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गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

आठो पहर यूं झूमिये-(प्रवचन-03)

आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-तीसरा 

मैं अत्यंत आनंदित हूं और अनुगृहीत भी, सत्य के संबंध में थोड़ी सी बातें आप सुनने को उत्सुक हैं। यह मुझे आनंदपूर्ण होगा कि अपने हृदय की थोड़ी सी बातें आपसे कहूं। बहुत कम लोग हैं जो सुनने को राजी हैं और बहुत कम लोग हैं जो देखने को उत्सुक हैं। इसलिए जब कोई सुनने को उत्सुक मिल जाए और कोई देखने को तैयार हो, तो स्वाभाविक है कि आनंद अनुभव हो। हमारे पास आंखें हैं, और हमारे पास कान भी हैं, लेकिन जैसा मैंने कहा कि बहुत कम लोग तैयार हैं कि वे देखें और बहुत कम लोग तैयार हैं कि वे सुनें। यही वजह है कि हम आंखों के रहते हुए अंधों की भांति जीते हैं और हृदय के रहते हुए भी परमात्मा को अनुभव नहीं कर पाते। मनुष्य को जितनी शक्तियां उपलब्ध हुई हैं, उसके भीतर जितनी संभावनाएं हैं अनुभूति की, उनमें से न के बराबर ही विकसित हो पाती हैं।

एक स्मरण मुझे आता है, उससे ही अपनी चर्चा का प्रारंभ करूं।

किसी देश में एक साधु को कुछ लोगों ने जाकर कहाः कुछ शत्रु तुम्हारे पीछे पड़े हुए हैं और वे तुम्हें समाप्त करना चाहते हैं। उस साधु ने कहाः कोई भी डर नहीं है, जब वे मुझे समाप्त करने आएंगे, तो मैं अपने किले में जाकर छिप जाऊंगा। उस साधु ने कहा कि जब वे मुझे समाप्त करने आएंगे, तो मैं अपने किले में जाकर छिप जाऊंगा।


वह तो एक फकीर था और उसके पास एक झोपड़ा भी नहीं था। उसके शत्रुओं को यह खबर पड़ी और उन्होंने सुना कि उसने कहा है कि जब मुझ पर कोई हमला होगा, तो मैं अपने किले में छिप जाऊंगा। वे हैरान हुए। उन्होंने एक रात उसके झोपड़े पर जाकर उसे पकड़ लिया और पूछा कि कहां है तुम्हारा किला?
वह साधु हंसने लगा और अपने हृदय पर उसने हाथ रखा और कहाः यहां है मेरा किला। और जब तुम मुझ पर हमला करोगे, तो मैं यहां छिप जाऊंगा। असल में मैं वहीं छिपा हुआ हूं और इसलिए मुझे किसी हमले का कोई डर नहीं है।
लेकिन यहां जो किला है उसका हमें कोई भी पता नहीं है। वे लोग भी जो धर्म की बातें करते हैं, ग्रंथ पढ़ते हैं, गीता, कुरान, बाइबिल पढ़ते हैं, वे लोग भी जो भजन-कीर्तन करते हैं, मंदिर, शिवालय और मस्जिद में जाते हैं, उनको भी यहां जो हरेक मनुष्य के भीतर एक केंद्र है उसका उन्हें भी कोई पता नहीं है। उनकी भी बातें बातों से ज्यादा नहीं है और इसलिए उसका कोई परिणाम जीवन में दिखाई नहीं पड़ता। सारी जमीन पर धार्मिक लोग हैं लेकिन धर्म बिलकुल भी दिखाई नहीं पड़ता है। और सारी जमीन पर मंदिर हैं, मस्जिद हैं, शिवालय हैं, गिरजाघर हैं, लेकिन उनका कोई परिणाम, कोई प्रभाव, कोई प्रकाश जीवन में नहीं है।
इसके पीछे एक ही वजह है कि हम उस मंदिर से परिचित नहीं हैं जो हमारे भीतर है। और हम केवल उन्हीं मंदिरों से परिचित हैं जो हमारे भीतर नहीं हैं। स्मरण रखें, जो मंदिर भीतर नहीं है वह मंदिर झूठा है। स्मरण रखें, वे मूर्तियां जो बाहर स्थापित की गई हैं और वे प्रार्थनाएं जो बाहर हो रही हैं, झूठी हैं। असली प्रार्थना और असली मंदिर और असली परमात्मा प्रत्येक मनुष्य के भीतर बैठा हुआ है। इसलिए धार्मिक आदमी वह नहीं है जो तलाश में परमात्मा की कहीं घूमता हो, धार्मिक आदमी वह है जो सारे घूमने को छोड़ कर अपने भीतर प्रवेश करता है।
इसलिए धार्मिक आदमी की खोज बाहर के जगत में नहीं है। कितनी ही बाहर यात्रा हो वहां कुछ भी उपलब्ध नहीं होगा। लेकिन भीतर भी एक यात्रा होती है और वहां कुछ उपलब्ध होता है। धार्मिक आदमी की खोज भीतर की यात्रा की खोज है।
यह जो मैंने कहा, हम सबके भीतर कुछ केंद्रीय है, जिससे हम स्वयं अपरिचित हैं। और मनुष्य की सारी चिंता, सारा दुख इस एक ही बात से पैदा होता है। उसके जीवन का सारा मनस्ताप, सारी एंग्जाइटी, सारा एंग्विस, जो भी पीड़ा और परेशानी है वह इस बात से पैदा होती है कि हम करीब-करीब स्वयं से ही अपरिचित हैं, और अपने भीतर जाने का ही रास्ता भूल गए हैं। यह आश्चर्यजनक लग सकता है, हमें कितने रास्ते ज्ञात हैं--हम चांद पर और मंगल पर पहुंचने की कोशिश में हैं, बहुत जल्दी मनुष्य के चरण वहां पड़ जाएंगे। यह भी हो सकता है एक दिन मनुष्य और भी लंबी अंतरिक्ष की यात्राएं करे। मनुष्य ने समुद्र की गहराइयों में जो है वहां तक प्रवेश पा लिया है और अंतरिक्ष में भी वह प्रवेश पा लेगा। लेकिन एक ऐसी भी गहराई है जो बिलकुल निकट है और जिससे हम बिलकुल अपरिचित हैं। वह गहराई हमारे प्रत्येक के भीतर, हमारे स्वयं की, हमारे स्वयं की सत्ता की गहराई है।
इस गहराई में कैसे प्रवेश हो सकता है उससंबंध में ही थोड़ी सी बातें आज मैं आपसे कहना पसंद करूंगा। हो सकता है मेरी कुछ बातें अप्रीतिकर भी लगें। मैं जान कर चाहता हूं कि कुछ बातें अप्रीतिकर हों, क्योंकि जो अप्रीतिकर होता है वह हिलाता है और जगाता है। हो सकता है मेरी कुछ बातें बुरी लगें। मैं जान कर चाहता हूं कि मेरी कुछ बातें बुरी लगें, क्योंकि जो बुरा लगता है उससे चिंतन पैदा होता है और मनुष्य का विचार सजग होता है। फिर भी मैं प्रारंभ में कहूं कि मुझे माफ कर देंगे, अगर कोई बात बुरी लगती हो, कोई बात चोट करती हो, तो क्षमा कर देंगे। बाकी चोट मैं इसीलिए पहुंचाना चाहता हूं ताकि भीतर जो हम बिलकुल सो गए हैं वहां कुछ जागरण हो।
जीवन के संबंध में या सत्य के संबंध में बहुत सी बातें सुनते-सुनते हम करीब-करीब आत्म-मूच्र्छित हो गए हैं। और वे सब अब हमारे भीतर कुछ भी पैदा नहीं करते हैं, शब्द धीरे-धीरे मर जाते हैं। और मर जाते हैं इसलिए कि हम उनके आदि हो जाते हैं। उनके पुनरुक्ति के कारण, बार-बार रिपीटीशन के कारण वे हमें याद हो जाते हैं, हमारी आदत बन जाते हैं और हमें प्रभावित करना बंद कर देते हैं।
लोग रोज गीता पढ़ते हैं, जो आदमी रोज गीता पढ़ता है वह धीरे-धीरे गीता के प्रति मर जाएगा और गीता उसके लिए मर जाएगी। क्योंकि निरंतर उसे पढ़ने का अर्थ ही यह होगा कि वे सब याद हो जाएंगे और स्मृति में भर जाएंगे और आपके भीतर कुछ भी जगाने में असमर्थ हो जाएंगे।
दुनिया में किसी धर्मग्रंथ के साथ सबसे बुरा जो काम हो सकता है वह उसका पाठ है। निरंतर उसका पाठ सबसे खतरनाक बात है। क्योंकि निरंतर उसके पाठ का एक ही अर्थ होगा कि आप उसके प्रति जो भी सजीवता है, जो भी सजगता है, जो भी स्फूर्ति है, जो भी जीवंत प्रतीति है वह धीरे-धीरे खो देंगे। इसलिए दुनिया में उन कौमों को जिनके पास अदभुत ग्रंथ हैं, अदभुत विचार हैं, एक दुर्भाग्य भी सहना पड़ता है। उन्हें वे विचार और ग्रंथ स्मरण हो जाते हैं और उनकी जो जीवित चोट है वह समाप्त हो जाती है।
