क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-19) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-29
जो बोएंगे बीज वही काटेंगे फसल
किसे हम कहें कि अपना मित्र है और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है। एक छोटी-सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुःख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुःख के बीज बोनेवाला व्यक्ति अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुःख का बीज बोते हैं। निश्चित ही बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है, इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न मालूम कैसा दुर्भाग्य - कि फल जहर के और विष के उपलींध हुए हैं! लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है। हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं जहां की हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंचते जहां की हमने यात्रा ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्ते को कोई इससे प्रयोजन नहीं है। मैं नदी की तरफ नहीं जा रहा हूं। मन में सोचता हूं कि नदी की तरफ जा रहा हूं, लेकिन बाजार की तरफ जानेवाले रास्ते पर चलूंगा तो मैं कितना ही सोचूं कि मैं नदी की तरफ जा रहा हूं, मैं पहुंचूंगा बाजार ही।सोचने से नहीं पहुंचता है आदमी। किन रास्तों पर चलता है उनसे पहुंचता है। मंजिलें मन में तय नहीं होतीं, रास्ते पर तय होती हैं। आप कोई भी सपना देखते रहें, अगर बीज आपने नीम के बो दिए हैं तो सपने आप शायद ले रहे हों कि कोई स्वादिष्ट मधुर फल लगेंगे- आपके सपनों से फल नहीं निकलते! फल आपके बोए बीजों से निकलते हैं। इसलिए आखिर में जब नीम के कड़वे फल हाथ में आते हैं तो शायद आप दुःखी होते हैं, पछताते हैं और सोचते हैं कि मैंने तो बीज बोए थे अमृत के, फल कड़वे कैसे आए ध्यान रहे, फल ही कसौटी है और परीक्षा है बीज की। फल ही बताता है कि बीज आपने कैसे बोए थे आपने कल्पना क्या की थी, उससे बीजों को कोई प्रयोजन नहीं है। हम सभी आनंद लाना चाहते हैं जीवन में, लेकिन आता कहां है आनंद हम सभी शांति चाहते हैं जीवन में, लेकिन मिलती कहां है शांति! हम सभी चाहते हैं कि सुख, महासुख ही बरसे, पर बरसता कभी नहीं। तो इस संबंध में एक बात इस सूत्र से समझ लेनी जरूरी है कि हमारी चाह से नहीं आते फल। हम जो बोते हैं उससे आते हैं। हम चाहते कुछ हैं, बोते कुछ हैं। हम बोते जहर हैं और चाहते अमृत हैं। इसलिए जब फल आते है तो जहर के ही आते हैं, दुःख और पीड़ा के ही आते हैं- नरक ही फलित होता है। हम सब अपने जीवन को देखें तो ख्याल में आ सकता है। जीवनभर चलकर हम सिवाय दुःख के गड्ढों के और कहीं भी पहुंचते नहीं मालूम पड़ते हैं। रोज दुःख घना होता चला जाता है। रोज रात कटती नहीं, और बड़ी होती चली जाती है। रोज मन पर संताप के कांटे फैलते चले जाते हैं और फूल आनंद के कहीं खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। पैरों में पत्थर बंध जाते हैं दुःख के। पैर नृत्य नहीं कर पाते हैं उस खुशी