प्यारे
ओशो,
सच
में मेरे
मिखैड़े मैं
मनुष्यों के
बीच चलता हूं
जैसे
मनुष्यों के
टुल्लों और
अंगों के बीच!
मेरी आंख के
लिए भयावह बात
है मनुष्यों
को टुकड़ों में
छिन्न— भिन्न
और बिखरा हुआ
पाना जैसे
किसी कल्लेआम
के युद्ध—
मैदान पर।
और
जब मेरी आंख
वर्तमान से
अतीत में
भागती है सदा
उसे वही बात
मिलती है :
टुक्ये और अंग
और डरावने
अवसर — लोइकन
मनुष्य नहीं!
पृथ्वी
का वर्तमान और
अतीत — अफसोस!
मेरे मित्रो —
वही मेरा
सर्वाधिक
असह्य बोझ है; और
मैं नहीं
जानता कि जीना
कैसे यदि मैं
उसका द्रष्टा
न होता जिसे
आना ही है।
एक
द्रष्टा एक
आकांक्षी एक
सर्जक स्वयं
एक भविष्य ही
और भविष्य तक
एक सेतु — और
अफसोस इस सेतु
के ऊपर एक
अपंग की भांति
भी : जरथुस्त्र
यह सब कुछ है।
......यही
मेरी समूची
कला और लक्ष्य
है एक में
पिरोना और उस
सब को एक साथ
लाना जो टुकड़ा
है और पहेली है
और डरावना
अवसर है....
आकांक्षा
— यही है जो
उद्धारक और
हर्षोल्लास
की लानेवाली
कहलाती है :
ऐसा मैने
तुम्हें
सिखाया है मेरे
मित्रो! लेकिन
अब इसे भी
सीखो :
आकांक्षा स्वयं
अभी भी एक
कैदी है।
'इसके अलावा
कि आकांक्षा
अंतत: स्वयं
का उद्धार करे
अकांक्षा
करना
आकांक्षा— न
करना बन जाए — '. लेकिन तुम
मेरे बंधुओ
पागलपन का यह
कथुग्मिह जानते
हो।
मैं
तुम्हें इन
कथागीतों से
दूर हटा ले
गया जब मैने
तुम्हें
सिखाया अक्रांक्षा
एक सर्जक है....
क्या
आकांक्षा
अपनी ही
उद्धारक और
हर्षोल्लास
की लानेवाली
बन चुकी है? क्या
वह प्रतिशोध
की भावना को
अनसीखा कर
चुकी है.... ?
...
ऐसा
जरथुस्त्र ने
कहा।
जरथुस्त्र
सर्वथा
स्पष्ट हैं कि
धर्मों ने मनुष्य
की अखंडता
नष्ट की है।
उन्होंने उसे
तोड़ा है —न
केवल टुकड़ों
में,
बल्कि
विपरीत
टुक्खों में।
मनुष्यता? खिलाफ
महानतम अपराध धर्मों
द्वारा किया
गया है।
उन्होंने
मनुष्यता को
खंडमना बना
दिया है; उन्होंने
हर व्यक्ति को
विभाजित
व्यक्तित्व
दे दिया है।
यह बहुत ही
चालाक और
चालबाज तरीके
से किया गया
है।
पहले, मनुष्य
को कहा गया है,
तुम शरीर
नहीं हो; और
दूसरे, शरीर
तुम्हारा
दुश्मन है।
और
यह था
तर्कपूर्ण
निष्कर्ष — कि
तुम दुनिया के
हिस्से नहीं
हो,
और कि
दुनिया अन्य
कुछ नहीं बस
तुम्हारी सजा
है; तुम
यहौ दंडित
किये जाने के
लिए हो।
तुम्हारा
जीवन न
हर्षोल्लास
है, न हो
सकता है; वह
केवल एक मातम
भर हो सकता है,
वह केवल एक
त्रासदी भर हो
सकता है। दुख
उठाना ही
पृथ्वी पर
तुम्हारे
हिस्से में रहनेवाला
है।
उन्हें
यह करना जरूरी
था ईश्वर की
प्रशंसा करने
हेतु — जो कि एक
काव्यमय
कल्पना है, और
स्वर्ग की
प्रशंसा करने
हेतु — जो कि
मानवीय लोभ का
विस्तार है, और लोगों को
नर्क से भयभीत
करने हेतु — जो कि
मनुष्य की आत्मा
के केंद्र में
ही एक महान भय
उत्पन्न करने
हेतु है। इस
प्रकार वे
मनुष्य को ले
गये और उसे
टुकड़े—टुकड़े
में काट दिया।
कोई
धर्म इस सरल, स्वाभाविक
और तथ्यपूर्ण
घटना को नहीं
स्वीकार करता
कि मनुष्य एक
इकाई है और यह
दुनिया सजा
नहीं है। और
यह दुनिया
मनुष्य से अलग
नहीं है।
मनुष्य की
जड़ें इसी
दुनिया में
गड़ी हैं ठीक जैसे
कि वृक्षों की।
यह ग्रह —
पृथ्वी — उसकी
मां है।
जरथुस्त्र
ने बारंबार
दोहराया है, कभी
पृथ्वी के साथ
विश्वासघात न
करना। सभी
धर्मों ने
पृथ्वी के साथ
विश्वासघात
किया है।
उन्होंने
अपनी ही मां
के साथ विश्वासघात
किया है, उन्होंने
अपने ही
जीवनस्रोत के
साथ विश्वासघात
किया है।
उन्होंने
पृथ्वी की
निंदा की है, और उन्होंने
उसका त्याग
करने के लिए
तर्क दिये हैं
— त्याग पर
उनका सतत जोर
है।
लेकिन
कैसे तुम अपने
स्वभाव का
त्याग कर सकते
हो?
