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गुरुवार, 7 नवंबर 2013

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-14

अनादि अंतवती माया—चौदहवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर
15 जनवरी 1972 प्रात:
माथेरान।

सूत्र :
                        माया नाम अनादिरन्तवती
                      प्रमाणाऽप्रमाण साधारणा न सती
                      नासती न सदसती स्वयमधिका
                        विकाररहिता निरूप्यमाणा
                         सतीतरलक्षणशून्या सा
                             मायेत्युव्यते।
                         अज्ञान तुच्छाऽप्यसती
                         कालत्रयेऽपि पामराणा
                     वास्तवी च सत्त्वबुद्धिलौकिका-
                        नामिदमित्यनिर्वचनीया
                        वकुं न शक्यते ।। 15 ।।


            जो अनादि है तो है पर जिसका अंत हो जाता है,
                  जो प्रमाण और अप्रमाण में समान
                  रूप से उपस्थित है, जो न सत् है,
               न असत्है और न सत्असत् स्वयमेव सबसे
       अधिक विकाररहित दिखायी पड़नेवाली शक्ति को माया कहते हैं ।
   उसका वर्णन इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार से नहीं किया जा सकता ।
              यह माया अज्ञानरूप, तुच्छ और मिथ्या है
                  पर छू मनुष्यों को तीनों काल
                में यह वास्तविक ही जान पड़ती है,
              इसलिए यह कहकर कि वह ऐसी ही है,
           उसका यथार्थ रूप समझाया नहीं जा सकता ।


जीवन के यथार्थ को समझने में बड़ी सरलता हो सकती थी यदि दो ही रूप होते अस्तित्व के--सत् और असत्। हम कह सकते किसी चीज को कि है, और कह सकते कि नहीं है, ऐसे दो स्पष्ट विभाजन होते जीवन के, अस्तित्व के, तो कठिनाई जरा भी नहीं थी। लेकिन एक और कोटि भी है अस्तित्व की, जिसे हम कह नहीं सकते कि है, और यह भी नहीं कह सकते कि नहीं है, उससे ही सारा उलझाव पैदा होता है।

