प्यारे
ओशो,
हमारा
दूसरों में
भरोसा विश्वासघात
करता है जहां
पर कि हम
स्वयं में इतने
प्रियरूप से
भरोसा रखना
चाहेंगे।
मित्र के लिए
हमारी
अभीप्सा ही
हमारी
विश्वासघातक
है।
और
प्राय: अपने
प्रेम से हम
केवल अपनी
ईर्ष्या पर
छलांग लगाना
चाहते हैं। और
प्राय: हम
आक्रमण करते
हैं और शह बना
लेते हैं यह
छिपाने के लिए
कि हम स्वयं
पर आक्रमण के
लिए असुरक्षित
हैं।
'कम से
कम मेरे शत्रु
होओ!' — ऐसा
सच्चा सम्मान
बोलता है जो
मित्रता
मांगने का
जोखिम नहीं
उठा पाता।
..........ऐसा
जरथुस्त्र ने
कहा।
मित्रता
उन विषयों में
से एक है जो
लगभग सभी दार्शनिकों
द्वारा
सर्वाधिक
उपेक्षित रहे
हैl
शायद हम इसे
मंजूरशुदा ले
लेते है क हहम
समण्ते ही है
कह इसका मतलब
होता है, इसलिए
हम इसकी
गहराइयों के
संबंध में, विकास की
इसकी
संभावनाओं के
संबंध में, भिन्न—भिन्न
अर्थवत्ताओं
सहित इसके
भिन्न—भिन्न
रंगों के
संबंध में
अज्ञानी ही
रहे आए हैं।
जरथुस्त्र
इस विषय पर
महान
अंतर्दृष्टि
सहित बोले हैं।
याद रखने की
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
बात है : ऋक्ति
को मित्रों की
जरूरत होती है
क्योंकि व्यक्ति
अकेले होने
में अक्षम है।
और जब तक
व्यक्ति को
मित्रों की
जरूरत है, व्यक्ति
कोई बहुत
मित्र हो भी
नहीं सकता —
क्योंकि
जरूरत दूसरे
को वस्तु में
बदली देती है।
जो व्यक्ति
अकेले होने
में सक्षम है
केवल वही
मित्र होने
में भी सक्षम
है। लेकिन वह
उसकी जरूरत
नहीं है, वह
उसका आनंद है;
वह उसकी भूख
नहीं है, उसकी
प्यास नहीं है,
बल्कि उसके
प्रेम की
प्रचुरता है
जिसे वह बांटना
चाहता है।
जब
ऐसी मित्रता
होती है, उसे
मित्रता नहीं
कहा जाना
चाहिए
क्योंकि उसने
एक सर्वथा नया
आयाम ले लिया
है : मैं उसे 'मैत्रीभाव'
कहता हूं।
वह संबंध के
पार जा चुकी
है, क्योंकि
सब संबंध किसी
न किसी रूप
में बंधन हैं,
वे तुम्हें
गुलाम बनाते
हैं और दूसरे
को गुलाम करते
हैं।
मैत्रीभाव
बस बेशर्त
बांटने का
आनंद है, बिना
किन्हीं
अपेक्षाओं के,
बिना किसी
कामना के कि
बदले में कुछ
मिले —
धन्यवाद तक
नहीं।
मैत्रीभाव
विशुद्धतम
प्रकार का
प्रेम है।
वह
एक जरूरत नहीं
है,
वह एक
आवश्यकता
नहीं है, वह
शुद्ध बहुलता
है, छलकती
मस्ती है।
जरथुस्त्र
कहते हैं, हमारा
दूसरों में
भरोसा
विश्वासघात
करता है जहां
हम स्वयं में
इतने
प्रियरूप से
भरोसा रखना
चाहेंगे।
जो
दूसरों में
भरोसा रखता है
वह ऐसा
व्यक्ति है जो
स्वयं में
भरोसा करने
में भयभीत है।
ईसाई, हिंदू
मुसलमान, बौद्ध,
साम्यवादी —
कोई भी
पर्याप्त
साहसी नहीं है
अपनी ही
अंतरात्मा
में भरोसा
रखने के लिए।
वह दूसरों में
विश्वास करता
है, और वह
उनमें
विश्वास करता
है जो उसमें
विश्वास करते
हैं।
यह
सचमुच
हास्यास्पद
है : तुम्हारे
मित्र को तुम्हारी
जरूरत है, वह
अपने अकेलेपन
से भयभीत है; तुम्हें
उसकी जरूरत है,
क्योंकि तुम
अपने अकेलेपन
से भयभीत हो।
दोनों
अकेलेपन से
भयभीत हैं।
क्या तुम
सोचते हो
तुम्हारे एक—साथ
होने का अर्थ
होता है कि
तुम्हारे
अकेलेपन विदा
हो जाएंगे? वे केवल
दोहरे हो
जाएंगे, या
संभवत: आपस
में गुणित हो
जाएंगे।
इसीलिए सारे
संबंध और
दुर्गति में
ले जाते हैं, और विषाद
में ले जाते
हैं।
यही
बात आस्था के
संबंध में सच
है। क्यों तुम
जीसस में
विश्वास करते
हो?
— क्या तुम
स्वयं में
विश्वास नहीं
कर सकते? क्यों
तुम गौतम
बुद्ध में
विश्वास करते
हो ओं — क्या
तुम स्वयं में
विश्वास नहीं
कर सकते? और
क्या कभी
तुमने इसके
गूढार्थ के
संबंध में
सोचा है? — यदि
तुम स्वयं में
विश्वास नहीं
कर सकते, तो
कैसे तुम गौतम
बुद्ध में
अपने विश्वास
में विश्वास
कर सकते हो? मूलरूप से, यह तुम्हारा
विश्वास है।
गौतम बुद्ध का
उससे कोई लेना—देना
नहीं।
यदि
तुम स्वयं में
विश्वास नहीं
कर सकते तो तुम
किसी में विश्वास
नहीं कर सकते, केवल
तुम धोखा पाल
सकते हो। धोखा
पालना आसान है
यदि आस्था का
पात्र कोई दूसरा
हो, लेकिन
यह तुम्हारी
आस्था है — एक
ऐसे व्यक्ति
की आस्था जो
पोला है, एक
ऐसे व्यक्ति
की आस्था जो
नितांत
अंधेरे व मूर्च्छा
में जीता है, क्योंकि हर
व्यक्ति किसी
अन्य व्यक्ति
में विश्वास
रखता है।
जीसस
तक ईश्वर में
विश्वास करते
हैं — वह भी
स्वयं में
विश्वास करने
के लिए
पर्याप्त
साहसी नहीं
हैं। तुम जीसस
में विश्वास
करते हो, जो
खुद में ही
विश्वास नहीं
कर सकते; वह
ईश्वर में
विश्वास करते
हैं। अवश्य
हमें यह पता
नहीं है कि
ईश्वर किसमें
विश्वास करता
है, लेकिन
वह भी अवश्य
किसी में
विश्वास करता
होगा। यह
अविश्वासी
लोगों की, आस्थारहित
लोगों की अनंत
शृंखला
प्रतीत होती
है, जो आशा
कर रहे हैं कि
संभवत: दूसरा
मेरे खालीपन
को तृप्त कर
सकता है।
तुम्हें
अपने खालीपन
का
साक्षात्कार
करना होगा।
तुम्हें
उसे जीना
पडेगा, तुम्हें
उसे
स्वीकारना
होगा।
और
तुम्हारे
स्वीकार में
छिपी है एक
महान क्राति, एक
महान
रहस्योद्घाटन।
जिस क्षण तुम
अपने अकेलेपन
को, अपने
खालीपन को
स्वीकार करते.
हो, उसकी
गुणवत्ता ही
बदल जाती है।
वह अपना ठीक
उलटा बन जाता
है — वह एक
बहुलता बन
जाता है, एक
परितृप्ति, ऊर्जा और
हर्षोल्लास
के अतिरेक का
छलकाव। इस
छलकाव से यदि
तुम्हारी
आस्था उठती है
तो उसका अर्थ
है, यदि
तुम्हारा
प्रेम उठता है
तो वह केवल
शब्द नहीं है,
वह
तुम्हारा
हृदय ही है।
और
प्राय: हम
आक्रमण करते
हैं और शनु
बना लेते हैं
यह छिपाने के
लिए कि हम
स्वयं पर
आक्रमण के लिए
असुरक्षित
हैं।
'कम से
कम मेरे शत्रु
होओ!' — ऐसा
सच्चा सम्मान
बोलता है जो
मित्रता
मांगने का
जोखिम नहीं
उठा पाता।
क्या तुमने
कभी किसी को
कहा है, 'कम
से कम मेरे
शत्रु होओ'? मैं नहीं
सोचता कि कोई
भी किसी को अपना
शत्रु बनने के
लिए कहता है।
तुम निश्चित
ही लोगों से
कहते हो कि 'मेरे मित्र
होओ। ' लेकिन
ये शत्रु कहां
से आते हैं? कोई उन्हें
चाहता नहीं, कोई उनकी
मांग नहीं
करता, फिर
भी मित्रों की
अपेक्षा
शत्रु ज्यादा
हैं।
शायद
जब तुम किसी
से कहते हो, 'मेरे
मित्र होओ, ' तो यह भयवश
है, कि यदि
तुम उसे मित्र
होने को न कहो
तो वह तुम्हारा
शत्रु हो सकता
है। लेकिन यह
किस प्रकार की
मित्रता होगी?
और मित्र हर
रोज शत्रुओं
में बदलते
जाते हैं।
वास्तव में तो
मित्र बनाना
शत्रु बनाने
की शुरुआत है।
नीत्शे
कह रहा है यह
कहीं अधिक
सम्मानपूर्ण, कहीं
अधिक
श्रद्धापूर्ण
होगा, यदि
तुम महसूस
करते हो कि
कोई व्यक्ति
तुम्हारा
शत्रु हो सकता
है तो बेहतर
है उससे कहना,
'कम से कम
मेरे शत्रु होओ, सच्चे बनो।
वह मजबूत
बनाएगा।
सत्य
हमेशा
व्यक्ति को
मजबूत बनाता
है — सत्य के
पास इतनी
प्रचुर शक्ति
है। लेकिन हम
झूठों पर
निर्भर करते
हैं। हम
लगातार
मित्रताए बना
रहे हैं, समाजों
में, क्लबों
में घूमते हुए
परिचय बना रहे
हैं। बुझे
सामाजिकता, मिलना—जुलना
कहा जाता है, लेकिन
वास्तव में यह
प्रतिरक्षा
का उपाय है।
तुम समाज के
उच्च वर्गों
में, शक्तिशाली
लोगों को मित्र
बना रहे हो, ताकि तुम
राहत महसूस कर
सकी, ताकि
वे तुम्हारे
प्रति
विरोधात्मक न
होंगे। लेकिन
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता; यह बस
तुम्हें
कमजोर करता है।
और यह
तुम्हारी
मित्रता को एक
नकली बात, एक
सामाजिक
औपचारिकता
बनाता है।
हां, मैं
कहता हूं कि
नीत्शे सही है
: यदि तुम्हें
अनुमान होता
है कि कोई
व्यक्ति तुम्हारा
दुश्मन
होनेवाला है,
तो बेहतर है
उसे आमंत्रित
करना, 'कृपया,.
मेरे शत्रु
बनो!' एक
अच्छा धक्का
उसे पहुंचाओ!
घंटों वह इसका
मतलब न निकाल
पाएगा — इसका
अर्थ क्या हुआ?
— क्योंकि
ऐसा कभी कहा
नहीं जाता।
लेकिन तुमने
एक ईमानदार
वक्तव्य दिया
है, और यह
तुम्हें
मजबूत करेगा,
पोषित
करेगा। हर
निष्ठावान
कृत्य, हर
ईमानदार शब्द
तुम्हें और—और
मजबूत
करनेवाला है।
.......ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
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