प्यारे
ओशो,
(इस
हेतु) कि तुम
सद् और असद् (अच्छाई
और बुराई) के
संबंध में
मेरी
शिक्षाओं को
समझ सको मुझे
तुम्हें
जीवन के
संबंध में और
समस्त जीवित
प्राणियों के
स्वभाव के
संबंध में
मेरी
शिक्षाएं
कहनी होगी
मैं
जीवित प्राणी
के पीछे चला
हूं मैं
महानतम और
छुद्रतम
मार्गों पर
चला हूं ताकि
मैं उसके
स्वभाव को समझ
सकूं।
मैने
उसकी निगाह सौ
गुना
करनेवाले
दर्पण में पकड़ी
जब उसका मुंह
बंद शु ताकि
उसकी आंख
मुझसे बोल सके।
और उसकी आंख
बोली मुझसे।
लेकिन
जहां कहीं भी
मुझे जीवित
प्राणी मिले वहीं
मैने
आज्ञाकारिता
की भाषा भी
सुनी।
और
यह है दूसरी
बात : जो स्वयं
की आज्ञा का
पालन नहीं कर
सकता उसे आशा
दी जाएगी वह
जीवित प्राणियों
का स्वभाव है।
लेकिन
यह तीसरी बात
है जो मैने
सुनी : कि
आज्ञा देना
अधिक कठिन है
आज्ञापालन की
अपेक्षा
और केवल इसलिए
नहीं क्योकि आज्ञा
देनेवाला उन
सब का बोझ वहन
करता है जो आज्ञा
पालन करते हैं
और 'कि यह बोझ
उसे आसानी से
कुचल सकता है।
समस्त
आज्ञा देने
में एक प्रयोग
और एक जोखिम का
होना मुझे
प्रतीत हुआ :
और जीवित
प्राणी जब आज्ञा
देता है तो वह
हमेशा स्वयं
को जोखिम में डालता
है.........
यह
घटना घटी कैसे? — ऐसा
मैने स्वयं से
पूछा। कौनसी
बात फूसलाती
है जीवित
प्राणी को
आज्ञा पालन
करने के लिए और
आज्ञा देने के
लिए और आज्ञा
देने में भी आज्ञाकारिता
बरतने के लिए?
अब
मेरी शिक्षा
को सुनो, तुम
सर्वाधिक
बुद्धिमान
मनुष्यो! गंभीरता
से परख करो कि
क्या मैं जीवन
के हृदय में
ही और उसके
हृदय की जड़ों
तक प्रवेश कर
गया हूं।
जहां
भी मुझे जीवित
प्राणी मिला
वहीं मुझे शक्ति
की आकांक्षा मिली;
और मुझे नौकर
की आकांक्षा
तक में मालिक
होने की आकांक्षा
मिली।
और
जिसे अच्छाई
में और बुराई
में सर्जक
होना है सच
में पहले उसे एक
विध्वंसक
होना होगा और
मूल्यों को
तोड़ना होगा
इस
प्रकार बड़ी से
बड़ी बुराई का
स्थान भी बड़ी
से बड़ी अच्छाई
के साथ है : यह
हालांकि
सृजनात्मक
अच्छाई है।
चलो
हम इसकीबात
करें, तुम
सर्वाधिक
बुद्धिमान
मनुष्यो भले
वह एक बुरी
बात है। मौन
रह जाना और भी
बुरा है; सभी
दमित सत्य
विषाक्त बन
जाते हैं।
और
हर चीज जो
हमारे सत्यों
पर टूट पड़
सकती हो — टूट
पड़ने दो। अभी
भी बहुत से घर
बनाए
जाने हैं।
........ऐसा
जरथुस्त्र ने
कहा।
जरथुस्त्र
ने शक्ति की
आकाक्षा के
मनोविज्ञान
के मूल तत्व
दे दिये हैं।
वह कोई नई बात
नहीं है अल्फ्रेड
एडलर ने उसका
केवल फिर से
आविष्कार
किया है; और वह
उसमें कुछ नयी
बात भी नहीं
जोड़ी है।
जरथुस्त्र
ने हर पहलू से
देखा है, विस्तार
में, और
महत
अंतर्दृष्टि
से। उनका
मनोविज्ञान मनोविज्ञान
भर नहीं है —
क्योंकि वह मन
तक ही सीमित
नहीं है — वह एक
जीवनदर्शन भी
है। उसका
क्षेत्र, उसकी
सीमा अल्केड
एडलर की
अवधारणा की
अपेक्षा बहुत
विस्तृत है।
जरथुस्त्र की
तुलना में
अल्टेड भर
बहुत बचकाने
दिखते हैं।
मैं
चाहूंगा कि
तुम सर्वाधिक
मूलभूत बात
सबसे पहले
समझो, फिर हम
जरथुस्त्र को
क्या कहना है
