प्यारे
ओशो,
मैं
विद्वानों के
घर से बाहर
निकल आया हूं
और अपने पीछे
जोर से दरवाजा
बंद कर दिया
हूं। मेरी
आत्मा उनकी
भोजन— मेज पर
बहुत काल तक
भूखी बैठी रही; मैं
उस तरह
शिक्षित नहीं
हुआ हूं जैसे
वे हुए हैं
ज्ञान फोड़ने
के लिए जैसे
कोई काष्ठफल
(नट) फोड़ता है
मैं
स्वतंत्रता
को और ताजी
मिट्टी की
हवाओं को प्रेम
करता है उनकी
प्रतिष्ठाओं
और
सम्माननीयताओं
पर सोने के
बजाय मैं
वृषचर्मों पर
सोऊंगा।
मैं
अपने ही विचार
से बहुत
ज्यादा
उत्तप्त हूं
और झूलस गया
हूं : वह बहुधा
मुझे
निःश्वास कर
देने के करीब
होता है। तब
मुझे खुली हवा
में और सब भूल—
धवांस भरे
कमरों से दूर
निकल जाना
होता है।
लेकिन
वे ठंढी अव
में ठंडे (
भावसून्य)
होकर बैठते
हैं : वे हर चीज
में मात्र
दर्शक रहना
चाहते हैं और
वे खयाल रखते
हैं वहां न
बैठने का जहां
सीढ़ियों पर
सूरज तपता है।....
जब
वे स्वयँ को
बुद्धिमान के
रूप में
उपलब्ध कराते
हैं उनके
छुद्र कथन और
सत्य मुझे
कंपा देते हैं
: उनकी
बुद्धिमत्ता
प्राय: ऐसी
गंध देती है
जैसे वह गंदे
दलदलों से आयी
हो....
हम
एक दूसरे के
लिए अजनबी हैं
और उनके
सद्गुण मेरी
रुचि के और भी
विपरीत हैं
बजाय उनके
असत्यों और
छली पांसों के।
और
जब मैं उनके
बीच जीआ मैं उनके
ऊपर जीआ। उसके
लिए वे मुझसे क्रुद्ध
हुए।
वे
नहीं जानना
चाहते थे कि
कोई व्यक्ति
उनके सिरों के
ऊपर चल रहा था; और
इसलिए
उन्होंने
अपने सिरों और
मेरे बीच लकड़ी
भूल और कूड़ा—
कचरा भर लिया।
इस
प्रकार
उन्होने मेरे
कदमों की आवाज
को दबा दिया :
और तब से लेकर
सर्वाधिक
विद्वतापूर्ण
मुझे सर्वाधिक
कम सुन पाया
है।....
लेकिन
उसके बावजूद
मैं अपने
विचारों सहित
उनके सिरों के
ऊपर से चलता
हूं, और यदि मुझे
अपनी गलतियों
पर भी चलना
पडे तो भी मैं
उनके और उनके
सिरों के ही
होऊंगा।
क्योकि
मनुष्य समान
नहीं हैं : ऐसा
न्याय कहता है।
और मैं जिसकी
अभिलाषा करता
हूं हो सकता
है वे उसकी
अभिलाषा न
करें।
.........ऐसा
जरथुस्त्र ने
कहा।
एक
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
भेद जो
व्यक्ति को करना
चाहिए वह है
ज्ञान और
जानने के बीच।
ज्ञान सस्ता
और आसान है, जानना
महंगा है, जोखिमपूर्ण,
उसके लिए
साहस की जरूरत
है। ज्ञान
बाजार में
उपलब्ध है।
ज्ञान के लिए
विशेष बाजार
हैं —
विश्वविद्यालय,
महाविद्यालय।
जानना
तुम्हारे
अपने ही अंतस
के अलावा कहीं
भी उपलब्ध
नहीं है।
जो व्यक्ति
जानने में
उत्सुक है वह
ज्ञान के त्याग
से प्रारंभ
करता है, क्योंकि
ज्ञान बाधा है,
वह एक नकली
सिक्का है। और
इसके पहले कि
असली का बोध
हो, नकली
को हटाया जाना
चाहिए। वह उस
सब कुछ को
छोडता है जो
उसका स्वयं का
नहीं है।
पंडित होने के
बजाय अज्ञानी 'होना बेहतर
है क्योंकि कम
से कम अज्ञान
तुम्हारा तो
है। इसके लिए
ज्यादा साहस
की जरूरत होती
है बजाय धन—दौलत
त्यागने के, राज्य
त्यागने के, परिवार
त्यागने के, समाज
त्यागने के, क्योंकि वे
सब के सब बाहर
हैं। ज्ञान
तुम्हारे
मस्तिष्क के
भीतर इकट्ठा
होता है। जहां
कहीं भी तुम
जाओ... गहन
हिमालय में भी
वह तुम्हारे
साथ होगा।
ज्ञान
त्यागने का
अर्थ है एक
गहन आतरिक
सफाई और वही
मेरा आशय है
ध्यान से।
ध्यान कुछ भी
नहीं है सिवाय
उधार ज्ञान
त्यागने के और
अपने अज्ञान
के प्रति पूरी
तरह सजग होने
के। इससे एक
कायापलट आता
है। जिस क्षण
तुम अज्ञान के
प्रति सजग
होते हो, अज्ञान
एक इतने बडे
परिवर्तन से
गुजरता है कि
जब तक यह
तुम्हें घटित
ही न हो यह
अविश्वसनीय
ही बना रहता
है। अज्ञान ही
तुम्हारी
निदाषिता बन
जाता है।
प्रज्ञावान
व्यक्ति भी
कहता है, 'मैं
नहीं जानता। '
जरथुस्त्र
के अनुसार, चेतना
की सर्वोच्च
दशा एक शिशु
की सी है। तुम
एक शिशु के
रूप में पैदा
होते हो लेकिन
तब तुम
अज्ञानी हो।
तुम बहुत
ज्ञान से, बहुत
स्मृति से
गुजरोगे और
यदि तुम
पर्याप्त सौभाग्यशाली
हो तो एक दिन
तुम देखोगे कि
यह सब मिथ्या
है — क्योंकि
यह तुम्हारा
नहीं है।
हो
सकता है बुद्ध
ने जाना हो, हो
सकता है जीसस ने
जाना हो, हो
सकता है कृष्ण
ने जाना हो, लेकिन उनका
ज्ञान मेरा
जानना नहीं बन
सकता। उनका
जीवन मेरा
जीवन नहीं बन
सकता, उनका
प्रेम मेरा
प्रेम नहीं बन
सकता, कैसे
उनका ज्ञान
मेरा ज्ञान बन
सकता है? मुझे
स्वयं से ही
खोजना और
तलाशना होगा।
मुझे एक
अभियानकर्ता
बनना होगा, अज्ञात का
एक खोजी। मुझे
अछूते
मार्गों पर
जाना होगा, अमानचित्रित
महासागरों
में उतरना
होगा। और मुझे
एक कृतसंकल्प
इच्छा के साथ
सब कुछ दाव पर
लगाना होगा...