एक साधु हुआ है, वह तो कोई फकीर नहीं था, कोई गैरिक वस्त्रों को उसने नहीं पहना और उसने कभी अपने घर को नहीं छोड़ा। वह जब साठ वर्ष का हो गया, उसका पिता अभी जिंदा था। उसके पिता की उम्र तब नब्बे वर्ष थी। उसके पिता ने उसे बुला कर कहा कि देखो, मैं तुम्हें साठ वर्षों से देख रहा हूं तुमने एक भी दिन भगवान का नाम नहीं लिया, तुम एक भी दिन मंदिर नहीं गए, तुमने एक भी दिन सदवचनों का पाठ नहीं किया, अब मैं बूढ़ा हो गया और मरने के करीब हूं, तो मैं तुमसे कहना चाहता हूं, तुम भी बूढ़े हो गए हो, कब तक प्रतीक्षा करोगे, नाम लो प्रभु का, प्रभु के विचार को स्मरण करो, मंदिर जाओ, पूजा करो।
उसके बूढ़े लड़के ने कहाः मैं भी आपको कोई चालीस वर्षों से मंदिर में जाते देखता हूं, पाठ करते देखता हूं, मेरा भी मन होता था कि रोक दूं यह पाठ, मर चुके, और यह मंदिर जाना व्यर्थ हो गया है, आप रोज-रोज वही कर रहे हैं। अगर पहले दिन ही परिणाम नहीं हुआ तो दूसरे दिन कैसे परिणाम होगा? तीसरे दिन कैसे परिणाम होगा? चैथे दिन कैसे परिणाम होगा? जो बात पहले दिन परिणाम नहीं ला सकी है वह चालीस वर्ष दोहराने से भी परिणाम नहीं लाएगी। बल्कि पहले दिन के बाद निरंतर परिणाम कम होता जाएगा, क्योंकि हम उसके आदी होते जाएंगे।
उसके लड़के ने कहाः मैं भी कभी नाम लूंगा, लेकिन एक ही बार। मैं भी कभी स्मरण करूंगा, लेकिन एक ही बार। क्योंकि दुबारा का कोई भी अर्थ नहीं होता है। जो होना है वह एक बार में हो जाना चाहिए, नहीं होना है, नहीं होगा।
कोई उस घटना के पांच वर्षों बाद पैंसठ वर्ष की उम्र में उस साधु ने भगवान का नाम लिया और नाम लेते ही उसकी सांस भी समाप्त हो गई और वह गिर भी गया और उसका निर्वाण भी हो गया। यह अकल्पनीय मालूम होता है कि कैसे होगा? लेकिन जब भी होता है यही होता है। एक ही घटना में, एक ही स्मरण में, एक ही प्रवेश में पर्दा टूट जाता है। और अगर एक में ही न टूटे तो समझना वही चोट बार-बार करनी बिलकुल व्यर्थ है।
तो मैं कुछ, कुछ बातें, कुछ शब्द, कुछ विचार जिनके प्रति हम मर गए हैं, जिन्हें सुनते-सुनते हम जिनके आदी हो गए हैं, जिनकी चोट विलीन हो गई है उनके संबंध में कुछ बातें आपको कहूं। शायद कोई कोण आपको दिखाई पड़ जाए और कोई बात, कोई क्रांति आपके भीतर संभव हो सके। धर्म हमेशा क्रांति से उपलब्ध होता है। उपक्रम, क्रम से, ग्रेजुअल नहीं उपलब्ध होता है। धर्म धीरे-धीरे उपलब्ध नहीं होता, धर्म हमेशा एक क्रांति से उपलब्ध होता है।
जो सोचते हैं कि हम धीरे-धीरे धार्मिक हो जाएंगे, वे गलती में हैं। हिंसक सोचता हो कि मैं धीरे-धीरे अहिंसक हो जाऊंगा, गलती में है। घृणा करने वाला सोचता हो कि मैं धीरे-धीरे प्रेम से भर जाऊंगा, तो गलती में है। अंधकार मिटाने वाला सोचता हो कि मैं धीरे-धीरे अंधकार को मिटा लूंगा, तो गलती में है। जब प्रकाश जलता है तो अंधकार एक ही क्षण में विलीन हो जाता है। और जब प्रेम जाग्रत होता है तो घृणा एक ही क्षण में विलीन हो जाती है। और जब अहिंसा उठती है तो हिंसा एक ही क्षण में छूट जाती है।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह एक ही क्षण में घटित होता है, क्रमशः घटित नहीं होता। जो भी क्रमशः घटित होता है वही व्यर्थ और क्षुद्र है। जो एक ही साथ जो क्रांति घटित होती है वही मूल्यवान, वही सार्थक, वही अर्थपूर्ण है और वही व्यक्ति को परमात्मा से जोड़ती है। कोई व्यक्ति धीरे-धीरे संसार से दूर होकर परमात्मा को उपलब्ध नहीं होता है। जब भी परमात्मा को कोई व्यक्ति उपलब्ध होता है तो एक छलांग में, एक क्रांति में, एक विस्फोट में उपलब्ध होता है और एक ही साथ सब कुछ परिवर्तित हो जाता है। जैसे हम किसी सोते व्यक्ति को उठा दें, तो क्या वह धीरे-धीरे उठता है? नींद धीरे-धीरे टूटती है? जैसे ही हम किसी को उठा दें, एक क्रांति हो जाती, सपने टूट जाते हैं और जागरण सामने आ जाता है।
धर्म का जीवन भी एक क्रांति का जीवन है। और इसलिए जो लोग धीरे-धीरे का खयाल करते हों वे गलती में हैं। और धीरे-धीरे का खयाल हमारे आलस्य की ईजाद है। हम असल में चाहते नहीं क्रांति इसलिए कहते हैं धीरे-धीरे।
बुद्ध ने कहा हैः कोई अगर आग में गिर जाए और हम उससे कहें, आग के बाहर आ जाओ और वह कहे कि मैं धीरे-धीरे बाहर आऊंगा, आपकी बात का विचार करूंगा, कोशिश करूंगा, प्रयत्न करूंगा, अभ्यास करूंगा फिर बाहर आऊंगा। तो बुद्ध ने कहाः इसका अर्थ हुआ कि उस मनुष्य को आग दिखाई नहीं पड़ रही है। इसका अर्थ हुआ, वह बाहर नहीं निकलना चाहता है। अगर आग दिखाई पड़ गई हो तो कोई यह नहीं कहेगा कि मैं धीरे-धीरे बाहर आऊंगा, जैसे ही दिखाई पड़ेगी आग वह बाहर आ जाएगा। यह अभ्यास से नहीं होगा, यह तात्कालिक तीव्र क्रांति से होगा।
कुछ जीवन के संबंध में ऐसे स्मरण जिनसे क्रांति की संभावना पैदा हो जाए, वह भूमिका बन जाए कि क्रांति फलित हो सके, वह मैं आपको कहना चाहता हूं। कोई तीन बातों के संबंध में आज की संध्या विचार करने का मेरा खयाल है।
पहला तो जिनको भी क्रांति से गुजरना हो उनके लिए श्रद्धा खतरनाक है। उन्हें श्रद्धा नहीं, जिज्ञासा चाहिए। और जो भी व्यक्ति श्रद्धा कर लेगा, उसकी सारी प्रगति, उसका सारा विकास बंद हो जाएगा। श्रद्धा एक तरह की मृत्यु है। श्रद्धा का स्वीकार रुक जाना है। और क्रांति की तरफ उठने के लिए श्रद्धा नहीं, जिज्ञासा चाहिए। इसलिए पहले तो इस सूत्र पर मैं विचार करूंः श्रद्धा नहीं, जिज्ञासा।
साधारणतः हम सुनते हैं, विश्वास करो, साधारणतः हम सुनते हैं--गीता कहती हो, कुरान कहता हो, बाइबिल कहती हो उसे मान लो। साधारणतः हम सुनते हैं--बुद्ध, महावीर, मोहम्मद, क्राइस्ट या कृष्ण जो कहते हैं उसे स्वीकार कर लो, और जो स्वीकार नहीं करेगा वह भटक जाएगा। मैं आपसे कहता हूं, जो स्वीकार कर लेगा वह भटक जाता है। मैं यह आपसे कहना चाहता हूं, जो स्वीकार कर लेता है वह भटक जाता है। इसलिए भटक जाता है कि जो भी दूसरों के सत्यों को स्वीकार कर लेता है वह अपने सत्य की खोज से वंचित हो जाता है। चाहे वह सत्य कृष्ण का हो, चाहे बुद्ध का, चाहे महावीर का, अगर उस उधार सत्य को स्वीकार कर लिया तो आपकी अपनी खोज बंद हो जाएगी, आपका अपना अन्वेषण बंद हो जाएगा, आप रुक जाएंगे, ठहर जाएंगे, आपका अपना विकास समाप्त हो जाएगा। और स्मरण रखें, इस दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को अगर वास्तविक विकास करना हो तो अपना ही विकास करना होता है किसी दूसरे का विकास काम में नहीं आ सकता है, किसी दूसरे का किया गया भोजन आपको तृप्ति नहीं देगा और किसी दूसरे के पहने गए वस्त्र आपके शरीर को नहीं ढकेंगे, किसी दूसरे के द्वारा अनुभव किया गया सत्य भी आपका सत्य नहीं हो सकता है।
इस जगत में कोई भी मनुष्य किसी से उधार सत्य को नहीं पा सकता। लेकिन हम सब उधार सत्यों को पाए हुए हैं। और हमें सिखाया जाता है कि हम उधार सत्यों को स्वीकार कर लें। हमें निरंतर समझाया जाता है कि हम दूसरों के सत्यों को मान लें, अंगीकार कर लें। हमें संदेह से बचने को कहा जाता है और विश्वास करने को कहा जाता है।
मैं आपसे संदेह करने को कहना चाहूंगा, जिसे भी सत्य जानना हो उसे संदेह करने का साहस करना ही होता है। और संदेह इस जगत में सबसे बड़ा साहस है। स्मरण रखें, जब मैं कह रहा हूं संदेह करना पड़ता है, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अविश्वास करें। अविश्वास भी विश्वास का ही एक रूप है। जो आदमी कहता है, मैं ईश्वर को मानता हूं, यह भी एक विश्वास है। जो आदमी कहता है, मैं ईश्वर को नहीं मानता, यह भी एक विश्वास है। जो आदमी कहता है, आत्मा है, यह भी एक विश्वास है। जो आदमी कहता है, आत्मा नहीं है, यह भी एक विश्वास है। ये दोनों ही विश्वास हैं।
आस्था और अनास्था, श्रद्धा और अश्रद्धा सब श्रद्धा के रूपांतर हैं। दोनों ही स्थिति में हम दूसरों लोगों को मान लेते हैं और खुद खोज नहीं करते हैं। संदेहका अर्थ हैः न श्रद्धा, न अश्रद्धा। संदेह का अर्थ हैः न स्वीकार, न अस्वीकार। संदेह का अर्थ हैः जिज्ञासा। संदेह का अर्थ हैः मैं जानना चाहता हूं क्या है? मैं जानना चाहता हूं सत्य क्या है? और जब तक कोई व्यक्ति सजग न हो इस सत्य के प्रति कि मुझे जानना है कि सत्य क्या है, तब तक उसकी स्वीकृतियां, उसकी श्रद्धाएं, उसके विश्वास उसे कहीं भी ले जाने में समर्थ नहीं होंगे, बल्कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे क्रमशः जैसे-जैसे उसकी उम्र ढलती जाएगी वैसे-वैसे वह विश्वास को जोर से पकड़ने लगेगा, क्योंकि साहस कम होता जाएगा। इसलिए बूढ़े जल्दी विश्वास कर लेते हैं, जवान मुश्किल से विश्वास करते हैं। बूढ़ों का विश्वास कोई कीमत नहीं रखता। साहस जैसे-जैसे कम होता जाता है विश्वास को पकड़ लेता भय के कारण, सुरक्षा के लिए, डर के कारण, मृत्यु के बाद न मालूम क्या होगा? अगर नहीं स्वीकार किया तो न मालूम किन नरको में पीड़ा भोगनी पड़ेगी? अगर परमात्मा को नहीं माना तो परमात्मा न मालूम क्या बदला लेगा? यह भय जैसे-जैसे घना होता है वैसे-वैसे आदमी विश्वास करने लगता है।
विश्वास कमजोरी है और जो कमजोर है वह सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। विश्वास भय है। विश्वास आपके किसी न किसी रूप में भय पर, घबड़ाहट पर, डर पर खड़ा हुआ है। और जो डरा हुआ है, भयभीत है, वह सत्य को कैसे पा सकेगा। सत्य को पाने की पहली शर्त तो अभय है। उसे पाने की पहली बुनियाद तो भय को छोड़ देना है। लेकिन हमारे सारे धर्म, हमारे संप्रदाय, हमारे पुरोहित, हमारे पादरी, हमारे धर्मगुरु, हमारे संन्यासी भय सिखाते हैं। उनके भय सिखाने के पीछे जरूर कोई कारण है। छोटे-छोटे बच्चों के मनों में भी हम भय को भर देते हैं और छोटे-छोटे बच्चों के मनों में भी हम श्रद्धा को पैदा करना चाहते हैं। इसके पहले की वे विचार में सजग हो सकें हम किसी तरह के विश्वास में उनको आबद्ध कर देना चाहते हैं।
दुनिया के सारे धर्म बच्चों के साथ जो अनाचार करते हैं उससे बड़ा कोई अनाचार नहीं है। इसके पहले कि बच्चे की जिज्ञासा जाग सके, वे पूछें कि क्या है, हम उसके दिमाग में वे बातें भर देते हैं जिनका हमें भी कोई पता नहीं। हम उसे हिंदू, मुसलमान, जैन या ईसाई बना देते हैं। हम उसे कुरान या बाइबिल या गीता रटा देते हैं। हम उसे कह देते हैं, ईश्वर है या ईश्वर नहीं है। फिर यही विश्वास जीवन भर कारागृह की तरह उसकी चेतना को बंद किए रहेंगे और वह कभी साहस नहीं कर सकेगा कि सत्य को जान सके।
बच्चों के साथ अगर किन्हीं मां-बापों को, किन्हीं गुरुओं को, किन्हीं अविभावकों को प्रेम हो, तो उन्हें पहला काम करना चाहिए, उन्हें अपना प्रेम तो दें, लेकिन अपने विश्वास न दें, अपनी श्रद्धाएं न दें, अपने विचार न दें। उन्हें उन्मुक्त रखें, उनकी जिज्ञासा को जगाएं लेकिन उनकी जिज्ञासा को समाप्त न करें।
श्रद्धा जिज्ञासा को तोड़ देती है और नष्ट कर देती है। हम सारे लोग ऐसे ही लोग हैं, जिनकी जिज्ञासाएं बचपन में तोड़ दी गई हैं। और जो किसी न किसी तरह की श्रद्धा, किसी न किसी तरह के विश्वास, किसी न किसी तरह की बिलीफ को पकड़ कर बैठ गए हैं। वह विश्वास ही हमें ऊपर नहीं उठने देता। वह विश्वास ही हमें विचार करने नहीं देता। वह विश्वास कहीं गलत न हो इसलिए हमें जिज्ञासा नहीं करने देता।
जैसा आस्तिक देशों में होता है ठीक वैसा ही जमीन के कुछ हिस्सों पर नास्तिक विचार का प्रचार और प्रोपेगेंडा हो रहा है। वहां समझाया जा रहा है, ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है, स्वर्ग नहीं है, नरक नहीं है। छोटे-छोटे बच्चों को ये बातें समझाई जा रही हैं। धीरे-धीरे वे उनके अचेतन मन में प्रविष्ट हो जाती हैं, और फिर वे विचार करने में असमर्थ हो जाते हैं। हम करीब-करीब ऐसे लोग हैं जो विचार करने में बहुत पहले पंगु बना दिए गए हैं। अब हम क्या करें? सबसे पहली बात होगी, हम इस पंगुता को छोड़ दें। मां-बाप ने, समाज ने, परिस्थितियों ने, प्रोपेगेंडा ने जो कुछ आपको दिया हो, उसे एकबारगी अलग कर दें। उस कचरे को जो अलग नहीं करेगा, वह कभी अपने भीतर की अग्नि को उपलब्ध नहीं हो सकता। एक बार उसे हटा ही देना होगा।
संन्यासी हैं जो समाज को छोड़ कर भाग जाते हैं। लेकिन मैं वास्तविक संन्यासी उसे कहता हूं जिसने समाज ने जो-जो सिखाया हो उसे फेंक दिया हो। समाज को छोड़ कर भागना वास्तविक संन्यास नहीं है। समाज ने जो सिखाया हो, समाज ने जो टीचिंग्स दी हों, समाज ने जो विश्वास दिए हों, उन सबको जो फेंक दे वह वास्तविक संन्यासी है। और वैसे के लिए बहुत साहस चाहिए।
इसलिए मैं आपसे कहूं, श्रद्धा नहीं, जिज्ञासा, धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है। और जहां श्रद्धा पहला लक्षण होगा वहां आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। और ऐसे ही श्रद्धा वाले धार्मिकों ने सारी दुनिया को नष्ट किया है। धर्म का पूरा इतिहास खून खराबी, बेईमानी, अत्याचार, आक्रमण और हिंसा से भरा हुआ है। वह इन श्रद्धा वाले धार्मिकों के कारण भरा हुआ है। क्योंकि श्रद्धा हमेशा किसी के विरोध में खड़ा कर देती है। एक मुसलमान की श्रद्धा उसे हिंदू के विरोध में खड़ा कर देती है। एक हिंदू की श्रद्धा उसे ईसाई के विरोध में खड़ा कर देती है। एक जैन की श्रद्धा उसे बौद्ध के विरोध में खड़ा कर देती है।
लेकिन खयाल करें, जिज्ञासा किसी के विरोध में किसी को खड़ा नहीं करती। इसलिए श्रद्धा किसी भी हालत में धार्मिक आदमी का लक्षण नहीं हो सकता। जिज्ञासा किसी के विरोध में किसी को खड़ा नहीं करती। यही वजह है कि साइंस जो कि श्रद्धा पर नहीं खड़ी है, जिज्ञासा पर खड़ी है, एक है। पच्चीस तरह की साइंसिज नहीं हैं। हिंदुओं की अलग केमिस्ट्री; मुसलमानों की अलग केमिस्ट्री नहीं है। हिंदुओं का अलग गणित; जैनों का अलग गणित नहीं है। साइंस एक है, क्योंकि साइंस श्रद्धा पर नहीं, जिज्ञासा पर खड़ी है। धर्म भी दुनिया में एक होगा, अगर वह श्रद्धा पर नहीं, जिज्ञासा पर खड़ा हो। और जब तक धर्म अनेक हैं, तब तक धर्म के नाम से झूठ बात चलती रहेगी।
(किसी का बीच में हस्तक्षेप)