उसके विस्तार
में जा सकते
हैं।
पहली
बात है : जीवन
एक सतत विजय
है। हर चीज
अपने से पार
निकल जाने का
प्रयास कर रही
है। हर चीज
प्रयास कर रही
है अपने से
बेहतर बनने का, और
अधिक सुंदर
होने का, और
अधिक
शक्तिशाली
होने का, और
अधिक
प्रामाणिक
होने का। यह
विजय कोई ऐसी
बात नहीं है
जो कभी भी
पूरी होती हो।
तुम
एक लक्ष्य तक
पहुंचते हो, और
अचानक तुम
पाते हो : वह
लक्ष्य तो एक
भविष्यत्
लक्ष्य तक
छलाग लगाने का
टीला मात्र था।
और तुम्हारे
सामने का
क्षितिज
तुम्हें सदा बुलाता
ही रह जाता है,
तुम्हें
चुनौती देता
हुआ, तुम्हें
अज्ञात
आकाशों की ओर
खींचता हुआ।
विजय
का यह सिद्धात
ही उत्काति की
नींव है; अन्यथा
कहीं कोई
उत्काति
(एवेलूशन ) न
होती। सब
चीजें बस
स्थिर रह गयी
होतीं, चीजें
बस चीजें
मात्र होतीं —
मृत, पूर्ण,
अविकासमान
अ—ऊर्ध्वगामी,
स्वयं का
अतिक्रमण
करने का
प्रयास न करती
हुईं।
जरथुस्त्र
कहते हैं, (इस
हेतु) कि तुम
अच्छाई और
बुराई (सद् और
असद् ) के
संबंध में
मेरी शिक्षाओं
को समझ सको
मुझे तुम्हें
जीवन के संबंध
में और समस्त
जीवित
प्राणियों के
स्वभाव के
संबंध में
मेरी
शिक्षाएं
कहनी होगी।
मैं
जीवित प्राणी
के पीछे चला
हूं मैं
महानतम और
छुद्रतम
मार्गों पर
चला हूं ताकि
मैं उसके
स्वभाव को समझ
सकूं।
मैने
उसकी निगाह सौ
गुना
करनेवाले
दर्पण में पकड़ी
जब उसका मुंह
बंद था ताकि
उसकी आंख
मुझसे बोल सके।
और उसकी आंख
बोली मुझसे।
लेकिन
जहां कहीं भी
मुझे जीवित
प्राणी मिले वहीं
मैने
आज्ञाकारिता
की भाषा भी
सुनी समस्त जीवित
प्राणी
आज्ञाकारी
प्राणी हैं।
लेकिन
जरथुस्त्र के
दर्शन में
आज्ञाकारिता की
अवधारणा
आज्ञाकारिता
की सामान्य
अवधारणा नहीं
है जो धर्म
हमें सिखाते
रहे हैं। धर्म
भी
आज्ञाकारिता
सिखाते हैं।
लेकिन
आज्ञाकारिता
किसके प्रति? उनकी
आज्ञाकारिता
सदैव किसी ऐसे
के प्रति है
जो तुमसे बाहर
है — किसी
ईश्वर के
प्रति, किसी
पैगंबर के
प्रति, किसी
मसीहा के
प्रति,
किसी
धर्मग्रंथ के
प्रति।
जरथुस्त्र
की
आज्ञाकारिता
जीवन के प्रति
आज्ञाकारिता
है;
वह तुमसे
बाहर किसी चीज
के प्रति नहीं
है। वह स्वभाव
है, जीवन
का ही स्वभाव,
आज्ञापालन
करना। जीवन
स्वाज्ञापालन
करता है।
सारे
धर्म तुम्हें
उस आज्ञाकारिता
से विकर्षित
करने का
प्रयास करते
रहे हैं। वे
तुम्हें कह
रहे हैं, 'जीवन
की मत सुनो, ईश्वर की
सुनो। अपने
हृदय की मत
सुनो, पवित्र
ग्रंथ की सुनो।
अपने शरीर और
उसकी प्रज्ञा
की मत सुनो, बल्कि किसी
मृत संत की
सुनो, किसी
काल्पनिक, पौराणिक
व्यक्ति की। '
तो
याद रहे, जरथुस्त्र
और उनकी
आज्ञाकारिता
ठीक विपरीत हैं
उसके जिसे
धर्म
आज्ञाकारिता
कहते हैं।
जरथुस्त्र
कहते हैं, 'अपनी
ही नैसर्गिक
प्रवृत्ति की
आशा मानो।
जहां तक
तुम्हारे
हृदय का संबंध
है अपनी ही भावनाओं
की आज्ञा मानो।
अपनी
बुद्धिमत्ता
की आज्ञा मानो
जहा तक तुम्हारे
मन का संबंध
है, और
अपने ही
अंतर्बोध की
आज्ञा मानो
जहां तक तुम्हारी
अंतरात्मा का
संबंध है। तुम
ही पवित्र
