आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-पांचवां
मेरे प्रिय आत्मन्!बोलते समय, बोलने के पहले मुझे यह सोच उठता है हमेशा, किसान सोच लेता है कि जिस जमीन पर हम बीज फेंक रहे हैं उस जमीन पर बीज अंकुरित होंगे या नहीं? बोलने के पहले मुझे भी लगता है, जिनसे कह रहा हूं वे सुन भी सकेंगे या नहीं? उनके हृदय तक बात पहुंचेगी या नहीं पहुंचेगी? उनके भीतर कोई बीज अंकुरित हो सकेगा या नहीं हो सकेगा? और जब इस तरह सोचता हूं तो बहुत निराशा मालूम होती है। निराशा इसलिए मालूम होती है कि विचार केवल उनके हृदय में बीज बन पाते हैं जिनके पास प्यास हो और केवल उनके हृदय सुनने में समर्थ हो पाते हैं जिनके भीतर गहरी अभीप्सा हो। अन्यथा हम सुनते हुए मालूम होते हैं, लेकिन सुन नहीं पाते। अन्यथा हमारे हृदय पर विचार जाते हुए मालूम पड़ते हैं, लेकिन पहुंच नहीं पाते और उनमें कभी अंकुरण नहीं होता है।
प्यास के बिना कोई भी सुनना संभव नहीं है। इसलिए जरूरी नहीं है कि जितने लोग बैठे हैं वे सभी सुनेंगे। यह भी जरूरी नहीं है कि उन तक मेरी बात पहुंचेगी। लेकिन इस आशा में कि शायद किसी के पास पहुंच जाएगी, तो भी ठीक है। अगर एक के पास भी बात पहुंच जाए तो परिणाम, तो परिणाम होगा, निश्चित होगा।
पर मैं आशा करूं कि सबके पास पहुंच सकेगी और यह विश्वास करूं कि सब प्यास लेकर इकट्ठे हुए होंगे। हुआ ऐसा है कि दुनिया में प्यास सत्य के लिए, परमात्मा के लिए कम होती जा रही है। सत्य के लिए हमारी अभीप्सा कम होती जा रही है। यह मैं क्यों कह रहा हूं? यह मैं इसलिए कह रहा हूं, धर्म के लिए हमारी प्यास कम होती जा रही है। यह मैं क्यों कह रहा हूं? यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि अगर आपकी धर्म के लिए प्यास हो, तो आप किसी धर्म के सदस्य नहीं हो सकते हैं। अगर आपकी धर्म के लिए प्यास हो, तो आप हिंदू, जैन, मुसलमान और ईसाई नहीं हो सकते हैं।
जिसके भीतर प्यास होगी, वह खोज करेगा, वह साहस करेगा, अनुसंधान करेगा, वह साधना करेगा और सत्य तक पहुंचने के लिए संघर्ष करेगा। जिनके भीतर प्यास नहीं होती, वे मां-बाप जो विचार दे देते हैं, उन्हें स्वीकार कर लेते हैं और उनको ढोते रहते हैं। जिनका धर्म जन्म से निश्चित होता है, जानना चाहिए उन्हें धर्म की कोई प्यास नहीं है। अन्यथा हम दूसरों के दिए भोजन से तृप्त नहीं होते और हम दूसरों के पहने हुए कपड़े पहनने को राजी नहीं होते। लेकिन हम, दूसरों के उधार विचार स्वीकार कर लेते हैं और हम परंपरा से सहमत हो जाते हैं। और जन्म का आकस्मिक संयोग हमें जिस घर में पैदा कर देता है हम उस धर्म को अंगीकार कर लेते हैं। ये हमारे भीतर बुझी हुई प्यास के लक्षण हैं।
जिनके भीतर परंपरा के प्रति संदेह नहीं उठता, जिनके प्रति प्रचलित धारणाओं और मान्यताओं के प्रति जिज्ञासा और प्रश्न खड़े नहीं होते हैं, उनके भीतर कोई प्यास नहीं है। अगर उनके भीतर प्यास हो, तो प्यास की अग्नि उन्हें विद्रोह में ले जाएगी।
धर्म बुनियादी रूप से या सत्य या धर्म और सत्य की खोज एक विद्रोह है। वह एसेंसियलीरिबेलियस है। तो आपके भीतर अगर विद्रोह पैदा नहीं होता है और आप चुपचाप सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं, जो परंपरा ने और अतीत ने आपको दिया है, आप कभी धार्मिक नहीं हो सकते हैं। महावीर ने वह स्वीकार नहीं किया जो उन्हें दिया गया था और न बुद्ध ने स्वीकार किया और न क्राइस्ट ने स्वीकार किया। दुनिया में जो भी लोग सत्य को उपलब्ध हुए हैं, उन्होंने परंपरा से दिए गए सत्यों को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहाः हम खोजेंगे, हम जानेंगे, हम पहचानेंगे, हम अनुभूति करेंगे तो स्वीकार करेंगे। अनुभूति के पहले जो स्वीकार करने को तैयार है, उसकी प्यास झूठी है। और भी प्यास इसलिए झूठी मालूम होती है, अगर कोई आदमी कहे कि मुझे बहुत प्यास लगी है और पानी शब्द से ही तृप्त हो जाए, तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, प्यास नहीं है। हम आत्मा, परमात्मा और इन सारे शब्दों से तृप्त हो जाते हैं। इसका अर्थ है, हमारे भीतर कोई जलती हुई प्यास नहीं है, अन्यथा प्यास हो तो पानी चाहिए।
पानी शब्द से कोई कैसे तृप्त होगा? लेकिन मैं देखता हूं, जो धार्मिक दिखाई पड़ते हैं, वे शास्त्रों को पढ़ते हैं और तृप्त हो जाते हैं। यह प्यास जरूर झूठी है। शास्त्र जिसकी प्यास को बुझा देते हों वह प्यास सच्ची नहीं हो सकती, क्योंकि शास्त्र में सिवाय शब्दों के और क्या है? शास्त्र में सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं है। सत्य तो मेरे और आपके भीतर है। सत्य तो जगतसत्ता के भीतर है। जो अपने भीतर और जगतसत्ता के भीतर प्रवेश नहीं करेगा, वह सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। इसलिए जिसकी प्यास गहरी होती है, इसलिए जिसकी अभीप्सा तीव्र होती है, वह सहमत नहीं होता। वह किसी मान्यता से बंधता नहीं, सारी मान्यताओं को तोड़ देता है। और जब कोई मनुष्य सारी मान्यताओं को, सारी धारणाओं को तोड़ देता है, तो उसके भीतर एक इतनी घबड़ाहट, इतनी बेचैनी, इतनी अशांति, इतने असंतोष का जन्म होता है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। और जब वैसा असंतोष भीतर पैदा हो जाए और भीतर लपटें जलने लगें खोज के लिए, जीवन के लिए, तभी कोई व्यक्ति सामान्य जीवन चेतना से ऊपर उठ कर परम जीवन चेतना से संबंधित हो पाता है।
इसलिए अगर किसी ने कहा हो कि धर्म संतोष है, तो मैं कहना चाहता हूं, गलत है वह बात। धर्म बहुत गहरा असंतोष है। इसलिए अगर कोई सिखाता हो कि धार्मिक आदमी वह है जो संतुष्ट है, तो मैं कहूंगा, बिलकुल ही, बिलकुल ही गलत बात है। धार्मिक आदमी वह है जो सबसे असंतुष्ट है, जिसे कुछ भी संतुष्ट नहीं कर पाता है। और जब असंतोष तीव्र होता है, तो उस तीव्र असंतोष की ज्वाला में ही उसकी चेतना ऊपर उठनी शुरू होती है।
आरोहण गहरे असंतोष से शुरू होता है। पता नहीं आपके भीतर ऐसी प्यास और ऐसा असंतोष है या नहीं। लेकिन ईश्वर से मैं कामना करूंगा कि ऐसी प्यास पैदा हो। और अपने जन्म की बातों और विचारों से मुक्त हो जाएं। क्योंकि जो उनसे ही सहमत रहेगा, वह उनसे ही सहमत मर जाएगा; उसकी अपनी कोई अनुभूति नहीं हो सकती है। कृपा करें, परंपरा को दूर हटा दें। जो दूसरों ने दिया है उसे अलग रख दें और पूछें अपने से कि मेरी उपलब्धि क्या है? अनुभूति के जगत में आपकी अपनी उपलब्धि क्या है?