अलग-अलग धर्म होंगे, तब तक इस तरह का गुस्सा आना बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन मैं गुस्सा नहीं करूंगा, क्योंकि मेरी कोई श्रद्धा नहीं है। जिसकी श्रद्धा होती है वह गुस्से में आ सकता है। और यह कमजोरी है श्रद्धा की। और दुनिया में जितने श्रद्धालु हैं बहुत जल्दी गुस्से में आ जाते हैं। मेरी कोई श्रद्धा नहीं है, इसलिए मुझे गुस्से में लाना बहुत मुश्किल है। और दुनिया में मैं ऐसे लोग चाहता हूं जो जल्दी गुस्से में न आएं। ऐसे लोगों से धार्मिक दुनिया निर्मित होगी।
अभी तक तो जो कुछ इतिहास में हुआ है, धर्म के नाम से जो कुछ हुआ है, वह सब अधर्म हुआ है। धर्म के नाम से जो भी प्रचारित किया गया है वह सब झूठ है, बिलकुल असत्य है। और उस असत्य को जबरदस्ती लादने की हजार-हजार चेष्टाएं की गई हैं। लेकिन अगर कोई मनुष्य जिज्ञासा से प्रारंभ करे, तो स्वाभाविक है कि वे सारे धार्मिक लोग; जिनका व्यवसाय, जिनका धंधा केवल श्रद्धा पर खड़ा होता है, परेशान और गुस्से में आ जाएंगे। इसलिए दुनिया में जब भी कोई धार्मिक आदमी पैदा होता है, तो पुरोहित और ब्राह्मण और पंडित हमेशा उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं।
क्राइस्ट को जिन्होंने सूली दी, वे पुरोहित पंडित और धार्मिक लोग थे। सुकरात को जिन्होंने दिया जहर, वे लोग धार्मिक, पुरोहित, विचारशील लोग, पंडित थे। दुनिया में हमेशा पंडित धार्मिक आदमी के विरोध में रहा है। दुनिया में हमेशा पुरोहित धार्मिक आदमी के विरोध में रहा है। क्यों? क्योंकि धार्मिक आदमी सबसे पहले इस बात पर चोट करेगा कि धर्म के नाम पर बना हुआ जो भी प्रचारित संगठन है, धर्म के नाम पर जो भी संप्रदाय हैं, धर्म के नाम पर जो भी झूठे विश्वास और अंधश्रद्धाएं फैलाई गई हैं, वे नष्ट कर दी जाएं।
अगर क्राइस्ट फिर से पैदा हों, तो सबसे पहले जो उनके विरोध में खड़े होंगे, वे ईसाई, पुरोहित और पादरी होंगे। अगर कृष्ण फिर से पैदा हों, तो सबसे पहले उनके विरोध में जो खड़े होंगे, वे वे ही लोग होंगे जो गीता का प्रचार करते हैं और गीता को प्रचारित हुआ देखना चाहते हैं। अगर बुद्ध वापस लौटें, तो बौद्ध भिक्षु उनके विरोध में खड़े हो जाएंगे। यह बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि धर्म एक तरह का विद्रोह है। धर्म सबसे बड़ा विद्रोह है, सबसे बड़ी क्रांति है। और वह क्रांति इस बात से शुरू होती है कि श्रद्धा नहीं, हम जिज्ञासा करें। सत्य पर विश्वास न लाएं। क्योंकि अभी आपको सत्य पता ही नहीं है जिस पर आप विश्वास लाएंगे। अभी तो दूसरे जो आपसे कहते हैं उस पर ही आप विश्वास कर लेंगे। उसके सत्य और असत्य होने का आपको कुछ भी पता नहीं है। ऐसा विश्वास अंधा होगा, सब विश्वास अंधे होते हैं। क्यों? क्योंकि वे दूसरे आपको देते हैं। जो भी अभी आप मानते हैं, वह किसी दूसरे ने आपको दिया है। आपको कुछ भी पता नहीं कि वह ठीक है या गलत है। सिवाय इसके कोई प्रमाण नहीं है कि आपके मां-बाप ने उसे दिया है। आपके मां-बाप के पास भी यही प्रमाण है कि उनके मां-बाप ने उन्हें दिया है। जो परंपरा से उपलब्ध होता है वह कभी सत्य होने की संभावना नहीं है। जो स्वयं की निज खोज से उपलब्ध होता है वही सत्य होता है।
और इसलिए सत्य प्रत्येक को स्वयं पाना होगा, दूसरे से उधार पाने का कोई भी उपाय नहीं है। फिर जितनी गहरी श्रद्धा होगी उतना ही आपके भीतर विवेक का जागरण असंभव हो जाएगा। जितना तीव्र विश्वास होगा उतना ही विवेक क्षीण हो जाएगा। क्योंकि विश्वास विवेक-विरोधी है। वह हमेशा कहता है, मानो, वह यह कभी नहीं कहता, जानो। वह हमेशा कहता है, स्वीकार करो, वह यह कभी नहीं कहता, खोजो। वह हमेशा यह कहता है कि इसको बांध लो अपने मन में, इससे भिन्न मत सोचना, इससे अन्य मत सोचना, इसके विपरीत मत सोचना। जितनी श्रद्धा गहरी होगी, उड़ना उतना मुश्किल हो जाएगा।
मेरे पड़ोस में गांव में एक आदमी रहता था। वह जंगल से तोतों को पकड़ कर लाता और उनको पिंजड़ों में बंद कर देता। कुछ दिन वे तड़फड़ाते, उड़ने की कोशिश करते, फिर धीरे-धीरे पिंजड़ों के आदी हो जाते। यहां तक वे पिंजड़ों के आदी हो जाते कि अगर उनके पिंजड़े को खोल दिया जाए, तो वे थोड़ी देर बाहर जाकर वापस अपने पिंजड़े में आ जाते। बाहर असुरक्षा लगती और भीतर सुरक्षा मालूम होती। करीब-करीब ऐसी ही हमारे मन की हालत हो गई है। हमारा चित्त परंपरा, संस्कार, दूसरों के दिए गए विचार और शब्दों में इस भांति बंध गया है कि उसके बाहर निकलने में हमें डर लगता है, घबड़ाहट होती है। डर लगता है कि कहीं सुरक्षा न खो जाए। कहीं जिस भूमि को हम अपने पैर के नीचे समझ रहे हैं, कहीं वह हिल न जाए। इसलिए हम डरते हैं, इसलिए हम बाहर निकलने से घबड़ाते हैं। और जो अपने घेरों के बाहर नहीं निकल सकता, वह परमात्मा को कभी नहीं पा सकेगा। उसे मिलने के लिए तो सब घेरे तोड़ ही देने होंगे।
जिसे भी सत्य को पाना है, उसे सत्य के संबंध में सारे मत छोड़ देने होंगे। जिसे भी सत्य को पाना है उसे सारे विश्वास छोड़ कर विवेक को जाग्रत करना होगा। जिसका विवेक जाग्रत होगा, वही केवल सत्य को, वही केवल धर्म के मूलभूत सत्य को अनुभव कर पाता है।
इसलिए मैं चाहता हूं, विवेक छोड़ दें और विवेक को जाग्रत करें। घबड़ाहट क्या है? डर क्या है? डर यह है, डर हम सब अपने भीतर जानते हैं कि जिस विश्वास को हमने पकड़ा है, अगर हमने विचार किया तो वह टिकेगा नहीं। यह हमारी अंतर्निहित प्रज्ञा हमें कहती है कि विश्वास ऊपर है, अगर हमने थोड़ा भी विचार किया तो वह हट जाएगा। और तब घबड़ाहट लगती है। हम कोई भी बिना विश्वास के नहीं होना चाहते हैं। क्यों? कि तब हम अतल सागर में छोड़ दिए मालूम पड़ेंगे। तब हम पिंजड़े के बाहर अनंत आकाश में छोड़ दिए अनुभव होंगे। लेकिन जो इतना डरता है, वह स्मरण रखे, वह किसी संप्रदाय में हो सकता है, किसी धर्म में नहीं हो सकता। वह स्मरण रखे, वह किसी परंपरा में हो सकता है, लेकिन परमप्रज्ञा को नहीं उपलब्ध हो सकेगा।
तो मैं आपको पहली बात कहूं, विश्वास से अपनी नाव को छोड़ लें और जिज्ञासा के अनंत सागर में उसे बहने दें, उसे जाने दें, और घबड़ाएं न, वह कहीं भी जाए घबड़ाने की क्या बात है? डर की क्या बात है? और जो डरा है वह किनारे से ही बंधा रह जाता है। नाव को छोड़ना ही होगा। और हमारी सबकी नाव किसी न किसी भांति के विश्वास से बंधी है।
अगर दुनिया में विश्वास नष्ट हो जाएं, तो धर्म का जन्म हो सकता है। अगर दुनिया में सब विश्वास राख हो जाएं, तो धर्म की अग्नि पैदा हो सकती है। ईश्वर करे कि दुनिया में कोई ईसाई न हो; हिंदू न हो; मुसलमान न हो; जैन न हो। ईश्वर करे कि यह हो जाए, तो दुनिया में धर्म के होने की संभावना पैदा हो सकती है। धार्मिक धर्म को पैदा नहीं होने दे रहे हैं। और धार्मिक धर्म के जन्म को रोके हुए हैं। अब जिनमें साहस हो, उन्हें चाहिए कि वह धार्मिकों के इस पाखंड को नष्ट कर दें और धर्म के जन्म में सहयोगी बनें।