में, जिस खुशी की हम तलाश में हैं। क्योंकि कहीं न कहीं हम, हम ही- क्योंकि और कोई नहीं है- कुछ गलत बो लेते हैं। उस गलत बोने में ही हम अपने शत्रु सिद्ध होते हैं। बहुत हैरानी की बात है, एक आदमी क्रोध के बीज बोए और शांति पाना चाहे! एक आदमी घृणा के बीज बोए और प्रेम की फसल काटना चाहे! आदमी चारों तरफ शत्रुता फैलाए और चाहे कि सारे लोग उसके मित्र हो जाएं! एक आदमी सबकी तरफ गालियां फेंके और चाहे कि शुभाशीष सारे आकाश से उसके ऊपर बरसने लगें! यह असंभव है। पर आदमी ऐसी ही असंभव चाह करता है। ‘द इंपोसिबल डिजायर’- मैं गाली दूं और दूसरा मुझे आदर दे जाए, ऐसी असंभव कामना - हमारे मन में चलती है। मैं दूसरे को घृणा करूं और दूसरे मुझे प्रेम कर जाएं। मैं किसी पर भरोसा न करूं और सब मुझ पर भरोसा कर लें। मैं सबको धोखा दूं और मुझे कोई धोखा न दे। मैं सबको दुःख पहुंचाऊं, लेकिन मुझे कोई दुःख न पहुंचाए। जो हम बोएंगे, वही हम पर लौटने लगेगा। जीवन का सूत्र ही यह है कि जो हम फेंकते हैं वही हम पर वापस लौट आता है। चारों ओर हमारी ही फेंकी हुई ध्वनियां प्रतिध्वनित होकर हमें मिल जाती हैं। थोड़ी देर अवश्य लगती है। ध्वनि टकराती है बाहर की दिशाओं से, और लौट आती है। जब तक लौटती है तब तक हमें ख्याल भी नहीं रह जाता कि हमने जो गाली फेंकी थी वही वापस लौट रही है। बुद्ध का एक शिष्य एक रास्ते से गुजर रहा है। उसके साथ दस-पंद्रह संन्यासी हैं। जोर से पैर में उसके पत्थर लग जाता है रास्ते पर, खून बहने लगता है। शिष्य आकाश की तरफ हाथ जोड़कर किसी आनंद-भाव में लीन हो जाता है। उसके साथी वे पंद्रह भिक्षु हैरानी में खड़े रह जाते हैं! शिष्य जब अपने ध्यान से वापस लौटता है तब उससे पूछते हैं कि आप क्या कर रहे थे! पैर में चोट लगी, पत्थर लगा, खून और आप कुछ इस प्रकार हाथ जोड़े हुए थे जैसे किसी को धन्यवाद दे रहे हों। शिष्य ने कहा, बस यह एक मेरा विष का बीज और बाकी रह गया था। मारा था किसी को पत्थर कभी, आज उससे छुटकारा हो गया। आज नमस्कार करके धन्यवाद दे दिया है प्रभु को, कि अब मेरे बोए हुए बीज कुछ भी न बचे। यह आखिरी फसल समाप्त हो गयी। लेकिन अगर आपको रास्ते पर चलते वक्त पत्थर पैर में लग जाए तो इसकी बहुत कम संभावना है कि आप ऐसा सोचें कि किसी बोए हुए बीज का फल हो सकता है। ऐसा नहीं सोच पाएंगे। संभावना यही है कि रास्ते पर पड़े हुए पत्थर को भी आप एक गाली जरूर देंगे। पत्थर को भी गाली, और कभी ख्याल भी न करेंगे कि पत्थर को दी गयी गाली, फिर बीज बो रहे हैं आप! पत्थर को दी हुई गाली भी बीज बनेगी। सवाल यह नहीं है कि किसको गाली दी। सवाल यह है कि आपने गाली दी, वह वापस लौटेगी। सुना है मैंने कि गांव का साधारण ग्रामीण किसान बैलों को गाली देने में बहुत ही कुशल है, अपनी बैलगाड़ी में जोतकर। जीसस निकलते हैं गांव के रास्ते से। वह आदमी अपने बैलों को बेहूदी गालियां दे रहा है। बड़े आंतरिक संबंध बना रहा है गालियों से। जीसस उसे रोकते हैं और कहते हैं, पागल, तू यह क्या कर रहा है वह आदमी कहता है कि कोई बैल मुझे गाली वापस तो नहीं लौटा