ध्यान
योग शिविर
दिनांक
15 जनवरी 1972
रात्रि:
माथेरान।
सूत्र
:
नैव
भवाम्यहं
देहो
नैन्द्रियाणि
दशैवतु।
न
बुद्धिर्न मन:
शश्वन्नाहंकारस्तथैव
च।।16।।
अप्राणोह्यमना:
शुभ्रो
बुकादीनां हि
सर्वदा।
साक्ष्यहं
सर्वदा
नित्यक्षिन्यात्रोऽहं
न संशय:।।
१७।।
मैं उत्पन्न
नहीं होता हूं,
मैं दस
इंद्रियां
नही हूं
बुद्धि नहीं
हूं,
मन
नहीं हूं और
नित्य अहंकार
भी नही हूं।
मैं तो
सदैव बिना
प्राण और बिना
मन के शुद्ध स्वरूप
हूं,
मैं जब
मिट जाता हूं
तभी उस मैं की
चर्चा हो सकती
है जो वस्तुत:
मैं हूं।
एक
तो मैं है
हमारा जिससे
हम परिचित
हैं। वह मैं
सिवाय
भ्रांति के
जोड़ों के और
कुछ भी नहीं।
वह मैं हमारा
ही निर्माण
है। उस मैं को
हमने ही बनाया
है,
हम ही
पालते- पोसते
हैं, पोषण
देते हैं, समृद्ध
करते हैं, शक्तिशाली
बनाते हैं। और
चूंकि वह झूठ
है, हमारा
निर्माण है, इसलिए उससे
पीड़ा भी पाते
हैं.. संताप भी,
चिंता भी; क्योंकि जो
स्वभाव नहीं
है वह बोझ बन
जाता है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
इस पृथ्वी पर
कोई दस हजार
वर्ष पहले तक
अति विशालकाय
पशुओं का साम्राज्य
था। हाथी उनके
समक्ष कुछ भी
नहीं हैं। हाथी
से दस-दस गुने
बड़े विशालकाय
पशु पृथ्वी पर
थे। पर बड़ी
कठिनाई, जो
खोजते रहे हैं
जीवन के विकास
को, उनको
रही है कि
अचानक वे सारे
पशु खो कैसे
गए? ऐसा
कोई पृथ्वी
में कारण नहीं
खोज में आता
कि कोई इतनी
बड़ी दुर्घटना
घटी हो कि
उनकी जाति का
नाममात्र शेष
न रहा। कोई भूकंप
हुआ हो, कोई
ज्वालामुखी
पूरी पृथ्वी
पर फैल गया हो,
तो भी पूरा
विनाश हो जाना
मुश्किल था।
क्या
हुआ?
अभी-अभी, विगत पचास
वर्षों में
नया सूत्र
उनके खयाल में
आया, और वह
यह कि उन
पशुओं ने अपने
शरीर इतने बड़े
कर लिए कि
उसके बोझ में
ही दब कर मर
गए। उनकी
मृत्यु का कोई
बाहरी कारण
नहीं समझ में
आता। लेकिन
शरीर ही इतना
बड़ा हो
गया--शरीर जो
कि जीने का
साधन है, अगर
सीमा के बाहर
चला जाए तो
मृत्यु का
कारण बन जाता
है। उस बोझ को
खींचना ही
कठिन हो गया; और फिर उस
बोझ को भरना
भी कठिन हो
गया, क्योंकि
उस बोझ की भूख
की मांग भी
बड़ी हो गई। और
वह रोज बढ़ती
ही चली गई
बढ़ते शरीर के
साथ। तो शरीर
तो सुरक्षा है,
और जीवन का
वाहन है, लेकिन
सीमा तक। सीमा
के बाहर वही
प्राणघाती हो
जाता है।
यह
मैंने इसलिए
कहा कि खयाल
में आ सके कि
अहंकार, हमारा
मैं भी जीवन
की व्यवस्था
का अनिवार्य अंग
है। लेकिन वह
इतना बड़ा होता
चला जाता है
कि हम भूल
जाते हैं कि
जिसे हमने
वाहन की तरह
चुना था, हम
खुद ही अब
उसके वाहन हो
गए हैं; जिसका
हमने उपयोग
करना चाहा था,
वह स्वयं ही
अब हमारा उपयोग
कर रहा है; और
जिसे हमने
अपनी रक्षा के
लिए निर्मित
किया था, अब
हम स्वयं उसकी
रक्षा करने
में ही जीवन
को समाप्त कर
रहे हैं।
लेकिन कब सीमा
पार हो जाती है,
पता लगाना
बहुत मुश्किल
पड़ता है; कब
मालिक नौकर का
भी नौकर हो
जाता है, पता
लगाना
मुश्किल है, ओर कब नेता
अपने
अनुयायियों
का भी अनुयायी
बन जाता है, इसका पता
लगाना बहुत
मुश्किल है।
लेकिन यह घटना
घटती है। और
घटती है इस
कारण कि इसकी
भीतरी व्यवस्था
में घटना के
घटने का बीज
छिपा है।
जैसा
मैंने कहा कि
कब नेता अपने
अनुयायी का भी
अनुयायी हो
जाता है, यह
पता लगाना
मुश्किल पड़ता
है; क्योंकि
नेता होने की
कोशिश में ही
उसे अनुयायियों
को तृप्त करना
पड़ता है। और
तृप्त करने की
कोशिश में ही
उसे
अनुयायियों
के पीछे चलना
पड़ता है--आगे
चलने के लिए
पीछे चलना
पड़ता है। जिन
अनुयायियों
के आगे चलना
है, अगर
उनके पीछे आप
न चले, तो
वे कभी आपको नेता
मानने को राजी
न होंगे। बड़ी
मजेदार घटना घटती
है. बनना है
नेता, इसलिए
पीछे चलना
पड़ता है। नेता
बनने की प्रक्रिया
में ही नेता
खो जाता है।
जिस
पर हम राज्य
करते हैं उसकी
भी हमें
तृप्ति करनी
पड़ती है। और
धीरे- धीरे कब
हम उसकी तृप्ति
करते-करते
उसके गुलाम हो
जाते हैं, सीमा-रेखा
का पता भी
नहीं चलता है।
मैं के साथ यही
होता है।
जरूरत है
उसकी। जैसा
मैंने पीछे कहा,
जीवन की
व्यवस्था के
लिए जरूरत है
मैं की--फंक्शनल,
व्यवस्थागत।
व्यवस्थागत!
लेकिन मैं का
कोई अस्तित्व
नहीं है; कामचलाऊ
है। कामचलाऊ
का मेरा मतलब
है.. कि प्रतीक
है, इशारा
है।
जैसे
हमारे नाम
हैं--एक का नाम
राम है, एक का
नाम कृष्ण
है। नाम तो
कोई लेकर पैदा
नहीं होता; नाम तो
सरासर झूठ है।
लेकिन बिना
नाम के काम चलाना
बहुत मुश्किल
हैं। इस बड़ी
पृथ्वी पर तीन
अरब लोग हैं, अगर हम सब
बिना नाम के
जीने की कोशिश
करें तो जीना
बहुत मुश्किल
हो जाए--पता
लगाना ही
मुश्किल हो
जाए कि कौन
कौन है! तो
लेबल लगाने
पड़ते हैं। लेबल
झूठे हैं, फंक्शनल
हैं।
जब
मैं कहता हूं
कि
व्यवस्थागत
हैं,
तो उसका
मतलब यह है कि
सुविधा होती
है; कनवीनियंस
उससे पैदा हो
जाती है.. हम
जानते हैं कि
यह आदमी कृष्ण
है, वह
आदमी राम
है--यद्यपि न
कोई कृष्ण है,
न कोई राम
है, नाम
बिलकुल झूठे
हैं। और जन्म
हम बिना नाम
के लेते हैं; और जब हम
मरते हैं तब
भी बिना नाम
के मरते हैं। नाम
भी हम ग्रहण
करते हैं
पृथ्वी पर, और नाम को हम
पृथ्वी से
हटते वक्त छोड़
भी जाते हैं; मगर बीच में
उपयोगी होता
है।
उपयोगिता
अगर समझ में
हो तो कोई
हर्जा नहीं है।
लेकिन आपको
पता है कि कब
आप भूल जाते
हैं कि नाम
उपयोगिता है।
आदमी नाम के
लिए मरने को
राजी हो जाता
है, तब मुश्किल
खड़ी होती है।
वह कहता है, नाम का सवाल
है; जान दे
देंगे लेकिन
नाम नहीं
गंवाएगे। तब
पता चलेगा कि
उपयोगिता
नहीं रही नाम
की। आप उपयोगी
हो गए नाम के
लिए; अगर
नाम बचे तो आप
बचेंगे, नाम
गया तो आप चले
जाएंगे।
राम
अमरीका में
थे--स्वामी
रामतीर्थ। एक
सांझ लौटे और
बहुत हंसते
हुए लौटे तो
उनके मित्रों ने
पूछा, क्या
हुआ? किस
बात से हंसते
हैं? तो
उन्होंने कहा
: कुछ लोग
रास्ते पर मिल
गए और राम को
बहुत गालियां
देने लगे! हम
हंसे खूब, क्योंकि
वे इस धोखे
में ही राम को
गालियां दे रहे
थे कि जैसे
मैं राम हूं।
पर जो लोग थे, अपरिचित थे,
नये थे, उहोने
कहा, आप
क्या कह रहे
हैं? आप
राम नहीं हैं?
