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गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

आठो पहर यूं झूमिये-(प्रवचन-04)

आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-चौथा 

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं सोचता था किस संबंध में आपसे बात करूं, यह स्मरण आया कि आपके संबंध में ही थोड़ी सी बातें कर लेना उपयोग का होगा। परमात्मा के संबंध में बहुत बातें हमने सुनी हैं और आत्मा के संबंध में भी बहुत विचार जाने हैं। लेकिन उनका कोई भी मूल्य नहीं है। अगर हम उस स्थिति को न समझ पाएं जिसमें कि हम मौजूदा होते हैं। आज जैसी मनुष्य की दशा है, जैसी जड़ता और जैसा मरा हुआ आज मनुष्य हो गया है, ऐसे मनुष्य का कोई संबंध परमात्मा से या आत्मा से नहीं हो सकता है।
परमात्मा से संबंध की पहली शर्त है, प्राथमिक सीढ़ी है कि हम अपने भीतर से सारी जड़ता को दूर कर दें। और जो-जो तत्व हमें जड़ बनाते हों, उनसे मुक्त हो जाएं। और जो-जो अनुभूतियां हमें ज्यादा चैतन्य बनाती हों, उनके करीब पहुंच जाएं।


यह हम सुनते हैं कि मनुष्य के भीतर आत्मा है। लेकिन जैसे हम मनुष्य हैं अगर हम विचार करेंगे तो हमारे भीतर शायद मुश्किल से एक प्रतिशत आत्मा होगी और निन्यानबे प्रतिशत शरीर। जब तक आत्मा सौ प्रतिशत न हो जाए तब तक कोई व्यक्ति सत्य को अनुभव नहीं कर सकता। शरीर से मेरा अर्थः आपका जो दिखाई पड़ रहा रूप है उतना ही नहीं है बल्कि जिन-जिन बातों में आपकी चेतना क्रमशः जड़ हो जाती है वहीं-वहीं आप शरीर हो जाते हैं।

हमें जो भी सिखाया जाता है और जैसा हमारा जीवन है, वह धीरे-धीरे हमें मनुष्य कम और मशीन ज्यादा बना देता है। हम क्रमशः मशीन होते जाते हैं। और जो आदमी जितनी अच्छी मशीन हो जाता है उतना ही दुनिया में सफल और कुशल समझा जाता है। असल में जो आदमी जितना मर जाता है उतना ही यह जगत उसे सफल मानता है।
इसलिए पहली बात आपसे कहना चाहूंगा कि अपने भीतर यह अनुभव करें कि आप कहीं मशीन तो नहीं हो गए हैं? एक आदमी चालीस वर्ष तक रोज अपने सुबह उठ कर दफ्तर जाता है, ठीक वक्त पर खाना खा लेता है, ठीक बातें जो उसने याद कर ली हैं बोल देता है, ठीक समय पर सो जाता है--सुबह से लेकर दूसरे दिन की सुबह तक उसकी क्रियाओं में सारा का सारा यांत्रिक है। धीरे-धीरे वह आदमी जड़ हो जाता है। उसके भीतर चैतन्य का सारा आविर्भाव बंद हो जाता है। और जो आदमी इस जड़ता को जितनी तीव्रता से पकड़ लेता है, हम कहते हैं, वह आदमी उतना कुशल है, उसकी उतनी ज्यादा योग्यता है। और यह सच है कि मशीन हमेशा मनुष्य से ज्यादा योग्य होती है क्योंकि मशीन कोई भूल-चूक नहीं करती है और मशीन ठीक समय पर काम करती है और अपने समय पर बंद होती है।
इस जगत का जैसा विकास हुआ है वह क्रमशः इस भांति हुआ है कि हम मनुष्य की जगह मशीन को ज्यादा आदर देने लगे हैं और क्रमशः मनुष्य भी धीरे-धीरे मशीन होता जाता है। जो आदमी जितना ज्यादा मेकेनिकल, जितना ज्यादा यांत्रिक हो जाएगा उतनी ही उसके भीतर की आत्मा सिकुड़ जाती है। उसके प्रकटीकरण के रास्ते बंद हो जाते हैं। हम अपने को देखेंगे तो हम पाएंगे, हम करीब-करीब एक मशीन की भांति हैं जो रोज वही के वही काम कर लेती है। और हम इन कामों को दोहराते चले जाते हैं और एक दिन हम पाते हैं, आदमी मर गया। मृत्यु इसी यांत्रिकता का अंतिम चरण है। हम धीरे-धीरे जड़ होते जाते हैं। एक छोटा बच्चा जितना चैतन्य होता है, एक बूढ़ा उतना चैतन्य नहीं होता। इसलिए क्राइस्ट ने कहा हैः जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे परमात्मा के राज्य को अनुभव कर सकते हैं। इसका कोई यह अर्थ नहीं कि जिनकी उम्र कम होगी। इसका यह अर्थ है कि जिनके भीतर स्फूर्णा, जिनके भीतर सहज चेतना जितनी ज्यादा होगी, वे उतने जल्दी परमात्मा के करीब पहुंच सकते हैं। वे उतने जल्दी सत्य को अनुभव कर सकते हैं।
जैसा विगत दो हजार, ढाई हजार वर्षों में मनुष्य का विकास होता रहा है, यह संभावना कम होती गई है। हमारी सहजता, वह जो भी स्पांटेनियस है, वह हमारे भीतर कम होता गया है और हमारी जड़ता बढ़ती गई है। जीवन जैसा है उसमें शायद जड़ता को बढ़ा लेना उपयोगी होता है। एक आदमी सेना में भर्ती हो जाए, अगर वह चेतन हो, तो सेना उसे इनकार कर देगी। वह जितना जड़ हो, उतना ही अच्छा सैनिक हो सकेगा। जड़ होने का अर्थ हैः उसके भीतर अपनी कोई स्वतंत्र बुद्धि न रह जाए, उसे जो आज्ञा दी जाए वह उसे पूरा का पूरा पालन कर ले, उसमें जरा भी यहां-वहां उसके भीतर कोई कंपन चेतन का नहीं होना चाहिए। इसलिए सैनिक धीरे-धीरे जड़ होता जाता है और जितना जड़ हो जाता है उतना ही हम कहते हैं वह योग्य सैनिक है। क्योंकि जब हम उससे कहते हैं, आदमी को गोली मारो, तो उसके भीतर कोई विचार नहीं उठता, वह गोली मारता है।और जब हम कहते हैं, बाएं घूम जाओ, तो बाएं घूम जाता है, उसके भीतर कोई विचार नहीं उठता। डिसिप्लिन पूरी हो गई और आदमी मर गया। आज्ञा पूरी होने लगी और आदमी भीतर समाप्त हो गया। इसलिए दुनिया में जितने सैनिक बढ़ते जाएंगे, उतना धर्म शून्य और क्षीण होता जाएगा। क्योंकि वे सब के सब इतने अनुशासित होंगे कि उनके भीतर चेतना का कोई प्रवाह नहीं हो सकता। इसलिए मैं सेनाओं के विरोध में हूं, इसलिए कि नहीं वे हिंसा करती हैं बल्कि इसलिए कि इसके पहले कि कोई आदमी हिंसा में समर्थ हो सके, वह जड़ हो जाता है। और दुनिया में जितनी सेनाएं बढ़ती जाएंगी, उतने लोग जड़ होते जाएंगे। और अब तो सारी दुनिया करीब-करीब एक सैनिक कैंप में परिणित होती जा रही है। अब तो हम अपने बच्चों को भी कालेजों में, स्कूलों में सेना की शिक्षा देंगे। और हमें याद नहीं है कि हम जिस आदमी को भी सेना की शिक्षा दे रहे हैं, हम उसे इस बात की शिक्षा दे रहे हैं कि उसके भीतर चेतना क्षीण हो जाए, वह एक मशीन हो जाए, उससे जो कहा जाए, वही वह करे। उसके भीतर अपनी कोई स्वतंत्र विचारणा न रह जाए। अगर यह दुनिया में हुआ तो दुनिया में धर्म विलीन हो जाएगा।
