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शनिवार, 27 अप्रैल 2019

नये भारत की खोज-(प्रवचन-07)

नये भारत की खोज-(सातवां प्रवचन)

६ मई १९६९, पूना)

...इसमें कोई श्रद्धा-विश्वास की जरूरत नहीं, मैं पांच मील चल सकता हूं। होना चाहिए कि मैं एक घंटे में पांच मील चल सकता हूं। इसमें कोई श्रद्धा-विश्वास की जरूरत नहीं, मैं पांच मील चल सकता हूं। मुझे अपनी शक्तियों का ज्ञान होना चाहिए। और मैं विश्वास करूं कि मैं पच्चीस मील चल सकता हूं, तो मरूंगा, झंझट में पडूंगा। जबरदस्ती कर लिया तो झंझट में पड़े, क्योंकि वह सीमा के बाहर हो जाएगा। और कम किया तो भी नुकसान में पड़ जाएंगे, क्योंकि वह सीमा के नीचे हो जाएगा।
इसलिए मैं कहता हूं, आत्मज्ञान होना चाहिए हमें अपनी सारी शक्तियों का। हम क्या कर सकते हैं, क्या नहीं कर सकते हैं, वह सबका हमें पता होना चाहिए। और उस पता होने पर, उस ज्ञान के होने पर, हम उसके अनुसार जीते हैं। आत्मज्ञान होना चाहिए और आत्मज्ञान अपने आप श्रद्धा बन जाता है। जो आदमी जानता है, मैं पांच मील चल सकता हूं, वह पांच मील चलने के लिए हमेशा तैयार है, उसे कोई भय नहीं है इसका। लेकिन होता क्या है, होता क्या है हम गलत चीजों में श्रद्धाएं कर लेते हैं। जैसे एक आदमी श्रद्धा कर ले कि मैं मर नहीं सकता हूं, वह बिलकुल पागलपन की बातें कर रहा है। कितनी जबरदस्ती करो, इससे क्या होने वाला है? कितनी ही जबरदस्ती करो। आत्मज्ञान होना चाहिए, और उससे आत्मश्रद्धा अपने आप बन जाती है, उसको कुछ बनाने की जरूरत ही नहीं है। पर उसको श्रद्धा कहने की भी कोई जरूरत नहीं है। और जो लोग कहते हैं, जबरदस्ती श्रद्धा करनी चाहिए, वे कमजोर लोग होते हैं हमेशा। वे कमजोरी को पूरा कर रहे हैं श्रद्धा करके। कभी भी सचमुच अपने को जानने वाला आदमी न श्रद्धा करता है, न अश्रद्धा करता है। वह जानता है, वह उसके अनुसार जीता है।

लेकिन एक डरपोक आदमी है, डरा हुआ आदमी है, वह कहता है, मैं बिलकुल नहीं डरता, मुझे अपने पर बड़ी श्रद्धा है। लेकिन वह डरा हुआ आदमी है, इसलिए ये बातें कह रहा है। जो डरा हुआ है, वही यह कहता है कि मेरी जबरदस्त श्रद्धा है।
मेरे एक शिक्षक थे, जिस स्कूल में मैं पढ़ता था। वे मुझे पांचवीं अंग्रेजी पढ़ाते थे। वे पहले ही दिन पढ़ाने आए, तभी मुझे लगा कि यह आदमी बहुत कावर्ड और डरा हुआ आदमी है। क्योंकि पहले ही दिन उन्होंने कहा कि मैं किसी विद्यार्थी से डरता नहीं हूं। पर यह कोई बात कहने की कि विद्यार्थी से डरता नहीं! तो मेरी कक्षा में अगर किसी ने गड़बड़ की तो ठीक नहीं होगा। मैं बहुत खतरनाक आदमी हूं। मैं अंधेरे रास्ते में अकेला चला जाता हूं। तो मैंने उनको एक चिट्ठी लिख कर भेजी। उसी वक्त मैंने उनको चिट्ठी लिखी। और चिट्ठी में मैंने लिखा कि आपने अपनी स्थिति जाहिर कर दी है और लड़के आपको डराएंगे। और आप जब यह कहते हैं कि मैं अंधेरे में जाने से नहीं डरता, तो इससे पक्का पता चलता है कि आप अंधेरे में जाने से डरते हैं। नहीं तो पता ही नहीं चलना चाहिए, अंधेरा है कि उजाला। जिस आदमी को जाना है, वह चला जाता है। उसको पता ही नहीं चलता है कि अंधेरा था।
तो इसलिए आत्मश्रद्धा, जबरदस्त श्रद्धा, ये सब किसी बात की बातें हैं। हमको अपने को जानना चाहिए। और जानने में हमेशा दो बातें पता चलेंगी। यह भी पता चलेगा, हम कितना कर सकते हैं और यह भी पता चलेगा, हम कितना नहीं कर सकते हैं। और बुद्धिमान आदमी को दोनों बातें जाननी चाहिए कि हम यह कर सकते हैं और यह हम नहीं कर सकते हैं।
एक मुसलमान, मोहम्मद के बाद, अली, हुए न। तो अली से किसी ने पूछा कि हमारी ताकत कितनी है? तो अली ने उससे कहा कि तुम अपना एक पैर ऊपर उठा लो। उसने अपना बायां पैर ऊपर उठा लिया। फिर अली ने कहा, अब तुम दूसरा पैर भी ऊपर उठा लो। उसने कहा, यह कैसे हो सकता है, मैं एक पैर पहले उठा चुका, अब मैं दूसरा कैसे उठा सकता हूं? तो अली ने कहा कि तुमको समझ आना चाहिए, एक पैर उठाने की सामर्थ्य तुम्हारी है। तुम कोई भी उठा सकते हो, चाहे बायां, चाहे दायां। लेकिन दूसरा पैर उठाने की तुम्हारी सामर्थ्य नहीं है। तो अली ने कहा, यह दोनों बातें जाननी चाहिए कि मैं कितना कर सकता हूं और कितना नहीं कर सकता हूं। जो नहीं कर सकता हूं, उस झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। जो कर सकता हूं, उससे कभी भागना नहीं चाहिए। पर यह ज्ञान से होगा, श्रद्धा की कोई जरूरत नहीं है।

खैर, पुरुषों को भी एक आधार जहां...।

जिसको भी आधार की जरूरत है...।

मेरा अर्थ क्या और संयम क्या है? ये दो प्रश्न।

ये सब आधार झूठ हैं। और जो इन आधारों को पकड़ता है, वह कभी जी नहीं पाएगा। क्योंकि झूठ को पकड़ कर कोई जी भी नहीं सकता। हां समय गुजार लेगा। समय गुजार लेना एक बात है। एक आदमी कहता है कि मैं इसलिए जी रहा हूं कि मेरा बेटा हो जाए, मेरी लड़की की शादी हो जाए, मेरे सब छोटे बच्चे सुखी हो जाएं। बड़े मजे की बात है। इसका बेटा बड़ा हो कर क्या करेगा? वह यह करेगा कि उसका बेटा बड़ा हो जाए! और उसका बेटा क्या करेगा? वह उसका बेटा बड़ा हो जाए! यह तो समय गुजारना हुआ सिर्फ। लेकिन चूंकि हमें जिंदगी में कोई अर्थ नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए हम कुछ व्यर्थ के आधार खोज लेते हैं। और उसी को अर्थ मान कर जी लेते हैं।
तो पहले तो मेरा कहना है कि जिंदगी खुद ही आधार है, इसलिए दूसरा आधार खोजना ही मत। खोजा, तो असली आधार खो जाएगा। बच्चे को आधार मत बनाना जीने का। तुम्हारे जीने से बच्चा आ जाए, यह समझ में आने वाली बात है। तुम इतने आनंद से जी रहे हो, उसमें एक बच्चा भी आया, तुमने उसको भी प्रेम किया। लेकिन इसलिए तुम नहीं जीए कि यह बच्चा बड़ा हो जाए। तुम इस तरह जीए कि बच्चा भी बड़ा हुआ। लेकिन यह तुम्हारा कोई जिंदगी का लक्ष्य नहीं था। हमें जीवन का आधार बनाना ही नहीं चाहिए, क्योंकि जीवन खुद ही आधार है, अपना ही आधार है। और अगर जीवन का पूरा आनंद लेना है तो जीने को ही आधार बनाना चाहिए और किसी चीज को नहीं--एक-एक पल जीना चाहिए पूरी खुशी से।
आधार बनाने वाला क्या है, वह कहता है कि अब मेरा लड़का बड़ा हो जाएगा, तो वह उसके लिए मेहनत कर रहा है। फिर लड़का बड़ा हो गया, फिर वह कहता है, मेरे लड़के की शादी हो जाए, अब इसके लिए मेहनत कर रहा है। वह जी ही नहीं रहा। यह तो आगे होता रहेगा। फिर लड़के का लड़का हो जाए, फिर उसके लिए जी रहा है। पोस्टपोन कर रहा है जीने को। और क्या होगा? लड़का बड़ा हो जाए, शादी हो जाए, बच्चे हो जाएं, तुम्हें क्या जीवन मिल जाएगा इससे?
मुझे तो जीना चाहिए इसी वक्त और पूरे आनंद से जीना चाहिए और जीने को ही लक्ष्य मानना चाहिए। एक श्वास भी मैं लूं तो मुझे ऐसे लेना चाहिए कि हो सकता है यह श्वास अंतिम हो, इसलिए इसे पूरे आनंद से ले लूं। कोई मुझसे महिला मिलने आई है, तो मुझे जानना चाहिए, हो सकता है कल मिलना न हो सके, तो इससे पूरे प्रेम से मिल लूं। खाना खाने बैठा हूं, हो सकता है सांझ खाना फिर न हो, तो इस खाने को पूरे आनंद से खा लूं। यह साड़ी पहनी है तुमने, तो इसको ऐसे ही मत डाल लो, इसे पूरे आनंद से पहनो। जीवन की प्रत्येक छोटी-छोटी क्रिया को स्वनिर्भर बना दो और उसमें पूरा रस लो, पूरा आनंद लो। तो छोटी-छोटी क्रिया में दिन भर आनंद लेने से आनंद की बड़ी भारी राशि इकट्ठी हो जाती है। जो आदमी सुबह आनंद से उठा और भगवान को धन्यवाद दिया कि अच्छा आज फिर सूरज के दर्शन हुए और आनंद से उसने सूरज को देखा। और फिर दिन की सब छोटी चीजों में आनंद लिया। रात वह सोया, आनंद की एक शृंखला इकट्ठी हो गई सुबह से रात तक। और उसने कहा, बहुत आनंदित हूं। बहुत आनंद था।
मेरा मतलब समझ रही हैं आप? मेरा मतलब यह है कि जीवन का आनंद ही जीवन का आधार है। इसलिए किसी दूसरे के सिर पर मत टालो उसे। टालना धोखा है। तो कोई कहता है कि हमें यश मिल जाए, तो बड़ा आनंद मिलेगा। लेकिन यश कल मिलेगा न, अभी तो मिल नहीं गया? कल मिलेगा, तो आज का दिन तो हम टाल रहे हैं कल के लिए। फिर कल यश मिल जाएगा, तो यश की और आगे की यात्रा कायम है। वह यश कहेगा, अभी क्या हुआ, कुछ भी नहीं हुआ। अभी तो आगे और बड़ा पद मौजूद है। वह आगे है, वह आगे है। तो हम निरंतर, जितने लोग लक्ष्य बनाते हैं, लक्ष्य हमेशा भविष्य में होते हैं और जीवन वर्तमान में होता है। इसलिए वे सिर्फ समय गुजारते हैं, जी नहीं पाते हैं। तो मेरा कहना यह है कि जीवन खुद अपना पर्याप्त साधन है।
और यह तुम जो कहती हो कि स्त्री पुरुष का सहारा लेती है। वह पुरुष ने समझाया होगा उसे, एक। उसने समझाया हुआ कि बेसहारा तू खड़ी नहीं हो सकती। बाप बेटी को समझाता है कि बाप के सहारो पर चलो; फिर पति समझाएगा, हमारे सहारे पर चलो, फिर बेटा समझाएगा मां को, हमारे सहारे पर चलो; तुम अकेली खड़ी होगी तो भटक जाओगी। डराया है हजारों साल से और गुलामी, गुलामी पैदा कर ली है। और स्त्री का भी मन डरा हुआ है। उसकी भी जिंदगी में कोई अर्थ नहीं है, वह भी सहारा खोजती है--कभी पति का, कभी बेटे का, कभी किसी का, कभी किसी का।

पुरुष को भी यही है।

हां-हां, पुरुष को भी यही है। पुरुष भी डरा हुआ है। मेरा तो कहना ही यह है कि डराता वही है, जो डरा हुआ है। जो पुरुष डरा हुआ नहीं, वह किसी स्त्री को भी नहीं डराएगा। डराएगा किसलिए? वह कहेगा कि तुम आनंद से जीओ, मैं आनंद से जीऊं। और अगर हम एक क्षण में साथ हों, तो हम दोनों आनंद से जीएं। मेरा मानना यह है कि तुम जितने आनंद से जीओगी, मैं जितने आनंद से जीऊंगा, तो हमारा कोई अगर एक साथ क्षण हुआ, साथ हुआ, तो वह क्षण भी आनंद का होगा, क्योंकि दोनों आनंदित व्यक्ति मिले।
अभी हालत क्या है? अभी दो डरे हुए आदमी हैं। मैं डरा हुआ हूं, तो मैं कह रहा हूं कि तुम्हारा मुझे सहारा है। और तुम डरी हुई हो, तुम कह रही हो कि आपका मुझे सहारा है। अब हम दोनों डरे हुए आदमी हैं। यह ऐसे ही हो गया है, जैसे एक भिखमंगा दूसरे भिखमंगे के सामने हाथ फैलाए खड़ा हुआ है कि कुछ मिल जाए। और वह दूसरा भी हाथ फैलाए हुए है कि कुछ मिल जाए। और दोनों भिखमंगे हैं। देने को दोनों के पास कुछ भी नहीं है।
किसी को सहारा मत बनाओ। खुद सहारा बनो। मेरा मतलब जो हुआ। खड़े हो जाओ अपने पैरों पर जिंदगी के। और तब मेरा कहना है, बहुत से साथी मिलेंगे, लेकिन वे सहारे नहीं होंगे। और तब तुम उन्हें आनंद दे भी सकोगी, उनसे पा भी सकोगी, लेकिन वह लक्ष्य नहीं होगा। वह लक्ष्य नहीं होगा तुम्हारा। वह जिंदगी की सहज...जैसे मैं रास्ते से निकला और देखा किसी के घर फूल खिला हुआ है और रास्ते के किनारे मुझे फूल दिख गया, मैंने उसका आनंद लिया और आगे बढ़ गया। वह फूल न मेरे लिए खिला था, न मैं उस फूल के लिए निकला था। बिलकुल संयोग की बात थी कि वह फूल खिला था, मैं उस रास्ते से निकला था। घड़ी भर मैंने देखा और मैं खुश हुआ। और हो सकता है फूल भी जीवित है; कोई देख कर उसे खुशी हुआ हो, तो फूल भी खुश हुआ हो। यह हमें पता नहीं क्योंकि फूल ने हमसे कुछ कहा नहीं। लेकिन फूल ने भी, एक आदमी ठहर गया एक क्षण को और उसको देखा है तो खुश हुआ होगा। बस जिंदगी ऐसी होनी चाहिए। मैं अपने आनंद में हूं, फूल अपने आनंद में है। हम एक क्षण को मिले हैं, हम दोनों आनंद में हैं, फिर आगे बढ़ गए हैं।
किसी का सहारा नहीं, किसी का आधार नहीं। नहीं तो क्या खतरा होता है, जिसको हम आधार बनाते हैं, पहली तो बात हम उसके लिए बोझ हो जाते हैं तत्क्षण। क्योंकि तुमने तो आधार बनाया न, और उसके लिए तुम बोझ हो गई। बेटी बाप के लिए बोझ है। वह कह रहा है, कब इसका शादी-विवाह करें और इससे छुटकारा पाएं। बूढ़ी मां बेटे के लिए बोझ है, यह कब स्वर्गवासी हो जाए, भीतर यही चल रहा है। क्योंकि वह बूढ़ी मां उसको सहारा बनाए हुए है। तो वह तो सहारा जिस पर, उस पर बोझ हो गया है।
पत्नी पति के लिए बोझ है, पत्नी के लिए पति बोझ है, क्योंकि वे एक-दूसरे को सहारा बनाए हुए हैं। फिर जिसके लिए हम बोझ हैं, उस पर क्रोध आता है। पता नहीं चलता। पूरे वक्त क्रोध रहता है, क्योंकि बोझ हो गया। और जिसके प्रति हमारा बोझ है, उसके साथ हम आनंदित कभी नहीं हो सकते। इसलिए कोई पत्नी किसी पति के साथ कभी आनंदित नहीं हो सकती। जब तक कि वह साथी न हो जाए। सहारा-वहारा नहीं। और दोनों स्वतंत्र न हों, तब तक कभी सुखी नहीं हो सकते।
इसलिए तुम हैरान होओगी, कभी हम अनजान आदमी से मिल कर जितने खुश होते हैं, अपने ही घर के आदमी से मिल कर उतने खुश नहीं होते। ज्यादा होना चाहिए। क्यों? वह यही कारण है कि उससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है, कोई अपेक्षा नहीं है। अगर तुम रास्ते पर मुझे मिली और तुमने नमस्कार करके मुझे, और मैंने हंस कर तुम्हें नमस्कार का उत्तर दिया, तुम खुश हुई, क्योंकि मुझसे कुछ लेना-देना नहीं था। मैंने मुस्कुरा कर तुम्हें जवाब दिया, तुम्हें अच्छा लगा। लेकिन तुम्हारा पति भी मुस्कुरा कर जवाब देगा। यह रोज का धंधा है और अपेक्षा है हमारी। नहीं देगा तो गर्दन पकड़ लेंगे उसकी कि आज मुस्कुरा कर जवाब नहीं दिया। या मुस्कुरा कर दिया तो भी हम जांच रखेंगे कि सच में मुस्कुराया था कि धोखा दे रहा था। यह सब चलेगा, क्योंकि हमने गलत संबंध बना लिए हैं।
मेरा कहना यह है, प्रत्येक को अपने व्यक्तिगत जीवन को आधार बनाना चाहिए। फिर बहुत लोग किनारे से आएंगे--पति भी होगा, बेटा भी होगा, मां भी होगी, मित्र भी होंगे, साथी भी होंगे, ठीक है, वे साथ मिलेंगे, हम आनंदित होंगे, हम शेयर करेंगे अपना आनंद उनसे। लेकिन किसी के कंधे पर हाथ मत रखना। क्योंकि जिसके कंधे पर तुमने हाथ रखा, तुम उसी के लिए बोझ हो गई। और मजा यह है कि एक-दूसरे के कंधे पर दोनों हाथ रखे हुए हैं, तब तो बहुत मुसीबत हो गई। वह भी सहारा खोज रहा है। तो इसलिए मैं सहारे के दर्शन को ही नहीं मानता। मैं मानता हूं, एक-एक व्यक्ति की इंडिविजुअलिटी, वह उसकी मुक्ति होनी चाहिए। और यह भी मेरी समझ है कि जब दो मुक्त व्यक्ति मिलते हैं, तो एक-दूसरे को आनंद देते हैं। और जब दो बंधे हुए व्यक्ति मिलते हैं तो कैसे आनंद देंगे? तुम मेरी लगाम पकड़े हो, मैं तुम्हारी लगाम पकड़े हुए हूं, क्या आनंद देंगे? और तरकीबों से लगाम पकड़े हुए हैं। वह एक पति है, उसकी लगाम पत्नी पकड़े हुए है कि खिसक न जाए यहां-वहां यह, पति वह पत्नी की लगाम पकड़े हुए है। और ब्राह्मण ने दोनों की लगाम बंधवा दी है सात चक्कर लगवा कर। और सारे समाज ने कहा है कि ठीक है, लगाम अब बंध गई, अब यह छोड़ नहीं सकते हो। खाते हो कसम कि अब कभी छोड़ोगे नहीं? इन दोनों ने कसम खा ली है। अब यह बेवकूफी हो गई है। और अब रस ही चला गया, जीवन की जो सुगंध होनी चाहिए, प्रफुल्लता, वह सब गई। अब बोझ ही बोझ होगा।

पति-पत्नी में कभी आनंद भी नहीं आता?

पति-पत्नी होने की वजह से नहीं आ सकता। दो मित्र की तरह आ सकता है। वह पति-पत्नी होना बिलकुल ही अग्ली, कुरूप बात है। वह बरदाश्त के बाहर है। अगर जिसमें भी थोड़ी बुद्धि है, तो वह बहुत बरदाश्त के बाहर है। मित्रों में आनंद आ सकता है। और इसलिए वही पत्नी और वही पति, जब तक विवाह नहीं हुआ था, अगर उनमें प्रेम रहा हो, तो जैसे आनंदित थे, विवाह के बाद पाओगी कि वह आनंद सब खो गया।

समाज के लिए आज क्या केवल...नेतृत्व पर निर्भर है सब?

आज तो नहीं है। इसलिए समाज बिलकुल सड़ा-गला है, एकदम गंदा है। नर्क है बिलकुल समाज तुम्हारा। लेकिन होना चाहिए, तो समाज स्वर्ग बन जाए।

तो फिर हमारे पूर्वज क्या?

पूर्वज तो हमेशा ही नासमझ होते हैं। मेरा मतलब समझ लें? मेरा मतलब यह कि मुझसे आने वाले पांच सौ साल बाद जो बच्चे आएंगे, उनसे मैं ज्यादा नासमझ हूं, क्योंकि उनको पांच सौ साल का अनुभव और समझ मिल जाएगी।

हमारे विचार से वे दिन ऐसे थे, लेकिन वे भी बहुत दुखी थे।

कौन सुखी था? वे ऋषि-मुनि, पूर्वज?