धर्मग्रंथ हो।
तुम्हारे
शरीर के पास
वह समस्त
ज्ञान है जिसकी
उसे जरूरत है।
तुम्हारे
हृदय को प्रेम
के समस्त रंग—ढंगों
का भलीभांति
पता है, और
तुम्हारी
प्रतिभा
अस्तित्व के
गुह्यतम रहस्यों
को समझने में
सक्षम है।
तुम्हारा
अंतर्बोध
तुम्हारी आंतरिकता
का अन्वेषण
तुम्हारे
प्राणों के
केंद्र तक
करने में
सक्षम है।
ये
चार सिद्धांत
जरथुस्त्र ने
पाया कि समस्त
जीवन के
मूलभूत स्तंभ
हैं। लेकिन
धर्म लोगों को
भटकाते रहे
हैं। वे एक
सर्वथा अलग ही
प्रकार की
आज्ञाकारिता
सिखा रहे हैं, जो
वास्तव में
स्वभाव के
प्रति
अनाज्ञाकारिता
है।
लेकिन
जहां कहीं भी
मुझे जीवित
प्राणी मिले वहीं
मैने
आज्ञाकारिता
की भाषा भी
सुनी। समस्त
जीवित प्राणी
आज्ञाकारी
प्राणी हैं।
और
यह है दूसरी
बात : जो स्वयं
की आज्ञा का
पालन नहीं कर
सकता उसे
आज्ञा दी
जाएगी
जरथुस्त्र
इतने स्पष्ट
और इतने सरल
हैं. यदि तुम
अपने ही जीवन
की आज्ञा नहीं
मानते, तो
कोई न कोई
व्यक्ति
तुम्हें
आज्ञा देने ही
वाला है। तुम
उन सब लोगों
के लिए जिम्मेवार
हो जो आज्ञा
देनेवाले बने
हैं, जो
तुम्हें दस
धमदिश (टेन
कमांडमेंदस )
दे रहे हैं।
जिम्मेदारी
किसी अन्य के
कंधों पर मत
फेंको।
तुम
स्वयं की ही
आज्ञा मानने
में असमर्थ हो; तुम
कायर हो, तुम
भयभीत हो। कौन
जाने? — हो
सकता है तुम
सही हो, हो
सकता है तुम
गलत हो।
ध्यादा बेहतर
है कि अधिक
बुद्धिमानों
की ही सुनी
जाए ज्यादा
बेहतर है कि
प्राचीन
ज्ञान की, धर्मशास्त्रों
की, जीवन
के उन
सिद्धातों की
सुनी जाए जो
हजारों वर्षों
से सिखाए गये
हैं। ऐसा
प्रतीत होता
है कि वे अधिक
विश्वसनीय
हैं तुम्हारे
अपने ही शरीर
की अपेक्षा, जो लाखों—लाखों
वर्ष प्राचीन
है — कोई
धर्मशास्त्र
उतना प्राचीन
नहीं है जितना
तुम्हारा
शरीर।
धर्म
तुम से कहते
हैं,
'प्राचीन
द्रष्टाओं की
सुनो'।
लेकिन
तुम्हारी
अपनी ही चेतना
कहीं अधिक पुरानी, कहीं अधिक
प्राचीन है
किसी भी
द्रष्टा की
अपेक्षा।
कोई
भी समझवाला व्यक्ति
वह व्यक्ति
नहीं होगा जो
आशाएं देता है।
कोई भी
समझवाला
व्यक्ति
तुम्हारे
जीवन को ढालने
की कोशिश नहीं
करेगा, तुम्हारे
जीवन को कोई
शैली—विशेष, कई आचरण—विशेष,
कोई
नैतिकता—विशेष
देने की कोशिश
नहीं करेगा।
समझवाला
व्यक्ति केवल
तुम्हारी
सहायता करेगा
अपना ही स्वभाव
खोज लेने में।
तुम्हारे
शरीर की भाषा
वह तुम्हें
सिखाएगा, प्रतिभा
की भाषा वह
तुम्हें
सिखाएगा, प्रेम
की भाषा वह
तुम्हें
सिखाएगा, अंतर्बोध
की भाषा वह
तुम्हें
सिखाएगा, लेकिन
वह तुम्हें
पूरी तरह
स्वतंत्र
छोको अपनी ही
राह पर जाने
को और अपनी ही
नियति की तरफ
बढ़ने को।
तुम्हारा
प्रारंभ
भिन्न हो सकता
है, तुम्हारा
गंतव्य भिन्न
हो सकता है।
और वास्तव में,
कोई भी दो
व्यक्ति एक ही
ढंग से
कृतार्थ होने को
नहीं हैं — वे
हो नहीं सकते।
यह
घटना घटी कैसे? —
ऐसा मैने
स्वयं से पूछा।
कौन सी बात
फुसलाती है
जीवित प्राणी
को आज्ञा पालन
करने के लिए
और आज्ञा देने
के लिए और आज्ञा
देने में भी
आज्ञाकारिता
बरतने के लिए?