कि यदि औरों
को सत्य
उपल्ब्ध हुआ
है, कोई
कारण नहीं है
कि क्यों
अस्तित्व मुझ
पर गैर—मेहरबान
होगा।
बहुत
थोड़े से
सौभाग्यशाली
लोग अपना उधार
ज्ञान छोड़ना
प्रारंभ करते
हैं। और जैसे
वे अपना उधार
ज्ञान छोड़ना
शुरू करते हैं
चक्र उनके
बचपन की ओर
लौटना शुरू हो
जाता है। इस
चक्र की
पूर्णता तब
आती है जब
अज्ञान ज्योतिर्मय
हो उठता है।
जब अज्ञान का
जागरण से मिलन
होता है, तब
मनुष्य के
समूचे अनुभव
का महानतम
विस्फोट घटित
होता है : तुम
एक अहंकार के
रूप में विदा
हो जाते हो।
अब तुम एक
शुद्ध, सरल
अस्तित्व भर
हो — विशुद्ध ''होनापन'', किसी
भी बात के
प्रति किसी भी
दावे से रहित।
ऐसे
ही क्षण में
सुकरात ने कहा, 'मैं
कुछ भी नहीं
जानता'।
ऐसी ही अवस्था
में बोधिधर्म
ने घोषणा की, 'मैं कुछ
नहीं जानता।
और इसके अलावा,
मेरा 'मैं'
केवल एक
भाषागत
सुविधा है, मेरे भीतर
कोई सत्ता
नहीं है जो कह
सके. 'मैं'। मैं केवल
इसका उपयोग कर
रहा हूं
क्योंकि उसके
बिना तुम समझ
न पाओगे।
जरथुस्त्र
के वक्तव्यों
पर
बहुतगहराईसे
विचार किये
जाने की जरूरत
है। मैं
विद्वानों के
घर से बाहर
निकल आया हूं।
और अपने पीछे
जोर से दरवाजा
बंद कर दिया
हूं। केवल
इतनी ही बात नहीं है
किं वह घर से
बाहर निकल आए
हैं,
ध्यान रखना
चाहिए कि जोर
इस बात पर है
कि उन्होंने
अपने' पीछे
जोर से दरवाजा
बंद किर दिया
है। विद्वता
से उनका संबंध
खतम हो चुका
है। यह वह जगह
नहीं है जहा
सत्य मिलता है।
यह वह जगह है
जहा सत्य पर
चर्चा की जाती
है; यह वह
जगह है जहां
सत्य के संबंध
में हजारों परिकल्पनाएं
पैदा की जाती
हैं; यह वह
जगह है जहा
किसी
निष्कर्ष पर
कभी नहीं पहुंचा
गया है।
हजारों
वर्षों से
विद्वानगण
चर्चा करते आए
हैं,
सूक्ष्म
विस्तारों
में, लेकिन
कभी भी
निष्कर्ष
नहीं निकला है।
विद्वान लोग
रिक्त सीपिया
हैं — आवाज तो
वे बहुत करते
हैं लेकिन वह
आवाज अर्थहीन
है। वे तर्क—वितर्क
तो बहुत करते
हैं लेकिन
परिकल्पना जिसके
संबंध में वे
तर्क—वितर्क
कर रहे हैं
फिर भी एक
परिकल्पना ही
रह जाती है; कोई तर्क—वितर्क
किसी
परिकल्पना को
वास्तविकता
नहीं बना सकते।
और सर्वोपरि
रूप से, कैसे
तुम किसी चीज
के संबंध में
विचार—विमर्श
कर सकते हो
जिसका तुमने
कभी अनुभव नहीं
किया है?