मैंने सुना है, एक संन्यासी बहुत दिन तक अपने गुरु के आश्रम पर था। बहुत दिन उसने अपने गुरु की बातें सुनीं। लेकिन उसकी बातें सुन कर उसे ऐसा लगने लगा यह तो वही-वही बातें रोज-रोज दोहरा देता है। कहीं और जाऊं और खोजूं। और जब उसके मन में यह संकल्प घना हो रहा था कि मैं कहीं और जाऊं और खोजूं, तभी एक और संन्यासी का आगमन उस आश्रम में हुआ। उस संन्यासी ने आते से ही इतनी सूक्ष्म और बारीक बातें कीं, इतनी तत्वचिंतन, इतने तत्व की गहरी-गहरी बातों का ऊहापोह किया कि उस युवा संन्यासी, जो आश्रम छोड़ने को था, उसके मन में हुआ कि अगर कोई गुरु हो तो ऐसा होना चाहिए। और उसके मन में हुआ कि मेरा जो बूढ़ा गुरु है, वह ये बातें सुन कर कैसा संकोच, कैसी हीनता और कैसी दीनता नहीं अनुभव करता होगा?
कोई दो घंटे तक आगंतुक संन्यासी ने अपनी बातें समझाईं और जब वह अपनी बातें समझा चुका, तो उसने अभिमान से सबकी तरफ देखा कि कैसा लगा? लोगों को कैसा लग रहा है? उसने उस बूढ़े संन्यासी की तरफ देखा, जिसका कि आश्रम था। वह बूढ़ा संन्यासी हंसने लगा, और उसने जो कहा वह मन में रख लेने जैसा है। उसने कहाः मेरे मित्र, मैं दो घंटे तक संपूर्ण हृदय से तल्लीन होकर सुनता रहा कि तुम कुछ बोलो, लेकिन तुम तो कुछ बोलते नहीं। वह संन्यासी हैरान हुआ। उसने कहाः आप पागल हैं, मैं दो घंटे तक बोलता ही था और क्या करता था। उस बूढ़े संन्यासी ने कहा कि तुम बोले, यह मैं सुनता रहा, लेकिन तुम नहीं बोलते, तुम्हारे भीतर से दूसरे बोल रहे हैं--शास्त्र बोले रहे हैं, संस्कार बोल रहे हैं, परंपरा बोल रही है, समाज बोल रहा है, लेकिन तुम नहीं बोल रहे।
और निश्चित ही अपने भीतर खोजें कि जो भी आपको प्रतीत होती हैं बातें, जो आपको सत्य मालूम होती हैं अनुभूतियां, वे आपकी हैं या दूसरे लोग बोल रहे हैं? और उस आदमी से दरिद्र आदमी इस जमीन पर कोई भी नहीं है जिसके भीतर अपना कोई स्वर न हो, सब स्वर पराए हों। और उस आदमी से कमजोर और दीन-हीन आदमी कोई भी नहीं है, जिसके पास अपनी कोई अनुभूति न हो, सब अनुभूतियां दूसरों की हों। ऐसा आदमी केवल एक प्रतिध्वनि मात्र है जिसमें दूसरों की आवाजें गूंज रही हैं और प्रतिध्वनित हो रही हैं।
इस पर मैं बोल रहा हूं, इस यंत्र पर मैं बोल रहा हूं, यह मेरी आवाज को प्रतिध्वनित कर रहा है। क्या आपको खयाल नहीं आता कि आपके भीतर भी महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट और मोहम्मद की आवाजें प्रतिध्वनित हो रही हैं? क्या आपकी अपनी कोई आवाज है? क्या आपकी अपनी कोई ध्वनि है? अगर सब प्रतिध्वनियां हैं, तो आप कोरे हैं और खाली हैं और आप मुर्दा हैं और आप जीवित नहीं हैं। आपकी अपनी कोई अनुभूति ही आपको जीवन दे सकेगी। न कोई शास्त्र जीवन देता है, न कोई गुरु जीवन देता है, अपनी अनुभूति ही जीवन देती है। और जिसके पास जितनी ज्यादा अनुभूतियां हों, वह उतना ही समृद्ध, वह उतना ही धनी, वह उतना ही संपदाशाली हो जाता है। लेकिन हम किसी ऐसी संपदा की तलाश में नहीं हैं, हम तो उस संपदा की तलाश में हैं जिससे बड़े मकान बनते हैं, बड़ा यश बनता है, बड़े भवन बनते हैं, बड़े पद उपलब्ध होते हैं, हम उस संपदा की तलाश में हैं। हम क्षुद्र संपदा को तो खुद खोजते हैं, लेकिन विराट संपदा को दूसरों की मान लेते हैं। क्या यह इस बात की सूचना नहीं है कि विराट संपदा की हमें प्यास ही नहीं है?
