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गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

नये भारत की खोज-(प्रवचन-02)

नये भारत की खोज-(दूसरा) 

दूसरा प्रवचन (४ मई १९६९ पूना, रात्रि)

वैज्ञानिक चिंतन की हवा

मेरे प्रिय आत्मन्!
सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।
एक मित्र ने पूछा है: पश्चिम से पढ़ कर आए हुए युवक विज्ञान और तकनीक की नई से नई शिक्षा लेकर आए हुए युवक भी भारत में आकर विवाह करते हैं तो दहेज मांगते हैं। तो उनकी वैज्ञानिक शिक्षा का क्या परिणाम हुआ?
पहली तो बात यह है, जब तक कोई समाज अरेंज-मैरीज, बिना प्रेम के और सामाजिक व्यवस्था से विवाह करना चाहेगा, तब तक वह समाज दहेज से मुक्त नहीं हो सकता। दहेज से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि युवकों और युवतियों के बीच मां-बाप खड़े न हों, अन्यथा दहेज से नहीं बचा जा सकता। प्रेम के अतिरिक्त विवाह का और कोई भी कारण होगा, तो दहेज किसी न किसी रूप में जारी रहेगा।

दहेज हमेशा जारी रहा है। कुछ समाजों में लड़कियों की तरफ से दहेज दिया जाता रहा है, कुछ समाजों में लड़कों की तरफ से भी दहेज दिया जाता रहा है। लेकिन दहेज दुनिया में जारी रहा है, क्योंकि विवाह की जो सहज प्राकृतिक व्यवस्था हो सकती, वह हमने स्वीकार नहीं की। समाज अब तक प्रेम का दुश्मन सिद्ध हुआ है। वह कहता है, बिना प्रेम के, सोच-विचार करके मां-बाप तय करेंगे, पंडित-पुरोहित तय करेंगे कि विवाह हो। जब तक पंडित-पुरोहित, कुंडली, जन्म और इन सारी बातों को देख कर और मां-बाप विवाह तय करेंगे, तब तक दहेज जारी रहेगा।
क्यों? क्योंकि जहां प्रेम नहीं है वहां पैसे के अतिरिक्त और किसी चीज से संबंध नहीं होता। या तो दो व्यक्तियों के बीच में प्रेम हो तो पैसा खड़ा नहीं होता और अगर प्रेम न हो तो पैसा ही एकमात्र संबंध का रास्ता रह जाता है।
सारा मुल्क इनकार करता है कि दहेज मिटाना चाहिए।
अभी कोई पंद्रह दिन हुए, प्राइमरी स्कूल के एक शिक्षक मेरे पास आए। गरीब आदमी हैं, लड़की का विवाह करना है। तो वे मुझसे कहने लगे कि एक इंजीनियर युवक से विवाह की बात चल रही है, लेकिन वह बारह हजार रुपये मांगता है। उन्होंने बहुत विरोध मेरे सामने जाहिर किया कि यह तो बहुत ज्यादती की बात है। मैंने उनसे कहा कि पहली तो बात यह है कि आप इंजीनियर लड़के से विवाह क्यों करना चाहते हैं? किसी चमार लड़के से विवाह क्यों नहीं करते? किसी मजदूर लड़के से विवाह क्यों नहीं करते? आप यह तो कहते हैं कि लड़का बारह हजार रुपये मांगता है, लेकिन लड़के को हजार रुपये महीने मिलते हैं, इसलिए आप उसके साथ विवाह कर रहे हैं। सौ रुपये वाले महीना पाने वाले लड़के से विवाह करने को आप भी राजी नहीं हैं। दुनिया में आप यह कहेंगे कि मैं तो विवाह करने को राजी हूं, लेकिन वह लड़का बारह हजार रुपये मांगता है। लेकिन आप उस लड़के की तरफ क्यों उत्सुक हुए हैं, क्योंकि उसको हजार रुपये महीने मिलते हैं। आप भी रुपये का ही विचार कर रहे हैं, वह भी रुपये का ही विचार कर रहा है।
गलती कहां है? और गलती तब तक जारी रहेगी, जब तक लड़के और लड़कियों को प्रेम से तय करने का मौका नहीं मिलता। एक बार प्रेम बीच में आ जाए, फिर पैसे का कोई सवाल नहीं है। लेकिन मां-बाप को यह बर्दाश्त नहीं है। उनको दहेज बर्दाश्त है, विवाह के साथ चलने वाली सारी नासमझियां बर्दाश्त हैं, लेकिन प्रेम बर्दाश्त नहीं है। और प्रेम को रोकने के लिए सारा इंतजाम किया हुआ है। शिक्षकों से लेकर मां-बाप तक, युवक और युवतियों के बीच सिपाहियों की तरह तैनात हैं, उनके बीच प्रेम पैदा न हो जाए।
और बड़े मजे की बात है! वे समझते हैं कि प्रेम के पैदा हो जाने से अनैतिकता पैदा हो जाएगी। जब कि सच यह है कि जिस समाज में विवाह बिना प्रेम के होता है वह समाज बुनियादी रूप से अनैतिक हो जाता है। क्योंकि जीवन में इससे बड़ी अनीति नहीं है कि एक व्यक्ति एक ऐसी स्त्री के साथ रहने को राजी हो जाए जिससे उसका प्रेम नहीं है। इससे ज्यादा इम्मॉरल, इससे ज्यादा अनैतिक और कोई बात नहीं हो सकती।
लेकिन अगर एक युवक और युवती में प्रेम हो और उनका बच्चा पैदा हो जाए, तो हम कहेंगे, इल्लीगल है, नाजायज है। जब कि सच यह है, जिन पुरुष और स्त्रियों में प्रेम नहीं है और किसी पंडित ने सात चक्कर लगा कर उनका विवाह करवा दिया, उनके सब बच्चे नाजायज हैं। क्योंकि सात चक्कर लगाने से कोई बच्चा जायज नहीं हो सकता। बच्चा सिर्फ एक बात से जायज हो सकता है कि स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम का संबंध रहा हो। प्रेम के अतिरिक्त और कोई चीज जायज नहीं हो सकती। लेकिन प्रेम नाजायज है और कानून और व्यवस्था जायज है। तो जैसे ही प्रेम को बचाने की कोशिश करते हैं, पैसा उसकी जगह ले लेता है। फिर हम चाहते हैं, पैसा भी जगह न ले। यह नहीं हो सकता। यह असंभव है। इसमें कसूर विज्ञान की शिक्षा लेकर आ गए युवक का नहीं है, आपकी पूरी समाज की व्यवस्था और विवाह के संबंध में सोचने का ढंग बुनियादी रूप से गलत है--एक बात। और दूसरी बात, जो व्यक्ति वैज्ञानिक शिक्षा लेकर आया है, जैसा मैंने सुबह कहा, वैज्ञानिक शिक्षा से कोई वैज्ञानिक नहीं हो जाता।
और ध्यान रहे! अगर आपके बेटे वैज्ञानिक शिक्षा से वैज्ञानिक हो गए, तो आप दहेज देने से भी बड़ी मुसीबतों में पड़ जाएंगे। क्योंकि जो बच्चा वैज्ञानिक चिंतन करने लगा, वह कभी भी ऐसी लड़की से विवाह करने को राजी नहीं हो सकता जिससे उसका प्रेम नहीं है। यह बिलकुल अवैज्ञानिक बात है। वह बेटा इस बात के लिए भी राजी नहीं हो सकता कि बाप उसके लिए पत्नी चुने। वह बेटी भी राजी नहीं हो सकती कि मां और बाप उसके लिए लड़का चुने। यह अवैज्ञानिक बात है। मां-बाप अपनी शादी चुनना, चुन नहीं पाए, वह उसका बदला अपने बेटों से ले रहे हैं।
हर आदमी को कम से कम प्रेम करने का और जिंदगी में जिसके साथ रहना है उसे चुनने का सीधा हक होना चाहिए। कोई दूसरा आदमी यह काम नहीं कर सकता। मां-बाप कितने ही समझदार हों, लेकिन समझदारी से प्रेम का कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता। गणित और हिसाब से कोई प्रेम का संबंध नहीं है। और मजे की बात यह है कि गणित में ठीक उतर कर विवाह कर लेना खतरनाक है, प्रेम में गलत उतर कर भी विवाह कर लेना ठीक है। प्रेम की गलती भी ठीक है, गणित की ठीक भी ठीक नहीं है। क्योंकि जिंदगी के रास्ते गणित के हिसाब के रास्ते नहीं हैं। लेकिन जब हमने यह हिसाब बिठा रखा है। और जो बच्चे राजी हो जाते हैं, उनके राजी हो जाने का कारण यह नहीं है कि उनको गलत शिक्षा मिली, उनके राजी हो जाने का कुल कारण इतना है कि उन्होंने विज्ञान की ऊपर से शिक्षा ले ली, भीतर से अवैज्ञानिक आदमी मौजूद है। वह जो गैर-साइंटिफिक दिमाग है, अवैज्ञानिक चित्त है, वह मौजूद है। वह शिक्षा से नष्ट नहीं होता, वह अकेली शिक्षा से नष्ट नहीं होता। उसे नष्ट करने के लिए हमारे जो मन के आधार हैं, उनको बदलना जरूरी है।
जैसे, हम बच्चे को बचपन से सिखाते हैं विश्वास करो। जो बच्चा बचपन से सीखता है विश्वास करना, वह बच्चा कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकता। क्योंकि विज्ञान का पहला सूत्र है: संदेह करो। डाउट विज्ञान का पहला सूत्र है। और हमारी सारी शिक्षा का पहला सूत्र है, विश्वास करो। जो लड़का विश्वास करता है, बचपन से विश्वास में दीक्षित होता है, वह बच्चा स्कूल में जाता है, स्कूल का गणित का शिक्षक कहता है, दो और दो चार होते हैं, वह बच्चा इसमें भी विश्वास करता है। फिजिक्स का शिक्षक समझाता है कि जमीन में कशिश है, इसलिए चीजें जमीन की तरफ गिर जाती हैं, वह बच्चा इसमें भी विश्वास करता है। वह विज्ञान की शिक्षा लेकर लौटता है, लेकिन उसके दिमाग में डाउट पैदा ही नहीं हुआ। वह विज्ञान पर भी बिलीफ करता है। उसकी बिलीफ बदल गई है। वह गीता पर विश्वास न करके आइंस्टीन पर विश्वास करने लगा। लेकिन विश्वास करना जारी है। और जो आदमी विश्वास करता है, वह कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकता। विज्ञान का पहला सूत्र है: संदेह।
लेकिन न मां-बाप चाहते हैं कि बेटे संदेह करे। क्योंकि संदेह बगावती है, संदेह रिबेलियन है। अगर बेटे संदेह करेंगे तो मां-बाप का बहुत सा ज्ञान झूठा सिद्ध होगा। और किसी आदमी का अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता कि मेरे बेटे और मेरे ज्ञान को झूठा सिद्ध कर दे। हर बाप अपने बेटे के सामने सर्वज्ञ है। हर मां अपनी बेटी के सामने सर्वज्ञ है। हर स्कूल का शिक्षक सर्वज्ञ होने का दावा करता है। और यह सर्वज्ञता का दावा दो तरह से सिद्ध हो सकता है। एक तो यह कि यह आदमी सर्वज्ञ हो--जब कि सर्वज्ञ दुनिया में न कोई आदमी कभी हुआ है और न कभी हो सकता है। और दूसरा रास्ता यह है सर्वज्ञ सिद्ध होने का कि दूसरा सामने वाला आदमी संदेह करने वाला न हो। तो फिर हर आदमी सर्वज्ञ है।
इस दुनिया में हमने एक तरकीब जाहिर की है, शिक्षकों ने, मां-बाप ने, समाज के व्यवस्थापकों ने कि बच्चे संदेह न करें। इसलिए बचपन से ही उनको विश्वास करने का जहर पिलाया जाता, हर चीज में विश्वास करो। क्यों विश्वास करो? क्योंकि पिता कहते हैं, इसलिए विश्वास करो। क्यों विश्वास करो? क्योंकि गीता में लिखा है, इसलिए विश्वास करो। कोई पिता ने या किसी कृष्ण ने, या किसी क्राइस्ट ने, किसी महावीर ने ठेका लिया हुआ है सब आदमियों के मन का और बुद्धि का? क्यों किसी पर विश्वास करो? यह जो आथेरिटेरियन हैं, यह जो आप्तता सिखाई जाती है, यह विज्ञान विरोधी है। विज्ञान कहता, संदेह करो, सब पर संदेह करो और तब तक संदेह करो जब तक तुम खोज कर पहुंच न जाओ, किसी बात को तुम न जान लो। तो ठीक से डाउट करना विज्ञान की प्रक्रिया है।