धर्म का जन्म जिज्ञासा से होगा; धर्म का जन्म विवेक और विचार से होगा। धर्म भी वस्तुतः एक विज्ञान है, एक साइंस है। परम विज्ञान है। वह कोई विश्वास नहीं है कि आप मान लें। वह भी जाना जा सकता है; वह भी अनुभव किया जा सकता है। कौन यह कहता है कि जो क्राइस्ट को अनुभव हुआ, वह आपको अनुभव नहीं होगा? जो यह कहता है, वह दुश्मन है। कौन यह कहता है कि जो बुद्ध को अनुभव हुआ, वह एक सड़क पर झाडू लगाने वाले को अनुभव नहीं होगा? जो यह कहता है, वह मनुष्य का दुश्मन है। हर मनुष्य के भीतर वही परम परमात्मा बैठा हुआ है। तो वह अनुभव, जो क्राइस्ट को हुआ हो, बुद्ध को हुआ हो, रामकृष्ण को हुआ हो, वह हरेक को हो सकता है। हरेक को होना चाहिए।
रुकावट है इसलिए कि हम दूसरों को स्वीकार किए हैं और अपने को जगा नहीं रहे हैं। दूसरों को हटा दें और अपने को जगाएं। आपके भीतर जो बैठा है उससे मूल्यवान और कोई भी नहीं है। और आपके भीतर जो बैठा है उससे पूज्य और कोई भी नहीं है। और आपके भीतर जो बैठा है उससे श्रेष्ठ और कोई भी नहीं है। लेकिन मुश्किल यह हो गई है, हमें सिखाया जाता है, अनुकरण करो, फाॅलो करो किसी को। कोई कहता है, क्राइस्ट को फाॅलो करो; कोई कहता है, महावीर को; कोई कहता है, बुद्ध के पीछे चलो। और मैं आपसे कहता हूं, जो भी किसी के पीछे चलेगा, वह अपने भीतर बैठे परमात्मा का अपमान कर रहा है। किसी के पीछे जाने का कारण क्या है? किसी के पीछे जाने का कारण नहीं है। अपने पीछे चलो और अपने परमात्मा को पहचानो, जो तुम्हारे भीतर है। और जब भी तुम किसी के चरणों में झुक रहे हो और किसी का पीछा कर रहे हो, तब तुम भीतर बैठे परम सत्य का इतना बड़ा अपमान कर रहे हो जिसका कोई हिसाब नहीं।
बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है अपने पिछले जन्म में, उन्होंने अपने पिछले जन्मों की कथाएं कही हैं। अपने पिछले जन्म में जब वे बुद्ध हुए उसके पहले के जन्म में वे एक गांव में गए। वहां एक बुद्ध पुरुष था, उसका नाम था दीपंकर। वे गए और उन्होंने दीपंकर के पैर छुए। जब वे पैर छूकर उठे, तो उन्होंने देखा कि दीपंकर उनके पैर छू रहा है। तो वे बहुत घबड़ा गए और उन्होंने कहा कि यह क्या कर रहे हैं? मैं एक अज्ञानी हूं, मैं एक सामान्यजन हूं, मैं एक अंधकार से भरी हुई आत्मा हूं। मैंने आपके पैर छुए, एक प्रकाशित पुरुष के, यह तो ठीक था, आपने मेरे पैर क्यों छुए?
दीपंकर ने कहाः तुमने अपने भीतर बैठी हुई प्रज्ञा का अपमान किया है, उसे बताने को। तुम मेरे पैर छू रहे हो यह सोच कर कि प्रकाश इनके पास है और मैं तुम्हारे पैर छू रहा हूं यह घोषणा करने को कि प्रकाश सबके पास है।
वह प्रत्येक के भीतर जो बैठा हुआ है उसे किसी के पीछे ले जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। और जब हम उसे पीछे ले जाने लगते हैं, तभी हम एक कांफ्लिक्ट में, एक अंतद्र्वंद्व में पड़ जाते हैं। असलियत यह है, इस जमीन पर, इस प्रकृति में, इस परमात्मा के राज्य में, दो कंकड़ भी एक जैसे नहीं होते हैं, दो पत्ते भी एक जैसे नहीं होते हैं। सारी जमीन को खोज आएं, दो पत्ते, दो कंकड़ एक जैसे नहीं मिलेंगे। दो मनुष्य भी एक जैसे कैसे हो सकते हैं? प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। और इसलिए जब कोई व्यक्ति, राम का अनुसरण करके राम बनने की कोशिश करता है; बुद्ध का अनुसरण करके बुद्ध बनने की कोशिश करता है, तभी भूल हो जाती है। इस जगत में परमात्मा ने प्रत्येक को अद्वितीय बनाया है। कोई किसी का अनुकरण करके कुछ भी नहीं बन सकेगा। एक थोथा पाखंड और एक अभिनय भर होकर रह जाएगा।
क्या इस बात के संबंध में इतिहास प्रमाण नहीं है? बुद्ध को मरे पच्चीस वर्ष हुए, क्राइस्ट को मरे दो हजार वर्ष होते हैं। इन दो हजार वर्षों में कितने लोगों ने बुद्ध के पीछे चलने की कोशिश की है और कितने लोगों ने क्राइस्ट के, क्या कोई दूसरा क्राइस्ट और दूसरा बुद्ध पैदा होता है? क्या यह दो हजार, ढाई हजार वर्ष का असफल प्रयास इस बात की सूचना नहीं है कि यह कोशिश ही गलत है? असल में कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं हो सकता। और जब भी कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा होने की कोशिश करता है तभी वह अंतद्र्वंद्व में, एक कांफ्लिक्ट में एक परेशानी में पड़ जाता है। जो वह है उसे तो भूल जाता है और जो होना चाहता है उसकी कोशिश पैदा कर लेता है। इस भांति उसके भीतर एक बेचैनी, एक अशांति और एक संघर्ष पैदा हो जाता है।
परमात्मा को तो केवल वे ही पा सकते हैं, जो शांत हों। जो अशांत हैं, वे कैसे पा सकेंगे। जो व्यक्ति भी किसी दूसरे की नकल में कुछ होना चाह रहा है, वह अनिवार्यता अशांत हो जाएगा। उसकी अशांति उसे परमात्मा के पास नहीं पहुंचा सकेगी। अगर जुही के फूल गुलाब होना चाहें, और गुलाब के फूल कमल होना चाहें, तो जैसी बेचैनी और परेशानी में पड़ जाएंगे, वैसी बेचैनी और परेशानी हम पड़ जाते हैं जब हम किसी का अनुकरण करते हैं।
इसलिए दूसरी बात आपसे मैं कहना चाहता हूंः अनुकरण नहीं, आत्म-खोज। अनुकरण नहीं, आत्म-खोज। मैंने पहली बात आपसे कहीः श्रद्धा नहीं, जिज्ञासा। दूसरी बात कहना चाहता हूंः अनुकरण नहीं, आत्म-खोज।
किसी का अनुकरण नहीं। कोई किसी के लिए आदर्श नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श उसके अपने भीतर छिपा है, जिसे उघाड़ना है। और अगर हम उसे नहीं उघाड़ते और हम किसी के पीछे जाते हैं, हम भूल में पड़ जाएंगे, हम भटकन में पड़ जाएंगे। और मैं आपको कहूं कि आप लाख उपाय करें, क्राइस्ट या बुद्ध या कृष्ण के पीछे जाने का, आप कभी कृष्ण, बुद्ध और क्राइस्ट नहीं हो सकेंगे। लेकिन जो मैं आपसे कह रहा हूं, अगर आप ये उपाय आप छोड़ दें और अपने को खोजें और अपने को जगाएं तो आप कृष्ण, क्राइस्ट और बुद्ध हो जाएंगे। अपनी निज हैसियत में, अपने ही निज व्यक्तित्व में आप उस उपलब्धि और अनुभूति को पा लेंगे। जो पीछे जाने वाला नहीं उपलब्ध करता है, वह अपने भीतर जाने वाला उपलब्ध कर लेता है।
दूसरी बात हैः अनुकरण नहीं। अनुकरण नहीं का अर्थ हुआः किसी मनुष्य के लिए कोई दूसरा मनुष्य आदर्श नहीं है। हो भी नहीं सकता। लेकिन हमें समझाया गया है और हमें बताया गया है कि कोई न कोई आदर्श बनाओ। और जब भी हमसे यह कहा जाता है कि कोई न कोई आदर्श बनाओ, तभी हम क्या करेंगे, हम किसी मनुष्य को आदर्श बना लेंगे। और तब हम उसके भांति होने की कोशिश में लग जाएंगे। यह कोशिश झूठी होगी, इसलिए झूठी होगी कि यह केवल अभिनय होगा।