हम यह नहीं मानते कि महावीर और बुद्ध के पास बहुत संपत्ति थी, तो हमें क्या करना है संपत्ति से? हम अपनी संपत्ति खोजते हैं। लेकिन जब सत्य का सवाल उठता है, तो हम कहते हैं, महावीर, बुद्ध; गीता और कुरान और बाइबिल; और हम कहते हैं, सत्य उनमें है। जब सत्य का सवाल उठता है, तो हम दूसरों के सत्य को मान लेते हैं और जब संपत्ति का सवाल उठता है, तो हम अपनी संपत्ति खोजते हैं। इससे ज्यादा बेईमानी और कोई मनुष्य अपने साथ दूसरी नहीं कर सकता है। अगर संपत्ति अपनी खोजनी है, क्षुद्र संपत्ति अपनी खोजनी है, तो विराट और सत्य की संपत्ति भी अपनी ही खोजनी होगी। और यह खोज शुरू हो सके, इसके पहले यह समझना होगा कि मेरे पास कुछ है।
मैं देश के कोने-कोने में घूमा। न मालूम कितने-कितने तत्वज्ञानियों को देखा और सुना और मैंने पाया, उन सबसे शास्त्र बोल रहे हैं, उनके पास अपना कुछ नहीं है। उनसे बड़ी-बड़ी तात्विक बातें निकल रहीं हैं, लेकिन सब झूठी हैं, क्योंकि जो दूसरे से ली गई हैं उनकी सच्चाई उस दूसरे आदमी के साथ रही होगी, वह आपके साथ नहीं है। जिसकी आप प्रतिधुन कर रहे हैं, जिसे आप केवल प्रतिध्वनित कर रहे हैं, वह सत्य आपके लिए सत्य नहीं हो सकता। सत्य तभी सत्य होता है वह जब मेरी अनुभूति हो, जब वह दूसरे की अनुभूति हो तो असत्य हो जाता है। और यही वजह है कि सारे धर्म, जब उन्हें जन्म मिलता है तो जीवित होते हैं। वे उस आदमी के साथ जीवित रहते हैं जिसके पास सत्य था और उसके हटते ही मुर्दा होने शुरू हो जाते हैं, और फिर लाशें रह जाती हैं। और फिर लकीरें रह जाती हैं मुर्दा, जिन्हें हम पीटते रहते हैं। दुनिया इस तरह के मुर्दा धर्मों से परेशान हो गई है। ये सब मरे हुए धर्म हैं। ये मरे हुए इसलिए हैं कि इनको मानने वाले के पास अपना सत्य नहीं है।
अपना सत्य सबसे बड़ी बात है। और मैं आपको कहूं, वही सबसे बड़ी संपत्ति भी है। और जो ऐसे किसी सत्य को स्वयं उपलब्ध नहीं होता है वह आज नहीं कल पछताएगा। और तब उसे दिखाई पड़ेगा कि उसकी खोज किए गए पद, उसकी इकट्ठी की गई संपदाएं, सब व्यर्थ हो गई हैं। मृत्यु सब छीन लेती है, केवल सत्य को छोड़ कर। मृत्यु सब छीन लेती है, केवल सत्य को छोड़ कर। और हम ऐसे पागल हैं कि जीवन भर में हम शेष सब खोजते हैं, केवल सत्य को छोड़ कर।
मैंने सुना है, और मुझे प्रीतिकर रहा, और मैंने जगह-जगह लोगों को कहा। नानक एक गांव से निकले थे और उस गांव में एक रात वे रुके। उस गांव में जो बहुत समृद्ध और धनी-मानी व्यक्ति था, उसने आकर उनके चरणों कहा कि मेरी संपत्ति ले लें, और इस सारी संपत्ति को किसी अच्छे काम में लगा दें, आपसे अच्छा आदमी और कौन मिलेगा? आप इशारा करें और मैं करूं। जो आज्ञा देंगे वह पूरा कर दूंगा। नानक ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और नानक नीचे ही देखते रहे गए, उस आदमी ने पूछा, आप कहते क्यों नहीं? नानक ने कहाः मुझे तुम्हारे पास कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम बिलकुल दरिद्र आदमी मालूम होते हो। उस आदमी ने कहाः मेरे कपड़ों को देख कर भूल में न पड़ें, मैं सीधा-सादा आदमी हूं इसलिए मेरी संपत्ति का पता नहीं चलता, अन्यथा इस इलाके में मेरे से ज्यादा संपत्ति और किसी के पास नहीं है। नानक ने कहाः मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता कि तुम्हारे पास कुछ भी हो। मुझे बहुत दरिद्र लोग मिले हैं, लेकिन तुम दरिद्रतम हो। फिर तुम नहीं मानते तो एक छोटा सा काम कर दो। अगर वह काम कर सके तो फिर और बड़े काम बताऊंगा, परीक्षा हो लेगी। और उसने कहा, आज्ञा दें और मैं कर दूंगा, चाहे मेरी समग्र संपत्ति क्यों न लग जाए।
नानक ने अपने कपड़े से एक सुई निकाली। कपड़े सीने की सुई और उस आदमी को कहाः इसे रख लो और जब हम और तुम दोनों मर जाएं तो इसे वापस लौटा देना। उस आदमी ने देखाकि जरूर आदमी पागल है। मैं गलत आदमी के पास आ गया। पहले तो उसने कहा कि दरिद्र हो तुम। और अब वह कह रहा कि यह सुई जब हम दोनों मर जाएं तो वापस लौटा देना। फिर भी एकदम से अभी वापस करूं, अभी मैंने कहा था जो कहेंगे कर दूंगा, ठीक नहीं मालूम होगा, वह सुई लेकर वापस चला गया। उसने मित्रों से सलाह ली। उसने रात भर सोचा। उसकी कुछ समझ नहीं पड़ा, कोई रास्ता नहीं मिला। उसने सब तरह से मुट्ठी बांधने की कोशिश की उस सुई के ऊपर, लेकिन सब मुट्ठियां इसी पार रह जाती हैं। उसने सब भांति सुई को ले जाने के विचार किए, लेकिन विचार यहीं रह जाते हैं। कोई पकड़ मृत्यु के भीतर नहीं जा सकती।
सुबह-सुबह जल्दी वह आया और उसने नानक के पैर छुए और कहा कि इससे पहले कि लोग आ जाएं, मैं अपनी दरिद्रता स्वीकार कर लूं, यह सुई आप वापस ले लें। कहीं ऐसा न हो कि मैं मर जाऊं और सुई वापस न कर सकूं, एक ऋण मेरे ऊपर रह जाए। इसे मैं मरने के बाद वापस नहीं लौटा सकूंगा इसलिए जिंदगी में लौटा रहा हूं। नानक ने कहाः जिस चीज को मरने के पीछे न ले जा सको, उसे जिंदगी में इकट्ठा करने की भूल में मत पड़ना। और जिसे जिंदगी में लौटाने का खयाल आता है क्योंकि मृत्यु के बाद नहीं लौटा सकेंगे, उस सबको लौटा दो जिंदगी को, वापस उसे इकट्ठा मत करो। सुई ही मुझे मत लौटाओ, सब लौटा दो जो-जो इकट्ठा हो जो कि मृत्यु के पार न जा सके।