न-न, जो कुछ समाज के उन्होंने बंधन बांधे हुए हैं--जो पति-पत्नी, कुछ समाज के नियम, जब नहीं थे, तब बहुत आनंद था।

नहीं-नहीं, तब भी आनंद नहीं था। तब भी आनंद नहीं था, इसीलिए तो यह सारा इंतजाम करना पड़ा। नहीं तो इंतजाम काहे के लिए करते हम? तब दूसरी तरह का दुख था। कि जिस आदमी के हाथ में ताकत है, वह सारी खूबसूरत स्त्रियों को घेर कर खड़ा हो जाता। उनकी ताकत थी क्योंकि और तो कोई नियम नहीं था। ताकत ही नियम थी। अभी भी निजाम हैदराबाद की पांच सौ औरतें हैं! अभी भी! कृष्ण की कोई सोलह हजार औरतें हैं!

लेकिन यह केवल पुरुष...

मेरा मतलब नहीं समझी? पुरुष के हाथ में ताकत है, इसलिए ताकत वाला कुछ करेगा। ऐसे समाज भी रहे हैं जहां स्त्रियों के हाथ में ताकत रही, तो उन्होंने भी सब जवान खूबसूरत लड़कों को बांध कर रख लिया। ताकत जहां होगी, तो ताकत ही कानून थी उन दिनों। तो उसका परिणाम यह हुआ था कि एक आदमी सारी सुंदर स्त्रियों को पकड़ लिया, एक स्त्री सारे सुंदर जवानों को पकड़ ले। इस स्थिति को बदलने के लिए इंतजाम करना पड़ा। वह इंतजाम किया, कि भई कुछ संबंध हो, कुछ नियम हो, समाज की कोई व्यवस्था हो। वह व्यवस्था हो गई। अब उस व्यवस्था में हमें पता चला कि दूसरी बीमारियां हैं। अब उस व्यवस्था को भी बदलना चाहिए। उसका मतलब यह नहीं है कि अब हम पीछे लौट जाएंगे पचास हजार साल पहले। वहां तो हम कभी नहीं लौट सकते। अब तो जो हम व्यवस्था देंगे, वह इससे बेहतर होगी। यह व्यवस्था उससे बेहतर थी।
पूर्वज हमेशा अपने पूर्वजों से ज्यादा समझदार थे, लेकिन अपने आने वाले बेटों से ज्यादा समझदार नहीं हो सकते। जिन्होंने व्यवस्था दी विवाह की, वे उन पूर्वजों से ज्यादा समझदार थे, जो समाज में लाठी का बल चलाते थे। लेकिन अब फिर वक्त आ गया कि फिर इसे बदलो। यह भी सड़ गया है। और अब दुनिया ऐसी हालत में आ गई है कि यह बात समझी जा सकती है। यह मित्रता की बात यह आज तक समझी नहीं जा सकी। और अब दुनिया ऐसी हालत में आ गई है कि स्त्री इंडिविजुअल की हैसियत से खड़ी हो सकती है। अब तक खड़ी ही नहीं हो सकती थी। यानी पहले ही, और मजा यह है कि यह सारा का सारा जो विकास हुआ है, इस सारे विकास में अब एक स्थिति ऐसी आ गई है।
जैसे हुआ क्या है, पुरुष के हाथ में ताकत थी, जो स्त्री के हाथ में नहीं थी। शरीर के लिहाज से वह थोड़ी कमजोर है, स्वभावतः, तो पुरुष उसको दबाता रहा। लेकिन अब, अब हमने एक ऐसी समाज विकसित कर ली, जिसमें ताकतवर कमजोर को दबाए इसकी जरूरत नहीं रह गई, और दबाए तो हम इंतजाम कर सकते हैं कि वह न दबा सके। अब यह संभव हुआ है। यह आज के पहले संभव नहीं था।
फिर हमने यह व्यवस्था कर ली कि पुरुष के हाथ में अर्थ की सारी ताकत थी। कमाता वह था और पूछता ही नहीं था कि स्त्री कैसे कमाए। क्योंकि कुछ काम ऐसे थे कि वह स्त्री कर ही नहीं पाती थी। जैसे शिकार का काम था, हजारों साल तक आदमी शिकार से जीता था। तो वह स्त्री की फिजियोलाजी नहीं थी कि वह शिकार कर सके। ऐसे मसल्स नहीं थे कि वह जाकर जंगली जानवरों से जूझ सके। तो वह पिछड़ गई। शिकार जो कर सकता था वह मालिक ज्यादा बड़ा होगा, क्योंकि वही भोजन लाता था, भोजन जुटाता था।
अब जो दुनिया आई है, अब हमने टेक्नोलॉजी का ऐसा विकास कर लिया कि अब बटन दबाने से सारे घर की बिजली जल जाती है। अब पुरुष दबाए कि स्त्री दबाए, यह सवाल नहीं है और इसके लिए कोई ताकत की जरूरत नहीं कि कोई पहलवान लाना पड़ेगा जो बटन दबाए। टेक्नोलॉजी के विकास ने ताकत आदमी के हाथ से खत्म कर दी। ताकत मशीन के पास चली गई। और मशीन न स्त्री है, न पुरुष है। अब मशीन को चलाने की बात है, वह कोई भी चला सकता है। तो पहली दफे दुनिया में टेक्नोलॉजी ने ऐसी हालत ला दी है कि अब स्त्री और पुरुष दोनों कमा सकते हैं। और इसलिए अब स्त्री को गुलाम होने की कोई जरूरत नहीं, अब वह मित्र हो सकती है।
लेकिन पूरब के मुल्कों में अभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि पूरब के मुल्कों की स्त्रियां बेवकूफी की बातें मानती चली जा रही हैं अभी भी। सच बात तो यह है कि स्त्री ठीक से शिक्षित हो जाए, तो उसे पुरुष के पैसे पर निर्भर होने से इनकार करना चाहिए। बिलकुल इनकार करना चाहिए। क्योंकि तुम पैसे की तो सारी सुविधा चाहो और स्वतंत्रता भी चाहो, ये दोनों बातें बेईमानी की हैं। यह जरूरी नहीं है। यह तो बेईमानी की बात है। यानी कमाए तो वह और बांटते वक्त दोनों मित्र होने का दावा करो। यह गलती बात है, वह जो कमाएगा, वह बुनियादी रूप से मालिक होगा। तो जब दुनिया में थोड़ी और समझ बढ़ेगी, जैसी समझ मैं चाहता हूं, तो कोई भी स्त्री अपने पति के पैसे को अपना नहीं मानेगी। वह कहेगी कि इसे तुमने कमाया है, ठीक है; वह भी कमाएगी। यह दूसरी बात है कि दोनों पूरक कर लें और दोनों मिल कर घर का काम चलाएं, लेकिन स्त्री डिपेंडेंट नहीं होगी। वह कहेगी कि हम कोई पैसे पर तुम्हारे निर्भर नहीं रह सकते।

जैसे ही वह पति के--जो वह सुपिरिआरिटी कांप्लेक्स...

वह खत्म हो जाएगा। वह है इसलिए, उसके कारण हैं। पश्चिम में वह खत्म होना शुरू हो गया। उसके तो कारण हैं। वह सुपिरिआरिटी कांप्लेक्स जो है न, उसके लिए तो उसने कारण बनाए हुए हैं। सबसे बड़ा कारण तो पैसा है, वह कमाता है, तुम निर्भर हो। तो तुम जब तक पैसे पर निर्भर हो, तो तुम भयभीत भी हो कि अगर आज वह इनकार कर दे, तो तुम कहां जाओगी? कल ही एक लड़की आई, वह कहती है कि वह पति ऐसा-ऐसा कहता है, यह-यह करो। वह नहीं करना चाहती है। लेकिन है तो निर्भर पैसे पर। कपड़ा पति से लो, पैसा पति से लो, मकान पति से। तो फिर पति उसके साथ शर्तें लाता है कि यह मानो, नहीं तो जाओ, तुम्हें जो दिखता है तुम करो। जाओ कहां? वह कहती है, मैं जाऊं कहा? पिता कहते हैं कि वहां लौट आऊं। तो वे कहते हैं, हमने एक दफे बोझ उतार दिया, अब हम क्यों झंझट लें। आखिर पिता भी, वह भी पैसे का ही मामला है।

तो लड़कियों को अपने पांव पर खड़े होना चाहिए।

हां, लड़की को, सारी दुनिया की स्त्रियों को अगर स्वतंत्र होना है और पुरुष की बराबरी हासिल करनी है तो यह बातचीत से होने वाला नहीं है। उसके कारण मिटाने पड़ेंगे, जिनकी वजह से गैर-बराबरी है। और बड़ा कारण आर्थिक है, सबसे बड़ा कारण आर्थिक है। पहले एक कारण और था कि पुरुष ताकतवर है। वह कारण अब बेमानी हो गया। अब उसका कोई मतलब नहीं है। अब उसका मतलब ही नहीं रहा है। क्योंकि वह तो हमने, हमारे विकास ने उसको व्यर्थ कर दिया। अब दूसरा कारण रह गया, आर्थिक का।
अब जैसे रूस है, तो रूस में पुरुष की सुपिरिआरिटी विलीन हो गई है, क्योंकि स्त्रियां कमा रही हैं, उतना ही जितना पुरुष कमा रहा है। और जब एक स्त्री और पुरुष विवाह करते हैं तो फैमिली बनती रूस में, हिंदुस्तान में तो बन ही नहीं सकती। क्योंकि स्त्री बिलकुल ही खाली हाथ खड़ी होती है। वह कुछ करेगी नहीं, वह सिर्फ निर्भर रहेगी। सारी चिंता पुरुष पर है, सारी परेशानी उस पर है। नहीं कमाए, परेशान हो, तो वह चिंता करे। स्त्री को कोई फिकर नहीं है, वह डिमांड करती चली जाएगी। तो इसके बदले में तुम्हें गुलाम होना पड़ेगा, इनफिरिअर होना पड़ेगा। इसके बदले में कुछ तो पुरुष मांगेगा कि कम से कम तुम हमारी दासी तो रहो, हमारे पैर तो छुआ करो। स्वभावतः इसकी मांग फिर एकदम नाजायज भी नहीं है। और अगर हम कहते हैं कि नहीं, हम यह भी नहीं करेंगे और यही हम जारी रखेंगे सिलसिला, तो यह मांग नाजायज है।
तो मेरा कहना है, स्त्री आर्थिक रूप से पैर पर खड़े होने की हिम्मत जुटानी चाहिए। और अगर घर में भी वह काम करती है, तो उस काम का भी आर्थिक विनियोग होना चाहिए। वह काम तो काफी करती है, लेकिन उसका आर्थिक मूल्य नहीं है। जैसे अगर तुम एक रसोइया घर में रखते हो, तो उसको तुम पचास रुपये महीने देते हो। एक कपड़ा धोने वाला रखते हो, तो उसको तुम पचास रुपये महीने देते हो। एक बुहारी लगाने वाला रखते हो, तो उसको भी बीस रुपये महीने देते हो। वह पत्नी यह सब कर रही है। वह दो सौ रुपये महीने का काम कर रही है, लेकिन इसका कोई आर्थिक हिसाब नहीं है। इसका आर्थिक हिसाब होना चाहिए। लेकिन यह कांशसनेस जितनी बढ़ेगी, तब साफ होगा। तो एक तो स्त्री को पूरे आर्थिक रूप से स्वनिर्भर। पति नहीं चाहेगा कि स्वनिर्भर स्त्री हो। इसलिए पति कहेगा, मेरे इज्जत के खिलाफ है कि तुम कुछ काम करो। क्योंकि तुम जैसे ही स्वनिर्भर हुई, पति की सुपिरिआरिटी गई। इसलिए पति कभी नहीं चाहेगा कि स्त्री कमाए। पति कहेगा, जब मैं हूं, तुम्हें कमाने की क्या जरूरत है? मैं जब नहीं रहूं तब सवाल है। मैं जब कमा सकता हूं, तुम क्यों कमाओगी? और स्त्री इससे बड़ी खुश होती है कि पति कितनी प्रेम की बातें कर रहा है। लेकिन बहुत गहरे में पति यह कह रहा है कि तुमने कमाया कि तुम मुक्त हो गई। तो तुम मेरी गुलाम नहीं हो सकती।

