प्यारे
ओशो।
वह
व्यक्ति जो
मेरी किस्म का
है उसे मेरी
ही किस्म के
अनुभवों का साक्षात
भी होगा जिससे
कि उसके प्रथम
साथी अनिवार्य
रूप से लाशें
व विदूषक ही
होंगे बहरहाल
उसके दूसरे
साथी अपने
आपको उसके
माननेवाले
कहेगे : एक
जीवंत समूह
प्रेम से भरा
हुआ
बेवकूफियों से
भरा हुआ
बचकानी भक्ति
से भरा हुआ
मनुष्यों
में वह जो
मेरी किस्म का
है उसे इन माननेवालों
से अपना हृदय
नहीं उलझाना
चाहिए) वह जो
मनुष्य के
ढुलमुल—
कायरतापूर्ण
स्वभाव को
जानता है उसे
इन बसंतों और
इन रंगबिरंगे
घास— मैदानों
में यकीन नहीं
करना चाहिए!
'हम फिर से
पवित्रात्मा
हो गये हैं—
ऐसी ये
धर्मत्यागी
स्वीकारोक्ति
करते हैं और
उनमें से बहुत
तो अभी भी अति
कायरतापूर्ण
हैं यह
स्वीकारोक्ति
करने के लिए....
पुराने
ईश्वरों के
बाबत बहुत समय
हुआ उनका अंत
हुए — और सच में
उनका अंत बहुत
उत्कृष्ट
जिंदादिल
दिव्य रहा था!
वे
'धुंधलके में
विलीन हो गये'
ऐसा नहीं —
वह झूठ है!
उलटे एक बार
वे — तब तक
हंसते रहे जब
तक कि उनकी
मृत्यु नहीं
हो गयी!
यह
तब हुआ जब
सर्वाधिक
अनीश्वरीय
कथन स्वयं एक
ईश्वर से
निकला यह कथन : 'एक
ही ईश्वर है!
तुम्हें मेरे
समक्ष अन्य
ईश्वर नहीं
अपनाने चाहिए।
एक बूढ़ी कुपित—
दढ़ियल ईश्वर
एक ईर्ष्यालु
ईश्वर इस
प्रकार स्वयं
को भूल गया :
और
तब सारे ईश्वर
हंस पड़े और
अपनी
कुर्सियों में
आगे— पीछे
झूलते रहे और
चीख पड़े :
'क्या ठीक
यही नहीं है
ईश्वरीयता कि
ईश्वर हैं न
कि है?'
जिस
किसी के पास
भी सुनने के
लिए कान हो
उसे सुन लेने
दो।
.........ऐसा
जरधुस्त्र ने
कहा।
जरथुस्त्र
हर संभव पहलू
से प्रयास कर
रहे हैं समझने
का कि मनुष्य
क्यों उस
प्रकार
उद्विकसित (एवाल्व
) नहीं हुआ है
जैसा उसे होना
चाहिए था —
क्यों वह
बचकाना रह गया
है,
क्यों परममानव
अब तक आ नहीं
सका है? क्या
हैं कारण जो
उसके आने में
रुकावटें हैं,
और कैसे वे रुकावटें
दूर की जा
सकती हैं और
द्वार खोले जा
सकते हैं, और
परममानव का
स्वागत किया
जा सकता है? वह कोई भी
पहलू बगैर
अन्वेषण किये
नहीं छोड़ रहे
हैं। मानव के
परममानव में
रूपांतरण की
संभावना में
उनकी खोज
समग्र है।
किसी ने भी
कभी परममानव
के संबंध में
इतना नहीं सोचा
है।
लोग
सब प्रकार की
परिकल्पित
बातों के
संबंध में
सोचते रहे हैं।
शताब्दियों
से उन्होंने
ईश्वर के
अस्तित्व के
ऊपर विचार
किया है। कुछ
ने उसका इनकार
भी किया है, बहुतों
ने उसे
स्वीकृत किया
है, कुछ ने
उपेक्षा की है।
कुछ थोड़े
लोगों ने अज्ञेयवादी
रुख लिया है —
कि ईश्वर के
संबंध में कुछ
भी जाना जाना
संभव नहीं है
और हम नहीं
जानते कि उसका
अस्तित्व है कि
उसका
अस्तित्व
नहीं है।
लेकिन हजारों—हजारों
दार्शनिक और
लाखों—लाखों
पुस्तकें, ग्रंथ
ऐसी चीज के
लिए समर्पित
रहे हैं जिसके
लिए एक सुबूत
भी नहीं है।
परममानव
का विचार करने
में
जरथुस्त्र
अकेले हैं।
परममानव
परिकल्पना
नहीं है, क्योंकि
मानव का
अस्तित्व है
ही; वह
परिष्कृत
किया जा सकता
है, जो कुछ
भी उसमें
कुरूप है वह
सब नष्ट किया
जा सकता है, जो कुछ भी
उसे छुद्र
बनाता है वह
सब दूर किया जा
सकता है, और
मनुष्य की
चेतना में
परममानव अचूक
रूप से
उत्पन्न हो
जाएगा।
जरथुस्त्र की
फिक्र किसी
कल्पना के
प्रति नहीं है,
वह नितांत
रूप से एक
यथार्थवादी
हैं। यह ऐसा
सपना नहीं है
जो पूरा न
किया जा सके, यह एक ऐसा
सपना है जिसके
पूरे होने की
हर क्षमता है।
परममानव कहीं
आकाश में नहीं
है, परममानव
तुम्हारे
भीतर है। परम
मानव
तुम्हारे
विशुद्धतम
रूप में है, तुम्हारी
सर्वाधिक
होशपूर्ण
जागृति में है,
शाश्वत
जीवन की
तुम्हारी
अनुभूति में
है, प्रेम
के तुम्हारे
शुद्धीकरण
में है। यह
बहुत ही निकट
है — यह बस
तुम्हारा
पड़ोसी है।
तुम्हें
केवल स्वयं का
अतिक्रमण करना
है। तुम्हें
केवल अपनी
अंधेरी
गुफाओं से
बाहर आना है।
तुम्हें
जरा सी जोखिम
लेनी है —
परिचित के
बदले अपरिचित
की,
ज्ञात के
बदले अज्ञात
की, सुविधाजनक
के बदले
खतरनाक की — और
परममानव
तुम्हारे
गर्भ में होगा,
तुम
परममानव को
जन्म दोगे।
ईश्वर
अतीत था, परममानव
भविष्य है।
अतीत के संबंध
में कुछ भी
किया नहीं जा
सकता; भविष्य
के संबंध में
सब कुछ किया
जा सकता है।
ईश्वर
तुम्हारा
स्रष्टा था, परममानव
तुम्हारा
सृजन होने जा
रहा है — और यह
एक फर्क पैदा
करता है, इतना
जोरदार, इतना
विशाल, इतना
अपरिमित, कि
ईश्वर और
परममानव के
बीच कोई सेतु
निर्मित करने
की कोई
संभावना नहीं
है। ईश्वर सदा
ही कहीं
कब्रों में है
और परममानव
सदा ही कहीं
तुम्हारे
जीवन की, तुम्हारे
प्रेम और
तुम्हारे
चैतन्य की
भविष्यत्
संभावनाओं
में है।
इस
शाम
जरथुस्त्र एक
और भिन्न दिशा
से परममानव के
पास पहुंच रहे
हैं,
जिससे वे अब
तक नहीं गये
थे।
वह
कहते हैं, वह
व्यक्ति जो
मेरी किस्म का
है उसे मेरी
ही किस्म के
अनुभवों का
साक्षात भी
होगा, जिससे
कि उसके प्रथम
साथी
अनिवार्यरूप
से लाशें व
विदूषक ही
होंगे। पहले
वह कह रहे हैं,
जो कोई भी
मेरी किस्म का
है, जिसके
पास भी चेतना
की स्पष्टता
ठीक वैसी ही है
जैसी कि मेरे
पास है, उसे
ठीक उसी
प्रकार के
अनुभव होना
अनिवार्य है।
उसकी
भविष्यवाणी
की जा सकती है,
क्योंकि
तुम्हारे
अनुभव
तुम्हारी
चेतना की गुणवत्ता
पर निर्भर
करते हैं।
जितनी ज्यादा
ऊंची
तुम्हारी
चेतना है, उतने
ही ज्यादा
आनंदमय, उतने
ही शातिमय, उतने ही
ज्यादा
हषोंल्लासमय
अनुभव तुममें
खिलने शुरू हो
जाते हैं।
सर्वोच्च