देंगे, मेरा क्या बिगड़ेगा! वह आदमी ठीक कहता है। हमारा गणित बिल्कुल ऐसा ही है। जो आदमी गाली वापस नहीं लौटा सकता उसे गाली देने में हर्ज क्या है इसलिए अपने से कमजोर को देखकर हम सब गाली देते हैं। हम बेवक्त गाली देते हैं, जब कोई जरूरत भी न हो। कमजोर दिखा कि हमारा दिल मचलता है कि थोड़ा इसको सता लो। जीसस ने कहा, बैलों को गाली तू दे रहा है, अगर वे गाली लौटा सकते तो कम खतरा था, क्योंकि निपटारा अभी हो जाता। लेकिन चूंकि वे गाली नहीं लौटा सकते, लेकिन गाली तो लौटेगी। तू महंगे सौदे में पड़ेगा। यह गाली देना छोड़! जीसस की तरफ उस आदमी ने देखा, जीसस की आंखों को देखा, उनके आनंद को, उनकी शांति को देखा। उसने उनके पैर छुए और कहा कि मैं कसम लेता हूं, इन बैलों को गाली नहीं दूंगा। जीसस दूसरे गांव चले गए। दो-चार दिन आदमी ने बड़ी मेहनत से अपने को रोका, लेकिन कसमों से दुनिया में कोई रुकावटें नहीं होतीं। रुकावट होती है, समझ से! दो-चार दिन में प्रभाव क्षीण हुआ। वह आदमी अपनी जगह वापस लौट आया। उसने कहा, छोड़ो भी, ऐसे तो हम मुसीबत में पड़ जाएंगे। बैलगाड़ी से आना मुश्किल हो गया। हिसाब बैलगाड़ी चलाने का रखें कि गाली न देने का रखें। बैलों को जोतें कि अपने को जोते रहें। बैलों को संभालें कि खुद को संभालें। यह तो एक मुसीबत हो गयी। गाली उसने वापस देनी शुरू कर दी। चार दिन जितनी रोकी थी उतनी एक दिन में निकाल लीं। रफा-दफा हुआ, मामला हल्का हुआ, मन उसका शांत हुआ। कोई तीन-चार महीने बाद जीसस उस गांव से वापस निकल रहे थे। उसको पता भी नहीं था कि यह आदमी फिर मिल जाएगा रास्ते में। वह धुंआधार गालियां दे रहा है बैलों को। जीसस ने खड़े होकर कहा- यह क्या है मेरे भाई उसने देखा जीसस को और फौरन बात बदली। उसने कहा बैलों से- देखो बैल, यह मैंने तुम्हें गालियां दीं, ऐसी मैं तुम्हें पहले दिया करता था। अब मेरे प्यारे बेटो, जरा तेजी से चलो। जीसस ने कहा- तू बैलों को ही धोखा नहीं दे रहा है; तू मुझे भी धोखा दे रहा है। और तू मुझे धोखा दे इससे बहुत हर्जा नहीं है, तू अपने को धोखा दे रहा है। अंतिम धोखा तो खुद पर गिर जाता है। जीसस ने कहा- हो सकता है, मैं दुबारा इस गांव फिर कभी न आऊं। मैं मान ही ले रहा हूं कि तू बैलों को गालियां नहीं दे रहा था, सिर्फ पुरानी गालियां बैलों को याद दिला रहा था। लेकिन किसलिए याद दिला रहा था तू मुझे धोखा दे कि तू बैलों को धोखा दे- इसका बहुत अर्थ नहीं है, लेकिन तू अपने को ही धोखा दे रहा है। जीवन में जब भी हम कुछ बुरा कर रहे हैं तो हम किसी दूसरे के साथ कर रहे हैं, यह भ्रांति है आपकी। प्राथमिक रूप से हम अपने ही साथ कर रहे हैं। क्योंकि अंतिम फल हमें भोगने हैं। वह जो भी हम बो रहे हैं, उसकी फसल हमें काटनी है। इंच-इंच का हिसाब है। इस जगत में कुछ भी बेहिसाब नहीं जाता है। हम अपने शत्रु हो जाते हैं। हम कुछ ऐसा करते हैं जिससे हम अपने को ही दुःख में डालते हैं, अपने ही दुःख में उतरने की सीढ़ियां निर्मित करते हैं। तो ठीक से देख लेना, जो आदमी अपना शत्रु है, वही आदमी अधार्मिक है। और जो अपना शत्रु