तुम ढोंग कर
सकते हो, तुम
एक पांखडी बन
सकते हो। यहा
तक कि तुम
मानना शुरू कर
सकते हो कि
तुम प्रकृति
के हिस्से
नहीं हो; लेकिन
तुम्हारे
महानतम संत भी
प्रकृति पर निर्भर
करते हैं, ठीक
जैसे कि
तुम्हारे
महानतम पापी
निर्भर करते
हैं। उन्हें
भोजन की जरूरत
होती है, उन्हें
पानी की जरूरत
होती है, उन्हें
हवा की जरूरत
होती है; उनकी
जरूरतें नहीं
बदलतीं। उनका
त्याग क्या है?
यह
उनके भीतर
खंडित मन पैदा
करता है। वे
टुक्खों—टुकड़ों
में टूट जाते
हैं,
और ये टुकडे
लगातार एक—दूसरे
से लडने में
लगे हैं। यही
मनुष्य की
दुर्दशा का
मूल कारण है, और यह लगभग
स्वीकृत बात
बन गयी है
क्योंकि
हजारों साल से
लोग इस दुर्दशा
में रहे हैं।
अब वे इसे
मंजूरशुदा
लेने लगे हैं :
यही हमारे हिस्से
में है, यही
हमारा भाग्य
है, यही
हमारी नियति
है। इसके बारे
में कुछ किया
नहीं जा सकता।
वास्तविकता
यह है कि न तो
यह हमारा
भाग्य है न ही
हमारी नियति;
यह हमारी
मूर्खता है, यह हमारी अ—बुद्धिमत्ता
है कि हम पडित—पुरोहितो
की सुनते रहे है,
उनकी कल्पनाओं
में विश्वास करते
रहे है।
जितना
ही ज्यादा
आदमी पीड़ा में
हो,
उतनी ही
आसानी से वह
प्रार्थना
करने के लिए
धार्मिक
क्रियाकांड
करने के लिए
राजी किया जा
सकता है, क्योंकि
वह पीड़ा से
छुटकारा पाना
चाहता है। उसे
उद्धारकों के
बारे में, ईश्वर
के दूतों के
बारे में, पैगंबरों
के बारे में
यकीन दिलाया
जा सकता है।
लेकिन एक
व्यक्ति जो
आनंदपूर्वक
जी रहा है, हर्षोल्लास
का जीवन जी
रहा है, उसे
किसी ईश्वर की
जरूरत नहीं है।
एक व्यक्ति जो
जीवन को जी
रहा है उसे
किसी
प्रार्थना की जरूरत
नहीं है। यह
मनुष्य के मन
की रुग्णता है
जिसकी पंडित—पुरोहितों
और उनके
व्यवसाय के
लिए नितांत आवश्यकता
है।
जरथुस्त्र
कोई पंडित—पुरोहित
नहीं हैं।
मनुष्य के मन
की विखंडित
दशा को खोज
निकालने वाले
वह संभवत:
सर्वप्रथम
मनोवैज्ञानिकों
में से एक हैं।
धर्म
बहुत चालबाज
रहे हैं, पंडित—पुरोहित
बहुत अमानवीय
रहे हैं।
उन्होंने
मनुष्य को
स्वयं के ही
खिलाफ विभाजित
कर दिया है; और स्वयं से
ही लड़ता हुआ
वह तड़पता है।
जरथुस्त्र
सही हैं : सच
में मेरे
मित्रो मैं मनुष्यों
के बीच चलता हूं
जैसे
मनुष्यों के
टुकड़ों और
अंगों के बीच!