आप राम हैं
ही। और अगर
उन्होंने
गालियां दीं तो
आपको ही
गालियां दीं।
तो
रामतीर्थ ने
कहा अगर नाम
उपयोगिता न हो
और मैं ही नाम
बन जाऊं तो
गालियां मुझे
पड़ती हैं। फिर
गालियों से
टकराना भी
पड़ेगा। लेकिन
हम इस बात को
भलीभांति जान
गए कि नाम एक
उपयोगिता है।
और राम की जगह
मैं कल कृष्ण
हो जाऊं तो
मुझमें कोई
फर्क नहीं
पड़ेगा, नाम
ही बदलेगा; मैं वही
रहूंगा। मैं
हजार नाम रख
सकता हूं। नाम
ऊपरी है। नाम
को दी गई गाली
मुझको दी गई
गाली नहीं है।
मैं नाम से
ज्यादा हूं और
नाम से भिन्न
हूं।
अगर
ऐसा स्मरण मैं
के संबंध में
भी आ जाए तो
मैं भी एक
उपयोगिता है।
इसलिए
एक बड़े मजे की
बात है, हमारे
खयाल में नहीं
आती. दूसरे को
तो हम नाम लेकर
पुकार लेते
हैं, अगर
हम अपने को भी
नाम लेकर
पुकारें तो भी
असुविधा होगी;
क्योंकि
अगर मैं अपना
ही नाम लेकर
पुकारूं तो ऐसा
लगेगा कि शायद
मैं किसी
दूसरे को पुकार
रहा हूं।
इसलिए स्वयं
को पुकारने के
लिए जो
सर्वसामान्य
नाम है, वह
है 'मैं।' दूसरे को
पुकारने के
लिए नाम का
उपयोग कर लेते
हैं, खुद
को पुकारने के
लिए ‘मैं’ का उपयोग कर
लेते हैं।
इसलिए
एक ही ‘मैं’ से
काम चल जाता
है सभी का, खुद
को पुकारने
का। और जब भी
आप ‘मैं’ का उपयोग
करते हैं, तब
हम जान लेते
हैं कि आप
अपनी तरफ
इशारा कर रहे
हैं, जब
नाम का उपयोग
करते हैं तो
दूसरे की तरफ
इशारा कर रहे
हैं। इसीलिए
वे राम के
आस-पास के लोग थोडी
दिक्कत में भी
पड़ गए, क्योंकि
रामतीर्थ जब
भी बोलते थे
तो ‘मैं’ का उपयोग
नहीं करते थे।
वे कहते थे, राम एक गली
से जा रहा था, कुछ लोग
गाली देने
लगे। वे कहते
थे कि राम एक गांव
में बोलने गया
था; वे ऐसा
नहीं कहते थे :
मैं बोलने गया
था। तो सुन कर
ऐसा ही लगेगा
कि वे किसी और
के बाबत बात
कर रहे हैं।
मैं
में ऐसी भी
कोई खराबी
नहीं है कि
उसका उपयोग
करना पाप और
अपराध हो--
व्यवस्थागत
है,
सुविधापूर्ण
है। इतना
स्मरण में आ
जाए कि ‘मैं’
सुविधा है,
सत्य नहीं;
तो ‘मैं’
से छूटने
में कौन सी
कठिनाई है? जब लेबल
हमारी आत्मा
बन जाते हैं
तभी कठिनाई होती
है; जब
लेबल ऊपर ही
लगे होते हैं
तो क्या
कठिनाई है?
लेकिन
हम तो लेबल से
ऐसे चिपकते
हैं कि हम
चारों तरफ
लेबल चिपका
लेते हैं-- सब
तरफ,
लेबल ही
लेबल रह जाते
हैं। आखिर में
आदमी का पता
लगाना
मुश्किल होता
है कि आदमी
कहां है। सब
उपयोगी लेबल
चिपक जाते
हैं। तो
उपयोगिता की जगह
कभी-कभी लेबल
खतरा ही ले
आते हैं उलटा।
सुना
है मैंने, नसरुद्दीन
एक बड़े दफतर
में काम करता
है। कांच का कुछ
सामान भेजा
जाने को है।
तो मालिक ने
उसको कहा है
कि इस पेटी के
ऊपर लगा देना
कि यह ऊपर का हिस्सा
है, इसे
नीचे न किया
जाए.. लेबल लगा
देना। उसने
लेबल लगा दिया,
पेटी भेज दी
गई, तब
मालिक ने पूछा
कि लेबल लगाना
भूल तो नहीं
गए? नसरुद्दीन
ने कहा : कहते
हो, भूल गए!
सब तरफ लगा
दिए हैं--कहीं
से भी देखें, दिखाई
पड़ेगा।
हम
भी ऐसे ही
हैं। वह लेबल
उपयोगी हो
सकता था अगर
एक तरफ होता
तो--कि यह ऊपर
का हिस्सा है, पेटी
सम्हाल कर
उठाना।
नसरुद्दीन ने
सब तरफ लगा
दिए हैं, ताकि
कहीं से भी दिखाई
पड़े, कोई
उपद्रव ही
नहीं। अब यह
पेटी सम्हाली
ही नहीं जा
सकती, क्योंकि
इसमें अब सभी
तरफ ऊपर है।
हमारे
आस-पास भी
उपयोगिताएं
ऐसी ही
आत्मघाती हो
जाती हैं; काम
कर सकती थीं, लेकिन फिर
नाम ही नाम रह
जाता है... और
जिसको नाम दिए
हैं उसका तो
पता ही खो
जाता है। और
दूसरों को यह
भ्रांति होती
तो ठीक थी, यह
भ्रांति
स्वयं को ही
हो जाती है, यह भांति
स्वयं को भी
हो जाती है।
और ऐसा ही नहीं
कि ऊपर-ऊपर
होती है, यह
गहरे प्रवेश
कर जाती है।
यहां
इतने हम लोग
बैठे हैं, हम
सब आज रात
यहीं सो जाएं,
पास में आकर
कोई चिल्लाए 'राम', तो
किसी को सुनाई
नहीं पड़ेगा,
सिवाय उस
आदमी के जिसका
नाम राम है।
इसका मतलब हुआ
कि नींद तक
में उसे खयाल
है कि मैं राम
हूं। बाकी सब
लोग पड़े
रहेंगे, उनको
पता भी नहीं
चलेगा कि कोई
बुला रहा है।
लेकिन यह आदमी
नींद के भी
गहराई में, स्वप्नों
में डूबा हुआ
भी--हो सकता है
सपने भी न
चलते हों, प्रगाढ़
निद्रा में
पड़ा हो, तो
भी राम मैं
हूं यह जानता
है।
इतने
गहरे उतर जाती
है बात! छाती
में तीर की तरह
चुभती चली
जाती है--नाम
भी ऐसा प्रवेश
कर जाता है; पद
भी ऐसा प्रवेश
कर जाता है, धन भी ऐसा
प्रवेश कर
जाता है। यह
जो रूप हमारा निर्मित
होता है, इस
सबके जोड़ का
नाम अहंकार
है--सबका। नाम
है, धन है, पद है, प्रतिष्ठा
है, इन
सबका जोड़
हमारा अहंकार
है। ऋषि ने
पहले इस अहंकार
के विसर्जन की
बात की, इस
माया को तोड़ने
की बात की। और
यह बहुत मजे का
सूत्र
है--अचानक...'मैं'
से छलांग
लगानी 'तू
पर, 'तू' से
लगानी ' वह'
पर, ' वह' से छलांग
लगानी सत्ता मात्र
में--ब्रह्म
की, माया की
बात... और फिर सूत्र
आता है :
''
मैं
उत्पन्न नहीं
होता हूं मैं
दस इंद्रियरूप
नहीं हूं
बुद्धि नहीं
हूं मन नहीं
हूं; और
नित्य अहंकार
भी नहीं हूं। ''
एक
यात्रा शुरू की
थी.. जो 'मैं' से शुरू हुई
थी, 'तू को
पार किया था, ' वह' पर
पहुंचे थे, फिर शून्य
सत्ता आ गई
थी। फिर
दुबारा इस जिस
मैं की अब
चर्चा है यह
वही मैं नहीं
है; वह तो गया,
वह बात खो गई।
अब हम एक नये मैं
के उदघाटन को उपलब्ध
होते हैं। यह
वह मैं है, जो तभी दिखाई
पड़ता है, जब
जिस मै को हम जानते
है, उसे विसर्जित
कर देते हैं।
इस
मैं का अर्थ
है आत्मा। इस
मैं का अर्थ
अहंकार नहीं, इस
मैं का अर्थ
है आत्मा। इस
मैं का अर्थ
हमारी
निर्मिति
नहीं; हमारा
यश, पद, धन,
संस्कार, सभ्यता, शिक्षा
नहीं; इस
मैं का अर्थ
है : हमारा
अस्तित्व, हमारा
होना।
ध्यान
रहे,
जिस मैं को
हमने छोड़ा, जिस मैं को
छोड़ने का
विचार किया, जिस मैं से
छलांग लगाई, वह था हमारा
करना, यह
है हमारा
होना। वह था
हमारा डूइंग,
यह है हमारा
बीइंग। तो
करने और होने
के थोड़े फर्क
को समझ लें तो
इस दूसरे मैं
की झलक स्पष्ट
हो सके।
कुछ
तो है जो हम
करते हैं, अगर
न करें तो वह
नहीं होगा।
जैसे अगर मैं
शिक्षा ग्रहण
न करूं तो मैं
शिक्षित नहीं
हो पाऊंगा।
अगर मैं एक भाषा
बोलना न सीखूं
तो वह भाषा
मुझे नहीं
आएगी। अगर मैं
वैज्ञानिक
बनने की
चेष्टा करूँ
तो वैज्ञानिक
बन जाऊंगा, अगर मैं
लोहार बनने की
चेष्टा करूं
तो लोहार बन
जाऊंगा--मैं
कुछ करूं तो
बन पाऊंगा, लेकिन कुछ
मेरे भीतर ऐसा
भी है कि मैं
कुछ भी न करूं तो
भी मैं हूं--कम
से कम मेरा
होना तो मेरे
करने के बाहर
है, मेरा
होना मेरा
कृत्य नहीं
है। मेरे सब
कृत्यों के
पहले मैं
मौजूद हूं
नहीं तो करेगा
कौन?