मैं एक गांव में गया, मेरे एक मित्र वहां साधु हो गए थे, उन्हें देखने गया। एक पहाड़ी के किनारे, एक छोटे झोपड़े में वे रहते थे। मैं उनसे मिलने गया, उनको कोई खबर नहीं की और गया। मैंने खिड़की से देखा, वे अपने कमरे में नंगे होकर टहल रहे हैं। कपड़े उतार दिए हैं, नग्न होकर टहल रहे हैं। मैंने जाकर दरवाजा खटखटाया, उन्होंने जल्दी से दरवाजा खोला, और चादर लपेट कर दरवाजा खोल दिया। मैंने उनसे पूछा कि अभी आप नग्न थे, फिर यह चादरक्यों पहन ली? वे मुझसे बोलेः मैं धीरे-धीरे नग्न साधु होने का अभ्यास कर रहा हूं। अभी मुझे भय मालूम होता है, इसलिए अकेले में नग्न होने का अभ्यास करता हूं। फिर धीरे-धीरे मित्रों के सामने करूंगा, फिर गांव में, फिर धीरे-धीरे मैं अभ्यस्त हो जाऊंगा। मैंने उनसे कहाः किसी सर्कस में भर्ती हो जाएं। क्योंकि नग्न होने का अभ्यास करके जो आदमी नंगा हो जाएगा, वह सर्कस के लायक है, संन्यास के लायक नहीं है।
वे महावीर को अपना आदर्श बनाए हुए थे और उनको खयाल था कि चूंकि महावीर नग्न हो गए, इसलिए मैं भी नग्न हो जाऊं। मैंने उनसे कहाः पता है कि महावीर नग्न अभ्यास करके नहीं हुए थे। महावीर की नग्नता सहज थी। एक वक्त एक प्रतीति, एक संभावना उनके भीतर उदित हुई, उन्हें वस्त्र अनावश्यक हो गए, उन्हें याद भी न रहा कि वस्त्र पहनने हैं। वह उस सरलता को, उस निर्दोष अवस्था को उपलब्ध हुए, जहां ढांकने का उन्हें कोई खयाल ही न रहा, वस्त्र छूट गए। यह तो मेरी समझ में आता है। एक आदमी नग्न होने का अभ्यास करके नग्न हो जाए, इसकी नग्नता बहुत दूसरी होगी, यह अभिनय और पाखंड होगा।
किसी आदमी के भीतर प्रेम का स्फुरण हो और वह सारी दुनिया के प्रति प्रेम से भर जाए और अहिंसा से भर जाए, यह तो समझ में आता है, लेकिन एक आदमी चेष्टा करे, प्रयास करे, अभ्यास करे अहिंसक होने का, यह समझ में नहीं आता। हमारी जितनी भी चेष्टाएं दूसरों को देख कर होंगी, वे हमें गलत ले जाएंगी और हमारे जीवन को व्यर्थ कर देंगी। इसी वजह से सामान्यजन भी उतना असंतुष्ट और अशांत नहीं होता, जितना तथाकथित साधु और संन्यासी होते हैं। वे सारे एक पागलपन में लगे हुए हैं, एक तरह की न्यूरोसिस उनको पकड़े हुए है। किसी दूसरे आदमी जैसा होना है, यह पागलपन है, यह विक्षिप्तता है। किसी दूसरे जैसे होने की कोशिश बिलकुल पागलपन है। क्योंकि यह सारी चेष्टा का परिणाम होगा, आत्म-दमन। इसका अर्थ होगा, रिप्रेशन। जो तुम हो उसे दबाओ और जो तुम नहीं हो उसको होने की कोशिश करो। ऐसा व्यक्ति अपने ही हाथ से नरक में पहुंच जाता है। चैबीस घंटे नरक में जीने लगता है। जो वह है उसकी निंदा करता है और जो उसे होना है उसकी चेष्टा करता है।
मैं आपसे कहना चाहूंगा, जो आप हैं उसे परिपूर्णतया जानें, और आपके जीवन में क्रांति हो जाएगी। आपको कोई और होने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो आप वस्तुतः हैं, उसे ही जान लें, और क्रांति हो जाएगी। और जो आप उपाय करके नहीं पा सकेंगे, वह अपने ही भीतर जाकर आपको उपलब्ध हो जाएगा।
इसलिए मैंने कहाः अनुकरण नहीं, आत्म-खोज। और तीसरी बात मैं आपसे कहना चाहता हूं, क्योंकि हमारी सारी चेतना कुछ ऐसी भ्रांत और गलत बातों से भर गई हैं कि उसे खाली करना बहुत जरूरी है। वह मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि मनुष्य जितना ज्यादा अपने को संवेदनशील बनाए, जितना ज्यादा अपने भीतर संवेदना को पैदा करे, उतना ज्यादा सत्य के करीब पहुंचेगा। इसलिए सत्य की खोज नहीं, संवेदना की उत्पत्ति। इसे समझ लें, अगर एक अंधा आदमी मुझसे आकर कहे कि मुझे प्रकाश को जानना है, तो क्या मैं उसे सलाह दूंगा कि तुम जाओ और प्रकाश के संबंध में लोगों से समझो, वे तुम्हें जो बताएं उसे याद कर लो, तो तुम्हें प्रकाश का पता हो जाएगा?
मैं उससे कहूंगा, प्रकाश के संबंध में मत जानने की फिकर करो, आंख ठीक हो जाए, आंख का उपचार हो जाए, इसकी चिंता करो। अगर आंख का उपचार हो जाए तो प्रकाश का अनुभव होगा, लेकिन अगर आंख का उपचार न हो तो प्रकाश के संबंध में कुछ भी जान लेने से कोई अनुभव नहीं होता है। आंख संवेदना है, प्रकाश सत्य है। सत्य के खोजी को भी मैं कहता हूं, ईश्वर के खोजी को भी मैं कहता हूं, ईश्वर की फिक्र छोड़ दो, संवेदना की फिक्र करो। हमारी जितनी गहरी संवेदना होगी, उतने ही दूर तक सत्य के हमें दर्शन होते हैं।
मैं आपको देख रहा हूं, मेरी देखने की शक्ति आपके शरीर के पार नहीं जाती। इसलिए मैं आपके शरीर को देख कर वापस लौट आता हूं। अपने को देखता हूं, तो अपने को देखने में भी शक्ति मेरी मन के पार नहीं जाती, तो मन को देख कर वापस लौट आऊंगा। मेरे देखने की शक्ति जितनी गहरी होगी, उतना गहरा सत्य का मुझे अनुभव होगा। जो लोग परमात्मा को अनुभव करते हैं, उनके देखने की शक्ति इतनी तीव्र है कि वे प्रकृति को पार कर जाते हैं और परमात्मा को देख लेते हैं। प्रकृति से अलग कहीं परमात्मा नहीं बैठा हुआ है, जो चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है इसमें ही वह छिपा है। अगर हमारी आंख गहरी हो, तो हम आवरण को पार कर जाएंगे और केंद्र को अनुभव कर लेंगे।
इसलिए सवाल ईश्वर की खोज का नहीं, सवाल अपनी संवेदना को गहरा करने का है। हम जितनी गहरा-गहरा अनुभव कर सकें, उतने गहरे सत्य हमें प्रकट होने लगेंगे। लेकिन हमें सिखाई कुछ और बातें गई हैं। हमें सिखाया जाता हैः ईश्वर को खोजो। तब कुछ पागल हिमालय पर ईश्वर को खोजने जाते हैं। जैसे यहां ईश्वर नहीं है! तब कोई एकांत वन में ईश्वर को खोजने जाता है। जैसे भीड़ में ईश्वर नहीं है! तब कोई भटकता है, दूर-दूर तीर्थों की यात्राएं करता है कि वहां ईश्वर मिलेगा। जैसे इन जगहों में जो तीर्थ नहीं है, वहां ईश्वर नहीं है! ईश्वर उसे मिलता है जिसकी संवेदना गहरी हो। न हिमालय पर जाने से मिलता है, न तीर्थों में जाने से मिलता है, न वनों में जाने से मिलता है। संवेदना गहरी हो तो ईश्वर यहीं, इसी क्षण उपलब्ध है। जिसे देखने की शक्ति हो, उसे यहां प्रकाश है और जिसकी आंख न हो ठीक, उसे यहां प्रकाश नहीं है।
इसलिए महत्वपूर्ण ईश्वर की खोज नहीं, संवेदना की खोज है। और हम बहुत कम संवेदनशील हैं। हम बहुत ही कम संवेदनशील हैं। हमें कुछ अनुभव ही नहीं होता। हम करीब-करीब मूच्र्छित जीते हैं।
रात को अगर चांद निकलता हो, बहुत कम लोग हैं जो अनुभव करते हों उसके सौंदर्य को। अगर रास्ते के किनारे फूल खिले हों, बहुत कम लोग हैं जो अनुभव करते हों उन फूलों के भीतर छिपे हुए रहस्य को। चारों तरफ प्रकृति का जो मिरेकल, जो चमत्कार निरंतर घटित हो रहा है, बहुत कम लोग हैं जो उसे देख पाते हैं। हम अपने में सोए हुए हैं। हम करीब-करीब सोए हुए लोग हैं।
मैं एक मित्र को लेकर एक पहाड़ी पर गया हुआ था। पूर्णिमा की रात थी। हमने नदी में देर तक नाव पर यात्रा की। वे मेरे मित्र स्विटजरलैंड होकर लौट थे। जब तक हम उस छोटी सी नदी में, उस छोटी सी नौका पर थे, तब तक वे स्विटजरलैंड की बातें करते रहे। वहां की झीलों की, वहां के चांद की, वहां के सौंदर्य की। कोई घंटे भर बाद जब हम वापस लौटे, तो वे बोले कि बहुत अच्छी जगह थी जहां आप मुझे ले गए।
मैंने उनसे कहाः क्षमा करें! आप वहां पहुंचे नहीं, मैं तो आपको ले गया, आप वहां नहीं पहुंचे। मैं तो वहां था, आप वहां नहीं थे।
वे बोले मतलब?
