ध्यान
योग शिविर
दिनांक
14 जनवरी
रात्रि:
माथेरान।
सूत्र
:
एतद्वस्तुचतुष्टयं
यस्य लक्षणं
देशकालवस्तुनिमित्तेध्वव्यभिचारी
तत्पदार्थ:
परमात्मेख्यते।।13।।
त्वं
पदार्थादौपधिकात्
तत्पदार्थादौपधिकाभेदाद्विलक्षणमाकाशवत्
सूक्ष्म
केवलं
सत्तामात्रस्वभावं
परं
ब्रह्मेख्यते।।14।।
ये चार
(अर्थात् सत्य, ज्ञान,
अनंत और
आनंद ) वस्तु
जिसके लक्षण
हैं और देश,
काल, वस्तु
आदि
निमित्तों के
होने पर भी
जिसमें कोई
परिवर्तन
नहीं होता,
उसी को 'तत्
पदार्थ अथवा
परमात्मा
कहते हैं।
ये
दोनों 'त्वं'
और 'तत्
पदार्थवाले
भेदों से
पृथक
आकाश की तरह
सूक्ष्म और
सत्ता मात्र
'मैं' से
जो बंधे हैं, उन्हें ‘तू’
तक पहुंचने
में भी बड़ी
कठिनाई है।
स्वयं से ही
जो घिरे हैं, वे 'तू’ के चरणों
में भी कैसे
पहुंचें? समर्पण
कठिन है।
इसलिए
ऋषि ने पहले ‘मैं’
को परिधि
बनाने को और ‘तू’ को
केंद्र बनाने
को कहा। और
कहा कि वह जो
शुद्ध चिन्मय
सत्ता है, वह
‘त्वम्’ स्वभाव वाली
है, 'तू’ स्वभाव
वाली है। बडी
छलांग है ‘मैं’
से ‘तू’ पर। शायद
इससे बड़ी कोई
छलांग और नहीं
है। छोड़ना
स्वयं को इतना
कठिन है--कपड़े
उतारने जैसा
नहीं, चमड़ी
उतारने जैसा
है। और ‘मैं’ से
उतर जाना और ‘मैं’ से
हट जाना इसलिए
भी अति कठिन
है कि हटाने
की कोशिश में
भी ‘मैं’ पुनः-पुन:
खड़ा हो जाता
है।
कौन
हटाए ‘मैं’ को?
जो भी
हटाएगा, वही
‘मैं’ बन
जाता है।
कैसे
हटाओ ‘मैं’ को?
क्योंकि
जिस विधि का
भी उपयोग करो,
वही विधि ‘मैं’ के
हाथ में पड़
जाती है।
लेकिन
जो असंभव सा
दिखता है, वह
भी साहस हो तो
संभव हो जाता
है। इस साहस
को थोड़ा समझें
तो यह दूसरी
छलांग भी समझ
में आ सके।
‘मैं’ को
मिटाने की
जिसने भी
कोशिश की वह
मुश्किल में
पड़ेगा, क्योंकि
मिटाना एक
कर्म है, और
सभी कर्म
कर्ता को
मजबूत करते
हैं। ‘मैं’
से जिसने
बचना चाहा वह
मुश्किल में
पड़ेगा, क्योंकि
जिससे हम बचना
चाहते हैं उसे
हम स्वीकार कर
लेते हैं कि
वह है, और
जिससे हम बचना
चाहते हैं, उसे हम
ताकतवर भी
स्वीकार कर
लेते हैं। हम
बचते ही उससे
हैं जिससे
भयभीत होते
हैं।
न
तो हम ‘मैं’ को
मिटा सकते हैं
क्योंकि
मिटाने में
कर्म है; और
न हम 'मैं’ से बच सकते
हैं क्योंकि
बच कर हम कहां
जाएंगे? और
जिससे हम बचते
हैं वह सदा
हमारा पीछा
करता है।
भागेंगे
जिससे, भयभीत
होंगे जिससे,
वह सदा के
लिए छाया बन
जाता है।
फिर ‘मैं’
के साथ क्या
करें कि ‘त्वम्’
पर छलांग हो
जाए, ' तू’ पर
छलांग हो जाए?
एक ही
रास्ता है, और वह
रास्ता यह है
कि न तो भागें,
न उसे
मिटाने में
लगें, न
उससे छुटकारे
का कोई उपाय
करें, वरन
उसे देखें, पहचानें और
जानें; उससे
परिचित हों।
छाया
को मिटाने का
एक ही रास्ता
है। तलवार से
छाया नहीं
कटती; या कि कट
सकती है? तलवार
टूट जाएगी, छाया नहीं
कटेगी; क्योंकि
होती तो कट भी
जाती--है ही
नहीं, मात्र
दिखाई पड़ती
है। छाया से
भागिएगा तो बच
सकेंगे? जितनी
तेजी से आप भागिएगा
छाया उतनी ही
तेजी से
भागेगी आपके
साथ, क्योंकि
छाया आपकी
है--भाग कर
जाइएगा कहां;
बच कर
जाइएगा कहां?
छाया
से मुक्त होने
का एक ही उपाय
है. यह जान लेना
कि वह छाया है; फिर
आदमी मुक्त हो
गया--फिर न उसे
काटना है, न
उससे भागना है;
क्योंकि
जैसे ही हमने
यह जाना कि
छाया मात्र छाया
है, तो न
कोई भय रहा, न कोई
प्रयोजन रहा,
न मिटाने का
कोई सवाल रहा..