अभी भी वे मुक्त तो नहीं हैं। अभी बहुत लड़कियां हैं जो कमा भी रही हैं वे भी गुलाम हैं। और दूसरे कारण भी हैं।

न-न, कारण और भी हैं, कारण और भी हैं। वे जो लड़कियां कमा रही हैं, जो लड़कियां कमा रही हैं, वे सिर्फ प्रतीक्षा कर रही हैं कि कब उनको पति मिल जाए, और कमाना वे छोड़ दें।

नहीं, शादी की हुई लड़कियां।

शादी की हुई लड़कियां जैसे ही कमाती हैं, तो उन लड़कियों में और जो पत्नियां नहीं कमा रही हैं, बुनियादी फर्क पड़ जाएगा। फर्क पड़ेगा, उनके पास बल हो जाएगा। यानी वे अकेली खड़ी हो सकती हैं, एक, इतनी हिम्मत हो जाएगी। वे पति पर बिलकुल निर्भर नहीं हैं, एक बात। दूसरा, उनका पूरा माइंड जो अब तक सिखाया गया स्त्रियों को, कहा है कि पुरुष तो है वृक्ष की भांति और स्त्री है लता की भांति। वह उसके सहारे ही खड़ी हो सकती है। गिर जाएगी, तो नीचे जमीन पकड़ जाएगी। बिलकुल झूठी बात है। पुरुष ने सिखाई है, इसमें कोई मतलब नहीं है, इसमें कोई भी मतलब नहीं है।

आगे यह हो सकता है कि लेडीज जेंटल ओवर हो।

कर सकती हैं, यह कर सकती हैं, यह रिवेंज हो सकता है। यह संभावना है। यह संभावना है। क्योंकि जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी विकसित होगी, ताकत बेमानी हो जाएगी। जैसे मैं दौडूं और एक स्त्री मेरे साथ दौड़े, तो मैं तेजी से दौडूंगा, वह उतनी तेजी से नहीं दौड़ सकती है। लेकिन एक स्त्री ड्राइव कर रही है और मैं ड्राइव कर रहा हूं, बेमानी हो गई बात। मेरे पुरुष होने की वजह से मैं ज्यादा तेजी से ड्राइव नहीं कर लूंगा। मोटर की टेक्नोलॉजी ने दौड़ने में आपको बराबर कर दिया। आप मेरा मतलब समझी न? सब मामलों में टेक्नोलॉजी विकसित होती चली जाएगी और टेक्नोलॉजी के वजह से ताकत का जो फर्क था, वह क्षीण होता चला जाएगा। अब एक आदमी कुल्हाड़ी चला रहा है, तो स्त्री नहीं चला सकती उतनी कुल्हाड़ी। वह चलाएगी तो पांच मिनट में थक जाएगी। वह दो घंटे चलाएगा, तो वह सुपीरियर हो गया। लेकिन अब बिजली की आरा मशीन चल रही है, बटन दबाना है, चाहे पुरुष दबाए, चाहे स्त्री दबाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह आरा मशीन पूछती नहीं कि किसने दबाया। लेकिन कुल्हाड़ी पूछती है कि तुम पुरुष हो कि स्त्री? मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? टेक्नोलॉजी के विकास ने ताकत की बात खत्म कर दी। अब ताकत बेमानी है। इसलिए ताकत-वाकत का कोई सवाल नहीं है अब। अब कोई ताकत से नहीं डरवा सकता किसी को।
तो वह तो एक आधार छूट गया है। अर्थ का एक आधार रह गया है। एक और दूसरा माइंड का रह गया सबसे गहरे में। स्त्री जो है, उसको इतने दिन तक यह सिखाया गया है कि तुम निर्भर ही सुखी रह सकती हो। जब तुम बच्ची हो तो बाप पर निर्भर रहो, जवान हो तो पति पर निर्भर रहो, बूढ़ी हो जाओ, बेटे पर निर्भर रहो, यह सिखाया पुरुषों ने। पूरी फिलासफी पुरुषों ने खड़ी की है। और पूरे टीचर्स पुरुषों के हैं--गुरु, संन्यासी, साधु पुरुषों के हैं, वे सब वही समझा रहे हैं। स्त्री उनको सुन रही है और वही सीख रही है।
यह माइंड का स्ट्रेक्चर तोड़ना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि कोई किसी पर निर्भर नहीं है। हम एक-दूसरे पर निर्भर हो सकते हैं, लेकिन कोई किसी पर निर्भर नहीं है। इंटर-डिपेंडेंस हो सकती है, लेकिन डिपेंडेंस नहीं हो सकती। म्युचुअल डिपेंडेंस है, हम दोनों ही किसी पर निर्भर नहीं, हम मित्र हैं, हम शेयर करना चाहता हैं, तो हम एक-दूसरे पर निर्भर हुए हैं। लेकिन कोई मालिक, कोई गुलाम, ऐसा नहीं है, एक बात।
दूसरी एक बात थी, जो टेक्नोलॉजी ने वह भी खत्म कर दी। वह थी स्त्री के साथ बच्चों का प्रश्न। जैसे ही स्त्री को बच्चे पैदा होते हैं, वह निर्भर हो जाती है। क्योंकि उतने वक्त वह कमा नहीं सकती, काम नहीं कर सकती, कमजोर हो जाती है। चार-छह महीने बच्चे को पालने में भी उसको घर बैठना चाहिए, तो वह निर्भर हो जाती है। तो टेक्नोलॉजी ने वह स्थिति भी साफ कर दी। टेक्नोलॉजी ने यह स्थिति साफ कर दी। तो बर्थ-कंट्रोल ने इतनी बड़ी ताकत दे दी स्त्री को जिसकी कल्पना नहीं है। और जब तक बर्थ-कंट्रोल पर स्त्रियां पूरे बल से प्रयोग नहीं करतीं, पुरुषों के मुकाबले खड़ी नहीं हो सकेंगी। बर्थ-कंट्रोल ने बड़ी ताकत दे दी, एक बात। अब दूसरी बात जो है, बच्चे को पालने की, बच्चे को बड़ा करने की, यह पुरुष और स्त्री की समान जिम्मेवारी है, यह कोई स्त्री की अकेली जिम्मेवारी नहीं है। यह अकेली जिम्मेवारी नहीं है बच्चे को पालने बड़े करने की। तो इसके लिए बहुत जल्दी लीगल व्यवस्था होनी चाहिए कि बच्चे का बोझ कोई स्त्री पर ही पूरा पड़ने का नहीं है। और दूसरी बात, अब तो संभावना इतनी बढ़ती जाती है कि जिसकी हम कल्पना ही नहीं कर सकते। मां के पेट में ही बच्चा बड़ा हो, यह भी जरूरी नहीं रह गया। वह तो टेस्ट-टयूब में भी बड़ा हो सकता है। स्त्री को वह नौ महीने की जो परेशानी उससे मुक्त किया जा सकता है। बिलकुल मुक्त किया जा सकता है। वह जो उसकी वजह से निर्भरता, वह मुक्त हो गई। और दूसरी बात है, बच्चों का सारा का सारा कंट्रोल स्टेट के हाथ में जाएगा, जैसे ही समाज वैज्ञानिक होगा। बच्चों का कंट्रोल मां-बाप के पास रहना ही नहीं चाहिए।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

टूटना ही चाहिए। मित्रता के ही संबंध रह जाना चाहिए। यह रिलेशनशिप बहुत कुरूप है और इसकी वजह से बहुत दुख है। यह सारी स्थिति जो नई आ गई है, इस नई स्थिति का पूरा विनियोग अगर हम करेंगे सोच कर, तो स्त्री आज स्वतंत्र हो सकती है, मुकाबले पर समान हो सकती है। कोई कठिनाई नहीं रह गई। लेकिन स्त्री को बहुत सी ऐसी धारणाएं छोड़नी पड़ेंगी जो पुरुष ने उसमें पैदा की हैं। अब जैसे स्त्री जा रही है और सड़क पर एक आदमी का धक्का लग गया और वह घबड़ा गई। यह पुरुष ने उसमें पैदा किया हुआ है। अगर स्त्री सड़क पर चलते आदमी के धक्के से घबड़ाती है तो वह पुरुष के समान कभी नहीं हो सकती। तो उसको घर में बंद रहना पड़ेगा और जब पति उसको लेकर निकले, तब निकलना पड़ेगा। यह जो मामला है न...
मैं आगरा से लौट रहा था। मेरे साथ एक कपल था, एक पति और उनकी पत्नी थी। तो पति जैसे ही गाड़ी में चढ़े, उन्होंने नीचे हाथ बढ़ाया, पत्नी को चढ़ा लेने के लिए। मैंने उनकी पत्नी को कहा कि इनकार कर दो कि यह बात गलत है, क्योंकि मैं चढ़ सकती हूं। प्रेम के लिए धन्यवाद। लेकिन यह बात गलत है, मैं जिस सीढ़ी पर चढ़ सकती हूं, उस पर तुम्हारा हाथ पकड़ कर चढूं, यह बात गलत है। उसने कहा, लेकिन क्यों? मैंने कहा, फिर तुम अपने हाथ से डिपेंडेंस को पालती हो। और तुम इसमें खुश हो रही हो कि यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन ऐसा मौका नहीं तुमने कभी दिया कि तुम गाड़ी में पहले चढ़ गई हो और तुमने हाथ पकड़ कर पति को ऊपर लिया हो। तो पति इनकार कर देता कि यह इनसल्टिंग है। आप मेरा मतलब समझ रहे न? अगर आपकी पत्नी ट्रेन में चढ़ जाए और ऐसा हाथ बढ़ा कर कहे कि आओ। तुम कहोगे, यह इनसल्टिंग है। आस-पास के लोग देख कर क्या कहेंगे, यह जरा भी समझ की बात नहीं। लेकिन आप चढ़ जाओगे और पत्नी को हाथ बढ़ाओगे और पत्नी बड़ी खुश होगी, यह बहुत सम्मानपूर्ण लगेगा उसको। हमने उसको सिखाई हैं सारी बातें।