और
वास्तविक
अनुभव
शब्दरहित है।
वह एक स्वाद
है,
वह एक पोषण
है, वह
तुम्हें
परितृप्त
करता है।
प्रेम शब्द
प्रेम नहीं है।
प्रेम
तुम्हारे
हृदय का एक
गहन नृत्य है,
तुम्हारी
आत्मा का
हर्षोल्लास
है, तुम्हारे
जीवनरसों का
छलकाव है, उनके
साथ एक
सहभागिता है
जो ग्रहणशील व
उपलब्ध हैं।
लेकिन प्रेम
शब्द का इससे
कोई वास्ता
नहीं है।
जब
वे स्वयं को
बुद्धिमान के
रूप में
उपलब्ध कराते
हैं उनके
छुद्र कथन और
सत्य मुझे
कंपा देते हैं
: उनकी
बुद्धिमत्ता
प्राय: ऐसी
गंध देती है
जैसे वह गंदे
दलदलों से आयी
हो।
उसमें
से बास आती है, वह
दुर्गंध देती
है, वह
वास्तव में
बीभत्स है।
यदि तुमने
स्वयं कुछ
जाना है तो तुम देख
सकते हो कि
समस्त
तथाकथित
विद्वान लाशें
ढो रहे हैं।
और वे डींगें
मार रहे हैं
कि किसकी लाश
सर्वाधिक
प्राचीन है।
जितना ज्यादा
सडी हुई कोई
लाश है, जितना
ज्यादा
प्राचीन कोई
धर्मग्रंथ है,
उतना ही महान
विद्वान है।
निश्चित
ही विद्वाने
लोग दूर्गंध
देते है।
लेकिन सीधा
सरल व्यक्ति—जो
धूल भरी पुस्तको
के बोझ से अब
और अधिक लदा
हुआ नहीं है, जो
विद्वता के
धूल—धवांस भरे
कमरों में अब
और अधिक नहीं
रह रहा है, जो
खुले में आ
गया, आकाश
तले — उसके
आसपास एक
सुवास होती है।
निर्दोषिता
की एक सुगंध
होती है, ठीक
जैसे कि ज्ञान
की एक बीभत्स
गंध होती है, क्योंकि
ज्ञान लाशों
से आता है और
जानना जीवित
जीवनस्रोत से
आता है।
हम
एक दूसरे के
लिए अजनबी है:
और उनके
सद्गुण मेरी
रुचि के और भी
विपरीत हैं
बजाय उनके
असत्यों और
छली पांसों के।
ये
सब बातें वह
विद्वानों के
बारे में कह
रहे हैं, उन
लोगों के बारे
में जो दुनिया
में महान लोगों
के रूप में
मान्य हैं।
समस्त
रहस्यदर्शी
विद्वानों के
लिए अजनबी हैं,
इस सरल से
कारणवश कि
रहस्यदर्शी
विश्वास नहीं
करता, रहस्यदर्शी
सोच—विचार
नहीं करता, रहस्यदर्शी
अनुभव करता
हैं। पानी के
बारे में
सोचना एक बात
है... तुम पानी
के संबंध में
ग्रंथ लिख
सकते हो, और
तुम एक महान
विद्वान के
रूप में जाने
जाओगे, तुम्हें
अपने शोध—प्रबंध
पर पीएच डी.
मिल सकती है, लेकिन
तुम्हारी
पुस्तक अथवा
तुम्हारा
ज्ञान प्यास
नहीं बुझा
सकता। और जो
व्यक्ति पानी
पीता है उसे
यह जानना जरूरी
नहीं है कि
इसका
रासायनिक
फार्मूला एच
टू ओ है —
क्योंकि ''एच
टू ओं' तुम्हारी
प्यास नहीं
बुझा सकता
रहस्यदर्शी
की फिक्र
प्यास बुझाने
की है, अपने
प्राणों को
पोषण देने की
है, अपनी
आतरिकता का अन्वेषण
करने और
अस्तित्व के
साथ तथा उसमें
शामिल सब कुछ
के साथ एक
तालमेल बनाने
की है.। और
उसमें समस्त
खुशियां
शामिल हैं, और समस्त
सौंदर्य, और
समस्त आशिष, और समस्त
मंगल।
विद्वान इन
चीजों के
संबंध में
केवल सोचने भर
से संतुष्ट है।
वह वास्तव में