मैंने कहाः आप स्विटजरलैंड में रहे। और मैं आपको यह भी कह दूं कि जब आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे तब आप वहां भी नहीं रहे होंगे, क्योंकि मैं आपको पहचान गया, आपकी वृत्ति को पहचान गया। तब आप कहीं और रहे होंगे।
हम करीब-करीब सोए हुए हैं। जो हमारे सामने होता है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। जो हम सुन रहे हैं, वह हमें सुनाई नहीं पड़ता। हमारा मन किन्हीं और चीजों से भरा रहता है। वही व्यक्ति संवेदनशील हो सकता है जिसका मन शून्य हो। चांद के करीब जिसका मन बिलकुल शून्य है, वह चांद के सौंदर्य को अनुभव कर लेगा। फूल के करीब जिसका मन बिलकुल शून्य है, वह फूल के सौंदर्य को अनुभव कर लेगा। अगर मैं आपके पास हूं और बिलकुल शून्य हूं, तो मैं आपके भीतर जो भी है उसे अनुभव कर लूंगा। अगर कोई व्यक्ति परम शून्य को उपलब्ध हो गया है, तो इस जगत के भीतर जो भी छिपा है, उसमें उसकी गति और प्रवेश हो जाएगा। जो अपने भीतर भरे हुए हैं, वे बिलकुल बोथले होते हैं, उनकी कोई संवेदना, सेंसेटिविटी उनमें नहीं होती। और जो अपने में खाली होते हैं, उनके भीतर अदभुत संवेदना का जन्म होता है।
इस जगत में सब तरफ परमात्मा छिपा हुआ है। हमारे भीतर संवेदना चाहिए। लेकिन हम तो पागल हैं, हम तो अपने भीतर बहुत भरे हुए हैं। जो थोड़ी बहुत खाली जगह है, उसे गीता, कुरान और बाइबिल से भर देते हैं। दुकान से भरे हुए हैं, बाजार से भरे हुए हैं, काम-धंधे से, जिंदगी की बातों से भरे हुए हैं। कुछ थोड़ी बहुत खाली जगह है, तो गीता, कुरान, बाइबिल से उसे भर लेते हैं।
भीतर सब भर जाता है। भीतर कचरा ही कचरा इकट्ठा हो गया। अपनी खोपड़ी के भीतर देखें; कभी थोड़ी देर बैठ कर देखें, वहां क्या चल रहा है? तो वहां आप पाएंगे, वहां सब फिजूल की बातें भरी हुई हैं। वहां प्रवेश के लिए बिलकुल जगह नहीं है। वहां कोई संवेदना गति नहीं पा सकती, वहां कोई द्वार नहीं है। ऐसा बंद मस्तिष्क, ऐसी क्षुद्र बातों के बोझ से भरा हुआ मस्तिष्क, कैसे सत्य को, कैसे सौंदर्य को अनुभव कर सकेगा? और फिर इसी मस्तिष्क को लेकर हम भगवान की खोज में निकल जाते हैं--हिमालय पर जाते हैं, गुरुओं के चरणों में जाते हैं, मंदिरों में, मस्जिदों में जाते हैं। यह दिमाग लेकर कहीं भी जाने से कुछ न होगा। इसे खाली कर लें, फिर कहीं जाने की जरूरत नहीं है, जहां होंगे वहीं अनुभूति आनी शुरू हो जाएगी।
सत्य की खोज नहीं, संवेदना। परमात्मा की खोज नहीं, संवेदना का उदघाटन। और संवेदना का उदघाटन होता है मनुष्य जब शून्य हो। इस शून्य को ही मैं समाधि कहता हूं। इस शून्य को ही मैं ध्यान कहता हूं। इस शून्य को ही मैं प्रार्थना कहता हूं। आपकी प्रार्थनाओं को मैं प्रार्थना नहीं कहता। वे तो भरे हुए मस्तिष्क के ही लक्षण हैं। उसमें भी आप कुछ बोले जा रहे हैं, कुछ कहे जा रहे हैं, कुछ रटा हुआ दोहराए जा रहे हैं। ये प्रार्थनाएं नहीं हैं। आपके भजन-कीर्तन प्रार्थनाएं नहीं हैं, ये तो सब भरे हुए मस्तिष्क के लक्षण हैं। आप बोले जा रहे हैं, परमात्मा को बोलने का तो मौका नहीं दे रहे। आप अपना उंड़ेले जा रहे हैं, परमात्मा आपमें अपने को डाल सके, इसके लिए तो आप खाली नहीं हैं।
स्मरण रखें, जब वर्षा होती है, तो जो उठे हुए टीले हैं उन पर पानी नीचे बह जाता है और जो गड्ढे हैं उनमें भर जाता है।
परमात्मा की वर्षा प्रतिक्षण हो रही है। जो खाली होंगे, वे भर दिए जाएंगे; जो भरे होंगे, वे खाली रह जाएंगे। और पंडित से भरा हुआ आदमी दूसरा नहीं हो सकता। उसका मस्तिष्क तो भरा हुआ होता है।
अपने मस्तिष्क को खाली करना सीखें। और यह सरल है, यह कठिन नहीं है। थोड़े साहस, थोड़े विवेक की जरूरत है। यह संभव है कि आपका मस्तिष्क खाली हो जाए। शून्यता, जागरूकता के परिणाम में उपलब्ध होती है। जो व्यक्ति जितना जागरूक होकर जीवन में जीता है वह उतना शून्य होता जाता है।
समझ लें, मैं यहां एक सौ फीट लंबी और एक फीटचैड़ी लकड़ी की एक पट्टी रख दूं, और आपसे कहूं कि उस पर चलें, तो आप गिरेंगे कि पार निकल जाएंगे? सभी पार निकल जाएंगे। छोटे बच्चे, स्त्रियां, बूढ़े सभी पार निकल जाएंगे। सौ फीट लंबी, एक फीटचैड़ी लकड़ी की पट्टी रखी हुई है, आपसे मैं कहूं चलें इस पर, आप सभी निकल जाएंगे, कोई भी गिरेगा नहीं। फिर समझ लें कि इस ऊपर के स्थान से दीवाल तक वह सौ फीट लंबी पट्टी रख दी गई हो और नीचे यह गड्ढा हो और फिर आपसे कहा जाए, इस पर चलें; आपमें से कितने लोग चल पाएंगे? फर्क तो कुछ भी नहीं हुआ है। वह पट्टी एक फीटचैड़ी और सौ फीट लंबी अब भी है। जितनी जमीन पर रखे समय थी, उतनी अब दो मकानों के ऊपर रखे हुए भी है। फिर अब जाने में डर क्या है? घबड़ाहट क्या है? कितने लोग उसको पार हो पाएंगे? कितने लोग पार जाने की हिम्मत करेंगे? कठिनाई क्या आ गई? उसकी लंबाई-चैड़ाई वही की वही है, आप भी वही के वही आदमी हैं। इस नीचे के गड्ढे से फर्क क्या पड़ रहा है? फर्क यह पड़ रहा है कि जब नीचे पट्टी रखी थी, आपको मूच्र्छित चलना ही संभव था, कोई कठिनाई नहीं थी। आप अपने दिमाग में कुछ भी सोचते हुए चल सकते थे। अब ऊपर आपको परिपूर्ण जागरूक होकर चलना होगा। अगर जरा भीतर दिमाग में कुछ गड़बड़ हुई, बातें चलीं, आप नीचे हो जाएंगे। घबड़ाहट है आपकी मूच्र्छा। जो जागरूक है वह ऊपर भी चल जाएगा, कोई फर्क नहीं पड़ता, जमीन जैसे नीचे थी वैसे ऊपर भी है। कौन सा फर्क पड़ रहा है? जागरूक अपने शरीर, अपने मन, अपने विचार, सबके प्रति जागा हुआ होता है, मूच्र्छित सोया हुआ होता है। तो नीचे तो चल जाते हैं आप, क्योंकि वहां कोई मूच्र्छा के तोड़ने की जरूरत नहीं है, ऊपर चलने में घबड़ाते हैं।
मुझसे लोग कहते हैं कि जागरूक कैसे हों?