एक पहाड़ पर चढ़ते वक्त लेडीज को अपना हाथ देकर ऊपर लेते हैं।

जरूरत हो, तो हाथ देना चाहिए, लेडीज को नहीं, किसी को भी। लेडीज का सवाल नहीं है। मेरा मतलब समझे न आप?
जगह-जगह मेरी क्लास होती थी, तो लड़कियों का अलग बैठने का है, लड़कों का अलग। मैंने लड़कियों से कहा कि तुम जब तक इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा सकती कि लड़कों के साथ बैठो, तब तक तुम कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती। मेरी क्लास मैं, मैंने कहा, यह मैं बरदाश्त नहीं करूंगा। अगर मेरी क्लास में बैठना है, तो जो जब आ जाए और जहां जिसे जगह मिल जाए, वह वहां बैठ जाए। कि ये लड़कियां एक झुंड बना कर एक कोने में बैठी हुई हैं, लड़के एक झुंड बना कर कोने में बैठे हुए हैं। यह बिलकुल अशिष्ट और असंस्कृत मालूम होता है, अनकल्चर्ड मालूम होता है। अनकल्चर्ड है यह।
हम कहते हैं सभा में महिलाओं के लिए विशेष सुविधा है। सारी महिलाओं को मुकदमा चलाना चाहिए सभा के संयोजकों पर। क्योंकि विशेष सुविधा क्यों? विशेष सुविधा हमेशा कमजोरों को दी जाती है, इसका खयाल नहीं हमको? विशेष सुविधा कमजोरों के लिए दी जाती है। और विशेष सुविधा मिलने से कमजोर कमजोर होता चला जाता है, क्योंकि वह विशेष सुविधा के एक्सपेक्टेशन मांगता है। और पश्चिम में वे कहते हैं, लेडीज फर्स्ट, और स्त्रियां बड़ी खुश होती हैं। उनको बिलकुल इनकार करना चाहिए। कि नहीं, जो फर्स्ट है वह फर्स्ट। लेडीज का क्या सवाल है? जो पहले क्यू में आया, वह पहले खड़ा होगा, अगर हटता है तो अपमानजनक है। हम पीछे आए, हम पीछे खड़े होंगे। मगर मजा क्या है, इस वक्त शिक्षित से शिक्षित स्त्री कहती है, हमें पुरुष के बराबर होना है, लेकिन पुरुष जो सुविधाएं देता है, वह बड़े मजे से लिए चली जाती है। यह कंटाडिक्ट्री है, यह कभी हो नहीं पाएगा। सुविधाओं को इनकार करो।
अभी मैं अहमदाबाद में था। तो अहमदाबाद के हरिजन एक पूरा मंडल बना कर आए। कोई पच्चीसत्तीस हरिजन आए। पहले उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी। और मुझे लिखा कि जैसे गांधी जी हरिजनों की कॉलोनी में ठहरते थे, आप क्यों नहीं ठहरते हैं? हम आपको मिलना चाहते हैं। वे मिलने आए। उन्होंने मुझसे कहा कि आप हरिजन कॉलोनी में क्यों नहीं ठहरते? आप हरिजन के घर में क्यों नहीं ठहरते, जैसे गांधी जी ठहरते थे? तो मैंने कहा, पहली तो बात यह कि मैं किसी को हरिजन नहीं मानता। गांधी किसी को हरिजन मानते होंगे। मैं किसी को हरिजन नहीं मानता। मैं घर में ठहरता हूं, हरिजन और गैर-हरिजन का सवाल ही नहीं है। तुम आओ, मुझसे कहो कि हमारे घर में ठहरने की व्यवस्था है, मैं चलूंगा। लेकिन तुम कहो कि हरिजन के घर में ठहरने चलो, मैं नहीं चलूंगा। क्योंकि हरिजन को मानना, हरिजन को जारी रखना है। उसको जारी रखना है, उसको नीचा, यह भी नीचा दिखाना है। यानी महात्मा गांधी हरिजन के घर में ठहरते हैं, यह बड़ा भारी उपकार कर रहे हैं वे और हरिजन बड़ा प्रसन्न है। और बेवकूफ है वह अपनी प्रसन्नता में। क्योंकि यह उसकी हीनता का सबूत है। और वह कहता फिर रहा है कि महात्मा जी हमारे घर में ठहरे हुए हैं। तुम आदमी हो कि जानवर हो, तुम क्या हो? जो तुम्हारे घर में ठहरने से महात्मा जी ने कोई बहुत बड़ा काम किया हुआ है!
एक जमाना था कि उसको रिकग्नीशन दिया जा रहा था कि हरिजन के घर में हम नहीं ठहरेंगे। वह भी विशेष व्यवहार था। अब वह गांधी जी कहते हैं कि हम हरिजन के घर में ही ठहरेंगे, यह भी विशेष व्यवहार है। और विशेष व्यवहार हमेशा कमजोरों के साथ होता है। तो मैंने कहा, मैं तो हरिजन किसी को मानता नहीं। और मैंने उनसे, तो वे बोले कि फिर हरिजन कैसे मिटे? तो मैंने कहा, पहली तो बात यह है कि तुम मिटना नहीं चाहते। तुमसे कहता कौन है कि तुम अपने को हरिजन कहो? तुम क्यों अपने को हरिजन कहने यहां आए हो पच्चीस आदमी मिल कर। और हरिजन होने से तुमको जो विशेष सुविधाएं मिल रही हैं, वह तुम इनकार नहीं करते? उसका तुम पूरा फायदा लेना चाहते हो।

इसमें गांधी जी के विरोध की बहुत जरूरत है?

बहुत जरूरत है, एकदम जरूरत है। क्यों? एक तो मैं पूरे का विरोध करता हूं। ऐसा कोई भूल से भी कभी न सोचे कि गांधी की कुछ बातों का विरोध करता हूं, कुछ का नहीं करता। क्योंकि मेरा मानना है कि या तो आदमी गलत होता है या आदमी ठीक होता है। कुछ गलत और कुछ ठीक ऐसा आदमी होता ही नहीं। हो नहीं सकता। क्योंकि एक ही आदमी से सारी बातें निकलती हैं और वह एक ही दिमाग की बाइ-प्रोडक्ट होती हैं। गांधी का दिमाग गलत है, जो मेरा कहना है। यह सवाल नहीं है कि वह क्या कहते हैं और क्या नहीं कहते हैं। इसलिए जो भी उस दिमाग से निकलता है, वह गलत है। और विरोध करना बहुत जरूरी है। उसका कारण है, उसका कारण है।
महावीर और बुद्ध का विरोध उतना जरूरी नहीं है, क्योंकि पच्चीस सौ साल में धूल जम गई है, उनकी कोई फिकर नहीं कर रहा है, सिवाय पूजा-पाठ के। और पूजा-पाठ कोई फिकर नहीं है, निपटारा है। एक दिन आता है वर्ष में निपटा देते हैं!
गांधी नये हैं, और गांधी की छाया दिमाग पर है। गांधी का विरोध एकदम जरूरी है। मैं तो बहुत कम करता हूं तुम्हारी हिम्मत देख कर। और नहीं तो जितना विरोध करना चाहिए, क्योंकि मुझे दिखाई यह पड़ता है कि अगर गांधी का विरोध नहीं हुआ, तो इस मुल्क की हत्या हो जाएगी। जो मुझे दिखाई पड़ता है, तो मुझे करना चाहिए। और नहीं तो फिर मैं बड़ा खतरनाक आदमी हूं। अगर मुझे ऐसा दिखाई पड़े कि--भला वह गलत हो, तो जिनको गलत दिखाई पड़े, वह मेरा विरोध करें। उसका कोई हर्जा नहीं है। लेकिन मुझे ऐसा दिखाई पड़ता है कि गांधी को अगर माना मुल्क ने, तो मुल्क को इतना बड़ा नुकसान पहुंचेगा, जितना किसी एक व्यक्ति को मानने से किसी मुल्क को कभी नहीं पहुंचा।

जैसा आपने जो कहा, कि गांधी जी थोड़े ठीक हैं, यह बॉम्बे के व्याख्यान में आपने कहा।

जो मैं, जो-जो ठीक कहा हूं, जो ठीक कहता हूं, यानी ठीक का मतलब यह, आपके दिमाग से जो निकल रहा है, मैं गलत कहता हूं। तो इसका मतलब यह थोड़े ही है कि आप कपड़ा पहने हुए हैं कमीज तो वह गलत पहने हुए हैं। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न?
गांधी को जिस मामले में मैं ठीक कहता हूं, वह मामला बिलकुल दूसरा है। उसके ठीक होने से गांधी की फिलासफी का कोई संबंध नहीं। जैसे मैं कहता हूं, गांधी सिनसियर आदमी हैं, ईमानदार आदमी हैं; उन्हें जो ठीक लगता है, वह कर रहे हैं। लेकिन जो उन्हें ठीक लगता है, वह गलत है। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? मैं उनकी नियत पर शक नहीं करता, मैं यह नहीं कहता कि गांधी बेईमान हैं। कि गांधी जानते हैं कि इससे नुकसान होगा और कर रहे हैं, यह मैं नहीं कहता। तो गांधी एक गंभीर सिनसियर आदमी हैं। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न?
एक डाक्टर है, वह एकदम ईमानदार आदमी है। उसे लगता है कि आपका पैर काटने से आपका हित होगा। वह पैसे के लिए पैर नहीं काट रहा, वह आपका दुश्मन नहीं है। वह आपको नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन मैं यह कहता हूं कि वह डाक्टर बिलकुल ईमानदार है, लेकिन डाक्टर बिलकुल नहीं है, पैर काटने से नुकसान होगा। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? वह डाक्टर बिलकुल ईमानदार है, लेकिन डाक्टर बिलकुल नहीं है, और पैर काटने से नुकसान होगा।
गांधी की ईमानदारी पर मैं शक नहीं करता। नेहरू की ईमानदारी पर मुझे शक है। गांधी की ईमानदारी पर शक नहीं है। क्योंकि नेहरू जिसको ठीक समझते हैं, उसको नहीं कहते, क्योंकि गांधी उसको ठीक नहीं समझते। और नेहरू गांधी को बिलकुल गलत समझते हैं, लेकिन हिम्मत नहीं जुटाते कहने की और गांधी का जय-जयकार किए चले जाते हैं। नेहरू बिलकुल इनसिनसिअर हैं। अगर नेहरू ईमानदार हों, तो नेहरू को गांधी के खिलाफ खड़े होना चाहिए। लेकिन गांधी के साथ प्रतिष्ठा मिलती है, इज्जत मिलती है। और गांधी के खिलाफ हो कर नेहरू हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री नहीं हो सकते थे। एक उन्नीस साल तक अकेला आदमी तानाशाही नहीं कर सकता था। वह गांधी के बल पर की गई तानाशाही। और नेहरू को बिलकुल विश्वास नहीं गांधी की किसी बात में। कि गांधी जो भी कह रहे हैं, वह सब उनको गड़बड़ मालूम होता है।

तो वे कह तो रहे थे पुस्तकों में, कि जो गांधी कह रहे हैं, समझ में नहीं आता।

हां, जब समझ में नहीं आता, तो जब समझ में नहीं आता और लिखते हो कि गड़बड़ है, तो इसका विरोध करो। और फिर जब हुकूमत में आते हो तो फिर खादी को प्रोत्साहन मत दो, फिर ग्रामोद्योग की बात मत करो, फिर गांधी की फोटो लगा कर राष्ट्र-पिता मत बनाओ। यानी, मेरा मतलब समझ रहे न? इनसिनसिआरिटी जो मैं कह रहा हूं, वह यही है। कि नेहरू को लगता तो ऐसा है कि गांधी गलत हैं, और व्यवहार ऐसा करते हैं वे कि जैसे गांधी सब कुछ ठीक हैं!