जैसे, राह में सांझ के अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी आपको सांप दिखाई पड गई है। यह जो सांप आपको दिखाई पड़ गया है, यह है या नहीं है? काश, सरलता होती और हम स्पष्ट कह सकते कि नहीं है.. या कह सकते कि है, तो उलझाव कोई भी नहीं था; लेकिन रस्सी में जो सांप दिखाई पड़ गया है, वह एक अर्थ में नहीं है, क्योंकि खोजने पर रस्सी हाथ आती है, सांप हाथ में नहीं आता; लेकिन एक अर्थ में है, क्योंकि दिखाई पड़ा है। और दिखाई पड़ा है ऐसा ही नहीं, जिसे दिखाई पड़ा है वह भागेगा भी, गिर भी सकता है, चोट भी खा सकता है, हृदय की धड़कन उसकी बढ़ जाएगी, पसीने से तर-बतर हो जाएगा-- और अगर कभी लौट कर न आए और खोजे न, तो सदा इसी खयाल में जीएगा कि सांप था। 
तो जो नहीं था, उसके कारण आदमी दौड़ सकता है क्या? जो नहीं था उसके कारण पसीना बह जाता है। जो नहीं था, भय से हृदय कैप जाता है। जो नहीं था, क्या उससे भी ऐसी घटनाएं घट सकती हैं? अगर घट सकती हैं तो उसे किसी अर्थ में होना तो मानना ही पड़ेगा; क्योंकि जिसके न होने पर भी होने में घटनाएं घट जाती हैं, उसके अस्तित्व को एकांतत इनकार करना असंभव है।
रात सपने में देखते हैं आप एक भयानक स्थिति। नींद खुल जाती है और जान लेते हैं कि सपना था, लेकिन हृदय की धड़कन इससे कम नहीं हो जाती; हाथ-पैर कंपते ही चले जाते हैं। माना कि सपना था, और अब तो जान भी लिया कि सपना था, लेकिन वास्तविक हृदय अभी भी कंपा जा रहा है और घबड़ाहट जारी है। और नींद के लौटने में थोड़ा समय लगेगा।
तो जो अवास्तविक होकर भी वास्तविक पर प्रभाव डाल पाता है, उसे ऋषि कहते हैं कि हम बिलकुल ऐसा कह दें कि वह नहीं है तो अनुचित होगा। और मजे की बात यह है कि वह जो यह तीसरी कोटि है, वह इतनी प्रभावी है कि सारा जीवन उसी से ओतप्रोत है;
इसलिए उसे इनकार नहीं किया जा सकता। यह जो तीसरी कोटि है, इतनी महत्वपूर्ण है कि सारा जीवन हमारा उसी के इर्द-गिर्द निर्मित होता है और चलता है।
इसलिए भारत ने एक नये शब्द का आविष्कार किया, वह है : 'माया।'
माया न तो सत् है, न असत्; माया दोनों के मध्य में है। वह एक अर्थ में नहीं है और एक अर्थ में है।
माया उसे नाम दिया है इसीलिए, क्योंकि माया का अर्थ वस्तुत: होता है : जैसे एक जादूगर एक वृक्ष को बड़ा करता है। आंखों के सामने, हजारों आंखों  के सामने वृक्ष बड़ा होने लगता है। हजारों आंखों  के सामने क्षण भर में ही उसमें फल लगने लगते हैं, फल बड़े हो जाते हैं। जो देख रहे हैं वे सभी जानते हैं यह हो नहीं सकता; यह है नहीं। और फिर भी दिखाई तो पड़ता है!
माया का मौलिक अर्थ है : भ्रांति की कला। माया का मौलिक अर्थ है : जादू मैजिक। उसका अर्थ है कि जो नहीं है वह भी दिखाई पड़ सकता है, इसकी संभावना है और इससे उलटी संभावना भी है कि जो है, वह नहीं दिखाई पड़ सकता है, इसकी भी संभावना है। जो है वह छिप सकता है और जो नहीं है वह प्रकट हो सकता है।
तीन स्थितियां हैं--जो नितांत नहीं हैं, जिसकी भ्रांति भी नहीं हो सकती। जो नितांत है, उसकी भी भ्रांति नहीं हो सकती। लेकिन जो एक दृष्टि से है और एक दृष्टि से नहीं है, उसकी भ्रांति हो सकती है। वह तीसरा अस्तित्व का रूप भी है; उस रूप का नाम माया है। यह तो माया का शाब्दिक अर्थ है। इसकी परिधि को हम ठीक से समझ लें तो फिर इसके जीवन में क्या-क्या आयाम खुलते हैं वे हमारे खयाल में आ जाएं।
जो है, वह सदा से है। उसका कोई आदि नहीं है, उसका कोई प्रारंभ नहीं है, और उसका कोई अंत भी नहीं है, क्योंकि वह सदा रहेगा। जो नहीं है, नितांत नहीं है, उसका भी कोई आदि नहीं; क्योंकि जो है ही नहीं उसका प्रारंभ कैसे होगा! और उसका कोई अंत भी नहीं होगा; क्योंकि जो है ही नहीं उसकी समाप्ति क्या होगी! माया का प्रारंभ नहीं है, अंत है। यह दोनों के बीच की कोटि है। इसका प्रारंभ नहीं है, यह सदा से है; लेकिन इसका अंत है। इसे हम ऐसा समझें।
अंधेरा है... अंधेरा सदा से है; लेकिन अंधेरे का अंत हो सकता है। प्रकाश जला और अंधेरा नहीं हो जाता है। प्रकाश जलता है और अंधेरा नहीं हो जाता है। अंधेरे का प्रारंभ कोई भी नहीं है.. कि अंधेरा कब प्रारंभ हुआ; वह अनादि है, वह सदा से है; लेकिन उसका अंत होता है--प्रकाश जलता है, उसका अंत हो जाता है।
माया की जो तीसरी श्रेणी है अस्तित्व में, वह सदा से है अंधेरे की तरह। जब व्यक्ति जागता है चैतन्य में, तो उसका अंत हो जाता है; जब प्रकाशित होती है चेतना, तो वह अंधेरा कट जाता है।
यह जो माया है, यह एक विस्तीर्ण स्वप्न है।
स्वप्न की एक खूबी है कि जब वह होता है तो वास्तविक मालूम होता है। जब तक होता है तब तक वास्तविक मालूम होता है। हम सभी ने स्वप्न देखे हैं। और हर सुबह हमने पाया है कि स्वप्न झूठा था, लेकिन फिर आज रात जब स्वप्न देखेंगे तो देखने में स्वप्‍न पुन वास्तविक हो जाएगा। स्वप्न में कभी याद नहीं आती कि जो देखे रहे हैं वह झूठा है। आ जाए याद तो स्वप्न टूट जाए।
स्वप्न की एक आतंरिक खूबी है कि जब वह होता है तब बिलकुल वास्तविक होता है... वास्तविक प्रतीत होता है; रंचमात्र भी शक पैदा नहीं होता; जरा सा भी संदेह नहीं उठता। बड़े-बड़े संदहशील लोगों में भी, जो जगत पर संदेह कर सकते हैं कि है या नहीं, स्वप्न पर संदेह नहीं कर पाते हैं।
पश्चिम का बड़ा विचारक हुआ, बर्कले। वह कहता है कि जगत पर मुझे शक है कि यह है भी या नहीं! क्योंकि हो सकता है, एक बड़ा सपना हो। मैं कैसे भरोसा करूं कि आप यहां बैठे हैं सच में? हो सकता है, मैं सिर्फ एक स्वप्न देख रहा हूं। कैसे पक्का करूं कि जिनको मैं देख रहा हूं वे हैं ही? हो सकता है, मैं एक स्वप्न में उनसे बोल रहा हूं। स्वप्न भी तो इतना ही वास्तविक होता है, जितने आप यहां वास्तविक हैं।
तो बर्कले कहता है, क्या भरोसा? क्या पक्का कि आप हैं? स्वप्न को भी हम इसीलिए स्वप्न कहते हैं कि सुबह टूट जाता है। लेकिन जिसे हम जागरण कह रहे हैं, यह भी तो सांझ टूट जाता है। सुबह स्वप्न से जागते हैं तो पता चलता है झूठ था, खो गया। रात्रि सम्राट थे, सड़क के भिखारी हैं सुबह, लेकिन दिन भर सड़क के भिखारी रहने पर रात जब नींद आती है तब यह भिखारीपन भी तो इतना ही भूल जाता है। रात कहां याद रह जातीं है कि भिखारी थे? नींद में सम्राट और भिखारी में कोई फर्क रह जाता है? रात सम्राट भी तो सपने में याद नहीं रख सकता कि मैं सम्राट हूं। वह तो दिन का सपना सांझ के होते ही टूट जाता है।
तो फर्क क्या है? एक सपना सुबह टूटता है, एक सांझ टूटता है। रात के सपने में दिन को हम भूल जाते हैं, दिन के सपने में रात को हम भूल जाते हैं-- अंतर क्या है?
तो बर्कले कहता है, मैं कैसे भरोसा करूं कि मेरे बाहर कोई अस्तित्व है? यह बड़े मजे की बात है; लेकिन बर्कले भी सपने में यह याद नहीं रख पाता है कि जो है, वह कहीं संदिग्ध तो नहीं? जागते में संदेह संभव है, सोते में संदेह भी संभव नहीं है। बड़े से बड़ा नास्तिक भी, स्केप्टिक भी, संदेहवादी भी सपने में संदेह नहीं कर पाता।
सपने की माया बड़ी अदभुत है। जागने का भी इतना प्रभाव नहीं मालूम होता। जागना भी कम प्रभावी मालूम पड़ता है, क्योंकि हम संदेह कर सकते हैं--हम कह सकते हैं कि पता नहीं, जो दिखाई पड़ता है वह है भी या नहीं है। लेकिन स्वप्न की माया अदभुत है। स्वप्न में हम पूरी तरह खो जाते है, डूब जाते हैं। और ऐसी चीजों को भी मान लेते हैं जिनको कि तर्क बिलकुल नहीं मान सकता। लेकिन स्वप्न में कोई तर्क ही नहीं रह जाता। अगर तर्क रह जाए तो संदेह भी रह जाए।
स्वप्न में आप देखते हैं, मित्र खडा-खड़ा सामने अचानक घोड़ा हो जाता है... और इतना भी शक नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है! स्वप्न में कभी शक नहीं आता। स्वप्न बड़ा आस्थावान है। स्वप्न की आस्था परम है। परम श्रद्धालु भी जीवन में इतने श्रद्धालु नहीं होते, जितने परम नास्तिक भी स्वप्न में श्रद्धालु हो जाते हैं। इस पर भी शक पैदा नहीं होता कि सामने खड़ा-खड़ा मित्र क्षण में अचानक घोडा हो गया, और इतना भी मन में नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है!
स्वप्न सभी कुछ मान लेता है। स्वप्न के पास तर्क नहीं है। स्वप्न की यह खूबी है कि स्वप्न में संदेह नहीं हो सकता। स्वप्न में जो भी दिखाई पड़ता है वह स्वप्न के रहते तक वास्तविक होता है। स्वप्न में कुछ भी घटित हो जाए तो असंगति नहीं मालूम पड़ती। एक आंतरिक संगति का फैलाव है।
जो स्वप्न की खूबी है, वही माया की भी। ऐसा समझें कि माया जागता हुआ स्वप्न है। इसलिए जितनी माया से घिरा चित्त हो, उतना ही माया पर संदेह करना कठिन होता है, माया पर संदेह नहीं आता... और माया बिलकुल वास्तविक मालूम पड़ती है।
एक चेहरा आपको सुंदर मालूम पड़ता है और ऐसा लगता है कि इस चेहरे के लिए जीवन दिया जा सकता है। मजनू को लैला जैसी दिखाई पड़ती है वैसी किसी को भी दिखाई नहीं पड़ती। सारा गांव मजनू की पीड़ा से पीड़ित था। गांव के नरेश ने मजनू को बुलाया और कहा तू बिलकुल पागल है। जिसे तू. पता नहीं क्या समझ रहा है--साधारण सी, बहुत साधारण सी लड़की है, उसके लिए दीवाना क्यों है? और तुझ पर मुझे भी दया आ गई.. क्योंकि गांव में मजनू रोता फिरता है, चिल्लाता फिरता है, आंसू बहते रहते हैं-- द्वार-द्वार, दरवाजे-दरवाजे खड़े होकर 'लैला-लैला' पुकारता है। सम्राट के कानों तक खबर पहुंच गई। उसने भी देखा है उसकी पीड़ा को, अनुभव किया है--प्रामाणिक है, उसका रुदन वास्तविक है। तो दया आ गई है। उसने दस-बारह सुंदर लड़कियां महल की बुला कर खडी कर दीं और कहा कि तू कोई भी चुन ले। इस लैला को भूल।
मजनू उन बारह लड़कियों के पास गया। वे सुंदरतम लड़कियां थीं उस राज्य की, लेकिन मजनू ने कहा. लैला इनमें कहां? ये तो लैला के पैर की धूल भी नहीं हैं। सम्राट ने कहा : तू या तो पागल है, होश में नहीं है; तू क्या कह रहा है? इन लड़कियों को तू लैला से.. लैला के पैर की धूल बता रहा है!
मजनू ने कहा : निश्चित।
सम्राट ने कहा. लैला को मैंने भी देखा है; अति साधारण लड़की है।
मजनू ने कहा. लैला को देखना हो तो मजनू की आंख चाहिए।