लेकिन हिंदुस्तान में कोई बेटा संदेह करता ही नहीं। यह विज्ञान की शिक्षा लेकर आ जाता है, लेकिन उसके मन में संदेह का जन्म नहीं होता। उसका सारा मन विश्वास से ही भरा रहता है। वह वही का वही आदमी है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ा हुआ है।
शिक्षा का कसूर नहीं है यह। यह जो हमारे मन की व्यवस्था है, मौलिक व्यवस्था, वह गलत है। अगर हमें इस देश को वैज्ञानिक बनाना हो, तो जिस तरह हमने अब तक विश्वास सिखाया, बिलीफ सिखाई, उसी तरह हमें अपने बेटों को, बच्चों को संदेह सिखाना पड़ेगा। हमें उन बच्चों को सिखाना पड़ेगा कि वे पूछें, जिज्ञासा करें। और जो हम नहीं जानते हैं, कहना पड़ेगा अपने बच्चों से कि हम नहीं जानते हैं। हमें खुद ही पता नहीं है। तुम जिंदगी में खोजना, हो सकता है तुम्हें पता हो जाए। और मैं आपसे कहता हूं, जो बाप झूठे ज्ञान का दावा नहीं करता अपने बेटे के सामने, बेटा जिंदगी भर उसका अनुगृहीत रहेगा। और उस पिता के प्रति उसका सम्मान सदा कायम रहेगा। क्योंकि आज नहीं कल बेटा खुद ही पता लगा लेगा कि बाप कुछ भी नहीं जानता था, लेकिन बचपन से दावे करता रहा कि मैं सब जानता हूं। और जिस दिन उसे पता चल जाएगा, उस दिन बाप सदा के लिए उसे झूठा हो जाएगा।
यह जो दुनिया में मां और बाप का आदर खत्म हो गया है, उसका कुल एकमात्र कारण है कि बच्चे जब शिक्षित होकर, बड़े होकर देखते हैं, तो पाते होंगे मां-बाप उतने ही अज्ञानी थे, जितने कोई और।
लेकिन बचपन से उन्हें धोखा दिया गया है। और हर ऐसी बात को मां-बाप ने जानने का दावा किया जिसे वे बिलकुल नहीं जानते थे। तब श्रद्धा विलीन हो जाती है। और एक अश्रद्धा और एक अपमान पैदा हो जाता। दुनिया में मां-बाप का अपमान जारी रहेगा, जब तक मां-बाप बच्चों को धोखा देते हैं। और सब से बड़ा धोखा ज्ञान का धोखा है। किसी आदमी को हक नहीं, अगर मुझे पता नहीं है ईश्वर का, तो मुझे भूल कर कभी किसी से नहीं कहना चाहिए कि ईश्वर है। मुझे कहना चाहिए, मुझे मालूम नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, है, कुछ लोग कहते हैं, नहीं है, मैं खुद कुछ भी नहीं जानता, मुझे कुछ भी पता नहीं है।
समझदार बाप एग्नास्टिक होगा, समझदार शिक्षक भी एग्नास्टिक होगा। वह अज्ञेयवादी होगा। वह कहेगा, जो मुझे पता नहीं है, वह पता नहीं है। वह विनम्र होगा। और यह विनम्रता जिज्ञासा पैदा करेगी और संदेह पैदा करेगी। बच्चे सोचेंगे। जरूरी नहीं कि सोचने से वे सब कुछ जान लेंगे। लेकिन जितना वे जान लेंगे, वह वैज्ञानिक होगा। जितना वे नहीं जानेंगे, वे कभी दावा नहीं करेंगे कि हम जानते हैं। वे जानने की चेष्टा करेंगे। वे नहीं जान सकेंगे, उनके बेटे जानेंगे। उनके बेटे नहीं, तो उनके बेटे जानेंगे। आगे जानने की खोज जारी रहेगी, कोई आदमी दावा कर भी नहीं सकता कि वह सब जानता है। और जिन लोगों ने दावे किए हैं, इस जमीन पर उनसे ज्यादा खतरनाक आदमी नहीं हुए--जिन्होंने दावा किया, हम सब जानते हैं। क्योंकि उन्होंने ज्ञान की यात्रा की हत्या कर दी, छुरा भोंक दिया ज्ञान की पीठ में। उसके बाद फिर ज्ञान का बढ़ना मुश्किल हो गया।
तो हमें मन के आधार बदलने पड़ेंगे। इसमें शिक्षा का सवाल नहीं है बहुत। बचपन से ही, पहले दिन से ही संदेह का बीजारोपण होना चाहिए और स्कूल में भी संदेह के बीजारोपण को सहारा मिलना चाहिए। शिक्षक भी सहारा नहीं देता, युनिवर्सिटी के प्रोफेसर भी सहारा नहीं देते। दूसरों की तो हम बात छोड़ दें, जो लोग तर्क शास्त्र पढ़ाते हैं, वे शिक्षक भी संदेह नहीं सिखाते, वे शिक्षक भी विश्वास करना सिखाते हैं।
मैं खुद एक यूनिवर्सिटी में तर्क शास्त्र पढ़ता था। जो शिक्षक मुझे तर्क शास्त्र सिखाते थे, वे भी मुझसे यह कहते थे कि हम कहते हैं इसलिए मान लो। मैंने कहा, मैं दुनिया में सबकी मान लूंगा, लेकिन लॉजिक के शिक्षक की तो नहीं मान सकता। तुम्हें तो मुझे तर्क से सिद्ध करना पड़ेगा, क्योंकि में तर्क सीखने आया हूं। आठ महीने लग गए, एक इंच आगे बढ़ना नहीं हुआ, क्योंकि वे कुछ भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं थे। और मैंने कहा, सिद्ध नहीं कर सकते हैं, तो लॉजिक की क्लास बंद कर देनी चाहिए। कहना चाहिए, कुछ सिद्ध हो नहीं सकता, इसलिए लॉजिक बेमानी है। आखिर उन्होंने इस्तीफा लिख कर दे दिया। कि या तो मैं पढूं या वे पढ़ाएं। दो में से एक ही काम हो सकता है। मुझे उस युनिवर्सिटी से निकल जाना पड़ा, क्योंकि यूनिवर्सिटी उन पुराने शिक्षक को निकालने को राजी नहीं हुई। मैंने वाइस चांसलर को कहा कि तुम्हारा यह विश्वविद्यालय कभी भी वैज्ञानिक शिक्षा का गढ़ नहीं बन सकता, हमेशा अवैज्ञानिक शिक्षा का गढ़ रहेगा। क्योंकि तुम एक बिलकुल ज्यादती की बात कर रहे हो। तर्कशास्त्र का शिक्षक कहता कि तर्क नहीं किया जा सकता। तो फिर तो मुश्किल हो गई। तो फिर धर्मशास्त्र का शिक्षक कैसे तर्क करने देगा? तर्कशास्त्र का शिक्षक यह कहता है कि आर्ग्यु मत करो, हम जो कहते हैं, जो किताब में लिखा है वह मानो। अरस्तू ने जो कहा है दो हजार साल पहले, वह सच है। अरस्तू को मरे दो हजार साल हो गए। अरस्तू की बहुत सी नासमझियां जाहिर हो गई हैं। अरस्तू बहुत से मामलों में इतना कम जानता था, जितना हमारा प्राइमरी स्कूल का बच्चा ज्यादा जानता है। लेकिन वह दो हजार वर्ष पुरानी किताब लेकर बैठे हैं कि अरस्तू ने जो कुछ लिखा है, वह तर्क के अंतिम नियम हो गए। तो फिर अरस्तू के साथ दुनिया को मर जाना चाहिए था। आगे जिंदा रहने की कोई जरूरत नहीं रह गई।
और अरस्तू ने जो लिखा है, हम सोचें, ठीक हो, मानें, न ठीक हो, न मानें। अरस्तू की दो औरतें थीं, लेकिन अरस्तू ने अपनी किताब में लिखा है कि पुरुषों के दांत स्त्रियों से ज्यादा होते हैं। यूनान में यह अफवाह थी कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। असल में पुरुष मानने को राजी नहीं होता कि स्त्रियों में कुछ भी पुरुष से ज्यादा हो सकता है। दांत भी ज्यादा कैसे हो सकते हैं? स्त्रियों में दांत कम होने ही चाहिए। और स्त्रियां तो नासमझ हैं, उन्होंने अपने दांत कभी गिने नहीं। और पुरुष गिनते क्यों? और अरस्तू की दो औरतें थीं, एक भी नहीं। कभी भी बिठा कर मिसेस अरस्तू को कह सकता था कि जरा दांत गिनूं तुम्हारे। वे दांत उसने नहीं गिनें। लिखा किताब में, स्त्रियों के दांत कम होते हैं। और आज भी उसकी किताब में यही लिखा है। लेकिन अगर आज मुझसे कोई कहे कि यह मान लो, अरस्तू ने कहा है, तो मैं कहता हूं, इतनी स्त्रियां हैं, किसी के भी दांत गिन लो। स्त्रियों के दांत सिद्ध करेंगे कि स्त्रियों के दांत सही हैं कि अरस्तू की किताब सही है। अरस्तू का कहना सिद्ध नहीं कर सकता।
लेकिन मेरे तर्कशास्त्र के शिक्षक नाराज हो गए। उन्होंने कहा, क्या तुम अरस्तू से ज्यादा समझदार होने का दावा करते हो? मैंने कहा, मैं यह दावा नहीं करता। मैं सिर्फ इतना कहता हूं कि अरस्तू ने स्त्रियों के दांत नहीं गिने, मैं गिनने का दावा करता हूं। और मैं गिन कर कहता हूं कि दांत बराबर हैं। अरस्तू ने जो लिखा है, वह गलत लिखा है।
लेकिन तर्कशास्त्र भी नहीं सिखाता, तब तो फिर बड़ी मुश्किल हो गई। तो विज्ञान कैसे पैदा होगा? विज्ञान पैदा होता है चिंतना से। चिंतना पैदा होती है संदेह से। संदेह पैदा होता है जिज्ञासा की शिक्षा से। तो जिज्ञासा की शिक्षा चाहिए कि बच्चे पूछ सकें। बच्चे पूछते हैं, क्योंकि हर बच्चा संदेह लेकर पैदा होता है। संदेह परमात्मा का सबसे बड?ा वरदान है। हर बच्चे में परमात्मा संदेह का बीज रोपता है, क्योंकि संदेह के बीज से ही ज्ञान का वृक्ष विकसित होगा।
लेकिन समाज ज्ञान नहीं चाहती, समाज अज्ञानी लोगों की भीड़ चाहती है। पुरोहित, धर्मगुरु, राजनेता, सब तरह के शोषक, वे सब चाहते हैं कि भीड़ अज्ञानी हो। क्योंकि जिस दिन ज्ञान विस्तीर्ण होगा, उसी दिन बगावत शुरू हो जाएगी।
तो भगवान तो हर आदमी में संदेह पैदा करता है। बच्चा तो जन्म से ही संदेह करने लगता है। वह पूछता है, ऐसा क्यों है? यह वृक्ष हरा क्यों है? ये बच्चे कहां से पैदा होते हैं? यह सब दुनिया कहां से आई? चांद कितने दूर है? चांद को हम हाथ में ले सकते या नहीं ले सकते? और बाप डांट-डांट कर कहता है कि चुप रहो, बकवास बंद करो। हम जानते हैं, तुम अभी कुछ भी नहीं जानते हो। हम जो कहते हैं, वह ठीक है। बच्चे की जिज्ञासा की हत्या की जाती है। फिर विज्ञान कैसे पैदा होगा? फिर विज्ञान पैदा नहीं हो सकता। बच्चे की जिज्ञासा बढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन धर्मगुरु सदा से ज्ञान के दुश्मन रहे हैं।
बाइबिल की कहानी आपने सुनी होगी। आपने सुना होगा कि आदम को ईदन के बगीचे से क्यों निकाला गया? उसे इसलिए निकाला गया, कि बड़ी मजेदार कहानी पुरोहितों ने लिखी और वह कहानी यह लिखी है कि भगवान ने ईदन के बगीचे में आदम को कहा, तुम खूब मजे से रहो, आनंद से रहो, जीवन भोगो। लेकिन एक बात खयाल रखना, एक झाड़ है: ट्री ऑफ नालेज, एक ज्ञान का वृक्ष है, तुम उसके फल मत चखना। बस उसके फल चखे कि हम तुम्हें निकाल बगीचे के बाहर कर देंगे। यह बड़े मजे की बात भगवान ने की। भगवान ज्ञान का दुश्मन मालूम होता है। लेकिन ऐसा मालूम होता है कि भगवान को पता नहीं होगा कि यह कहानी पुरोहितों ने गढ़ी है। पुरोहित ज्ञान के दुश्मन हैं। लेकिन रोक दिया अदम को कि मत खाना...। अब जिस चीज से रोका जाए, उसकी तरफ मन होना स्वाभाविक है। तो अदम के मन में टेम्पटेशन शुरू हो गया होगा। स्वाभाविक।
अगर पूना में एक वृक्ष हो और सारे लोगों को कह दिया जाए, इस वृक्ष के फल मत खाना, और सब खाओ, तो और सारे वृक्ष बेकार हो जाएंगे, उसी वृक्ष की तरफ सारे लोग चल पड़ेंगे कि उसके फल खाकर देख लेना चाहिए कि मामला क्या है?
पुरोहित कहते हैं, शैतान ने आदम को भड़काया। शैतान ने नहीं भड़काया। आदम की जिज्ञासा, आदम का संदेह, आदम जानना चाहता है कि ज्ञान का फल क्या है? कोई शैतान नहीं है कहीं। लेकिन पुरोहित कहते हैं, संदेह शैतान है। तो वे कहते हैं, जो संदेह करेगा, वह भटक जाएगा। और विज्ञान कहता है, जो संदेह करेगा वही सत्य को जान सकता है। इसलिए पुरोहित और विज्ञान के बीच एक दुश्मनी है, जो पूरी कभी नहीं हो सकती। जब तक पुरोहित है तब तक विज्ञान नहीं हो सकेगा और अगर विज्ञान होगा तो पुरोहित को विदा हो जाना पड़ेगा। तो पुरोहितों ने कहा कि ज्ञान का वृक्ष मत चखना।
आदम के मन में जिज्ञासा हुई होगी। स्वाभाविक। जिस चीज को इनकार किया जाता उसकी जिज्ञासा पैदा होती है। आदम तो भोले बच्चे की तरह रहा होगा। वह पहला आदमी, वह गया और उसने ज्ञान का फल चख लिया और फिर उसको निकाल बाहर कर दिया। और ईसाई पुरोहित कहते हैं कि उसी ज्ञान के फल चखने के पाप के कारण आदमियत अब तक कष्ट भोग रही हैं। हम जो कष्ट भोग रहे हैं, वह ज्ञान का फल चखने के कारण भोग रहे हैं। अगर हम पुरोहितों की मान लें और ज्ञान को जला डालें तो हम सब बड़े आनंद में हो जाएंगे, क्योंकि हम सब मूढ़ हो जाएंगे। मूढ़ तो आनंद में होता ही है। क्योंकि मूढ़ को दुख का भी पता नहीं चलता। मूढ़ तो मूढ़ है, वह बगावत भी नहीं करता। इसलिए दुनिया के पुरोहित समझदार हैं। ज्ञान मत बढ़ने दो। और ज्ञान बढ़ता है जिज्ञासा से। जिज्ञासा पैदा होती है संदेह से। इसलिए संदेह के बीज को नष्ट कर दो, उसे जला डालो। हिंदुस्तान में कितने हजारों वर्षों से शूद्र हैं। करोड़ों शूद्र हैं, लेकिन कोई बगावत नहीं हो सकी शूद्रों की। क्यों? क्योंकि हिंदुस्तान के ब्राह्मणों ने बहुत होशियारी की। उन्होंने ज्ञान से शूद्रों को वंचित कर दिया। जहां ज्ञान वंचित हुआ, वहां बगावत नष्ट हो जाती है। शूद्र कोई बगावत नहीं कर सके, कोई विद्रोह नहीं कर सके। उनको मूढ़ता में रखा गया, इग्नोरेंस में रखा गया। उन्हें पढ़ने का हक नहीं। पढ़ना तो दूर, उन्हें धर्मशास्त्र का शब्द सुनने का हक नहीं।
गांधी जी जिन राम के राज्य को आने की चर्चा करते थे, कहानी यह कहती है कि उन राम ने ही एक शूद्र के कानों में शीशा पिघलवा कर भरवा दिया, क्योंकि उसने एक मकान के पास से निकलते हुए, मकान के भीतर ऋषि पड़ रहे थे वेद, उसने खड़े होकर वेद के वचन सुन लिए। यह पाप है। शूद्र को ज्ञान का हक नहीं है। ऐसा राम-राज्य गांधी जी हिंदुस्तान में लाना चाहते थे। वहां शूद्रों के कानों में शीशा पिघलवा कर भरवाया जाएगा, क्योंकि शूद्र को ज्ञान का हक नहीं हो सकता। शूद्र को ज्ञान का हक क्यों नहीं है? इसलिए नहीं है कि जिस दिन शूद्र को ज्ञान मिला, उसी दिन उपद्रव शुरू हो जाएगा। उपद्रव शुरू हो गया। अंग्रेजों ने शूद्रों को शिक्षा दी, और उपद्रव शुरू हो गया। डा.अंबेदकर भारत के पूरे हजारों साल के इतिहास में पहला शूद्र है जो ठीक से शिक्षित हुआ। कोई शूद्र शिक्षित नहीं हो सका। इसलिए शूद्रों की लंबी कथा में एक भी नाम नहीं है, जो आप लेकर बता सकें कि हम नाम भी ले सकें कि कोई एक नाम पैदा हुआ हो प्रतिभाशाली, कोई एक व्यक्ति पैदा हुआ हो।
नहीं हो सका। कैसे होगा? शूद्रों में बगावत भी पैदा नहीं हुई।
इसी तरह स्त्रियों को शिक्षा से वंचित किया गया कि स्त्रियों को शिक्षा मत मिलने दो, अन्यथा बगावत हो जाएगी। इसलिए सारे पुरुषों ने यह साजिश की कि स्त्री शिक्षित न हो पाए। इसलिए दुनिया में स्त्री को अशिक्षित रखा गया। अशिक्षित स्त्री का मालिक हुआ जा सकता है। शिक्षित स्त्री का नहीं। शिक्षित स्त्री का मालिक होना कठिन है, क्योंकि कोई भी शिक्षित व्यक्ति किसी को मालिक मानने को राजी नहीं हो सकता। शिक्षित व्यक्ति अपना खुद मालिक हो सकता है। दूसरे को मालिक नहीं होने देगा। मालकियत गंदगी है और मालकियत दासता है। और पुरुष को पति होना, पति का मतलब होता है: मालिक, स्वामी। स्त्रियां लिखती हैं चिट्ठी के नीचे, आपकी दासी। और पतिदेव बहुत प्रसन्न होते हैं। और स्त्रियां भी सोचती हैं कि बड़े प्रेम की बात लिख रही हैं। अब दासी में और स्वामी में कभी प्रेम हो सकता है? प्रेम होता है दो समान स्तर के लोगों में। दासियों और स्वामियों में क्या प्रेम हो सकता है?
 पुरुष को पति होने में बहुत रस है। इसलिए तो हम देश के प्रधान को राष्ट्रपति कहते हैं। राष्ट्रपत्नी अगर कोई स्त्री बन गई तो कहने को हम राजी नहीं होंगे। कोई स्त्री राजी नहीं होगी कि राष्ट्रपत्नी! ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन राष्ट्रपति? राष्ट्रपति हो सकते हैं आप। क्योंकि पुरुषों की यह दुनिया है, पुरुषों ने यह दुनिया बनाई है। स्त्री एतराज नहीं करती कि राष्ट्रपति का क्या मतलब होता है। सबके पति। कोई स्त्री एतराज नहीं करती कि हम राष्ट्रपति नहीं मान सकते किसी आदमी को। क्योंकि पति के संबंध में हमारी धारणा ही भूल गई कि वह स्वामी होने की बात है।
लेकिन पुरुष को अगर स्वामी रहना है तो स्त्री को अशिक्षित रखना पड़ेगा। इसलिए स्त्रियों की सारी शिक्षा बंद कर दी। उन्हें अशिक्षित रखा गया। अशिक्षित स्त्रियां विद्रोही नहीं हो सकतीं। पश्चिम में भूल हो गई पुरुषों से। स्त्रियों को शिक्षा दी और बगावत शुरू हो गई। हिंदुस्तान में भी बगावत होगी। स्त्रियां शिक्षित होंगी और बगावत होगी।
इसी मित्र ने एक बात और पूछी है, उन्होंने पूछा है कि स्त्रियां भी शिक्षित हो जाती हैं, फिर वे कुछ नहीं करतीं। सिर्फ गहने पहनती हैं, अच्छी साड़ियां पहनती हैं, और घरों में बैठ कर गपशप करती हैं और कुछ भी नहीं करती हैं।
वे गपशप करेंगी, और गहने पहनेंगी और साड़ियां पहनेंगी, क्योंकि पुरुषों ने सिवाय इसके उन्हें कुछ भी नहीं सिखाया। पुरुषों ने उन्हें गुड्डियां बनाना सिखाया है। आदमी बनने की हिम्मत उनमें नहीं है। कोई स्त्री गुड्डी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और स्त्री जब गहने पहनती है, तो आप यह मत समझना कि स्त्री पहनती है। स्त्री गहने पहनती है, लेकिन इज्जत पति को मिलती है। और पति चाहता है कि स्त्री गहने पहन कर उसके साथ बाजार में चले। वह पति बिलकुल साधारणसा कमीज पहने हुए है, उसकी उसे फिकर नहीं है, लेकिन उसकी पत्नी गहनों से लदी है। यह उसकी इज्जत का मामला है। पत्नी तो खिलौना है पति का। इसलिए पत्नी कौन सी साड़ी पहनती है, उसकी इज्जत अंततः पति को मिलती है, पत्नी को नहीं। पत्नी इस भूल में न रहे। पत्नी केवल प्रदर्शन है। पति का प्रदर्शन है--पति की ताकत का, धन का, इज्जत का। और पत्नी को गुड्डी बना कर रखना है, उसमें आदमियत आने नहीं देना है, क्योंकि आदमियत आई तो बगावत शुरू हो जाएगी। तरे स्त्री क्या करे?
वह गुड्डी बन कर बैठी हुई है। वह सोचती है कि बहुत बड़ा आदर हो रहा है उसका। पति गहने लाकर दे रहा है, साड़ियां लाकर दे रहा है। उसे सोफा पर बिठाए हुए है, घर में नौकर लगा दिए, उसे कोई काम नहीं करना पड़ता। पत्नी बड़ी प्रसन्न है। उसे पता नहीं कि यह प्रसन्नता का, यह प्रसन्नता बहुत मंहगी है। उससे आदमियत छीन ली गई है। उसे केवल डिस-प्ले का सामान बनाया गया है। वह सिर्फ सामग्री है, जिसका प्रदर्शन किया जा रहा है। और पति के अहंकार में एक गहना जोड़ा गया है। अब वह गुड्डी बनी बैठी है! और वह गुड्डी बनी बैठी है क्या करे? गपशप न करेगी और क्या करेगी! तो वह बैठ कर फिजूल की बातें कर रही है। वह आस-पास की पत्नियों के कपड़ों की, स्त्रियों के कपड़ों की बातें कर रही है। और किसका चरित्र कैसा है, इसका विचार कर रही है। और उसकी खुद की आत्मा खो गई है, उसका उसे पता ही नहीं है! स्त्रियों के पास आत्मा ही नहीं बची, जिस दिन उन्होंने गुड्डी बनने को वे राजी हो गईं। उनके पास कौन सी आत्मा है?
लेकिन पति चाहता नहीं कि स्त्रियों के पास आत्मा हो। क्योंकि आत्मा खतरनाक चीज है। बहुत डेंजरस है। जिसके पास आत्मा होगी, उसको गुलाम नहीं बनाया जा सकता। तब दुनिया में मित्र हो सकते हैं स्त्री और पुरुष। पत्नी और पति नहीं हो सकते। अगर दुनिया में वैज्ञानिक चिंतन लाना है तो आपको मानना पड़ेगा, समझना पड़ेगा कि यह किसी तरह की गुलामी नहीं चलेगी--न आर्थिक गुलामी चलेगी, न सेक्सुअली स्लेवरी चलेगी, न और तरह की गुलामियां चलेंगी। किसी तरह की गुलामी नहीं चल सकती। क्योंकि वैज्ञानिक चिंतन सभी तरह की गुलामी के विरोध में है।
अभी मैं अमृतसर में था। एक मित्र मुझसे कुछ पूछ रहे थे। मैंने उनसे कहा कि स्त्रियों को स्वतंत्र होना चाहिए। तो वे मित्र कहने लगे, लेकिन स्त्रियों को स्वतंत्रता की जरूरत क्या है? वे मित्र पढ़े-लिखे हैं, जज हैं, वे कहने लगे, स्त्रियों को स्वतंत्रता की जरूरत क्या? मैंने उनसे कहा, अंग्रेज भी यही कहते थे कि भारतीयों को स्वतंत्रता की जरूरत क्या है? और गलत नहीं कहते थे। मालिक कभी नहीं चाहता कि गुलाम स्वतंत्र हो। क्योंकि स्वतंत्र होने से मालिक के जितने स्वार्थ पूरे हो रहे हैं, वे सब समाप्त हो जाएंगे। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं कि अंग्रेजों को तो भारत के स्वतंत्र होने से सिवाय नुकसान के कोई फायदा नहीं हुआ। लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जिस दिन स्त्रियां स्वतंत्र होंगी, उस दिन पुरुष को फायदा होगा। स्त्रियों की गुलामी से पुरुष को सिवाय नुकसान के कुछ भी नहीं हुआ। क्योंकि गुलाम स्त्री कभी भी प्रेम का संबंध पुरुष से नहीं जोड़ सकती है। उसका प्रेम भी गुलामी का हिस्सा है। उसका प्रेम भी उसकी मजबूरी है। वह देने में स्वतंत्र नहीं है, उसे देना पड़ता है। उसे देना पड़ेगा। और जब प्रेम देना पड़ता हो, मजबूरी हो, तो प्रेम कुम्हला जाता है, सूख जाता है, नकली हो जाता है।
प्रेम जब स्वतंत्रता से दिया जाता है, जब वह दान होता है, तभी जीवंत होता है, असली होता है, खिला हुआ होता है, नहीं मुरझा जाता है।
इसलिए घरों में जिनको पत्नियां बना कर बिठा लिया है, उनसे प्रेम की आशा नहीं हो सकती। उनसे खाना बनवाया जा सकता है, घर का काम करवाया जा सकता है। वे घर की नौकरानियां हो सकती हैं, लेकिन प्रेम की साथिन नहीं। हां, कलह की साथिन हो सकती हैं। और चौबीस घंटे कलह जारी रहेगी। पति और पत्नी के बीच जितनी कलह है, उतना दुनिया में दो दुश्मनों के बीच भी नहीं होती। लेकिन चूंकि साथ रहना पड़ता है इसलिए कलह भी करनी पड़ती है और दोस्ताना भी बनाना पड़ता है। वह दोस्ताना भी कलह के बाद ही कलह से निपटने के लिए बनाना पड़ता है। वे सारी अच्छी बातें भी, जो बुरी बातें कह दी हैं, उनको पोंछने के लिए वे कहनी पड़ती हैं। सारा प्रेम अभिनय और धोखा हो गया।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़े अभिनेता की पत्नी गुजर गई। उसकी लाश जब कब्र में उतारी जा रही थी, तो वह छाती पीट-पीट कर रोने लगा। उसकी आंख से आंसुओं की धारा बही जा रही थी। उसके एक मित्र ने कहा कि तुम्हें देख कर मुझे ऐसा लगता है कि तुम्हें बहुत तकलीफ हुई। मैं इतना नहीं सोचता था कि तुम अपनी पत्नी को इतना प्रेम करते हो। तुम्हारा दुख तो आश्चर्यजनक है, तुम बहुत दुखी हो, कैसे तुम्हें शांति मिलेगी?
उस अभिनेता ने कहा कि छोड़ो भी, यह तो कुछ भी नहीं है, जिस वक्त मेरे घर से अरथी उठाई जा रही थी उस वक्त देखते। यह तो कुछ भी नहीं है, जो मैंने किया। अब अरथी उठ रही थी, तब देखते मेरे आंसुओं की धारा और मेरी आवाज और छाती का पीटना। यह तो कुछ भी नहीं है।
लेकिन अभिनेता अभिनय करे, यह तो चल सकता है। लेकिन हम सब भी बहुत तरह के अभिनय कर रहे हैं। हमारी जिंदगी का जो सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है प्रेम, वह भी अभिनय हो गया है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि प्रेम से हम जुड़े नहीं। प्रेम से हमारा संबंध नहीं हुआ। प्रेम को हमने एक व्यवस्था के भीतर जबरदस्ती खींच कर विकसित करना चाहा है। और स्वयं परतंत्र है, उसे प्रेम देना पड़ रहा है। इसलिए कोई स्त्री प्रेम देने में आनंदित नहीं है। मेरे पास सैकड़ों स्त्रियां आती हैं और मैं एक स्त्री को ऐसा नहीं पाता हूं, जिसने मुझे यह कहा हो कि वह अपने पति का प्रेम देकर आनंदित है। प्रेम देना भी जैसे एक बोझ मालूम होता है। यह भी एक खींचना है। खींचा जा रहा है, देना पड़ रहा है, दे रहे हैं।
 जब तक स्त्री परिपूर्ण स्वतंत्र नहीं है, जब तक वह मित्र की हैसियत पर खड़ी नहीं होती, तब तक पुरुष उससे प्रेम भी नहीं पा सकता, और तब तक परिवार सुंदर नहीं बन सकता है।
पति और पत्नी विदा होंगे। दहेज भर विदा नहीं होगा, अगर वैज्ञानिक चिंतन होगा तो पति-पत्नी भी विदा हो जाएंगे, रह जाएगी एक मित्रता। लेकिन मित्रता बहुत घबड़ाने की बात है, क्योंकि मित्रता में इनसिक्योरिटी है, असुरक्षा है। और पति-पत्नी में हमने बिलकुल सुरक्षा का इंतजाम कर लिया है। हमने सब तरह के कानून का इंतजाम कर लिया है। पुलिस और अदालत बिठाल दी है। कानून और समाज की इज्जत और सारी बातें बिठाल दी हैं। पति-पत्नी को हमने सारे सामाजिक जकड़न में बांध दिया है। सुरक्षा है। पत्नी को पत्नी रहना पड़ेगा, पति को पति रहना पड़ेगा। यह सुरक्षा के पीछे हमने जीवन का जो भी मूल्यवान है, वह सब खो दिया है।
लेकिन मेरा मानना है, प्रेम ही सच्ची सुरक्षा है, कानून सच्ची सुरक्षा नहीं है। हम सिर्फ कानून से बंधे हैं। और इसीलिए जब मैं कहता हूं कि प्रेम होना चाहिए, अगर प्रेम न हो तो किसी व्यक्ति को पति और पत्नी होने का हक नहीं है, पाप है। तो मेरे पास अनेक लोग आकर कहते हैं कि आपकी बात से तो सारा समाज विघटित हो जाएगा। तो मैं उनसे कहता हूं कि जिनको यह डर पैदा होता है कि समाज विघटित हो जाएगा, वे मेरी बात सिद्ध करते हैं। वे यह कहते हैं कि अगर लोगों को मुक्त कर दिया गया कानून से, तो पति-पत्नी अभी बिखर जाएंगे, अभी अलग हो जाएंगे। मतलब कानून से ही जुड़े हैं, और कोई जोड़ नहीं है? पुलिसवाला खड़ा हुआ है एक बंदूक लिए हुए, इसलिए आप एक-दूसरे को प्रेम कर रहे हैं? और अगर मैं कहता हूं, इस पुलिसवाले जाने दें, तो आप कहते हैं, सब गड़बड़ हो जाएगा। लेकिन हमने बड़े सूक्ष्म पुलिसवाले खड़े किए हैं, जो दिखाई नहीं पड़ते हैं। और इसलिए हम पहचान भी नहीं पाते।
वैज्ञानिक चिंतन तो जीवन के सारे पहलुओं को बदल देगा। लेकिन वैज्ञानिक चिंतन पैदा नहीं हो पाता। और नहीं पैदा इसलिए हो पाता कि हमने उसके मूल जड़ को ही काट डाला है। और हिंदुस्तान में तो यह जड़ इतने लंबे समय से काटी गई है कि हम भूल ही गए हैं कि वह जड़ कभी थी भी। ऐसा आदमी नहीं मिलता, जो संदेह करता हो। मेरी बात सुन कर लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, हमें आपकी बातों पर विश्वास आ गया। तब तो बड़े मजे की बात है। मुझसे कहते हैं कि आप हमारे गुरु बन जाइए। हम तो आपकी बात मानेंगे, हम तो आपके पीछे चलेंगे। हद्द हो गई, हमारे भीतर से विचार की सारी संभावना समाप्त हो गई। जो आदमी हमसे विचार करने को कहे--हम कहेंगे, चलो ठीक है, तुम्हीं ठीक हो, हम तुम्हारे प्रति अंधे हुए जाते हैं, हम तुम्हीं को मान लेते हैं। अगर हमें कोई संदेह की बात भी सिखाए, तो हम उस पर भी विश्वास कर लेंगे। ऐसा मालूम होता है कि संदेह की कल्पना ही हमारे चित्त के मानस से, कलेक्टिव माइंड से, हमारे सामूहिक चित्त से उसकी जड़ ही उखड़ गई। उखड़ भी सकती है, अगर हजारों साल तक ऐसा किया गया हो तो बिलकुल स्वाभाविक है।
लेकिन कौन कहता है यह? यह वैज्ञानिक चिंतन के पैदा होने में कौन बाधा देता है? सब तरह के स्वार्थ बाधा देते हैं। सब तरह के स्वार्थ। सब तरह के स्वार्थों का यही हित है कि मनुष्य कम से कम ज्ञानी हो, कम से कम शिक्षित हो, वह कुछ न जाने, बिलकुल न जाने, अनजाना रहे। अनजाने आदमी पर किसी भी तरह का शोषण किया जा सकता है। फिर शोषण के कई  रूप हैं--धार्मिक शोषण है, राजनैतिक शोषण है, सामाजिक शोषण है, शिक्षा का शोषण है, सब तरह का शोषण है--गुरुओं का शोषण है, ज्ञानियों का शोषण है, सब तरह का शोषण है। इस शोषण को अगर उखाड़ फेंकना हो तो संदेह के बीच को अंकुरित करना जरूरी है। और मेरी मान्यता है, संदेह परमात्मा का दिया हुआ है, विश्वास पुरोहित का दिया हुआ है। और मेरा यह भी मानना है, और आपको कहना चाहूंगा, इस पर सोचना, जो आदमी संदेह करेगा वह किसी दिन उस जगह पहुंच जाएगा जहां सब संदेह गिर जाते हैं और जहां श्रद्धा उत्पन्न होती है। लेकिन वह श्रद्धा बहुत दूसरी बात है। वह बिलीफ नहीं है। वह ज्ञान से आया हुआ बोध है। जो आदमी संदेह से यात्रा करता है, वह एक दिन श्रद्धा को उपलब्ध होता है, यह बड़े मजे की बात है। और जो आदमी विश्वास से यात्रा करता है, वह हमेशा संदेह में ही जीता है और मरता है। वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि उसने विश्वास कर लिया और भीतर उसके संदेह है। संदेह वह परमात्मा के घर से लेकर आया हुआ, पैदाइश के साथ लेकर आया हुआ है। भीतर संदेह है, ऊपर विश्वास है। वह भीतर संदेह बना रहेगा, छिपा रहेगा। कभी-कभी सिर उठाएगा, आप डर कर उसको दबा देना और ऊपर से विश्वास को ओढ़े रहना। वह विश्वास कभी भी आपके प्राणों तक नहीं पहुंचेगा। इसीलिए तो विश्वास करने वाले लोग बहुत डरते हैं।
हिंदू ग्रंथों में लिखा है, ऐसा ही जैन ग्रंथों में लिखा है। लिखा है हिंदू ग्रंथों में कि अगर पागल हाथी भी तुम्हारे पीछे पड़ा हो और जैन मंदिर आ जाए, तो तुम पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना ठीक समझना, लेकिन जैन मंदिर में मत जाना। क्यों? क्योंकि वहां अगर जैन शास्त्रों की बातें सुन लीं, तो संदेह पैदा हो सकता है। यही बात जैन ग्रंथों में भी लिखी है कि हिंदू मंदिर में मत जाना, पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना। क्योंकि वहां अगर गए मंदिर में और तुमने कोई ऐसी बात सुन ली कि धर्म से चित्त डगमगा जाए और भटक जाओ।
दुनिया के सब धर्म सिखाते हैं, किसी दूसरे की बात मत सुनना। यह सबूत है इस बात का कि ये धर्म जो बातें कह रहे हैं, वे कमजोर, नपुंसक बातें हैं, इसलिए दूसरी बातें सुनने से डरते हैं। ज्ञान कभी डरता नहीं। अज्ञान हमेशा डरता है। जो धर्मगुरु कहते हैं, कान में हाथ डाल लेना, नास्तिक की बात मत सुनना, वे धर्मगुरु झूठे हैं और उनकी बातों को मानने वाले लोग अपनी आत्मा का हनन कर रहे हैं।
क्योंकि जो बात किसी की बात सुनने से नष्ट हो जाती, वह दो कौड़ी की है, उसका कोई मूल्य नहीं है। जो बात सभी संदेहों के बीच भी टिकती है और जीती और बच जाती है, वही सत्य है। संदेह की अग्नि से जो गुजर कर बच जाता है, उसी का नाम सत्य है। संदेह के गुजरने से ही जो डर जाता है, उसका नाम असत्य है। संदेह की आग से जो डरता है, वही है असत्य। और संदेह की आग से गुजरता है, वही है सत्य। सोना नहीं कहता कि मैं आग से नहीं निकलूंगा, क्योंकि मैं जल जाऊंगा। लेकिन सोने के साथ जो कचरा लगा है, वह कहता है, नहीं-नहीं, आग से मत गुजरना, आग में बड़ी मुश्किल होती है, सब जल जाता है। सोना तो निकल जाता है आग से, कचरा जल जाता है, सोना निखर कर बाहर आ जाता है। सत्य को कोई संदेह नहीं मिटा सकता, असत्य को मिटा सकता है।
और इसलिए मैं कहता हूं, जितने लोगों ने विश्वास करना सिखाया है, उन्होंने जरूर किसी न किसी असत्य के आधार पर विश्वास का भवन खड़ा किया होगा। विश्वास की शिक्षा असत्य के लिए देनी पड़ती है। सत्य के लिए विश्वास की कोई शिक्षा नहीं है। सत्य के लिए शिक्षा है संदेह की और विज्ञान सत्य की तरफ जाने की यात्रा है।
लेकिन आप कहेंगे, फिर धर्म क्या है?