नियोजन का तो प्रोत्साहन नेहरू ने ही किया न। गांधी की जय-जयकार करे तो भी क्या हर्जा है?

न-न, हर्जा है, हर्जा है, क्योंकि अगर नेहरू बर्थ-कंट्रोल के लिए प्रोत्साहन देते हैं, तो उन्हें कहना चाहिए कि गांधी बर्थ-कंट्रोल के लिए जो कहते हैं वह गलत है और खतरनाक है। वे यह कहने की हिम्मत नहीं जुटाते। क्योंकि यह पोलिटिकल मामला हो गया, इससे नुकसान पहुंचेगा नेहरू को। मेरा मतलब समझे न आप?

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न, न, न। यह ठीक और गलत का नहीं, मैं कहता हूं, सिनसियर नहीं हैं। यानी मैं कहता हूं, नेहरू गांधी से ज्यादा ठीक हैं, लेकिन सिनसियर नहीं हैं। गांधी बिलकुल गलत हैं, लेकिन एकदम सिनसियर हैं। मेरी जो तकलीफ है, तो वह जो मैं जहां ठीक कहता हूं, ठीक का कुल मेरा मतलब इतना है, गांधी के साथ हिंदुस्तान में सैकड़ों महात्मा थे, लेकिन गांधी की तरह सिनसियर कोई आदमी नहीं था। लेकिन गांधी की सिनसिआरिटी बिलकुल गलत थी, जिसमें वह लगी हुई थी। और इसलिए मेरा कहना है कि उनकी सिनसिआरिटी खतरनाक है। क्योंकि एक आदमी आपकी गर्दन काट दे बिलकुल सिनसिआरिटी से, तो भी गर्दन ही काट रहा है आखिर में। उनको शक नहीं है कि वह जो कह रहे हैं वह गलत है या नुकसान पहुंचाएगा। शक हो तो फौरन रुक जाएं। वह जो जहां भी मैं कहता हूं उनको, जिस अर्थ में मैं कभी भी ठीक कहा हूं, वह इतने अर्थ में ठीक कहता हूं। लेकिन जो भी गांधी कहते हैं, वह जो गांधीयन फिलासफी है, वह जो जिंदगी को देखने का ढंग है, वह पूरा गलत है। और उसका विरोध करना...।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बड़ा मजा यह है, बिके कि गलत चीज ही चल सकती है, क्योंकि सारा समाज गलत है। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? ठीक चीज को चलना ही मुश्किल है। ठीक चीज को चलने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। और गलत चीज ही चल सकती है, क्योंकि सारा समाज गलत है। और उस गलत चीज के अनुकूल है सारा समाज। अब हजारों-लाखों साल तक गलत चीजें चलती हैं, उससे कोई मतलब नहीं है।

ठीक आदमी को सक्सेस होना बहुत मुश्किल हो जाता है।

ठीक आदमी को सक्सेस होने में समय लगता है। बहुत समय लगता है। और यह भी हो सकता है, उसकी जिंदगी में कोई सक्सेस न हो। और अक्सर ऐसा हुआ है कि ठीक आदमी अपनी जिंदगी में सक्सेस नहीं हो सके। हजारों साल, मर जाने के बाद कहीं उनकी बात को बल मिला और लोगों को समझ में आया कि वह बात ठीक थी।
और गलत आदमी एकदम सक्सेसफुल हो सकते हैं। गांधी की सक्सेस फिनामिनल है। ऐसा कोई आदमी अपनी जिंदगी में इस तरह सफल नहीं हो सकता। और हो जाने का कुल कारण इतना है कि गांधी जो कहते हैं, भारत का जो मूढ़ चित्त है, उसको वह अपील होता है। मेरा आप मतलब समझ रहे हैं न? वह जो हमारा चित्त है, वह बना हुआ है, वह उसको अपील करता है कि बिलकुल ठीक है यह बात। गांधी की सफलता गांधी के गलत होने की वजह से है। और यह भी हो सकता है कि गांधी के खिलाफ जो बात कही जाए ठीक उलटी दिशा में, वह सफल न हो पाए इतनी जल्दी। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
लोग कहते हैं कि सत्य हमेशा जीतता है, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि असत्य जीतता है, सत्य को बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है। क्यों करनी पड़ती है? क्योंकि जिन लोगों से हम बात कर रहे हैं, उनका पूरा का पूरा दिमाग निर्मित है एक तरह से। अब जैसे कि जिन्ना सक्सेस नहीं हुआ, सफल नहीं हुआ? जिन्ना सफल हुआ! मुसलमान इतिहास में लिखा जाएगा कि जिन्ना जैसा सफल आदमी खोजना मुश्किल है। क्या होती और सफलता? लेकिन जिन्ना मुसलमानों का नेता कैसे हो सका? क्योंकि मुसलमानों ने जो बेवकूफी, उसको वह सहारा दे रहा है। इसलिए वह नेता है। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? जिन्ना की जो सफलता है वह...

समझदार मुसलमान हो जाएंगे तो जिन्ना गलत हो जाएगा न।

समझदार मुसलमान हो जाएं, तो जिन्ना से एकदम छुटकारा हो जाए। समझदार मुसलमान हो जाएं, तो मुसलमान होने से छुटकारा हो जाए। जिन्ना तो गया। यानी मतलब यह है, वह जिन्ना तो तभी तक है, जब तक नासमझी है। लेकिन जिन्ना पूरी तरह सफल हुए। इसमें क्या असफलता है? लेकिन किस चीज को अपील किया उन्होंने? वह जिस चीज को अपील किया वह चीज ही गलत है।
तो मेरी जो दृष्टि है, यह तय नहीं होता कि कौन सफल हो गया, इसलिए कोई सही नहीं होता, इसलिए कोई सही नहीं होता।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, वही चीज, हम सफलता-वफलता का विचार ही नहीं करते। तो वह तो जैसे-जैसे लोग तैयार होते चले जाएंगे, मैं गांधी के पूरे विचार के विरोध में हूं, एक-एक इंच। लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ता न वह सब कुछ।

कल आपको लगे कि गांधी ठीक था, तो आपको सुनने वाले कहां चले जाएंगे?

अगर मेरे सुनने वालों ने मुझे अंधे की तरह माना है, तो वे दिक्कत में पड़ जाएंगे। और अंधे हमेशा दिक्कत में पड़ते हैं, इसमें मेरा क्या कसूर है? समझे न आप? और अगर मेरे सुनने वालों ने और मैं तो पूरी कोशिश यह कर रहा हूं कि अंधेपन की दुश्मनी की कोशिश कर रहा हूं, अगर मेरे सुनने वालों ने ठीक सुना है तो वह मुझे गलत कहेंगे कि यह आदमी गलत हो गया है। इससे क्या फर्क पड़ता है? यानी यह अगर मैंने कहा इसलिए आपने मान लिया, तो मुश्किल में पड़ने ही वाले हैं, क्योंकि कल मैं बदल सकता हूं। लेकिन मैंने जो कहा, आपने सोचा, और इसलिए माना कि आपकी बुद्धि को जंचा, तो कल जो मैं कहूंगा, वह भी आप सोच लेना, जंचे तो ठीक है नहीं तो बात खत्म। बंधने का सवाल ही नहीं है। और इसलिए मेरा कहना है, मुझसे बंधने का कोई सवाल ही नहीं है, कोई मुझसे बंधा ही नहीं है, कोई प्रश्न नहीं है। मुझे जो ठीक लगेगा, वह मैं कहूंगा। आपको ठीक लगेगा, आप मानेंगे, नहीं लगेगा ठीक, नहीं मानेंगे। और मेरा कहना ही यह है कि आप मानना ही मत अंधे की तरह। गांधी जी ने इस पर बहुत जोर दिया, अंधे की तरह मानने पर। गांधी जी ने अपनी सारी बातें बिना दलील के इस मुल्क को मनवाने की कोशिश की, बिना दलील के!

उन्होंने सत्याग्रह...।

सत्याग्रह करना कोई दलील नहीं है। और यह कहना कि मेरी अंतरात्मा कहती है, इसलिए मैं ऐसा ही करूंगा, यह भी कोई दलील नहीं है। कल मैं यह डायरी देख रहा था, गांधी सिनटोनी पर निकाली। तो उसमें लिखा है कि जब किसी चीज का निर्णय न हो पाए, तो अंतिम निर्णय अंतरात्मा का है, वही सत्य है। तुम्हारे लिए होगा। लेकिन तुम कहते हो, पूरे मुल्क के लिए सत्य है! अंबेदकर की अंतरात्मा कुछ और कहती है, जिन्ना की अंतरात्मा कुछ और कहती है, तुम्हारी अंतरात्मा कुछ और कहती है! हम किसको सत्य मानें? हमारी अंतरात्मा को मानेंगे न हम, तुम्हारी तो नहीं।

बेसिकली रांग इनटे्रक्शन।

बेसिकली रांग। अंतरात्मा की आवाज आपके लिए सत्य है, लेकिन आप दूसरे पर नहीं थोप सकते हैं। और यह बड़ी थोपने की तरकीब है। मैं कहूं कि अगर आप नहीं मानोगे, तो मैं भूखा मर जाऊंगा। तो एक अच्छे आदमी को सोच कर कि यह आदमी भूखा न मर जाए, पता नहीं यही ठीक हो। और सब तरफ से आप पर प्रेशर पड़ना शुरू होगा, पूरा पूना कहेगा कि वह एक आदमी मर रहा है, आप क्या गड़बड़ कर रहे हो?