मगर यह आंख--मजनू की जो आंख है, यह क्या कर रही होगी लैला के साथ? यह आंख लैला को कुछ दे रही है जो लैला में नही है, यह आंख कोई सपना लैला पर फैला रही है; यह आंख कोई माया का सृजन कर रही है लैला के आस-पास जो लैला में नहीं है। मजनू जिस लैला को जानता है उसमें लैला कम है और मजनू ज्यादा है। दस प्रतिशत भी हो तो बहुत--लैला; नब्बे प्रतिशत मजनू है। संभावना तो यह है कि एक ही प्रतिशत होगी, निन्यानबे प्रतिशत मजनू है। वह जो देख रहा है वह उसका ही प्रक्षेपण है, उसका ही प्रोजेक्यान है। वह उसने ही फैलाया है। वह उसका ही मन है, जो एक स्वप्न को निर्माण कर रहा है लैला के चेहरे के आस-पास। लैला की देह के आस-पास एक सुगंध का, एक सौंदर्य का, एक संगीत का ताना-बाना बुन रहा है--वह मजनू का मन है।
जैसे मकड़ी अपने ही भीतर से तार को निकालती है और जाल बुनती है, वैसे ही आदमी का मन माया को बुनता है--अपने ही भीतर से निकाल कर। बाहर सहारे लेने पड़ते हैं, बस। जैसा मकड़ी को भी लेने पड़ते हैं। जाला मकड़ी बुनती है तो कहीं दीवाल में अटकाती है, कहीं द्वार में अटकाती है। बस, इतनी खूंटियों का सहारा है, बाकी सारा जाला उसका अपना है।
मनुष्य भी जिस माया को रचता है उसमें बाहर खूंटियों का सहारा है। लैला बस खूंटी है। और जो लैला दिखाई पड़ रही है वह मजनू का अपना जाल है। माया का अर्थ है : मनुष्य के मन की क्षमता है कि वह अपने चारों तरफ स्वप्न को गूंथ ले। और बड़े मजे की बात है कि मकड़ी जिस जाले को बुनती है, फिर उसी पर चलती है, उसी पर जीती है, उसी में रहती है। अपने ही भीतर से निकालती है जिस जाले को, वही उसका पथ बन जाता है वही उसका मार्ग है। वही उसका घर है, वही उसके भोजन का उपाय है, वही उसकी आजीविका है। उसी जाल में फंस कर उसका भोजन आने वाला है। और वह जाल उसने स्वयं फैलाया है।
और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि उसी जाल में मकड़ी स्वयं भी फंस जाती है और निकलना मुश्किल हो जाता। कभी जाल उलझ जाता है; हवा के किसी झोंके में मकड़ी के ऊपर ही पड़ जाता है। कभी जाल टूट जाता है और मकड़ी अधर में लटक जाती है। और मजा यह कि वह उसके ही उदर का खेल था, उसके ही पेट से निकला था सब और उसी को डुबा लेता है। और कभी ऐसा हो जाता है कि मकड़ी ऐसी फंस जाती है अपने ही जाल में कि बाहर नहीं निकल पाती, वही जाल जोउसकाजीवन था, किसी दिन उसकी मौत बन जाता है।
माया का अर्थ है? मनुष्य के मन की क्षमता अपने चारों ओर एक स्वप्न-जगत निर्मित करने की। इस स्वप्न में सुख भी बहुत है, अन्यथा हम निर्मित न करें, इस स्वप्न में सुख भी बहुत है, अन्यथा हम क्यों निर्मित करें? इस स्वप्न में दुख भी बहुत है, अन्यथा क्यों कोई बुद्ध, क्यों कोई महावीर इसे तोड़ने चले? इस स्वप्न में सुख है उतना ही, जितनी देर तक हम इस सपने को देख पाते हैं। लेकिन बड़े मजे की बात है कि जिस पर हम यह सपना देखते हैं वही सपने को तोड़ने का कारण बनना शुरू हो जाता है। क्योंकि वह हमारे सपने के अनुकूल कतई नहीं है; उसका अपना अस्तित्व है, उसके अपने सपने हैं।
एक व्यक्ति को मैं देखता हूं--बहुत प्रीतिकर, बहुत सुंदर, मनभावक. मेरा सपना उस पर फैलाता हूं। जरूरी नहीं कि वह भी मुझ पर अपना सपना फैलाए। इसलिए प्रेमी तकलीफ में पड़ते हैं।
मुझसे प्रेमी आकर पूछते हैं कि मैं इतना प्रेम करता हूं फलां व्यक्ति को, लेकिन वह मुझे प्रेम क्यों नहीं करता? कोई अनिवार्य नहीं है, उसे अपना सपना फैलाने की स्वतंत्रता है। वह आपको खूंटी बनाए, न बनाए; उसने कोई और खूंटी चुनी हो। जबर्दस्ती नहीं है। वह अपनी खूंटियों पर जाला बुन रहा है, आप उसकी खूंटियों पर जाला बुन रहे हैं, कहीं न कहीं उपद्रव होने ही वाला है। कहीं आपका जाला उसे बंधन मालूम पड़ेगा, कहीं उसका जाला कहीं और बुनना आपके लिए पीड़ादायी हो जाएगा। और यह भी हम मान लें कि दो व्यक्ति एक-दूसरे पर अपना जाला बुनते हैं, तो भी अपना-अपना जाला बुनते हैं इसलिए संघर्ष अनिवार्य हो जाता है, पीड़ा अनिवार्य हो जाती है--रास्ते कटते हैं; अपेक्षाएं टूटती हैं; सपना खंडित होता है, दोनों की अपनी योजनाएं हैं आंतरिक सपने फैलाने की।
ऐसा हम समझें कि एक ही पर्देपर दो प्रोजेक्टर लगा कर दो लोग दो तरह की फिल्में चला रहे हैं--एक ही पर्देपर। सो मुश्किल होने वाली है, और सब गड्डमड्ड भी हो जाने वाला है, कुछ दिखाई पड़ने वाला नहीं है। मगर यहां मामला दो का नहीं है, यहां ऐसा मामला है कि एक-एक पर्दे पर दस-दस, पंद्रह-पंद्रह, बीस-बीस लोग फिल्में चला रहे हैं। सब कनफ्यूजन हो जाता है, सब विभ्रम हो जाता है, कुछ हाथ नहीं पड़ता; दुख ही दुख हाथ पड़ता है। सब सपने भंग हो जाते हैं। डिसइलूजनमेंट के अतिरिक्त, स्वप्न- भंग के अतिरिक्त, हाथ में राख के अतिरिक्त, टूटे हुए जालों के अतिरिक्त अंत में आदमी की संपदा कुछ भी नहीं होती है।
मन की यह क्षमता दोहरी है. इसका एक हिस्सा तो प्रक्षेपक है, प्रोजेक्टिग है...कि हम किसी भी विचार को, किसी भी भाव को, किसी भी कल्पना को फैलाने के लिए सक्षम हैं; और दूसरी क्षमता इस प्रोजेक्यान की ऑटो-हिम्मोसिस की है, आत्म-सम्मोहन की है--हम खुद ही फैला देंगे और फिर हम खुद ही सम्मोहित हो जाएंगे। पहले हम रख देते हैं सौंदर्य एक चेहरे में--हम ही--और फिर हम ही प्रलोभित हो जाते हैं! यह दूसरा हिस्सा है उसका--आत्म-सम्मोहित होने का। पहले हम कहते हैं, सुंदर हो, यह हम ही निर्माण करते हैं सौंदर्य।
अब तक सौंदर्य की कोई परिभाषा नहीं खोजी जा सकी। कभी खोजी भी नहीं जा सकेगी, क्योंकि सौंदर्य व्यक्ति-प्रक्षेपण है, वह कोई वास्तविक तथ्य नहीं है। इसलिए युग बदलता है, फैशन बदलती है, सौंदर्य के मापदंड बदल जाते हैं। कभी चपटी नाक भी सुंदर होती है, कभी लंबी नाक सुंदर हो जाती है; कभी गोरा चेहरा सुंदर होता है, कभी सांवला चेहरा सुंदर हो जाता है।
कृष्‍ण और राम को हमने सांवला रखा, उस वक्त सांवला रंग सुंदरतम था। वे थे कि नहीं सांवले इसका कुछ पक्का पता नहीं है, लेकिन उस समय सांवले रंग की जो कद्र थी वह फिर कभी नहीं रही। सांवले में ही सलोनापन था उस समय। इसलिए कुष्‍ण को हम गोरा नहीं बना पहर। नाम ही कृष्ण रखा, श्याम रखा--वे सब काले के प्रतीक, पर्यायवाची है।  
अभी हम सोच ही नहीं सकते कि काले में क्या सौंदर्य, क्योंकि सफेद रंग बहुत प्रभावी है इधर सौ-डेढ़ सौ वर्षों से सारी दुनिया पर। तो जब हम कहते हैं कि सांवला सुंदर है, तो कहीं शक मालूम पड़ता है। हालांकि बहुत देर नही लगेगी, क्योंकि अमरीका की सुंदरियां सांवले होने की बड़ी चेष्टाओं में संलग्न हैं--समुद्र-तटों पर लेटी हैं कि किसी तरह धूप थोड़ा सांवला कर जाए; क्योंकि सफेद ही सफेद बहुत हो तो वह भी ऊब दे जाता है। और सफेद थोड़ा उथला मालूम पड़ता है। नदी जरा गहरी होती है तो सांवली हो जाती है; उथली होती है तो सफेद होती है, झाग होता है। सांवले में थोड़ी सी डेप्थ, थोड़ी सी गहराई मालूम पडती है। पर्त भी भीतर की झलक देती है। सफेद फ्लैट हो जाता है। मगर यह भी युग के साथ बदलती रहती है धारणा। कभी सफेद बहुत प्रीतिकर हो जाता है, फिर हम उससे ऊब जाते हैं, फिर सांवला प्रीतिकर हो जाता है।
कौमें हैं, जो स्त्रियों के घुटे सिर पसंद करती हैं। हम सिर्फ संन्यासियों के सिर घोटते हैं, और वह सिर्फ इसलिए--उनको कुरूप बनाने के लिए, और कोई कारण नहीं है, क्योंकि संन्यासी को सुंदर नहीं दिखाई पड़ना चाहिए, क्योंकि वह सुंदर का जो जगत है उसके बाहर जा रहा है।
लेकिन कौमें हैं, अफ्रीकन आदिवासी हैं, जो स्त्रियों के सिर घोटते हैं--पुरुषों के नहीं घोटते, क्योंकि पुरुष बिना सौंदर्य के भी चल जाएगा--स्त्रियों के सिर घोटते हैं, क्योंकि घुटा हुआ सिर ही सुंदर है। और शायद उनकी बात भी किसी अर्थ में महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे कहते हैं, जब तक सिर न घुटा हो, तब तक खोपड़ी की बारीकियों का कोई पता नहीं चलता, नीची-ऊंची खोपड़ी हो तो बालों में ढंकी रहती है। तो कुरूप खोपड़ी भी ढंकी रह जाती है। जब खोपड़ी बिलकुल साफ होती है तब पता चलता है कि सच में आकार है उसमें, अनुपात है? अन्यथा धोखा हो सकता है।
क्या है सौंदर्य? हम ही प्रक्षेपित करते हैं।.. हम ही प्रक्षेपित करते हैं; हमारी ही धारणा को हम फैलाते हैं। फिर हमें सुंदर दिखाई पड़ने लगता है। और सुंदर से हम फिर मोहित हो जाते हैं। तो पहले तो हम प्रक्षेपण कर लेते हैं एक बात को पर्दे पर पहुंचा देते हैं-- अपने ही भीतर से निकाला हुआ भाव पर्दे पर खड़ा कर लेते हैं, और फिर उससे ही मोहित हो जाते हैं।
आप कभी आईने के सामने खड़े होकर खुद से ही मोहित हुए हैं? तो आपको पता होगा कि क्या मैं कह रहा हूं।
यूनान में कथा है नारसीसस की कि उसने झील में झांक कर देखा अपने को और मोहित हो गया... और अपने ही प्रेम में पड़ गया। फिर बड़ी मुश्किल में पड़ा क्योंकि खुद को खोजना बहुत मुश्किल है। उपाय कहां? सारी जमीन खोज डाली उसने, लेकिन वह चेहरा फिर नहीं दिखाई पड़ता है, जिसके प्रेम में पड़ गया है।
फ्रायड ने ' नारसीसिस्ट ' उन लोगों को कहा है, जो अपने ही मोह में पड़ जाते हैं। और हममें से करीब-करीब अधिक लोग नारसीसिस्ट होते हैं, वे नारसीसस जैसे ही होते हैं। हम- सब अपने ही प्रेम में पडे होते हैं। कहते भला न हों, कहते भला न हों.. बायरन जैसा आदमी सैकड़ों स्त्रियों के प्रेम में पड़ता है.. कहता भला न हो, लेकिन मनस्विद कहते हैं कि वह सैकड़ों स्त्रियों के प्रेम में इसलिए पड़ता है कि हर बार हर स्त्री उसे कहे कि बहुत सुंदर हो। बस, इस आश्वासन के लिए। यह तलाश अपनी ही शक्ल को प्रेम करने की तलाश है। हजारों स्त्रियां कहें कि बड़े प्यारे हो। प्यार वह अपने को ही करता है, लेकिन यह हजार स्त्रियां कहें तो भरोसा गहरा हो जाए।
जब हम किसी दूसरे व्यक्ति को भी प्यार करते हैं तो अपनी ही धारणाओं को, अपने ही सौंदर्य की कल्पनाओं को, अपनी ही भावनाओं को, अपने ही आदर्शों को--हम अपने से ही घिरे हैं; सब नारसीसस हैं। लेकिन इस घिराव में इतनी वास्तविकता मालूम होती है कि लगता है, यह सब है।
और अगर एक तरफ से जाला टूट जाए तो मकड़ी तत्काल दूसरी खूंटी खोज कर जाला बुनना शुरू कर देती है। हम भी यही करते हैं। अगर एक व्यक्ति से हमारा मोह- भंग हो जाए, तो हम दूसरे व्यक्ति पर खूंटी बना कर अपना जाला बुनना शुरू कर देते हैं; एक स्वप्न टूट जाए, हम तत्काल दूसरा स्वप्न, परिपूरक स्वप्न देखना शुरू कर देते हैं-- लेकिन कभी इस होश से नहीं भर पाते कि जो हम कर रहे हैं, उससे सत्य का कोई भी संबंध है?
निश्चित ही वह बिलकुल असत् भी नहीं है, नहीं तो हम कर ही न पाते; बिलकुल सत् भी नहीं है, अन्यथा हम दुख में न पड़ते। वह मध्य में है.. वह असत् है और सत् जैसा भासताहै। माया का यह अर्थ है।

'' जो अनादि तो है पर जिसका अंत हो जाता है। ''
जो कभी प्रारंभ नहीं हुई, पर कभी समाप्त हो जाती है। स्मरण नहीं आता कि माया कब प्रारंभ हुई! स्मरण नहीं आता कि हम कब इस जाल में पड़े! कोई उपाय नहीं खोजने का कि कब उतरे हम इस गहन अंधरे में! अनादि है; लेकिन अंत हो सकता है।
बुद्ध से कोई पूछता है कि दुख का जन्म कैसे हुआ? तो बुद्ध कहते हैं. उसकी तुम फिकर छोड़ो, पूछो कि कैसे अंत हो सकता है। बुद्ध कहते हैं, यह बात ही छोड़ो कि प्रारंभ कैसे हुआ, तुम यही पूछो कि अंत कैसे हो सकता है। मैं अंत जानता हूं।
बुद्ध कहते हैं एक आदमी गिर पडा है तीर की चोट खाकर; तीर छिदा है उसकी छाती में, मैं निकालने जाता हूं वह आदमी कहता है, पहले यह बताओ, यह तीर किसने मारा? क्यों मारा? कब मारा? कहां से मारा? यह जहर-बुझा है या नहीं? किस कर्मफल का परिणाम है?
बुद्ध कहते हैं : यह सब तू मत पूछ। मैं तुझे तरकीब बता सकता हूं कि तीर कैसे निकल सकता है; इसका अंत कैसे हो सकता है।
माया है अनादि। यह बहुत कीमत की बात है कि भारतीय मनीषा तथ्यों को स्वीकार करने में बहुत ही साहसी है। बहुत कम चिंतन की धाराएं इस बात को स्वीकार करने को राजी हो पाती हैं कि कुछ अनादि है, क्योंकि मन कहता है.. कहीं न कहीं तो प्रारंभ हुआ ही होगा।.. कहीं न कहीं तो प्रारंभ हुआ ही होगा!
इसलिए ईसाई कहते रहे कि जगत का प्रारंभ हुआ है जीसस से चार हजार चार वर्ष पहले। उन्होंने तारीख भी तय कर रखी थी। फिर बहुत मुसीबत में पड़े, क्योंकि विज्ञान ने खोज-बीन की तो पता चला कि यह तो जमीन बहुत पुरानी है.. कोई तीन अरब वर्ष पुरानी। मगर आदमी कैसा.. कैसा अपने सपनों और तर्कों में जीता है! ईसाई धर्मगुरु बड़ी कठिनाई में पड़ गया जब अस्थियां मिल गईं पशुओं की जो लाखों वर्ष पुरानी हैं; और जमीन से धातुएं मिल गईं जो करोड़ों वर्ष पुरानी हैं; और पत्थर की चट्टानें मिल गईं जिनका इतिहास अरबों वर्ष पुराना है। लेकिन ईसाई धर्मगुरु कह रहा था कि ईसा से चार हजार चार वर्ष पहले--मतलब आज से कोई पांच-छह हजार वर्ष पहले। तो बड़ी कठिनाई हो गई। सभ्यताएं मिल गई जो कि सात हजार वर्ष पहले अपनी
पूर्णता के शिखर पर थीं। उल्लेख मिल गए जो कि लाख-लाख साल पुराने हैं। ऋग्वेद में
उल्लेख है जिन सितारों का, जिन तारों और नक्षत्रों का, वह पिचानवे हजार वर्ष पुराना उल्लेख है। अब क्या करें इसका? तो आदमी कैसा अपने को भ्रांत तर्क दे सकता है... ईसाई धर्मगुरुओं ने कहना शुरू किया कि परमात्मा ने पृथ्वी तो बनाई चार हजार चार
वर्ष पहले ही, लेकिन उसने उसमें इस तरह की चीजें रख दीं जो कि धोखा देती हैं अरबों वर्ष का ताकि आदमी की आस्था की परीक्षा हो सके; उसकी श्रद्धा की परीक्षा हो सके।
हड्डियां रख दीं.. क्योंकि उसके लिए क्या असंभव है? जो सारी पृथ्वी बना सकता है,
क्या वह एक ऐसी हड्डी नहीं बना सकता जो दस लाख साल पुरानी हो? --मालूम पडे कि
दस लाख साल पुरानी है? उसने ऐसी हड्डियां छिपा दीं ताकि आदमी की श्रद्धा की परीक्षा हो सके कि तुम श्रद्धावान हो या नहीं?
और श्रद्धा की परीक्षा तो तभी है, जब अश्रद्धा का सारा कारण उपस्थित हो जाए
और आदमी श्रद्धा करता ही चला जाए; वह कहे कि नहीं, चार हजार चार वर्ष पुरानी है।
यह रेशनेलाइजेशन है; यह अपनी भ्रांतियों को भी तर्क देने की हम चेष्टा करते रहते हैं। यह जो भारतीय मनीषा है, यह एक अर्थ में हिम्मतवर है, यह तथ्यों को स्वीकार
करती है। मनीषा कहती है कि इस जगत का कभी कोई आरंभ नहीं हुआ। इसलिए
मौलिक रूप से हम अकेली ही कौम हैं पृथ्वी पर, जिसने बिगिनिगलेस-- अनादि तत्व को स्वीकार किया है; अन्यथा कोई स्वीकार नहीं कर पाया। कहीं न कहीं शुरू तो होना है--
भला हमें पता न हो; क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि कोई चीज शुरू ही न हो और हो? लेकिन यह तर्क का बहुत उथला रूप है। सच तो यह है कि कोई भी चीज अगर शुरू हो तो
उसके शुरू होने कि लिए भी किसी चीज की पहले मौजूदगी जरूरी है; अन्यथा शुरू भी
कैसे होगी? प्रारंभ के लिए भी तो कुछ मौजूद चाहिए जिसमें प्रारंभ हो।
तो भारतीय मनीषा कहती है कि प्रारंभ के लिए भी तो पहले कुछ मौजूद चाहिए।
इसलिए प्रारंभ की बात बकवास है; हम कभी भी प्रारंभ को रखें, कोई भी तारीख तय करें-- आगे-पीछे, अरबों-खरबों वर्ष पहले--लेकिन जब भी प्रारंभ होगा वह प्रारंभ नहीं है, क्योंकि प्रारंभ के लिए भी कुछ मौजूद चाहिए। और इसलिए हम स्वीकार करते हैं कि यह अस्तित्व जो है, अनादि है। क्योंकि प्रारंभ का जो तर्क है वह इनफिनिट रिग्रेस में गिरा देता है; उसका कोई अर्थ ही नहीं है। उसका कोई अर्थ ही नहीं है; वह बच्चों का खेल हो जाता है कि हम कहते हैं, अ ब से पैदा हुआ, और ब स से पैदा हुआ, और स द से पैदा। हुआ--लेकिन अगर पैदा होने के लिए कोई जरूरी ही है पहले, तो एक जगह जाकर हमें स्वीकार कर लेना होगा कि यह पूरी श्रृंखला कभी पैदा नहीं हुई। अन्यथा हम सिर्फ पीछे हटते जा सकते हैं, नये शब्द खोजते जा सकते हैं; और वे सभी शब्द प्रश्न को हल नहीं करेंगे--उत्तर तो दे देंगे, प्रश्न अपनी जगह खड़ा रहेगा। तो तर्काभास है।
अगर कोई कहता है कि पृथ्वी कहां खड़ी है? तो हम कहते हैं, हाथी पर खड़ी है, कि हाथी कछुए पर खड़ा है। लेकिन यह तर्काभास है, क्योंकि अगर कहीं न कहीं जाकर रुकना ही है, तो पृथ्वी पर ही रुक जाने में क्या हर्ज है कि पृथ्वी किसी पर नहीं खड़ी है। और अगर कहीं न कहीं जाकर हमें कहना ही पड़ेगा कि यह अनादि है इसका कोई प्रारंभ नहीं हुआ, तो इतने दूर जाने की, इतनी यात्रा की नासमझी क्या करनी! ऐसा ही सीधा सत्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि कुछ अनादि है, जो कभी प्रारंभ नहीं हुआ है।
लेकिन दूसरी और भी इससे भी खूबी की बात है कि जो अनादि है उसका अंत हो सकता है। यह तर्क के लिए और भी कठिन हो जाता है, क्योंकि जिसका प्रारंभ न हुआ हो उसका अंत नहीं होना चाहिए यह तर्क की सीधी व्यवस्था है। क्योंकि जिस डंडे का एक छोर नहीं है, उसका दूसरा छोर कैसे होगा? या तो दोनों छोर होंगे, या दोनों छोर नहीं होंगे। सीधा तर्क है; और साफ है।
गणित कहेगा कि गलत बातें कर रहे हैं। या तो कहो कि प्रारंभ हुआ है... तो अंत-- ये दो छोर हैं। लेकिन तुम यह कह रहे हो कि एक ही छोर है-- अंत; और प्रारंभ का छोर है ही नहीं। यह नहीं हो सकता।
हमको भी लगेगा।... हमको भी लगेगा! एक उदाहरण से कहूं तो शायद खयाल में आ जाए। पिछले सौ वर्षों में, जिसको हम सीधा अरस्तु का तर्क कहें--सीधा, स्ट्रेट लॉजिक; वह टूट गया है पिछले सौ साल में। दो हजार साल की अरस्तु की लंबी तर्क की परंपरा बुरी तरह खंडित हुई है... और खंडित हई है विज्ञान के द्वारा। और बड़े से बड़ी चोट पंहुची है अणु में प्रवेश से; क्योंकि जैसे ही भौतिक शास्त्र ने अणु में प्रवेश किया वैसे ही एक अनूठी घटना हाथ आई, जिसको तर्क समझाने में कठिनाई में पड़ गया।
वह घटना यह थी कि जैसे ही अणु विस्फोट होता है तो उसके जो मौलिक कण हैं, इलेक्ट्रांस हैं, वे कण भी हैं और तरंग भी--एक ही साथ। यह नहीं हो सकता; स्ट्रेट लॉजिक के हिसाब से, सीधे तर्क के हिसाब से यह नहीं हो सकता। अरस्तु कहेगा, यह बकवास है। या तो कोई चीज कण होगी, और या कोई चीज तरंग होगी; तरंग और कण एक ही साथ कोई चीज कैसे हो सकती है? क्योंकि तरंग का मतलब ही होता है, कण नहीं है जो... लहर, और कण का अर्थ होता है, जो ठहरा है, रुका है, लहर नहीं है। लहर में कई कण हो सकते हैं, लेकिन कण में लहर नहीं हो सकती है। सीधी बात है।
लेकिन बड़ी मुश्किल खड़ी हुई। फिजिसिस्ट भी दिक्कत में पड़े, क्योंकि पश्चिम का सारा विचार अरस्तु को आधार मान कर चलता रहा है; और दो हजार साल में उसे कभी तकलीफ नहीं हुई थी। सदा ठीक बैठा था अरस्‍तु, इसलिए वह पिता है तर्क का। लेकिन इस घटना ने, इन इलेक्ट्रांस ने अरस्तु को बड़ी मुश्किल में डाल दिया।
अब दो ही उपाय थे या तो अरस्तु को मानो और कहो कि यह नहीं हो सकता, लेकिन यह हो रहा था.. कण एक ही साथ तरंग भी था.. या तो कह दो कि यह हो ही नहीं सकता, आंख बंद कर लो। लेकिन वैज्ञानिक आंख भी कैसे बंद कर सकता है? यह हो रहा था। तो उपाय यही था कि अरस्तु को कहो कि अब तुम चुप हो जाओ, हम तुम्हारी मान कर इतने दिन तक चले वह ठीक था, क्योंकि कोई तथ्य हमारी पकड़ में नहीं आया जो तुम्हें खंडित करता, आज एक तथ्य सामने आ गया है जो इनकार करता है तर्क को। अब हम तर्क को मानें या तथ्य को? अगर तर्क को मानें तो सारा विज्ञान आगे विकास के लिए कुंठित हो जाता है।
तो वैज्ञानिक ने हिम्मत की और उसने कहा कि अब हम अपना तर्क ही सुधार लें, क्योंकि सत्य को तो सुधारने का कोई उपाय नहीं है। अब हम क्या करें? यह तरंग और कण एक ही साथ है तो ' कण-तरंग' : 'क्वांटा'--नया शब्द गढ़ना पड़ा, जो मनुष्य की भाषा में कभी भी नहीं था। अभी हिंदी में अभी भी नहीं है। इसलिए हमको ' कण-तरंग ' कहना पड़ रहा है। अंग्रेजी को एक नया शब्द मिल गया क्वांटा। उसका मतलब है : दोनों एक साथ--एक ही चीज दोनों। अरस्तु का तर्क बड़ी मुश्किल में हो गया।
भारतीय भी आत्मिक खोज में ऐसे स्थानों पर पहुंचे जहां तथ्य तर्क के आगे पड़ गया। यह एक तथ्य वैसा तथ्य है.. जहां भारतीयों ने कहा कि माना, तर्क ठीक कहता है. जिसका प्रारंभ नहीं, उसका अंत नहीं हो सकता, लेकिन हमने अंत करके देखा; हम मुश्किल में हैं। हमने भीतर अनुभव किया कि माया का अंत हो जाता है, और आरंभ नहीं है; अब हम क्या करें? हमारी भी कठिनाई ठीक आंतरिक अनुभव में वैसी ही थी, जैसे पश्चिम में पिछले पचास साल में क्वांटा के संबंध में हुई। हमको भी समझ में आता था, और तर्क हमने भी अरस्तु से बहुत पहले विकसित कर लिया था। अरस्तु के तर्क को विकसित हुए केवल ढाई हजार साल हुए हैं, और पूर्वीय न्याय कम से कम सात हजार साल से अस्तित्व में है। हमें भी यह पता था कि यह तर्क का नियम है; भलीभांति पता था, लेकिन क्या किया जा सकता है? अगर तथ्य हमारे तर्क को न माने तो हम क्या करें? हमें अतर्क्य तथ्य को ही मानना पड़ेगा। यह तर्क अतथ्य है।
माया का कोई प्रारंभ नहीं--खोजते.. खोजते.. खोजते कितना ही हम खोजें, पता चलता है कि किसी भी प्रारंभ को हम मानें, वह प्रारंभ नहीं है; उसके होने के लिए भी किसी की मौजूदगी जरूरी है। तब फिर प्रारंभ की खोज शुरू हो जाती। लेकिन हम अपने भीतर जब उतरते हैं तो एक घड़ी आती है जहां हमारे प्रेक्षपण का पूरा जाल टूट जाता है और हम माया के बाहर हो जाते हैं। रोग का प्रारंभ नहीं है लेकिन अंत है, यह हमने तथ्य से जाना है; यह हमने अनुभव से जाना है। इसलिए उपनिषद हमारी तार्किक घोषणाएं नहीं हैं, हमारे अंतर्निरीक्षण के निष्कर्ष हैं। और जब भी तथ्य महत्वपूर्ण होता है तो तर्क को छोड़ देना पड़ता है; कोई उपाय नहीं है।
पश्चिम का मनोविज्ञान अभी एक और ऐसे तथ्य के करीब आया, जहां स्ट्रेट लॉजिक को टूट जाना पड़ता है। मैंने अभी भौतिक शास्त्र की बात की। पश्चिम का मनोविज्ञान भी जुग के साथ एक नई घटना पर उतर गया। सदा से हम मानते थे कि पुरुष पुरुष है, स्त्री स्त्री है। लेकिन जुग ने पाया कि हर पुरुष के भीतर भी स्त्री है और हर स्त्री के भीतर भी पुरुष है। उसने कहा, मात्रा का ही फर्क है। जिसको हम पुरुष कहते हैं वह साठ परसेंट पुरुष है और चालीस परसेंट स्त्री है, ऐसा समझें। जिसको हम स्त्री कहते हैं वह साठ परसेंट स्त्री है, चालीस परसेंट पुरुष है, ऐसा समझें। यह अंतर मात्रा का है, यह अंतर सीधा नहीं है। तो प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री है और प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष है।
तो कं ने कहा कि हमें कहना चाहिए कि पुरानी सारी धारणा गलत हो गई कि पुरुष पुरुष है और स्त्री स्त्री है। और किसी स्त्री को कहना कि क्या मर्दानी, या किसी पुरुष को कहना कि क्या स्त्रैण! --नासमझियां है। आदमी बायसेक्सुअल है। तो पुराने यौन का जो विभाजन था वह टूट गया।
और जुंग ने और मुश्किल में डाल दिया। उसने कहा कि जैसे-जैसे मैं इसके गहरे अनुभवों में उतरा तो मैंने पाया कि यह अनुपात भी कोई निश्चित नहीं है, यह दिन में दस दफा बदल जाता है। हो सकता है, सुबह आप ज्यादा स्त्री हों--पुरुष होते हुए भी, और सांझ आप ज्यादा पुरुष हो जाएं। और यह भी हो सकता है कि आज आप पुरुष हैं और कल आप स्त्री जैसा व्यवहार करें।
कभी आपने खयाल किया? मैं एक आदमी को जानता हूं--बड़ा हिम्मतवर आदमी--उसके मकान में आग लग गई, तो वह छाती पीट कर और बाल खींच कर ऐसा रोने लगा, जैसा कि कोई स्त्री भी न रो सके। जब मैंने उसे रोते देखा तो यह मानना मुश्किल हो गया कि यह वही आदमी है! बिलकुल स्त्री जैसा व्यवहार करने लगा। अगर हम पुराने सीधे तर्क को मानें तो हम कहेंगे कि कमजोरी का क्षण है, होश में नहीं है, लेकिन नया मनस्विद कहेगा कि नहीं, कमजोरी का क्षण नहीं है, अनुपात बदल गया.. स्त्री प्रमुख हो गई।  कभी हमने स्त्री को भी पुरुष की भांति लड़ते और संघर्ष में देखा है। कभी कोई झांसी की रानी ठीक पुरुष जैसी है, तो हम उसे मर्दानी कहते हैं, लेकिन हम मानते हैं कि यह कोई विशेष स्त्री है। ऐसा कुछ भी नहीं है। किसी भी स्त्री में यह प्रकट हो सकता है। अनुपात के परिवर्तन की बात है।
और कई बार ऐसा होता है कि जब स्त्री मर्दानी होती है तो पुरुष से ज्यादा मर्दानी हो जाती है, उसका कारण है; क्योंकि उसकी मर्दानगी बड़ी फ्रेश और ताजी होती है; सदा की छिपी रहती है। उसका उसने उपयोग ही नहीं किया होता। जैसे कि कोई जमीन बोई ही न गई हो सैकड़ों वर्षों तक, तो बड़ी उर्वरा हो जाती है। उसमें बीज डालें तो पहली तो फसल भारी होगी--सारे आस-पास के खेत जो हजारों साल से अनाज देते रहे हैं, फीके पड़ जाएंगे। तो स्त्री अगर कभी मर्दानी होती है तो उसका जो मर्द है, उसके भीतर को जो पुरुष है, वह बहुत ताजा और प्रगाढ़ होता है, क्योंकि अप्रकट रहा है; और विस्फोट होता है। और कभी जब कोई पुरुष स्त्रैण हो जाता है तो उसकी कोमलता स्त्री भी नहीं छू पाती; वह स्त्री से भी ज्यादा स्त्रैण हो जाता है।
सीधा तर्क टूट गया मनस्विद के पास भी। उसने कहा कि तर्क तो ठीक कहता है कि स्त्री स्त्री है, पुरुष पुरुष है; पुरुष स्त्री नहीं, स्त्री पुरुष नहीं; लेकिन तथ्य यह कहता है कि दोनों दोनों हैं। और हम पुरानी धारणा छोड़े।
और लुंग कहता है कि हमारा आकर्षण ही इसलिए है; नहीं तो आकर्षण भी न हो। इसलिए एक बहुत अनूठी बात खोज में आई है और वह यह कि आप एक पुरुष होकर जो स्त्री की खोज में रहते हैं कि कोई स्त्री, जिसे हम प्रेम कर सकें, बहु स्त्री आपके भीतर की स्त्री से जब मेल खाती है तभी प्रेम घटित होता है; नहीं तो प्रेम घटित नहीं होता।
और इसलिए आप, हो सकता है, एक स्त्री को प्रेम करें और कल पाएं कि नहीं, घटित नहीं हो रहा है प्रेम; एक पुरूष को प्रेम करें और कल पाएं कि तालमेल नहीं बैठता। तब हम नाराज होते हैं कि शायद यह पुरुष ठीक नहीं है, शायद यह स्त्री ठीक नहीं है। कुल कारण इतना है कि हमारी भीतर की स्त्री से तालमेल नहीं बैठ पा रहा, या भीतर के पुरुष से तालमेल नहीं बैठ पा रहा। हम सबके भीतर एक प्रतिमा है पुरुष की या स्त्री की, उसी की हम तलाश करते हैं। और जब उस प्रतिमा में कोई ठीक-ठीक बैठ जाता है तब हम कहते हैं कि हम प्रेम में पड गए।
प्रेम में पड़ना और कुछ भी नहीं है, उस भीतर की प्रतिमा का किसी के साथ ठीक मेल पड़ जाना--कि हम प्रेम में पड़ गए। लेकिन प्रत्येक बदल रहा है। इसलिए आज मेल पड़ सकता है, और कल शायद मेल न पड़े। इसलिए, सुबह मेल पड़ता है, सांझ मेल न पड़े।
भारतीय मनीषा इस अनुभव पर एक दिन पहुंची कि जो प्रारंभ नहीं होता वह भी अंत हो सकता है, और जो अंत नहीं होता वह भी प्रारंभ हो सकता है।
दूसरा हिस्सा भी आपको कह दूं. माया प्रारंभ नहीं होती, अंत होती है; मोक्ष प्रारंभ होता है, अंत नहीं होता।
मोक्ष का अर्थ है. माया से उठ जाना। उसका प्रारंभ तो होता है; क्योंकि एक दिन आप माया से उठते हैं, लेकिन फिर उसका अंत कभी नहीं होता। महावीर मुक्त हो गए, अब इस मोक्ष का कोई अंत नहीं होता।
तो भारतीय मन समझा है इस बात को कि माया ऐसा तथ्य है जो प्रारंभ नहीं होता, अंत होता है; मोक्ष दूसरा तथ्य है जो प्रारंभ होता है और अंत नहीं होता। और अगर हम इन दोनों को पूरा मिला लें तो वर्तुल बन जाता है। माया में जो अनादि है, वही मोक्ष में अनंत है। मोक्ष में जो आरंभ में है, माया में वही अंत है। माया का अंत मोक्ष का प्रारंभ है। वर्तुल निर्मित हो जाता है यह वर्तुल आध्यात्मिक अनुभव है; यह तर्क नहीं है। और तर्क से जो इसकी तरफ जाएगा वह अपने हाथ-पैर बांध कर और चलने की कोशिश कर रहा है। तो न चल पाए तो इसमें जिम्मा इसका नहीं है कि चलने की घटना नहीं घटती, वह हाथ-पैर बांधे हुए बैठा है... अपने ही तर्क से अपने हाथ-पैर को बांधे हुए बैठा है।

''जो न सत्, न असत्; न जिसे हम कह सकते सत्-असत्; न हम कह सकते, दोनों; न हम कह सकते, दोनों नहीं, ऐसी सबसे अधिक विकाररहित दिखाई पड़ने वाली शक्ति को माया कहते हैं।''
और विकाररहित दिखाई पड़ती है बिलकुल; क्योंकि जब दिखाई पड़ती है तो विकाररहित ही दिखाई पड़ती है, स्वप्न जैसी शुद्ध सत्य मालूम पड़ती है, वास्तविक मालूम पड़ती है। जब खो जाती है तो ऐसा नहीं कि विकारसहित दिखाई पड़ती है; दिखाई ही नहीं पड़ती। जब तक दिखाई पड़ती है, शुद्ध सत्य मालूम पड़ती है। जब नहीं दिखाई पड़ती, शुद्ध असत्य हो जाती है। यह जो दोनों के बीच का अस्तित्व है माया का, इसे ही हम संसार कहते रहे हैं।

''उसका वर्णन इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार से नहीं किया जा सकता। ''
इससे ज्यादा उसके बाबत कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इससे ज्यादा जानना हो तो जानना पड़ता है। इतना काफी है कहने के 'लिए। इससे ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है। इससे ज्यादा संभव भी नहीं है। सूत्र पूरा हो गया। अब अगर ज्यादा जानना हो तो जाना जा सकता है।





''यह माया अज्ञानरूप, तुच्छ और मिथ्या है।''
यह माया अज्ञानरूप है, तुच्छहै, मिथ्या है।

''पर मूढ़ मनुष्यों को तीनों काल में वास्तविक जान पड़ती है, और इसलिए ऐसा ही है, ऐसा कह कर उसका कोई रूप समझाया नहीं जा सकता है। ''
इसमें तीन बातें हैं. अज्ञानरूप--हम नहीं जानते, इसीलिए माया दिखाई पड़ती है; हमारा न जानना ही उसका आधार है।
सांप दिखाई पड़ा है रस्सी में, उसका आधार क्या है? --कि हम रस्सी को ठीक से नहीं जान पाए। ठीक सम्यक ज्ञान रस्सी का नहीं हुआ, इसलिए सांप दिखाई पड़ा है। अगर पास गए होते, प्रकाश जलाया होता, देखा होता, तो सांप खो जाता। सांप का अस्तित्व हमारे न जानने में है, रस्सी में नहीं।    इसे ठीक से समझ लें।
सांप का अस्तित्व हमारे न जानने में है, रस्सी में नहीं; क्योंकि रस्सी तो हम जान लेंगे तब भी रस्सी ही होगी। नहीं जानते थे तब भी रस्सी ही थी। लेकिन बीच में एक क्षण आया, अंधेरा आया, भ्रांति थी, हम दूर से ही देख कर भाग खड़े हुए। अंधेरा था, धुंधलका था, साफ दिखाई नहीं पड़ता था, तब हमने जो सांप देखा, वह सांप कहां से आया? वह हमारे न जानने से और हमारी स्मृति से आया। हमने पहले सांप देखा है। रस्सी में कुछ मेल पड़ गया उस सांप का। रस्सी वैसी दिखाई पड़ी जैसे सांप हो, और अंधेरा था, और रोशनी न थी, और हम भाग खड़े हुए-- भय ने काम किया, स्मृति ने काम किया, जान की कमी ने काम किया, और हम भाग गए; तो जो नहीं था वह वास्तविक हो गया। भय ने काम किया, स्मृति ने काम किया--पुरानी स्मृति सांप की पर्देपर फैल गई, और अंधेरे ने काम किया; पास नहीं गए, अज्ञान ने काम किया-- और रस्सी सांप हो गया।
कभी उलटा भी हो जाता है, कभी सांप भी रस्सी हो जाता है। तुलसीदास को हो गया था। गए हैं पत्नी को मिलने चोरी से। सामने के द्वार से नहीं पहुंच सकते हैं, क्योंकि अभी दिन ही तो नहीं हुआ पत्नी को गए हुए अपनी मां के घर। तो सामने किस मुंह से जाएं? तो मकान के पीछे से चढ़ गए हैं। वर्षा की रात है, सांप लटका है, रस्सी समझ कर चढ़ गए। यह भी हो जाता है; क्योंकि अगर रस्सी सांप बन सकती है तो सांप क्यों रस्सी नहीं बन सकता?
मगर यह भी कारण वही है. स्मृति.. कि रस्सी है; और इतनी जल्दबाजी चढ़ने की कि फुर्सत नहीं है जानने की कि क्या है। भय कि कोई देख न ले, कोई पकड़ न ले। सुविधा नहीं है बहुत जांच-पड़ताल की। नहीं तो सामने के दरवाजे से ही चले गए होते। रोशनी लेकर भी जाने का उपाय नहीं है। क्योंकि चोर रोशनी लेकर नहीं जाते हैं। और भारी मोह, भारी माया पत्नी के मिलने की--तो सांप रस्सी हो जाता है। बाकी सांप तो तब भी सांप ही है। तो अज्ञान आधार है।
‘’.. -तुच्छ और मिथ्या है। ''
क्योंकि जो है वहां वस्तुत:, वह एकदम तुच्छ है, ना-कुछ है; हम उसे बहुत कुछ बना लेते हैं। वह हमारे ही सपने को हम देकर बहुत कुछ बना लेते हैं। इसलिए जब स्वप्न टूटता है तो व्यक्ति, जिस पर हमने स्वप्न को फैलाया था, एकदम फीका हो जाता है, बेरस हो जाता है। व्यक्ति वही है, सिर्फ हमने अपना स्वप्न वापस ले लिया।
तुच्छ है जो चारों तरफ हमारे फैला हुआ है, जिस पर हम अपनी माया को खड़ा करते हैं, बिलकुल तुच्छ है; ना-कुछ है। वह ठीक वैसे ही फिल्म के पर्दे जैसा। उसमें कुछ भी नहीं है, सिर्फ सफेद कोरा पर्दा है। लेकिन फिर बहुत रस चित्रों को फैला कर हम देख लेते हैं, दीवाने हो जाते हैं लोग। पागल हो जाते हैं--तस्वीरों से! और तस्वीरें भी केवल धूप और छाया का खेल हैं; केवल प्रकाश के वर्तुल हैं, और कुछ भी नहीं; उनसे भी दीवाने हो जाते हैं।
और अब तो थ्री-डाइमेन्यानल फिल्म होती है; तीन आयाम वाली होती हैं। तो जब पहली दफा थ्री-डाइमेबानल फिल्म पैदा हुईं तो बिलकुल वास्तविक हो गया मामला। पहले दिन जब लंदन में थ्री-डाइमेन्यानल फिल्म दिखाई गई, तो उसमें एक घुड़सवार घोड़े पर दौड़ता हुआ आता है और एक भाला फेंकता है। पूरा हॉल अपना सिर झुका लेता है भाले से बचने के लिए; क्योंकि वह थ्री-डाइमेन्यानल है, वह बिलकुल दिखाई पड़ता है-- उसमें लंबाई, चौड़ाई, गहराई सब है भाले में। और जब भाला फेंका जाता है तो बिलकुल सर्राता हुआ, गुजरता हुआ मालूम पड़ता है कि अब गया करीब से। यह सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती कि हम फिल्म में बैठे हैं। सिर झुक जाते हैं। वास्तविक भाले में और उस भाले में कोई फर्क नहीं रह जाता। लेकिन क्या गुजरा था वहां? कुछ भी तो नहीं था-- तुच्छ! धूप और छाया का खेल था। लेकिन भ्रांति पैदा हो सकती है।