है वह किसी का मित्र तो कैसे हो सकेगा जो अपना भी मित्र नहीं, जो अपने लिए ही दुःख के आधार बना रहा है वह सबके लिए दुःख के आधार बना देगा। पहला पाप अपने साथ शत्रुता है। फिर उसका फैलाव होता है। फिर अपने निकटतम लोगों के साथ शत्रुता बनती है, फिर दूरतम लोगों के साथ। फिर जहर फैलता चला जाता है, हमें पता भी नहीं चलता- जैसे कि झील में, कोई शांत झील में पत्थर फेंक दे! चोट पड़ते ही पत्थर तो नीचे बैठ जाता है क्षणभर में, लेकिन झील की सतह पर उठी हुई लहरें दूर-दूर तक यात्रा पर निकल जाती हैं। लहरें चलती चली जाती हैं अनंत तक। ऐसे ही हम जो करते हैं हम तो करके चुक भी जाते हैं- आपने गाली दे दी, बात खत्म हो गयी- फिर आप गीता पढ़ने लगे या कुछ भी करने लगे, लेकिन उस गाली की जो ‘रिपिल्स’, जो तरंगें पैदा हुइऋ वे चल पड़ीं। वे न मालूम कितने दूर के छोरों को छुएंगी! और जितना अहित उस गाली से होगा उतने सारे अहित के लिए आप जिम्मेवार हो गए! आप कहेंगे, कितना अहित हो सकता है एक गाली से मैं कहता हूं, अकल्पनीय अहित हो सकता है। और जितना अहित हो जाएगा इस विश्व के तंत्र में, उतने के लिए आप जिम्मेदार हो जाएंगे। और कौन जिम्मेदार होगा आपने उठायीं वे लहरें। आपने ही बोया वह बीज। अब वह चल पड़ा। अब वह दूर-दूर तक फैल जाएगा। एक छोटी-सी दी हुई गाली से क्या-क्या हो सकता है! अगर आपने अकेले में गाली दी हो और किसी ने न सुनी हो तब तो शायद आप सोचेंगे कि कुछ भी नहीं होगा इसका परिणाम। लेकिन इस जगत में कोई भी घटना निष्परिणामी नहीं है। उसके परिणाम होंगे ही। आप बहुत सूक्ष्म तरंगें पैदा करते हैं अपने चारों ओर। वे तरंगें फैलती हैं। उन तरंगों के प्रभाव में जो लोग भी आएंगे वे गलत रास्ते पर धक्का खाएंगे। अभी बहुत काम चलता है सूक्ष्मतम तरंगों पर और ख्याल में आता है कि अगर गलत लोग एक जगह इकट्ठे हों, सिर्फ चुपचाप बैठे हों, कुछ भी नहीं कर रहे हों, सिर्फ गलत हों और आप उनके पास से गुजर जाएं तो आपके भीतर जो गलत हिस्सा है वह ऊपर आ जाता है। और जो ठीक हिस्सा है वह नीचे दब जाता है। दोनों हिस्से आपके भीतर हैं। अगर कुछ अच्छे लोग बैठे हों एक जगह, प्रभु का स्मरण करते हों, कि प्रभु का गीत गाते हों, कि किसी सद्भावों के फूलों की सुगंध में जीते हों, कि सिर्फ मौन ही बैठे हों- जब आप इन लोगों के पास से गुजरते हैं तो दूसरी घटना घटती है। आपका गलत हिस्सा नीचे दब जाता है, आपका श्रेष्ठ हिस्सा ऊपर आ जाता है। आपकी संभावनाओं में इतने सूक्ष्मतम अंतर होते हैं कि हिसाब लगाना मुश्किल है। और हम चौबीस घंटे कुछ न कुछ कर रहे हैं। एक छोटा-सा गलत बोला गया शींद कितनी दूर तक कांटों को बो जाएगा, हमें कुछ पता नहीं है। बुद्ध अपने क्षिक्षुओं से कहते थे कि तुम चौबीस घंटे, राह पर कोई दिखे उसकी मंगल की कामना करना। वृक्ष भी मिल जाए तो उसकी मंगल की कामना करके उसके पास से गुजरना। पहाड़ भी दिख जाए तो मंगल की कामना करके उसके निकट से गुजरना। राहगीर दिख जाए अनजान, तो उसके पास से मंगल की कामना करके राह से गुजरना। एक भिक्षु ने पूछा, इससे क्या फायदा बुद्ध