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गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

अमृृृत कण-(अहिंसा)-02

अहिंसा-(अमृतकण)-ओशो 

अहिंसा ऐसे हृदय में वास करती है, जो इतना बड़ा हो कि सारी दुनिया के फूल उसमें समा जावें, लेकिन जिसमें इतनी सी भी जगह न हो कि एक छोटा सा कांटा भी वहां निवास बना सके।  अहिंसा है निरहंकार जीवन। अहंकार में ही सारी हिंसा छिपी है। अहं केंद्रित जीवन ही हिंसक जीवन है। अहं जहां जितना घनीभूत है, वहां न अहं के प्रति उतना ही विरोध ही और शोषण भी होगा। इसलिए मेरी दृष्टि में अहिंसा मूलतः अहंकार के विसर्जन से ही फलित होती है। अहं क्षीण होता है तो प्रेम विकसित होता है। अहं शून्य होता है तो प्रेम पूर्ण हो जाता है।  अहं शोषण है, तो प्रेम सेवा है। और जैसे ही अहं का केंद्र टूटता है तो प्रेम की अपूर्व ऊर्जा का विस्फोट होता है। जैसे पदार्थ के अणु-विस्फोट से अनंत शक्ति पैदा होती है, ऐसे ही अहं के टूटने से भी होती है। उस शक्ति का नाम ही प्रेम है। वही अहिंसा है। अहिंसा की शक्ति अमाप है। वह व्यक्ति के माध्यम से स्वयं परमात्मा का प्रवाह है।  अहिंसा जहां है, वहीं अभय है। क्योंकि जहां प्रेम है, वहां भय कैसा? हिंसा के पीछे तो भय सदा ही उपस्थित है। हिंसा तो भय से कभी मुक्त हो ही नहीं सकती और इसलिए हिंसा कभी दुख से भी मुक्त नहीं हो सकते हैं।
भय दुख और दुख नर्क है। इसलिए मैं यह नहीं कहता कि हिंसक नर्क में जाता है। मैं कहता हूं कि हिंसक नर्क में ही जीता है। इसके ठीक विपरीत अभय आनंद है। अभय मुक्ति है। और अभय का मार्ग है प्रेम। जिसे हम प्रेम करते हैं, उसके भय से हम मुक्त हो जाते हैं। जो समस्त को प्रेम करता है, वह सहज ही सर्व भय से मुक्त हो जाता है।  ज्ञान प्रेम में प्रकट होता है, अज्ञान अप्रेम में। जिस चित्त से घृणा बहती हो, निश्चय ही वह चित अज्ञान में है। क्योंकि घृणा और हिंसा से दूसरों का नहीं, मूलतः तो स्वयं का ही अहिंसा होता है। अपराध मात्र बहुत गहरे में स्वयं के प्रति ही होत हैं। दूसरों तक भी उनका विष पहुंचता है, लेकिन वह गौण ही है। जो हम दूसरों से करते है, उसे स्वयं के प्रति पहले ही कर चुके होते हैं। दूसरे के प्रति किए गए बड़े से बड़े अपराध स्वयं के प्रति किए गए अपराधों की अत्यंत धीमी प्रतिध्वनियां मात्र हैं।  अहिंसा प्रेम है, और प्रेम किसी से संबंध नहीं है, परम अंतस की एक दशा है। इसलिए वह बंधन नहीं, मुक्ति है। जहां बंधन है, वहां प्रेम नहीं, प्रेम का धोखा है, क्योंकि प्रेम बांधता नहीं मुक्त करता है।  प्रेम उस दिन परिपूर्ण होता है, जिस दिन मेरे बाहर कोई नहीं रह जाता है और मैं किसी के बाहर नहीं रह जाता हूं।  अहिंसा स्वयं के शरीर के ऊपर उठता है। जो शरीर में ही घिरा रह जाता है, वह हिंसा मुक्त नहीं हो सकता शरीर शोषण ही जानता है, प्रेम नहीं। प्रेम शरीर की नहीं, आत्मा की शक्ति और संभावना है। प्रेम आत्मा की सुवास है।
 ओशो

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