कल इससे ज्यादा ठीक से गांधी को समझ लिया जाता है, जैसा आप कहते हैं, तो फिर गोडसे को इतना लोग बदनाम नहीं करेंगे।

गोडसे तो गलत है ही। न, न, न, गोडसे तो गलत है ही। गांधी गलत हैं, इसलिए गांधी को मारना थोड़े ही सही है। यह तो सवाल ही नहीं है। नहीं, मेरी आप बात नहीं समझे।

...एक आदमी को मार दिया।

मारना तो गलत है ही, क्योंकि मारने से गांधी की गलती को समझना मुश्किल हो गया। गोडसे ने गांधी को महात्मा बना दिया, नहीं तो गांधी इतने बड़े महात्मा थे नहीं। आप समझते हैं न? गांधी इतने बड़े महात्मा कभी भी नहीं थे। यह गोडसे की कृपा है कि गांधी एकदम इतने बड़े महात्मा हो गए कि अब उनका आलोचना करना मुश्किल हो गया। गोडसे ने गोली मार कर जितना नुकसान किया है, उसका हिसाब नहीं। वह नुकसान गांधी को मारने का तो है ही, फिर गांधी तो खैर मर ही जाते, दो-चार-पांच साल में मरते, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन गांधी को मार कर गोडसे ने गांधीवाद पर ऐसी कील बिठा दी, जिसका कोई हिसाब नहीं है।
अगर जीसस को यहूदियों ने न मारा होता, तो शायद क्रिश्चिएनिटी कहीं भी नहीं होती। जीसस से कोई प्रभावित नहीं हुआ था, सूली से बहुत लोग प्रभावित हो गए। गांधी से आप इतने प्रभावित नहीं थे, गोली लगने से आप भी रोने लगे। और उस रोने में आप कोमल हो गए, एक साफ्ट कार्नर हो गया माइंड का गांधी के लिए कि बहुत बुरा हुआ गांधी के साथ, गोडसे बहुत बुरा आदमी है और इसकी तुलना में गांधी बहुत अच्छा आदमी है। वह गांधी का अच्छापन गोडसे की तुलना में हो गया। यानी जो कठिनाई हो गई न, कंट्रास्ट बहुत उलटा हो गया। गांधी को सोचा जाना चाहिए था माक्र्स की तुलना में, महावीर की तुलना में, बुद्ध की तुलना में, फ्रायड की तुलना में। वह मामला खत्म हो गया। अब जब आप कहते हैं--गांधी, गोडसे! तो और बड़ी गड?बड़ हो गई। वह गोडसे बिलकुल काली शक्ल है और गांधी उसके सामने बहुत प्रखर दिखाई पड़ने लगे। और गाली मार कर गोडसे ने बुरा किया, अच्छा नहीं किया। कोई आदमी कितना ही गलत है, उस गलत आदमी को अपनी गलत बात कहने का हक है। और कोई आदमी कितना ही सही है, तो भी गलत आदमी की आवाज बंद करने का कोई हक नहीं है। क्योंकि यह इसका मतलब यह हुआ, गोडसे जैसे लोगों की जो भूल है वह यह है कि गोडसे जैसे लोग गोली को आर्ग्युमेंट समझते हैं। कोई गोली आर्ग्युमेंट है? अगर आप एक लट्ठ मेरे सिर में मार दें तो मेरी बात गलत हो गई? और अगर आप लट्ठ मारते हैं, तो एक बात तो तय है कि आप मुझे ठीक मानते थे और मुझे गलत सिद्ध करने में असमर्थ थे। गोडसे की कंपनी जो थी इस मुल्क में, या है अभी भी, वह पूरी की पूरी कंपनी गांधी को जवाब देने में असमर्थ है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, वह चलेगा, चलेगा। नहीं, उसको भगवान बनाने की कोशिश चलेगी, भगवान गोडसे बनाने की कोशिश चलेगी।

उस आदमी को जिसको गोली मारी, उन्हीं को हम भगवान बना लेंगे।

न-न, वह तो चलेगी कोशिश।

प्रार्थना में उनका नाम लेते हैं...

नहीं, वह तो जिन्होंने मारा, कोई गोडसे अकेला नहीं था, वह एक प्रतिनिधि था एक वर्ग का। एक वर्ग है पीछे, वह आज भी है। वह बीस साल चुप रह लिया, क्योंकि...।

अगर गांधी जी को काटना हो, तो आप जैसे लोग उसे ज्यादा अच्छी तरह काट सकते हैं।

वही जरूरी है, वही जरूरी है। गोडसे क्या करेंगे किसी को काट कर, गोडसे क्या काट सकते हैं? ये तो गधे हैं। इनकी नासमझी की वजह से तो भारी नुकसान होता है। ये आर्ग्युमेंट का मामला ही तोड़ देते हैं।

गांधी जी ने ऐसी कोई सख्ती तो नहीं की। गांधीवाद...

गांधी जी ने बहुत सख्ती की। गांधी की सख्ती का तो हिसाब नहीं है। इतनी तो हिटलर ने भी नहीं की। वह तो दिखाई...वह तो पूरा गांधी का सब मामला पढ़ोगी तो बहुत घबड़ा जाओगी। लेकिन कोई पढ़ ही नहीं रहा है! क्योंकि हम तो सिर्फ नेतागण जो वाहवाही की बातें करते हैं, वह सुनते हैं।
कराची में कांफ्रेंस थी कांग्रेस की, कांग्रेस की बैठक थी। तो गांधी जी तो हमेशा कहते थे, मेरा कोई वाद नहीं है। वहां कम्युनिस्टों ने काले झंडे दिखाए कराची में और गांधीवाद मुर्दाबाद के नारे लगाए। वे मंच पर बैठे थे। उसी वक्त झंडे निकाल कर उन्होंने चिल्लाया, गांधीवाद मुर्दाबाद। उनको एकदम गुस्सा आ गया। उन्होंने माइक पर जो शब्द कहे, वह भूल में निकल गए। फिर जिंदगी भर पछताए। शब्द ये निकल गए, कहा उन्होंने कि गांधी मर सकता है, गांधीवाद अमर है। और हमेशा कहते थे, गांधीवाद है ही नहीं। गांधी मर सकता है, गांधीवाद अमर है! यह जल्दी में और गुस्से में निकल गया। मेरा मतलब आप समझे न? लेकिन यह ज्यादा आथेंटिक है जो मैं सुबह कह रहा था।
सबकांशस से आया।

यह सबकांशस से आया। यह भीतर से आया, यह ऊपर से नहीं आया। लेकिन हमारी तो क्या कठिनाई हो गई कि हम व्यक्तियों का विश्लेषण ही नहीं करते कि कुछ खोजें कि वह विश्लेषण पूरा का पूरा खयाल में आ सके कि कहां से आ रहा है।

आपको उनका पहलू उखाड़ना पड़ेगा, इसमें आपकी काफी एनर्जी लग जाएगी।

मेरी एनर्जी लगती नहीं, मेरी एनर्जी लगती नहीं, क्योंकि उखाड़ना मुश्किल है। क्योंकि आम आदमी गोडसेवादी होता है। अगर उसकी बात न मानूं, तो मारने की तबीयत होती है उसकी। अभी मुझे कितनी चिट्ठियां पहुंचती हैं कि आप फलां बात मत कहिए नहीं तो आपको गोली मार दी जाएगी। अब यह कोई गोडसे नहीं है, बेचारों के दिमाग वही है।
अभी पटना में मैं शंकराचार्य के खिलाफ बोला, बस उसी समय एक चिट्ठी पहुंच गई कि अगर आप शंकराचार्य के खिलाफ एक शब्द बोले तो आप पटना से जिंदा नहीं जा सकेंगे! अब गोडसेवादी कौन है? हम सब गोडसेवादी हैं!
अब बाप की अगर बेटा न माने, बाप कहता है, एक चपत लगाऊंगा, ठीक कर दूंगा। वह क्या कह रहा है, वह गोडसेवादी है। वह यह कह रहा है कि हम बाप हैं, हम तुमको मार सकते हैं अगर नहीं माना तुमने तो। लड़का कहता है, मुझे फलां लड़की से शादी करना है, बाप कहता है, नहीं करने देंगे। अगर करोगे तो घर से बाहर निकाल देंगे। वह गोडसेवादी है।
गोडसेवादी का मतलब क्या होता है? गोडसेवादी का मतलब यह होता है कि बुद्धि को, विचार को नहीं मानता, मार-पीट को मानता है। उसका और कोई और मतलब नहीं होता। हम सब मार-पीट को मानते हैं। हम सब भीतर से मानते यह हैं कि अगर नहीं मानता कोई आदमी तो उसका सिर खोल दो, फिर मान जाएगा। वह जिनको तुम गांधीवादी कहते हो, उसमें से निन्यानबे परसेंट गोडसेवादी हैं।
अभी राजकोट में उन्होंने यह किया कि जहां मेरी मीटिंग रखी, वहां हाल कैंसिल करवा दिया। ग्राउंड, तो ग्राउंड नहीं देंगे। अखबार में खबर नहीं छापेंगे, एडवरटाइजमेंट भी नहीं लेंगे कि मैं आया हूं राजकोट में, यह भी पता न चल सके! अब यह क्या है? यह सब गोडसेवाद है। इसका मतलब यह है कि मैं जो कहना चाहता हूं, वह नहीं सुनने दिया जाए लोगों को? अगर कोई तरह से मैंने कहना जारी रखा तो आखिरी उपाय यह है कि गर्दन काट दो, फिर यह बोल ही नहीं सकेगा! मगर ये तरकीबें वही हैं। हाल कैंसिल करवा दो, मीटिंग मत होने दो, अखबार में खबर मत निकलने दो! आप क्या कह रहे हैं? आप यह कह रहे हैं, इस आदमी को हम बोलने नहीं देंगे। लेकिन अगर यह आदमी बोलता ही चला जाए और आपका कोई उपाय न चले, तो आप कहेंगे, गोली मारो, जिसमें यह बोल न सके! मारते किसलिए हैं? वह इसलिए कि यह आदमी जो कर रहा है, वह न कर सके। मगर यह दलील नहीं होगी, यह कमजोरी होगी। गोडसे जो है एकदम कमजोर आदमी है। और इस तरह के सब लोग कमजोर हैं। लेकिन में गांधी का विरोध करता हूं, तो कोई यह नहीं कहता कि यह गोडसे कोई अच्छा आदमी है। गोडसे तो गलत आदमी ही है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

बहुत से कारण हैं ताकत के। कारण बहुत हैं ताकत के। अकेला सत्य ही कारण नहीं होता। अकेला सत्य ही कारण नहीं होता, हजार कारण होते हैं ताकत के। जैसे...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न, न, न, फोर्स लाने के तो हजार रास्ते हैं। पहली तो बात यह है कि आम आदमी को सत्य तो समझ में नहीं आता, स्वार्थ समझ में आता है। और स्वार्थ बड़ी ताकत है। जैसे आज मजदूरों को जा कर एक आदमी समझाए कि तुम इकट्ठे हो जाओ, हम फैक्टरी पर तुम्हारा कब्जा करवा देंगे। तो उस मजदूर को कोई कम्युनिज्म थोड़े ही समझ में आ रहा है। उसको तो कुल इतना समझ में आ रहा है कि यह तो बहुत बढ़िया है, अगर फैक्टरी पर कब्जा हो जाए। उसे कम्युनिज्म से थोड़े ही मतलब है। उसे कोई कम्युनिज्म का सत्य थोड़े ही समझ में आ रहा है। उसे समझ में यह आ रहा है कि ठीक है, अच्छा है। तो चलो बहुत रौब दिखा लिया मालिक ने, अब अपन भी जरा इस पर कब्जा कर लें। ताकत इकट्ठी हो गई, उतने स्वार्थ इकट्ठे हो गए। मालिक भी कोई फैक्टरी पर इसलिए कब्जा नहीं किए हुए है कि मजदूरों का भला कर रहा है। उसका अपना स्वार्थ है। अब दो स्वार्थ हैं, एक मालिक का और एक मजदूरों का। जिसमें जो बड़ा होगा, वह जीत जाएगा। इसमें सत्य का कोई सवाल नहीं है। दो स्वार्थ लड़ेंगे, जो ताकतवर होगा, वह जीत जाएगा। अगर मालिक की पुलिस, अदालत साथ है, तो पूना में मालिक जीत जाएगा। कलकत्ते में मालिक हार जाएगा, क्योंकि वहां पुलिस और अदालत मजदूर के साथ होगी। जो संघर्ष चल रहा है जगत में, वह स्वार्थों का संघर्ष है। और सत्य तो सिर्फ उसको दिखाई पड़ सकता है, जिसका कोई स्वार्थ न हो। और इसलिए सत्य बहुत कम लोगों को दिखाई पड़ता है। बहुत कम लोगों को दिखाई पड़ता है। सत्य की ताकत जो है उसका दूसरा अर्थ है।

लेकिन रूस को तो स्टैलिन उन्नति की ओर ले गया?

