं की समग्र संभावनाओं का परमात्मा की दिशा में सक्रिय हो जाना ही सरलतम जीवन की उपलब्धि है। स्वरूप में जीना सरलतम है, लेकिन उसकी अभीप्सा करना कठितम, क्योंकि जो निकटतम है वह निकट होने के कारण ही विस्मृत हो जाता है। अमूर्च्छा को ही मैंने धर्म जाना है। क्योंकि अमूर्च्छा ही जीवन के लिए नाव है। मूर्च्छित चित्त तो ऐसी नौका में बैठा हुआ है जो कि है ही नहीं! उस पर यात्रा पार होने के लिए नहीं डूबने के लिए ही हो सकती है।
ओशो
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