ने कहा, इसके दो फायदे हैं। पहला तो यह कि तुम्हें गाली देने का अवसर न मिलेगा। तुम्हें बुरा ख्याल करने का अवसर न मिलेगा। तुम्हारी शक्ति नियोजित हो जाएगी मंगल की दिशा में। और दूसरा फायदा यह कि जब तुम किसी के लिए मंगल की कामना करते हो तो तुम उसके भीतर भी रिजोनेंस, प्रतिध्वनि पैदा करते हो। वह भी तुम्हारे लिए मंगल की कामना से भर जाता है। इसलिए इस मुल्क में राह पर चलते हुए अनजान आदमी को भी ‘राम-राम’ कहने की प्रक्रिया बनायी थी, जो शायद दुनिया में कहीं नहीं बनायी जा सकी। उस आदमी को देखकर हमने प्रभु का स्मरण किया। जो ठीक से नमस्कार करना जानते हैं, वह सिर्फ उच्चारण नहीं करेंगे, वह उस आदमी में राम की प्रतिमा को भी देखकर गुजर जाएंगे। उन्होंने उस आदमी को देखकर प्रभु का स्मरण किया। उस आदमी की मौजूदगी प्रभु के स्मरण की घटना बन गयी। इस मौके को छोड़ा नहीं, इस मौके पर एक शुभ-कामना पैदा की गयी। प्रभु के स्मरण की घड़ी पैदा की गयी। और हो सकता है, वह आदमी शायद राम को मानता भी न हो और जानता भी न हो लेकिन उत्तर में वह भी कहेगा- ‘राम-राम’। उसके भीतर भी कुछ ऊपर आएगा। और अगर पुराने गांव की राह से गुजरें तो राह में पच्चीस दफा राम-राम कर लेना पड़ता है। जीवन बहुत छोटी-छोटी घटनाओं से निर्मित होता है। मंगल की कामना या प्रभु का स्मरण आपके भीतर जो श्रेष्ठ है उसको ऊपर लाता है। और दूसरे के भीतर जो श्रेष्ठ है उसे भी ऊपर लाता है। जब आप किसी के सामने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुका देते हैं तो आप उसको भी झुकने का एक अवसर देते हैं। और झुकने से बड़ा अवसर इस जगत में दूसरा नहीं है क्योंकि झुका हुआ सिर कुछ बुरा नहीं सोच पाता। झुका हुआ सिर गाली नहीं दे पाता। गाली देने के लिए अकड़ा हुआ सिर चाहिए। और कभी आपने ख्याल किया हो या ना किया हो, लेकिन अब आप ख्याल करना कि जब किसी को हृदयपूर्वक नमस्कार करके सिर झुकाएं, और अगर कल्पना भी कर सकें कि परमात्मा दूसरी तरफ है तो आप अपने में भी फर्क पाएंगे और उस आदमी में भी फर्क पाएंगे। वह आदमी आपके पास से गुजरा तो आपने उसके लिए पारस का काम किया, उसके भीतर कुछ आपने सोना बना दिया। और जब आप किसी के लिए पारस का काम करते हैं तो दूसरा भी आपके लिए पारस बन जाता है। जीवन संबंध है, रिलेशनशिप है। हम संबंधों में जीते हैं। हम अपने चारों तरफ अगर पारस का काम करते हैं तो यह असंभव है कि बाकी लोग हमारे लिए पारस न हो जाएं। वे भी हो जाते हैं। अपना मित्र वही है जो अपने चारों ओर मंगल का फैलाव करता है, अपने चारों ओर शुभ की कामना करता है। जो अपने चारों ओर नमन से भरा हुआ है, अपने चारों ओर कृतज्ञता का ज्ञापन करता चलता है। और जो व्यक्ति दूसरों के लिए मंगल से भरा हो वह अपने लिए अमंगल से कैसे भर सकता है जो दूसरों के लिए भी सुख की कामना से भरा हो वह अपने लिए दुःख की कामना से नहीं भर सकता। वह अपना मित्र हो जाता है। और अपना मित्र हो जाना बहुत बड़ी घटना है। जो अपना मित्र हो गया वह धार्मिक हो गया। अब वह ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता, जिससे