आप सोचते हों कि नास्तिक दुनिया में से धर्म को विलीन कर रहे हैं, तो आप गलती में हैं। दुनिया में धर्म उन-उन बातों से विलीन हो रहा है, जिन-जिन बातों से हम जड़ होते जाते हैं। जिन-जिन बातों से हमारी चेतना क्षीण होती जाती है। हम जितने ज्यादा अनुशासित हो जाएंगे, जितने ज्यादा डिसिप्लिनड हो जाएंगे, जितनी ज्यादा हम आज्ञाओं के अनुकूल चलने लगेंगे, उतने ही ज्यादा हमारे भीतर मृत्यु की घटना घट जाएगी।
विलियमजेम्स ने एक उल्लेख किया है। उसने लिखा हैः एक आदमी सेना से संघातक चोट लगने के कारण मुक्त हो गया। एक दिन सुबह गांव के बाजार से कुछ सामान लिए सिर पर से लौटता था। विलियमजेम्स अपने किसी मित्र से कह रहा था कि लोग सेना में बिलकुल जड़ हो जाते हैं, यह आदमी जा रहा है यह बिलकुल जड़ है। उसके मित्र ने कहाः इसका प्रमाण क्या है? विलियमजेम्स ने कहाः तुम जोर से कहो, अटेंशन, और वह अपने सामान को छोड़ देगा और अटेंशन खड़ा हो जाएगा। उसने कहा, यह तो मुझे संभव नहीं मालूम होता। लेकिन यह प्रयोग किया गया। जोर से उस होटल में बैठे हुए उसके मित्र ने चिल्ला कर कहा, अटेंशन। वह आदमी अपने सिर पर सामान रखा हुआ था, उसके हाथ छूट गए--उसे सेना से मुक्त हुए दो साल हो गए थे--उसका सामान गिर गया, वह अटेंशन खड़ा हो गया। तब उसे खयाल आया कि मैंने यह क्या किया? जेम्स ने कहा, यह आदमी जड़ हो गया है। इसके भीतर अब कुछ भी नहीं है जो चेतन है, जो विचार करता हो, जिसमें बोध हो।
सेनाएं दुनिया को जड़ बनाए दे रही हैं। जितनी ज्यादा टेक्नालाॅजिकल, जितनी ज्यादा यांत्रिक व्यवस्था विकसित हो रही है, यंत्रों के साथ प्रतियोगिता करने के लिए मनुष्य को भी यंत्र हो जाना पड़ेगा। उसे भी ऐसी आदतें बना लेनी होंगी जहां कि उसे सोचने का कम से कम मौका रह जाए। जो आदमी जितना ज्यादा सोचता है उतना ही असफल हो जाएगा। जो आदमी बिलकुल नहीं सोचता और चले जाता है, वह हमें दुनिया में सफल दिखाई पड़ेगा। दुकानें और दफ्तर और हमारे काम और हमारी मशीनें और औद्योगिक विकास मनुष्य को धीरे-धीरे जड़ किए दे रहा है। अगर आपके मन में कोई भी धार्मिक होने की उत्सुकता है, तो इस जड़ता के बाहर जाना एकदम जरूरी है। जो इस भांति जड़ हो जाएगा, उसके भीतर चेतना की लौ बुझ जाएगी। फिर आप कितना ही मंदिर जाएं और कितनी ही प्रार्थनाएं-पूजाएं करें, वह सब व्यर्थ हैं। और सच तो यह है कि व्यवसायियों ने उनको भी जड़ता का रूप दे दिया है। एक आदमी रोज बैठ कर पंद्रह मिनट या आधा घंटा एक मंत्र को दोहरा लेता है, वह भी एक जड़ता है, वह भी एक मेकेनिकलरिपीटीशन है। वह रोज-रोज वैसा ही दोहराता रहेगा। पूरे जीवन दोहराता रहेगा। जिस दिन नहीं दोहराएगा, उस दिन उसको जरा अड़चन लगेगी, वह कहेगा, आज जरा तकलीफ मालूम होती है, आज मैंने सुबह अपना मंत्र नहीं पढ़ा, आज सुबह मैंने गायत्री या नमोकार नहीं पढ़ा, आज मैंने सुबह की नमाज नहीं की है तो मुझे कुछ बेचैनी मालूम होती है। यह बेचैनी कोई अच्छी बात नहीं है। यह इस बात की सूचना है कि तुम एक आदत के ऐसे जड़ीभूत हो गए हो कि उस आदत को छोड़ने की तुम्हारी हिम्मत नहीं है। यह आदत, एक आदमी सिगरेट पीता है, शराब पीता है, और नहीं उसे सिगरेट मिले, नहीं शराब मिले, तो जैसी बेचैनी होती है उससे भिन्न नहीं है। यह वैसी की वैसी आदत है।
आदतें मनुष्य की चेतना को दबा देती हैं। जिस मनुष्य को आत्मा को उपलब्ध करना हो, उसकी उतनी ही कम आदतें होनी चाहिए, उसके उतने ही कम बंधान होने चाहिए, उसमें उतनी ही कम जड़ता होनी चाहिए। रात जो मैंने कहा, संवेदना का क्या अर्थ है? सेंसेटिव होने का क्या अर्थ है? मेरा प्रयोजन यह था, जितनी कम जड़ता हो उतनी ज्यादा मनुष्य के भीतर संवेदन की शक्ति जाग्रत होगी और जितनी ज्यादा जड़ता हो, उतनी संवेदन की शक्ति शून्य हो जाती है। और संवेदन की शक्ति जितनी गहरी हो, हम सत्य को उतनी ही गहराई तक अनुभव कर पाएंगे और संवेदन की शक्ति जितनी क्षीण हो जाएगी, उतना ही हम सत्य से दूर हो जाएंगे।
तो मैं आपको कहूंगा, जो धार्मिक हैं, वे स्मरण रखें कि धर्म उनकी आदत न बन जाए। कहीं धर्म भी उनकी एक जड़ आदत न बन जाए कि वे सुबह रोज मंदिर जाएं, नियत समय पर मंदिर जाएं, एक नियत मंत्र पढ़ें, एक नियत देवता के सामने हाथ झुकाएं, यह कहीं उनकी जड़ आदत न हो। और सच यह है कि सौ में निन्यानबे मौके पर यह एक जड़ आदत है और यह आदत बेहतर नहीं है और यह आदत ठीक नहीं है। फिर यह भी स्मरण रखें कि आपने दूसरों की आज्ञाएं स्वीकार कर ली हैं और आप उनके अनुकूल वर्तन कर रहे हैं, उनके अनुकूल आचरण कर रहे हैं, यह भी जड़ता का अंगीकार कर लेना है। जब भी मैं कोई आज्ञा दूं और आप स्वीकार कर लें तो आपकी चेतना भीतर क्षीण हो जाती है।
जब भी दूसरा कुछ कहे और आप स्वीकार कर लें, आपके भीतर की चेतना जड़ होने लगती है। समाज कहता है, संस्कार कहते हैं, पुरोहित कहते हैं, हजारों वर्षों की उनकी परंपरा है उसके वजन पर कहते हैं। उद्धरण करते हैं शास्त्रों का, दबाव डालते हैं कि यह ठीक है और हम उसे मान लेते हैं और उसे स्वीकार कर लेते हैं। धीरे-धीरे हम स्वीकार मात्र पर टिके रह जाएंगे और हमारे भीतर जो स्फुरण होना चाहिए था जीवन का वह बंद हो जाएगा। जीवन के स्फुरण के लिए जरूरी है कि व्यक्ति आज्ञाओं के पीछे नहीं बल्कि स्वयं के विवेक के पीछे चले। और जीवन के स्फुरण के लिए जरूरी है कि जो-जो चीजें जड़ करती हों, व्यक्ति उनसे अपने को मुक्त कर ले। स्वाभाविक यह प्रश्न उठेगा। तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि अगर मैं एक दफ्तर में चालीस वर्षों तक काम करने जाता हूं, तो मैं उस दफ्तर को छोड़ दूं, उस दुकान को छोड़ दूं, उस घर को छोड़ दूं, इसका तो यह अर्थ होगा और यह अर्थ बहुत लोगों ने लिया है।