क्योंकि छाया
जानते ही हमने
जाना कि वह है
ही नहीं, मात्र
दिखाई पड़ती
है। ‘मैं’ से
मुक्त होने का
एक ही उपाय है. 'मैं' को
इतनी गहराई से
जानें कि वह
छाया की भांति
दिखाई पड़ जाए;
उसी क्षण
उससे छुटकारा
हो जाता है।
इसलिए जो लोग
विनम्रता की
साधना करते
हैं वे कभी 'त्वम्' तक
नहीं पहुंच
पाते।
विनम्रता
अहंकार का ही
सुसंस्कृत
रूप है। और सुसंस्कृत
जितना है उतना
ही खतरनाक और
सूक्ष्म भी।
इसलिए विनम्र
आदमी जिसे हम
कहते हैं उसमें
प्रतिपल
अहंकार भीतर
से खड़ा हुआ, झलकता
और सरकता रहता
है। विनम्रता
भी अहंकार का
आभूषण है--सुंदरतम
आभूषण जो
अहंकार ओढ़
सकता है और
सुंदरतम
चेहरा और
मुखौटा जो
अहंकार लगा
सकता है वह विनम्रता
का है।
विनम्रता
कभी भी सरल
नहीं होती।
उससे तो अहंकार
ही कहीं
ज्यादा सरल
होता है, सीधा
होता है, क्योंकि
मुखौटे नहीं होते।
सज्जन
आदमियों से
दुर्जन आदमी
कहीं ज्यादा
सीधे-साफ और
सरल होते हैं,
क्योंकि
दुर्जन सीधे
अहंकारी होते
हैं, और
सज्जन तिरछे
अहंकारी होते
हैं। उनका
अहंकार कई
पर्त और कई
परिष्कार
लेकर होता
है--बहुत साफ-
सुथरा, निखारा
हुआ होता है।
ऐसे ही, जैसे
हीरा होता है--गैर-गढ़ा
पत्थर की तरह,
वैसा
अहंकार होता
है सीधे-सादे
आदमी का। जिसे
हम सज्जन कहते
हैं, तिरछा
आदमी है। उसके
पास भी अहंकार
होता है, लेकिन
उस अहंकार पर
काफी छेनियों
से हीरे को निखारा
और साफ किया
गया होता है।
उसमें चमक आ जाती
है; लेकिन
अहंकार में
चमक जहर है।
अहंकार
को चमका लें, या
छिपा लें, या
भागते रहें, बचते रहें, काटते रहें,
उससे
छुटकारा नहीं
है। अहंकार को
जानें। जाएं
भीतर और
पहचानें
अहंकार क्या
है। जल्दी न करें, निर्णय न
लें।
हम
सबकी भूल जीवन
में यही है कि
निर्णय पहले आ
जाते हैं--
अनुभव के पहले
निर्णय आ जाते
हैं;
हम निर्णय
से ही शुरू
करते हैं। हम
उन बच्चों की
भांति हैं जो
गणित करते समय
किताब पलट कर
पहले उसका
निष्कर्ष देख
लेते हैं; और
वे वहीं से
शुरू करते
हैं। फिर वे
जीवन भर कभी
विधि नहीं सीख
पाते--क्योंकि
जिनके हाथ में
निष्कर्ष हैं,
वे विधि
क्या खाक सीखेंगे!
और जरूरत क्या
रही विधि को
सीखने की?
लेकिन
जो निष्कर्ष
किताब को उलटा
कर देखा गया है, वह
उधार है; वह
आपका
निष्कर्ष
नहीं; वह
जीवन को
बदलेगा नहीं।
जिसने विधि
नहीं जानी, और जिसने
अपना
निष्कर्ष
नहीं लिया, वह सदा उधार
जीता है।
हमारे सब
निष्कर्ष
उधार हैं।
शास्त्र
में पढ़ लेते
हैं. अहंकार
बुरा है। यह निष्कर्ष
शास्त्र का है, आपका
नहीं है। आप
तो परिचित ही
नहीं कि
अहंकार क्या
है; बुरा
और भला तो बाद
के निर्णय हैं,
अभी तो सीधा
परिचय भी नहीं
है कि क्या है?
अभी तो
शुद्ध उसमें
झलक भी नहीं
मिली कि क्या है,
बुरा होगा कि
भला होगा यह
पीछे की बात
है।
क्रोध
बुरा
है--शास्त्र
से लिया गया
निष्कर्ष है।
फिर हमें सब
पता है क्या
बुरा है और
क्या भला है
और हम वही के
वही रहे चले
जाते हैं जो
हम हैं; और
हमें सब पता
है!
लोग
मेरे पास आते
हैं,
वे कहते हैं,
मालूम तो सब
है--ऐसा क्या
है जो हमें
मालूम नहीं!
--लेकिन
बदलाहट क्यों
नहीं होती? और मुश्किल
हो गई बदलाहट
में, क्योंकि
इन्हें मालूम
भी सब है। यह
उधार जो ज्ञान
है, इन्हें
सब-कुछ पता
है। अब इन्हें
सीखने का भी उपाय
न रहा; और
बदलाहट भी
नहीं होती है!
तो
एक बात सूत्र
की तरह ध्यान
रख लें, कि जो ज्ञान
स्वयं बदलाहट
न बन जाता हो, उस ज्ञान को
उधार जानना, वह
निष्पत्ति
आपकी नहीं है,
वह
निष्कर्ष
आपका नहीं है;
आपने जाना
नहीं है। वह
अनुभव आपका
नहीं है। वह
सब बासा और
मुर्दा है, सड़ा हुआ है।
अहंकार
को जानें, तय
न करें अच्छा
है या बुरा, सीधे दर्शन
करें उसके। और
जो अहंकार का
भी दर्शन नहीं
कर पाता, ध्यान
रखें, जो
अहं का भी
दर्शन नहीं कर
पाता, वह ‘त्वम्’
का दर्शन
नहीं कर पाएगा;
क्योंकि
तू!.. तो अहंकार
तो पर्त है
बाहर की; और
‘तू’ तो
केंद्र है। तो
अभी जो अहंकार
को भी नहीं जान
पाया वह ‘तू’
को क्या
जानेगा, ‘त्वम्’
को क्या
जानेगा?