हां-हां, बिलकुल ले गया, बिलकुल ले गया। लेकिन वह इस ढंग से ले गया कि अब सारा मुल्क स्टैलिन को गाली दे रहा है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

न-न, वह पहले समझ में आने भी नहीं देता वह। वह तो गोली का मामला था न, गोडसेवादी हैं सब। स्टैलिन तो समझ...स्टैलिन के जिंदा रहते हुए तो आप--अब मैं कल सुना रहा था न, ख्रुश्चेव की कह रहा था न आपसे। कल मैं कह रहा था कि ख्रुश्चेव एक मीटिंग में बोल रहा था। उनकी जो कॉमनटन है, सारे बड़े कम्युनिस्ट नेताओं की, तीस सदस्यों की, उसमें वह बोल रहा था और उसने स्टैलिन का उसमें विरोध किया। मर जाने के बाद स्टैलिन के! तो एक सदस्य ने पीछे से आवाज लगाई कि आप तब कहां थे जब स्टैलिन जिंदा था? तब आपने क्यों नहीं विरोध किया? और आप तो जीवन भर से स्टैलिन के साथ थे? तो ख्रुश्चेव एक क्षण रुका और उसने फिर पूछा कि यह किस सज्जन ने आवाज लगाई है, कृपया खड़े होकर अपना नाम बता दीजिए? तो कोई खड़ा नहीं हुआ, कोई नाम नहीं आया! ख्रुश्चेव ने कहा, बस यही कारण मेरे साथ था, जो तुम अपना नाम नहीं बता पा रहे हो। जो मैं तुम्हारे साथ कर सकता हूं, वह स्टैलिन मेरे साथ करता। वह नहीं बता सका आदमी, क्योंकि बताना, मतलब मरना है। ख्रुश्चेव ने कहा, यही मामला मेरा था। मैं भी सब सुनता था, देखता था, लेकिन बोल नहीं सकता था। लेकिन मुल्क ने बहुत बुरा बदला लिया स्टैलिन के साथ। पहले उसकी कब्र बनाई क्रेमलिन के पास जहां लेनिन की कब्र है। फिर कब्र को उखाड़ा, हटाया वहां से। वहां से हटा दी कब्र को, लाश को हटा दिया वहां से, वहां नहीं रखने दिया फिर पीछे। अब स्टैलिन ने काम बहुत किया, लेकिन काम जिस ढंग से किया--कोई अस्सी लाख आदमियों की हत्या की रूस में। अकेले स्टैलिन की हुकूमत ने अस्सी लाख लोग मारे होंगे!

इनको बचाया जा सकता था।

अस्सी लाख को बिलकुल बचाया जा सकता था। इतनी बड़ी संख्या में हिंसा की जरूरत नहीं थी। लेकिन हिंसा अगर बचाई जाती तो स्टैलिन को नहीं बचाया जा सकता। स्टैलिन खो जाता। स्टैलिन खो जाता फिर, दूसरे लोग ताकत में आ जाते। तो जो भी ताकत में आ सकता था, उसको खत्म कर दिया फौरन।

देश का भला कर दिया...।

देश का भला थोड़ी दूर तक तो दिखाई पड़ेगा, लेकिन बहुत गहरे में तो खुद का डिक्टेटरशिप ही राज थी। देश में इसके भले तो हमारे बहुत कुछ जस्टिफिकेशंस होते हैं कि जो हम कर रहे हैं, वह उतने साफ नहीं होते।

क्रेमलिन से स्टैलिन की कब्र खोद कर फेंकी गई, यह क्या घृणा थी या कोई राजनीति का पाट अर्ज किया गया।

घृणा और रिवेंज और बदला ख्रुश्चियों का! असल में होता क्या है, अंडर-डॉग जो होते हैं, वे पीछे, उनको क्रोध तो रहता ही है हमेशा। अब ख्रुश्चेव को जिंदगी भर, जब तक स्टैलिन जिंदा था, जी-हजूरी करनी पड़ी। जो स्टैलिन कहे, वही सत्य था। इसमें कोई ना-नूच करने की जरूरत न थी। लेकिन मन में तकलीफ तो होती है, अपमान तो होता ही है इस सबसे।

...कि नेहरू को लोकप्रिय देखा था ख्रुश्चेव ने। भारत में नेहरू इस वक्त लोकप्रिय हैं। काश वह स्टैलिन ने कर ली। तो भारत रूस के मुकाबले बहुत ही जल्दी आ जाएगा। इसलिए असली शुरुआत, अपना पिछला दहा मिट जाएगा मेरा, और खास बात नेहरू भुलावे में आ जाएगा। और...

भारत तो कभी भी रूस..., एक। और ख्रुश्चेव? को भारत-वारत से कोई डर नहीं होता। उस सबसे कोई मतलब नहीं है। और यह जो लोकप्रियता होती है, नेहरू जैसी लोकप्रियता, यह किसी डिक्टेटर को कभी नहीं मिल सकती। यह मिल ही नहीं सकती।

बाद में नहीं, पहले ही मिल जाती है।

डिक्टेटर को कभी नहीं मिल सकती।

डिक्टेटर बनने के लिए लोकप्रियता ही खास बीज है।

रूस में मामला बहुत अजीब है। रूस में पता ही नहीं चलता कि कल कौन आदमी बन जाएगा। क्योंकि थोड़ा सा ग्रुप सब मैनेज कर रहा है। छोटा ग्रुप। बहुत थोड़ा सा ग्रुप है जो मैनेज करता है। कुछ पता नहीं चलता वहां। जनता से कोई मतलब नहीं है।

चीन के हमले का कारण क्या था भारत पर खास?

बहुत कारण, लेकिन, बहुत कारण, बड़ा कारण तो यह था कि चीन जांच-परख कर रहा है अपने आस-पास कि कौन कितना ताकतवर है, सिर्फ। वह जांच-परख, हमला करने में सिर्फ एक खयाल था कि जांच-परख हो जानी चाहिए आस-पास दुश्मन कौन ताकतवर है। और किससे टक्कर हो सकती है। वह भारत से ही टक्कर एशिया में हो सकती थी। और भारत को उसने जान लिया कि कोई खतरा नहीं है, कभी भी टक्कर ली जा सकती है। तो इसलिए वापस लौट गया। अब वर्ल्ड फोर्सेज में किससे टक्कर ली जा सकती है? तो दो ही फोर्सेज हैं, अमेरिका है या रूस है। अमेरिका से टक्कर लेना मंहगा पड़ सकता है। रूस से टक्कर लेना सस्ता पड़ेगा।
चीन के इरादे वर्ल्ड डामिनेशन के हैं। माओ के पास वही दिमाग है, जो हिटलर के पास था, नेपोलियन के पास था, सिकंदर के पास था, वही दिमाग है। वह अपनी पूरी कोशिश करेगा। एशिया में एक से ही डर था, सिर्फ भारत से। एशिया में किसी और से तो डर का कारण ही नहीं। एशिया में, बाकी पूरा एशिया दो दिन में रौंदा जा सकता है। और भारत की जांच कर ली कि कितनी ताकत है। भारत को कभी रौंदा जा सकता है, दिक्कत नहीं है कोई।

वह तो नीचे ही नहीं आया।

नहीं, दिक्कत नहीं है, दिक्कत नहीं है भारत के साथ। इसकी जांच हो गई, मामला खत्म कर लिया। इसकी जांच कर लेनी जरूरी, दुश्मन से हम लड़ते हैं न--दो आदमी कुश्ती लड़ते हैं, तो पहले हाथ मिलाते हैं। जनता सोचती होगी कि हाथ प्रेम से मिला रहे हैं। वे एक-दूसरे का हाथ दबा कर देखते हैं कि ताकत कितनी है! पहलवान लड़ने जाते हैं न, तो पहले ऐसा हाथ मिलाते हैं, तो लोग यह समझते हैं कि ये सिर्फ सदभाव प्रकट कर रहे हैं। सदभाव नहीं है वह। वह तो हाथ को दबा कर देखते हैं कि मामला कितना है, हमें कैसे आदमी से जूझना है।
वह सिर्फ हाथ दबा कर देखा भारत का और समझ में आ गया कि मामला बिलकुल बोगस है भारत के पास। यह कभी भी तोड़ा जा सकता है, इसलिए पीछे लौट गया।

इससे उसको चायना को नुकसान हुआ या फायदा हुआ?

इससे फायदा हुआ चायना को। चायना कोई नुकसान ही नहीं हो रहा पंद्रह साल से।

इंडिया भी ताकतवर बन जाएगा, चायना ने अटैक किया तो।

यह भी समझ लिया, यह भी समझ लिया। हमारी साइकोलॉजी समझना बहुत आसान है दुनिया में। और यही हम नहीं जानते। इसीलिए चुपचाप वापस लौट गया। क्योंकि अगर वह लड़ाई जारी रखे, तो हिंदुस्तान ताकतवर हो सकता है। वह वापस खींच लिया हाथ अपना। बात ही खत्म कर दी। और साल भर बाद आपने सारे अरेंजमेंट तोड़ दिए जो आप तैयारी भी कर रहे थे। अब आप कोई तैयारी नहीं कर रहे हैं। आपके दिमाग को समझ लिया गया है कि आप जब लड़ाई होगी, तभी तैयारी करते हो। आगे-पीछे तैयारी नहीं करते। आपका माइंड साफ है, बहुत साफ है। यानी हम उन लोगों में से हैं कि जब मकान में आग लग जाएगी तो कुआं खोदेंगे! मकान में आग बुझ गई, कुआं खोदना बंद कर दिया! इसलिए वह तो, वह सिर्फ एक...

सारा मुल्क ऐसा है।

हमारा माइंड ऐसा है, कि उसकी तैयारी करनी चाहिए।


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