बच्चा
पैदा होता है
मां के पेट
में। तो मां
के पेट में तो
उसे श्वास भी
नहीं लेनी
पड़ती; इतना भी
करना नहीं
होता। हृदय भी
उसका नहीं धड़कता;
इतना भी
करना नहीं
होता। लेकिन
एक बहुत मजे
की बात आप
खयाल ले लें? बच्चा ' होता'
है--श्वास
भी नहीं लेता,
हृदय भी
नहीं धड़कता, फिर भी होता
है। उसका
बीइंग है; उसका
अस्तित्व है;
आत्मा पूरी
तरह मौजूद है।
शरीर
शास्त्री इस
सवाल को
निरंतर उठाते
रहे हैं कि हम
कब से जीवन का
प्रारंभ
मानें?.. कब से?
अगर हम
समझते हैं कि
श्वास के
टूटने से जीवन
टूटता है, तो
श्वास के शुरू
होने से जीवन
शुरू होता है।
तो बच्चा जब
पैदा होकर
पहली चीख
मारता है, और
पहली
श्वास लेता
है--चीख मारने
का मतलब केवल
इतना ही है कि
चीख वह धक्का
है,
जिस धक्के
के साथ बच्चे
की हृदय की
धड़कन और श्वास
की गति शुरू
होती है; यंत्र
काम शुरू करता
है। बने ने
पहली श्वास ली,
यह उसका
पहला काम है, पहली चीख
मारी, यह
उसका पहला काम
है।
लेकिन
सवाल यह है कि
इस चीख मारने
के पहले भी बच्चा
था या नहीं? अगर
नहीं था तो
चीख कौन
मारेगा? और
अगर नहीं था
तो श्वास पहली
भी कौन लेगा? -- था... अन्यथा
यह घटना भी
नहीं घट सकती।
तो वह जो होना
है श्वास लेने
के पहले भी, वह बीइंग है,
वह हमारी
सत्ता है, वह
हमारी आत्मा
है।
इसको
दूसरी तरफ भी
फैला लें। इस
मामले में शायद
शरीरशास्त्री
मुझसे राजी भी
हो जाए कि यह
बात ठीक है, संगत
है.. कि अगर
श्वास लेने के
पहले वहां
मौजूद ही न हो
अस्तित्व तो
श्वास कौन
लेगा? लेकिन
दूसरी तरफ
शरीरशास्त्री
को और मुसीबत
होगी। अब मैं
कहता हूं कि
जब श्वास टूट जाती
है तब भी वह तो
मौजूद ही
रहेगा, जो
श्वास लेने के
पहले था; उसका
श्वास के
टूटने से क्या
लेना-देना? वह श्वास के
बिना
भलीभांति था।
तो श्वास के
बिना
भलीभांति हो
सकता है।
आपको
पहला तर्क
बिलकुल आसानी
से समझ में आ
जाएगा कि
श्वास लेगा
कौन,
अगर पहले
मौजूद न हो; दूसरा तर्क
भी इतना ही
महत्वपूर्ण
है कि श्वास
छोड़ेगा कौन, अगर भीतर
कोई श्वास के
अतिरिक्त
मौजूद न हो। लेकिन
दूसरा इतनी
आसानी से समझ
में नहीं
आएगा। लेकिन
पहला अगर आ
जाता है तो
दूसरे में कोई
अड़चन नहीं है।
तो हमारे भीतर
एक विभाजन को
स्पष्ट कर
लें. कुछ तो है
जो हमने किया
है; इसलिए
जो आदमी जितना
करता है उतना
अहंकारी हो जाता
है। तब तो यह
भी कहा जा
सकता है कि
धन्य हैं वे
जो परम आलसी
हैं, क्योंकि
उनके पास बहुत
करना तो होता
नहीं, जो
वे अहंकार बना
लें। लेकिन मन
बहुत कुशल है;
वे अपने
आलस्य को ही
अपना करना समझ
सकते हैं। वे
कहते हैं कि
हम विश्राम कर
रहे हैं।
जो
भी हम करते
हैं उससे हम
अपने मैं को
मजबूत करते
हैं। तो एक तो
हमारे करने का
जोड़ है--चुकता जोड़।
इसलिए अहंकार
रोज बढ़ता जाता
है.. बच्चे सरल
होते हैं और
के जटिल हो
जाते हैं। उसका
कोई और उम्र
से संबंध नहीं
है। अहंकार के
के पास
निश्चित ही
बड़ा होता है।
इसलिए बूढ़े
क्रोधी, झगडैल,
दुष्ट--ये
सब हो जाते
हैं। ये सरलता
से हो जाते हैं,
इसमें कोई
ऐसा नहीं है
कि जो अभी
बच्चे हैं वे कल
नहीं हो
जाएंगे; वे
कल ऐसे ही हो
जाएंगे।
उसका
कारण है : उम्र
से कोई वास्ता
नहीं है इसका; इसका
वास्ता है, करने का
संग्रह बड़ा
होता चला जाता
है। बूढ़े ने
इतना किया है
जिसका हिसाब
नहीं। इसलिए
के सदा अपने
करने की ही
बात करते रहते
हैं कि मैंने
यह किया...
मैंने यह
किया... मैंने
यह किया। बच्चे
करने की क्या
बात करें, अभी
कुछ किया ही
नहीं है! अभी
सिर्फ हैं...
श्वास ली है, हाथ-पैर
हिलाए हैं; इससे कुछ
बड़ा अहंकार
निर्मित नहीं
होता। इसलिए
बच्चे सरल
मालूम पड़ते
हैं। सरल होने
का कुल मात्र
कारण इतना है
कि अभी अहंकार
को विकसित होने
का मौका नहीं
मिला।
इसलिए
तानी कहते हैं
कि जब कोई का बच्चे
जैसा हो जाता
है तो यह परम
विकास है। लेकिन
हालतें उलटी
हैं बच्चे को
जैसे हो जाते
हैं,
बूढ़े
बच्चों जैसे
नहीं हो पाते...
बच्चे को जैसे
हो जाते हैं, के बच्चों
जैसे नहीं हो
पाते! अगर का
बच्चे जैसा हो
जाए यह परम
विकास है, तो
बच्चों का को
जैसा हो जाना
परम हास है, परम पतन है।
मगर यह हो रहा
है।
हम
सब इस कोशिश
में रहते हैं
कि बच्चा
जल्दी से
अहंकार को पकड़
ले,
बच्चा भी इस
कोशिश में
रहता है कि
जल्दी से अहंकार
को पकड़ ले। तो
कभी-कभी तो
बच्चा ऐसी
कोशिशें करता
है, जो ऊपर
से आपको लगती
हैं कि समझ
में नहीं आती,
लेकिन अगर गहरे
उतरें तो पता
चले।
मैं
एक दिन एक
पोस्ट ऑफिस के
पास से गुजरता
था,
तो एक छोटे
से बच्चे को
मैंने सिगरेट
पीते देखा।
बहुत छोटा
बच्चा! और
उसने एक दो
आने की मूंछ खरीद
कर भी लगा रखी
थी। सुबह सूरज
निकला नहीं था,
बस निकलने
के करीब ही था,
और रास्ते
पर हम दोनों
ही थे। उसने
मुझे देखा तो
वह जल्दी से
एक वृक्ष के
पीछे छिप गया।
मैं गया, मैंने
उसको कहा... तो
उसने जल्दी से
अपनी मूंछ निकाल
कर अपनी
सिगरेट बुझा
ली। मैं उसके
पिता को जाकर
मिला, तो
देखा कि बात
ठीक थी। पिता
की मूंछ है और
सिगरेट पीते
हैं। तो यह
लड़का बिचारा
बड़ा होने का
मजा ले रहा
है। तो उसकी
चाल देखने
जैसी थी... जब वह
मूंछ लगा कर
और सिगरेट
पीते चल रहा
था।
बाप
बेटों को
समझाते हैं कि
सिगरेट मत पीओ, लेकिन
उनको पता नहीं
कि सिगरेट से
सिर्फ धुआ नहीं
मिलता, अहंकार
भी मिलता है; क्योंकि
सिगरेट जो है
वह उम्र का
प्रतीक हो गया
है... बड़े लोग
पीते हैं! तो
सिबॉलिक है, प्रतीकात्मक
है--सिर्फ बड़े
ही पी सकते
हैं, कोई
भी छोटा पीता
है तो लोग
कहते हैं, अभी
तुम्हारी
उम्र नहीं, अभी
नहीं--बड़े हो
जाओ, फिर
तुम्हें पीना
हो तो पीना।
तो बच्चा
सोचता है, जब
सिगरेट पीने
से ही बड़ा हो
जाना होता है,
तो सिगरेट
पीने में ऐसी
कौन सी कठिनाई
है? थोड़ी
खांसी, तकलीफ
होती है, आंख
में आंसू आते
हैं... झेल
लेंगे; थोड़े
अभ्यास से ठीक
हो जाएगा।
तो
बच्चे बड़ों की
कोशिश में
तल्लीन होते
हैं;
वह अहंकार
प्रकट हो रहा
है; वह
बढ़ेगा, वह
फैलेगा।
हमारा
करना हमारा
अहंकार है; लेकिन
हमारा होना
हमारी आत्मा
है। होने का
अर्थ है : जो हम
हैं ही, जिसे
निर्मित नहीं
करना होता; जिसे पाने
के लिए कुछ
नहीं किया
हमने; जिसे
बनाने के लिए
कुछ नहीं
किया। हम कुछ
कर ही कैसे
सकते हैं, क्योंकि
वह तो हमारे
सब करने के
पहले है!