असल में हम समृद्धि के थोथे, झूठे रूप में अपने भीतर की दरिद्रता छिपा लेते हैं। जितना गरीब आदमी होगा, उतनी संपत्ति की उसे आकांक्षा होती है और जितना नीचा आदमी होगा, उतने बड़े पद पर होने की उसकी मंशा होती है। जो बहुत बड़े पद पर होते हैं, वे बहुत साधारणहीन लोग होते हैं। अपनी हीनता भुलाने को बड़े पदों को खोजते हैं। और जो बहुत संपत्ति को खोज लेते हैं, वे बहुत दरिद्र लोग होते हैं। अपनी दरिद्रता छिपाने को संपत्ति का आवरण इकट्ठा कर लेते हैं। इसलिए दुनिया में जो दरिद्र है वह संपत्तिशाली दिखाई पड़ता है और जो बहुत दीन-हीन है वह बड़े पदों पर अनुभव होता है।
क्राइस्ट ने कहा हैः धन्य हैं वे लोग जो अंतिम हो सकते हैं। क्राइस्ट ने कहा हैः धन्य हैं वे लोग जो अंतिम हो सकते हैं; क्योंकि जरूर उनमें प्रथम होने की क्षमता है। धन्य हैं वे लोग जो दरिद्र हो सकते हैं; क्योंकि निश्चय इस बात की उनकी दरिद्रता सूचना है कि वे दरिद्र नहीं हैं, इसलिए उन्हें कोई संपत्ति से अपनी दरिद्रता छिपाने का कोई कारण नहीं है। धन्य हैं वे लोग जो निम्न हो सकते हैं; क्योंकि उन्हें ऊंचे उठने का कोई खयाल पैदा नहीं होता, क्योंकि उनके भीतर कोई नीचा है ही नहीं, जिससे ऊपर उठने का खयाल पैदा होता हो।
इसलिए इस दुनिया में समृद्ध दरिद्र देखे जाते हैं और दरिद्र समृद्ध देखे जाते हैं। और भिखारी हुए हैं जो सम्राट थे और सम्राट हुए हैं जो कि भिखारी थे।
नानक ने उस सुबह उससे कहा, कि फिर सोचो, तुम्हारे पास क्या है? नानक ने उससे कहा, मैं उस चीज को विपत्ति कहता हूं जो मृत्यु के पार न जा सके, उसे संपत्ति कहता हूं जो मृत्यु के पार चली जाए।
मैं भी आपसे यह कहूं, वही संपत्ति है जो मृत्यु के पार चली जाए। और ऐसी संपत्ति केवल सत्य की है और कोई संपत्ति नहीं है। और कोई संपत्ति नहीं है जिसे मृत्यु की लपटें नष्ट न कर देंगी। एक ही संपत्ति है, सत्य की, और वह आपकी उधार है, वह आपकी दूसरों से ली हुई है। वह आपकी महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट से मिली हुई है। वह आपने गीता, कुरान और बाइबिल से ली हुई है। वह संपत्ति आपकी नहीं है जो कि संपत्ति है। और जिसे आप संपत्ति समझ रहे हैं, वह बिलकुल आपकी न है और न हो सकती है। उसे आपको छोड़ ही देना होगा। जिसे छोड़ देना होगा उसे इकट्ठा कर रहे हैं और जो साथ हो सकती है उसे अपने से दूर रख रहे हैं और बड़े-बड़े नामों का सहारा ले रहे हैं। स्मरण रखें, सत्य आपका हो तो ही आपका हो सकता है। इसलिए समाज और परंपरा और शिक्षा आपको जो देती है उसे सत्य मत मान लेना।
मैं एक गांव में गया। वहां एक अनाथालय में मुझे दिखाने ले गए। वहां उन्होंने कहा कि हम छोटे-छोटे बच्चों को धर्म की शिक्षा देते हैं। मैं हैरान हुआ। क्योंकि मेरी बुद्धि कुछ गड़बड़ है और मुझे ऐसा लगता है कि धर्म की कोई शिक्षा हो नहीं सकती। और जब भी कोई शिक्षा होगी तो धर्म के नाम पर किसी न किसी गलत चीज की होगी। असल में धर्म की साधना होती है, शिक्षा होती ही नहीं है।
मैंने कहा कि मैं हैरान हूं, धर्म की शिक्षा कैसे होगी? फिर मैं देखूं क्या शिक्षा देते हैं?
उन्होंने कहाः आप इन बच्चों से कुछ भी पूछें, इनको सब उत्तर मालूम हैं।
मैंने कहाः आप ही पूछें तो मैं सुनूं, क्योंकि मुझे यह भी ठीक पता नहीं कि कौन सा प्रश्न है जो धार्मिक है? क्योंकि जितने प्रश्न धर्म की किताबों में लिखा दिखाई पड़ते हैं, वे सब मुझे थोथे मालूम होते हैं, वे कोई भी प्रश्न मुझे धार्मिक नहीं मालूम होते हैं। और उनके उत्तर तो उनसे भी ज्यादा थोथे होते हैं। मैंने कहाः आप ही पूछें। तो उन्होंने पूछा लड़कों से, आत्मा कहां हैं? उन सारे लड़कों ने छाती पर हाथ रखे, उन्होंने कहा--यहां।
मैंने एक लड़के से पूछाः यहां तुम कह रहे हो, क्या मतलब है तुम्हारा?
उसने कहाः हमें बताया गया है कि आत्मा हृदय में है।
और मैंने कहाः हृदय कहां है?
वह लड़का बोलाः यह हमें बताया नहीं गया।
मैंने उनको कहा कि इन बच्चों के साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं, अन्याय कर रहे हैं। इन्हें एक बात सीखा रहे हैं कि आत्मा यहां है, ये सीख लेंगे और जब भी जीवन में इनके सामने प्रश्न खड़ा होगा, आत्मा कहां है? यह हाथ यांत्रिक रूप से छाती पर चला जाएगा और कहेगा, यहां। यह उत्तर बिलकुल झूठा होगा, यह दूसरों ने सिखाया है। इस उत्तर के कारण इनका प्रश्न दब जाएगा और इनके भीतर जिज्ञासा पैदा नहीं हो सकेगी जो कि आत्मा की खोज में ले जाती है। इनके लिए उत्तर दे दिया रेडीमेड, बना-बनाया। ये उसे स्वीकार कर लिए--बालपन में, अबोध चित्त की अवस्था में। जब कुछ सोच-समझ और विवेक जाग्रत नहीं है तभी दुनिया के सारे धार्मिक लोग उन निरीह निर्दोष बच्चों के मन में अपनी शिक्षा को डाल देना चाहते हैं। इससे बड़ा और कोई अनाचार और कोई बड़ा पाप नहीं है, न हो सकता है। क्योंकि उनके दिमाग में जो बातें आपने भर दी हैं, वे जीवन भर उन्हीं को प्रतिध्वनित करते रहेंगे और इस भ्रम में रहेंगे कि उन्हें ज्ञान उपलब्ध हो गया है। जब कि ज्ञान उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ। उन्होंने कुछ बातें और कुछ शब्द सीख लिए हैं। आप भी शब्द सीखे हुए होंगे। खयाल करके देखना कि किसी के सिखाए हुए शब्द हैं या यह अपनी अनुभूति है? और अगर ऐसा मालूम पड़े कि दूसरों के सिखाए हुए शब्द हैं, तो कृपा करना उन्हें छोड़ देना और भूल जाना।