दुनिया में जो संन्यासी होते रहे हैं, समाज को, घर को, द्वार को छोड़ कर वे इसीलिए होते रहे हैं कि उन्हें यह लगा कि यह सब तो जड़ किए दे रहा है, इसलिए उसको छोड़ दो। लेकिन वे एक जड़ता को छोड़ते हैं और दूसरी जड़ता को पकड़ लेते हैं। इससे कोई बहुत भेद नहीं पड़ता। संसार को छोड़ कर भागते हैं और संन्यास में जाते हैं और संन्यास उन्हें और भी जड़ कर देता है। मेरा अपना देखना यह है कि मैंने अभी कोई संन्यासी ऐसा नहीं देखा जिसकी संवेदना की शक्ति गृहस्थ की संवेदना शक्ति से ज्यादा हो, कम है। वह और भी जड़ हो गया है। उसके अनुभव करने की सीमाएं और संकुचित हो गई हैं। उसने और इतना दमन किया है और एक पैटर्न पर, एक ढांचे पर अपने जीवन को ढाला है कि उसके भीतर तो और भी चेतना के विकास की संभावना कम हो गई है।
जो संसार से भाग कर संन्यासी होगा, वह एक जड़ता से दूसरी जड़ता में गिर जाएगा। इससे कोई बहुत भेद नहीं पड़ता। इसलिए सवाल संसार से भागने का नहीं है, दफ्तर से भागने का नहीं है, घर से भागने का नहीं है, सवाल यह है कि जो भी आप कर रहे हैं, वह तो करना होगा, लेकिन यह स्मरण रखने का है कि वह आपके भीतर जड़ता न लाए। और यह हो सकता है। आप जहां हैं वहीं रहते हुए यह हो सकता है कि आपके भीतर जड़ता पैदा न हो और आपके भीतर संवेदना की शक्ति तीव्र हो, चेतना की ज्योति जले। यह कैसे होगा? इसके होने के कुछ नियम हैं, और वे नियम ही धर्म के मूल नियम हैं, वे नियम ही योग की मूल शर्तें हैं।
सबसे पहला नियम तो यह है कि जिस व्यक्ति को सत्य को जानना हो, वह पलायन की प्रवृत्ति छोड़ दे, एस्केप की प्रवृत्ति छोड़ दे कि यहां तकलीफ है इसलिए यहां से भाग जाऊं। इससे कोई बहुत भेद नहीं पड़ता। आप जहां जाएंगे वहां तकलीफ शुरू हो जाएगी। क्योंकि आप जैसे आदमी हैं वही का वही आदमी दूसरी जगह पहुंच जाएगा।
मैंने सुना है, एक गांव में, सुबह ही सुबह, सर्दी के दिन थे और गांव का परकोटा था, एक बूढ़ा आदमी गांव के बाहर बैठा था। दूसरे गांव से आते हुए एक राहगीर ने उससे पूछा कि क्या मैं यह पूछ सकता हूं कि इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं यहां बसने का इरादा करता हूं।
उस बूढ़े आदमी ने कहाः मैं यह बताऊंगा जरूर कि इस गांव के लोग कैसे हैं, लेकिन मैं पहले यह पूछ लूं कि तुम जिस गांव में बसते थे, वहां के लोग कैसे थे? उसके बाद ही कुछ ठीक-ठीक बताना संभव हो सकता है।
वह आदमी हैरान हुआ। उसने कहाः इससे क्या संबंध है कि उस गांव के लोग कैसे थे?
उस बूढ़े ने कहाः फिर भी मैं पूछ लूं। जीवन भर का अनुभव मेरा यह कहता है कि पहले मैं यह पूछ लूं कि उस गांव के लोग कैसे थे?
उसने कहाः उस गांव के लोगों का नाम भी मत लो। उन्हीं दुष्टों के कारण तो मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा है।
उस बूढ़े ने कहाः फिर और कोई गांव खोजो, इस गांव के लोग बहुत बुरे हैं, बहुत दुष्ट हैं और यहां रहने से कोई सार नहीं होगा।
और उस बूढ़े आदमी ने ठीक ही कहा। और उस आदमी के जाने के बाद ही एक दूसरा आदमीआया और उसने पूछा कि मैं इस गांव में बसना चाहता हूं, यहां के लोग कैसे हैं? उसने फिर वही कहा कि पहले मैं यह पूछ लूं कि उस गांव के लोग कैसे थे जहां से तुम आते हो? उस आदमी ने कहाः उनका नाम ही मुझे आनंद से भर देता है, उतने बेहतर लोग मैंने कहीं देखे नहीं। वह बूढ़ा बोलाः आओ, स्वागत है, बसो, इस गांव में तुम्हें उस गांव से भी बेहतर लोग मिल जाएंगे।
हम जो हैं, हम सदा अपने को अपने साथ ही ले जाते हैं। तो जो आदमी गृहस्थी में दुखी और पीड़ित और परेशान था, वह संन्यासी होकर कभी आनंदित नहीं हो सकता। क्योंकि वह आदमी तो वही का वह है। कपड़े बदलने से क्या होगा? मकान बदलने से क्या होगा? जो आदमी दुकान पर परेशान और पीड़ित है वह मंदिर में जाकर आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि वह आदमी तो वही का वह है। दुकान थोड़े ही परेशान कर रही है, मकान थोड़े ही परेशान कर रहा है, मंदिर थोड़े ही आनंद देगा। वह आदमी जैसा है अपने साथ ही ले जाएगा। यह बड़े आश्चर्य की बात है, अपने से भागना संभव नहीं होता। कोई आदमी अपने से नहीं भाग सकता। आप सारी दुनिया को छोड़ कर भाग जाएं, लेकिन आप तो अपने साथ होंगे। और आप जैसे आदमी हैं ठीक वैसी दुनिया जहां आप होंगे फिर आप पैदा कर लेंगे। इसलिए जब गृहस्थ भाग कर संन्यासी हो जाते हैं, तो वे नई गृहस्थियां बसाने लगते हैं--शिष्यों की, शिष्याओं की नई दुनिया बसनी शुरू हो जाती है। जब वे घर को छोड़ कर भाग जाते हैं, तो आश्रम बसाने लगते हैं। इधर का राग छोड़ते हैं, तो वहां नया राग पैदा कर लेते हैं। इधर एक तरफ से जो छोड़ कर गए हैं, नई शक्लों में वही का वही फिर से खड़ा हो जाता है। और यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कोई अस्वाभाविकता नहीं है, क्योंकि आदमी वे वही के वही हैं जो कि घर थे, जो कि दुकान में थे। इसलिए जब कोई आदमी दुकान को छोड़ कर संन्यासी होता है, तो वह धर्म की नई दुकानें शुरू कर देता है। और दुनिया में जो धर्म की नई दुकानें शुरू हुई हैं, वे उन दुकानदारों के कारण हुई हैं जो कि दुकानदार थे और संन्यासी हो गए। उनकी बुद्धि, उनके सोचने के ढंग, उनके गणित और हिसाब वही के वही हैं। उनकी वृत्ति, उनकी पकड़, उनकी एप्रोच वही की वही है, वे वही के वही आदमी हैं। और इसलिए जितने ज्यादा दुकानदार संन्यासी होते जाते हैं उतना ज्यादा संन्यास दुकानदारी में परिणित होता जाता है।