तो
पहले जानें इस
‘मैं’ को...
और जानते ही ‘मैं’ बिखर
जाता है।
ज्ञान की
अग्नि उसे राख
कर जाती है; धुएं की तरह
उड़ जाता है..
..लगता है, जैसे
कभी था ही
नहीं--छाया की
तरह 'नहीं '
हो जाता है।
और उसके 'नहीं'
होते ही ‘त्वम्’ के
समक्ष साधक
खड़ा हो जाता
है। लेकिन यह ‘त्वम्’ भी,
ऋषि कहता है,
अंतिम नहीं
है; क्योंकि
इसे ‘त्वम्’
कहना भी अभी
उस ‘मैं’ की याददाश्त
में ही है जो
कभी था, उस
स्मृति के
आधार पर ही कह
रहे हैं
'त्वम्।'
स्थिति
मिट जाती है
तो भी स्मृति
नहीं मिटती, स्मृति
को मिटने में
समय लग जाता
है। स्थिति
मिट जाती है
तो भी स्मृति
नहीं मिटती, स्मृति को
मिटने में समय
लग जाता है!
इतने-इतने
जन्मों की
स्मृति है ‘मैं’ की, अगर आज वह
छाया भी हो
जाए, तो भी
हमारी भाषा तो
नहीं बदल
जाएगी; भाषा
तो ‘मैं’ के आस-पास ही
निर्मित हुई
है। भाषा तो
हम वही बोलेंगे।
जो गलत हो गया,
जो केंद्र
से बिखर गया, जो छाया
सिद्ध हो गया,
लेकिन
हमारी सारी
भाषा तो उसी
छाया के पास
बनी थी; आज
कोई नई भाषा
तो नहीं हो
जाएगी। हमने
देखना तो सदा
उसी तरफ से
सीखा था।
अंधे
आदमी की आंख
भी ठीक हो जाए
तो उसके हाथ
की लकडी एकदम
से नहीं छूट
जाती। अंधे आदमी
की आंख भी ठीक
हो जाए तो कुछ
दिन तो वह लकड़ी
से ही टटोल कर
अभी भी चलेगा।
अब यह लकड़ी के
साथ इतने दिन
चला है कि आंख
भी ठीक हो जाए, तो
भी लकड़ी पर से
अभी आस्था
नहीं मिट
सकती। व्यर्थ
हो गई है, लेकिन
समय लगेगा जब
कि पक्का ही
भरोसा हो जाएगा
कि आंख काफी
है--तब लकड़ी
हाथ से
छूटेगी।
‘मैं’ गिर
भी जाता है, तो भी भाषा
और पुरानी
स्मृति सब ‘मैं’ के
पास है। इसलिए
प्रभु का जो
पहला दर्शन
होता है वह 'तू’ की
भाषा में ही
होगा; वह ‘त्वम्’ की
भाषा में
होगा। और
इसलिए प्रभु
का जो पहला अनुभव
होगा, उसमें
गहन प्रेम का
आभास भी होगा।
उसके भी कारण
हैं।
हमने
सदा ही, सदा
ही प्रेम चाहा
है, मिला
नहीं, प्रेम-पात्र
खोजा है, मिला
नहीं।
जन्मों-जन्मों
तक खोज की है
और पछताए हैं।
तो जब पहली
दफा प्रभु का
उदघाटन होता है
भीतर, वह
परम चेतना
प्रकट होती है,
तो लगता है,
मिल गया
प्रेमी; जिसकी
तलाश थी वह मंदिर
आ गया, जिसकी
खोज थी उस
द्वार पर खड़े
हैं।
इसलिए
पहली भाषा ‘मैं’
की और प्रेम
की भाषा होगी।
भक्त इसी भाषा
को बोलता रहा
है। लेकिन ऋषि
कहता है, यह
अंतिम भाषा
नहीं है, क्यौंकि
जब अंधा अपनी
लकड़ी भी फेंक
देगा, और
जब स्मृति भी ‘मैं’ की
खो जाएगी, तो
फिर उसे ' तू?
कैसे कहोगे?
कौन कहेगा
उसे ' तू ' और ' तू? में क्या
अर्थ रह जाएगा?