बहुत
कठिन बात है
एक संपूर्ण
मनुष्य खोज
पाना।
संपूर्ण
मनुष्य
परममानव होगा, संपूर्ण
मनुष्य
सर्वाधिक
आनंदित
व्यक्ति होगा,
संपूर्ण
मनुष्य के पास
वे समस्त
वरदान होंगे जो
यह पृथ्वी उस
पर बरसा सकती
है। लेकिन
केवल संपूर्ण
मनुष्य ही
उन्हें पा
सकता है।
क्यों
संपूर्ण
मनुष्य
आनदपूर्ण हो
सकता है? — क्योंकि
संपूर्ण
मनुष्य
संपूर्णता से
जीता है, तीव्रता
से जीता है; हर क्षण वह
जीवन का रस
निचोड़ लेता है।
उसका जीवन एक
नृत्य है, उसका
जीवन एक
उत्सव
और अचानक, जब तुम्हारा
जीवन एक उत्सव
होता है तुम
विश्वास नहीं
कर सकते कि यह
एक सजा है। तब
तुम पंडित—पुरोहितों
के झूठों के
आरपार देख
सकते हो, और
तब तुम्हें
किसी स्वर्ग
की जरूरत नहीं
रह जाती
क्योंकि वह
तुम्हारे पास
है ही — अभी और
यहीं।
तुम्हें उसे
अपने
मृत्योपरात
में, सुदूर
में स्थगित
करने जी जरूरत
नहीं है।
मेरी
आंख के लिए
भयावह बात है
मनुष्यों को
टुकड़ों में छिन्न—
भिन्न और
बिखरा हुआ
पाना जैसे
किसी कल्लेआम
के युद्ध—
मैदान पर
जरथुस्त्र
चीजों को बहुत
स्पष्टता से
देखते हैं, ऐसी
स्पष्टता से
जो विरल है।
जिसे हम
मानवता कहते
हैं, वह
उसे कल्लेआम
के युद्ध—मैदान
के रूप में
देखते हैं।
प्रकृति
के अलावा अन्य
कोई धर्म नहीं
है।
और
तुम्हें
सीखना नहीं है
कि प्रकृति
क्या है। जब
तुम्हें
प्यास महसूस
होती है, तुम
जानते हो कि
तुम्हें पानी
की जरूरत है।
जब तुम्हें
भूख महसूस
होती है, तुम
जानते हो कि
तुम्हें भोजन
की जरूरत है।
तुम्हारी
प्रकृति
लगातार
तुम्हारा
मार्गदर्शन
करती है।
प्रकृति के
अलावा अन्य
कोई
मार्गदर्शक
नहीं है। अन्य
समस्त
मार्गदर्शक
अमार्गदर्शक
हैं। वे
तुम्हें
नैसर्गिक राह
से दूर ले
जाते हैं। और
एक बार तुम
अपनी
नैसर्गिक राह
से हट गये कि विपत्ति
प्रारंभ होती
है। और
तुम्हारा दुख
ही उनकी खुशी
है, क्योंकि
केवल दुखी ही
गिरजाघर जाते
हैं, केवल
दुखी ही
मंदिरों में
जाते हैं।
जब
तुम आनंदित और
हर्षित महसूस
कर रहे हो, युवा
व स्वस्थ, कौन
मंदिर—मस्जिदों
की फिक्र करता
है! जीवन इतना
समृद्ध है, और जीवन ऐसा
उल्लास है, कौन उन कब्रगाहों
में प्रवेश
करना चाहता है
जहा उदासी
गंभीरता मानी
जाती है! जहा
लंबा चेहरा
धार्मिक माना
जाता है! जहा
हंसी का फूट
पड़ना... तुम्हारी
एक पागल
व्यक्ति के
रूप में निंदा
की जाएगी! जहा
नृत्य वर्जित
है! जहा प्रेम
का निषेध है! जहा
तुम्हें
मुर्दा
शब्दों को सुनते
हुए बैठना है,
इतने
पुराने और
इतने धूल भरे
कि वे
तुम्हारे हृदय
को नहीं छूते,
वे
तुम्हारे
प्राणों में
कोई रोमांच
नहीं पैदा
करते। लेकिन
ये गिरजाघर और
मंदिर और
मस्जिद ही
मनुष्य पर
हावी रहे हैं।
जरथुस्त्र
आशा करते हैं, हर
रहस्यदर्शी
की भांति ही, कि यह सदा—सदा
के लिए नहीं
चल सकता। किसी
दिन मनुष्य की