अब
मेरी शिक्षा
को सुनो तुम
सर्वाधिक
बुद्धिमान
मनुष्यो!
गंभीरता से
परख करो कि
क्या मैं जीवन
के हृदय में
ही और उसके
हृदय की जड़ों
तक प्रवेश कर
गया हूं!
जहां
भी मुझे जीवित
प्राणी मिला
वहीं मुझे शक्ति
की आकांक्षा
मिली: और मुझे
नौकर की आकांक्षा
तक में मालिक
होने की
आकांक्षा मिली।
निश्चित
ही यह एक महान
खोज है। यह इस
शक्ति की
आकाक्षा के
कारण है कि वे
जो मजबूत हैं, आज्ञा
देनेवाले बन
जाते हैं और
वे जो कमजोर
हैं, गुलाम
बन जाते हैं।
लेकिन
निम्नतम
गुलाम तक सपना
पालता है कि
एक दिन वह भी
मालिक होगा।
और महानतम
मालिक भी सदा
भयभीत रहता है
अपने ही गुलामों
से, कि
किसी दिन वह
विश्वासघात
करेगा।
अडोल्फ
हिटलर ने कभी
अपने कमरे में
किसी को सोने
की इजाजत नहीं
दी। केवल इस
बात से बचने
के लिए कि जब
वह सोया हो तब
कोई कमरे में
हो,
वह लगभग
अपने पूरे
जीवन कुवारा
रहा — केवल
आत्महत्या
करने के पूर्व
के तीन घंटों
को छोड्कर।
क्या था भय? उसके कोई
मित्र न थे —
यहां तक कि जो
लोग उसके बहुत
निकट समझे
जाते थे उनसे
भी वह उतना दूर
रहा जितना
संभव था।
उसने
मैक्यावेली
की सलाह का
समग्रता से
अनुसरण किया :
जो कोई भी
तुम्हारे
निकट है, एक
दिन तुम्हें
पलट देगा।
मित्रों से
सावधान! शत्रु
इतना खतरनाक
नहीं है, क्योंकि
शत्रु काफी
दूर है; असली
खतरा मित्र है,
क्योंकि वह
इतने निकट है।
किसी भी क्षण
उसकी तलवार
तुम्हारी
गर्दन पर हो
सकती है।
दुनिया
में कई ढंगों
से पदानुक्रम
है। वह
पदानुक्रम
दोहरा पार्ट
अदा करता है :
कोई व्यक्ति
तुमसे ऊपर है —
वह तुम्हें
आज्ञा देता है; कोई
व्यक्ति
तुमसे नीचे है
— तुम उसे
आज्ञा देते हो।
पदानुक्रम
एक उद्देश्य पूरा
करते है। और पदानुक्रम
केवल सरकारों
में ही,
धर्मसंगठनों
में ही, राजनैतिक
दलों में ही नहीं
हैं, पदानुक्रम
घरों में, परिवारों
में भी है।
यदि तुम
सूक्ष्मता से
देखो, तुम
पाओगे कि तुम
बहुत सारे
पदानुक्रमों
के स्थायी
सदस्य हो।
बहुत सारे
रास्ते तुमसे
होकर गुजरते
हैं... कोई
तुमसे ऊंचा है,
कोई तुमसे
नीचा है।
यह
पूरा खेल जो
चलता जाता है
वह शक्ति की
आकाक्षा के
कारण है। सब
इसके अंतर्गत
हैं। वह जीवन
का अंतर्भूत
नियम है।
जीवन
ऊर्जा है, सागर
की लहरों की
तरह, जो
बार—बार आती
रहेगी और तट पर,
चट्टानों
पर टकरा कर
चूर—चूर होती
रहेगी, जिसके
पीछे दूसरी
लहरें आती
रहेंगी।
शाश्वत काल से
यह ऐसा ही रहा
है।
जीवन
भी एक अदृश्य
ऊर्जा है जो
बस केवल एक ही
कामना से चलती
चली जाती है —
स्वयँ पर विजय
पाने की। वह
और ऊंचे उठना
चाहती है, वह
और अधिक
शक्तिशाली
होना चाहती है,
वह और अधिक
सफल होना
चाहती है। जो
कुछ भी वह है, वह उस बिंदु
से और ऊंचे
पहुंचना
चाहती है।
जीवन के सागर
की ऊर्जा ठीक
वैसी ही है।
लहरें चलती
चली जाती हैं —
उद्देश्य मत
फो! वह सागर का
स्वभाव ही है,
और वह जीवन
का स्वभाव ही
है।
जरथुस्त्र
कहते हैं सत्य
की आकाक्षा भी
अन्य कुछ नहीं
बल्कि शक्ति
की आकांक्षा
है,
क्योंकि
सत्य को जानने
से तुम्हारे
पास अस्तित्व
की महानतम
शक्ति होगी।
वह हर कामना
को और हर अभीपसा
को, यहा तक
कि
संबुद्धत्व
की अभीप्सा को
भी, शक्ति
की आकाक्षा
बना देते हैं —
क्योंकि जैसे
ही तुम
संबुद्ध होते
हो, तुम्हारे
पास स्वयं पर
विशाल शक्ति
होगी, अपनी
चेतना पर परम
शक्ति होगी।
जरथुस्त्र
गलत नहीं कहे
जा सकते।
उन्होंने एक
बहुत संकेत—शब्द
खोज लिया है : ''शक्ति की
आकांक्षा ''।
और
जिसे अच्छाई
में और बुराई
में सर्जक
होना है: सच
में पहले उसे
एक विध्वंसक
होना होगा और
मूल्यों को
तोड़ना होगा
इस
प्रकार बड़ी से
बड़ी बुराई का
स्थान भी बड़ी
से बड़ी अच्छाई
के साथ है : यह
बहरहाल
सृजनात्मक अच्छाई
है।
चलो
हम इसकी बात
करें
बुद्धिमान
मनुष्यो भले वह
एक बुरी बात
है। मौन रह
जाना और भी
बुरा है; सभी
दमित सत्य
विषाक्त बन
जाते हैं।
वह
कह रहे हैं, हो
सकता है मैं
समझा न जाऊं।
हर संभावना है
कि मैं गलत
समझा जाऊं।
लेकिन मुझे
इसे कहना ही
है, क्योंकि
मौन रह जाना
और भी बुरा है।
....
सभी दमित
सत्य विषाक्त
बन जाते हैं।
और
हर चीज जो
हमारे सत्यों
पर टूट पड़
सकती हो — टूट
पड़ने दो! अभी
भी बहुत से घर
बनाए जाने
हैं!
वह
कह रहे हैं कि
सृजन के मार्ग
पर तुम्हें विध्वंसात्मक
भी होना पडता
है;
और यदि
तुम्हें
उच्चतर मूल्य
चाहिए तो
तुम्हें
निम्नतर
मूल्यों को
नष्ट करना ही
होगा। यदि तुम
बेहतर मकान
बनाना चाहते
हो तो तुम्हें
पुरानों को
नष्ट करना ही
होगा।
वास्तविक
सृजनकर्ता
प्राय: सदैव
ही विध्वंसक
है।
वह
इसे कह रहे
हैं क्योंकि
वह पुराने
मूल्यों को
नष्ट कर रहे
हैं,
और वह एक
नया मूल्य
निर्मित कर
रहे हैं। नया
मूल्य है, शक्ति
की आकांक्षा।
उस नये मूल्य
के लिए अन्य
सब कुछ का
बलिदान किया
जा सकता है।
जीवन तक; अच्छाई
और बुराई की
तुम्हारी
समस्त
अवधारणाएं
तुम्हारी
नैतिकताएं
तुम्हारा
धर्म, तुम्हारा
दर्शन तक —
किसी की कोई
कीमत नहीं।
परममानव
का एक ही धर्म
है : शक्ति की
आकांक्षा का
धर्म।
........ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
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