अब
उस मैं की बात
शुरू होती है
जिसका अर्थ है, बीइंग;
जिसका अर्थ
है, होना।
इसलिए बात
निषेधात्मक
होगी, क्योंकि
हम समझ ही न
पाएंगे। हम उस
मैं को समझते
हैं जो कहता
है--यह मकान
मेरा, यह
दुकान मेरी, यह पद मेरा।
समझ लें, जितना
मेरा ज्यादा
हो उतना मैं
बड़ा हो सकता
है। इसलिए जो
कह सकता है, यह राष्ट्र
मेरा, यह
धर्म मेरा, उसका मैं और
बड़ा हो जाता
है।
आपके
पास जमीन का
छोटा सा टुकड़ा
है,
तो निश्चित
ही आप उससे
बडा मैं नहीं
बना पाएंगे; कैसे
बनाएंगे? और
एक के पास
जमीन का बड़ा
टुकड़ा है, एक
के पास पूरा
का पूरा... देश
की जमीन उसके
कब्जे में है,
निश्चित ही उसके
साथ उसका मैं
बड़ा होता
जाएगा।
'मेरे' का
विस्तार कर्म
का विस्तार
है--मालकियत
का; उसके
साथ ही मैं
बड़ा होता है।
इसलिए जब आपका
धन छिनता है
तो धन ही नहीं
छिनता, आप
भी छिन जाते
हैं-- लगता है, आत्मा भी गई;
लुट गए। लुट
गए के भाव में
धन ही नहीं
लुटता है, आप
लुट गए।
क्योंकि आपका
मेरा अब क्षीण
हुआ; मेरा
कटा; मैं
भी मरा उसके
साथ।
तो
हमारा जो झूठा
मैं है, उसका
संबंध-- 'मेरा।'
'मेरा' उसका
राज्य, साम्राज्य;
उसके बीच वह
जीता है। ' मेरे
' का तेल
उपलब्ध हो तो ‘मैं’ की
बाती जलती है;
' मेरे ' का
तेल चुक जाए
तो ‘मैं’ की बाती बुझ
जाती है।
निश्चित
ही,
इस दूसरे
मैं की जो
चर्चा है वह
इनकार से शुरू
होगी।
''मैं दस
इंद्रिय
नहीं... ''
धन
की तो फिकर
छोड़े, धन तो
बहुत बाहरी है;
यश की तो
फिकर छोड़े, यश तो बहुत
बाहरी है; इंद्रियां
तो बहुत गहरी
हैं और भीतरी
हैं। ' मैं
दस इंद्रियां
नहीं '... इंद्रियां
फिर भी थोड़ी
बाहर हैं; ' मैं
बुद्धि भी
नहीं '.. बुद्धि
तो और भी
भीतरी है; ' मैं
मन भी नहीं '.. मैं कुछ ऐसा
हूं जो
उत्पन्न ही
नहीं होता है।
मैं जन्म भी
नहीं; मैं
जीवन भी नहीं।
और आखिरी बात-- '
मैं नित्य
अहंकार भी
नहीं। '
एक
तो अहंकार है
जिसकी हमने
अभी चर्चा की; जो
नित्य नहीं
है--बनता है, बिगड़ जाता
है। लेकिन यह
पीछे का शब्द
और भी अदभुत
है। वह तो
अनित्य, वह
तो क्षणभंगुर
है, मिट
जाता है।
लेकिन बहुत
बार ऐसा होता
है कि हम
क्षणभंगुर
अहंकार को
इसीलिए मिटाना
चाहते हैं
ताकि शाश्वत
अहंकार मिल जाए।
तो
धर्मगुरु
लोगों को
समझाते हैं कि
छोड़ो यह अहंकार, क्षणभंगुर
है। बड़े मजे
की बात
है--कहते हैं, छोड़ो, यह
अहंकार
क्षणभंगुर है;
उस आत्मा को
पाओ जो कभी
नहीं नष्ट
होती है। हमारे
मन में लोभ
जगता है, हमारे
मन में होता
है तब तो ठीक
है, नित्य
अहंकार मिल
जाएगा। तो छोड़
दो इसको जो
छूट ही जाने
वाला है, छोटा-मोटा
है, इसको
छोड़ो, उसको
पाओ।
जिसके
मन में ऐसा
लोभ जगा वह
अहंकार से कभी
भी ऊपर न उठ
पाएगा। इसलिए
ऋषि बहुत ही
क्रांतिकारी
सूत्र कहता है, वह
कहता है : यह जो
मैं हूं यह
नित्य अहंकार
भी नहीं। ऐसा
मत समझ लेना
कि यह ऐसा मैं
है जो सदा
रहेगा। मैं तो
अनित्य ही
होता है, नित्य
मैं होता ही
नहीं। मैं
मिटता है, शून्य
हो जाता है, फिर वहां
कोई नित्य
अहंकार नहीं
बचता।
लेकिन
आम... हमारा जो
लोभग्रस्त मन
है,
अहंकार-पीड़ित
मन है, वह
आत्मा को भी
अहंकार की ही
शुद्धतम
स्थिति की तरह
देखता है। जब
हम कहते हैं.
आत्मा, तो
उसका मतलब यही
होता है कि
नित्य
अहंकार। यह सब
छोटा-मोटा
अहंकार छूट
जाएगा, लेकिन
असली जो मेरा
मैं है भीतरी,
वह कभी नहीं
छूटेगा। ऋषि
कहता है. ऐसा
भीतरी कोई मैं
ही नहीं है।
जब तुम ऐसा
जानोगे तभी
तुम उस भीतरी
को जान पाओगे।
''नित्य
अहंकार भी मैं
नहीं हूं। ''
यह
सूत्र ठीक
बुद्ध के
अनत्ता के
समतुल हो गया।
बुद्ध कहते थे
: आत्मा नहीं
है,
अनात्मा
है। इसी वजह
से बुद्ध को
बड़ी तकलीफ हुई
इस भूमि में
जड़ें फैलाने
में। बुद्ध का
विचार लोगों
के गहरे तक
नहीं पहुंच
सका, क्योंकि
लोभ को बुद्ध
ने जरा भी
नहीं उकसाया।
महावीर
की बात सुन कर
लोभ पैदा हो
सकता है--महावीर
का हाथ न भी हो
तो भी। महावीर
कहते हैं, मोक्ष
में तुम रहोगे;
शुद्ध
बुद्ध चैतन्य
की स्थिति में
रहोगे। सुनने
वाला आदमी
समझता है कि
अच्छा, मैं
रहूंगा!
महावीर और
उसके बीच चूक
हो गई कहीं।
महावीर कहते
हैं, शुद्ध
बुद्ध नित्य
तुम रहोगे। वे
जिस ' तुम ' की बात कर
रहे हैं, इसको
उस 'तुम'
का कोई पता
नहीं; यह
सोचता है, बड़ा
अच्छा; तो
हम रहेंगे; तो मैं
बचूंगा! और इस
मैं में उसका,
वही जो उसने
इकट्ठा किया
है, वही
बोल रहा होता
है। वह कहता
है, तब कोई
बात नहीं, कोई
फिकर नहीं; अगर यह मकान
भी छूट गया तो
कोई हर्ज नहीं;
यह धन भी
छूटा, कोई
हर्ज नहीं; यह देह भी
गिर जाएगी, कोई हर्ज
नहीं, लेकिन
मैं तो
रहूंगा। और यह
जो मैं है यह
उसी सबका जोड़
है।
बुद्ध
ने कहा, तुम
बिलकुल नहीं
रहोगे... और कुछ
भी रहे, तुम
बिलकुल नहीं
रहोगे। लोभी
मन को बिलकुल
नहीं जंची यह
बात; उसने
कहा, यह भी
कोई बात हुई? सब खो दें और
मिले कुछ भी
नहीं! तो
अनित्य अहंकार
में भी बुराई
क्या है? तुम
कहते हो, यह
सुख
क्षणभंगुर है;
और हम पूछते
हैं, अगर
कोई शाश्वत
सुख हो तो हम
दांव भी
लगाएं। लेकिन
तुम कहते हो, कोई शाश्वत
सुख भी नहीं..
तो फिर.. फिर यह
क्षणभंगुर ही
भोग लें।
हम
पूछते हैं, यह
अहंकार बुरा
है माना, दुख
भोगा, इससे
पीड़ा पाई यह
भी माना; लेकिन
इसे छोड़ दें
तो मिलेगा
क्या? अगर
इससे कुछ बड़ा
मिलता हो तो
हमारा सौदागर
मन राजी हो
जाए। हम कहें,
तो चलो ठीक
है। इनवेस्टमेंट
बुरा नहीं; थोड़ा छोड़ते
हैं, ज्यादा
पाते हैं; क्षणभंगुर
छोड़ते हैं, अनंत मिल
जाता है, बूंद
खोती है, सागर
हाथ आ जाता
है। तो हर्ज
क्या है? बुरा
क्या है? लोभ
कहता है, गणित
सीधा है; दांव
लगाया जा सकता
है।
लेकिन
बुद्ध कहते
हैं,
नहीं...
