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सोमवार, 4 नवंबर 2013

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-12


चैतन्‍य के तीन रूप—बारहवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर
दिनांक 14 जनवरी 1972 प्रात:
माथेरन।

सूत्र:

                  ज्ञानं नामोत्पत्तिविनाशरहित
                     नैरन्तर्य ज्ञानमिख्यते।
                  अनंतं नाम मृद्विकारेषु मृदिव
                     स्वर्णविकारेषु स्वर्णमिव
                  तंतुविकारेषु तंतुरिवाव्यक्तादि-
                    सृष्टिप्रपंचेषु पूर्ण व्यापक
                     चैतन्यमनन्तमित्युव्यते।
                     आनंद नाम सुखचैतन्य-
                 स्वरूपोऽपरिमितानन्दसमुद्रोऽवशिष्ट-
                 सुखस्वरूपक्षानन्द इत्युच्यते।। 12।।


            उत्‍पत्‍ति और विनाश से रहित नित्य चैतन्य को ज्ञान कहते हैं।
      मिट्टी से बनी हुई वस्तुओं में मिट्टी की तरह, सोने से बनी हुई वस्तुओं में सोने की तरह,
                  और सूत से बनी हुई वस्तुओं में सूत की तरह,
        समस्त सृष्टि में पूर्ण और व्यापक बना हुआ जो चैतन्य है, वह अनंत कहलाता है।
            जो सुखमय चैतन्य स्वरूप है, अपरिमित आनंद का समुद्र है,
                        और शेष रहे सुख का स्वरूप है,
                            वह आनंद कहलाता है।



स परम सत्ता को, उस ब्रह्म को, उस अविनाशी को ऋषि ने ज्ञान कहा है। लेकिन जिस ज्ञान को हम जानते हैं, उस ज्ञान से उसका कोई भी संबंध नहीं है। हम किसे ज्ञान कहते हैं उसे ठीक से समझ लें, तो ऋषि किसे ज्ञान कहता है उसे समझना आसान हो जाएगा।

हमारा ज्ञान--पहली बात तो यह है--सदा किसी ज्ञेय का होता है; अकेला ज्ञान हमें कभी नहीं होता। हम सदा किसी वस्तु के संबंध में ज्ञान को उपलब्ध होते हैं; अकेला ज्ञान कभी नहीं होता। वृक्ष को जानते हैं, मनुष्य को जानते हैं, राह पर पड़े पत्थर को जानते हैं, आकाश के सूर्य को जानते हैं; लेकिन जब भी जानते हैं तो कुछ जानते हैं, जानना शुद्ध कभी नहीं जानते।
और जब भी हम कुछ जानते हैं तो उसे ऋषियों ने अशुद्ध ज्ञान कहा है; क्योंकि वह जो कुछ है, वह महत्वपूर्ण होता है, ज्ञान महत्वपूर्ण नहीं होता। आकाश में सूर्य को देखते हैं, सूर्य को जानते हैं, तो सूर्य महत्वपूर्ण होता है, जानना महत्वपूर्ण नहीं होता।
हमारा यह जो ज्ञान है, अगर सारे विषय हम से छीन लिए जाएं तो तत्काल खो जाएगा; क्योंकि विषय के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि यह ज्ञान हम पर निर्भर नही है, विषय पर निर्भर है। अगर सारे विषय अलग कर लिए जाएं और चारों तरफ शून्य हो तो हमारा ज्ञान खो जाएगा; क्योंकि हमने ऐसा कोई ज्ञान तो जाना ही नहीं है जो अपने में ही ठहरा हुआ हो; हमारा सारा ज्ञान वस्तुओं में ठहरा हुआ है-- ऑब्जेक्टसमें।
तो यह बिलकुल सीधा सा.. सीधा सा, स्पष्ट सा विचार है कि अगर सारे पदार्थ अलग कर लिए जाएं तो हमारा ज्ञान भी खो जाएगा। यह तो बड़े मजे की बात है. इसका अर्थ हुआ कि ज्ञान हममें निर्भर नहीं है, जो पदार्थ हम जानते थे उसमें निर्भर था। यह है हमारा ज्ञान।
जब ब्रह्म को ज्ञान कहता है ऋषि तो ऐसे ज्ञान से प्रयोजन नहीं है; क्योंकि जो ज्ञान पर-निर्भर हो, उसको ऋषियों ने अज्ञान कहा है। जो ज्ञान दूसरे पर निर्भर है, अगर ज्ञान के लिए भी मैं स्वतंत्र और मालिक नहीं हूं तो फिर और किस चीज के लिए स्वतंत्रता और मालकियत हो सकती है?
यह ज्ञान हमारे और -सारे अनुभवों के साथ जुड़ा हुआ है। हमारे सारे अनुभव इस ज्ञान जैसे ही हैं। कोई प्रेम करने को न हो तो क्या आप उस समय प्रेम के क्षण में हो सकते हैं? कोई प्रेमी न हो, तो क्या आप प्रेम कर सकते हैं? शायद आप सोचेंगे, कर सकते हैं; लेकिन आपको खयाल होना चाहिए, तब भी आप तभी कर सकेंगे जब चित्त में आप पहले प्रेमी की कल्पना कर लें, नहीं तो नहीं कर सकेंगे। वह कल्पना सहारा बनेगी फिर भी। आप अकेले होकर प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते हैं। तो ऐसा प्रेम भी क्या आपका स्वभाव होगा? ऐसा प्रेम भी दूसरे पर निर्भर हो गया।
इसलिए प्रेमी जिस बुरी तरह गुलाम हो जाते हैं इस जमीन पर और कोई गुलाम नहीं होता -हालांकि प्रेम से मिलनी चाहिए मालकियत, प्रेम से हो जाना चाहिए व्यक्ति परम स्वतंत्र, क्योंकि प्रेम तो बड़ी संपदा है। लेकिन उस संपदा को हम जानते ही नहीं। हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह प्रेम सदा दूसरे पर निर्भर होता है। वह इतना निर्भर हो जाता है दूसरे पर कि प्रेम गुलामी बन जाती है। और प्रेम स्वतंत्रता है। तो हमारा प्रेम, और जिस प्रेम को स्वतंत्रता कहते हैं जीसस या बुद्ध, उसमें कोई संबंध नहीं है।
फूल को देखते हैं तो हमें सौंदर्य का बोध होता है, सूरज को डूबते देखते हैं तो हमें सौंदर्य का बोध होता है; लेकिन हमने क्या कभी ऐसा सौंदर्य जाना है जो किसी वस्तु पर निर्भर न हो--सीधा, शुद्ध सौंदर्य हो? नहीं, हमने ऐसा कोई सौंदर्य नहीं जाना। हमारी सब अनुभूतियां पर-निर्भर हैं, और इन्हीं अनुभूतियों का हम जोड़ हैं।
तो हमारा कोई होना भी है, हमारा कोई व्यक्तित्व भी है, या हम केवल जोड़ हैं?... जोड़ अनुभवों के जो दूसरों पर निर्भर हैं। अगर फूल न खिलें तो हमारा सौंदर्य खो जाए, अगर वस्तुएं न, हों तो हमारा ज्ञान खो जाए, अगर प्रेम-पात्र न हो तो हमारा प्रेम खो जाए।
हममें जो भी है वह दूसरे से मिला है, हम बिलकुल उधार हैं। और इसीलिए हमें जीवन भर दूसरों की तरफ मोहताज होकर खड़ा रहना पड़ता है, क्योंकि डर लगा रहता है पूरे समय कि अगर दूसरे ने हाथ खींच लिया तो हम खिसके और गए!
जब आपका प्रेमी मरता है, तो जो आपको पीड़ा होती है वह प्रेमी के मरने की नहीं है, वह आपके प्रेम के मर जाने की है, क्योंकि बिना प्रेमी के आप कोई प्रेम तो जानते नहीं। जब आपसे धन छिनता है तो धन के छिनने की पीड़ा नहीं है, धन के छिनने के साथ ही आपका धनी होना छिन जाता है। अगर एक पंडित से उसकी किताब छीन लो तो किताब ही नहीं छिनती, पंडित का ज्ञान ही छिन जाता है। इसलिए पंडित अपनी किताब को अपने से भी ऊपर मान कर चलता है; अपने सिर पर रख कर चलता है। किताब के चरणों में सिर रखता है। किताब को पैर लग जाए तो घबडा जाता है। किताब पर इतना निर्भर है ज्ञान? तो यह ज्ञान ही नहीं है।
तो पहली बात तो यह कि हमारे सारे अनुभव उधार हैं.. हम ही उधार हैं। एक-एक अनुभव को हम खींच लें तो हम ऐसे ही समाप्त हो जाएंगे जैसे किसी मशीन से एक-एक पुर्जा अलग करते जाएं, थोड़ी देर में मशीन नदारद हो जाएगी। मशीन थी ही नहीं, सिर्फ जोड़ थी।
और जो व्यक्ति सिर्फ जोड़ है उसे उस आत्मा का कोई अनुभव नहीं होगा जो कि परम स्वतंत्र है।
तो जिस ज्ञान को ऋषि कहते हैं : ब्रह्म ज्ञान है, उस ज्ञान को हम समझें कि वह ज्ञान क्या है। तो पहली तो बात उस ज्ञान की यह है कि वह गेय पर निर्भर नहीं है, वह किसी वस्तु पर निर्भर नहीं है।
जब ज्ञान ज्ञेय पर निर्भर होता है तो ज्ञान एक संबंध होता है। और जब ज्ञान ज्ञेय पर निर्भर नहीं होता तो ज्ञान एक अवस्था होता है। अवस्था और संबंध का फर्क समझ लेना।
मैंने कहा कि मैं आपको प्रेम करता हूं। अगर आप नहीं हैं तो मेरा प्रेम खो जाएगा, क्योंकि मेरा प्रेम एक संबंध है, जिसमें दो का जुड़ना जरूरी है; दो हों तो बीच में प्रेम का संबंध जुड़ जाएगा; एक हट जहर तो संबंध तत्काल गिर जाएगा। हम नदी के एक किनारे पर थोड़े ही पुल खड़ाकर सकते हैं! दूसरा किनारा चाहिए। पुल केवल बीच का संबंध है।
लेकिन बुद्ध बैठे हैं एकांत में एक वृक्ष के तले, नहीं है कोई चारों तरफ--इस समय भी उनका प्रेम उतना ही है जब पास से हजारों लोग गुजरते हों। इस प्रेम में रत्ती भर भी भेद नहीं है। यह प्रेम संबंध नहीं है, यह बुद्ध की अवस्था है। यह प्रेमी से बंधा नहीं है, यह बुद्ध का स्वभाव है। यह प्रेम निर्जन में भी वैसा ही बरसता रहेगा जैसे अनजान-अपरिचित रास्ते पर, जहां कोई राही भी न गुजरता हो, कोई फूल खिले और उसकी सुगंध बरसती रहे। इसलिए नहीं कि कोई सुगंध लेने वाला गुजरेगा तब फूल की सुगंध घेरेगी। जैसे अंधेरे में एक दीया जले, कोई देखने वाला न हो और दीया जलता रहे, क्योंकि दीये के जलने का देखने वाले से कोई संबंध नहीं है, दीये का जलना उसका स्वभाव है।
हम पृथ्वी पर नहीं थे तब भी सूरज ऐसे ही चमकता था, और हम पृथ्वी पर नहीं होंगे तब भी ऐसा ही चमकता रहेगा, सूरज के उगने में हमारे देखने का कोई संबंध नहीं है, सूरज का चमकना उसका स्वभाव है।
बुद्ध जैसा व्यक्ति भी प्रेम से भरा है.. वही सच में प्रेम से भरा है, क्योंकि उसके प्रेम को छीना नहीं जा सकता; वह अकेला भी उतना ही प्रेमपूर्ण है। यह प्रेम सेतु नहीं है, संबंध नहीं है, यह प्रेम चित्त की अवस्था है; यह चैतन्य की अवस्था है।
जब ब्रह्म को कहा ज्ञान, या परम आत्मा को कहा ज्ञान तो उसका अर्थ है कि ज्ञान स्वभाव है; वह कोई संबंध नहीं है। इसलिए ऋषि कहता है:
''उत्पत्ति और विनाश से रहित नित्य चैतन्य को ज्ञान कहते हैं। ''
संबंध तो उत्पन्न होता है और विनष्ट होता है, सिर्फ स्वभाव उत्पन्न नहीं होता और विनष्ट नहीं होता।
मैं आपको प्रेम करता हूं कल नहीं करता था, आज करता हूं। जन्मा प्रेम। और बड़ा पागलपन तब पैदा होता है जब हम किसी जन्मी हुई चीज को शाश्वत बनाना चाहते हैं। तब पागलपन हो जाता है। जन्मी चीज तो मरेगी ही.. जिस दिन जन्मी उसी दिन जान लेना था कि मरेगी। जिस दिन हम जन्म के बैंड-बाजे बजाते हैं, उसी दिन अरथी उठने की तैयारी हो जाती है। समय का फासला थोड़ा लगेगा। फूल खिल रहा है.. तभी उसके गिरने की शुरुआत हो गई; झड्ने की शुरुआत हो गई।
जन्म के साथ तो मृत्यु बंधी है; जन्म है एक छोर, मृत्यु है दूसरा छोर। तो जो प्रेम जन्मता है वह मरेगा भी; और जिसकी उत्पत्ति होगी उसका विनाश भी हो जाएगा। जो ज्ञान पैदा होता है... और जान पैदा होता है। आख खोली, सामने फूल खिला हुआ दिखाई पड़ा--ज्ञान हुआ कि फूल है, सुंदर है, सुगंधित है--यह जन्म हुआ। यह ज्ञान भी मरेगा। यह फूल भी मरेगा, यह ज्ञान भी मरेगा।
ब्रह्म तो ऐसा ज्ञान होगा, जो न जन्मता है और न मरता है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह ज्ञान किसी वस्तु के संदर्भ में नहीं होगा, वह ज्ञान स्वभाव ही होगा; वह सदा से ही होगा।
झेन फकीर अपने साधकों को कहते हैं कि अपने ओरिजिनल फेस, अपने मौलिक चेहरे की खोज करो। जब तुम जन्मे नहीं थे तब तुम्हारा चेहरा कैसा था, और जब तुम मर जाओगे तब तुम्हारा चेहरा कैसा होगा? इस पर ध्यान करवाते हैं।
बड़ा कठिन है! क्या सोचिएगा? क्या ध्यान करिएगा? ध्यान करवाते हैं इसीलिए ताकि इसको सोचते-सोचते सोचना-विचारना बंद हो जाए; क्योंकि जो चीज नहीं सोची जा सकती, अगर उस पर सोचेंगे तो एक घड़ी आ जाएगी जब सोचना बंद हो जाएगा।
झेन फकीर कहते हैं, एक हाथ की ताली कैसे बजेगी, इस पर ध्यान करो। एक हाथ की ताली तो बज नहीं सकती; पर वे कहते हैं, इसी पर ध्यान करो। अगर साधक कहता है, यह तो बज ही नहीं सकती, तो वे कहते हैं, तुम इसकी फिकर छोड़ो कि बज सकती है कि नहीं बज सकती है, तुम पहले कोशिश करो, हम कहते हैं कि बज सकती है। तुम पहले कोशिश करो, ध्यान करो.. महीनों। इस बिलकुल फिजूल सी बात पर ध्यान करवाते हैं कि एक हाथ की ताली बज सकती है.. कैसे बजेगी? नहीं का तो सवाल ही नहीं है।
साधक लौट-लौट कर आता है और कहता है कि चौबीस घंटे हो गए.. नहीं बज सकती। गुरु कहता है : इसकी तुम फिकर ही मत करो कि नहीं बज सकती; मैं पूछता हूं :

कैसे बज सकती है? तुम जाओ और ध्यान करो।
महीनों बीत जाते हैं... सिर चकराने लगता है, बुद्धि घूमने लगती है, विचार काम नहीं आते, सब ठप्प हो जाता है भीतर--सोचते... सोचते... सोचते... और यह बिलकुल पागलपन मालूम पड़ने लगता है--एक घड़ी आती है कि इतना स्पष्ट हो जाता है कि इस दिशा में सोचना असंभव है। और सोचना एक क्षण को भी बंद अगर हो जाता है तो वह साधक भागा हुआ आता है और वह कहता है : ताली बज गई; क्योंकि जैसे ही विचार बंद होता है वैसे ही स्वभाव का दर्शन हो जाता है।