इसके पहले कि कोई सत्य को उपलब्ध हो सके, सत्य के संबंध में जो भी सीखा है उसे भूल जाना अत्यंत अपरिहार्य और अनिवार्य है। सत्य के संबंध में जो भी जानते हैं, उसे भूल जाना जरूरी है, अगर सत्य को जानना है। अगर परमात्मा को जानना है, तो परमात्मा के संबंध में जो भी जानते हैं, कृपा करें उसे छोड़ दें। वह कचरे से ज्यादा नहीं है जो आपके मन को घेरे हुए है। और मन अगर सारे कचरे से मुक्त हो जाए जो हमें सिखाया गया है, तो उसका जन्म होगा जो ज्ञान है। ज्ञान सिखाया नहीं जाता, वह हमारा स्वरूप है। जो सिखाया जाता है वह कभी ज्ञान नहीं हो सकता। जो बाहर से भीतर डाला जाता है वह कभी ज्ञान नहीं होता। जो भीतर से बाहर आता है वह ज्ञान होता है।
अगर ज्ञान हमारा स्वरूप है, अगर वह हमारी अंतर्निहित क्षमता है, तो वह बाहर से नहीं डाली जाएगी, वह भीतर से आएगी। और भीतर से आने में वह सब जो बाहर से डाला गया है बाधा हो जाता है।
एक तो हौज में पानी भर देते हैं ऊपर से, वह भी पानी है। पंडित के मस्तिष्क में जो ज्ञान भरा होता है, वह हौज के पानी की तरह है। और एक कुएं में भी पानी के जलस्रोत निकलते हैं, वह भी पानी है। लेकिन ज्ञानी का जो ज्ञान होता है, वह कुएं की भांति होता है। उसमें पानी ऊपर से नहीं डाला जाता, मिट्टी, कंकड़, पत्थर बाहर निकाले जाते हैं और पानी नीचे पाया जाता है। और पंडित का जो ज्ञान होता है, उसमें ऊपर से पानी डाला जाता है, निकाला कुछ भी नहीं जाता। तो जो-जो ज्ञान आपके ऊपर से डाला जाता है, वह हौज की तरह आपके भीतर भर जाएगा, वह कोई वास्तविक बात नहीं है। आपके जलस्रोत नहीं उससे खुलते हैं और भरा हुआ पानी जल्दी ही गंदा हो जाता है। इसलिए पंडित के मस्तिष्क से ज्यादा गंदा मस्तिष्क जमीन पर दूसरा नहीं होता। इसलिए पंडित सारी दुनिया में उपद्रव की जड़, झगड़ों-फसादों की बुनियाद है। दुनिया में पंडितों ने जितना उपद्रव करवाया है उतना बुरे लोगों ने बिलकुल नहीं करवाया। लेकिन बुरे लोग अपराधियों की तरह बंद हैं और पंडित पूजे जा रहे हैं। दुनिया में जितनी खून-खराबी हुई है, मनुष्य के साथ जितने अत्याचार हुए हैं, मनुष्य और मनुष्य के बीच जितनी दीवालें खड़ी की हैं, वह पंडित ने खड़ी की हैं, लेकिन वे अपराधी नहीं हैं, वे पूज्य हैं, वे समाद्रितहो रहे हैं। जरा मनुष्य के इतिहास को उठा कर देखें, उसमें जितने खून के धब्बे हैं, उसमें निन्यानबे पंडित के पास पड़ेंगे, एक प्रतिशत अपराधियों के पास जाएगा।
दुनिया में मनुष्य और मनुष्य के बीच जितनी भी खाइयां और लड़ाइयां और उपद्रव खड़े किए गए हैं, वे पंडित ने खड़े किए हैं। और मैं मानता हूं इसके पीछे कारण हैं, जो भी पानी ऊपर से भर दिया जाता है वह गंदा हो जाता है, उसमें कोई जीवित स्रोत नहीं होते हैं। तो पंडित चाहे वह किसी धर्म का हो, उसके भीतर बाहर से भरा हुआ ज्ञान धीरे-धीरे गंदगी और सड़न पैदा कर देता है और वह सड़न फिर नये-नये रूपों में निकलनी शुरू हो जाती है। घृणा और विद्वेष फैलाने का कारण हो जाती है। मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने का कारण हो जाती है। ज्ञान तो वास्तविक भीतर से आता है, बाहर से नहीं आता। और वह तभी आएगा जब बाहर के ज्ञान को हम अलग कर दें, क्योंकि वह कंकड़-पत्थर की तरह भीतर के ज्ञान को दबा लेता है। जो भी हमने बाहर से सीख लिया है, वह हमारे आत्म के जागरण में बाधा है। अगर हम बाहर से सीखे हुए को बाहर वापस लौटा दें, तो वह जाग जाएगा जो हमारे भीतर है और निरंतर मौजूद है। उसकी स्फुरणा हो जाएगी।
सत्य को खोजने कहीं जाना नहीं है, जो-जो असत्य हमने सीख लिया है उसे अलग कर देना है और सत्य हमारे भीतर होगा। परमात्मा को खोजने कहीं जाना नहीं है, जो-जो हमने अपने ऊपर आवरण डाल लिए हैं वे अलग कर देने हैं और परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा।
एक रात, एक बहुत सर्द रात को एक पहाड़ के पास एक छोटे से मंदिर में एक आदमी ने जाकर दस्तक दी। आधी रात होने को थी और बहुत ठंडी रात थी, अंदर से पूछा गया, कौन है इतनी रात को? सुबह आओ। उस आदमी ने कहाः मैं बहुत पापी हूं, मैं बहुत बुरा आदमी हूं। मैंने बहुत बार सोचा कि दिन में आपके पास आऊं, लेकिन वहां और बहुत से लोग होते हैं, इसलिए मैं रात को आया हूं। वह मंदिर एक साधु का था। दरवाजा खोला गया। वह साधु अंतिम सोने की तैयारी कर रहा था। उसकी सिगड़ी की आग भी बुझ गई थी और राख ही राख थी। उसने उससे पूछा कि तुमने यह कैसे कहा कि तुम पापी हो? जरूर किसी पंडित ने तुम्हें समझाया होगा कि तुम पापी हो। क्योंकि पंडित का एक ही काम है कि वह दुनिया में लोगों को समझाए की वे पापी हैं। और मेरी दृष्टि में किसी को यह समझा देना कि तुम पापी हो, इससे बड़ा कोई पाप नहीं हो सकता है, क्योंकि उसके पापी होने की बुनियाद रख दी गई है।