अनात्मा; आत्मा
है ही नहीं; अनत्ता।
तुम्हारे
भीतर आत्मा
वगैरह है ही
नहीं, तुम
सिर्फ अहंकार
हो। और अहंकार
दुख है इसलिए अहंकार
को छोड़ दो। और
मुझसे मत पूछो
कि क्या मिलेगा,
कुछ भी नहीं
मिलेगा। आदमी
सोचता है, तो
जो है उसको
जोर से पकड़े
रहो, लेकिन
बुद्ध को समझा
नहीं जा सका, क्योंकि बुद्ध
ने हमारे लोभ
की भाषा नहीं
बोली। इस
पृथ्वी पर
शायद बुद्ध
अकेले
व्यक्ति हैं
जिन्होंने आदमी
के लोभ की
भाषा नहीं
बोली। यह ऋषि
भी वही कह रहा
है, यह कह
रहा है : 'नित्य
अहंकार भी
नहीं हूं मैं।'
मैं अपने को
कह सकूं मैं
भी, इतना
भी नहीं हूं
मैं। यह सीधा
इनकार ही
इनकार है।
''दस
इंद्रियां
नहीं हूं। ''
लेकिन
आपको पता है, यह
शब्द में पता
नहीं चलता कि '
दस
इंद्रियां
नहीं हूं' इसका
क्या मतलब
होता है? आपके
पास एकाध ऐसा
अनुभव है जो
इंद्रियों के
अलावा हो? आपने
जो भी जाना है
इन दस
इंद्रियों से
जाना है। जरा
सोचें कि मैं
दस इंद्रियां
नहीं हूं इसका
मतलब हुआ कि
आपके सब अनुभव
गए; कोरी
मुट्ठी रह
जाएगी, हाथ
में कुछ बचेगा
नहीं। जो
प्रेम जाना है
वह, जो
सम्मान जाना
है वह, जो
अपमान जाना वह,
जो फूल देखे,
सौंदर्य
जाना वह; आंख
से देखा, कान
से सुना संगीत
वह; सुगंधें--सब
खो जाएंगी; यह स्पर्श--सब
खो जाएगा।
आपके पास
बचेगा कुछ?
जब
ऋषि कहता है, मैं
दस इंद्रियां
नहीं हूं तो
इसका अर्थ है
कि दस
इंद्रियों ने
जो-जो संगृहीत
किया है, वह
मैं नहीं हूं।
तो हम तो एकदम
दीन-दरिद्र हो
जाएंगे; भिक्षा
का पात्र ही
रह जाएगा, पात्र
में कुछ भी
बचेगा नहीं; क्योंकि
सब-कुछ दस
इंद्रियों ने
डाला है।
जैसे
कि गंगा अगर
कहे कि जो-जो
नदियां
मुझमें आकर
मिली हैं वह
मैं नहीं हूं
तो जिस मुसीबत
में पड़ जाएगी
उसी मुसीबत
में हम पड़
जाएंगे। क्योंकि
गंगा है क्या
और?
जोड़--झरनों
का, नालों
का, नदियों
का। अगर गंगा
कह दे कि
जितनी नदियां
मुझमें गिरी
हैं वे मैं
नहीं हूं जो
भी पानी मुझमें
गिरा है वह
मैं नहीं हूं।
तो गंगा बचेगी
कुछ? एक
सूखा
रेगिस्तान रह
जाएगा।
हम
भी उन नदियों
के जोड़ हैं जो
इंद्रियों ने
हम तक
पहुंचाए। हर
इंद्रिय ने एक
रसधार हममें डाली
है। आंख ने
दर्शन डाला है, कान
ने श्रवण डाला
है, स्वाद
ने स्वाद डाला
है-- हम उस सबका
जोड़ हैं। काटें,
एक-एक
इंद्रिय को
अलग करें। पैर
से जो यात्राएं
की हैं आपने, हाथों से जो
उपलब्धियां
की हैं आपने; शब्दों से
जो कहा है, सुना
है, सब खो
जाएगा। बचेगा
क्या भीतर? और ऋषि कहता
है. 'दस
इंद्रियां
मैं नहीं हूं।
' लेकिन
फिर भी मन में
ऐसा हो सकता
है कि समझो, कुछ भी नहीं
बचेगा, तो
भी इतनी
बुद्धि तो
बचेगी कि कुछ
भी नहीं बचा
है।
ऋषि
कहता है
''मैं बुद्धि
भी नहीं हूं। ''
क्यों? यह
बडी अदभुत बात
है कि ' मैं
बुद्धि भी
नहीं हूं। ' और सब चीजों
से इनकार करना
समझ में आता है।
इंद्रियों से
इनकार करने
में बड़ी
कठिनाई नहीं
दिखाई पड़ती, क्योंकि
इंद्रियां
शरीर का
हिस्सा हैं, लेकिन
बुद्धि, विचार,
मन, ये
तो भीतर और
पार हैं!
लेकिन
बुद्धि
वस्तुत:, स्वयं
के भीतर जो
चैतन्य है
उसके, और
बाहर के जगत
में जो
विस्तार जगत
का है, उसके
बीच संघर्ष से
पैदा होती है।
बुद्धि एक
संघर्ष-उत्पन्न
व्यवस्था है।
इसलिए अगर
आपके जीवन में
चुनौती न हो
तो बुद्धि
पैदा नहीं
होगी। इसलिए धनपतियों
के बेटे
बुद्धिहीन रह
जाते हैं-- अकारण
नहीं, कारण-सहित;
क्योंकि
चुनौती कम
होती है, तो
बुद्धि को
जगने का, प्रकट
होने का, बनने
का कोई मौका
ही नहीं होता।
ऐसा
समझें कि आपको
जो भी जरूरत
हो वह तत्काल
मिल जाए.. समझ
लें कि किसी
दिन
कल्पवृक्ष हम
पृथ्वी पर
पैदा कर लें...
और हम कोशिश
में लगे हैं; और
हम कोशिश में
लगे हैं...
कल्पवृक्ष हम
पृथ्वी पर
पैदा कर लें
तो कल्पवृक्ष
के नीचे बैठे
आदमी के पास
क्या कोई
बुद्धि होगी?
जो चाहिए वह
चाहते ही मिल
जाता
है--संघर्ष
नहीं, चुनौती
नहीं। तो
बुद्धि तो ऐसी
चीज है जैसे
तलवार पर धार
रखते हैं हम।
वह जो धार
पैदा होती है
तलवार पर, वह
धार रगड़ से
पैदा होती है..
घर्षण से।
तलवार पर
घर्षण ही नहीं
हुआ कभी तो
तलवार में
कहीं धार होने
वाली है?
तो
बुद्धि हो भला
भीतर, लेकिन
बाहर के घर्षण
से पैदा होती
है। इसलिए जब
घर्षण का युग
होता है तो
बुद्धिमान
लोग पैदा होते
हैं, जब
घर्षण समाप्त
हो जाता है, बुद्धिमान
लोग खो जाते
हैं। जिंदगी
में जितनी
चुनौती होती
उतनी धार आ
जाती, और
जिंदगी में
चुनौती
बिलकुल नहीं
होती तो धार
खो जाती।
अगर
आज अमरीका के
बेटे और
बेटियां
स्कूल, कॉलेज,
युनिवर्सिटी
छोड़ रहे हैं
तो उसका कुल
कारण इतना है
कि अब उसकी
कोई जरूरत ही
नहीं है, सुविधा
उपलब्ध हो गई
है। जिस
सुविधा के लिए
लड़के सिर
घसिटते थे, भूखे पेट पढ़ते
थे, रास्ते
के किनारे
लैम्प-पोस्ट
के नीचे बैठ
कर अध्ययन
करते थे, वे
सब पागल साबित
हुए। आज
अमरीकी लड़के
को सब उपलब्ध
है, तो वह
कहता है, जाने
की जरूरत क्या
है? पढ्ने
की जरूरत क्या
है? युनिवर्सिटीज
अगर आने वाले
पचास वर्षों
में अमरीका की
रोज-रोज खाली
हो जाएं--और
सबसे बढ़िया
युनिवर्सिटीज
उनके पास हैं--तो
हैरानी न
होगी। यह आदमी
की अदभुत खूबी
है। असल में
चुनौती खो गई,
संघर्ष खो
गया।
आज
अमरीका के पास
सबसे ज्यादा
बुद्धि को
विकसित करने
का उपाय है, लेकिन
खुद अमरीकी
बुद्धिमत्ता
विकसित नहीं हो
रही। और आज
अमरीका के पास
जो भी
बुद्धिमान
लोग हैं, अधिकतम
उधार हैं; दूसरे
मुल्कों से
उधार हैं।
अमरीका उधार
खरीद सकता है,
लेकिन कब तक
खरीदेगा? अभी
सारे मुल्कों
में इससे
तकलीफ शुरू हो
गई है; यूरोप
के अनेक
मुल्कों ने
निर्णय लेना
शुरू किया है
कि हम अपने
बुद्धिमान
लोगों को
अमरीका नहीं भेजने
देंगे अब, क्योंकि
एक ब्रेन
ड्रेनेज हो
रहा है। कहीं
भी बुद्धिमान
पैदा हो, वह
थोड़े-बहुत दिन
में अमरीका
में पहुंच
जाएगा, बचना
मुश्किल है।
क्योंकि न तो
बुद्धि के काम
के लिए कोई
मुल्क इतनी
सुविधा दे
सकता है, न
इतना धन दे
सकता है, न
इतनी
प्रतिष्ठा दे
सकता है, न
प्रयोगशालाएं
दे सकता
है--कुछ भी
नहीं दे सकता।
तो सारी
दुनिया से
ड्रेनेज होता
है; सारी
दुनिया से
बुद्धि अनजान
रास्तों से
खिसकती चली
जाती है।
जैसे
कभी एक जमाना
था कि दुनिया
से धन खिंच कर लंदन
पहुंच जाता था, ऐसे
अब सारी
बुद्धि खिंच
कर न्यूयॉर्क
पहुंच जाती
है। और धन का
शोषण बहुत
आसान बात थी, उसमें कोई
बड़ा मामला
नहीं था।
लेकिन अगर
बुद्धि खिंच
कर पहुंचती
रहे तो भारी..