खोजो अपना चेहरा जो जन्म के पहले था। वह नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि जन्म के पहले कोई चेहरा ही नहीं था। जन्म ही तो चेहरे को जन्म देता है। और मृत्यु के बाद कोई चेहरा नहीं होगा, क्योंकि मृत्यु चेहरे को छीन लेती है। सोचो! सोचते... सोचते... सोचते घडी आती है कि सोचना टूट जाता है, श्रृंखला बंद हो जाती है; और तब जो दिखाई पड़ता है वही मौलिक चेहरा है; वही ओरिजिनल फेस है--वह स्वभाव, वह स्वरूप जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा।
'जो उत्पत्ति को नहीं, विनाश को नहीं उपलब्ध होता, उस नित्य चैतन्य को ज्ञान कहा है।'
तो यहां ज्ञान का संबंध चैतन्य से है, जानने से नहीं; क्योंकि जानी तो सदा कोई चीज जाती है। यहां ज्ञान से हम अर्थ लें चैतन्य का, बुद्धत्व का।
'ज्ञान' शब्द तो हमारा विकृत हो गया है, क्योंकि हम उसे सदा किसी और चीज के जानने से बांधते हैं। अगर आपके बाबत कोई कहे कि बहुत बड़े ज्ञानी हैं तो कोई फौरन पूछेगा. किस बात के? अगर आप कहें, नहीं किसी बात के नहीं हैं, बस इतनी हैं। तो कोई भरोसा नहीं करेगा कि यह क्या मतलब हुआ? क्या जानते हैं? चिकित्साशास्त्र के ज्ञानी हैं कि अर्थशास्त्र के ज्ञानी हैं कि दर्शनशास्त्र के ज्ञानी हैं कि धर्मशास्त्र के ज्ञानी हैं? आप कहें कि नहीं, वे बस ज्ञानी हैं, तो बात बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ेगी, क्योंकि ज्ञान सदा हम किसी चीज का बांधते हैं; किसी से जोडते हैं ज्ञान को।
इस ज्ञान से ब्रह्म को दी गई परिभाषा वाले ज्ञान का संबंध नहीं है। वह ज्ञान है उत्पत्ति- विनाश से रहित नित्य चैतन्य। ' चैतन्य ' ठीक शब्द है उस ज्ञान के लिए... अवेयरनेस, या उससे भी बेहतर होगा. अलर्टनेस; क्योंकि अवेयरनेस में भी ऐसा लगता है किसी चीज के बाबत हम बंधे हुए हैं। अलर्टनेस... सिर्फ बोधमात्र। दीया जल रहा है, कोई चीज प्रकाशित नहीं हो रही है; सिर्फ दीया जल रहा है-- आस-पास कुछ भी नहीं है जिस पर प्रकाश पड़े। प्रकाशित कुछ भी नहीं हो रहा, बस प्रकाश है। उदाहरण के लिए कह रहा हूँ ताकि खयाल में आ जाए कि उस ज्ञान का क्या अर्थ है।

'' मिट्टी से बनी हुई वस्तुओं में मिट्टी की तरह, सोने से बनी हुई वस्तुओं में सोने की तरह और सूत से बनी हुई वस्तुओं में सूत की तरह समस्त सृष्टि में पूर्ण और व्यापक बना हुआ जो चैतन्य है, वह अनंत कहलाता है। ''
और यह जो चैतन्य है, यह व्यक्ति की सीमा में आबद्ध नहीं है। हम यहां बैठे हैं इतने लोग; हमारा इतना भिन्न- भिन्न होना हमारे शरीरों के कारण है, हमारे चैतन्य के कारण  नहीं। एक कमरे में हम हजार दीये जला दें तो हजार दीयों में जो फर्क होगा वह मिट्टी के दीये, तेल, बाती के कारण होगा--लेकिन कमरे का जो प्रकाश है वह तो एक होगा। हजार दीये हमने जलाए एक कमरे में--हर दीया अलग है, क्योंकि मिट्टी का ढंग, आकार अलग है; हर दीये का तेल अलग है, हर दीये की बाती अलग है, लेकिन क्या कमरे में आप फर्क कर पाएंगे कि कौन से दीये का प्रकाश कौन सा है? प्रकाश तो एक होगा, व्यापक होगा-- दीये अलग, प्रकाश एक होगा।
हमारा भी जो भेद है वह दीयों का भेद है। शरीर की माटी अलग, आकृति अलग, शरीर में पडा हुआ ईंधन अलग, शरीर की बाती अलग, लेकिन वह जो चैतन्य है, वह जो प्रकाश है हम सबके भीतर वह एक है। जितने हम भीतर जाएंगे उतने हम ऐक्य को उपलब्ध होते चले जाते हैं और जितने हम बाहर आएंगे उतनी अनेकता को उपलब्ध होते चले जाते हैं।
तो ऋषि कहता है ' सोने में सोने की तरह, मिट्टी में मिट्टी की तरह है, लेकिन जो समाया है वह एक ही है। ' अब तो वैज्ञानिक भी इस बात के लिए राजी होंगे। आज से पचास साल पहले राजी नहीं होते थे, क्योंकि विज्ञान कहता था, एक चीज दूसरी में नहीं बदली जा सकती। और जो ऐसा मानते थे, बदली जा सकती है, वे सिर्फ नासमझ समझे जाते थे। पश्चिम में उस तरह के लोग कहे जाते थे : अल्केमिस्ट। पूरब में भी उस तरह के खोजी थे जिनको हम पारस- पत्थर के खोजी कहते थे। वे एक ऐसे पत्थर की तलाश मे लगे थे वे लोग... कि लोहे को छू दो तो सोना हो जाए। अल्केमिस्ट भी इस खोज में लगे थे कि कोई ऐसा राज मिल जाए कि कम कीमती धातुएं बहुमूल्य धातुओं में बदली जा सकें।
लेकिन विज्ञान पिछले दो सौ साल से कह रहा है कि यह सब पागलपन है, यह हो नहीं सकता। मिट्टी कैसे सोना हो सकती है? कोई उपाय नहीं दिखता। और जो भी इस तरह की बातें करते हैं, वे या तो नासमझ हैं, या चालाक हैं, और लोगों को धोखा देते हैं।




अगर वे लोहे को सोना भी बनाते हैं तो उसमें कोई तरकीब है। लोहा तो सोना बन नहीं सकता; वह किसी तरह का धोखा और चकमा है।
यहां तक घटनाएं घटीं कि वास्तविक प्रमाण उपलब्ध हो गए, लेकिन फिर भी भरोसे योग्य नहीं समझे जा सके। जर्मनी के एक बहुत बड़े विचारक और वैज्ञानिक, जो कि वर्षों से इस खोज में लगा था कि अल्केमी सरासर झूठ मालूम होती है, एक दिन सुबह बैठा है अपने द्वार पर--हेजन होफ उसका नाम है--और एक आदमी आया और उसने कहा कि मैंने सुना है कि तुम अल्केमी में विश्वास नहीं करते, लेकिन मैं यहीं इसी वक्त लोहे को सोना बना सकता हूं। हेजन होफ ने कहा कि.. मजेदार आदमी मालम पड़ते हो, लेकिन लोहा सोना नहीं बन सकता। या तो दिमाग तुम्हारा खराब है, क्योंकि मैं वर्षों से अध्ययन कर रहा हूं यह असंभव है।
उस आदमी ने कहा अगर मैं बनाऊंगा तो शायद तुम्हें भरोसा न हो। उसने एक छोटी सी डिब्बी खोली और कहा, इसमें जो चीज रखी है, इसके जरा से स्पर्श से लोहा सोना हो जाएगा।
हेजन होफ ने भरोसा ही नहीं किया कि यह आदमी बिलकुल पागल है। लोहा कैसे सोना.. और वह वर्षों से अध्ययन कर रहा है अल्केमी का। फिर भी उसने हाथ फिरा कर उस चीज को देखा, और अपने नाखून में थोड़ा सा खरोंच लिया। और उस आदमी से कहा कि तुम कल आ जाओ, मैं पूरा प्रयोग का इंतजाम करके रखूंगा ताकि कोई धोखा धड़ी न हो सके। और मैं लोहा बुला कर रखूँगा और सोने के पारखियों को बुला कर रखूंगा ताकि कल जांच हो जाए।
वह आदमी कल नहीं आया, लेकिन हेजन होफ हैरान हुआ और जिंदगी भर रोया, क्योंकि नाखून से उसने लोहे को छुआ और वह सोना हो गया। वह जितनी थोड़ी सी उसने खरोंच ले ली थी, वह आदमी दुबारा तो नहीं आया। लेकिन वह जो थोड़ा सा खरोंच लिया था, उससे लोहा सोना हो गया।
हेजन होफ ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मैं जन्मों-जन्मों तक अब उसकी राह देखूंगा उस आदमी की.. लेकिन बड़ी मुश्किल हो गई। अगर धोखा भी है तो अदभुत है। और अब तो धोखे का कोई उपाय भी नहीं है, क्योंकि वह खरोंच मेरे ही पास थी। और मैंने अपना ही लोहा सोना किया और शुद्धतम सोना बन गया है। सारी परीक्षाएं हो गईं। और लोग हेजन होफ पर शक करने लगे कि यह बेईमानी कर रहा है। इसकी कोई मानने को तैयार नहीं, क्योंकि अब यह भी क्या सिद्ध करे? और यह बोला कि मैं भी नहीं मान सकता हूं घटना हो गई है। लेकिन अब मेरी भी कोई मानने को तैयार नहीं है। और लोगों ने लिखा कि हेजन होफ अल्केमी का अध्ययन करते-करते दिखता है पागल हो गया। इसने अपने को ही धोखा दे लिया है। आदमी ईमानदार है, सिसिंयर है, इस पर शक नहीं करना चाहिए। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि यह खुद ही धोखे में पड गया पढ़ते-पढ़ते दिमाग इसका विभ्रम हो गया। इतना शुद्धतम सोना!
लेकिन इधर बीस वर्षों में विज्ञान इस नतीजे पर पहुंच गया है कि इसमें कोई मौलिक कठिनाई नहीं है। अल्केमिस्ट जो खोजते थे, शायद ठीक ही खोजते थे। पारस-पत्थर की तलाश करने वाले शायद ठीक ही खोजते थे, क्योंकि अब विज्ञान का निर्णय यह है कि प्रत्येक वस्तु एक ही तरह के परमाणुओं से बनी हुई है.. सिर्फ परमाणुओं की मात्रा का भेद है। किसी में सौ--अनुमान कर लें--मात्रा है, तो किसी में एक सौ एक। परमाणु वही हैं-- मौलिक परमाणु जिससे वस्तुएं बनी हैं--इलेक्ट्रांस एक ही हैं।
तो अगर हम किसी भी तरह से एक सौ एक परमाणु वाली वस्तु में से एक परमाणु अलग कर दें, तो सौ परमाणु वाली वस्तु में वह रूपांतरित हो जाएगी।
सोने और लोहे में जो फर्क है, वह स्वभाव का नहीं है; सोने और लोहे में जो फर्क है वह मात्रा का है। अगर लोहे से हम कुछ परमाणु अलग कर लें तो लोहा तत्काल सोना हो जाएगा। या हम सोने में कुछ परमाणु जोड़ दें तो सोना तत्काल लोहा हो जाएगा।
विज्ञान अपनी तलाश से पदार्थ की उस गहराई में पहुंचा है जहां उसका अनुभव है कि पदार्थ का स्वभाव एक है, रूप अलग हैं। वह जो स्वभाव है उसे वह कहता है, वह विद्युत है; वह एक सी है सभी पदार्थों में। हालांकि विज्ञान अभी ऐसी विधि नहीं खोज पाया, जिससे लोहे को हम सोना बनाएं तो वह सस्ता पड़े। वह वास्तविक सोने से बहुत महंगा पड़ेगा, क्योंकि वह परमाणुओं को अलग करना बहुत महंगी प्रक्रिया है--अभी। लेकिन आज नहीं कल, हम कोई सस्ती प्रक्रिया खोज लेंगे, वह दूसरी बात है; उससे कोई संबंध नहीं है। और नहीं भी सस्ती खोज सकेंगे तो एक बात तय है कि लोहा सोना बन सकता है।
कोई भी वस्तु किसी दूसरी वस्तु में परिवर्तित हो सकती है; दूसरी वस्तु में ही नहीं, वस्तु ऊर्जा में परिवर्तित हो सकती है। वही एटामिक एनर्जी का रहस है.. वस्तु को शक्ति में परिवर्तित करना; तो अणु विस्फोट हो जाता है। और एक छोटा सा अणु जब विस्फोट होता है, तो विराट ऊर्जा पैदा होती है।
उपनिषद के ऋषि सदा से यह कहते रहे हैं कि व्यक्ति के भीतर भी जो चैतन्य का अणु है, वह अलग-अलग नहीं है, वह एक ही है--ऊपर के रूप अलग हैं, भीतर जो चेतना है वह एक है।
तो जैसे ही हम भीतर अपने में जाते हैं.. हम अपने के बाहर जाते हैं.. जैसे ही जितने भीतर हम प्रवेश करते हैं, उतने ही हम मिटते जाते हैं और विराट होता चला जाता है। ठीक अपने ही केंद्र पर अपनी मौत हो जाती है। ठीक अपने ही भीतर प्रवेश करना अपनी ही मृत्यु में समा जाना है; क्योंकि हम तो खो जाएंगे.. व्यक्ति की, दीये की तरह हम खो जाएंगे, प्रकाश की तरह हम रह जाएंगे।
वह प्रकाश असीम है।
'वह सोने में सोने की तरह है, मिट्टी में मिट्टी की तरह है, सूत में सूत ही तरह है; और समस्त सृष्टि में व्यापक जो बना है, उसी चैतन्य को हम अनंत कहते हैं।'
अनंत इसलिए कि सीमाओं में वह है जरूर, लेकिन सीमित नहीं है; सोने में है जरूर, लेकिन सोने पर समाप्त नहीं है; आपमें है जरूर, लेकिन आप पर समाप्त नहीं है--फैलता चला जाता है, फैलता चला जाता है; वह फैला ही हुआ है। वह व्यापक है।
हम ऐसा समझें कि हम एक विराट सागर में मछलियों की भांति हैं। मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही समाप्त हो जाती है; सागर के जल सेही निर्मित होती है, सागर के जल में ही विसर्जित हो जाती है। लेकिन जब मछली होती है तो बिलकुल व्यक्ति होती है; फिर सागर में ही खो जाती है... और सागर से ही निर्मित होती है--सागर ही है। या मछली को थोड़ा समझना कठिन मालूम पड़े, तो ऐसा समझें कि सागर में बर्फ की एक चट्टान तैर रही है। बिलकुल अलग मालूम होती है। सिर उठाए रहती है। पानी से सब तरह से अलग मालूम होती है--ठोस है, सब है, लेकिन फिर भी सागर है... और जैसे ही पिघलेगी, लीन हो जाएगी।
इस पिघलने की प्रक्रिया को ही हम अहंकार का छोड़ना कहते रहे हैं। जैसे-जैसे हम पिघलते हैं, अहंकार बिखरता है, विराट सागर में एक हो जाते हैं।
चट्टान बर्फ की कितना ही अपने को भिन्न समझे, भिन्न नहीं है। हमारी भिन्नता हमारा अज्ञान है; और हमारा ज्ञान हमारी अभिन्नता की घोषणा हो जाता है।
इस अनंत, व्यापक को ब्रह्म कहा है। ' ब्रह्म' शब्द बहुत कीमती है; इसका अर्थ होता है, केवल परम विस्तार; ब्रह्म का अर्थ होता है. परम विस्तार। ' विस्तार' और ' ब्रह्म' एक ही शब्द से बने हैं। ब्रह्म का अर्थ है : जो विस्तीर्ण होता चला गया है; जो फैलता ही चला गया है; जो फैला हुआ है; जिसके फैलाव की कोई सीमा नहीं है।
ब्रह्म जैसा कोई शब्द दुनिया की दूसरी भाषा में नहीं है। ब्रह्म का अनुवाद नहीं हो सकता। ईश्वर, गॉड, ब्रह्म से कोई मतलब नहीं रखते।.. कोई मतलब नहीं रखते! इसलिए शंकर ने तो यहां तक कहने की हिम्मत की है कि ईश्वर भी माया का हिस्सा है-- ईश्वर भी। क्योंकि उसकी भी आकृति और रूप है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश.. सबकी आकृतियां और रूप हैं; वे भी माया के हिस्से हैं। जहां आकृति है, जहां रूप है, वहां माया है। उनके भी पार जो अरूप है, वह ब्रह्म है; वह सिर्फ विस्तार का नाम है-- अनंत विस्तार का... जो सबमें फैला हुआ है और कहीं रुकता ही नहीं, फैलता ही चला जाता है... इसलिए अनंत।

''जो सुखमय चैतन्य-स्वरूप है, अपरिमित आनंद है, शेष रहे सुख का स्वरूप है, इसलिए उसे आनंद कहते हैं। '' इसे समझना होगा।
'जो सुखमय चैतन्य स्वरूप है ' जब भी हमें सुख का अनुभव होता है तब हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि मैं सुख हूं ऐसा अनुभव होता है कि मैं हूं कुछ जिस पर सुख आया। सुख एक घटना होती है, स्वभाव नहीं, क्योंकि जो स्वभाव है उसे हम खो नहीं सकते लेकिन सुख तो खो जाता है। आज सुख है सुबह, सांझ दुख हो जाता है।
सुख आता है, दुख आता है--मेरे ऊपर आते हैं; मेरे ऊपर घटित होते हैं और विदा हो जाते हैं। वे घटनाएं हैं। तो जब ब्रह्म को सुख-स्वरूप कहा तो उसका अर्थ है कि ब्रह्म के लिए सुख घटना नही है, स्वभाव है; वह सुख में ही है... या सुख ही है। सुख जब स्वभाव होता है तब हम उसे आनंद कहते हैं।
और आनंद जब केवल एक घटना होती है तब हम उसे सुख कहते हैं। घटना का अर्थ है : विजातीय, फॉरेन। वह हमसे बाहर से होती है, बाहर ही होती है, हमारे घर के बाहर ही घटती है। हम कभी उससे एकात्म नहीं हो सकते--चाहे हम अपने को कितना ही समझें कि एकात्म हैं; हम कभी उससे एकात्म नहीं हो सकते।
डायोजनीज एक यूनानी फकीर नग्न घूमता था। किसी ने डायोजनीज से पूछा कि तुमने कपड़े क्यों छोड़ दिए? डायोजनीज ने कहा कि मैंने पकड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन पकड़ नहीं पाया इसलिए छोड़ दिए। बहुत कोशिश की कि कपड़ों को पकड़ लूं और कपड़ा हो जाऊं--नहीं हो पाया। फिर मैंने सोचा कि जो चीज मैं हो ही नहीं सकता, बाहर की ही घटना रह जाती है, उसे छोड़ ही दूं। नग्नता मेरा स्वभाव है, डायोजनीज ने कहा, और कपड़े ऊपर से थे--ऊपर भले कपड़े थे लेकिन भीतर मैं नग्न ही था।
कपड़ों के भीतर सभी नंगे हैं; कोई उपाय नहीं। तो कपड़े भला दूसरे की आख को धोखा दे जाते हों कि आप नग्न नहीं हैं लेकिन आपको तो धोखा नहीं दे पाते। लेकिन हमें भी दे देते हैं, यही खूबी है। आदमी कपड़ों के भीतर खुद को भी ऐसा समझता है कि अब मैं नग्न नहीं हूं। लेकिन कपड़े बाह्य घटना है।
तो डायोजनीज कहता है कि पकड़ने की बहुत कोशिश की, आखिर में पाया कि पकड़ ही नहीं पाता हूं वे छूटे ही रह जाते हैं, बाहर ही रह जाते हैं। कोई उपाय अपना बना लेने का नहीं है। तो जो अपना हो ही नहीं सकता उसको अपना मानने की भी क्या जरूरत है? इसलिए छोड़ दिए हैं।
डायोजनीज पड़ा है एक रास्ते के किनारे और सिकंदर हिंदुस्तान आ रहा है। तो डायोजनीज से मिलता है और डायोजनीज से कहता है बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हो, बड़े आनंदित मालूम पड़ते हो, लेकिन तुम्हारे पास कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं, जिसके कारण तुम आनंदित हो।
क्योंकि सिकंदर सोच ही नहीं सकता कि अकारण कोई आनंदित हो सकता है। अकारण कैसे आनंदित होइएगा? हालांकि ऋषि कहते हैं, जिस दिन अकारण आनंद है, उसी दिन आनंद है। लेकिन हमारा तर्क कहता है, कुछ है तो नहीं तुम्हारे पास--कोई पत्नी नहीं, कोई बच्चा नहीं, कोई धन नहीं, कोई महल नहीं, कोई सुख-सुविधा नहीं--नंगे पड़े हो रेत पर सड़क के किनारे; बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हो! कारण क्या है?
तो डायोजनीज ने कहा. जब तक कारण से मैं प्रसन्न होता रहा तब तक प्रसन्न नहीं हो पाया। फिर मैंने सोचा कि कारण छोड़ कर देखूं. सब छोड़ कर देखूं; और उस प्रसन्नता को खोजूं जो अकारण हो; क्योंकि फिर वह मुझसे छीनी न जा सकेगी।
जिस चीज का कारण है वह छीना जा सकता है, क्योंकि कारण छीना जा सकता है। एक स्त्री है, उसके कारण मैं सुखी हूं स्त्री कल मर सकती है.. मरेगी; छीनी जा सकती है.. न मरे, न जाए कहीं, तो भी मेरे लिए खो जा सकती है; संबंध ही टूट जा सकता है। सुख खो जाएगा। धन आज है, कल नहीं होगा, सुख खो जाएगा। और हो भी तो भी खो जाएगा, क्योंकि जो सदा होता है उसमें सुख नहीं रह जाता।
जहां कारण है वहां सुख छिन जाएगा। कारण से पैदा हुआ सुख क्षणभंगुर होगा। लेकिन अकारण कोई सुख हो सकता है? उसी अकारण सुख को हम आनंद कहते हैं।
अकारण आनंद का अर्थ यह हुआ कि आनंद बाहर से नहीं आता, भीतर से आता है। सकारण आनंद का अर्थ हुआ कि आनंद बाहर से आता है। इसलिए बाहर निर्भर रहना पड़ता है, मोहताज रहना पड़ता है। कोई भी छीन सकता है। कोई भी छीन सकता है; कभी भी छीन सकता है। बाहर पर मेरी क्या मालकियत?
लेकिन एक और आयाम भी है : आनंद भीतर से बाहर जाता है। धारा बदल जाती है पूरी। कृष्ण की प्रेयसी का नाम है, राधा। वह धारा का उलटा है। यह बहुत मजे की बात है इस नाम के साथ, क्योंकि कृष्‍ण के जीवन में कहीं भी राधा का कोई उल्लेख नहीं है--कोई उल्लेख ही नहीं है.. शब्द का भी नहीं। किसी प्राचीन शास्त्र में राधा उल्लखित नहीं है;
राधा का कोई प्रसंग ही नहीं है। बहुत बाद में... बहुत बाद में-- अभी- अभी कहना चाहिए--मध्य-युग में राधा का जन्म हुआ; यह राधा जुड़ना शुरू हुआ।
ऐसा जरूर उल्लेख है कृष्ण के जीवन में कि कोई एक सखी है, लेकिन अनाम। अनाम सखी का उल्लेख है। उसका कोई नाम नहीं है। जान कर ही नाम नहीं है; क्योंकि नाम-रूप के बाहर ही वह सखी हो सकती है। उसके रूप की भी कोई चर्चा नहीं है; उसका कैसा चेहरा-मोहरा है, कुछ भी नहीं--नाम भी नहीं, चेहरा-मोहरा भी नहीं। उसको ही बाद में मध्य-युग के संतों ने राधा कहा। और राधा जान कर कहा, क्योंकि वह धारा का उलटा रूप है।
एक आनंद की धारा है जो बाहर से भीतर की तरफ आती है; वह धारा है। और जब आनंद भीतर से बाहर की तरफ जाता है तब वह राधा हो जाता है। और कृष्ण ऐसी ही राधा को प्रेम कर सकते हैं, जो भीतर से बाहर की तरफ जाती हुई... बाहर से भीतर की तरफ आती हुई का कृष्ण से कोई संबंध नहीं हो सकता। तो यह तो... आनंद जब भीतर से बाहर की तरफ जाने लगे, राधा बन जाए, तब आप ऐसी सखी को उपलब्ध हुए जिसे खोने की अब जरूरत नहीं पड़ेगी; जिसे नहीं खोजा जा सकता है।

'' सुखमय चैतन्य स्वरूप है उसका। अपरिमित आनंद का सागर है वह। और शेष रहे सुख का स्वरूप है। ''
जब सब छूट जाए--सब, जिससे सुख मिलता था, जब सब छूट जाए और फिर भी सुख शेष रह जाए, वही सुख उसका स्वरूप है। ऐसे स्वरूप को 'आनंद ' कहा है।
हम तो आनंद को जानते ही नहीं, हमें आनंद का कोई पता ही नहीं है, क्योंकि आनंद का तो पता ही तब चलेगा जब धारा राधा हो जाए; जब एक बिलकुल नया आयाम हमारे भीतर प्रकट हो।
तो डायोजनीज कहता है कि मैं आनंदित हूं क्योंकि मैं आनंद हूं; मैं इसलिए आनंदित नहीं हूं कि मेरा कोई कारण है। सिकंदर का भी मन ईर्ष्या से भर जाता है। और यही इस दुनिया में परम घटना है... जब कभी किसी एक भिखारी को देख कर और सम्राट का मन ईर्ष्या से भर जाता है। और सिकंदर भी कहता है कि अगर दुबारा मुझे जन्म मिले तो मैं सिकंदर नहीं, डायोजनीज होना चाहूंगा; इसी आनंद की तो मुझे भी तलाश है। तो डायौजनीज कहता है, तलाश है? तलाश से कभी न पा सकोगे। रुको; यहां जगह काफी है; तुम भी मेरे पड़ोस में विश्राम करो; हम बिना कहीं गए इसे पा लिए हैं-- यहीं; तुम कहां भागे चले जाते हो? और जगह यहां काफी है; तुम भी लेट जाओ।
सिकंदर ने कहा : अभी तो बहुत मुश्किल है; अभी तो मैं एक विजय-यात्रा पर निकला हूं। तो डायोजनीज ने कहा कि विजय-यात्रा पर जो निकला है उसे अभी मुश्किल नहीं है, सदा ही मुश्किल होगा; क्योंकि विजय की यात्रा दुख की खोज है। अगर जीतना ही है तो अपने को जीत लो, दूसरे को जीतने में अपनी हार है; दूसरे को जीतते जाने में आदमी भीतर हारता ही चला जाता है। आखिर में सिवाय पराजय के कुछ हाथ नहीं लगता है। दूसरे को छोड़ो, क्योंकि दूसरे के साथ आतरिक हार ही घटित होती है; अपने को ही जीत लो, अपने को ही जान लो।
सिकंदर ने कहा : लौटते में तुम्हारे पास थोड़ी देर फिर रुला। डायौजनीज ने कहा कि तुम शायद ही लौट सको; क्योंकि अभी इस क्षण को खो रहे हो--इस क्षण को जो कि निश्चित अभी है मौजूद; उस क्षण का विचार कर रहे हो जो अभी मौजूद नहीं!
और भाग्य की बात, सिकंदर वापस नहीं लौट सका; यह विजय-यात्रा में बीच में ही उसकी मृत्यु हो गई भारत से लौटते वक्त।
कोई विजय-यात्रा कभी पूरी नहीं होती, मौत बीच में ही हो जाती है। बहुत हम विजय-यात्राएं कर चुके अनेक- अनेक जन्मों में.. हर बार विजय-यात्रा अधूरी रह जाती है, मौत आ जाती है, फिर हम विजय-यात्रा को पूरा करने निकल जाते हैं, वही कभी पूरी नहीं होती, मौत बार-बार आ जाती है।
एक ही विजय पूरी हो सकती है, और एक ही आनंद उपलब्ध हो सकता है... और वह वह आनंद है जो हमें बाहर से नही मिल सकता--न मिलता है, न कभी मिला है, लेकिन भीतर इसी क्षण उपलब्ध है।
आज इतना ही।
अब हम ध्यान के लिए कोशिश करें।...




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