तो मैं आपसे कहना चाहता हूं, धर्म भी विज्ञान है--धर्म अंतर्विज्ञान है, वह साइंस ऑफ दि इनर है, वह जो भीतर है उसका विज्ञान है। और जिसको हम विज्ञान कहते हैं, वह बाहर का विज्ञान है, साइंस ऑफ दि आउटर, वह जो बाहर फैला हुआ जगत है। वे एक ही विज्ञान के दो पहलू हैं। अगर बाहर कोई संदेह से खोज करेगा तो जिसको हम साइंस कहते हैं, उसका जन्म होता है। और भीतर अगर कोई संदेह से खोज करेगा, तो जिसे मैं धर्म कहता हूं उसका जन्म होता है, जिसे आप धर्म कहते हैं उसका नहीं।
आप तो उसे धर्म कहते हैं, जिसे अंधा होकर मानना पड़ता है, जिसकी खोज नहीं करनी पड़ती है। जिसकी खोज कोई महावीर पहले कर चुके, जिसकी खोज कोई बुद्ध पहले कर चुके, जिसकी खोज कोई मोहम्मद पहले कर चुके, उसको मान लेना पड़ता है। ऐसा धर्म अवैज्ञानिक है। और ऐसे धर्म के लिए विश्वास की शिक्षा जरूरी है। इसीलिए धार्मिक मुल्क वैज्ञानिक नहीं हो पाते। मेरी दृष्टि में तो जो वैज्ञानिक नहीं है, वह धार्मिक भी नहीं है। झूठा है उसका धर्म।
भारत जैसा देश वैज्ञानिक नहीं हो पाता, क्योंकि भारत जैसे देश के मन में झूठे धर्म की प्रतिष्ठा है। विज्ञान का जन्म कैसे होगा? झूठे धर्म को जाना पड़ेगा। विज्ञान आएगा और विज्ञान के साथ ही सच्चा धर्म भी आएगा। जो धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरा न उतारता हो, वह धर्म कैसे सच्चा हो सकता है? कसौटी तो सदा वैज्ञानिक चिंतन है, कसौटी सदा वैज्ञानिक तर्क है, कसौटी सदा विज्ञान की, संदेह की अग्नि है।
तो जिन मित्र ने पूछा है कि क्या है आधारभूत बात, जिसकी वजह से पश्चिम से शिक्षा लेकर भी कोई आता और वैज्ञानिक नहीं हो पाता?
वह आधारभूत बात यह है कि भारतीय मानस अवैज्ञानिक है, वह इंडियन माइंड अवैज्ञानिक है। पश्चिम की शिक्षा से क्या होगा?
और ऐसा नहीं है कि पश्चिम में भी सब चित्त वैज्ञानिक है। पश्चिम में भी थोड़े से लोगों ने हिम्मत करके विज्ञान को जन्म दिया है। अधिकतर जनता पश्चिम में उतनी ही अवैज्ञानिक हैं, जितनी यहां। इसलिए तो यहां के योगी महाराजों के पीछे वहां पागल इकट्ठे हो जाते हैं, नहीं तो कहां से इकट्ठे हो जाएंगे। यहां का कोई पहुंच जाए तो वहां भी भीड़ इकट्ठी होती है। यह भीड़ किन लोगों की है, वह किन्हीं वैज्ञानिकों की है? वह उसी तरह के लोगों की भीड़ है जिस तरह के लोगों की यहां है। लेकिन सफेद चमड़ी का बहुत असर है। अगर दो-चार सफेद चमड़ी के पगलों को लेकर इस मुल्क में आ जाओ, तो महायोगी हो जाने में देर नहीं लगती। असल में सफेद चमड़ी के हम इतने दिन तक गुलाम रहे हैं कि हमने सफेद चमड़ी में भी कोई सुपिरिआरिटि स्वीकार कर ली है। सफेद चमड़ी होना ही कोई बहुत ऊंची बात हो गई है। तो अगर चार पश्चिम के पगले किसी आदमी के पीछे चले आएं--मुझे मेरे मित्र सहायता देते हैं कि आप यहां मेहनत मत करिए। पहले आप पश्चिम चले जाइए। वहां के दस-पच्चीस लोग आपके साथ आए, कि यहां अच्छा परिणाम होगा। मैंने कहां, वैसा परिणाम लाना इस मुल्क की गुलामी को बढ़ाना है। वैसा परिणाम लाना ही गलत ढंग है। क्योंकि उसका मतलब क्या है? उसका मतलब यह है कि सफेद चमड़ी की जो गुलामी हमारे दिमाग में है, उसको मजबूत करना है।
महेश योगी को यहां कोई पूछेगा नहीं, लेकिन बीटल पीछे चले आएंगे और सारा हिंदुस्तान दीवाना हो जाएगा। और सारे हिंदुस्तान के नेता और सारे अखबार दीवाने हो जाएंगे। यह अंग्रेजों की गुलामी से खतम होना बड़ा मुश्किल मालूम होता है। लगता है कि हम शायद कभी गुलामी के ऊपर नहीं उठ पाएंगे।
असल में विश्वास करने वाला चित्त बुनियादी रूप से गुलाम होता है। और ध्यान रहे कि जिन पंडित-पुरोहितों ने हमें गुलामी की शिक्षा दी थी, वे ही पंडित-पुरोहित अंग्रेजों की गुलामी और मुसलमानों की लंबी गुलामी का कारण बने। हम गुलामी के लिए राजी हो गए। हमारा माइंड इस स्लेवरी के लिए राजी हो गया। जो भी ताकत में, हम उसी को मानने लगे। और आज अगर आपके बेटे पश्चिम जाते हैं डिग्री लेने, तो आप यह मत समझना कि विज्ञान की शिक्षा लेने जा रहे हैं। आज पश्चिम की प्रतिष्ठा है, पश्चिम की डिग्री की प्रतिष्ठा है। और आज पश्चिम में विज्ञान की इज्जत है। आपके बेटे जो उसमें विश्वास करके उसकी शिक्षा लेने जाते हैं, उनके मन में कोई विज्ञान की खोज नहीं है। और आप भी जो उन्हें भेजते हैं, कोई विज्ञान की खोज के लिए नहीं भेजते हैं। आप उन्हें भेजते हैं कि वहां से वे डिग्रियां लेकर आते हैं--तो उनकी डिग्री की हैसियत का आदमी इस मुल्क में तीन सौ पाता है, वही आदमी इंग्लैंड और जर्मनी से डिग्री लेकर आता है, तो बारह सौ पाता है। तो आप भी जानते हैं कि पश्चिम की डिग्री की प्रतिष्ठा है। इसलिए विश्वास करके वहां चले जाते हैं। इसमें विश्वास है, इसमें कोई विज्ञान की कोई खोज नहीं है।
भारत के मानस में वह क्रांति पैदा नहीं हो पाई जिससे विज्ञान जन्मे। पश्चिम में भी थोड़े से मानस वैज्ञानिक हुए हैं, सभी मानस वैज्ञानिक नहीं हो गए हैं। और उन थोड़े से लोगों ने जिन्होंने विज्ञान को पश्चिम में जन्म दिया, बहुत तकलीफ उठानी पड़ी। हिंदुस्तान में कोई तकलीफ उठाने को राजी नहीं है। हिंदुस्तान की इतनी पुरानी व्यवस्था हो गई है कि इसमें अगर सुख और शांति से जीना हो, तो बिना किसी बात को छेड़े, जो कहा गया हो, सबको ठीक कहने से बड़ा आराम रहता है। मेरे पास आप आएं और कहें कि गीता में सब ठीक है। मैं कह दूं, सब ठीक है, गीता तो अमृत वचन है। आप मेरा पैर छुएंगे। अब मैं फिजूल की झंझट में क्यों पडूं कि कहूं कि नहीं, सब अमृत वचन नहीं है। तो मेरा पैर भी नहीं छुएंगे और आज नहीं कल डंडा लेकर मेरे पीछे घूमेंगे। फायदा क्या है? इस मुल्क के चित्त को जरा भी क्रांति की तरफ ले जाने की कोशिश करो, तो वह क्रोध से भर जाता है।
ऐसा ही पश्चिम में भी हुआ। तीन सौ साल में पश्चिम के थोड़े से लोगों ने जितनी तपश्चर्या की है, तुम्हारे हिंदुस्तान के सारे ऋषि-मुनियों ने मिल कर भी कभी नहीं की। वे थोड़े से लोग वे नहीं हैं, जो झाड़ों के नीचे बैठे हैं, वे थोड़े से लोग वे लोग हैं जिन्होंने पश्चिम की हजारों साल की मानसिक गुलामी को वैज्ञानिक चिंतन से तोड़ने की कोशिश की। तीन सौ वर्ष में थोड़े से लोगों ने जो तप किया है वहां, उस तप का फल सारी दुनिया भोग रही है। सारी दुनिया को उससे सुख मिल रहा है। लेकिन कुछ लोगों ने बहुत दुख भोगा है।
गैलीलियो ने जब पहली बार कहा कि पृथ्वी चक्कर लगाती है सूरज का, सूरज नहीं लगाता चक्कर। तो सारा पश्चिम पागल हो गया। और गैलीलियो को हथकड़ियां डाल कर अदालत में लाया गया कि तुम क्षमा मांगो, तुमने गलत बात कही है। क्योंकि बाइबिल में तो लिखा है कि पृथ्वी का चक्कर सूरज लगाता है। और दिखता भी तो यही है कि सूरज रोज चक्कर लगाता है। तुम माफी मांगो लिखित। सत्तर साल का बूढ़ा आदमी, उसे सैकड़ों मील पैदल चला कर लाया गया अदालत में, और उससे कहा गया, माफी मांगी, अन्यथा फांसी हो जाएगी। वह बूढ़ा आदमी हंसा और उसने एक कागज पर लिखा, वह दस्तावेज बड़ी अदभुत है, जिसमें गैलीलियो ने लिखा, कि तुम कहते हो तो मैं मान लेता हूं कि सूरज ही पृथ्वी का चक्कर लगाता होगा, लेकिन मैं क्या कर सकता हूं, लगाती तो पृथ्वी ही सूरज का चक्कर है। मैं क्या कर सकता हूं? तुम कहते हो, झंझट हम खड़ी नहीं करते, ठीक है। लेकिन सच बात तो यही है कि चक्कर तो पृथ्वी ही सूरज का लगाती है। अब मैं इसमें कुछ कर भी नहीं सकता। हां, मैं जो कहता हूं इसके लिए माफी मांग लेता हूं, लेकिन पृथ्वी चक्कर लगाती है इसके लिए मैं कैसे माफी मांगूं? पृथ्वी लगाती है, मैं क्या कर सकता हूं?