लेकिन अमरीका
उधार बुद्धि
पर कितने दिन
जी सकता है? जिस
बुद्धिमान
आदमी को
अमरीका
हिंदुस्तान से
बुला ले, इंग्लैंड
से बुला ले, उसके लड़के
युनिवर्सिटी
जाने से इनकार
कर देने वाले
हैं। संघर्ष नहीं
है तो बुद्धि
विकसित नहीं
होती।
तो
ऋषि कहता है. 'बुद्धि
भी मैं नहीं
हूं। ' क्योंकि
बुद्धि भी
बहिर्जन्य है;
वह भी बाहर
के संघर्षण से
ही पैदा होती
है। वह धार भी
मैं नहीं हूं
जो बाहर की
रगड़ से आती
है।
''मन भी मैं
नहीं हूं। ''
क्योंकि
मनन हम करते
ही क्या हैं? मनन
भी हम तभी
करते हैं जब
बाहर का कोई
पदार्थ मूल्यवान
हो जाता है।
तो हम चिंतन
करते, मनन
करते, विचार
करते।
बुद्धि
से अर्थ है. उस
पद्धति
का--तर्क-पद्धति
का--जिसके
द्वारा आदमी
के
व्यक्तित्व
में धार पैदा
होती, और आदमी
जगत के संघर्ष
में कुशल हो
जाता, मन
से अर्थ है :
मनन की उस
क्षमता का, कंटेंप्लेशन
की, चिंतन
की क्षमता का,
जब कि आदमी
एस्थ्येरक्ट...
अरूप में
चिंतन कर पाता
है, अरूप
में प्रवेश कर
पाता है। इसे
हम ऐसा समझें।
अगर
आप शतरंज का
कभी खेल सीखे
हैं या देखा
है खेलते
लोगों को, तो
शतरंज के खेल
में वही कुशल
हो जाएगा, जो
आने वाली कम
से कम पांच
चालों का
अंदाज कर सके.
मैं यह चलूंगा,
यह उत्तर
मिलेगा; इस
उत्तर पर मैं
यह जवाब दूंगा,
तब यह उत्तर
आएगा; और
तब मेरा यह
जवाब, और
तब यह उत्तर...
इस सीढ़ी में
जो जितने दूर
तक मनन कर सके
उतना कुशल हो
जाएगा। अभी वह
चाल चली नहीं
गई है, चली
जाएगी। और
उसका उत्तर तो
अभी दिया ही
नहीं गया है, अभी शायद
पैदा भी नहीं
हुआ होगा
दूसरी तरफ। लेकिन
अभी से उसकी
पूर्वापेक्षा
की जो क्षमता
है, वह मनन
है। लेकिन वह
भी बहिर है; वह भी आखिर
बाहर की ही
चालों का ही
हिसाब है; भीतर
से उसका भी
कोई लेना-देना
नहीं है।
बच्चा
जब पैदा होता
है तो न तो
उसके पास
बुद्धि होती
है,
न मन होता
है; सिर्फ
संभावना होती
है। फिर
संभावना
वास्तविक
बनती है। अवसर
पर निर्भर
करेगा, किस
प्रकार
वास्तविक
बनेगी।
यह
कोई भी नहीं
हूं मैं। तो
फिर क्या हूं
मैं?
फिर मेरे
होने का क्या
अर्थ है? यह
तो नकार
हुआ--यह भी
नहीं.. यह भी
नहीं.. यह भी नहीं..
यह भी नहीं।
''
मैं तो सदैव
बिना प्राण और
बिना मन के
शुद्ध स्वरूप
हूं बिना
बुद्धि का
साक्षी हूं और
हमेशा चित्
स्वरूप हूं
इसमें संशय
नहीं। ''
उत्पन्न
नहीं होता हूं
सदैव बिना
प्राण और बिना
मन के... मैंने अभी
आपसे कहा
प्राण का अर्थ
है,
जैसे ही
बच्चा श्वास
लेता है, प्राण
शुरू होता है।
इसलिए योग ने
ऐसी व्यवस्थाएं
खोजीं कि अगर
बच्चा बिना
श्वास लिए हो
सकता है, तो
क्या अड़चन
होगी कि हम
श्वास को ऐसा
नियोजित करें
कि हम भी बिना
श्वास के हों
और हो सकें।
इसलिए योग ने
ऐसी
व्यवस्थाएं
खोज लीं। इसी...
इसी मनस, इसी
मेधा का
प्रयोगात्मक
रूप निर्मित
हुआ कि बिना
श्वास के अगर
बच्चा हो सकता
है--हो सकता है,
होता ही
है--तो कोई वजह
तो नहीं है कि
हम क्यों न हो
सकें?
तो
योग ने
प्राणयोग पर
अनेक काम किए...
और धीरे- धीरे, धीरे-
धीरे, धीरे-
धीरे श्वास को
छोड़ कर, छोड़
कर उस
समस्थिति में
ले आने की
व्यवस्था की..
कि जहां आप भी
ठीक बच्चे की
अवस्था में
पहुंच जाते
हैं, जैसा
वह पहली श्वास
लेने के पहले
था, या
अंतिम श्वास
लेने के बाद
होगा।
दक्षिण
में एक योगी
था,
ब्रह्मयोगी।
उन्नीस सौ तीस
में अचानक
ब्रह्मयोगी
का नाम सारे
जगत में पहुंच
गया था, क्योंकि
वह दस मिनट के
लिए श्वास का
त्याग कर देते
थे। कलकत्ता
विश्वविद्यालय
में जब पहली
दफा उन्होंने
प्रयोग करके
दिखाया तो दस
डॉक्टर उनके
आस-पास थे।
कलकत्ता
विश्वविद्यालय
का जो भी
श्रेष्ठतम
मस्तिष्क था
वह उन्हें घेर
कर खड़ा था। और
ब्रह्मयोगी
ने कहा था कि
मैं जब प्रयोग
कर रहा हूं तो
मैं अगर मर
जाऊं तो आप सब
दसों
सर्टिफिकेट
लिख देना कि
यह आदमी मर
गया--अगर आप
पाओ कि मैं मर
गया हूं। और
उन दस डाँक्टरों
ने
ब्रह्मयोगी
की श्वास रुक
जाने पर
सर्टिफिकेट
पर दस्तखत किए
कि ब्रह्मयोगी
मर गए हैं; क्योंकि
मरने के जो भी
लक्षण
थे--चिकित्सा-शास्त्र
जिनको लक्षण
कहता है--वे
पूरे हो गए।
लेकिन
दस मिनट बाद
यह आदमी वापस
लौट आया। और जब
ब्रह्मयोगी
वह कागज
सर्टिफिकेट
का मोड़ कर खीसे
में रखने लगा
तो उन दस
डाँक्टरों ने
कहा : कृपा करो, यह
कागज वापस
लौटा दो, कोई
मुकदमा तो
नहीं चलाना है?
इसमें हम
बुरी तरह फंस
जाएंगे।
यह
दस आदमियों ने
दस्तखत किया
कि आदमी मर
गया। श्वास
पुन: वापस आ
गई।
ब्रह्मयोगी
कहते थे. मैं
श्वास को उस
जगह ले जाता
हूं जहां बच्चा
पहले दिन जन्म
के पहले क्षण
में होता है।
डूबते-डूबते-डूबते
श्वास शांत हो
जाती है; श्वास
के शांत होते
ही हृदय की
धड़कन, नाड़ी
सब खो जाती
है।
लेकिन
यह आत्मा अभी
भी है, नहीं तो
वापस कौन
लौटेगा? यह
आदमी वापस लौट
आता है। फिर
रंगून और
ऑक्सफर्ड में
भी उन्होंने
प्रयोग किए।
तो डाँक्टरों
ने उनको कहा
कि अगर आप सही
हो और हम किसी
धोखे में नहीं
पड़े हैं तो
फिर हमें
मृत्यु की
परिभाषा
बदलनी पड़ेगी।
अब तक तो हम
यही कहते थे
कि ये लक्षण
पूरे हो गए तो
आदमी मर गया, और अब तक
हमने जितने
लोगों को
सर्टिफिकेट
दिए; पता
नहीं उनमें
कितने लोग मरे
थे, कितने
लोग नहीं मरे
थे! लेकिन अब
इसे जानने का कोई
उपाय भी नहीं
है।
सच
तो यह है, उनमें
से कोई भी
नहीं मरा था।
अगर मरने का
हम ऐसा अर्थ
लें कि मिट
गया हो, तो
उनमें से कोई
भी नहीं मिटा
था। इतना ही
अर्थ ले सकते
हैं कि जो
यंत्र श्वास
लेता था, वह
अब श्वास लेने
में समर्थ
नहीं रहा था।
ब्रह्मयोगी
दूसरा काम कर
रहे
हैं--यंत्र
समर्थ है
लेकिन श्वास
नहीं ले रहे
हैं। मरता हुआ
आदमी भी यही
काम कर रहा है :
श्वास तो लेना
चाहता है
लेकिन यंत्र
समर्थ नहीं
रहा है। इन दो
में से एक कम
हो जाए तो श्वास
बंद हो
जाएगी--या तो
यंत्र खराब हो
जाए, और या
श्वास बंद कर
ली जाए। क्षण
भर को तो हम भी रोक
सकते हैं, कोई
भी रोक सकता
है। क्षण भर
को भी अगर हम
रोक सकते हैं
तो क्षण भर को
हम बिना प्राण
के रह जाते।
क्षण भर को रह
सकते हैं तो
दस क्षण को भी
रह सकते हैं; वह कोई बड़ी
बात नहीं है।
प्रयोग की ही
बात है।
''बिनाप्राण
के, बिना
मन के ''
नहीं
सोचता हूं तब
भी होता हूं
गहरी निद्रा
में विचार खो
जाते हैं, स्वप्न
खो जाते हैं, फिर भी.. मैं
होता हूं।
अब
तो वैज्ञानिक
कहते हैं, आपके
हम मस्तिष्क
को पूरा का
पूरा निकाल कर
अलग कर लें, तो भी आपका
अस्तित्व
नष्ट नहीं हो
जाता, आप
होते हैं।
मन
अनिवार्य
नहीं है होने
के लिए। सच तो
यह है, हमें
रोज-रोज गहरी
नींद में
इसीलिए जाना
पड़ता है कि हम
मन से इतने थक
गए होते हैं
कि उसको थोड़ी
देर के लिण्र
छुटकारा देना
जरूरी होता है,
अन्यथा हम
बासे हो जाएं,
उधार हो
जाएं, सड़
जाएं।
''..