स्वयं को दुःख मिले। तो अपना हिसाब रख लेना चाहिए कि मैं ऐसे कौन-कौन से काम करता हूं जिससे मैं ही दुःख पाता हूं। दिन में हम हजार काम कर रहे हैं, जिनसे हम दुःख पाते हैं। हजार बार पा चुके हैं। लेकिन कभी हम ठीक से तर्क नहीं समझ पाते हैं जीवन का, कि हम इन कामों को करके दुःख पाते हैं। वही बात जो आपको हजार बार मुश्किल में डाल चुकी है, आप फिर कह देते हैं। वही व्यवहार जो आपको हजार बार पीड़ा में धक्के दे चुका है, आप फिर कर गुजरते हैं। वही सब दोहराए चले जाते हैं यंत्र की भांति! जिंदगी एक पुनरुक्ति से ज्यादा नहीं मालूम पड़ती, जैसी हम जीते हैं- एक ‘मेकेनिकल रिपीटीशन’- वही भूलें, वही चूकें! नयी भूलें करनेवाले आविष्कारी आदमी भी बहुत कम हैं, बस पुरानी भूलें ही हम किए चले जाते हैं। इतनी बुद्धि भी नहीं कि एकाध नयी भूल करें। पुराना- कल किया था वही, परसों भी किया था वही! आज फिर वही करेंगे, कल फिर वही करेंगे। मैं चाहूंगा कि आप इसके प्रति सजग होंगे। अपनी शत्रुता के प्रति सजग होंगे तो अपनी मित्रता का आधार बनना शुरू होगा। कृष्ण या बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट जैसे लोग अपने लिए, अपने लिए ही, इतने आनंद का रास्ता बनाते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। ऊपर से हमें लगेगा कि ये लोग बिल्कुल त्यागी हैं, लेकिन मैं आपसे कहता हूं, इनसे ज्यादा परम स्वार्थी और कोई भी नहीं है! हम त्यागी कहे जा सकते हैं क्योंकि हमसे ज्यादा मूढ़ कोई भी नहीं है। हम जो भी महत्वपूर्ण है, उसका त्याग कर देते हैं और जो व्यर्थ है उस कचरे को इकट्ठा कर लेते हैं, किंतु ये बहुत होशियार लोग हैं। यह जो व्यर्थ है उस सबको छोड़ देते हैं, जो सार्थक है उसको बचा लेते हैं। जीसस की पूरी नयी बाइबिल का सार एक ही वचन है, ‘दूसरों के साथ वह मत करें, जो आप नहीं चाहते कि दूसरे आपके साथ करें।’ और अगर इस वाक्य को ठीक से समझ लें तो धर्म का सूत्र समझ में आ जाए। कई बार ऐसा मजेदार होता है कि कृष्ण के किसी वाक्य की व्याख्या बाइबिल में होती है और बाइबिल के किसी वाक्य की व्याख्या गीता में होती है। कभी कुरान के किसी सूत्र की व्याख्या वेद में होती है, कभी वेद के किसी सूत्र की व्याख्या कोई यहूदी फकीर करता है। कभी बुद्ध का वचन चीन में समझा जाता है और कभी चीन में लाओत्से का कहा गया वचन हिंदुस्तान का कोई कबीर समझाता है। लेकिन तथाकथित धर्मों ने ऐसी दीवारें खड़ी कर दी हैं इन सबके बीच कि इनमें बीच के जो बहुत आंतरिक संबंध के सूत्र दौड़ते हैं उनका हमें कोई स्मरण नहीं रहा। नहीं तो हर मंदिर और मस्जिद के नीचे सुरंग होनी चाहिए, जिनसे कोई भी मंदिर से मस्जिद में जा सके। और हर गुरुद्वारे के नीचे से मंदिर को जोड़नेवाली सुरंग होनी चाहिए कि कभी भी किसी की मौत आ जाए तो तत्काल गुरुद्वारे से मंदिर, या मस्जिद से चर्च में जा सकें। लेकिन सुरंगों की बात तो दूर, ऊपर के रास्ते भी बंद हैं- सब रास्ते बंद हैं जो हमने अपने हाथों कर रखे हैं!
ओशो
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