ज्ञानी समझाता है, तुम परमात्मा हो। पंडित समझाता है, तुम पापी हो। ज्ञानी कहता है, तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है और पंडित कहता है, तुम्हारे भीतर पाप ही पाप है। उस साधु ने कहा कि जरूर किसी पंडित से तुम्हारा मिलना हो गया है, किसने तुम्हें कहा कि तुम पापी हो? मैं तो देखता हूं तुम परमात्मा हो। उस आदमी की आंखें नीचे झुकी थीं, उसने ऊपर उठाईं, यह पहली दफा कोई आदमी मिला था जिसने कहा कि तुम परमात्मा हो। उसने कहाः लेकिन मैं चोरी करता हूं। लेकिन मैं दूसरों की संपत्ति पर बुरी नजर डालता हूं। लेकिन मेरे मन में क्रोध आता है और मैं लोगों की हत्या तक के विचार कर लेता हूं।...जलाने से कैसे दूर होगा, जैसा वह पागल है वैसे ही तुम पागल हो कि पाप-पाप की बातें कर रहे हो और परमात्मा की तरफ नहीं देख रहे। देखो और पाप विलीन हो जाएगा। पाप इसलिए है कि परमात्मा की तरफ दृष्टि नहीं है। पाप नहीं होगा, परमात्मा की तरफ दृष्टि भर होने की बात है। उस पापी से कहाः बैठो। तो वह जो आदमी कह रहा था कि मैं पापी हूं, उससे कहाः बैठो। वह आदमी बोलाः लेकिन मुझे तो कोई परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, मेरे भीतर सब पाप ही पाप दिखाई पड़ता है।
सिगड़ी रखी थी, आग बुझने के करीब थी, सर्द रात थी। उस साधु ने कहाः देखो, रात बहुत ठंडी है, शायद सिगड़ी में एकाध अंगारा हो, जरा उसे कुरेदो। उस आदमी ने देखा, उसने कहाः सब राख ही राख है। वह साधु हंसने लगा, उसने कहाः देखो, तुम्हारे देखने में ही गलती है। उसने फिर राख को कुरेदा, एक छोटे से अंगारे को निकाला, फूंका और जलाया और उसने कहाः देखो, यह अंगारा है और यह उतनी ही आग है जितना सूरज में आग है। यह उतनी ही आग है क्योंकि एक बूंद में पूरा सागर है और अग्नि की एक चिनगारी में सारा सूरज है। ऐसी भूल जैसी तुमने सिगड़ी को खोजने में की, अपने बाबत भी कर रहे हो, राख ही राख अपने को समझ रहे हो, पाप ही पाप अपने को समझ रहे हो। थोड़ा और ठीक से खोजो तो चिनगारी मिल जाएगी जो कि सूरज की है। और इस सिगड़ी की आग तो बुझ भी सकती है, लेकिन मनुष्य के भीतर एक ऐसी आग जल रही है जिसका बुझना असंभव है। कितने ही पाप उसे नहीं बुझा सकते हैं और कितना ही अज्ञान उसे नहीं बुझा सकता। कोई भी रास्ता उसे बुझाने का नहीं है, क्योंकि वह मनुष्य की अंतःसत्ता है, और उसे मिटाने का कोई उपाय नहीं है।
तो मैं आपको कहूं, हरेक के भीतर वह सत्य की अग्नि और वह परमात्मा मौजूद है। उसे अगर जानना है तो जो बाहर से हमने सीख लिया है उस राख को झड़ा देना होगा, तो अंगारा उपलब्ध हो जाएगा। और जब भीतर का अंगारा उपलब्ध होता है तो जीवन एक ज्योति बन जाता है। और जब भीतर की अग्नि उपलब्ध होती है तो जीवन एक प्रेम बन जाता है। और जब भीतर की अग्नि उपलब्ध होती है तो जीवन बिलकुल ही दूसरा जीवन हो जाता है। हम उसी दुनिया में होते हैं लेकिन दूसरे आदमी हो जाते हैं। उन्हीं लोगों के बीच होते हैं लेकिन दूसरे व्यक्ति हो जाते हैं। सारा रुख, सारी पहुंच, सारी समझ, सारी दृष्टि परिवर्तित हो जाती है। और उस नये मनुष्य का जन्म जब तक भीतर न हो जाए तब तक न हमें जीवन का पता होता है, न हमें आनंद का, न सौंदर्य का, न संगीत का। तब तक हम भटकते हैं, जीते नहीं हैं। तब तक हम मूच्र्छित, अर्धनिद्रा में चलते हैं, होश में नहीं होते हैं। तब तक हमारा जीवन एक दुखस्वप्न है, एक नाइटमेयर है, उससे ज्यादा नहीं है। उसके बाद ही हमें पता चलता है कि क्या है जीवन? क्या है धन्यता? क्या है कृतार्थता? और तब जो ग्रेटिट्यूड, तब जो कृतज्ञता का बोध पैदा होता है वह धार्मिक मनुष्य का लक्षण है।
कैसे जो हमारे ऊपर बाहर से इकट्ठा हो गया हम उसे अलग कर दें? कौन सा रास्ता है कि जो हमें सिखाया गया है उसे हम भूल जाएं? कौन सा रास्ता है कि हमारे चित्त पर जो-जो धूल इकट्ठी हो गई हम उसे झाड़ दें और चित्त के दर्पण को स्वच्छ कर लें। रास्ता है। अगर धूल के इकट्ठे होने का रास्ता है तो धूल के अलग होने का रास्ता भी होगा। जिस भांति धूल इकट्ठी होती है अगर हम उसके कारण को समझ लें तो उस कारण पर ही चोट करने से धूल अलग होनी भी शुरू हो जाएगी। धूल कैसे इकट्ठी होती है?
जीवन में धूल इकट्ठे होने के दो कारण हैं। एक तो कारण है, हम होश में नहीं होते हैं। जो भी आता है आ जाने देते हैं। जैसे कोई धर्मशाला हो। आवारा धर्मशाला हो, जिसमें कोई पहरेदार नहीं है। कोई भी आए और ठहरे और कोई भी जाए, कोई रोकने वाला नहीं है, कोई बताने वाला नहीं है, कोई ठहराने वाला नहीं है। हमारे चित्त को हम करीब-करीब ऐसी धर्मशाला, ऐसी सराय बनाए हुए हैं, कोई भी आए और ठहर जाए हमें कोई मतलब नहीं है। कोई कचरा डाल दे हमारे घर में, तो हम नाराज हो जाते हैं और हमारे दिमाग में डाल दे, तो हम धन्यवाद देते हैं कि बहुत अच्छी बातें बताईं। घर में कचरे फेंकने वाले पर हम गुस्सा करते हैं और मस्तिष्क में जो लोग कचरा डालते रहते हैं उन पर हम बिलकुल गुस्सा नहीं करते हैं।
चैबीस घंटे हमारे मस्तिष्क खुले हुए हैं और व्यर्थ के इन प्रशंस को भीतर ले जा रहे हैं। हम भोजन में तो खयाल रखते हैं कि अशुद्ध भीतर न चला जाए, लेकिन मन के भोजन में बिलकुल खयाल नहीं रखते और कुछ भी भीतर चला जा रहा है। सुबह से उठ कर अखबार पढ़ रहे हैं, व्यर्थ की किताबें पढ़ रहे हैं, व्यर्थ की बातें कर रहे हैं, व्यर्थ की बातें सुन रहे हैं। जो कचरा दूसरे हमारे दिमाग में डाल रहे हैं उसका कुछ न कुछ बांट और दान हम दूसरों को भी कर रहे हैं। और सारी दुनिया के मस्तिष्क एक अजीब पागलपन और अजीब कचरे से भर गए हैं और हर आदमी दूसरे के दिमाग में डालता चला जा रहा है। इसके प्रति थोड़ी सजगता की जरूरत है, थोड़े होश की जरूरत है। यह जानने की जरूरत है कि मेरे मस्तिष्क के भीतर व्यर्थ कुछ भी न डाला जाए। अगर इसका होश हो।