मैं मन भी नहीं
हूं बिना
बुद्धि का साक्षी
हूं। ''
एक
आदमी
बुद्धिपूर्वक
साक्षी हो
सकता है। जब भी
कोई आदमी
प्रयोग करता
है साक्षी
होने का तो
बुद्धिपूर्वक
करता है। वह
कहता है, मैं
साक्षी
रहूंगा; मैं
चेष्टा
करूंगा; मैं
साक्षी होने
का प्रयास
करूंगा। सब
प्रयास, सब
चेष्टा
बुद्धि की है।
इसलिए
बुद्धिपूर्वक
कोई साक्षी
नहीं हो पाता;
बुद्धि खो
जाए तब साक्षी
हो पाता है।
क्योंकि
बुद्धि भी..
बुद्धि कभी भी
साक्षी नहीं
हो सकती--इसे
ठीक से खयाल
में ले लें, क्योंकि
बुद्धि बिना
निर्णय किए
नहीं रह सकती,
और साक्षी
का अर्थ है, निर्णय
नहीं। साक्षी
का अर्थ है.
मैंने फूल
देखा तो बस
देखता ही
रहा--न मेरे मन
में उठा कि
सुंदर है, न
मेरे मन में
उठा कि असुंदर
है; न मेरे
मन में उठा कि
गुलाब है, न
मेरे मन में
उठा कि चंपा
है, न मेरे
मन में उठा कि
तोड़ लूं न
मेरे मन में
उठा कि छोड़
दूं--मन उठा ही
नहीं; फूल
रहा उधर, इधर
रहा मैं, बीच
में कुछ उठा
ही नहीं; बीच
में कोई विचार
की तले ही न
रहीं; खाली
हो गया, शून्य
हो गया बीच
में—उधर फूल, इधर मैं.. तो
मैं फूल का
साक्षी हुआ।
अगर
मैं अकड़ कर
खड़ा हो गया और
मैंने कहा कि
ठीक,
अब हम फूल
के साक्षी
हैं। इस समय
मैं फूल का साक्षी
हूं। तो जब
मैं यह कह रहा
हूं भीतर कि
मैं इस समय
फूल
का
साक्षी हूं,
उस वक्त मेरा
संबंध इस
विचार से है, फूल से
नहीं। और अगर
देखते ही मुझे
मन में थोड़ी
सी भी झलक आ गई--'
यह सुंदर है
', नहीं बना
शब्द, सिर्फ
झलक आई; नहीं
बना शब्द, सिर्फ
झलक आई, तो
भी बुद्धि आ
गई; क्योंकि
बुद्धि बिना
निर्णय के
नहीं रह सकती।
असल
में निर्णय के
लिए ही बुद्धि
की व्यवस्था है, निर्णय
लेना ही
पड़ेगा--पक्ष-
विपक्ष, यहां
या वहा होना
ही पड़ेगा, तटस्थ
नहीं हो सकते
आप, तटस्थ
नहीं हो सकते
आप बुद्धि के
साथ। साक्षी
हो ही तब सकते
हैं जब बुद्धि
कुछ भी न करती
हो।
''बिना बुद्धि
का साक्षी
हूं। ''
देखता
हूं सोचता
नहीं, होता
हूं
दृष्टिकोण
निर्मित नहीं
करता; चैतन्य
होता है
परिपूर्ण, लेकिन
चैतन्य पर कोई
विचार की छाया
नहीं पड़ती।
''...
और हमेशा
चित् स्वरूप
हूं। ''
और
ऐसा नहीं है
कि कभी-कभी
चेतन होता हूं
और कभी-कभी
अचेतन हो जाता
हूं हमेशा
चित् स्वरूप
हूं।
हम
कोशिश करके
कभी-कभी चेतन
हो सकते हैं
क्षण भर को।
एक आदमी आपकी
छाती पर छुरा
रख देता है तो
आप क्षण भर को
चेतन हो जाते
हैं;
सब निद्रा
टूट जाती है
जन्मों-जन्मों
की। छुरी की
धार भीतर तक
अंधेरे को काट
देती है। एक
क्षण को
पंचकोषों को
छोड़ कर, इंद्रियों
को छोड़ कर, विचार
को छोड़ कर, मन
को छोड कर
मात्र साक्षी
रह जाते
हैं--एक क्षण
को!
इसलिए
जापान में तो
झेन फकीरों का
एक संप्रदाय
है,
जो तलवार
चलाना सिखा कर
ही ध्यान
सिखाता है। वह
कहता है, इससे
सस्ते में
ध्यान हो नहीं
सकता। आदमी
ऐसा सुस्त और
इतना निद्रित
है कि जब तक
तलवार की धार
ही न हो आगे, तब तक ध्यान
नहीं हो सकता।
तो तलवार
सिखाने वाले
जो प्रशिक्षण
केंद्र हैं
उनका नाम
ध्यान केंद्र
है, मेडिटेशन
सेंटर्स है।
दरवाजे पर
लिखा होता है 'ध्यान
केंद्र।' भीतर
जाकर आप बहुत
चकित होंगे, वहां खटाखट
तलवारें चल
रही हैं। आप
सोच ही न सकेंगे
कि ध्यान और
तलवार का क्या
लेना-देना?
जापान
ने एक बहुत
विशिष्ट
किस्म का
सैनिक पैदा
किया--समुराई।
समुराई का
मतलब होता है.
ऐसा सैनिक जो
ध्यान और
तलवार को एक
बना लेता है।
इसलिए समुराई
सैनिक जैसा
सैनिक पृथ्वी
पर कहीं भी
पैदा नहीं हो
पाया। भारत
में भी जो
राजपूत पैदा
हुए वे भी
ना-कुछ हैं
समुराई के
मुकाबले; क्योंकि
समुराई की
शिक्षण की जो अनिवार्य
बात हैं वह यह
है कि ' जब
तू तलवार हाथ
में उठाए तो
बुद्धि रुक
जाए ', यही
शिक्षण है. जब
तू तलवार हाथ
में उठाए तो
भीतर बुद्धि
रुक
जाए--तलवार को
चलने दे; बुद्धि
से मत चला।
इसलिए
कभी अगर दो
समुराई सैनिक
युद्ध में उतर
जाते हैं तो
हार-जीत बहुत
मुश्किल हो
जाती है।
तलवारें चलती
हैं,
बुद्धि बीच
में नहीं
होती। समुराई
गुरु कहते हैं
कि बुद्धि के
बीच में आने
से ही निशाना
चूकता है और
आदमी भूल में
पड़ता है, क्योंकि
उतने में झपकी
लग जाती है।
इधर हाथ में
तलवार है और
खयाल आ गया कि
घर नल तो खुला
छोड़ आया हूं।
गए आप! और ऐसे
ही खयाल आते
हैं तलवार चलाने
में नहीं; ठीक
मंदिर में
बैठेहैं पूजा
करने को और
ऐसे खयाल आते
हैं। चूक गए!
यहां से आप खो
गए।
इसी
संध में, समुराई
गुरु कहते हैं,
दूसरे की
तलवार भीतर
घुस
जाएगी--इसी
संध में। तलवार
चले, विचार
न हो भीतर। तो
भीतर कौन होगा
तब? तब
साक्षी होगा;
सिर्फ
साक्षी होगा।
तलवार को चलते
देखेगा, और
अगर तलवार
भीतर भी घुस
जाएगी तो
घुसते भी देखेगा।
लेकिन अगर
सिर्फ साक्षी
होगा तो तलवार
भीतर घुस रही
होगी लेकिन
साक्षी
देखेगा। साक्षी
से उसका कोई
लेना-देना
नहीं, साक्षी
में तलवार
भीतर नहीं घुस
सकती।
इसलिए
कृष्ण ने कहा
है : काटो तो
मैं कटता
नहीं--नैनं
छिंदन्ति
शस्त्राणि, नहीं
कटता
शस्त्रों से,
नहीं जलता
आग में--जलाओ, मैं अनजला
रह जाता हूं?.. अस्पर्शित।
''..
-हमेशा चित्
स्वरूप हूं। ''
कभी-कभी
नहीं। हम
कभी-होते होते
हैं--दुर्घटना
में,
किसी तीव्र
क्षण में। और
इसलिए बड़े मजे
की बात है कि
जब भी हम
चेतनस्वरूप
होते हैं, तभी
हमें जीवन में
थोड़ी सी आनंद
की झलक मिलती है।
कभी भी... कभी
शायद जिंदगी
में एकाध-दो
क्षण ऐसे आते
हैं आम.. कि हम
अचानक एक झलक
पा लेते हैं जो
फिर कभी नहीं
मिलती। वह
कारण उसका वही
होता है कि
कहीं हम भीतर
चेतन होते
हैं--कोई भी
कारण से।.. कोई
भी कारण से! वह
जो चैतन्य
फलित हो जाता
है तो फिर
दुबारा हमें
वैसा शिखर
चेतना का नहीं
मिलता, फिर
हम जीवन भर
तलाश करते
रहते हैं।
यह
कहीं भी हो
सकता है। रात
के सन्नाटे
में किसी क्षण
में ऐसा हो
सकता है कि
झींगुर की
आवाज ही रह
जाए और भीतर
कोई विचार न
हो,
तो उसी क्षण
जो आनंद
मिलेगा वह कभी
नहीं मिला।
सुबह सूरज को
उगते देख कर
ऐसा कभी हो
सकता है.. -सूरज
ही उगता रहे
और भीतर कोई
विचार न रह
जाए--इतना भी
विचार न बने कि
यह सूरज है।
सूरज का शब्द
भी भीतर
निर्मित न हो,
तो उसी क्षण
जो अनुभव होगा,
उस अनुभव
में सूर्य
देवता हो
जाएगा। वह अनुभव
फिर भूलने
जैसा नहीं है।
कभी
आकस्मिक ऐसा
घट जाता है।
इसको
व्यवस्था से
घटाने का नाम
ध्यान है.. कि
हम जागे ही
रहें। लेकिन
चेष्टा इसमें
है।
ऋषि
कहता है : जब
चेष्टा भी
नहीं रहती और
जागना सहज
होता है, वही
मेरा स्वरूप
है; वही
मैं हूं।
''..
इसमें संशय
नहीं। ''
इसमें
कोई संदेह
नहीं है।
क्यों? क्योंकि
यह कोई
सिद्धांत
नहीं है। ऋषि
कहता है :
इसमें कोई
संशय नहीं, क्योंकि यह
मैं जान कर कह
रहा हूं।
विवेकानंद
रामकृष्ण के
पास गए। तो
विवेकानंद ने
कहा कि ईश्वर
है?
तो
रामकृष्ण ने
यह नहीं कहा
कि है, नहीं
है; समझाने
नहीं बैठे; कहा नहीं कि
बैठो, समझाता
हूं। नहीं, रामकृष्ण ने
कहा, अभी
देखना है--इसी
वक्त?
तो
विवेकानंद ने
बाद में कहा
है कि मैं खुद
संशय में पड़
गया कि अभी
देखना है कि
नहीं देखना है? वह
आदमी संशय में
नहीं पड़ा, और
झंझट का सवाल
मैंने पूछा
था--पूछा था
मैंने, ईश्वर
है? उसे
संशय में पड़ना
चाहिए था, क्योंकि
बडा कठिन सवाल
है। ही भी
कहना आसान नहीं,
न भी कहना
आसान नहीं।
हां कहो तो.. तो
सिद्ध करना
पड़े। और ईश्वर
को कौन सिद्ध
कर पाया है?
शायद
अनेक लोग
ईश्वर को नहीं
मान पाते, इसीलिए
क्योंकि उसे
अब तक कोई
सिद्ध नहीं कर
पाया है। नहीं
तो नास्तिक
कभी के खो गए
होते।
नास्तिक का न खोना
सिर्फ इतना ही
बताता है कि
ईश्वर कुछ ऐसा
है कि सिद्ध
नहीं किया जा
सकता है।
अन्यथा नास्तिक
के होने की
क्या जरूरत थी?
जमीन पर
इतने परम
आस्तिक हुए
हों और
नास्तिक का
बाल बांका
नहीं होता; रत्ती भर
फर्क नहीं
पड़ता, नास्तिक
बना ही रहता
है। सभी
आस्तिक
इकट्ठा कर दें
तो एक नास्तिक
को आस्तिक
नहीं बना
पाएंगे। क्या,
कारण क्या
है? कारण
सिर्फ एक है :
नास्तिक
मांगता है कि
सिद्ध करो, और सिद्ध वह
होता नहीं; हाथ ढीले पड़
जाते हैं।
तो
विवेकानंद ने
सोचा था कि
मुश्किल में
पड़ेंगे रामकृष्ण; ग्रामीण
आदमी हैं, बे
पढे-लिखे हैं,
दूसरी
बंगाली तक पढ़े
हैं, जानते
क्या होंगे? और
विवेकानंद तो
निष्णात
नास्तिक था।
विवेकानंद तो
निष्णात
बुद्धिमान, सुशिक्षित,
बंगाल की जो
श्रेष्ठतम
मेधा हो सकती
है, वह थे, विवाद कुशल
थे, तर्क
को जानते थे, अरस्तु को
जाना था, न्याय
को पढ़ा था। तो
एक गंवार, ग्रामीण
आदमी.. उससे
सवाल पूछा है,
उसने संशय
में डाल दिया
है विवेकानंद
को। उसने कहा
कि अभी देखना है!
इसी वक्त?
इस
उत्तर में एक
बड़ी खूबी है, और
वह यह है कि यह
आदमी ऐसे बात
कर रहा है, जैसे
यह रहा; तुम
बोलो। इतना
निसंशय है! संशय
जरा भी नहीं
है। संशय तभी
नहीं होता जब
अनुभव होता
है।
तो
ऋषि कहता है : ' इसमें
संशय नहीं है।
' यह वह
इतना ही कह
रहा है कि यह
मैं जान कर कह
रहा हूं ऐसा
मैं होकर कह
रहा हूं यह
कोई सिद्धांत नहीं,
कोई मतवाद
नहीं; यह
मेरा कोई
विचार नहीं, यह मेरा कोई
खयाल नहीं, यह मेरी
धारणा
नहीं--ऐसा
मैंने जाना है;
ऐसा मैं जीआ
हूं।
विवेकानंद
इसके पहले
रवींद्रनाथ
ठाकुर के पिता
के पास भी गए
थे,
देवेंद्रनाथ
के। वे महर्षि
थे, बड़ी
उनकी ख्याति
थी। रामकृष्ण
उस समय कुछ भी
नहीं थे।
महर्षि
देवेंद्रनाथ बड़े
आदमी थे। एक
तो बहुत
सम्मानित
परिवार था
ठाकुरों का, राजा कहलाते
थे
रवींद्रनाथ
के दादा। राजा
के बेटे थे।
और महर्षि की
तरह आदर था; ज्ञानी थे।
व्यक्तित्व
भी वैसा था।
ऋषियों का
व्यक्तित्व
था। अधिकतर
बजरे में ही
रहते थे.. नदी
में।
तो
आधी रात
विवेकानंद
बजरे पर पहुंच
गए तैर कर--पानी
से लथपथ, अंधेरी
रात! जाकर
धक्का दिया, दरवाजा अटका
था; क्योंकि
आने का किसी
का कोई सवाल न
था आधी रात, और बजरे पर
कौन आता था? इसलिए बजरे
पर रहते थे।
धक्का देकर
भीतर पहुंच गए,
देवेंद्रनाथ
बैठे थे ध्यान
में आंख बंद
किए-- धक्का...
आवाज.. बजरे का
हिलना.. द्वार
का खुलना... और
अचानक इस युवक
का जाकर
देवेंद्रनाथ
के कोट के
कॉलर को पकड़
लेना, और
हिला कर कहना
कि ईश्वर है?
देवेंद्रनाथ
ने कहा : जरा
बैठो, थोड़ी
श्वास भी ले
लो; यह भी
कोई वक्त है
पूछने का? यह
कोई समय है
आने का? यह
कैसा
शिष्टाचार है?
विवेकानंद
ने कहा : जब आग
लगी हो तो
कैसा
शिष्टाचार!
मैं पूछता हूं
उसका जवाब दें, बाकी
बातें छोड़े; औपचारिकता
नहीं
चाहिए--ईश्वर
है?
एक
झिझक दौड़ गई
देवेंद्रनाथ
के भीतर, ' हां ' कहना
मुश्किल
मालूम पड़ा; ' न ' कहने
का तो खयाल भी
नहीं था।
लेकिन ऐसे
व्यक्ति को जो
कहता है घर
में आग लगी है,
आधी रात पानी
में तैर कर
चला आया
है--लथपथ!
चेहरा दिखाई नहीं
पड़ता। ईश्वर
पूछने आया है,
ये भी कोई
जिशासुओं के
ढंग हैं?
कहा.
बैठो भी, थोड़ा
समझाता हूं
लेकिन
विवकानद कूद
गए। छपाक...
पानी में
आवाज... महर्षि
देवेंद्रनाथ
ने कहा कि
रुको भी युवक!
विवेकानंद न
कहा. आपकी
झिझक ने सभी
कुछ कह दिया
है; अब कुछ
और कहने को
बचा नहीं।
इसलिए
ऋषि कहता है : ''इसमें
संशय जरा भी
नहीं।''
झिझक
भी तो काफी है
कहने को। इतना
भी क्या...? लेकिन
रामकृष्ण के
पास सिर झुक
गया... ग्रामीण,
गंवार के
पास सिर झुका।
बुद्धिमान से
बुद्धिमान
आदमी थे
देवेंद्रनाथ,
वहां झिझक
थी।
विचार
सदा ही झिझकता
रहता है, अनुभव
ही बेझिझक
होता है।
विचार
कितना ही करो
तो भी संशय
बना ही रहता
है;
क्योंकि
विचार कैसे
असंशय हो
जाएगा? कितना
ही सोचो और
मानो और समझो,
और सब तरह
समझा लो अपने
को कि ईश्वर
है; भीतर
कहीं कोई स्वर
कहता ही रहेगा,
अभी पता
कहां? अभी
मिला कहां? अभी जाना
नहीं। तर्क और
प्रमाण सब कह
दें कि है, तब
भी भीतर अनुभव
कहेगा, अभी
खाली हूं।
इसलिए
ऋषि कहता है : ' इसमें
जरा भी संशय
नहीं है। ' यह
अनुभव की मैं
बात कहता हूं।
इतना
ही आज के लिए।
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