बुद्धिमत्ता
विद्रोह करने
वाली है।
विद्रोह
ही एकमात्र
आशा है। किसी
दिन मनुष्य इन
तथाकथित
ईश्वर के घरों
को नष्ट
करनेवाला है, क्योंकि
यह पुथ्वी, यह तारों
भरा आकाश ही
एकमात्र
मंदिर है; शेष
सारे मंदिर
मनुष्य—निर्मित
हैं।
यदि
प्रतिभा
विकसित होती
है,
मंदिर खाली
हो जाएंगे, लेकिन जीवन
निरतिशय
सुंदर हो
जाएगा। यही
एकमात्र आशा
है, जरथुस्त्र
कहते हैं।
एक
द्रष्टा एक
आकांक्षी एक
सर्जक स्वयं
एक भविष्य ही
और भविष्य तक
एक सेतु — और
अफसोस इस सेतु
के ऊपर एक
अपंग की भांति
भी : जरथुस्त्र
यह सब कुछ है।
वह कह रहे हैं, मैं
इस आशा के
कारण जी रहा
हूं कि रात, कितनी ही
लंबी क्यों न
हो, समाप्त
होने वाली है;
कि अरुणोदय
आएगा — कि हर
रात का
अरुणोदय आता
है। यह रात
जिसमें
मनुष्यता जी
रही है सदा—सदा
के लिए नहीं
हो सकती।
लेकिन
अभी तो वह
अपनी स्थिति
का वर्णन करते
हैं : एक
द्रष्टा वह
दूर—दूर तक
देख सकते हैं;' एक
आकांक्षी और
वह परममानव की
आकाक्षा कर
सकते हैं; एक
सर्जक और वह
सब कुछ कर रहे
हैं उस मनुष्य
के सृजन के
लिए जो इस
मनुष्यता का
स्थान लेगा, स्वयं एक
भविष्य ही और
भविष्य तक एक
सेतु — और
अफसोस इस सेतु
के ऊपर एक
अपंग की भांति
भी।
वह
कह रहे हैं, मैं
भविष्य हूं
क्योंकि मैं
उसे देख सकता
हूं। मेरे लिए
वह करीब— करीब
वर्तमान है।
मैं देख सकता
हूं कि
अरुणोदय दूर
नहीं है, और
मैं उसे और— और
निकट लाने का
हर प्रयास कर
रहा हूं। मैं
इस मनुष्यता
और आनेवाले
परममानव के बीच
सेतु हूं
लेकिन मैं
अपंग भी हूं।
मैं परममानव
नहीं हो सकता,
मैं केवल
सेतु हो सकता
हूं। मुझ पर
से मनुष्यता
गुजरेगी, एक
नये युग में, एक नये आयाम
में, एक
अधिक सुंदर और
अधिक आनंदमय
अस्तित्व में।
और
यही मेरी
समूची कला और
समूचा लक्ष्य
है। मैं उन
समस्त टुकड़ों
को जो छिन्न—भिन्न
कर दिये गये
हैं जोड़ना
चाहता हूं,
और मनुष्य को
संपूर्ण
बनाना चाहता
हूं। मैं
समस्त
विभाजनों के,
द्वैतों के
खिलाफ हूं और
मैं चाहता हूं
कि मनुष्य बस
एक शिशु के
समान हो, बिना
किसी भय के और
पूरे मन से
जीवन का आनंद
लेता हुआ।
आकांक्षा
— यही है जो
उद्धारक और
हर्षोल्लास
की लानेवाली
कहलाती है :
ऐसा मैने
तुम्हें
सिखाया है मेरे
मित्रो! लेकिन
अब इसे भी
सीखो :
आकांक्षा स्वयं
अभी भी एक
कैदी है।
जरथुस्त्र अब
तक शक्ति की
आकाक्षा
सिखाते रहे
हैं। अब वह
थोड़ा और आगे
जाते हैं। वह
कहते हैं, शक्ति
की आकाक्षा भी
कैद बन जाती
है। व्यक्ति
उसमें ही कैद
हो जाता है।
व्यक्ति को
उसका भी
अतिक्रमण
करना है। पहले,
शक्ति की
आकाक्षा, और
फिर विश्रात
हो जाओ।
आकाक्षा के
संबंध में भूल
जाओ और शक्ति
के संबंध में
भूल जाओ, और
बस समुद्रतट
पर खेलते हुए
एक छोटे बच्चे
हो जाओ — सरल, निर्दोष, विस्मयबोध
से भरे हुए
किसी भी बात
