शरीर का तिरस्कार करने वालों की बातें—(पांचवां—प्रवचन)
प्यारे
ओशो,
तुम
कहते हो मैं तुम्हें
गर्व है इस
शब्द पर।
लेकिन उससे भी
बढ़कर महान —
यद्यपि तुम इस
बात पर यकीन
नहीं करोगे —तुम्हारा
शरीर है और
उसकी महत
बुद्धिमत्ता
जो 'मैं कहता
नहीं बल्कि 'मैं' का
कृत्य करता है।
इंद्रिय
जो महसूस करती
है मन को जो
बोध होता है
वह कभी भी
अपने आप में
लक्ष्य नहीं
है। लेकिन
इंद्रिय और मन
तुम्हें
फुसलाना
चाहेंगे कि वे
ही सब बातों के
लक्ष्य हैं :
वे इतने ही
निरर्थक हैं।
इंद्रिय और मन
उपकरण और
खिलौने हैं :
उनके भी पीछे
प्रशांत पड़ी
आत्मा है।
आत्मा
इंद्रिय की
आखों से खोज
करती है वह मन
के कानों से
सुनती भी है।
आत्मा
सदा ही सुन
रही व खोज रही
होती है : वह
तुलना करती है
वश में करती
है विजय करती
है नष्ट करती
है। वह शासन
करती है और
अहंकार की भी
शासक है।
तुम्हारे
विचारों और
भावों के पीछे
मेरे बंधुओ एक
महान
शक्तिशाली
नियंता है? एक
अज्ञात संत —
वह आत्मा
कहलाता है। वह
तुम्हारे
शरीर 'में
रहता है वह
तुम्हारा
शरीर है।
.........ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
दुनिया
के महान
शिक्षकों के
बीच
जरथुस्त्र
अकेले हैं जो
शरीर के खिलाफ
नहीं हैं,
बुद्धि' शरीर
के पक्ष में '। सारे अन्य
शिक्षक शरीर
के खिलाफ हैं
और उनका तर्क
यह है कि शरीर
बाधा है आत्मा
के विकास में,
शरीर
व्यवधान है
तुम्हारे और
दिव्य के बीच।
यह निरी
मूर्खता है।
जरथुस्त्र
संभवत: मनुष्य
द्वारा जाने
गये सर्वाधिक
स्वस्थचित्त
शिक्षक हैं।
किसी प्रकार
की मूर्खता से
उनका कुछ
संबंध न बनेगा; उनकी
दृष्टि
व्यावहारिक व
वैज्ञानिक है।
और शरीर की
शिक्षा
देनेवाले वह
प्रथम हैं, मानवता को
यह शिक्षा
देनेवाले कि
जब तक तुम
शरीर को प्रेम
नहीं करते, और जब तक तुम
शरीर को समझते
नहीं, तुम्हारा
आध्यात्मिक
विकास नहीं हो
सकता। शरीर
तुम्हारी
आत्मा का
मंदिर है।
वह
तूम्हारे
सारे जीवन
तुम्हारी
सेवा करता है
बिना बदले में
कुछ मांगे। और
उसकी निंदा करना
घृणित बात है, क्योंकि
शरीर के ये
सारे निंदक
शरीर से ही
पैदा हुए हैं।
वे शरीर की
निंदा भी शरीर
के जरीए ही कर
रहे है। वे अपना
जीवन शरीर के
जरीए ही जी
रहे हैं, और
फिर भी
मनुष्यजाति
ने एक बहुत ही
खतरनाक
विचारधारा स्वीकृत
कर ली है : शरीर
और आत्मा के
बीच विभाजन — न
केवल विभाजन
बल्कि उनकी
विपरीत
ध्रुवीयता, कि या तो तुम्हे
शरीर चुनना है
या आत्मा
चुनना है। यह
एक और बड़े
चिंतन का
हिस्सा है.
पदार्थ और चेतना।
शरीर पदार्थ
है और आत्मा
चेतना है। और
ये सारे शरीर—निंदक,
शरीर—तिरस्कर्ता
एक ही आदर्श
पर एकाग्र हो
गये हैं, कि
जगत दो चीजों
झे मिलकर बना
है : पदार्थ और
चेतना।
लेकिन
अब हम जानते
हैं,
न केवल तर्क
से, न केवल
अनुभव से, बल्कि
वैज्ञानिक
प्रमाण से भी,
कि केवल एक
ही सत्ता है; चाहे तुम
उसे पदार्थ
कहो अथवा
चेतना कहो, भेद नहीं
पड़ता। शरीर और
आत्मा, पदार्थ
और ऊर्जा
सर्वथा एक ही
हैं।
अस्तित्व
द्वैत नहीं है;
वह एक सावयव
इकाई (आर्गनिक
होल ) है।
लेकिन
शरीर की निंदा
करने के पीछे
मूलभूत कारण
था : वह उनका
आत्मा की
प्रशंसा करने
का ढंग था।
शरीर और
पदार्थ की
निंदा किये
बगैर वह थोड़ा
कठिन हुआ होता।
शरीर की निंदा
करो — वह
तुम्हें
आत्मा की
प्रशंसा करने
के लिए अच्छी
पृष्ठभूइम
प्रदान करता
है। संसार की
निंदा करो, और
तुम ईश्वर की
प्रशंसा कर
सकते हो।
लेकिन
उन्होंने एक
सुस्पष्ट
तथ्य को कभी
नहीं देखा, कि वे स्वयं
ही उपदेश दे
रहे हैं कि
ईश्वर ने संसार
बनाया। यदि
ईश्वर ने
संसार बनाया,
तब संसार
ईश्वर के ही
विस्तार, उसकी
ही
सृजनात्मकता
के अलावा कुछ
भी नहीं है; यह उसका
शत्रु नहीं हो
सकता।
शरीर
तुम्हारे
पूरे जीवन का
स्रोत है। अब
तुम इसका क्या
करते हो, वह
तुम पर निर्भर
है। तुम एक
पापी हो सकते
हो, तुम एक
पुण्यात्मा हो
सकते हो। शरीर
न तुम्हें
पापी होने के
लिए फुसलाता
है, न
पुण्यात्मा
होने का
प्रोत्साहन
देता है। जो
कोई भी तुम हो,
पापी अथवा
पुण्यात्मा, शरीर अपना
कार्य जारी
रखता है। उसका
अपना ही कार्य
इतना विस्तृत
है, उसके
पास किसी और
बात के लिए
समय नहीं है।
जरथुस्त्र
के भीतर के
लिए अपरिसीम
सम्मान है,
क्योंकि वह
तुम्हारी
आत्मा की
शुरूआत है।
शरीर सुक्ष्म
आत्मा तक जा
सकते हो।
लेकिन
यदि शरीर
निंदित है,
त्यागा हुआ, सताया हुआ, जो कि शताब्दियों
से किया जाता
है। तब तुम
अपनी आत्मा
तक नहीं जा
सकते। तुम
अनावश्यक
रूप से शरीर
के साथ एक
लड़ाई में
अंतर्ग्रस्त
हो जाते है। उलझ
जाते हो। इस
प्रतिरोध में
तुम्हारी
पूरी ऊर्जा
जष्ट हो जाती
है। शरीर
प्रेमपूर्वक, धन्यवाद
पूर्वक,
अनुग्रहपूर्वक
स्वीकार
किया जाना
चाहिए, और
वह तुम्हारी
आत्मा तक एक
सोपान बन सकता
है। वास्तव
में वही
प्रकृति का
इरादा है।
.......ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
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