ये तीन सौ वर्षों में थोड़े से पश्चिम के लोगों ने हिम्मत की। हिम्मत किस बात की करनी पड़ी? सबसे बड़ी हिम्मत करनी पड़ती है आदर छोड़ने की। और हिंदुस्तान के विचारक आदर छोड़ने की हिम्मत जुटा पाते। हिंदुस्तान का कोई विचारक आदर छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। मकान छोड़ना आसान है, धन छोड़ना आसान है, पत्नी-बच्चे छोड़ना आसान है। सबसे कठिन बात है आदर छोड़ना। और हिंदुस्तान में बेवकूफियों के मानने के लिए आदर मिलता है। और अगर उनको छोड़िए तो आदर मिलना बंद हो जाता है। तो हिंदुस्तान ने एक व्यवस्था कर रखी है, आदर उसको दो, जो तुम्हारी सारी नासमझियों को स्वीकार करता हो और जो तुम्हारी नासमझियों को इनकार करता है, उसको आदर देना बंद करो। और हिंदुस्तान में अभी इतने हिम्मतवर विचारकों की धारा खड़ी नहीं हो पाई कि वे हिम्मत करें और आदर को लात मार दें और कहें कि जो ठीक है हम वही कहेंगे, चाहे अनादर मिले और चाहे फांसी मिले।
मेरा अपना मानना यह है कि हिंदुस्तान की प्रतिभा ने अभी भी तपश्चर्या शुरू नहीं की। धूप में खड़ा होना तपश्चर्या नहीं है, सर्कस का खेल है। और दो-चार दिन खड़े हो जाएं तो अभ्यास हो जाता है। फिर मकान के भीतर खड़े होने में तकलीफ होती है। भूखा मरना कोई तपश्चर्या नहीं है। सिर्फ अभ्यास है। और दो-चार-दस दिन, महीने भर भूखे रह जाएं तो फिर खाना खाने में बड़ी मुश्किल होती है। इन सारी बातों को हम तपश्चर्या कह रहे हैं। तपश्चर्या सिर्फ एक है, सत्य के लिए सब तरह के सम्मान को छोड़ने की हिम्मत के अतिरिक्त प्रतिभा के सामने और कोई तपश्चर्या नहीं है।
 लेकिन हिंदुस्तान ऐसी हिम्मत नहीं जुटाया पाया। या जब उसने हिम्मत जुटाई, थोड़े से लोगों ने, तो कुछ विचार पैदा हुआ। और फिर खो गया। अब जरूरत है, अगर हिंदुस्तान में वैज्ञानिक चिंतन पैदा करना है, और मैं आपसे कहता हूं, अगर वैज्ञानिक चिंतन नहीं पैदा होता है तो आने वाली सदी में हम कहीं के भी नहीं होंगे। हम धूल में मिल जाएंगे। वैज्ञानिक चिंतन पैदा करना है तो कुछ लोगों को हिम्मत जुटानी पड़ेगी कि वे सत्य के लिए बलिदान हो जाएं।
असत्य के लिए तो बहुत बलिदान हो चुके। मुसलमानों के लिए बलिदान हो चुके, हिंदुओं के लिए बलिदान हो चुके, जैनियों के लिए बलिदान हो चुके, ईसाइयों के लिए बलिदान हो चुके। ये सब असत्य के लिए बलिदान हैं। सत्य के लिए बलिदान मुश्किल से हुए हैं। और सत्य के लिए बलिदान न हो, तो विज्ञान का जन्म नहीं हो सकता। कुछ लोगों को हिम्मत जुटानी पड़ेगी। कुछ लोगों को सारे सम्मान, सारे आदर की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी, अपमानित होने की हिम्मत करनी पड़ेगी। और वह अगर नहीं होता, तो फिर कैसे विज्ञान का जन्म हो? कैसे विचार का जन्म हो? और बच्चों को संदेह की शिक्षा देनी पड़ेगी। उनके खून में संदेह भर देना पड़ेगा कि वे कभी भी किसी कीमत पर मानने को राजी न हों जब तक जान न लें। हां, न जानें, तो न मानने के लिए भी आग्रह न करें।
दो तरह के विश्वास होते हैं। एक आस्तिक का विश्वास होता है, एक नास्तिक का। आस्तिक कहता है, ईश्वर है, और मानता है, जानता नहीं। नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है, मानता है, जानता नहीं। ये दोनों विश्वास हैं। और ये दोनों खतरनाक हैं। इन दोनों से विज्ञान का जन्म नहीं हो सकता। दोनों से विज्ञान में बाधा पड़ेगी। और जहां भी विश्वास पैदा होता है वहीं विज्ञान में बाधा पड़ती है। चाहे वह विश्वास किसी तरह का क्यों न हो। अगर नास्तिक का विश्वास भी जोर पकड़ जाए तो विज्ञान में बाधा डालता है। क्योंकि विश्वास बाधा है।
एक हवा पैदा की जानी चाहिए, जिसमें हर बच्चा इस तरह बड़ा हो कि वह कहे कि यह मैं जानता हूं, यह मैं नहीं जानता हूं, यह मैं जानने की कोशिश कर रहा हूं। और जो मैं जानता हूं, वह भी अभी तक जितना ज्ञान है मेरा, उस हिसाब से कहता हूं। कल ज्ञान बदल जाएगा, बढ़ जाएगा तो मैं जो जानता हूं उसका दावा नहीं करूंगा।
 जो लोग दावा करते हैं कि हम जिंदगी भर कंसिस्टेंट रहे, बीस साल की उम्र में जो मानते थे, अस्सी साल की उम्र में भी वही मानते हैं, हम पक्के ईमानदार हैं। वे ईमानदार नहीं, सिर्फ जड़ बुद्धि हैं। बीस साल की उम्र में जो आदमी मानता है, अस्सी साल की उम्र में कैसे मान सकता है? या तो साठ साल उसने कुछ सोचा ही न हो, कुछ खोजा ही नहीं। बीस साल में ही उसकी खोपड़ी रुक गई हो, उसका विकास न हुआ हो। और अगर विकास हुआ होगा, तो अस्सी साल में आदमी वही कैसे मान सकता है जो बीस साल में मानता था?
लेकिन आप बड़े मजे की बात देखेंगे, बच्चा हिंदू ही पैदा होता है, हिंदू ही मरता है। बच्चा जिन नासमझियों को मान कर खड़ा होता है, उन्हीं को मरते दम तक मानता रहता है। जिस बचपन में उसको सिखाया गया था राम-राम का जाप, मरते वक्त आखिरी श्वास छोड़ता है और कहता है, और सारा मुल्क बड़ा प्रसन्न होता है कि बहुत धार्मिक आदमी था, राम राम कहते हुए मर गया। जड़ बुद्धि था, स्टुपिड था। जो बचपन में सिखा दिया गया था उसको जिंदगी भर दोहराता रहा। न उसने सोचा, न उसने खोजा, न वह आगे बढ़ा। लेकिन वह आदमी कहेगा, मैं कंसिस्टेंट हूं, मैं संगत हूं। मैंने कल जो कहा था, वही मैं आज कहता हूं। मैंने परसों जो कहा था, वही मैं आज कहता हूं। मैंने बचपन में जो कहा था, वही मैं बुढ़ापे में कह रहा हूं।
जिंदगी बहुत विकास की बात है। तो वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी यह नहीं कहता कि जो मैं आज कह रहा हूं, वही चरम सत्य है। वह यह कहता है कि आज तक मैं जो जानता हूं, उसके आधार पर यह सत्य मालूम पड़ता है। कल मैं और जान लूंगा और हो सकता है सत्य की बदलाहट हो जाए। कल मैं और जान लूं, और हो सकता है, नया ही सत्य स्थापित हो जाए। कल मैं और जान लूं और जिसे मैं आज सत्य कह रहा हूं, वह असत्य हो जाए। मैं जानता रहूंगा, मरते क्षण तक जानता रहूंगा, इसलिए दावा नहीं करूंगा कि सत्य को जान लिया है। सत्य को जानने की चेष्टा करनी चाहिए, जान लेने का दावा नहीं।
और जो कौम दावा करती है कि हमने सत्य को जान लिया, और उन कौमों में हम सबसे अदभुत कौम हैं, हमारा दावा यह है कि हम जान चुके, अब हमारा एक ही काम है कि हम दुनिया को जनावें। तो हमारे मुल्क के सारे नेता कहते फिरते हैं, सारी दुनिया हमारी तरफ देख रही ज्ञान के लिए। कोई नहीं देख रहा है किसी तरफ। हमारे गुरु समझाते हैं कि सारी दुनिया भारत की तरफ देख रही कि हमें आध्यात्मिक ज्ञान दो, मार्गदर्शन दो। कौन देख रहा है आपकी तरफ? यह खुद ही आप कहे चले जा रहे हैं। और क्यों कोई देखेगा? आपके पास है क्या जिसके लिए देखने की जरूरत है? आपको देख लेना काफी है, और उससे पता चल जाता है कि आस में कुछ भी नहीं है।
लेकिन हम दावा करते हैं कि हमने सत्य को जान लिया है। हम सत्य को जान ही चुके हैं, जानता नहीं है कुछ, बाकी नहीं है। हमारी किताबों में सब लिखा है। और सब अंतिम सत्य लिख दिया गया है। यह अवैज्ञानिक, एंटी-साइंटिफिक, विज्ञान-विरोधी चित्त की धारणाएं हैं।
सत्य की दिशा और सत्य का अनुभव विकासमान है, इवोल्यूशनरी है। कोई जान नहीं लिया गया है। कहीं ठहर नहीं गई है दुनिया। हम जानते चले जा रहे हैं। एक यात्रा है नोइंग की, जानने की। जानते जा रहे हैं, जानते जा रहे हैं और कभी ऐसा दिन नहीं आएगा कि हम सब कुछ जान लेंगे। इतना अनंत है जगत कि हम जितना जानेंगे वह हमेशा उससे थोड़ा होगा, जो जानने को शेष रह जाएगा। इतना अनंत है विस्तार, इतना असीम है विस्तार।
और बड़े मजे की बात है, जो धार्मिक आदमी हैं, वे एक तरफ तो कहते हैं, भगवान अनंत है, और दूसरी तरफ कहते हैं, भगवान जान लिया गया। दोनों बातें बड़ी उलटी हैं। जो जान लिया जाए, वह अनंत नहीं हो सकता। जानने की वजह से सीमित हो जाता है, शांत हो जाता है, फाइनाइट हो जाता है।
सच तो यह है कि विज्ञान ने पहली दफा कहा कि सत्य अनंत है, क्योंकि कभी भी पूरा नहीं जाना जा सकेगा। हम समुद्र में कूद सकते हैं, लेकिन हमने समुद्र पा नहीं लिया। ऐसे ही हम सत्य के सागर में कूद सकते हैं, यात्रा कर सकते हैं, लेकिन कभी ऐसा नहीं होगा कि हम कहेंगे कि हमने पूरे सत्य को पा लिया। तब हम सत्य से बड़े हो जाएंगे। तब तो सत्य हमारी मुट्ठी में हो जाएगा।
और जिन लोगों ने यह कहा कि सत्य पा लिया गया, उन्हीं लोगों ने दुनिया में मतांधता, पैनिटीशिज्म पैदा किया। क्योंकि मुसलमान कहता है, हमने सत्य जान लिया और हिंदू कहता है, हमने सत्य जान लिया है और जैन कहता है, हमने सत्य जान लिया। और तीनों के सत्य बड़े अलग-अलग हैं। अब तीनों में झंझट होती है कि सत्य किसका है! तो तलवारें निकल आती हैं। और कोई सिद्धांत, सिद्ध करने का उपाय भी नहीं है। किसके पास बड़ी तलवार है, कौन किसकी गर्दन काट सकता है, वही सत्य है। तो मुसलमान छाती में छुरा भोंकता है, हिंदू भोंकता है, झगड़े होते हैं। और झगड़े किस बात के हो रहे हैं? झगड़े एक बात के हो रहे हैं और झगड़ा उन लोगों ने करवाया, जिन्होंने कहा कि सत्य जान लिया गया। जिन लोगों ने सत्य के जानने का दावा किया, वे दुनिया को झगड़ों में डालने का कारण बने।
विज्ञान के कारण झगड़ा नहीं हुआ। आप हैरान होंगे, धर्मों ने झगड़े करवाए, विज्ञान ने पहली दफे झगड़ों को खतम किया। विज्ञान के पास कोई झगड़ा नहीं, क्योंकि विज्ञान दावेदार नहीं है। विज्ञान यह नहीं कहता हमने सत्य जान लिया। वह विनम्र है, बहुत हम्बल है। वह कहता है, हम जानने की कोशिश कर रहे हैं। अगर तुमने भी कुछ जाना हो तो आओ, हम शेयर कर लें, हम बांट लें। इसलिए दुनिया का वैज्ञानिक किसी कोने में जान रहा हो, उसका जाना हुआ सबका इकट्ठा हो जाता है, वह सबका जाना हुआ हो जाता है।
लेकिन ये धार्मिक गुरु? इनका जाना हुआ एक नहीं हो पाता। क्यों? क्योंकि ये विनम्र नहीं हैं। यह जान कर आप हैरान होंगे कि धर्म कहते हैं विनम्र बनो, और धर्मों ने जितना आदमी को ईगोइस्ट बनाया, अहंकारी बनाया, उतना किसी ने भी नहीं बनाया। और विज्ञान, जो कभी नहीं कहता कि विनम्र बनो। जिसको वैज्ञानिक बनना है उसे विनम्र बनना पड़ता है, उसे हम्बल होना पड़ेगा। पहली ह्युमिलिटी तो उसे यह सीखनी पड़ती है कि मैं जानता नहीं हूं। दूसरी विनम्रता उसे यह सीखनी पड़ती है कि जो भी जान लिया, वह कल गलत हो सकता है। तीसरी विनम्रता उसे यह सीखनी पड़ती है कि जो मैं जानता हूं वह बहुत अल्प है, जो मैं नहीं जानता हूं वह अनंत है। इसलिए वैज्ञानिक ईगोइस्ट नहीं हो सकता।
और धार्मिक आदमी, जिसको हम धार्मिक कहते हैं, मैं नहीं, धार्मिक आदमी एकदम अहंकारी है। वह दावे करता है कि सत्य हमारे पास है, मेरी मुट्ठी में है, और किसी की मुट्ठी में नहीं है। और जो मेरे पास आएगा, वही जा सकता है स्वर्ग, और जो मेरे पास नहीं आया, वह नहीं जाएगा। फिर उसके भक्त बेचारे सेवा-भाव के कारण दूसरों को भी उसकी मुट्ठी में लाने की कोशिश करते हैं, वह सिर्फ दया-भाव के कारण।
मुसलमान सोचता है, सब दुनिया को मुसलमान बनाओ। क्यों? क्योंकि अगर मुसलमान दुनिया न बन पाई, तो सब नर्क में पड़े रहेंगे। स्वर्ग नहीं जा सकते। स्वर्ग तो मुसलमान ही जा सकता है। ईसाई सोचता है, सबको ईसा के झंडे के नीचे लाओ। यह दया के कारण, कि जो आदमी ईसाई नहीं बना, वह बेचारा भटक जाएगा। नर्क की अग्नियों में सड़ेगा। ईसाई बनाओ उसे, किसी भी तरह बनाओ, पैसा देकर बनाओ, धमका कर बनाओ, जबरदस्ती बनाओ, गरीब का शोषण करके बनाओ--कोई प्रलोभन, भय, कुछ भी देकर बनाओ। यह दयावश, यह बड़ी अदभुत दया है! उसको बनाओ ताकि वह स्वर्ग जा सके।
तो सारी दुनिया में वह विश्वास और ज्ञान के दावे ने विज्ञान की हत्या की, वह विकसित नहीं हुआ। और भारत में यह हवा इतनी तेज है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। कोई भी आदमी कहता है कि मैं जगतगुरु हूं, बिना जगत से पूछे हुए।
अभी एक जगतगुरु मेरे साथ थे पटना में। कुछ बातें मैंने कहीं, वे एकदम नाराज हो गए। माइक छीन लिया और माइक पर खड़े होकर उन्होंने कहा कि मैं जगतगुरु हूं, सर्व शास्त्रों का ज्ञाता। मैं जो कहता हूं, वही ठीक है। अब जगतगुरु अगर हैं तो फिर जो कहते हैं ठीक ही है। क्योंकि फिर कोई उपाय ही नहीं रहा उनसे झंझट करने का। सर्व शास्त्रों के ज्ञाता! वे जो कहते हैं ठीक ही है, उसमें कुछ गलत हो नहीं सकता।
यह दावा वैज्ञानिक बुद्धि नहीं कर सकती। वैज्ञानिक बुद्धि सदा विनम्र है, वह कहती है, आप जो कहते हैं वह भी ठीक हो सकता है। लेकिन सोचें, विचार करें, मेरा तर्क आप सुनें, आपके तर्क को मैं सुनूं, खोजें, संदेह करें, हो सकता है जो सही हो वह विवाद से, विचार से, तर्क से निकल आए और सत्य जीत जाए। मैं भी हार जाऊं, आप भी हार जाएं, हमारे-जीतने का कोई भी मूल्य नहीं है, सत्य जीतना चाहिए। लेकिन कहता है, मैं जीतूं की तुम। सत्य से किसी को प्रयोजन नहीं है।
पहली दफा...सत्य से प्रयोजन विज्ञान ने दुनिया को दिया है। सत्य से प्रयोजन व्यक्तियों से प्रयोजन नहीं है। न मेरा सवाल है, न किसी और का सवाल है, सवाल यह है कि सत्य क्या है? आएं हम खोजें, सोचें, विचारें, लेकिन उसके लिए तो ओपन माइंड, खुला हुआ मन चाहिए।
एक अंतिम बात और वह यह कि भारत की बुनियादी भूलों में क्लोज माइंड, बंद दिमाग एक भूल है जिसकी वजह से विज्ञान पैदा नहीं होता। वैज्ञानिक चित्त के लिए ओपननेस चाहिए, खुलापन चाहिए। कोई द्वार-दरवाजे नहीं चाहिए दिमाग के ऊपर कि हम पहले से ही बंद किए बैठे हैं, हमें पहले से ही पता है कि सत्य क्या है। जो आदमी यह मान कर चलता है कि मुझे पहले से ही पता है, वह आदमी कैसे खोज करेगा? मुझे पहले से मालूम है, आपको पहले से मालूम है, हम दोनों लड़ें, लेकिन कभी कोई निर्णय नहीं हो सकता, संवाद नहीं हो सकता, कम्युनिकेशन नहीं हो सकता। विवाद हो सकता है, आप चिल्लाते रहें, मैं चिल्लाता रहूं, कोई किसी की सुनेगा नहीं, क्योंकि दोनों पहले से तय, प्रिज्युडिस दिमाग है।
इस मुल्क का सारा आदमी, एक-एक आदमी पक्षपात से भरा हुआ है। उसने सब तय कर रखा है। किसने तय किया हुआ है? आप एक जैन घर में पैदा हो गए, बस इतना ही आपका कसूर है, कि आपके दिमाग में जैन शास्त्र घुसेड़ दिए गए। एक आदमी हिंदू घर में पैदा हो गया, इतना ही उसका अपराध है, कि उसके दिमाग में हिंदू शास्त्र डाल दिए गए। एक आदमी मुसलमान घर में पैदा हो गया, इतनी ही उसकी भूल है, कि उसके दिमाग में कुरान डाल दिया गया। अब जिंदगी भर वह उसी को दोहराता रहेगा और कभी नहीं खोजेगा क्या है सत्य? कुरान को रखूं अलग, गीता को रखूं अलग, महावीर को नमस्कार करूं, बुद्ध को नमस्कार करूं। और मुझे भी खोजने दो, आपने अपने लिए खोज लिया, मुझ पर भी इतनी कृपा करो, आप जाओ, मैं खोजूं, मैं भी जानने का प्रयास करूं। लेकिन नहीं, हमारे दिमाग में भरा है। भरने की तरकीब आपको पता है क्या है? भरने की तरकीब आपको समझा कर नहीं भरा गया है, समझा कर गलत चीज भरी ही नहीं जा सकती, गलत चीज हमेशा बिना समझाए भरी जाती है, यह ध्यान रहे। इसलिए सब धर्मगुरु चाहते हैं कि बचपन में ही बच्चों के दिमाग में धर्म डाल दिया जाए, क्योंकि जवान होने पर समझाना जरूरी हो जाएगा। और समझाना बड़ा मुश्किल मामला है। और गलत बातें समझाना हो तो बहुत मुश्किल है।
अगर गणित पढ़ाना हो तो बीस साल के आदमी को पढ़ाया जा सकता है, क्योंकि गणित के सीधे सूत्र हैं, गणित समझाया जा सकता है।
सच तो यह है कि जितना सत्य हो, उतनी ही बड़ी उम्र में आसानी से समझाया जा सकता है। और जितनी असत्य बातें सिखानी हो उतनी अबोध अवस्था में, जब बच्चे के पास कोई बुद्धि नहीं होती। इसलिए पाठशालाएं खुली हैं मंदिरों में, साधु-संन्यासी बैठे हैं बच्चों को बाल-बोध पढ़ा रहे हैं। वह सबसे बड़ा अपराध हो रहा है। क्योंकि उन बच्चों को बातें समझाई जा रही जिन्हें कुछ पता नहीं। उन बच्चों को समझाया जा रहा है: निरोध होता है, आत्माएं होती हैं, भूत-प्रेत होते हैं, स्वर्ग होता है, नर्क होता है, मोक्ष होते हैं, इतने देव होते हैं, इतने रूप होते हैं। वे बच्चे बेचारे सुन रहे हैं। वे अभी बिलकुल सजेस्टिबल हैं। अभी उनके जो भी कहा जाता है, सोचते हैं कि जो कहा जाता है वह ठीक ही कहा जाता होगा। क्योंकि यह आदमी झूठ क्यों बोलेगा। अभी उन्हें जिंदगी का कुछ भी पता नहीं है। कि यहां जिनको हम बहुत अच्छे आदमी कहते हैं, वे बहुत बुनियादी झूठ बोल रहे हैं। यहां बुरे आदमी जिनको हम इस दुनिया में कहते हैं, वे बेचारे छोटे-मोटे झूठ बोल रहे हैं और बदनाम हैं।
एक आदमी चोर है, बेईमान है, कौन सा झूठ बोलता है, छोटा-मोटा झूठ, पांच रुपये बचा लेता है। और एक आदमी स्वर्ग और नर्क के मोक्ष के नक्शे समझा रहा है, और इस मजे से समझा रहा है जैसे सच बोल रहा हो, और उसे कुछ भी पता नहीं, वह सरासर झूठी बातें कर रहा है। और वह साधु है पूज्य। और बच्चों के दिमाग में यह भरा जा रहा है।
भरने की एक ही तरकीब है, समझाओ मत, सिर्फ दोहराओ, समझाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि इस झंझट में पड़े तो मुश्किल में पड़ जाओगे। सिनेमा में पोस्टर लगाओ कि बिनाका टुथपेस्ट खरीदो। फिल्म अभिनेत्री को मुस्कुराते हुए दांतों के साथ खड़ा करो कि इतने चमकीले दांत बिनाका से हो गए हैं। समझाओ मत, न कोई पूछने जाता है कि फिल्म अभिनेत्री ने कब बिनाका किया।