मैं अभी यात्रा में था। मेरे साथ एक सज्जन थे, उन्होंने बहुत चाहा कि मुझसे बातचीत करें। लेकिन मुझे बिलकुल चुप देख कर उन्होंने कई उपाय भी किए। मैं हां-हूं करके चुप हो गया। तो वे फिर थोड़ी देर चुप रहे, फिर उपाय किए। उन्हें बहुत बेचैनी थी, उन्हें बहुत परेशानी थी। वे कुछ बोलना चाहते थे। मुझसे उन्हें कोई मतलब न था। उन्हें कुछ निकालना था। जब उनकी बेचैनी बढ़ गई तो मैंने उनसे कहाः अब आप जो कुछ कहना हो, शुरू कर दें। वे थोड़े हैरान हुए क्योंकि कोई बातचीत का सिलसिला नहीं था। मैंने कहाः अब जो भी आपको कुछ कहना हो, शुरू कर दें। वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहाः क्या मतलब आपका? मैंने कहाः आप देखें, छिपाएं न। आपके भीतर कोई चीज उबल रही है और आप मेरे ऊपर फेंकना ही चाहते हैं, फेंकें। आपको बिना उसे फेंके राहत नहीं मिलेगी। मैं सुनूंगा, मजबूरी है आपके साथ हूं। वे कुछ हैरान हुए और मुझसे बोले, आपका मतलब क्या है? मैंने कहाःचैबीस घंटे हम फेंक रहे हैं एक-दूसरे पर। न तो फेंकने वाले को होश है कि फेंक रहा है, न लेने वाले को होश है कि वह ले रहा है। इसलिए मस्तिष्क धीरे-धीरे क्षुद्र से क्षुद्र बातों से भरता चला जाता है। उसमें विराट के जन्म की संभावना क्षीण हो जाती है।
मन जितना खाली और शांत और शून्य होगा उतना ही विराट के अवतरण की संभावना पैदा होती है। नहीं तो विराट अवतरित नहीं होता और न विराट का भीतर से आविर्भाव होता है। देखें, यह दुनिया जो है, यह हमारी दुनिया जो है, यह जो बीसवीं सदी जो है, अगर कोई चीज इस सदी के ऊपर लादी जा सकती है तो यह व्यर्थ विचारों की सदी है। इतने व्यर्थ विचार दुनिया में कभी नहीं थे। एक जमाना था, अजीब लोग थे।
मैंने सुना है कि लाओत्सु चीन में एक बहुत बड़ा अदभुत, अदभुत विचारक और अदभुत द्रष्टा हुआ है। वह रोज सुबह अपने एक मित्र के साथ घूमने जाता था। यह वर्षों क्रम चला। कहा जाता है कि जब रास्ते में वे दोनों जाते तो इतनी सी उनकी बातचीत होती थी, उसका मित्र आता और कहता, नमस्कार। कोई आधा घंटे बाद लाओत्सु कहता, नमस्कार। दोनों जब घूमने जाते तो उसका मित्र कहता, नमस्कार। उसके कोई आधा घंटे बाद लाओत्सु कहता, नमस्कार। यह कुल बातचीत थी। एक दिन एक मेहमान उसके मित्र के घर आया, वह उसको भी घुमाने ले आया। घूमने के बाद सांझ को जब मित्र मिला, लाओत्सु ने कहाः देखो, उस आदमी को वापस कल मत ले आना, बहुत बातचीत करने वाला मालूम होता है। उस आदमी ने क्या बातचीत की थी? उसने घंटे, डेढ़ घंटे के घूमने में यह कहा था, आज की सुबह बहुत सुंदर है। लाओत्सु ने कहाः उस आदमी को साथ मत ले आना। बहुत बकवासी मालूम होता है। और उसने बात इतनी की थी डेढ़, दो घंटे के घूमने में कि आज की सुबह बड़ी सुंदर मालूम होती है। ऐसे लोग थे। ऐसे लोगों को अगर सत्य का अनुभव हुआ हो तो आश्चर्य नहीं है। और हम जैसे लोग हैं अगर हमें सत्य का अनुभव न होता हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं है।
महावीर बारह वर्षों तक मौन थे। क्राइस्ट बहुत दिनों तक मौन थे। मोहम्मद पहाड़ पर जाकर बहुत दिनों तक चुप थे। दुनिया से मौन खत्म हो गया है। हम चुप रहना भूल गए हैं। और जो मनुष्य चुप रहना और मौन रहना भूल जाएगा, उसके जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह नष्ट हो जाएगा। क्योंकि श्रेष्ठ का जन्म ही मौन में होता है। सौंदर्य का और सत्य का अवतरण मौन में होता है। इसलिए स्मरण रखें कि व्यर्थ के विचारों के प्रति सचेत हों, न तो दूसरों से लें और कृपा करें, न दूसरों को दें। सचेत जितने आप होंगे उतने ही क्रमशः आपको बोध होने लगेगा, ये व्यर्थ के विचार आ रहे हैं, इन्हें नमस्कार कर लें। इन्हें भीतर ले जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। इनसे कहें कि कृपा करें और बाहर ठहरें।
अगर परिपूर्ण होश और बोध हो और चैबीस घंटे यह बोध बना रहे तो आप थोड़े ही दिनों में व्यर्थ विचार के आगमन से मुक्त हो जाएंगे। और जब व्यर्थ विचार का आश्रव या आगमन बंद हो जाए तो भीतर बड़ी घनीभूत शांति उत्पन्न होगी। लेकिन कुछ विचार आपने पिछले जीवन में, और-और पिछले जन्मों में इकट्ठे कर लिए हैं, वे इससे बंद नहीं होंगे, वे तो भीतर घूमते ही रहेंगे। उनके लिए कुछ और करना होगा। बाहर से नये विचारों का आगमन, व्यर्थ के विचारों का भीतर संग्रह न हो, इसके लिए सचेत होना पड़ेगा। होश रखना पड़ेगा, सजग होना होगा, पहरेदार बनना होगा और भीतर जो विचार इकट्ठे हो गए हैं उनसे तादात्म्य तोड़ना होगा अपना।
हमारे भीतर जो भी विचार चलते हैं हम उनके साथ एक तरह की आइडेंटिटी, एक तरह का तादात्म्य कर लेते हैं। अगर भीतर आपके क्रोध आए तो आप कहते हैं मुझे क्रोध आ गया। यह तो भूल की बात है, यह तो झूठी बात है। आपको कहना चाहिए मुझ पर क्रोध आ गया। भीतर आपके कोई विचार आएं तो आपको यह नहीं कहना चाहिए कि मैं ऐसा विचार कर रहा हूं, आपको कहना चाहिए, मेरे सामने इस तरह के विचार घूम रहे हैं। वह मैं को जरा अलग करिए। वह जो भीतर विचारों की और भावनाओं की दौड़ है उससे अपने मैं को अलग करिए। वह अलग है। वह सदा द्रष्टा मात्र है। भीतर जो विचारों का प्रवाह घनीभूत है, इकट्ठे हैं, वे आपके पूरे अचेतन में भरे हैं, आपका पूरा अनकांशस उनसे भरा हुआ है। उनके प्रति सचेत हो जाइए और उनके साथ अपनी आइडेंटिटी, अपना संबंध तोड़ लीजिए और समझिए कि आप अलग हैं और वे अलग हैं। और उनको देखिए, उनके द्रष्टा और साक्षी बनिए। जब वे आएं तो चुपचाप अलग खड़े हो जाइए और देखिए। जैसे कोई रास्ते पर जाती हुई भीड़ को देखता हो, या कोई आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखता हो, या कोई रात में उग गए तारों को देखता हो, या जैसे कोई फिल्म के पर्दे पर चलती हुई तस्वीरों को देखता हो, ऐसा उनको देखिए और अपने को दूर कर लीजिए। आप केवल देखने वाले रह जाएं और आपके सारे विचार अलग हो जाएं, तो आप हैरान होंगे, जैसे-जैसे विचारों के साथ संबंध क्षीण होगा, जैसे-जैसे विचारों की पृथकता स्पष्ट होगी, वैसे-वैसे विचार भीतर भी मरने शुरू हो जाते हैं। बाहर के विचारों का आगमन बंद हो; भीतर के विचार क्रमशः मृत हो जाएं, एक घड़ी, एक बिंदु पर आप पाएंगे कि आप परिपूर्ण शून्य में खड़े हैं और जिस क्षण आपको शून्य उपलब्ध होगा उसी क्षण आप पूर्ण को अनुभव कर लेंगे। उसी क्षण सत्य का आविर्भाव हो जाएगा। उसी क्षण आप जानेंगे, परमात्मा क्या है? फिर शास्त्रों की जरूरत न होगी। शास्त्रों में जो लिखा है वह सामने आ जाएगा; शास्त्रों में जो कहा है वह प्रत्यक्ष हो जाएगा। महावीर और बुद्ध को जो अनुभव हुआ होगा, वह आपको अनुभव हो जाएगा।
प्रत्येक आदमी हक रखता है। प्रत्येक का अधिकार है उसे अनुभव कर ले। हम अपने हाथ से खोए हुए हैं। अगर हम थोड़े सजग हों, थोड़े जागरूक हों, थोड़े प्रयत्नशील हों, थोड़ी साधना में लगें तो निश्चित ही हम भी उन्हीं सत्यों को, उन्हीं अनुभूतियों को पा सकते हैं जो किसी भी मनुष्य ने कभी भी पाई हों। जो एक बीज हो सकता है वह हरेक बीज हो सकता है और जो एक मनुष्य में संभव हुआ वह हर मनुष्य में संभव हो सकता है। लेकिन विचार बाधा है। व्यर्थ विचारणा बाधा है। सीखी हुई शिक्षा और संस्कार बाधा हैं। उन्हें अलग कर देना होगा और निर्दोष होना होगा और शांत और शून्य और मौन होना होगा। अगर यह हो सके तो आपके भीतर एक अभिनव सौंदर्य का जन्म होगा। एक अभिनव सत्य का संचरण होगा। कोई आपके भीतर एक नई शक्ति और एक नई ऊर्जा अनुभव में आएगी और वह आपका जीवन बन जाएगी। वह आपका सब कुछ बन जाएगी। वह संपत्ति होगी जो मृत्यु के पार जाती है और जिसे कोई भी नहीं मिटा पाता।
और स्मरण रखें, जो मृत्यु के पार जाती है वही जीवन है क्योंकि जीवन अकेला है जिसकी मृत्यु नहीं हो सकती। आपके पास अभी जीवन नहीं है क्योंकि सत्य नहीं है; आपके पास सत्य नहीं है क्योंकि आप शांत और शून्य नहीं हैं। आप शांत और शून्य नहीं हैं क्योंकि आप अपने मन को न तो बाहर से रोक रख रहे हैं कि उसमें कुछ भी भर जाए और न भीतर चलते हुए विचारों से अपने तादात्म्य को तोड़ रहे हैं। अगर ठीक से कोई कारण को समझे; अगर ठीक से पूरे का.ॅजल चेन को समझे कि क्या है जो हमारे मस्तिष्क को बांधता और ग्रसित करता और जमीन पर रखता है और उठने नहीं देता? कौन सी जंजीरें हैं जो हमें बांध लेती हैं संसार के तट पर और सत्य तक नहीं जाने देतीं? तो निश्चित ही उसे कारण दिखाई पड़ जाएंगे। और जिसे कारण दिखाई पड़ जाएं, अगर वह संकल्प करे, उन कारणों के विरोध में चले, तो निश्चित ही वहां पहुंच सकता है जहां पहुंचना जीवन का लक्ष्य है।
शास्त्र जहां नहीं ले जा सकेंगे वहां स्वयं का सत्य ले जाएगा और जब स्वयं का सत्य उपलब्ध होगा तो सब शास्त्र सत्य हो जाएंगे। और जब स्वयं के भीतर अनुभूति जगेगी तो सारे तीर्थंकर और सारे पैगंबर और सारे अवतार और सारे ईश्वर-पुत्र उस अनुभूति में प्रामाणिक हो जाएंगे और तब दिखाई पड़ेगा जो उन्होंने कहा है वह सत्य है। और तब यह नहीं दिखाई पड़ेगा कि क्राइस्ट ने जो कहा है वह सत्य है और महावीर ने जो कहा है वह गलत है। तब यह नहीं दिखाई पड़ेगा कि मोहम्मद ने जो कहा है वह सत्य है और राम ने जो कहा है वह गलत है। जब तक ऐसा दिखाई पड़े तब तक समझना कि शास्त्र बोल रहे हैं, सत्य नहीं बोल रहा है। तब दिखाई पड़ेगा कि महावीर ने जो कहा है, मोहम्मद ने जो कहा है, बुद्ध ने जो कहा है, क्राइस्ट ने, कनफ्यूशियस ने जो कहा है, रामकृष्ण ने जो कहा है, वह सब सत्य है और वह सत्य एक ही है।
जब सत्य उपलब्ध होगा तो सब शास्त्र सत्य हो जाएंगे और जब तक सत्य उपलब्ध नहीं तब तक एक शास्त्र सत्य होगा और शेष शास्त्र असत्य होंगे। और जब तक आपको ऐसा दिखता रहे कि मैं हिंदू हूं तब तक जानना अभी आप धार्मिक नहीं हुए। और जब तक आपको लगता रहे कि मैं जैन हूं तब तक समझना अभी धार्मिक नहीं हुए। क्योंकि धर्म तो एक है। जब सत्य उपलब्ध होगा तो आप सिर्फ धार्मिक होंगे। उस पर कोई विशेषण, कोई शास्त्रीय विशेषण नहीं रह जाता है।
ईश्वर करे, ऐसे सत्य में आपको जगाए जो सबका है। ऐसे सत्य में आपको जगाए जो आपके भीतर मौजूद है लेकिन आप उसकी तरफ आंख फेरे हुए हैं। ईश्वर ऐसी प्यास दे, ऐसा असंतोष दे, यह कामना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम, इतनी शांति से सुना है, उससे बहुत अनुगृहीत हूं, बहुत आनंदित हूं। और अंत में अपना धन्यवाद करता हूं और प्रणाम करता हूं सबके भीतर बैठे परमात्मा को। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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