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गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

अमृृृत कण-(अज्ञान)-06

अज्ञान-ओशो

पाप क्या है? अज्ञान ही पाप है। शेष सारे पाप तो उसकी ही छायाएं हैं। इसलिए मैं कहूंगा कि छायाओं से नहीं, वरन उससे ही लड़ो जो कि उनका मूल है और आधार है। जो छायाओं से लड़ता है, वह निश्चय ही भटक जाता है। छायाओं से लड़कर जीत तो असंभव ही है। बस हार ही हो सकती है।  कन्फ्न्युसियस ने कभी कहा थाः अज्ञान ही मन की रात्रि है। इस रात्रि में फिर न मालूम कितने पापों की प्रति छायाएं खड़ी हो जाती हैं। रात्रि के साथ ही उनकी सत्ता है और रात्रि के साथ ही उनकी मृत्यु है। जो जानता है, वह उनसे वही वरन उनकी जन्मदात्री रात्रि से ही लड़ता है। और लड़ना भी रात्रि से लड़ने का कोई उपाय नहीं। उस प्रकाश की संभावना भी प्रत्येक के भीतर ही है। जो मन अज्ञान के कारण रात्रि है, वही मन प्रज्ञा के प्रकाश से दिवस भी बन जाता है।  स्व विवेक को प्र वलित कर निश्चय ही समस्त अंधकार नष्ट किया जा सकता है। किंतु जो आलोक भीतर है उसे हम बाहर खोजते हैं और इसलिए उपलब्ध नहीं कर पाते। आलोक पाने के लिए भीतर मुड़ना है,
लेकिन वहां भी बाहर से आए प्रभावों ने सभी कुछ ढांक रखा है। ये बाट प्रभाव ही हमारे विचार बन गए हैं और विचारों की राख में विवेक की अग्नि दबी है।  विचार और विचारों की पर्तों से उसे ढांक रखा है जो कि हमारी विचार की शक्ति है। किंतु विचारों की राख को अलग कर जो स्वयं में झांकता है, वह पता है कि वहां तो एक ऐसी अग्नि जल रही है, जो कि अनादि और अनंत है। इस अग्नि को अनावृत कर लेना ही अलोक के मूल स्रोत को पा लेना है।  अज्ञान को छिपाना हो तो दूसरों से ज्ञान को सीख लो। लेकिन ज्ञान को पाने का वह मार्ग नहीं। वस्तुतः तो दूसरों के ज्ञान से ज्ञानी बनने से बड़ा कोई अज्ञान नहीं है।  अज्ञान की आत्मा है आत्म-अज्ञान। जो स्वयं को ही नहीं जानता, उसके कुछ भी जानने का क्या मूल्य? और स्वयं को जानना न किसी शास्त्र से हो सकता है, न किसी शास्ता से। उसके लिए तो स्वयं की चित्त की निद्रा को तोड़ना होगा। उस दिशा में कोई भी सहारा नहीं और कोई भी शरण नहीं है। इससे हम जिनमें साहस है और स्वयं पर विश्वास है, केवल वे ही सत्य की ओर जा सकते हैं।
 ओशो

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