प्यासा नहीं
है; अन्यथा
वह पानी खोजता,
पानी पर
ग्रंथ नहीं; वह कुएं पर
जाता, पुस्तकालय
में नहीं।
रहस्यदर्शी
कुएं पर जाता
है और विद्वान
पुस्तकालय
जाता है। वे
एक दूसरे के
प्रति परम
अजनबी हैं।
सोचना
एक भांति है, क्योंकि
तुम सोचते तभी
हो जब तुम
जानते नहीं।
जब तुम एक
सुंदर सूर्यास्त
देखते हो, तो
क्या तुम
सोचते हो? बहुत
संभवत:, पुरानी
आदतवश, तुम
सोचने लगते हो।
तुम अपने भीतर
ही भीतर कहने
लगते हो, ''कितना
सुंदर
सूर्यास्त! '' लेकिन
तुम्हारे
शब्द बाधा बन
रहे हैं। वह सूर्यास्त
के साथ एक
सौहार्दमय
संबंध—सेतु
में होने का
उपाय नहीं है।
समस्त सोचना
रुक जाना
चाहिए। तब तुम
वहा होओगे —
सूर्यास्त के
साथ एक गहन
लयबद्धता में,
लगभग उसका
अंग ही हो गये
हुए। और तब
तुम उसके
सौंदर्य को
जानोगे। ''यह
सुंदर '' ऐसा
दोहराने से
नहीं — वे शब्द
उधार है। तुमने
उन्हें सुना
है, और तुम
उनको यह
दिखलाने भर के
लिए कह रहे हो
कि तुम्हारे
पास एक महान
सौंदर्यबोध
है।
लेकिन
तुम वहां नहीं
हो,
तुम्हारा
मन कहीं और
भटक रहा है।
यदि सौंदर्य
तुम्हारे मन
को ठहरा नहीं
सकता तो तुम
नहीं जानते कि
सौंदर्य क्या
है। यदि एक
महान नृत्य
तुम पर ध्यान
नहीं उतार सकता,
तो तुम नहीं
जानते कि नृत्य
को कैसे देखना।
हम
मिथ्याचारों
से भरे हुए
हैं।
और
जब मैं उनके
बीच जीआ मैं
उनके ऊपर जीआ।
उसके लिए वे
मुझसे
क्रुद्ध हुए। वे
नहीं जानना
चाहते थे कि
कोई व्यक्ति
उनके सिरों के
ऊपर चल रहा था
और इसलिए
उन्होंने
अपने सिरों और
मेरे बीच लकडी
धूल और कूड़ा—
कचरा भर लिया।
इस
प्रकार
उन्होंने
मेरे कदमों की
आवाज को दबा
दिया. और तब से
लेकर
सर्वाधिक
विद्वतापूर्ण
मुझे
सर्वाधिक कम
सुन पाया है।
लेकिन
उसके बावजूद
मैं अपने
विचारों सहित
उनके सिरों के
ऊपर से चलता
हूं;
और यदि मुझे
अपनी गलतियों
पर भी चलना
पड़े तो भी मैं
उनके और उनके
सिरों के ऊपर
ही होऊंगा।
क्योकि
मनुष्य
समाननही हैं....
यह
ऐसा महान
वक्तव्य है।
खासकर आज, क्योंकि
साम्यवाद ने
इसे लगभग
सार्वभौम रूप से
स्वीकृत बना
दिया है कि सब
मनुष्य समान
हैं। और यह
सही बिलकुल
नहीं है : दो
मनुष्य भी
समान नहीं हैं।
समानता एक
झूठा विचार है।
हर
मनुष्य
अद्वितीय है।
वह अपने आप
में एक कोटि
है।
मैं
समझता हूं कि
हर व्यक्ति को
अपनी अद्वितीयता
में विकसित
होने के लिए
समान अवसर
दिया जाना
चाहिए लेकिन
कोई भी मनुष्य
समान नहीं हैं।
समानता हमारा
समकालीन
अंधविश्वास
है — नवीनतम और
सर्वाधिक
व्यापक रूप से
स्वीकृत, उन
लोगों द्वारा
भी जो
साम्यवादी
नहीं हैं; उन्होंने
भी इसे
स्वीकृत किया
है, क्योंकि
उन्होंने
इसका
अस्वीकार
नहीं किया है।
गैर—साम्यवादियों
के पास भी
साहस नहीं है
यह कहने का कि
मनुष्य समान
नहीं है, क्योंकि
वे भयभीत हैं