दुनिया को संन्यासियों की जरूरत नहीं है। दुनिया में संन्यास की जरूरत है; संन्यासियों की कोई जरूरत नहीं है। मैं आपसे कहूं, दुनिया में संन्यास की जरूरत है, संन्यासियों की कोई जरूरत नहीं है। दुनिया में संन्यास जितना ज्यादा होगा, दुनिया उतनी ही बेहतर होगी और दुनिया में संन्यासी जितने ज्यादा होंगे, दुनिया उतनी मुश्किल में पड़ती जाएगी। यह कल्पना करिए कि सारे लोग संन्यासी हो गए, इस दुनिया का क्या होगा? यह स्थिति कैसी बदतर हो जाएगी? लेकिन यह कल्पना करिए कि दुनिया में संन्यास बढ़ता जाता है, तो यह दुनिया बहुत बेहतर हो जाएगी।
तो मैं आपको नहीं कहता कि पलायन करें, लेकिन हमारी प्रवृत्ति हमेशा पलायन करने की होती है। जहां हमें तकलीफ दिखाई पड़ती है, हम सोचते हैं, इस स्थान को बदल दें, हम इस जगह को छोड़ दें। लेकिन हमेशा खयाल रखें, स्थान कभी तकलीफ नहीं देता, आपकी भीतर की स्थिति तकलीफ देती है। इसलिए स्थान को बदलने को जो सोचता है, वह पागल है और जो स्थिति बदलने को सोचता है, उसमें कोई समझ का अंकुरण शुरू हुआ। इसलिए मैं कहता हूंः पलायन नहीं, परिवर्तन। भागें मत जहां से हैं, अपने को बदलें। और जहां आप हैं उससे बेहतर स्थिति आपको दुनिया में कहीं भी नहीं मिलेगी, जब तक कि आप बेहतर आदमी न हो जाएं। और जब आप बेहतर आदमी हो जाएंगे, तो जहां आप हैं वहीं बेहतर स्थिति है।
एक विदेशी यात्री पूरब के मुल्कों में यात्रा को आया और उसने सोचा कि मैं देखूं और समझूं कि योग क्या है। उसने भारत के और तिब्बत के और जापान के और दूर-दूर के पूर्वी मुल्कों के जाकर आश्रम देखे। फिर वह बर्मा गया और वहां लोगों ने तारीफ की कि एक आश्रम यहां भी है, उसे भी देखो। उसने जो आश्रम भारत में देखे थे, वे पहाड़ों पर थे, रम्य झीलों के किनारे थे, सुंदर उपवन थे, वहां थे। भारत में जो संन्यासी देखे थे, वे घर छोड़े हुए लोग थे। नये-नये वस्त्रों के लोग थे। उसने सोचा, वैसा ही कोई रम्य स्थल होगा। वह तीन सप्ताह का निर्णय करके बर्मा के उस आश्रम के लिए गया। लेकिन जब जिस गाड़ी से वह गया और जब उसे पहुंचाया गया आश्रम के सामने तो वह दंग रह गया। वह तो एक बाजार था, जहां आश्रम था, और रंगून का सबसे रद्दी बाजार था। और वहां तो बड़ी भीड़भाड़ थी, बड़ा शोरगुल था। और वहीं वह एक छोटी सी तख्ती लगी थी और उसके अंदर एक गंदे रास्ते के अंदर जाकर एक आश्रम था। आश्रम बड़ा था। पांच सौ भिक्षु वहां थे। लेकिन कोई सौ, डेढ़ सौ कुत्ते वहां घूम रहे थे और लड़ रहे थे। वह बड़ा परेशान हुआ कि यह कैसा आश्रम है? और सांझ का वक्त था और सैकड़ों-हजारों कौवे इकट्ठे हो रहे थे झाड़ों पर। इतना शोरगुल वहां मचा हुआ था। उसने सोचा, यह आश्रम है या बाजार है? और यहां, यहां रहने से क्या फायदा होगा? लेकिन आ गया था और अब रात भर रुकना ही पड़ेगा, सुबह के पहले वापस लौटने के लिए कोई गाड़ी भी नहीं थी, तो उसने जाकर प्रधान से मिलना चाहा। प्रधान से उसने कहा कि मैं तो हैरान हो गया, मैं तो सोचता था, आश्रम किसी पहाड़ के किनारे, किसी झील के पास, किसी सुंदर जगह में होगा। यह तो गंदा बाजार है, और यहां ये इतने कुत्ते किसलिए हैं? और ये कौवे सब किसलिए यहां इकट्ठे कर लिए हैं?
उस साधु ने कहाः ये कुत्ते जो हैं, ये हमारे पाले हुए हैं। और कौवे जो हैं, हमारे आमंत्रित हैं। इन्हें हम रोज चावल देते हैं, इसलिए आते हैं। और कुत्ते तो हमने पाले हुए हैं। यह शोरगुल व्यवस्थित है। यह बाजार हमने चुना है जान कर। जमीन बहुत थी हमारे मुल्क में भी सुंदर, लेकिन बाजार हमने जान कर चुना है। क्योंकि हमारी मान्यता यह है कि जो इस भीड़-भाड़ में, इस उपद्रव में शांत हो सकता है, उसकी शांति ही सच्ची है। और जो पहाड़ के पास जाकर बैठ कर शांत हो जाता है, उस शांति में उसके पास कोई शांति नहीं, वह सारी शांति पहाड़ की है; और पहाड़ से नीचे उतरते ही अशांति शुरू हो जाएगी। इसलिए संन्यासी पहाड़ से बस्ती में आने में डरता है। इसलिए संन्यासी अकेलेपन से भीड़ में आने में डरता है। इसलिए संन्यासी लोगों से डरने लगता है कि उनके पास गया कि मेरी सब शांति नष्ट हो जाएगी।
अगर आप किसी संन्यासी से कहें, दुकान पर बैठो। वह घबड़ाएगा। वह कहेगा, मेरी सब शांति नष्ट हो जाएगी। अगर आप किसी संन्यासी से कहें, नौकरी करो। वह कहेगा, मैं घबड़ाऊंगा, मेरा परमात्मा छूट जाएगा। जो परमात्मा नौकरी करने से छूट जाता हो; और जो परमात्मा दुकान पर बैठ जाने से अलग हट जाता हो, ऐसे परमात्मा की कोई कीमत नहीं है, ऐसे परमात्मा का कोई मूल्य नहीं है। जीवन की सहजता में और सामान्यता में जो उपलब्ध हो, वही सत्य है। जीवन की विशेष-विशेष स्थितियों में जो उपलब्ध हो, वह उन स्थितियों का परिणाम होता है, आपके चित्त का परिवर्तन नहीं होता है।
इसलिए आप ये जितने संन्यासियों को देखते हैं, इनको वापस ले आइए और सामान्य जिंदगी में डाल दीजिए और फिर पहचानिए कि इनके भीतर क्या है, तो आप पाएंगे, ये आपसे गए-बीते बदतर लोग हैं। ये आपसे नीचे साबित होंगे। जिंदगी में ये नहीं टिक सकते--वहां कसौटी है, वहां परीक्षा है। ये एक कोने में बैठे हुए हैं। इनकी सारी शांति आरोपित और पलायन की शांति है। इसलिए इनके भीतर भय और डर बना रहता है। इनके भीतर घबड़ाहट बनी रहती है। इनके भीतर यह हमेशा डर बना रहता है कि अगर मैं गया, सब गड़बड़ हो जाएगा।
मैंने सुना है, एक संन्यासी पहाड़ पर था, हिमालय पर था, बीस वर्षों तक वहां था। और तब उसे लगा कि अब तो मैं परम शांत हो गया हूं। कुछ भक्त भी उसके वहां आने शुरू हो गए। फिर नीचे एक मेला था बड़ा। और उसके भक्तों ने कहा कि नीचे चलें और मेले में लोगों को दर्शन दें। उस संन्यासी ने सोचा, अब तो मैं शांत हो गया हूं, अब यहां रहने का प्रयोजन भी क्या? चलूं। और वह पहाड़ से उतर कर नीचे आया। और जब वह उस मेले में गया, तो वहां तो उसे लोग जानते भी नहीं थे। भीड़ बहुत थी। एक आदमी का जूता उसके पैर पर पड़ गया। जैसे ही उसके पैर में पैर दबा, उसका सारा क्रोध, जिसे वह सोचता था विलीन हो गया है बीस वर्ष पहले, वह वापस खड़ा हो गया। वह वही का वही आदमी था जो बीस वर्ष पहले पहाड़ पर गया था। वह दंग रह गया कि क्रोध वापस खड़ा हो गया! अशांत फिर हो गया है मन! और उसने कहा कि आश्चर्य है, पहाड़ जो बीस वर्षों में न बता सके वह आदमी के संपर्क ने एक क्षण में बता दिया।
तो मैं आपको कहूंगा, पलायन से कोई आदमी धार्मिक नहीं होता है, परिवर्तन से आदमी धार्मिक होता है। इसलिए पलायन की प्रवृत्ति को छोड़ दें। स्थानों से भागें नहीं अपने को बदलें और देखें कि आपकी बदलाहट के साथ स्थान बदल जाते हैं। लोगों से भागें नहीं अपने को बदलें और आप पाएंगे कि आपकी बदलाहट के साथ लोग बदल जाते हैं। जो पति पत्नी को छोड़ कर भाग रहा है, वह गलती में है। अपने को बदले और पाएगा कि पत्नी विलीन हो गई। अपने को परिवर्तित करे और पाएगा कि जिस पत्नी से भागने का खयाल था वह विलीन हो गई है, वह अब कहीं भी नहीं है।
जीवन आत्म-परिवर्तन से उपलब्ध होता है, स्थानों के बदलने से नहीं। लेकिन हमारी जड़ता हमें कहती, स्थान बदल लें। तो मैं आपको कहूंगा कि जहां-जहां जीवन में जड़ता पैदा हो रही है वहां कुछ आंतरिक प्रयोग हैं जो जड़ता को पैदा नहीं होने देंगे और आप निरंतर एक नई ताजगी और एक इनोसेंस को, एक निर्दोष चित्तता को बचा कर रख सकते हैं। और जो नहीं वैसा बचाएगा, उसके लिए धर्म में कोई गुंजाइश, कोई गति नहीं।
कैसे यह होगा? किस भांति मनुष्य के भीतर कुछ चीज डेड हो जाती है, मर जाती है? चेतना कैसे जड़ हो जाती है? चेतनाजड़ हो जाती है क्योंकि अतीत का भार हम पर भारी हो जाता है। हम ऐसे लोग हैं जो निरंतर पीछे से दबे रहते हैं।
आप हैरान होंगे, अगर आप चालीस साल जी लिए हैं या पचास साल, तो पचास साल का कचरा और भार और धूल आपके चित्त पर इकट्ठी हो गई है। मकान तो आप रोज साफ कर लेते हैं, लेकिन चित्त को रोज साफ नहीं करते। मकान से कचरा अगर कोई पचास साल तक न फेंके तो उस मकान की क्या गति होगी? वह आपके चित्त की हो गई है। हम रोज इकट्ठा करते जाते हैं। जो भी आता है वह भीतर इकट्ठा होता जाता है। उसके भार के नीचे चेतना की लौ दब जाती है, मध्यम हो जाती है। फिर वह भार ही भार रह जाता है और चेतना विलीन हो जाती है। वही व्यक्ति चेतना की लौ को सजग रख सकता है जो रोज सांझ को जो भी इकट्ठा हुआ है उसे फेंक दे, खाली हो जाए; बीते कल से खाली हो जाए और जब सुबह उठे तो नये दिन में उठे। नई सुबह और नया सूरज और नये लोग, और भूल जाए कि कल भी कुछ था। और वह जो भी प्रतिक्रियाएं करे, जो भी कर्म करे वे कल से प्रभावित न हों, वे बिलकुल सहजस्फूर्त हों। आज से ही प्रभावित हों।
अगर कल एक आदमी आपको गाली दे गया और आज सुबह आपको मिलता है, तो आप उस आदमी को थोड़े ही देखते हैं जो अभी मिल रहा है। वह आदमी कल वाला जिसने गाली दी थी बीच में आ जाता। और यह जो आदमी सामने खड़ा है यह दिखाई नहीं पड़ता है, वह आदमी दिखाई पड़ता है जिसने गाली दी थी। वह आदमी मर चुका, उसे हटा दें बीच से और इस आदमी को देखें जो सामने खड़ा है। हो सकता है वह पश्चात्ताप करके आया हो; हो सकता है वह रात भर में बदल कर आया हो; हो सकता है वह दुखी होकर आया हो। लेकिन आपके बीच में वह आदमी खड़ा हो जाएगा जिसने गाली दी थी। वह मृत छाया बीच में आ जाएगी और इस आदमी से आप जो भी व्यवहार करेंगे वह इस आदमी से नहीं कर रहे हैं, उस आदमी से कर रहे हैं जो कल आपको दिखाई पड़ा था।
बुद्ध के ऊपर एक आदमी ने आकर थूक दिया था। थूक कर वह चला भी गया। फिर बाद में पछताया और दुखी हुआ। क्योंकि बुद्ध ने उस थूक को सिर्फ पोंछ लिया था और उस आदमी से कहा था, कुछ और कहना है? किसी भिक्षु ने पूछा कि आप कहते हैं कुछ और कहना है? उस आदमी ने थूका है। बुद्ध ने कहाः कोई बात इतनी प्रगाढ़ रूप से कहना चाहता होगा, जिसे शब्द कहने में समर्थ नहीं हो सके, इसलिए थूक कर उसने जाहिर किया है। गुस्सा तेज है। उसने गुस्से को जाहिर किया है। इसलिए मैं पूछता हूं, कुछ और कहना है? यह तो मैं समझ गया। लेकिन वह आदमी कुछ कह नहीं सका, वापस चला गया। पछताया, दूसरे दिन क्षमा मांगने आया।
उसने बुद्ध के पैर छुए, उसने कहाः मुझे माफ कर दें। मुझसे कल भूल हो गई थी। बुद्ध ने कहाः वह भूल उतनी बड़ी नहीं थी जितनी बड़ी भूल यह है कि तुम उसे अब तक याद रखे हो। बुद्ध ने कहाः वह भूल उतनी बड़ी नहीं थी। थूका, मैंने पोंछ दिया। बात समाप्त हो गई। मामला ही क्या है? दिक्कत कहां है? कठिनाई क्या है उससे? लेकिन यह कि तुम उसे अभी तक याद रखे हो, चैबीस घंटे बीत गए। यह तो बहुत बड़ी भूल है। यह तो बहुत बड़ी भूल है। मैं तुम्हें वही आदमी नहीं मानता हूं जो थूक गया था। यह दूसरा आदमी है जो मेरे सामने आया, क्योंकि यह तो कह रहा है कि मुझसे भूल हो गई, क्षमा कर दो। यह वही आदमी नहीं है जो थूक गया था। यह बिलकुल दूसरा आदमी है। मैं किसको क्षमा करूं? जो थूक गया था वह तो अब कहीं है नहीं और जो क्षमा मांग रहा है उसने मुझ पर थूका नहीं था।