मैंने अभी सुना कि एक बुङ्ढा था फ्रांस में कोई एक सौ दस वर्ष का, उसके पास एक पत्रकार गया, उसकी एक सौ दसवीं वर्षगांठ पर, और उसने पूछा कि आपकी इतनी लंबी उम्र का राज क्या है? उसने कहा, अभी ठहरो, अभी दो तरह की कंपनियों से मेरी बात चल रही है कि मैं किस कंपनी के बिस्कुट खाता हूं, जब बात तय हो जाए, तब मैं बता सकता हूं कि किस वजह से मेरी उम्र ज्यादा है। अभी बातचीत चल रही है, अभी निगोशिएशन हो रहा है, अभी तय नहीं हुआ कि मेरी उम्र का असली राज क्या है? जो कंपनी ज्यादा पैसा देगी, उसी के बिस्किट से मेरी यह उम्र हो गई है।
तो फिर अभिनेत्री खड़ा करो, नचाओ। उसकी सेक्स अपील है, उस अपील का भी फायदा लो। और हर पुरुष भूखा है स्त्री का, इसलिए स्त्री को नंगा खड़ा करो और टुथपेस्ट बेचो। वह स्त्री की वजह से बिकेगा, और स्त्री के नंगेपन की वजह से बिकेगा। और टुथपेस्ट बिकेगा, अब स्त्री के नंगेपन से टुथपेस्ट का क्या संबंध है? कोई संबंध हो सकता है स्त्री के नंगा खड़ा करने से और टुथपेस्ट से? कोई संबंध नहीं है। लेकिन होशियार आदमी जानते हैं कि आदमी के दिमाग को कंडीशन करने की तरकीब है।
एक बच्चे को कहो कि नर्क में आग जल रही है, और आग में पड़ते हैं वे लोग जो भगवान को नहीं मानते। बच्चा आग में जलने से डरता है, कहता है, भगवान को जो नहीं मानते वे आग में जलते हैं। और स्वर्ग में क्या होता है? जो भगवान मानते हैं, वहां कल्पवृक्ष है, उसके नीचे बैठ जाओ, जो भी कामना करो, फौरन हो जाती। बच्चा कहता, जो भी कामना करो, उसके नीचे बैठ कर कहो, खिलौना आ जाता है, तो खिलौना आ जाता है। बच्चा कहता है, फिर स्वर्ग ही जाना ठीक है। यह उसको प्रलोभन दे रहे हैं आप। उसके दिमाग को खराब कर रहे हैं, उसका चिंतन खराब कर रहे हैं, जहर डाल रहे हैं। और दोहराए चले जाओ, दोहराए चले जाओ, रोज-रोज वही कहो कि बिनाका टुथपेस्ट, रेडियो खोले तो बिनाका टुथपेस्ट, सड़क पर निकलो तो बिनाका टुथपेस्ट। अब तो बिजली के जो गहरे आविष्कार उन्होंने, एक आविष्कार यह है, पहले तो बिजली के बल्ब स्थिर रहते थे, जले रहते थे, अब वे जलते-बुझते रहते हैं, वैज्ञानिकों ने कहा कि जलाओ-बुझाओ, क्योंकि अगर जले ही रहें तो एक ही दफे पढ़ता है आदमी, और अगर बुझाओ बार-बार, तो उसको बार-बार पढ़ना पड़ता है, वह मजबूरी है। अब बिनाका फिर बुझ गया, अब फिर जला, फिर पढ़ना पड़ेगा बिनाका, फिर बुझ गया, फिर...जितनी देर निकलो उसके नीचे से उतनी देर वह बुझेगा, और जब बार-बार बुझेगा तो मजबूरी है, आपको देखना पड़ेगा, बिनाका, फिर बिनाका, और वह दिमाग में घुसता चला जा रहा है, दिमाग में डालते रहो, फिर एक दिन वह आदमी बाजार गया दुकान पर टुथपेस्टों की, ढेर लगा हुआ है, दुकानदार पूछता है, कौनसा टुथपेस्ट? वह कहता है, बिनाका! और वह सोचता है कि मैं सोच कर कह रहा हूं। वह सोच कर नहीं कह रहा। उसके दिमाग की रील पर बिनाका ठोंक दिया गया, हैमर कर दिया गया। अब वह बेचारा कह रहा, बिनाका!
अभी अमेरिका में उन्होंने सर्वे किया, जो अमेरिका में सुपरमार्केट बनाए हुए हैं, वहां उन्होंने स्त्रियों का सर्वे किया, जो स्त्रियां वहां सामान खरीदने आती हैं। और जिस नतीजे पर पहुंचे वह बड़ी हैरानी का है। उन्होंने जो नतीजा दिया वह यह है कि स्त्रियां जो चीजें खरीदने आती हैं वह तो खरीदती ही नहीं, दूसरी खरीद कर चली जाती हैं। आमतौर से स्त्रियों के बाबत यह सच है, यहां भी, अमेरिका में भी। वे वह नहीं खरीदतीं जो खरीदने गई थीं, वे वह खरीद लाती हैं जो कि दुकानदार बेचना चाहता है। और बेचने के सब उपाय किए हुए हैं। वहां के मनोवैज्ञानिक ने कहा हुआ है कि जो चीज बेचनी हो वह किस रंग के डिब्बे में होनी चाहिए, स्त्रियों को कौनसा रंग जल्दी से उनके हृदय में उतर जाता है, रंग! डिब्बे के भीतर क्या है इससे कोई मतलब नहीं है। तो वे वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर उसी डिब्बे को लाल रंग में पोत कर रखो, तो सौ में नब्बे मौके उसके बिकने के हैं। उसको ही पीले रंग में रखो, तो सौ में तीस मौके, बिकने की चीज वही है। उसको अलमारी पर अगर बिलकुल ऊपर रखो, तो उसमें सौ में एक मौका है बिकने का, अगर बिलकुल नीचे रखो, दस मौके हैं, अगर आंख की बिलकुल सीध में रखो, तो उसके नब्बे मौके हैं।
तो दुकानदार अमेरिका के सुपरमार्केट में ऊपर वह डिब्बे रखता है, जिनमें मुनाफा कम है, बीच में वे डिब्बे रखता है, जो सर्वाधिक मुनाफा के हैं, जो स्त्री की आंख के ठीक सीध में पड़ते हों, जिन पर उसकी आंख पहले पड़ती हो। और स्त्रियों के साथ उन्होंने यह अनुभव किया कि अगर काउंटर पर कोई आदमी हो, तो वह आदमी पूछता है क्या खरीदना है आपको? तो स्त्री को पहले से जो सोच कर आई है वह बताना पड़ता है, और उसको घर से सोच कर आना पड़ता है। इसलिए अमेरिका सुपरमार्केट से काउंटर से आदमी हटा दिया गया। क्योंकि उसको घर से सोच कर आना पड़ता है, और काउंटर पर आदमी पूछता है, हिंदुस्तान के दुकान में वह जाएगी, दुकान दार पूछेगा, क्या चाहिए आपको? तो वह कहती है, मुझे टुथपेस्ट चाहिए। तो टुथपेस्ट बताया जाता है। सुपरमार्केट में अमेरिका से काउंटर पर से आदमी हटा दिया गया, सब चीजें रखी हैं, उनके नाम लिखे हैं, उनके दाम लिखे हैं, सिर्फ दरवाजे पर पैसा लेने वाला आदमी है। आपके हाथ में एक छोटी ठेलागाड़ी दे दी गई, आप ठेलागाड़ी लो और दुकान के अंदर चले जाओ। अब आपसे कोई पूछने वाला नहीं है। आपको जो जंचे वह निकाल कर रख लो। और जंचनी कैसे चाहिए चीज, उसका सब इंतजाम किया हुआ है। तो उनका जो नतीजा निकला है वह यह कि दस चीजों में से तीन चीजें तो वे होती हैं जो खरीदने आदमी आता है, सात वह होती हैं जो वैज्ञानिक तरकीब से उसको बेच दी गई हैं। दस में से सात चीजें आप वह खरीदते हैं जो आपको खरीदनी ही नहीं थी। लेकिन यह कोई समझाने से नहीं होता। माइंड को कंडीशन करने की तरकीब है।
धर्मगुरु पहले से वह तरकीबें जानते हैं, दुकानदारों को अब पता चल रहा है। धर्मगुरु पुराने दुकानदार हैं। नये दुकानदार नये धर्मगुरु हैं, अब वे नई विज्ञान, वैज्ञानिक ढंग से धर्मगुरुओं ने आदमी के मन को किस तरह से शोषण किया है, अब दुकानदार भी उसी तरह से शोषण कर रहा है। और आप हैरान होंगे जान कर कि समझा कर नहीं हो रहा है यह, बिना समझाए आपके दिमाग में कुछ बात डाली जा रही। आपको किसने हिंदू बना दिया? किसी ने समझाया था कि दुनिया में हिंदू-धर्म दुनिया में सबसे अच्छा है। किसी ने बताया था कि मुसलमान धर्म क्या है? जैन धर्म क्या है? ईसाई धर्म क्या है? फिर आपने चुना था, कोई च्वाइस थी आपकी चुनने में कि आप हिंदू कैसे हो गए? नहीं, कोई चुनाव नहीं था, बचपन से हिंदू-धर्म सर्वश्रेष्ठ है, हिंदू-भूमि पर देवता पैदा होने को तरसते हैं। किस देवता से पूछ कर यह बात बताई जा रही है? बस दिमाग में डाला जा रहा है। और यह भी समझाया जा रहा है, दूसरे की बात मत सुनना। इसलिए हिंदू मुसलमान की मस्जिद नहीं जाता। मस्जिद में जाने वाला हिंदू के मंदिर में नहीं आता। ये तो दूर की बातें हैं, शिव के मंदिर में जाने वाला विष्णु के मंदिर में नहीं जाता, क्योंकि दूसरे की बात सुनने से गड़बड़ा सकता है मामला। अगर बस चले, तो बिनाका वाले कभी पसंद नहीं करेंगे कि आपको दूसरे टुथपेस्ट की बात सुनने मिल जाए, लेकिन जरा मुश्किल है इस पर रोक लगाना। लेकिन धर्मगुरुओं ने बहुत होशियारी की, उन्होंने रोक लगा दी। बिनाका वाला क्या कर सकता है, अपने बोर्ड लगा सकता है, लेकिन दूसरों के बोर्ड थोड़े ही निकाल सकता है। रेडियो में अपनी खबर दे सकता है, लेकिन दूसरे टुथपेस्ट वालों की खबर तो नहीं रोक सकता। लेकिन धर्मगुरुओं ने यह भी इंतजाम किया। अपना बोर्ड लगाओ, अपनी किताब पढ़ाओ, अपना भाषण तो, अपने गुरु से समझवाओ, और दूसरे गुरु के पास जाने मत दो, दूसरे की किताब मत पढ़ने दो, दूसरे को बोलने मत दो। इसलिए धर्म के मामले में जितना अज्ञान है, उतना किसी और मामले में नहीं है। क्योंकि धर्म के संबंध में हमें सोचने-विचारने का मौका नहीं दिया गया। सोचता-विचारता जो है उसका दिमाग खुला चाहिए, पहले से बंद नहीं। इस देश के बंद मन को तोड़ देने की जरूरत है। सब द्वार-खिड़की खोल देने की जरूरत है। ताजी हवा आए, तो हम वैज्ञानिक चित्त को जन्म दे सकते हैं।
और प्रश्न रह गए, वह कल मैं बात करूंगा। कल सुबह परसों के सूत्रों में भी बात करूंगा। जो प्रश्न उनसे संबंधित होंगे, उनकी सुबह के सूत्रों में बात हो जाएगी।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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