शिखर पर गौतम
बुद्ध, महावीर
अथवा
जरथुस्त्र
तीन व्यक्ति
नहीं रह जाते,
क्योंकि
तीन मौन अलग
नहीं रह सकते,
तीन आनंद
अलग नहीं रह
सकते — तीन
शून्य एक
शून्य हो जाने
को विवश हैं।
यह
समझने की बात
है कि चीजें
जो तुम्हें
अलग करती हैं
वे सदा ही
दर्दनाक
चीजें हैं।
तुम्हारे
माइग्रेन
(आधासीसी ) में
सहभागी होने
का कोई उपाय
नहीं है, तुम्हारी
चिंताओं में,
तुम्हारे
संतापों में
सहभागी होने
का कोई उपाय
नहीं है। दुख
लोगों को अलग
करता है; आनदमयता
उनको निकट
करती है। और
जैसे वे
शुद्धतम रूप
पर पहुंचते
हैं, उच्चतम
शिखर पर, वे
अलग—अलग
प्राणी नहीं
रह जाते, बल्कि
एक ही हृदय, एक ही प्रेम,
एक ही
हर्षोल्लास, एक ही मस्ती
बन जाते हैं।
परम में हम एक
हैं। केवल
नर्क में हम
तमाम हैं।
जितना
ज्यादा तुम
स्वय को औरों
से अलग महसूस
करते हो उतना
ही ज्यादा तुम
दुख का, पीड़ा
का जीवन जी
रहे हो — एक
जीवन जो जीवन
कहे जाने
योग्य नहीं है।
पृथ्वी
पर देखने से
तुम्हें इतने
सारे अलगाव, इतने
सारे भेदभाव
मिलेंगे।
गहराई से
देखने पर, वे
सांयोगिक
नहीं हैं।
इतने सारे
राष्ट्र, इतने
सारे धर्म, इतने सारे
संप्रदाय, मत
और वाद केवल
एक ही सत्य की
तरफ इशारा
करते हैं : कि
मनुष्य
अस्तित्व की
इतनी अतल
गहराइयों में
गिर गया है कि
वह किसी से भी
कोई संबंध, कोई सेतु
नहीं बना सकता।
यह
एक सर्वाधिक
आश्चर्यजनक
तथ्य है कि
निम्नतम तल पर
तुम एकाकी हो, क्योंकि
तुम अपने
आसपास सेतु
नहीं बना सकते।
तुम प्रेम की
भाषा भूल गये
हो, तुम
भूल गये हो कि
कैसे संवाद
करना, कैसे
संबंध बनाना।
अंधकार में
तुम एकाकी हो —
घोर व्यथा के
आसू और विशाल
पीड़ा की एक
चीत्कार
मात्र।
आनंदमयता
के उच्चतम
शिखर पर, पुन
तुम अकेले हो,
लेकिन
एकाकी नहीं।
तुम अकेले हो,
क्योंकि उस
शिखर पर जो
कोई भी
पहुंचता है वह
एक ही
अलमस्तीजन्य
अनुभव में, एक ही
महासागरीय
अनुभव में
विलय हो जाता
है — ठीक जैसे
कि नदियां
महासागर में
विलय होती
जाती हैं। वे
भिन्न—भिन्न पहाड़ों
से, भिन्न—भिन्न
झीलों से, भिन्न—भिन्न
राहों से होकर,
भिन्न—भिन्न
क्षेत्रों से
गुजर कर आ रही
हो सकती हैं, लेकिन
महासागर में
अचानक वे
समस्त सीमाएं
खो देती हैं।
वे उतनी ही
स्वतंत्र बन
जाती हैं
जितना कि महासागर
है।
पूराने
ईश्वरों के
बाबत बहुत
समयं हुआ उनका
अंत हुए — और सच
में उनका अंत
बहुत उत्कृष्ट
जिंदादिल
दिव्य रहा था!
वे
'धुंधलके में
विलीन हो गये'
ऐसा नहीं —
वह एक झूठ है।
उलटे एक बार
वे — तब तक
हंसते रहे जब
तक कि उनकी
मृत्यु नहीं
हो गयी!
वह
तब हुआ जब
सर्वाधिक
अनीश्वरीय
कथन स्वयं एक
ईश्वर से
निकला यह कथन : 'एक
ही ईश्वर है!
तुम्हें मेरे
समक्ष अन्य
ईश्वर नहीं
अपनाने चाहिए!'