जब ‘मैं’
ही न बचा तो ‘तू’ तो
बिलकुल
व्यर्थं हो
जाएगा; उसमें
कोई अर्थ नहीं
रखा जा सकता।
इसलिए
दूसरी छलांग
घटती है ‘तू’ से ' तत् ' पर--फ्रॉम
दाउ टु दैट; और तब ‘तू’
भी बिखर जाता
है और
परमात्मा ' वह ' के
रूप में प्रकट
होता है-- ' तत्
' के रूप
में। अब हम न
कह सकते ‘मैं’,
न कह सकते ' तू?, अब हम
कहते हैं ' वह।
' अब इस ' वह
' में ‘मैं’
की रेखा भी
नहीं रह गई।
इतनी भी रेखा
नहीं रह गई कि
हम ' तू? कहें।
‘मैं’ खो
गया पूरी तरह,
जैसे पानी
पर खींची लकीर
खो गई हो।
उसके साथ ही ' तू? भी खो
गया, क्योंकि
वह उसी का जोड़
था। अब रह गया '
वह। '
' वह ' शुद्धतम
घोषणा है। अब
हमारे अतीत का,
हमारी
स्मृति का कोई
भी संस्कार
काम नहीं कर रहा
है। ' वह ' शब्द बिलकुल
ही निर्लिप्त
और निरपेक्ष
है।
''
सत्य, ज्ञान,
अनंत और
आनंद ''... जिनकी
सुबह हमने बात
की।...'' जिसके
लक्षण हैं। ''
इन्हें
भी ऋषि लक्षण
कहता है।
लक्षण का अर्थ
होता है :
जिनसे ' वह ' पहचाना जाता
है। इसका अर्थ
हुआ कि इस
भांति हम उसे
पहचानते हैं।
ये दो बातें
हैं।
ऋषि
अगर ऐसा कहे :
सत्य, ज्ञान, अनंत और
आनंद है ' वह
'; तो फिर
उसकी भी सीमा
बन जाएगी। अगर
कहे कि परमात्मा
अनंत है, तो
अनंत होना भी
उसको स- अंत कर
देता है। इसे
थोड़ा खयाल में
ले लेना जरूरी
है। यह बारीक
दर्शन की
बातों में एक
है-- बारीक, और
बहुत सूक्ष्म,
और नाजुक।
जब कोई
व्यक्ति कहता
है कि ईश्वर
की कोई
परिभाषा नहीं
हो सकती, तो
उसने परिभाषा
कर दी। उलटा
दिखाई पड़ता है
यह वक्तव्य...
नहीं है, क्योंकि
इतना तो तुमने
कह ही दिया कि
उसकी परिभाषा
नहीं हो सकती।
इतनी परिभाषा
तो तुमने स्वीकार
कर ली।
अपरिभाष्य है,
इनडिफाइनेबल
है, ऐसा भी
कहना तो एक
परिभाषा हो गई;
तुमने कुछ
कह तो दिया
ही। और कम
नहीं कहा। अगर
यह सही है, तो
परिभाषा पूरी
हो गई। अगर
यही सत्य है
कि उसकी
परिभाषा नहीं
हो सकती, तो
फिर यह
परिभाषा हो
गई। और क्या
परिभाषा होगी?
परिभाषा
का मतलब क्या
होता है? परिभाषा
का मतलब होता
है. किसी
वस्तु के
संबंध में कोई
सत्य; किसी
सत्य का कहा
जाना। तो अगर
हम इतना भी
कहें कि उसकी
परिभाषा नहीं
हो सकती, तो
परिभाषा हो
जाती है, अगर
हम इतना कहें
कि सत्य उसका
लक्षण है, सत्य
उसकी परिभाषा
है, तो भी
हम उसे बांधते
हैं--माना कि
सत्य से बांधते
हैं, तो भी
हम उसे बांधते
हैं। यह भी कहना
कि वह सत्य है,
हमने एक
रेखा खींची, और हमने कहा
कि यह रहा; और
असत्य को बाहर
किया-- असत्य
को काटा और
अलग किया, और
सत्य को बांधा,
तो हमने एक
सीमा-रेखा
बनाई। असत्य
उसके बाहर है
और सत्य उसके
भीतर है।
ऋषि
कहता है यह भी
ठीक नहीं, क्योंकि
अगर असत्य भी
है तो उसके
भीतर ही होगा,
उसके बाहर
तो कुछ भी
नहीं हो सकता।
और ऐसा कहना
कि वह सत्य ही
है, बहुत
सीमा बना देना
है।
इसलिए
किन्हीं-किन्हीं
ने तो कुछ भी
उसके बाबत
नहीं
कहा--सिर्फ
इसीलिए कि कुछ
भी कहने में भूल
हो जाती है।
अगर हमने कहा :
वह ज्ञान है, तो
भी हमने खींची
रेखा। अगर
हमने कहा. वह
अनंत है, माना
कि अनंत शब्द
का अर्थ होता
है कि उसकी कोई
सीमा नहीं, लेकिन अगर
हमको पता लग
गया कि वह
अनंत है, तो
सीमा हो गई।
एक
आदमी कहता है
कि सागर में
कोई भी थाह
नहीं, अथाह
है। इसका क्या
मतलब होगा? या तो यह
आदमी थाह तक
हो आया, इसने
पूरा सागर छान
डाला और पाया
कि थाह नहीं
है... जो कि असंभव
है बात; क्योंकि
अगर थाह नहीं
है, तो
इसने पता कैसे
लगाया कि थाह
नहीं है? क्या
यह थाह तक
पहुंच गया है,
जहां तक
सागर फैला था,
वहां तक हो
आया? अगर
वहां तक यह
आदमी हो आया
तो थाह है; और
अगर अभी यह
वहां तक नहीं हो
पाया, तो
जहां तक हो
आया है यह
कहता है.. वहीं
तक ठीक कहे... कि
जहां तक मैं
गया वहां तक
थाह न थी।
अथाह न कहे।
इसलिए
ऋषि कहता है.
लक्षण। लक्षण
का मतलब होता
है. जहां तक
मैं गया, वहां
तक मैंने सागर
को अथाह पाया।
यह मेरा अनुभव
है; यह
सागर की
स्थिति है, कैसे कहूं? हो सकता है
एक इंच आगे ही
थाह हो; जहां
तक मैं गया
वहां तक थाह
नहीं थी, इंच
भर आगे ही थाह
हो, ऐसी
क्या
असंभावना है?
और जहां तक
मैंने खोजा
वहां तक सीमा
न थी, लेकिन
यह मैं कैसे
कहूं कि आगे
भी सीमा नहीं
होगी?
जितना
मैंने जाना वह
ज्ञान था, लेकिन
यह मैं कैसे
कहूं कि जान
के अतिरिक्त
कुछ और आगे न
होगा।
इसलिए
लक्षण। लक्षण
का अर्थ हुआ
कि ऐसा हम उसे
पहचानते हैं।
हमने जहां तक
जाना, ऐसा
जाना कि वह
सत्य है, कि
वह ज्ञान है, कि वह अनंत
है, कि वह
आनंद है। ऐसा
हमने जाना। ऋषियों
ने सदा ही
ध्यान रखा है
कि भूल-चूक जो
भी हो वह आदमी
पर पड़े, हम
पर पड़े। ऋषि
ने सदा ही इस
बात को
बोधपूर्वक स्वीकार
किया है कि
भूल-चूक मुझसे
हो सकती है.. -लेकिन
मेरी भूल-चूक
को उसके ऊपर
आरोपित करने का
कोई प्रयोजन
नहीं है।
हम
सबका मन बड़ा
उलटा होता है।
हम तत्काल कुछ
भी निष्कर्ष
लेते हैं तो
दूसरे पर आरोपित
करते
हैं--तत्काल।
हमें खयाल ही
नहीं रहता कि
हम एक थोड़ी सी
शर्त सदा कायम
रखे हैं। एक
आदमी हमें
सुंदर मालूम
पड़ता है, तो हम
कहते हैं. वह
सुंदर है।
कहना हमें
इतना ही चाहिए
कि मुझे वह
सुंदर मालूम
पड़ता है। इतना
ही! इतना
पर्याप्त है।
और एक आदमी
कुरूप लगता है,
तो हमें यह
नहीं कहना
चाहिए कि वह
आदमी कुरूप है;
इतना ही
काफी है कि
मुझे कुरूप
प्रतीत होता
है। यह मेरी
प्रतीति है, और किसी को
वह सुंदर हो
सकता है। और
मुझे कोई आदमी
संत मालूम
पड़ता है, इतना
ही कहना चाहिए,
मुझे संत
मालूम पड़ता
है।
और
किसी को वह
बिलकुल ही संत
नहीं हो। और
वह स्वयं क्या
है,
इसे जानने
का हमें कहां
उपाय है? हम
बाहर से खड़े
होकर जितना
जानते हैं, वे हमारी
प्रतीतिया
हैं; हमारी
पसंदगिया, नापसंदगिया
हैं। हम उसमें
मौजूद हैं।
लेकिन हम
तत्काल अपने
को बाद कर
देते हैं और
निष्कर्ष
दूसरे पर थोप
देते हैं। तब अड़चनें
होती हैं।
ऋषि
कह रहा है : ये
लक्षण हैं।
आनंद भी, वह कह
रहा है, लक्षण
है। क्योंकि
हम इतने दुख
में रहे हैं
जन्मों-जन्मों
कि हो सकता है,
वह हमें
आनंद प्रतीत
होता हो। जैसे
एक आदमी बहुत
दिन भूखा रहा
हो, फिर
रूखी-सूखी
रोटी उसे मिल
जाए, और वह
कहे कि आज... आज
जैसा भोजन, ऐसा
तृप्तिदायी, ऐसा
सुस्वादु--बस,
यह परम भोजन
है; इसके
आगे क्या भोजन
हो सकता है! यह
वह अपने बाबत
कह रहा है। वह
यह कह रहा है
कि वह बहुत
दिन भूखा था।
असल
में भोजन में
जो भी स्वाद
है,
वह भूख के
कारण ज्यादा
है, भोजन
के कारण कम
है। इसलिए जो
जानता है वह
कहेगा, मैं
बहुत भूखा हूं
इसलिए भोजन
बहुत
सुस्वादु मालूम
पड़ता है।
लक्षण
का यह अर्थ
होता है कि यह
हमारी
प्रतीति है।
एक घड़ी ऐसी
आती है कि जब
हम पूरे मिट
जाते हैं, मैं
मिट जाता है, तू मिट जाता
है, और
हमारी
प्रतीतिया भी
मिट जाती हैं,
फिर हम क्या
कहेंगे? क्या
हम उसे अनंत
कहेंगे? अनंत
हमने उसे कहा
था, क्योंकि
जो भी हमने
इसके पहले
जाना था वह
सीमित था; उस
अनुभव के
मुकाबले वह
अनंत था। हमने
जो जाना था, वह दुख था; उसके
मुकाबले वह
आनंद था। हमने
जो जाना वह
अज्ञान था, उसके
मुकाबले वह
ज्ञान था; हमने
जो भी जाना था
वह असत्य था, उसके
मुकाबले वह
सत्य था। जब हम
खोजा के पूरे,
तब वह क्या होगा?
बुद्ध
से जब भी कोई
पूछता तो वे
चुप रह जाते; या
वे कहते, और
कुछ पूछो।
बुद्ध जिस
गांव में जाते,
खबर करवा
देते कि ये
ग्यारह
प्रश्न मुझसे
मत पूछना। उन
ग्यारह
प्रश्नों में
यह ब्रह्म की परिभाषा
एक है। अनेक
लोग बुद्ध से
आकर कहते कि
क्या आप इसलिए
नहीं बताते कि
आपको मालूम
नहीं है? निश्चित
ही, फिर हम
अपनी तरफ से
सोचना शुरू
करते हैं न!
अगर बुद्ध नहीं
बताते तो
मालूम नही
होगा।
तो
बहुत
निष्कर्ष
लेकर चले जाते
हैं कि बुद्ध को
कुछ पता नहीं, अभी
अनुभव नहीं
हुआ, इसलिए
चुप रहते हैं।
कहना चाहिए था
उन्हें कि हम
ऐसा समझते हैं
कि जो बोलते
हैं वे जानते
हैं, जो
नहीं बोलते वे
नहीं जानते
हैं, इसलिए
हम कहते हैं
कि बुद्ध चुप
हैं; नहीं
जानते होंगे।
पर नहीं, उन्होंने
कहा कि नहीं
जानते हैं
इसलिए चुप हैं।
पता ही नहीं
है उन्हें तो
कैसे बताएंगे?
कोई लोग
निष्कर्ष
लेकर जाते कि
बात इतनी गहन
है, शायद
अभी हम पात्र
नहीं हैं, इसलिए
नहीं बताते
हैं। पात्र हो
जाएंगे तब बताएंगे।
कोई यह सोच कर
जाता कि शायद
ये सब चीजें
नहीं हैं, और
बुद्ध हमें
दुख नहीं देना
चाहते इसलिए
इनकार भी नहीं
करते हैं और
चुप रह जाते
हैं।
लेकिन
शायद ही
कभी-कभी कोई
यह नतीजा समझ
कर जाता कि
बुद्ध चुप रह
जाते हैं, क्योंकि
' मैं' और
'तू’
दोनों के पार
चले गए हैं।
और उस जगह खड़े
हैं जहां से
लक्षण देखने
वाला मिट जाता
है। जो जहां
से लक्षण देखने
वाला मिट जाता
है, वहां
से फिर ब्रह्म
के संबंध में
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता
है।
तो
ऋषि कहता है.
ये लक्षण हैं
जिसके... लक्षण
यानी जैसा
हमें दिखाई
पड़ता है।
''और देश, काल,
वस्तु आदि
निमित्तों के
होने पर भी
जिसमें कोई
परिवर्तन
नहीं होता।''
इस
जगत में दो ही
तरह के
परिवर्तन
हैं। एक परिवर्तन
है जो स्थान
में घटित होता
है और एक
परिवर्तन है
जो काल में
घटित होता है।
टाइम और
स्पेस--दो में
सारा
परिवर्तन
घटित होता है।
आप
अपने गांव से
यहां तक आए, तो
दो तरह के
परिवर्तन
घटित हुए। आप
गांव से चले
तो स्थान आपने
बदला। और गांव
से आप चले तो चलने
में समय व्यतीत
हुआ। तो समय
भी आपने बदला।
सुबह चले तो
सांझ पहुंचे;
और ' अ ' स्थान से
चले तो ' ब ' स्थान पर
पहुंचे।
परिवर्तन
दोहरा
द्रुआ--स्थान
बदला और समय
बदला।
स्थान
और समय
परिवर्तन के
आधार हैं।
लेकिन परमात्मा
में स्थान भी
कोई परिवर्तन
नहीं लाता और
समय भी कोई
परिवर्तन
नहीं लाता।
क्या कारण
होगा? एक ही
कारण है कि हम
स्थान और समय
में जीते हैं और
स्थान और समय
परमात्मा में
जीते हैं।
परमात्मा के
लिए कोई उपाय
नहीं है कि एक
स्थान को छोड़
कर दूसरे
स्थान पर जाए;
क्योंकि
सभी स्थान
उसमें हैं। और
परमात्मा के
लिए कोई उपाय
नहीं है कि इस
वर्ष से दूसरे
वर्ष में
प्रवेश करे, क्योंकि सभी
वर्ष उसके
भीतर हैं।
इसलिए
परमात्मा को
हम कहते हैं. ' कालातीत ', ' क्षेत्रातीत।
' बियांड
टाइम एंड
स्पेस।
क्योंकि समय
और स्थान को
होने के लिए
भी परमात्मा
में ही स्थान
चाहिए।
क्योंकि हमने
परमात्मा की
परिभाषा की कि
परमात्मा का
अर्थ है : 'है',
'है-पन'; 'अस्तित्व';
'जो है।' अगर
समय भी है, तो
होने के लिए
वह परमात्मा
में ही हौ
सकता है--जो भी
हो सकता है वह
परमात्मा में
ही हो सकता है।
इसलिए
समय और स्थान
उसमें काई
फर्क नहीं
लाते। हमारे
लिए वर्तमान, भूत,
भविष्य--ये
समय के तीन
हिस्से हैं, उसके लिए
समय सदा
वर्तमान है।
और हमारे लिए 'यहां
' और ' वहां
' ऐसे दो
फर्क हैं, उसके
लिए सभी कुछ
यहां है। और
हमारे लिए ' कल ' और ' आने वाला कल ',
ऐसे समय के
फासले हैं, उसके लिए
सभी कुछ अभी
है--हियर एंड
नाउ। और ऐसा अभी
नहीं है, सदा
से ऐसा ही है।
तो
उसकी भाषा में
हियर एंड नाउ, अभी
और यहीं, इनके
अतिरिक्त और
कोई शब्द नहीं
हो सकते--समय और
स्थान की
दृष्टि से; क्योंकि
परमात्मा से
हमारा अर्थ है,
अस्तित्व।
और अस्तित्व
को कहेंगे 'तत्'...'वह'।
उसमें ' मैं'
भी समा जाता
है और 'तू' भी समा जाता
है; उसी
में ' मैं' भी जन्मता है,
उसी में ' मैं' लीन
भी हो जाता
है।
जिसमें
कोई परिवर्तन
नहीं, ऐसे
पदार्थ को
कहेंगे 'तत्'
ये दोनों--'त्वम्' और
'तत्' ' दाउ
एंड दैट' भी
उपाधियां
हैं। यह ऋषि
एक-एक पर्त
नीचे उतर रहा
है। पहले कहता
है : 'मैं'
उपाधि है; कहता 'तू,
उसका
स्वरूप है; फिर कहता है 'तू भी उपाधि
है, ' वह' उसका
स्वरूप है; अब कहता है ' वह' भी
उपाधि है।
''ये दोनों 'त्वम्' और
'तत्' पदार्थ
उपाधिवाले
भेदों से पृथक
आकाश की तरह सूक्ष्म
और
सत्तामात्र
जिसका स्वभाव
है। ''
'
सत्तामात्र'--जस्ट
एक्सिस्टेंस;'
वही
परब्रह्म है। '
वही वस्तुत:
ब्रह्म है।
वही है। 'मैं'
से छलांग
लगाई 'तू' पर, 'तू' से छलांग
लगाई 'वह' पर, 'वह' से छलांग
लगा लेनी है
परम अस्तित्व
में--जहां 'वह'
कहने का
फासला भी न रह
जाए; क्योंकि
जब हम कहते
हैं 'वह', तब भी
तो फासला
मौजूद
है--कहने वाला
मौजूद है, अंगुली
मौजूद है जो
कह रही है 'वह।
'अभी भी हम
कहीं अलग
हैं--नहीं
होंगे ' मैं',
फिर भी कहीं
अलग हैं। जान
लिया होगा कि
नहीं बचा 'मैं',
नहीं बचा ' तू, फिर
भी अभी कहने वाला
मौजूद है।
इतना
फासला भी..
इतना फासला भी
रहस्यवादियों
को प्रीतिकर
नहीं है; इतनी
दूरी भी बर्दाश्त
के बाहर है।
इतनी दूरी भी
नहीं सही जा
सकती। एक और
छलांग--और वह
छलांग, वहां
वह 'वह' भी
नहीं है।
बुद्ध
इसे शून्य
कहते हैं, क्योंकि
कोई भी न बचा--न
मैं, न तू न
वह। उपनिषद
इसे अस्तित्व
कहते हैं। बुद्ध
इसे शून्य
कहते हैं
क्योंकि जो-जो
चीजें हम
जानते थे, वे
कोई भी न बची; और उपनिषद
इसे अस्तित्व
कहते है क्योंकि
जो हम जानते
थे वे तो थीं
ही नहीं; जो
था वही बचा.. जो
था वही बचा, सब खो गया जो
नहीं था। सब
स्वप्न झq गए,
अब तो वही
बचा जो है। और
इसमें से अब
काटने का कोई
उपाय न रहा।
इसलिए इसे
परब्रह्म
कहा--ब्रह्म
के भी पार है
जो।
क्योंकि
अभी तक हमने
जो परिभाषाएं
कीं,
वे ब्रह्म
की थीं। वे
ब्रह्म की
परिभाषाएं थीं।
इसे ऋषि कहता
है :
परब्रह्म।
इसे वह कहता
है, इस
ब्रह्म को भी
अब छोड़ो--नाउ
गो बियांड ईवन
दैट
ब्रह्म--जिसकी
अभी हम बात
करते थे।
जिसकी हमने
इतनी-इतनी
रहस्यबीन खोज-बीन
की, उसे भी
छोड़ो अब; अब
हम उसकी बात
करते हैं जो
उसके भी पार है;
ईवन बियांड दैट।
अब
इसका तो अर्थ
सिर्फ इतना
हुआ कि सब खो
गए शब्द, सब खो
गए सिद्धांत,
खो गया खोजने
वाला, खो
गया जिसे
खोजते थे। अब क्या
बचा?
ऋषि
कहता है : अब जो
बचा,
वही
है--चाहे
शून्य कहो उसे,
चाहे पूर्ण
कहो उसे; चाहे
चुप रह जाओ, और चाहे
जन्मों-जन्मों
उसके संबंध
में कहते रहो।
इसकी ही तलाश
है। इसे पाए
बिना चैन नहीं
है। इसे पाए
बिना चैन हो
भी नहीं सकता;
क्योंकि जब
तक हम इसे न पा
लें, तब तक
हम मरते ही
रहेंगे; मृत्यु
होती ही रहेगी;
तब तक दुख
आता ही रहेगा।
जब तक हम उस
जगह न पहुंच
जाएं, जहां
जो भी मिट
सकता था, सब
मिट गया, तब
तक मिटना कायम
रहेगा। पर ब्रह्म
को पाकर फिर..
फिर अमृत है।
जीवन, मृत्यु
उस पर घटित
नहीं होते जो है,
उस पर घटित होते
हैं जो हमने बनाया
है।
अहंकार
हमारी निर्मिति
है,
हमारा
अर्जन है; वही
जन्मता है, वही मरता है।
चेतना हमारी
निर्मिति नहीं,
वह हमसे पहले
है और हमसे बाद
भी है; वह न मरती
है, न जन्मती
है।
एक
फकीर हुआ है, बोकोजू।
सुबह उठ कर
उसने बुद्ध के
मंदिर में--उसी
मंदिर का फकीर
है वह, पुजारी
भी--फूल चढ़ाए
हैं बुद्ध की
प्रतिमा पर।
और फिर कुछ
लोग उसे सुनने
आ गए हैं, तो
उसने सभाकक्ष
में जाकर कहा
कि मैं तुमसे
कहता हूं आज
वचनपूर्वक कि
यह बुद्ध नाम
का आदमी न कभी
हुआ.. कभी नहीं
हुआ। यह सरासर
झूठ है।
चौंके
हैं लोग।
उन्होंने
समझा, बोकोजू
का दिमाग फिर
गया। क्या
पागलपन की बात
है? बुद्ध का
ही भिक्षु है..
-और अभी-अभी मंदिर
में फूल चढाते
और प्रतिमा के
सामने आरती
करते देखा है
इसे।
उन्होंने
पूछा कि
बोकोजू दिमाग
फिर गया
तुम्हारा, या
कोई मजाक करते
हो? अभी-अभी
तुम पूजा करके
आए हो। उसने
कहा. पूजा करके
अभी-अभी आया
और सांझ फिर
पूजा करूंगा,
लेकिन मैं
तुमसे कहता हूं
यह आदमी कभी
भी हुआ नहीं।
और इसलिए कहता
हूं कि अब तक
मैं इस आदमी
को समझ नहीं
पाया--इसलिए
सोचता था, जन्मा;
इसलिए सोचता
था, मरा..
लेकिन आज मैं समझ
गया।
और
अभी तुम मुझे
पागल समझ रहे
हो,
अभी दूसरी
बात तुमने
सुनी नहीं..
मैं तुमसे
कहता हूं कि
मैं भी कभी
जन्मा नहीं और
कभी मरूंगा
नहीं। तब तो
निश्चित ही समझा
कि दिमाग इसका
बिलकुल पागल
हो गया है।
छोड़ो बुद्ध की,
हुआ हो कि न
भी हुआ हो यह
आदमी; पच्चीस
सौ साल पुरानी
बात है, संदिग्ध
भी हो सकती है;
न भी हुआ हो;
लेकिन
बोकोजू ने कहा
कि अब मैं
तुमसे दूसरी
बात कहता हूं
कि मैं भी कभी
पैदा नहीं हुआ
और कभी मरूंगा
नहीं।
कुछ
लोग उठ कर
जाने लगे। और
उन्होंने कहा
: अब हमें जाने
की आज्ञा दो।
अब जरा बात
सीमा के बाहर
हो गई।
बोकोजू
ने कहा : तीसरी
बात और सुनते
जाओ कि मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुम भी कभी
पैदा नहीं हुए, तुम
भी कभी मरोगे
नहीं।
अगर
हम सब सही हैं
तो बोकोजू
पागल है, और
अगर बोकोजू
सही है तो हम
सब पागल हैं।
और कोई उपाय
नहीं है। और
इस पृथ्वी पर
जो भी जानने वाले
हुए हैं, वे
सब कहते हैं, बोकोजू सही
है।
वह
जो शुद्ध सत्व
है,
वह जो शुद्ध
सत्ता है, वह
जो शुद्ध
अस्तित्व है,
वह जो शुद्ध
होना है, उस
पर जन्म और
मृत्यु आई हुई
हवा के झोंके
से ज्यादा
नहीं। लेकिन
हमें इतने
महत्वपूर्ण
लगते हैं
क्योंकि हम..
हम उसे जानते
नहीं। और हम जिसे
जानते हैं--
अहंकार--वह
हमारा बनाया
हुआ जरा से
झोंके में कैप
जाता है; जरा
सा हवा का
झोंका और हमारी
अहंकार की लौ डगमगाने
लगती है... अब गई,
अब गई।
और
जीवन का नियम
बहुत अदभुत है
: छोटी सी दीये
की लौ हो, तो
हवा का छोटा
सा झोंका भी
उसे बुझा जाता
है। और जलती
हुई विराट
अग्नि हो, तो
हवा के बड़े
झोंके भी उस
अग्नि को और
विराट कर जाते
हैं।
तो
अहंकार पर जब
झोंके लगते
हैं तो मौत घटती
है,
और जब
अस्तित्व पर
झोंके लगते
हैं तो जीवन
की झलक आती
है। जब अहंकार
पर जरा सा
धक्का लगता है
तो मौत और मौत
दिखाई पड़ने
लगती है, और
जब आत्मा पर
हवा के झोंके
लगते
हैं--तूफान भी—तो
जीवन का रस
झरता है।
छोटी
सी लहर हवा की
दीये को बुझा
जाती है और विराट
अग्नि को और
विराट कर जाती
है।
लेकिन
अहंकार बड़ा
छोटा है, हमारा
बनाया हुआ है,
और हम बहुत
बड़े हैं; क्योंकि
हम हमारे बनाए
हुए नहीं हैं।
हम जिसके बनाए
हुए हैं, वह
विराट है।
इसलिए
ध्यान रखना, आप
अपने से सदा
ही बड़े हैं।...
आप अपने से
सदा ही बड़े
हैं; आप
अपने से सदा
ही पार हैं।
आपका सब
छोटापन आपकी
ही चेष्टा का
फल है। आपकी
सारी
क्षुद्रता
आपका ही अर्जन
है। आपकी सारी
दीनता आपका ही
पुरुषार्थ
है-- आपका ही
पराक्रम है कि
आप दीये की
ज्योति बने
बैठे हैं, और
घबड़ा रहे हैं
कि अब मरे, अब
मरे! यह दुख
आया, यह
परेशानी, यह
पीड़ा, यह
चिंता।
अपने
इस पागलपन के
बाहर छलांग
लगाएं। वह
छलांग अहंकार
से लगाते ही
शुरू हो जाती
है।
आज
इतना ही।
अब
हम छलांग की
थोड़ी कोशिश
करें।...
very useful and interesting .after reading and feeling having a different vision toward Life .thanks for all this .
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