'' और मिथ्या... ''
मिथ्या का अर्थ : जो नहीं है, बिलकुल नहीं है, और बिलकुल हुई मालूम पड़ती है। मिथ्या, माया का पर्यायवाची है। माया शक्ति का नाम है; मिथ्या तथ्य का। माया से हम मिथ्या तथ्यों को पैदा करते हैं। सूडो फैक्ट्स--मिथ्या का मतलब होता है। माया शक्ति है झूठे तथ्यों शो पैदा करने की। तो मिथ्या का निर्माण होता है माया से।

''पर मूढ़ मनुष्य को... ''
मूढ़ का मतलब मूर्ख नहीं है। ध्यान रहे, मूढ़ का मतलब मूर्ख नहीं है; बुद्धिमान भी
मूढ़ हो सकते हैं; महापंडित भी मूढ़ हो सकते हैं। मूढ़ का मतलब मूर्ख नहीं है; छू का
मतलब है--माया में डूबा, मूढ़ हुआ, खोया, सम्मोहित।

  कोई कमी न थी, लेकिन मूढ़ हो गए।
पश्चिम में वे कहते हैं, कहावत है. कि मां को जिस बेटे को बुद्धिमान बनाने में पच्चीस साल लगते, एक जवान औरत उसे दो सेकेंड में मूड बना देती है। पच्चीस साल खराब करती है मां बुद्धिमान बनाने में--पढ़ाओ, लिखाओ, समझाओ-- और उसे पता नहीं कि एक साधारण सी औरत आएगी और मूढ़ बना देगी दो मिनट में; सब बुद्धिमानी रखी रह जाएगी।
मूड का अर्थ मूर्खता नहीं है; मूढ़ का अर्थ : विमोहित होने की दशा। कोई भी विमोहित हो सकता है। और जब कोई विमोहित होता है, तब सब बुद्धिमानी रखी रह जाती है। क्षण भर पहले बड़े बुद्धिमान थे, क्षण भर में बुद्धिमानी खो जाती है। जैसे एकदम से नशा छा जाए। जैसे एक आदमी होश में रास्ते पर चल रहा था, और फिर कोई अचानक उसको एक टिकिया दे दे और वह बेहोश हो जाए और पैर लड़खड़ाने लगें--ठीक ऐसा। हमारे भीतर क्षमता है माया की शक्ति की, जैसे ही हम उसको मौका देते हैं फैलने का वह फैल कर अपना वितान फैला लेती है; हम उसके भीतर हो जाते हैं। माया के भीतर हो जाने का नाम मूढ़ता है।
तो तीन शब्द हुए हमारे पास : 'माया।' माया का अर्थ : शक्ति। 'मिथ्या।' मिथ्या का अर्थ. इस माया से पैदा हुए तथ्य। और 'मूढ़ता' : इस माया से ढंक गई चेतना।
तो जब हम किसी को मूढ़ कहते हैं, तो उसका अर्थ यह नहीं है कि वह मूर्ख है; उसका केवल इतना अर्थ है कि वह अपने ही हाथों मूर्ख बन गया है। वह बुद्धिमान भी बन सकता है। और इसलिए यह जरूरी नहीं है, मूढ़ता से मुक्त होने के लिए--दूसरा हिस्सा समझ लें--यह जरूरी नहीं है कि एक आदमी बहुत बुद्धिमान हो। मूर्ख भी मूढ़ता छोड़ सकते हैं, क्योंकि बुद्धिमान भी मूढ़ हो सकते हैं।
इसलिए कभी ऐसा भी होता है कि गांव का बिलकुल गंवार और परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। उसका मतलब है, वह छूता के बाहर हो जाता है--बस। कबीर, या नानक, या तारण, या दादू या फरीद... ये कोई पढ़े-लिखे लोग नहीं हैं.. खुद मोहम्मद, जीसस--इन्हें किसी भी अर्थों में जानकार नहीं कहा जा सकता। इनके पास कोई सुंसस्कृत, शिक्षित चित्त नहीं है, बिलकुल साधारणजन हैं। लेकिन अचानक मूढ़ता के बाहर छलांग लगा जाते हैं, और परम ज्ञानी हो जाते हैं।.. परम ज्ञानी हो जाते हैं!
यह जो परमज्ञान है, यह मूढ़ता के मिटने से होता है; और जो पांडित्य है वह मूर्खता के मिटने से होता है। तो मूर्खता मिटानी आसान है; जानकारी इकट्ठी कर ली तो मूर्खता मिट जाती है। नहीं जानने का नाम बहुत सी जानकारियों को हम मूर्ख कहते हैं। जान लेता है आदमी, कहते हैं पंडित है, लेकिन पंडित और मूर्ख सजातीय हैं। उनमें मात्रा का फर्क है। मूर्ख कम जानता है, पंडित ज्यादा जानता है। जानकारी की मात्रा उसकी ज्यादा है, जो अंतर है वह परिमाण का है, मात्रा का है; वह गुण का नहीं है, क्योंकि दोनों ही मूढ़ हो सकते हैं--कभी भी! कभी भी दोनों ही मूढ़ हो सकते हैं।
मूढ़ता के विपरीत जो है उसका नाम ज्ञान है, और मूर्खता के विपरीत जो है उसका नाम पांडित्य है। मूढ़ता के विपरीत जो है उसका नाम प्रज्ञा है, उसका नाम विज्डम है। इसलिए पांडित्य सीखा जा सकता है, ज्ञान सीखा नहीं जा सकता। पांडित्य उधार मिल जाता है, ज्ञान के उधार पाने का कोई उपाय नहीं है। पांडित्य केवल संग्रह है, ज्ञान आत्म- क्रांति है।
मूढ़ता टूटे। मूढ़ता का क्या मतलब है? मूढ़ता का मतलब है : माया के वशीभूत होने की वृत्ति। माया के प्रभाव में जाने की वृत्ति मूढ़ता है। माया के प्रभाव से मुक्त होने की क्षमता ज्ञान है।