तो मेरे गांव के पास एक छोटी सी पहाड़ी है, वहां एक बड़ा नीचे खंडहर है और एक छोटी सी पट्टी है, जिस पर चलने में प्राण कंपते हैं। मैं उन्हें वहां ले जाता। और उनसे कहता हूं, इस पर चलें, तो आपको पता चल जाएगा कि जागरूकता क्या है। उस पर दो कदम चलते हैं और कहते हैं कि निश्चित ही इसके भीतर जाते ही एकदम चित्त शून्य हो जाता है और हम एकदम जाग जाते हैं।
जैसे किसी पहाड़ की कगार पर चलते वक्त आप बिलकुल होश से चलते हैं, ठीक वैसे ही चैबीस घंटे जो आदमी होश को सम्हालता है वह क्रमशः शून्य हो जाता है।
राइटमाइंडफुलनेस का मतलब यह हैः सम्यक जागरण, होश। बोधपूर्वक जीने का अर्थ यह हैः जो भी आप करते हों--उठते हों, बैठते हों, सोते हों, भोजन करते हों, काम करते हों, सड़क पर चलते हों, होशपूर्वक करें। उठना, बैठना, चलना, शरीर की, मन की सारी गतियांहोशपूर्वक हों, आपको दिखाई पड़ता रहे कि मैं क्या कर रहा हूं। भीतर मूच्र्छा को तोड़ें। चैबीस घंटे ऐसे जीएं जैसे कि बहुत डेंजर में हैं, बहुत खतरे में हैं। धार्मिक व्यक्ति इस भांति जीता है जैसे डेंजर में है। और डेंजर है! खतरा है! मौत चैबीस घंटे घेरे हुए है। यह छोटा सा गड्ढा तो कोई खतरा नहीं है। एक पहाड़ के किनारे पर चलने में खतरा क्या है? मौत का ही खतरा है न, गिर गए तो मर जाएंगे। और अभी आप सोच रहे हैं कि जिस किनारे पर आप खड़े हैं उसके नीचे मौत नहीं है? चैबीस घंटे हर आदमी मौत के किनारे पर खड़ा हुआ है। जो होश में नहीं है वह पागल है, नासमझ है।
चैबीस घंटे पहाड़ की कगार पर आप चल रहे हैं और किसी भी क्षण गिर जाएंगे। रोज लोगों को गिरते देख रहे हैं। रोज लोग गिरते जाते हैं, आप भी गिर जाएंगे। जिंदगी पूरे वक्त मौत के किनारे पर है। एकदम डेंजर चारों तरफ है, खतरा चारों तरफ है। जो सजग नहीं है, वह गलती कर रहा है, वह भूल कर रहा है। चैबीस घंटे की समस्त क्रियाएं, चाहे शरीर की, चाहे मन की, सजग होनी चाहिए। जो व्यक्ति जितना सजग हो जाएगा भीतर, उतना ही पाएगा भीतर शून्य आ जाता है। और जब शून्य आ जाता है, तो आप परमात्मा को अपने भीतर आमंत्रित करने में समर्थ हो जाते हैं। आपका द्वार खुल गया। अब सूर्य की रोशनी भीतर आ सकती है। आपकी आंख खुल गई, अब आप प्रकाश को देख सकते हैं। अब आपके हृदय के कपाट खुल गए, अब परमात्मा प्रवेश कर सकता है। जो खाली है, वह परमात्मा से भर जाता है। खाली हों और परमात्मा को उपलब्ध हो जाएंगे। और जब आप परमात्मा को उपलब्ध होंगे तो सब बदल जाएगा।
मैंने आपसे कहाः श्रद्धा नहीं, जिज्ञासा। और जब आप परमात्मा को उपलब्ध होंगे, तो जिज्ञासा श्रद्धा में परिणित हो जाएगी। तब आप जानेंगे और जानना आपको विश्वास से भर देगा, वह विश्वास बहुत दूसरा है। वह दूसरों का दिया हुआ विश्वास नहीं है, वह स्वयं के ज्ञान से उत्पन्न हुआ है।
और मैंने कहाः ईश्वर की खोज नहीं, संवेदना। जब आपकी संवेदना परिपूर्ण होगी, आप ईश्वर को पा जाएंगे। और मैंने कहाः अनुकरण नहीं, आत्म-खोज। और जब आप स्वयं को जानेंगे, तो आप पाएंगे, आप सबके अनुकरण को उपलब्ध हो गए। फिर क्राइस्ट और बुद्ध और महावीर सबके आदर्श को आप उपलब्ध हो गए। मैंने आपसे कहाः श्रद्धा नहीं, जिज्ञासा। इसलिए कि आप वास्तविक श्रद्धा को उपलब्ध हो सकें। मैंने आपसे कहाः अनुकरण नहीं, आदर्श नहीं, आत्म-खोज, ताकि आप वास्तविक आदर्श को उपलब्ध हो सकें। और मैंने आपसे कहाः ईश्वर नहीं, संवेदना की तलाश, ताकि आप वस्तुतः ईश्वर को अनुभव कर सकें। ये बातें उलटी मालूम हो सकती हैं कि मैं श्रद्धा छोड़ने को कह रहा हूं ताकि श्रद्धा का, वास्तविक श्रद्धा का जन्म हो सके। और मैं ईश्वर को भूलने को कह रहा हूं और संवेदना पैदा करने को, ताकि ईश्वर पाया जा सके। और मैं सब आदर्श छोड़ने को कह रहा हूं, ताकि वास्तविक आदर्श का आपके भीतर जन्म हो सके। अगर आप मेरी बात को समझेंगे, तो उनमें विरोध नहीं दिखाई पड़ेगा। क्यों? क्योंकि जो खाली है, वह भर दिया जाता है; इसमें विरोध कहां है। खाली ही भरा जा सकता है। जो शून्य है वही केवल पूर्ण को उपलब्ध हो सकता है।
इसलिए समग्र भाव से, अशेष भाव से शून्य हो जाना साधना है। अशेष भाव से शून्य हो जाना समर्पण है। अशेष भाव से शून्य हो जाना परमात्मा के मार्ग पर अपने चरणों को बढ़ा देना है। जो शून्य होने का साहस करता है, वह पूर्ण को पाने का अधिकारी हो जाता है। और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर यह संभावना है, यह बीज है कि वह परमात्मा हो सके। अगर हम उपलब्ध नहीं हुए, तो हमारे सिवाय और किसी का उत्तरदायित्व नहीं होगा; अगर हम उपलब्ध नहीं हुए, तो हमारे सिवाय और कोई जिम्मेवार नहीं होगा; अगर हम उपलब्ध नहीं हुए, तो हमारे सिवाय और, और किसी का भी दोष नहीं है।
इसलिए स्मरणपूर्वक इस बात को सोचें और देखें, स्मरणपूर्वक अपनी पूरी संभावनाओं को समझें, स्मरणपूर्वक अपने जीवन को परिवर्तित करें, स्मरणपूर्वक सजग हों और शून्य हो जाएं। और यह खयाल रखें कि कोई परमात्मा को उपलब्ध होता है, तो कोई विशेषता नहीं है। हरेक मनुष्य की उतनी ही संभावना है। लेकिन अगर हम ध्यान ही न देंगे, अगर हम उस तरफ देखेंगे ही नहीं, तो हम अपनी संभावना से वंचित हो जाएंगे। अगर एक बीज वृक्ष हो सकता है, तो सारे बीज वृक्ष हो सकते हैं।
व्यवस्था जुटानी होगी कि बीज वृक्ष हो सकें। पानी और खाद और जमीन और रोशनी जुटानी होगी। क्या है पानी? क्या है खाद? क्या है रोशनी? उसकी मैंने चर्चा की। जिज्ञासा; अनुकरण नहीं, आत्म-खोज। ईश्वर नहीं संवेदना की तलाश। और अपने को भरना नहीं, अपने को खाली कर लेना। यह भूमिका है, जो इसे पूरा करता है, आश्वासन है, सदा से आश्वासन है, वह परमात्मा को निश्चित ही उपलब्ध हो जाता है। और अगर आप परमात्मा को उपलब्ध न हों, तो अपने कर्मों को दोष मत देना, समझना कि कुछ गलत कर रहे थे। समझना कि जहां जिज्ञासा करनी थी वहां श्रद्धा कर रहे थे। समझना कि जहां स्वयं को खोजना था वहां अनुकरण कर रहे थे। समझना कि जहां संवेदना गहरी करनी थी वहां ईश्वर की तलाश में भटक रहे थे। समझना कि जहां शून्य होना था वहां दूसरों के उधार विचारों और ग्रंथों से अपने को भर रहे थे।
कर्मों का दोष नहीं है, दृष्टि का दोष है। और दृष्टि के दोष को छिपाने के लिए सारी हम बातें कर लेते हैं। कि हमारे कर्म ही बुरे हैं, हमारे पिछले जन्म ही बुरे हैं, इसलिए हम नहीं पा रहे हैं। यह सब का सब अपने को समझाना है। ये सब एक्सप्लेनेशंस हैं, जो झूठे हैं।
मैं आपको कहता हूं, ठीक दृष्टि हो, तो परमात्मा इसी वक्त उपलब्ध है। परमात्मा को तो कभी किसी ने खोया ही नहीं, हम उसमें ही खड़े हुए हैं, केवल दृष्टि गलत है। केवल दृष्टि और जगह भटक रही है। इसलिए उसे जो कि पाया ही हुआ है, हम खोया हुआ अनुभव कर रहे हैं।
दृष्टि वापस लौट आए अपने उस किले पर जो सबके भीतर है, परमात्मा यहीं और अभी उपलब्ध हो जाता है। ईश्वर करे, दृष्टि लौटे; ईश्वर करे, आपकी श्रद्धा जिज्ञासा बने; ईश्वर करे, आप अन्वेषण में लगें; आपके भीतर प्यास और अभीप्सा पैदा हो और किसी दिन आप उस परम शांति को, परम सौंदर्य को जान सकें। जिसे जाने बिना जीवन झूठा है, जिसे जाने बिना जीवन मृत्यु है; और जिसे जान कर जीवन ही नहीं मृत्यु भी अमृत हो जाती है, उसकी कामना करता हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। मेरी कोई बात बुरी लगी हो, फिर क्षमायाचना करता हूं। लेकिन कहूंगा, उसे सोचना, क्रोध मत करना; क्योंकि क्रोध से कोई हल नहीं होता। मेरी कोई बात बुरी लगी हो, उसे सोचना, क्रोध मत करना। क्रोध से कोई हल नहीं होता; और क्रोध विचार का नहीं, अविचार का लक्षण है। मेरी बात कोई ठीक लगी हो, तो उसे मान मत लेना; प्रयोग करना। क्योंकि मान लेना छोटी बुद्धि का लक्षण है। प्रयोग करना, समझदार का, विवेकशील का लक्षण है। मेरी बात बुरी लगी हो, तो विचार करना। मेरी बात भली लगी हो, तो मान मत लेना; उस पर प्रयोग करना। जो प्रयोग करता है, वह उपलब्ध होता है। अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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