कि लोगों की
भीड़ें नाराज
हो जाएंगी।
भीड़ें बहुत
खुश होती हैं
यह जानकर कि
मनुष्य समान
हैं, कि
तुम अलबर्ट
आइंस्टीन के
बराबर हो, कि
तुम बर्ट्रंड
रसल के बराबर
हो, कि तुम
मार्टिन बूबर
के बराबर हो, कि तुम ज्या
पाल सार्त्र
के बराबर हो।
जनसमूह इस
विचार से बहुत
खुश हैं। यह
इतना
तृप्तिदायी
है ' अहंकार
के लिए कि जो
क्षे
साम्यवादी
नहीं हैं वे
तक भयभीत हैं
कहने में कि
मनुष्य समान
नहीं हैं। लेकिन
मैं
जरथुस्त्र के
साथ समग्रत:
राजी हूं :
मनुष्य समान
नहीं हैं।
जरथुस्त्र
सही हैं : ऐसा
न्याय कहता है
बेहतर समाज की
मेरी अपनी ही
अवधारणा है :
वह सब को समान
अवसर उपलब्ध
कराएगा, लेकिन
समान अवसर उन
लोगों को
असमान होने के
लिए होगा, अपनी
अद्वितीयता
में विकसित
होने के लिए।
मेरे
लिए,
साम्यवाद
का अर्थ है सब
के लिए समान
अवसर, मनुष्य
की समानता
नहीं।
जरथुस्त्र के
पास पच्चीस
सदियों पूर्व
यह
अंतर्दृष्टि
थी। यह नितांत
न्यायोचित व
ईमानदार बात
है कि फिर से
मनुष्य को
बलिदान नहीं
किया जाना
चाहिए समानता
के नाम पर। वह
बहुत बार
बलिदान किया
जा चुका है
अलग—अलग नामें
से, अलग—
अलग मंदिरों
में, अलग—अलग
ईश्वरों के
समक्ष। अब वह
साम्यवाद के
मंदिर में
बलिदान किया
जा रहा है — एक
पवित्र किताब,
दास केपिटल,
के सामने, ईश्वर की एक
त्रयी के
सामने.
मार्क्स, एंजिल्स
और लेनिन।
यह
इतनी सीधी
सूाई बात है, हर
व्यक्ति
जानता है कि
कोई समान नहीं
है। लेकिन
मनुष्य की
ईर्ष्या...
महानों के
खिलाफ छुद्र
मनुष्य की
ईर्ष्या, महामानवों
कै खिलाफ
छुद्र मनुष्य
की ईर्ष्या
कारण बनती है
उनके जोर से
चीखने की — और
निश्चित ही वे
बहुसंख्यक
हैं — कि
मनुष्य समान
हैं, और
समानता
मनुष्य का
जन्मसिद्ध
अधिकार है। और
उन्हें पता
नहीं है कि वे
कुछ ऐसी बात
कह रहे हैं जो
आत्महत्या
करने के बराबर
है। विकसित
होने के लिए
समान अवसर
बिलकुल ठीक है।
और
व्यक्तियों
की
अद्वितीयता
का स्वीकार समाज
को समृद्ध
करता है, उसे
हर प्रकार के
फूलों की
विविधता
प्रदान करता
है — भिन्न—भिन्न
रंगों के, भिन्न—भिन्न
सुगंधों के।
जरथुस्त्र
विरले हैं, इस
अर्थ में कि
उन्होंने
बहुत दूर की
चीजें देख ली
थीं; क्योंकि
उनके दिनों
में कोई भी
मनुष्य की समानता
की बात नहीं
कर रहा था।
मार्क्स अभी
आने को थे —
पच्चीस
सदियों बाद।
लेकिन जितने
ज्यादा
ध्यानपूर्ण
तुम हो, जितने
ज्यादा मौन, उतनी ही
ज्यादा
स्पष्ट
तुम्हारी
दृष्टि हो जाती
है, और वह
सुदूर भविष्य
में देख सकती
है। यह
वक्तव्य
कार्ल
मार्क्स के
खिलाफ है; यद्यपि
जरथुस्त्र को
किसी कार्ल
मार्क्स विशेष
का कोई पता
नहीं है।
........ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
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