बुद्ध ने कहाः जिसने मुझ पर थूका था वह अब है नहीं कहीं भी इस दुनिया में, खोजने पर नहीं मिलेगा और जो क्षमा मांग रहा है उसने मुझ पर थूका नहीं था। मैं किसको क्षमा करूं? और तुम किससे क्षमा मांग रहे हो? जिस पर थूक गए थे वह तो बह गया। जैसे नदी बही जा रही है। हम सोचते हैं, वही गंगा है जिस पर हम कल भी आए थे। गंगा बह गई। बहुत पानी बह गया जब आप कल आए थे। अब यह बिलकुल दूसरा पानी है जिसको आप कल की गंगा समझ रहे हैं। और जैसे गंगा बह जाती है वैसा आपका चित्त भी बह रहा है। वह प्रतिक्षण बहा जा रहा है। वहां कुछ भी ठहराव नहीं है उस चित्त में। तो बुद्ध ने कहाः तुम किससे क्षमा मांगते हो? वह आदमी तो बह गया। अब मैं कैसे क्षमा करूं? तो बुद्ध ने कहाः इतना ही स्मरण रखो, जो हो गया, उसे जाने दो, बह जाने दो। जो है, उसमें जागो।
हम जो बीत गया है उससे इतने चिपटे रहते हैं कि जो है उसमें नहीं जाग पाते। हम सारे लोग मुर्दा लाशों को लिए रहते हैं इसलिए जिंदा आदमी नहीं हो पाते। अतीत को मर जाने दें तो आपको जीवन मिलेगा। और जो आदमी जितने अतीत को मर जाने देगा और रोज नया हो जाएगा, रोज ताजा हो जाएगा और ऐसे जागेगा जैसे पहली बार दुनिया में पैदा हुआ है, उस आदमी के भीतर जड़ता इकट्ठी नहीं होगी।
क्या आपको स्मरण है कि पहले दिन आप जब अपनी पत्नी से मिले थे, उसी भांति अब भी मिलते हैं। अब वह सब जड़ हो गया है। अब बीस वर्षों की स्मृतियां बीच में खड़ी हो गई हैं और ये बीस वर्षों की स्मृतियां आपकी पत्नी को आपसे बहुत दूर किए दे रही हैं, आप बहुत दूर हो गए हैं। और इसीलिए जो आनंद पहले क्षण में मिल कर आपको अपनी पत्नी से मिला था, वह आज नहीं मिलेगा। लेकिन अगर ये बीस वर्षों की स्मृतियां बीच से गिर जाएं और आप नये होकर और नई पत्नी को देख पाएं, तो शायद वही आनंद का क्षण फिर उपलब्ध हो जाए।
आप रोज सुबह सूरज को देखते हैं, सोचते हैं, वही सूरज फिर उग रहा है। कोई सूरज दुबारा नहीं उगता। और आप फूलों के पास से गुजरते हैं, सोचते हैं, वही फूल फिर खिले हैं। कोई फूल दुबारा नहीं खिलते और कोई तारे दुबारा नहीं निकलते। सब नया है। अगर आपकी स्मृति का भार न हो तो जीवन आपको प्रतिक्षण नया मालूम होगा। और जब आप इस नवीन के प्रति जाग सकेंगे और अपनी जड़ता को छोड़ देंगे तो आपको कुछ अनुभूतियां मिलनी शुरू होंगी, जिन अनुभूतियों की समग्रता का नाम परमात्मा है। तब आपको कुछ अनुभव होना शुरू होगा। जो अतीत से दबा है वह कभी परमात्मा को नहीं जान सकता, क्योंकि परमात्मा प्रतिक्षण मौजूद है। परमात्मा अतीत नहीं है, परमात्मा प्रतिक्षण वर्तमान है। जो अतीत से दबा है वह वर्तमान को नहीं जान सकता।
तो आपकी सारी जड़ता अतीत पैदा करता है। एक साधु ने अपने शिष्य को कहा था, तुम जाओ, जो तुम मेरे पास नहीं समझ सके हो, वह मेरा एक मित्र है उसके पास जाकर समझ सकते हो। वह उसके मित्र के पास गया। देख कर हैरान हुआ कि जहां उसे भेजा गया है वह तो एक सराय का रखवाला है। जाते से ही उसका मन यह हुआ कि सराय के रख वाले से मैं क्या सीखूंगा? लेकिन फिर भी भेजा गया हूं, तो वह रुका। उसके गुरु ने कहा था, तुम सुबह से सांझ तक देखना कि वह क्या करता है? उसकी पूरी चर्या को समझना। उसकी पूरी चर्या उसने समझी। वह तो सराय का नौकर था। सराय का काम करता था। दो-चार दिन बाद वापस लौटने लगा। वहां तो पाने को कुछ भी नहीं था। लेकिन उसने सोचा, मुझे पता नहीं कि यह रात को सोते वक्त कुछ करता हो, सुबह अंधेरे में जग आता है उस वक्त कुछ करता हो, तो उसने चलते वक्त उससे पूछा कि क्या मैं यह पूछूं कि रात को सोते समय आप क्या करते हैं और सुबह जाग कर क्या करते हैं? उसने कहा कि दिन भर में सराय के बर्तन गंदे हो जाते हैं, रात सोते वक्त उनको झाड़-पोंछ कर, साफ करके रख देता हूं। फिर रात भर में उनमें धूल जम जाती है, सुबह उठ कर फिर उनको साफ करता हूं। उसने सोचा कि कहां के पागल के पास मुझे भेज दिया। वह केवल सराय का रखवाला है और बर्तन साफ करता है। वह वापस लौट आया।
उसने अपने गुरु को कहा। गुरु ने कहा कि बात तो पूरी थी अगर तुम समझते। उसने कहा कि दिन भर में बर्तन गंदे हो जाते हैं, सांझ में साफ कर लेता हूं। रात भर में फिर थोड़ी-बहुत धूल जम जाती है, सुबह फिर साफ कर लेता हूं। यही तो कुल जमा करना है।
वह चित्त हमारा दिन भर में गंदा हो जाता है, उसे रात सोते वक्त साफ कर लें, उसे पोंछ डालें। और सुबह सपने फिर रात भर में कुछ गंदा कर देंगे, सुबह फिर उसे पोंछ डालें। कैसे पोंछेंगे? क्योंकि मकान पोंछना तो हमें मालूम है लेकिन चित्त को कैसे पोंछेंगे? चित्त को कैसे साफ करेंगे? कौन सा जल है जो चित्त के बर्तन को साफ करेगा? मैं आपको कहूं, मौन, मौन चित्त को साफ करता है। जो जितना ज्यादा मौन में प्रविष्ट होता है उतना उसके चित्त का बर्तन साफ हो जाता है। मौन के जल से चित्त के बर्तन धोए जाते हैं। लेकिन हम मौन रहना भूल गए हैं। हम एकदम बोले जा रहे हैं, दूसरों से या अपने से। हम चैबीस घंटे बातचीत में लगे हुए हैं, अपने से या दूसरों से। सोते समय भी हम बातचीत करते हुए सोते हैं, उठते ही हम फिर बातचीत में लग जाते हैं। हम बातों से घिरे हुए हैं। मौन हम भूल गए हैं।
इस संसार में अगर कोई चीज खो गई है, तो मौन खो गया है। और जहां मौन खो जाएगा, वहां जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह सब खो जाएगा। क्योंकि सब श्रेष्ठ मौन से जन्मता है, वह साइलेंस से पैदा होता है।
रात को सोते वक्त घड़ी भर को बिलकुल साइलेंस में उतर जाएं, बिलकुल चुप हो जाएं, सब तरह से मौन हो जाएं। सुबह उठते वक्त सब भांति मौन होकर थोड़ी देर पड़े रहें और फिर उठें। और दिन में भी चैबीस घंटे यह खयाल रहे कि जहां तक बन पड़े, मेरे भीतर मौन हो। जो अति आवश्यक है वह बोला जाए; जो अति आवश्यक है वह सोचा जाए; अन्यथा मेरे भीतर मौन हो। और अगर कोई सजग होकर इसका स्मरण रखे कि मेरे भीतर मौन हो, तो धीरे-धीरे मौन का अवतरण शुरू हो जाता है। अगर रास्ते पर चलते वक्त आप यह खयाल रखें कि मैं मौन चलूं। पहले तकलीफ होगी। जीवन भर की आदत है। शायद अनेक जीवन की आदत है। लेकिन धीरे-धीरे स्मरणपूर्वक अगर भोजन करते वक्त स्मरण रखें कि मैं मौन रहूं।
मौन का यह अर्थ नहीं कि ओंठ बंद हों। मौन का अर्थ है, भीतर मन का चलन-हलन बंद हो, भीतर वहां चुप्पी हो। जब भी मौका मिले मौन हो जाएं। जिस क्षण आप मौन में हैं उसी क्षण आप मंदिर में हैं। चाहे फिर वह दुकान हो, चाहे फिर वह बाजार हो, चाहे वह दफ्तर हो। जीवन का अधिकतम क्षण मौन में व्यतीत हो, इसका स्मरण रखें। और आप क्रमशः एक नये आदमी को अपने भीतर आते हुए अनुभव करेंगे। क्रमशः आपके भीतर एक नये मनुष्य का जन्म होने लगेगा। आप बिलकुल नई चेतना को अनुभव करेंगे। और आपके भीतर जड़ता टूटनी शुरू हो जाएगी। एक समय आएगा आपके भीतर कोई जड़ता नहीं होगी और केवल चैतन्य रह जाएगा। जिस क्षण व्यक्ति पूर्ण मौन में स्थापित अपनी चेतना को प्रवेश करता है उसी क्षण उसके भीतर शरीर विलीन हो जाता है और केवल आत्मा का अनुभव शेष रह जाता है।
जिस क्षण आप पूरे मौन में हैं उसी क्षण आप संसार में नहीं हैं परमात्मा में हैं। इसको मैं संन्यास कहता हूं। ऐसा व्यक्ति जो सारी भीड़ के बीच मौन है, संन्यासी है; ऐसा व्यक्ति जो सारे कामों के बीच मौन है, संन्यासी है; ऐसा व्यक्ति जो सब करते हुए मौन है, संन्यासी है। जिसके भीतर मौन है वह संन्यास को पा गया। क्योंकि मौन ही द्वार खोलता है परमात्मा के। मौन ही द्वार खोलता है अनंत चेतना के। मौन ही द्वार खोलता है पदार्थ के पार जो है उसके लिए। स्मरण रखें, जो भी साधने जैसी बात है, जो भी पाने जैसी बात है, जो भी उपलब्ध करने जैसी बात है, वह है साइलेंस, वह है मौन।
संसार चैबीस घंटे आपके भीतर मौन को तोड़ रहा है। आप खुद चैबीस घंटे अपने मौन को तोड़ रहे हैं। फिर चाहे आप शास्त्र पढ़ें, ग्रंथों को याद करें, तत्वज्ञान को स्मरण कर लें, वह भी सब आपके मौन को तोड़ रहा है। उससे भी आप मौन में नहीं जा रहे हैं। वह सब तत्वज्ञान भी आपके भीतर बातचीत बन रहा है।
चुप हो जाएं। इससे बेहतर और कुछ भी नहीं है। और चुप्पी को अनुभव करें अपने भीतर। और उस घड़ी में जब आपके भीतर कोई भी नहीं बोलता होगा, जब निबिड़ सन्नाटा होगा, जैसे कोई दूर एकांत में, वन में सब शांत हो, कोई पक्षी भी न बोलता हो, वैसा जब निबिड़ सन्नाटा आपके भीतर होगा, तो आप अनुभव करेंगे, आप सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, आप देह के घेरे में बंधे हुए व्यक्ति नहीं हैं, आपकी चेतना तब आकाश को छूने की सामथ्र्य को उपलब्ध हो जाती है। उस मौन में आपको दिखाई पड़ता है, अनुभव होता है, सुनाई पड़ता है, वह जो परमात्मा का है। इस मौन को ही मैं प्रार्थना कहता हूं, इस मौन को ही ध्यान कहता हूं, इस मौन को ही समाधि कहता हूं।
और इसे साधने के लिए किसी के पास सीखने जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि जो भी आप सीखेंगे वह आपके भीतर बातचीत बन जाएगा। इसे साधने के लिए किन्हीं ग्रंथों को पढ़ने की जरूरत नहीं है, और इसे साधने के लिए किन्हीं पहाड़ों पर जाने की जरूरत नहीं है, जहां हैं वहां ही स्मरणपूर्वक इतना ही ध्यान रखें कि मेरे भीतर व्यर्थ की बातचीत न चले। और जब भी व्यर्थ की बातचीत चले तब शांत होकर उसे देखें और कुछ न करें। और आप हैरान होंगे, अगर आप अपने भीतर चलती हुई बकवास को शांत होकर देखें तो आपके भीतर एक नये तत्व का अनुभव होगा, जो केवल देख रहा है। बातचीत चल रही है और वह दूर खड़ा है। और तब आपको यह अनुभव होगा कि चित्त बातचीत में लगा हुआ है लेकिन आत्मा अभी भी मौन है और शांत है।
वह जो देखने वाला तत्व है वह आपकी आत्मा है। वह निरंतर मौन में और निरंतर साइलेंस में है। उसका थोड़ा सा अनुभव जैसे-जैसे गहरा होगा, बातचीत गिरती जाएगी, बातचीत विलीन होती जाएगी, एक समय आएगा आपके भीतर कुछ भी विचार चलते हुए नहीं रह जाएंगे। और जब कोई विचार नहीं चलते हैं तो विचारशक्ति का जन्म होता है। और जब तक विचार चलते हैं तब तक विचारशक्ति का जन्म नहीं होता। जितने ज्यादा विचार हो जाएंगे, आप उतने ज्यादा विक्षिप्त हो जाएंगे। पागल के विचार ही विचार रह जाते हैं, विवेक बिलकुल नहीं रह जाता। इसलिए दुनिया के बहुत बड़े-बड़े विचारक पागल होते देखे जाते हैं, वह इस बात का सबूत है कि विचारक सत्य को अनुभव नहीं कर सकता। और आज तक दुनिया में किसी विचारक ने सत्य को अनुभव नहीं किया है और न कभी कर सकेगा।
जब हम बुद्ध को, महावीर को विचारक कहते हैं तो हम गलती करते हैं। ये विचारक नहीं हैं। इन्होंने तो विचार को छोड़ दिया है। ये तो सब विचार को छोड़ कर चुप हो गए हैं। ये द्रष्टा हैं। और जो द्रष्टा हो जाता है वह सब पा लेता है।
एक छोटी सी कहानी, अपनी चर्चा को मैं पूरा करूंगा।
उपनिषदों के समय में एक युवक सत्य की तलाश में गया। उसने अपने गुरु के चरणों में सिर रखा और उसने कहा कि मैं सत्य को पाने आया हूं। उसके गुरु ने कहाः सत्य को पाना चाहते हो या सत्य के संबंध में कुछ पाना चाहते हो? उसके गुरु ने कहाः सत्य को जानना चाहते हो या सत्य के संबंध में कुछ जानना चाहते हो? अगर सत्य के संबंध में कुछ जानना है तो फिर मेरे पास रुक जाओ और अगर सत्य को जानना है तो फिर मामला कठिन है। उस युवक ने कहाः मैं सत्य को जानने आया, संबंध में जानने को नहीं आया। संबंध में ही जानना होता तो मेरे पिता खुद बड़े पंडित थे। सभी शास्त्र वे जानते हैं। लेकिन जब मैंने उनसे कहा कि मैं सत्य को जानना चाहता हूं। तो उन्होंने कहाः मैं असमर्थ हूं, तू कहीं और खोज। मैं सत्य के संबंध में जानता हूं, मैं शास्त्रविद हूं, मुझे सत्य का कोई पता नहीं। तो मैं सत्य को ही जानने आया हूं। उसके गुरु ने कहाः तब ऐसा करो, इस आश्रम में जितने गाय-बैल हैं, कोई चार सौ के करीब हैं, इन सबको ले जाओ। दूर ऐसे जंगल में चले जाना जहां कोई आदमी न हो। और जब ये गाय-बैल हजार हो जाएं--इनके बच्चे होंगे और ये हजार हो जाएंगे, तब तुम लौट आना। और तब तक एक शर्त याद रखो, जो भी बात करनी हो, इन्हीं गाय-बैलों से कर लेना। जो भी बात करनी हो, इनसे ही कर लेना, किसी आदमी से मत बोलना। जो भी तुम्हारे दिल में आए, इन्हीं से कह लेना। और इतनी दूर चले जाना कि कोई आदमी न हो। और जब ये हजार हो जाएं तो वापस लौट आना।
वह युवक उन चार सौ गाय-बैलों को खदेड़ कर जंगल में गया। दूर से दूर गया जहां कोई भी नहीं था। तो वहां वे जानवर और वह अकेला रह गया। उनसे ही बात करनी पड़ती। जो भी कहना होता, उन्हीं से कहना होता। उनसे क्या कहता? उनसे क्या बात करता? उनकी आंखों में तो कोई विचार न थे। गाय की आंख कभी देखी है? जब आपकी भी आंख वैसी हो जाए तो समझना कि कहीं पहुंच गए। उस आंख में कोई विचार नहीं है, खाली और शून्य। उन आंखों में देखता, उन्हीं के पास रहता, उन्हीं को चराता, पानी पिलाता, अकेला उन्हीं के बीच सो जाता। वर्ष आए और गए। कुछ दिन तक पुरानी घर की स्मृतियां चलती रहीं। लेकिन नया भोजन न मिले तो पुरानी स्मृतियां मर जाती हैं। हम रोज नई स्मृतियों को भोजन दे देते हैं, इसलिए रिप्लेस होती चली जाती हैं। पुरानी मरती हैं नई भीतर पहुंच जाती हैं। अब नये का तो कोई कारण नहीं था। गाय-बैल थे, उनके बीच रहना था। कोई नई स्मृति का कारण न था। नई स्मृतियां पैदा न हुईं, पुराने को भोजन न मिला, वे क्रमशः मरती गईं। वह गाय-बैल के पास रहते-रहते खुद गाय-बैल हो गया। वह तो संख्या ही भूल गया। गुरु ने कहा था, हजार जब हो जाएं तो इनको लिवा लाना। लेकिन वह तो भूल ही गया कि हजार कब हुईं वे।
बड़ी मीठीकहानी है। उन गायों ने कहा कि हम हजार हो गए, वापस लौट चलो। यह तो काल्पनिक ही होगा। लेकिन मतलब केवल इतना है कि उसे पता नहीं था कि कब गाय-बैल हजार हो गए। और जब गायों ने कहा, हम हजार हो गए, अब लौट चलो, तो वह वापस लौटा। गुरु ने दूर से देखा, वह हजार गाय-बैल का झुंड आता था और उसने अपने शिष्यों को कहाः देखो, एक हजार एक, एक हजार एक गाय-बैल आ रहे हैं। उसके शिष्य बोलेः एक हजार एक और बीच में वह जो युवा है? उसने कहाः उसकी आंखों में देखो। अब वह आदमी नहीं रहा। अब वह आदमी नहीं है। और जब वह करीब आया तो गुरु ने उसे गले लगा लिया और गुरु ने कहाः कहो मिल गया? वह युवक चुप रहा। उसने कहाः केवल आपके चरण छूने आया हूं। उसने गुरु के चरण छुए और वापस लौट गया। उस मौन में उसने जान लिया जो जानने जैसा था।
अब तक जो सदगुरु है वह मौन देता है और जो असदगुरु है वह शब्द देता है। जो सदगुरु है वह आपके ग्रंथ छीन लेता है, जो असदगुरु है वह आपको ग्रंथ दे देता है। जो सदगुरु है वह आपके विचार अलग कर लेता है, जो असदगुरु है वह आपके भीतर विचार डाल देता है। यही होता रहा है। और अगर सत्य को जानना हो--सत्य के संबंध में नहीं--तो मौन हो जाएं, चुप हो जाएं और चुप्पी को साधें, मौन को साधें। हमने स्मरणपूर्वक नहीं साधा इसलिए नहीं साध पाए हैं। साधेंगे, निश्चित ही साधा जा सकता है। क्यों? क्योंकि विचार को साधना ही कठिन है, मौन तो हमारा स्वभाव है। अगर हमने थोड़ा सा भी प्रयास किया तो स्वभाव के झरने फूट पड़ेंगे, जड़ता टूट जाएगी, बह जाएगी और चैतन्य का प्रवाह हो जाएगा। और स्मरण रखें, जब चैतन्य का प्रवाह होता है तो सारा जीवन आमूल परिवर्तित हो जाता है। तब जो भी होता है वह शुभ है। तब कोई डिसिप्लिन, कोई अनुशासन ऊपर से नहीं लादना पड़ता, कोई चर्या ऊपर से नहीं लादनी पड़ती। जो भी होता है वह शुभ और सद्भ होता है।
चैतन्य की धारा को जड़ता से न रोकें। जीवन ऐसा है कि वह जड़ कर रहा है। आपको प्रयास करना होगा कि जीवन की जड़ता आप पर आरोपित न हो। अगर आप इस प्रयास में संलग्न हैं तो आप एक धार्मिक आदमी हैं। हिंदू, मुसलमान, ईसाई होने से आप धार्मिक नहीं हैं। जड़ता के विरोध में अगर अपने भीतर लड़ रहे हैं तो आप धार्मिक हैं और चैतन्य की आशा में, अपेक्षा में और प्रार्थना में अगर संघर्षशील हैं तो धार्मिक हैं। ईश्वर करे, आपको धार्मिक बनाए। आप तथाकथित धर्मों से मुक्त हों और धार्मिक बनें। आप तथाकथित मंदिर, शिवालय और मस्जिदों से मुक्त हों और धार्मिक बनें। इस दुनिया में अगर धार्मिक आदमी का अवतरण हो जाए तो हम मनुष्य को बचाने में सफल हो जाएंगे। अन्यथा थोड़े ही दिनों में सारे मशीन, मशीनें ही मशीनें दिखाई पड़ेंगी, कोई आदमी कहीं दिखाई नहीं पड़ेगा। आदमी मर रहा है और मशीनें जीती जा रही हैं। धीरे-धीरे हम सब मशीनों की भांति हो जाएंगे। औरयह सबसे बड़ी दुर्घटना होगी। एटम बम या हाइड्रोजन बम इतनी बड़ी दुर्घटनाएं नहीं हैं। अगर वे गिर जाएं तो कोई हर्जा नहीं है उतना। लेकिन अगर सारे मनुष्य जड़ मशीनों की भांति हो गए तो सब समाप्त हो जाएगा। प्रेम और सौंदर्य और सत्य और शुभ, सब विलीन हो जाएंगे। इन सबका जन्म चैतन्य के विकास से होता है।
जड़ता को न आने दें अपने भीतर और चैतन्य को विकसित करें। चैतन्य के विकास का नियम है--मौन को, शून्य को, ध्यान को, जागरूकता को अपने भीतर जो जितना विकसित करता है वह उतना मौन को उपलब्ध हो जाता है। परमात्मा आपके सब शब्द छीन ले, परमात्मा आपके सब विचार छीन ले, परमात्मा आपको निपट मौन कर दे, निरीह कर दे, आपको एकदम दरिद्र कर दे, आपकी आत्मा एकदम गरीब हो जाए विचारों से, तो आप एकदम समृद्ध हो जाएंगे और आपको अनंत संपत्ति के द्वार उपलब्ध हो जाएंगे। यही प्रार्थना करता हूं।

मेरी बातों को इतनी गर्मी में बैठ कर सुना इतने प्रेम से, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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