यही
है जो 'ओल्ड
टेस्टामेंट' कहती है, यही
है जो ईसाई
मानते हैं, यही है जो
मुसलमान
मानते हैं. एक
ही ईश्वर है, और जिस
ईश्वर को वे
मानते हैं
उसके अलावा
अन्य कोई
ईश्वर नहीं है।
लेकिन
जरथुस्त्र
कहते हैं, यह
वक्तव्य
सर्वाधिक
अनीश्वरीय
वक्तव्य है।
क्यों है यह
अनीश्वरीय? — क्योंकि
एक ईश्वर की
धारणा मात्र
अस्तित्व के
स्वभाव के ही
खिलाफ है।
प्रत्येक
आत्मा का
अधिकार है
शिखर तक
पहुंचना और एक
ईश्वर बन जाना।
वही है जो
गौतम बुद्ध
मानते हैं, वही
है जो महावीर
सिखाते हैं, और वही है जो
जरथुस्त्र कह
रहे हैं।
बौद्ध धर्म
में एक ईश्वर
नहीं है, हिंदू
धर्म में एक
ईश्वर नहीं है
— एक की धारणा
एकाधिकारवादी
है; यह कुछ
एक—पली अथवा
एक—पति—व्रत
जैसा है, यह
कुरूप है।
क्यों, इतने
विशाल जगत में,
केवल एक ईश्वर
हो? क्यों
इस जगत को
गरीब बनाना? — केवल एक
ईश्वर!
विविध
प्रकार के
ईश्वर होने दो, ठीक
जैसे कि विविध
प्रकार के फूल
हैं। विविध
प्रकार की
खिलती हुई
चेतनाएं होने
दो — अपने आप
में भिन्न, अद्वितीय —
और अस्तित्व
अधिक समृद्ध
होगा। यही
कारण है कि जरथुस्त्र
कहते हैं यह
एक अनीश्वरीय
कथन था। और
क्योंकि एक
ईश्वर ने कहा
इसे, अन्य
सारे ईश्वर
इतना हैसे कि
उनकी मृत्यु
हो गयी। वे
इतना हैसे, ''यह का खूसट
जरूर पागल हो
गया है! वह कह
क्या रहा है? वह पूरे
अस्तित्व की
गरिमा नष्ट कर
रहा है और स्वयं
एकमात्र
ईश्वर होने का
ढोंग कर रहा
है! ''
और
तब सारे ईश्वर
हंस पड़े और
अपनी
कुर्सियों में
आगे— पीछे
झूलते रहे और
चीख पड़े : 'क्या
ठीक यही नहीं
है ईश्वरीयता
कि ईश्वर हैं न
कि है?'
जिस
किसी के पास
भी सुनने के
लिए कान हो
उसे सुन लेने
दो।''
क्या
चाहते हैं
जरथुस्त्र कि
तुम सुनो? 'क्या ठीक
यही नहीं है
ईश्वरीयता, कि ईश्वर
हैं, न कि
है?'
यही
है जो मैं
तुमसे बार—बार
कहता रहा हूं :
पूरा
अस्तित्व ही
दिव्य है।
सर्वत्र
ईश्वरीयता है, लेकिन
एक अकेला
ईश्वर किसी
व्यक्ति के
रूप में नहीं
है। जिस दिन
हम किसी व्यक्ति
के रूप में एक
अकेले ईश्वर
की धारणा छोड़
देंगे, हमारे
समस्त धर्म और
उनके भेदभाव
विदा हो जाएंगे।
तब केवल
ईश्वरीयता है —
निराकार, बस
एक गुणवत्ता,
एक सुगंध।
तुम उसका
अनुभव कर सकते
हो, लेकिन
तुम उससे
प्रार्थना
नहीं कर सकते;
तुम उसका
आनंद ले सकते
हो, लेकिन उसके
आसपास मंदिर
खड़ा नहीं कर
सकते; तुम
उसके साथ नाच
सकते हो, तुम
उसके साथ गीत
गा सकते हो, लेकिन तुम
उसकी स्तुति
नहीं कर सकते।
तुम्हें
उसकी स्तुति
करने के लिए
शब्द नहीं मिलेंगे, लेकिन
तुम आनंद का
एक गीत गा
सकते हो। और
तुम इतनी
समग्रता से
नाच सकते हो
कि नर्तक खो
जाए और केवल
नृत्य बच रहे —
वही सच्ची
धार्मिकता और
सच्चा अहोभाव
है।
..........ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
THANK YOU GURUJI
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