'' मूढ़ मनुष्यों को तीनों काल में माया सत्य मालूम पड़ती है। ''
ये कौन से तीन काल हैं, जिनमें मूढ़ मनुष्य को माया सत्य मालूम पड़ती है?
प्रत्येक वस्तु के होने के तीन क्षण होते हैं--न होने का क्षण, होने का क्षण, और फिर न हो जाने का क्षण। प्रत्येक वस्तु काल की तीन स्थितियों में से गुजरती है।
अभी मैंने आपको देखा, अभी मेरा आपसे कोई प्रेम नहीं है; यह एक स्थिति। देखा, प्रेम हुआ; यह दूसरी स्थिति। कल प्रेम खो गया, यह तीसरी स्थिति। ये तीन काल हुए प्रेम के--नहीं था, हुआ, अब नहीं है।
ऋषि कहता है कि 'मूढ़जन तीनों स्थितियों में माया को वास्तविक समझते हैं। ' जब नहीं था तब वे समझते थे, प्रेम नहीं है--यह वास्तविकता थी। जब हुआ तब वे समझते हैं कि प्रेम है--यह वास्तविकता है। जब नहीं हो जाता तब वे फिर समझते हैं कि नहीं है--यह वास्तविकता है। और ये तीनों वास्तविकताएं नहीं हैं, ये तीन काल हैं। प्रत्येक मायिक अनुभव के, प्रत्येक मूढ़ता के तीन क्षण हैं--होने का, होने के पहले का, होने के बाद का। और तीनों स्थितियों में जो भी सामने होता है, आदमी मानता है, यही ठीक है। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका यह अर्थ हुआ कि जो व्यक्ति जब प्रेम है, अगर मानता है कि अब यह प्रेम है और वास्तविक है, तो जब प्रेम खो जाएगा तब मानेगा कि अब प्रेम नहीं है--इतनी ही गहराई से मानेगा, जितनी गहराई से उसने माना था प्रेम को; लेकिन यह न देख पाएगा कि जो नहीं हो गया, वह कहीं ऐसा तो नहीं है कि नहीं ही था? और जो अभी हो गया और क्षण भर पहले नहीं था, कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह पहले भी नहीं था और अभी सिर्फ भ्रांति हो रही है? इन दो क्षणों के बीच में होने की भांति हो रही है? क्योंकि जो है, वह सदा है; और जो है, वह सदा रहेगा। जो आता है और जाता है, वह भ्रांत है, वह मायिक है; वह सिर्फ जादू है; वह केवल सम्मोहन है।
मूढ़ व्यक्ति तीनों काल में मानता है कि वास्तविक है। और इसलिए छू व्यक्ति को समझाना अति कठिन है कि माया क्या है।
ऋषि कहता है

''ऐसी ही है, ऐसा कह कर उसे समझाया नहीं जा सकता। ''
क्यों नहीं समाझाया जा सकता? क्योंकि जब उसका प्रेम भंग हो जाता है, तब हम उससे कहें कि यह प्रेम नहीं था तो वह मान लेता है कि नहीं था, लेकिन कल उसका प्रेम फिर जन्मता है, तब उसको आप मनाएं! वह कहेगा, नहीं, यह है, वह न रहा होगा, लेकिन यह है।
और आदमी की वर्तुलाकार क्षमता है मूढ़ होने की।
मैं एक आदमी के संबंध में सुना हूं कि उसने जीवन में आठ बार विवाह किया। एक लिहाज से अच्छा है कि इतने विवाह का मौका हो। तो इतनी बार मूढ़ता दोहराने से शायद खयाल आ जाए। लेकिन क्षमता अनंत है आदमी की। बडी हैरानी हुई कि उसे कि जब उसने पहली दफा विवाह किया और छह महीने बाद विभ्रम हो गया, सब टूट गया, स्वप्न खंड हुआ, तो उसने सोचा कि मैंने गलत स्त्री चुन ली। दूसरा विवाह किया, छह महीने बाद पता चला कि उसने फिर वैसी ही स्त्री चुन ली। यह दूसरी स्त्री थी, लेकिन फिर वैसी ही थी। उसने आठ बार जिंदगी में चुनाव किया, और हर बार वैसी ही स्त्री सिद्ध हुई। लेकिन फिर भी उसे यह खयाल न आया कि चुनने वाला वही है, तो चुनाव अलग-अलग कैसे हो सकता है? यह हो कैसे सकता है? पहली स्त्री को चुनते वक्त भी मैं ही चुनने वाला था। मेरे चुनने का ढंग, मेरे देखने का ढंग, मेरे माया का फैलाव, मेरे सौंदर्य की धारणा, मेरे प्रेम की कल्पना दूसरी बार भी वही है, तीसरी बार भी वही है, लेकिन हर बार वह यह सोच रहा है कि गलत स्त्री मिल गई; कभी यह नहीं सोच रहा है कि जो आदमी चुन रहा है, वह गलत के अतिरिक्त किसी चुन ही नहीं सकता है। वह गलत ही उसमें फिट होती है, तालमेल खाती है।
तो मूढ़ता की कठिनाई यह है कि वह तीनों काल में कभी यह नहीं देख पाती कि यह मूढ़ता जो है, यह मेरे ही भीतर का जाल है जो मैं बाहर फैलाता हूं दोष सदा दूसरे पर होता है। अगर मैं आपके प्रेम में गिर गया तो मैं यह नहीं देखता कि मैं गिर गया, मैं देखता हूं कि आप बड़े प्रेम के योग्य हैं, बड़े प्रेम-पात्र हैं। फिर कल.. यही से झंझट शुरू हो गई, क्योंकि मैंने आपको प्रेम-पात्र बना दिया। कहना मुझे इतना ही चाहिए था कि मैं जिस ढंग का आदमी हूं तुम्हारे प्रेम में गिरता; तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है, तुम खूंटी हो, मैं कोट हूं; मैं तुम पर काता; तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, तुम संदर्भ के बाहर हो; तुम न मिलते, मैं कोई दूसरी खूंटी खोजता... और मेरा कोट जैसी खूंटी पर टंग सकता है, मैं खोजता। तुम मिल गए, संयोग की बात है। तुम पर कोटमैंने टांग दिया।
लेकिन अभी जिसको मैं कह रहा हूं कि तुम बड़े योग्य, बड़े क्षमतावान, इसलिए मैं प्रेम कर रहा हूं वह भी नहीं समझ रहा कि कल दिक्कत में पड़ेगा। अभी उसको कह देना चाहिए कि कृपा करो; मैं नहीं हूं योग्य, तुमको योग्य दिखाई पड़ता हूं क्योंकि बहुत शीघ्र कल वह क्षण आएगा, जब प्रेम उखड़ जाएगा और तुम कोट को उतारने लगोगे खूंटी से, तब भी तुम कहोगे कि तुम योग्य सिद्ध नहीं हुए इसलिए कोट को उतार रहा हूं।
लेकिन हमारा भी मन, जब हमसे कोई कहता है कि आप बड़े प्रेम के सागर हैं, इसलिए हम आपको प्रेम कर रहे हैं, तब हमारा मन भी इनकार करने को नहीं होता; क्योंकि हम भी अपनी मूढ़ता में प्रसन्न होते हैं कि बहुत ठीक, क्योंकि खूंटी कोई नहीं बनना चाहता। हमको लगता है हम प्रेम के सागर हैं, इसलिए प्रेम कर रहा है यह। लेकिन हमकी पता नहीं कि हम झंझट मोल ले रहे हैं। कल यह आदमी, जब उखड़ जाएगा इसका दिल इस खूंटी से, और कोट उतारने लगेगा, तब यह कहेगा, एक सड़ी खूंटी है यह; इस पर हम कोट नहीं टांग सकते। तब हमें पीडा होगी। लेकिन दोनों हालतों में बात वही कह रहा है वह, हमको जिम्मेवार ठहरा रहा है; वह खुद जिम्मेवार नहीं है।
कूता सदा दूसरे को जिम्मेवार ठहराती है; ज्ञान सदा अपने को जिम्मेवार मानता है। इसलिए अगर आप बुद्ध जैसे आदमी को जाकर गाली दें, तो भी बुद्ध जानते हैं कि इस आदमी को खूंटी की तलाश है, आप उनके चरण छुए, तो भी जानते हैं कि इस आदमी को खूंटी की तलाश है। लेकिन अपने को वे महत्वपूर्ण नहीं बनाते दोनों में कभी भी। इसलिए जब आप पैर छूते हैं तब भी वे पत्थर हैं, और जब आप गाली दे आते हैं तब भी वे पत्थर हैं; क्योंकि वे मानते हैं, यह तुम्हारी जरूरत है; इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। यह सिर्फ संयोग है कि वे किनारे पड़ गए और आप मिल गए। यह बिलकुल संयोग है। का लिए जब आप कहते हैं कि आप बहुत बुरे आदमी हैं, तब भी वे सुन लेते हैं कि ठीक है। तुम जैसे आदमी हो, उसको मैं बुरा दिखाई पड़ता हूं बात खत्म हो गई। इससे ज्यादा कुछ इसमें प्रयोजन नहीं है। जब आप कहते हैं कि आप परमज्ञानी हैं, तब वे समझते हैं; वे कहते हैं, ठीक है; तुम जैसे आदमी हो, उसको मैं परमज्ञानी दिखाई पड़ता हूं। यह तुम्हारी आंख है, न मैं इसमें गौरव लेता और न निंदा लेता हूं।
लेकिन हमें बड़ी कठिनाई होती है ऐसे आदमी के साथ, हमें बड़ी बेचैनी होती है; क्योंकि ऐसा आदमी बार-बार हमको अपने पर ही फेंक देता है। और हमारा मन होता है किसी पर लद जाएं, किसी पर सवार हो जाएं, किसी के कंधे पर बैठ जाएं। वह हमको बार-बार वापस भेज देता है।
इसलिए इस तरह का आदमी, जब तक हमारी मूढ़ता है, हमारे लिए दुख का ही कारण होता है। ऐसा आदमी भी, बुद्ध जैसा आदमी भी हमारे दुख का ही कारण है, जब तक हमारी मूढ़ता है। वह कुछ भी कहे, वह कुछ भी करे, हम अपनी मूढ़ता से जो निकालेंगे वह दुख होने वाला है। जब तक हम मूढ़ता तोड़ने को तैयार न हों तब तक हमें बुद्ध का वह रूप ही नहीं दिखाई पड़ सकता; क्योंकि जो हम देख रहे हैं वह हमारा फैलाव   इसलिए इससे ज्यादा मूढ़ आदमी से कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि ऐसी स्थिति है--इससे जागो, इसे पहचानो, इसे खोजो, इसके प्रति होश से भर जाओ।

अब शुरू करें हम ध्यान।


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