से निर्भय, अस्तित्व पर
समग्र भरोसा
रखे हुए। वही
तुम्हारी
मुक्ति होगी।
उन्होंने
चेतना को तीन
स्तरों में
बाटा है : ऊंट, जो
कि एक गुलाम
की चेतना है, जो लादा
जाना चाहता है,
जो सदा
घुटने टेकने
और लदने के
लिए तैयार है;
शेर, वह
शक्ति की
आकाक्षा है; और तीसरा, शिशु।
सर्वोच्च है
शिशु की सरलता।
शिशु की सरलता
ही एकमात्र
चीज है जो
तुम्हें धार्मिक
बनाती है।
बहुतों
ने अचरज किया
है कि कैसे
शेर शिश बन
सकता है; वे
विपरीत ध्रुव
मालूम पड़ते
हैं। लेकिन
ऐसे प्रश्न
उनके द्वारा
ही उठाए जाते
हैं जो जीवन
के
द्वंद्वात्मक
तर्क को नहीं
समझते। केवल
शेर ही शिशु
बन सकता है
क्योंकि इस
चालबाज
दुनिया में
सरल होने के
लिए महान साहस
की जरूरत है —
एक शेर के
साहस की। इस
ठग दुनिया में
भरोसा
करनेवाला
होना कायर के
लिए संभव नहीं
है, यह
केवल शेर के
लिए ही संभव
है; और
शिशु सरल है, भरोसा
करनेवाला।
यह
जीवन के
रहस्यों में
से एक है कि
यदि तुम सरल
और भरोसा करने
वाला हो सको, तो
तुम्हें धोखा
देना बहुत
कठिन है।
तुम्हारी
सरलता ही, तुम्हारा
भरोसा ही धोखा
देने वाले को
रोकता है।
भरोसा
तुम्हारे
इर्दगिर्द एक
प्रकार की
ऊर्जा निर्मित
करता है जिसका
अपना ही
सुरक्षात्मक
आभामंडल है।
सरलता लोगों
को तुम्हें
धोखा देने से
रोकती है।
आसान है एक
ऐसे व्यक्ति
को धोखा देना
जो स्वयं ही
धोखेबाज है; आसान
है एक ऐसे
व्यक्ति को
छलना जो स्वयं
ही छली है।
लेकिन कोई
व्यक्ति जो
भरोसा करता है,
कोई
व्यक्ति जो
अपनी सरलता
में शोषित
किये जाने और
छले जाने के
लिए तैयार है
उसे कभी भी
शोषण और छल
नहीं मिलते।
सरलता
की ऊर्जा ही
महान संरक्षण
है। भरोसा
करीब—करीब कवच
का काम करता
है। लेकिन
दुनिया
तुम्हें पागल
कहेगी।
मैं
तुम्हें इन
कथागीतों से
दूर हटा ले
गया जब मैने
तुम्हें
सिखाया : 'आकांक्षा
एक सर्जक है'।
क्या
आकांक्षा
अपनी ही
उद्धारक और
हर्षोल्लास
की लानेवाली
बन चुकी है? क्या
वह प्रतिशोध
की भावना को
अनसीखा कर
चुकी है....?
जब
तक आकाक्षा
स्वयं से भी
आगे नहीं निकल
जाती वह अतीत
को नहीं भूल
सकती। और यदि
तुम अतीत को
नहीं भूल सकते, तुम
उसके साथ बंधे
हो। आकाक्षा
का अंतिम कामु
है स्वयं का
अतिक्रमण कर
जाना, स्वयं
के पार निकल
जाना।
इस
बात पर
जरथुस्त्र
गौतम बुद्ध से
राजी हैं। उन
दोनों ने
भिन्न मार्गों
का अनुसरण
किया है —
बुद्ध इस
अवस्था को ''इच्छारहितता''
(डिजायरलेसनेस
) कहते हैं, और
जरथुस्त्र
इसे ''आकांक्षारहितता
(विललेसनेस )
कहते हैं
तुम
घर आ गये हो।
कुछ भी इच्छा
करने को शेष
नहीं है, कुछ
भी आकाक्षा
करने को शेष
नहीं है। तुम
कृतार्थता को,
अपनी संभावना
की साकारता को
उपलब्ध हो गये
हो। तुम्हारी
अंतरात्मा के
फूल खिल चुके
हैं।
.......ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं