प्यारे
ओशो,
बताओ
मुझे : कैसे स्वर्ण
को सर्वोच्च
मूल्य उपलब्ध
हुआ?
क्योकि वह
दुर्लभ और
निरुपयोगी और
चमकदार तथा
आभा में
स्निग्ध है; वह सदा अपने
आपको
संप्रदान
करता है।
कैवल
सर्वोच्च
सद्गुण के
प्रतीक के रूप
में स्वर्ण को
सर्वोच्च
मूल्य उपलब्ध
हुआ देनेवाले
की निगाह
स्वर्ण सी
झलकती है।....
सर्वोच्च
सद्गुण
दुर्लभ और
निरुपयोगी है
वह चमकदार और
आभा में
स्निग्ध है :
सर्वोच्च ' सद्गुण
संप्रदान
किया जाने
वाला सद्गुण
है।
सच
में मैं तुम्हारा
ठीक अनुमान
लगाता हूं
मेरे शिष्यो
तुम संप्रदान
किये
जानेवाले
सद्गुण की
अभीप्सा करते
हो जैसे कि
मैं करता हूं।....
तुम
स्वयं बलिदान
एवम् उपहार बन
जाने की प्यास
पालते हो; और
वही कारण है
कि तुम
तुम्हारी
आत्मा
अतोषणीय रूप
से खजानों और
रत्नों की
अभीप्सा करती
है क्योकि
देने की चाहत में
तुम्हारा
सद्गुण
अतोषणीय है।
तुम सब चीजों
को तुम तक और
तुम में आने
को विवश करो
ताकि वे
तुम्हारे
झरने से
तुम्हारे
प्रेम के
उपहार के रूप
में वापस बह
सकें।
सच
में ऐसे
संप्रदानकारी
प्रेम को
समस्त
मूल्यों का
चोर बन जाना
जरूरी है; लेकिन
मैं इस
स्वार्थपरायणता
को स्वस्थ व
पवित्र कहता
हूं।....
........ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
मनुष्य
ने हमेशा
सद्गुण के
अर्थ के संबंध
में सोचा है, लेकिन
सद्गुणों के
जगत को जो आयाम
जरथुस्त्र
प्रदान करते
हैं वह किसी
मनुष्य ने कभी
नहीं प्रदान
किया है।
सद्गुण की, शिक्षा सदा
ही धर्मों
द्वारा
पुरस्कार के
साधन के रूप
में दी गयी है,
स्वर्ग के
साधन के रूप
में, ईश्वर
का, अस्तित्व
का कृपापात्र
बनने के साधन
के रूप में।
लेकिन
इन समस्त
धर्मों ने
सद्गुण को एक
बहिर्गत अर्थ
दिया है, अर्थ
जो बाहर से
आता है, ऐसा
अर्थ नहीं जो भीतर
से विकसित।
जरथुस्त्र
सद्गुण शब्द
को
अंतर्निहित आयाम
का अर्थ
प्रदान करते
हैं, ऐसे
जैसे फूल
खिलते हैं, और बहुत
गहरे में जडों
से जुड़े हैं, जमीन की
गहराई में। वे
अलग नहीं हैं;
हो सकता है
जमीन में रंग
और सुगंध न
दिखायी देते
हों, सौंदर्य
न दिखायी देता
हो, लेकिन
वे सब के सब
उसमें छिपे
हैं और फूल
में अभिव्यक्त
हो जाते हैं।
सद्गुण का बीज
तुम्हारे
भीतर ही है, उसका किसी
पुरस्कार से
कोई लेना—देना
नहीं। वह अपना
पुरस्कार आप
है। वह किसी
भी चीज का साधन
नहीं है, वह
अपने आप में
सिद्धि है।
जरथुस्त्र
को बहुत गहराई
से समझना है, क्योंकि
यह समझ
धार्मिक जीवन
की, आध्यात्मिक
क्राति की
तुम्हारी
पूरी अवधारणा
को बदल देगी; नये मनुष्य
की
आध्यात्मिक
क्राति की
अवधारणा को जो
धार्मिक तो
होगा लेकिन
बिना धर्मों
का होगा, जो
धार्मिक तो
होगा लेकिन
बिना किसी
लक्ष्य के, जिसकी
धार्मिकता
उसके अंतरतम
प्राणों की सुगंध
मात्र होगी।
और उसका
सद्गुण होगा
उसे बांटने का,
पूरे
अस्तित्व पर
उसे अर्पित
करने का।
जरथुस्त्र
अपने शिष्यों
से पूछते हैं,
बताओ मुझे :
कैसे स्वर्ण
को सर्वोच्च
मूल्य उपलब्ध
हुआ? क्योकि
वह दुर्लभ और
निरुपयोगी और
चमकदार तथा
आभा में
स्निग्ध है; वहै सदा
अपने आपको
संप्रदान
करता है। जो
बातें वह
स्वर्ण के
संबंध में कह
रहे हैं वे
सत्य के, सौंदर्य
के, भगवत्ता
के, प्रेम
के सर्वोच्च
सद्गुणों के
संबंध में सच हैं।
प्रेम
किसी भी बात का
साधन नहीं बन
सकता। जैसे ही
तुम अपने
प्रेम को किसी
भी बात के लिए साधन
बनाते हो, वह
प्रेम नहीं रह
जाता। प्रेम
को अपना
सौंदर्य, अपनी
प्रफुल्लता, अपनी सुगंध
कायम रखने के
लिए
निरुपयोगी
बने रहना होता
है। जैसे ही
वह साधन बनता
है, कहीं
पहुंचने के
लिए कोई
लक्ष्य
प्राप्त करने
के लिए सीढ़ी
बनता है, कि
लक्ष्य
महत्वपूर्ण
बन जाता है; प्रेम
लक्ष्य की
तुलना में अ—महत्वपूर्ण
बन जाता है।
सच
में मैं
तुम्हारा ठीक
अनुमान लगाता
हूं मेरे
शिष्यो तुम
संप्रदान
किये जाने
वाले सद्गुण
की
अभीप्सा
करते हो जैसे
कि मैं करता
हूं।.... तुम
स्वयं बलिदान
एवम् उपहार बन
जाने की प्यास
पालते हो; और
वही कारण है
कि तुम अपनी
आत्मा में
समस्त समृद्धियो
का ढेर लगा
लेने की प्यास
से भरते हो।
शायद किसी ने
इस ढंग से
इशारा नहीं
किया है जिस
ढंग से
जरथुस्त्र कर
रहे हैं —
क्यों लोग
सत्य की खोज
पर अथवा आत्मखोज
पर निकलते हैं।
मानवजाति के
समस्त महान
शिक्षक लोगों
का आह्वान करते
रहे हैं खोजने
के लिए. तुम
कौन हो? स्वयं
को जानो!
लेकिन
किसलिए?
जवाब
जरथुस्त्र के
पास है। अपनी
समृद्धियों
को जानो, अपने
खजानों को
जानो, ताकि
तुम बांट सको,
ताकि तुम
उन्हें
दूसरों को संप्रदान
कर सको। अपने
को पाओ केवल
बांटने के लिए
क्योंकि जैसे
ही तुम स्वयं
को बांटते हो
तुम सामान्य
मानवता का
अतिक्रमण कर
जाते हो, तुम
परममानव बन
जाते हो।
सामान्य
मनुष्य लोभी
है,
वह एक
भिखारी है। वह
इकट्ठा किये
ही चला जाता
है, वह कभी
देता नहीं; वह देने की भाषा
ही अथवा देने
का आनंद ही
नहीं जानता।
वह बहुत गरीब
है — वह केवल
पाने का बहुत
तुच्छ आनंद
जानता है।
पाने में, अगर
तुम पूरी
दुनिया भी पा
जाओ तो भी
तुम्हारा
आनंद तुच्छ ही
होगा; और
देने में, चाहे
तुम गुलाब का
एक फूल ही दो
तो भी तुम्हारा
आनंद एक
सम्राट का होगा।
देना, संभवत:
जगत में
सर्वाधिक
आनदपूर्ण
अनुभव है। और
जब तुम स्वयं
को देते हो, जब तुम कुछ
अपने अंतरतम
प्राणों का
देते हो, तब
तुम सच में
देते हो।
तुम्हारी
आत्मा
अतोषणीय रूप
से खजानों और
रत्नों की
अभीप्सा करती
है क्योकि
देने की चाहत
में तुम्हारा
सद्गुण अतोषणीय
है।
सारा
धार्मिक
प्रयास, सारी
आध्यात्मिक
यात्रा, स्वयं
की पूरी खोज
एक छोटे से
कारण से है : कि
जब तक तुम
स्वयं को जान
न लो, तुम
दे नहीं सकते।
कैसे तुम वह
दे सकते हो जो
तुम्हें ही
अज्ञात है? और चमत्कार
यह है कि जैसे
ही तुम स्वयं
को जानते हो
तुम देने के
प्रलोभन से बच
नहीं सकते। वह
प्राप्ति के
साथ ही आता है,
फौरन तुम
सारे जगत से
चिल्लाकर
कहना चाहते हो,
'मैंने जीवन
का स्रोत पा
लिया है, आओ
और मुझसे बांट
लो'!
जब
कभी भी तुम
पार का कुछ
अनुभव करते हो, तुम
उसे अपने भीतर
नहीं समा सकते।
वह बस असंभव
है, वैसा
जीवन का
स्वभाव नहीं
है। जितनी बड़ी
तुम्हारी
आतरिक
उपलब्धि होगी,
उतनी ही बड़ी
देने की इच्छा
होगी।
प्रारंभ में
तुम अचंभित हो
जाओगे — जीवन
का स्रोत पा
लेने की
तुम्हारी
प्यास बड़ी थी,
लकिन अब तुम
जानते हो कि
उसे बांटने की
तुम्हारी चाह
उससे भी बड़ी
है।
और
जिस रहस्य का
तुम्हें
सामना होगा वह
यह है कि, जितना
ज्यादा तुम
उसे बाटते हो
उतना ही ज्यादा
वह तुम्हारे
पास होता जाता
है; जितना
कम देते हो
उतना ही कम
होता जाता है।
यदि तुम दो ही
न, तो तुम
उसे पूरी तरह
गंवा दोगे।
केवल बांटने
में, बिना
कुछ पीछे बचाए
हुए बांटने
में, स्वयं
को खाली करते
जाने में ही
उसे तुम अपने
पास रख सकते
हो। और
अस्तित्व
खयाल रखता है,
जैसे तुम
अपने आपको
खाली कर रहे
होते हो, तुम्हारे
जीवन के
अज्ञात
स्रोतों से
अस्तित्व
तुम्हें और—और
ताजे रसों से,
और—और नये
खजानों से भर
रहा होता है —
तुम कभी खाली
नहीं होने
पाते।
तुम्हारा
भराव अनंत बन
जाता है; लेकिन
अनंत वह बनता
है अनंत रूप
से देने से।
तुम
सब चीजों को
तुम तक और तुम
में आने को
विवश करो ताकि
वे तुम्हाए
झरने से
तुम्हारे
प्रेम के' उपहार
के रूप में
वापस बह सकें।
संसार
में अन्य कोई
धर्म नहीं है।
सारे दूसरे
धर्म नकली हैं, सारे
दूसरे धर्म
केवल बहाने
हैं लोगों को
धोखा देने के
लिए।
......ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें