ध्यान
योग शिविर
दिनांक
16 जनवरी
रात्रि:
माथेरान।
सूत्र
:
ब्रह्मैवाहं
सर्ववेदान्तवेद्यं
नाहं वेद
व्योमवातादिरूपमू।
रूपं नाहं
नाम नाहं
न कर्म ब्रह्मैवाहं
सच्चिदानंदरूपम्।।
20।।
नाहं
देहो
जन्य-मृत्यु कुतो
मे
नाहं प्राण:
क्षुत्पिपासे
कुतो मे।
नाहं चेत:
शोकमोहौ कुतो
मे
नाहं कर्ताबंधमोक्षौ
कुतो मे।।
इत्युपनिषत्।।
21।।
मैं
समस्त वेदांत
द्वारा जाना
गया ब्रह्म ही
हूं और मैं
आकाश, वायु
आदि जान पड़ने वाली
वस्तु नहीं
हूं। मैं रूप
नहीं हूं नाम
नहीं हूं और
कर्म नहीं हूं
वरन केवल
सच्चिदानंद
स्वरूप
ब्रह्म ही
हूं। मैं देह
नहीं हूं तो
फिर मुझे
जन्म-मरण कहां
सेही? मैं प्राण
नहीं हूं तो
मुझे
भूख-प्यास कैसे
लगे? मैं
मन नहीं हूं
तो मुझे
शोक-मोह किस
बात का हो?
मै
कर्ता नहीं
हूं तो मुझे
बंधन और मोक्ष
कैसा? इस
प्रकार का यह
रहस्य है।
सर्वसारोपनिषद्सभाप्त।
ज्ञान
जहां तक जाता
है वहां तक उस
ज्ञान के
विस्तार का
नाम वेद है।
वेद का अर्थ
होता है.
ज्ञान; जानना।
जिस मूल से
वेद शब्द बना
है उसी से विद्वान
भी। ज्ञान
अर्थात वेद।
लेकिन
ऐसा भी आयाम
है जीवन का, और
अस्तित्व की
ऐसी गुह्य
स्थिति भी है,
जहां वेद भी
प्रवेश नहीं
कर पाता है, जहां ज्ञान
भी नही पहुंच
पाता है, जहां
ज्ञान को भी
बाहर ही छोड़
कर प्रवेश
मिलता है।
इसलिए भारत ने
एक अनूठा शब्द
गढ़ा है, वह
सुना आपने
बहुत होगा, समझा शायद
ही हो; वह शब्द
है, ' वेदांत।
' वेदांत
का अर्थ होता
है : जहां वेद
का भी अंत हो जाए,
जहा वेद की
भी पहुंच नहीं,
जहां वेद के
भी आगे जाना
पड़ता है, जहां
वेद भी व्यर्थ
हो जाता है, जहां वेद की
भी गति नहीं।
वेद का अर्थ
है : समस्त
ज्ञान.. जहां
तक जाना जा
सकता है, वह
सब भी काम नहीं
पड़ता--जो भी
जाना हुआ है
वह काम नहीं
पड़ता; जो
भी जान लिया
गया है वह काम
नहीं पड़ता; जो भी अनुभव
हुआ है वह काम
नहीं पडता; जो भी ज्ञात
संपदा है वह
काम नहीं
पड़ती--वहां से
वेदांत
शुरूहोता है।
जहां
वेद समाप्त
होता है वहां
से वेदांत
शुरू होता है; वेद
की जहां सीमा
आ जाती है
वहां वेदांत
का प्रारंभ
है। अगर
वेदांत को हम
ठीक से
अंग्रेजी में
अनुवादित करें
तो उसका अर्थ
होगा :
नो-नॉलेज।
इसकी
तीन सीढ़ियां
हम समझ लें।
एक है, ज्ञान; उसके नीचे
एक सीढ़ी है, अज्ञान; और
उसके ऊपर एक
सीडी है, ज्ञानातीत।
अज्ञान--जब हम
नहीं जानते; ज्ञान--जब हम
जानते हैं...
अर्थात न
जानने के हम पार
गए; और
ज्ञानातीत--अर्थात
जब हम जानने
के भी पार गए।
अज्ञान
तो बांधता ही
है,
ज्ञान भी
बांध लेता है।
मुक्ति तो तभी
है जब ज्ञान
भी शून्य हो
जाए। अज्ञान
तो शून्य होना
ही चाहिए, पर
उतना काफी
नहीं है। तो
पृथ्वी पर
अज्ञान को
मिटाने वाली
तो बहुत सी
परंपराएं
पैदा हुईं, सारे जगत
में अनंत
धाराएं पैदा
हुईं जिन्होंने
अज्ञान को
मिटाने की
कोशिश की, लेकिन
संभवत: पूरब
के बहुत कीमती
लोगों ने एक और
नई धारा पैदा
की और
उन्होंने कहा
कि एक सीमा आ
जाती है जहां
ज्ञान को भी
मिटाना होता
है, वह भी
बंधन बन जाता
है, न
जानना तो बंधन
है, जानना
भी बंधन बन
जाता है।
क्योंकि
जानने की भी
सीमा है।
कितना ही कोई
जानता हो, जानना
असीम नहीं
हो
सकता। और असीम
को अगर जानना
हो,
तो समस्त
जानने को छोड़
देना पड़ता है।
इसलिए गहरे
अर्थों में
परम ज्ञानी
अज्ञानी जैसा
हो जाता है--एक
अर्थ में
अज्ञानी जैसा हो
जाता है; क्योंकि
जान उसके पास
भी नहीं। एक
अर्थ में अज्ञानी
से बिलकुल
विपरीत होता
है; क्योंकि
अज्ञानी
इसलिए
अज्ञानी होता
है कि ज्ञान
उसके पास नहीं
है, और
ज्ञानी इसलिए
अज्ञानी होता
है--यह परम
इतनी--कि उसने ज्ञान
को भी छोड़
दिया। इसे हम
ऐसा समझें।
एक
आदमी भिखारी
की तरह ही
पैदा हुआ है, और
सड़क पर भीख
मांग कर ही
बड़ा हुआ है।
फिर एक दिन
अचानक गौतम
बुद्ध भी
राजमहल से उतर
कर सड़क पर भीख
मांगने खड़े हो
जाते हैं। एक
ही राह है, दोनों
के हाथ में एक
से
भिक्षापात्र
हैं, भिखारी
और बुद्ध
दोनों साथ ही
राह पर भीख
मांगने चलते
हैं। क्या भेद
है? दोनों
भीख मांगने
निकले हैं, दोनों के
हाथ में
भिक्षापात्र
है, दोनों
द्वारों पर
खडे होकर
भिक्षा का
पात्र फैलाएंगे।
दोनों भिखारी
हैं--लेकिन
क्या निश्चित
ही दोनों
बिलकुल एक
जैसे हैं?
ऊपर
से भेद बिलकुल
दिखाई नहीं
पडता, भीतर से
बड़ा भेद है।
भिखारी सिर्फ
भिखारी है। उसके
पास कुछ नहीं
है बस, उसके
होने को उसने
कभी जाना भी
नहीं, इसलिए
न होने में
बडा पीड़ित है।
धन नहीं है उसके
पास भी और
बुद्ध के पास
भी, लेकिन
उसने धन को
कभी जाना ही
नहीं है।
इसलिए धन का न
होना एक ग-ए की
भांति है, पीड़ादायी
है; बहुत
घाव है, रिसता
है; आत्मा
खाली
भिक्षापात्र
है--हाथ में ही
भिक्षापात्र
नहीं, भीतर
भी
भिक्षापात्र
ही है। लेकिन
यह पास में खड़ा
हुआ बुद्ध है,
यह भी
भिखारी है, लेकिन इसने
धन को जाना
है। धन का
अभाव नहीं है इसके
पास, धन का भाव
था अति; बहुत
था धन, पर्याप्त
था और व्यर्थ
हो गया है। यह
छोड़ कर आया है,
यह जान कर
आया है। धन
इसके लिए
व्यर्थ हो गया
है, भिखारी
के लिए धन अभी
सार्थक है।
दोनों भिखारी
हैं, पर
बुद्ध के
भिखारीपन में
एक बड़े सम्राट
का भाव है।
बुद्ध के
भिखारीपन में
भी एक शालीनता
है जिसके
सामने सम्राट
भी झेंप जाएं।
बुद्ध के इस
भिखारीपन में
बड़ी मालकियत
है। यह धन व्यर्थ
हुआ है, छूट
गया है, धन
में कोई
सार्थकता
नहीं रह गई
है। दूसरा भी भिखारी
है, लेकिन
बिलकुल
भिखारी है, धन बड़ा
सार्थक है... और
धन की मांग
जारी है।
ठीक
ऐसी ही घटना
घटती है
अज्ञानी और
परम ज्ञानी
में। परम शानी
भी ज्ञान को
छोड़ देता है
ऐसे ही जैसे
कोई बुद्ध धन
को छोड़ देता
है--जान कर, पहचान
कर, पाकर।
देख लेता है
कि ज्ञान भी
सीमा के पार
नहीं जाता; सब वेद भी
ठहर जाते हैं;
उस असीम से
मिलन नहीं हो
पाता--छोड़
देता है; आग
लगा देता है
ज्ञान में भी;
वेद को भी
डाल देता है
अग्नि में, स्वाहा कर
देता है।
अज्ञानी जैसा
हो जाता है लेकिन
अज्ञानी नहीं
है। अज्ञानी
अभी
ज्ञान की तलाश
में है, इसके
ज्ञान की
यात्रा अभी
पूरी हुई और
यह पार चला
गया है। इसलिए
ऋषि कहता है :
''
मैं समस्त
वेदांत
द्वारा जाना
गया ब्रह्म ही
हूं। ''
नहीं
कहता कि समस्त
वेदों द्वारा, नहीं
कहता कि वेदों
द्वारा जाना
गया ब्रह्म हूं
क्योंकि वेद
जिस ब्रह्म को
जानते हैं वह
मैं नहीं हूं;
वह सीमित है;
वह भी ज्ञान
की धारणाओं
में बंध जाता
है, आबद्ध
हो जाता है।
''
मैं वेदांत
के द्वारा
जाना गया
ब्रह्म हूं। ''
वेद
भी जिसे नहीं
जान पाते और
जो वेद को
छोड़ने की
हिम्मत
जुटाता है, वही
जान पाता है; वही मैं
हूं।
इसे
हम भीतर की
तरफ समझें तो
आसानी हो जाए।
ज्ञान से हम
सब-कुछ जान
सकते हैं, सिर्फ
स्वयं को नहीं;
क्योंकि
ज्ञान के समक्ष
है सब-कुछ, लेकिन
हम ज्ञान के
भी पीछे हैं।
ज्ञान से हम सब-कुछ
जान सकते हैं
क्योंकि
ज्ञान एक साधन
है मेरा।
हम
ऐसा समझें।
आंख
से हम सब-कुछ
देख सकते हैं, लेकिन
अपनी ही आंख
को नहीं। और
अगर आप दर्पण
में देख लेते
हैं तो अपनी
आंख नहीं
देखते, अपनी
आंख का प्रतिफलन
ही देखते हैं।
प्रतिफलन
दूसरी चीज हो
गई। आंख
सब-कुछ देख
लेती है, लेकिन
बड़ी मुसीबत की
बात है खुद को
क्यों नहीं
देख पाती? क्योंकि
किसी भी चीज
को देखने के
लिए दूरी पर रखना
जरूरी है, फासले
पर रखना जरूरी
है, आमने-सामने
होना जरूरी
है। अब आंख
अपने ही आमने-सामने
कैसे हो? नहीं
हो सकती।
इसलिए आंख
सब-कुछ देख
लेगी, आंख
भर को नहीं
देख पाएगी।
हमारा
ज्ञान भी इस
जगत में
सब-कुछ जान
लेगा, सिर्फ
वह जो हमारे
भीतर छिपा हुआ
ब्रह्म है, वह जो हम हैं,
उसे भर नहीं
जान पाएगा; क्योंकि
ज्ञान उस
ब्रह्म की आंख
है; उससे
सब-कुछ जाना
जा सकता है।
और उस सब-कुछ
को जो जान कर
संग्रह किया गया
है उसका नाम
वेद है।
ब्रह्म ने
जिसे जाना है
वह वेद है, और
ब्रह्म जिससे
जाना जाता है
वह वेदांत है।
अब
यह ब्रह्म
किससे जाना
जाएगा? कौन
जानेगा इसे? असल में
जानने की भाषा
ही छोड़ देनी
पड़ेगी, क्योंकि
जानना सदा दूसरे
का ही होता
है। स्वयं का
कोई जानना
क्या होगा!
कैसे जानेंगे
उसे जो हम हैं
ही? कौन
जानेगा? किस
कोण से जानेगा?
किस दिशा से
जानेगा? इसलिए
स्वयं के
संबंध में हम
जो भी जान
लेंगे वह
पराया हो
जाएगा जानने
के कारण ही।
असल में स्वयं
का होना ज्ञान
की पकड़ के
बाहर है।
तो
एक है उपाय कि
अगर हम सारे
ज्ञान को
वस्त्रों की
भांति उतार कर
नीचे रख दें; जैसे
कोई नग्न हो
जाए वस्त्रों
को छोड़ कर, ऐसे
हम ज्ञान से
नग्न हो जाएं,
तो जो
स्फुरणा घटित
होती है--वह
ज्ञान नहीं है,
स्फुरणा
है--तो जो पुलक
भीतर हो जाती
है, वह जो
बिना जाने
जानना हो जाता
है उसका नाम
वेदांत है।
ज्ञान
से नग्न हुआ
जो चित्त है
वह वेदांत में
प्रवेश करता
है।
लेकिन
आदमी बड़ा कुशल
है। उसने
वेदांत को भी
शास्त्र में
निबद्ध कर
लिया है। उसने
वेदांत के भी
वेद बना लिए
हैं। और इसलिए
पंडित लोगों
को समझाए चले
जाते हैं कि
वेदांत वेदों
का अंत नहीं
है,
वेदों का
सार है। पंडित
समझाए चले
जाते हैं कि
वेदांत जो है
वेद का ही अंग
है। सरासर है
झूठी यह बात; सरासर है
गलत।
सारी
चेष्टा ही यही
रही है परम
ज्ञानियों की
कि किसी भांति
आपको शब्द से, सिद्धात
से, ज्ञान
से छुटकारा
मिले, ताकि
उस परम में प्रतिष्ठा
हो जाए जिसमें
जानने के
द्वारा कोई
द्वार ही नहीं
खुलता है।
होने के
द्वारा द्वार
खुलता है, जानने
के द्वारा
नहीं। नॉट
थ्रू नोइंग, बट थ्रू
बीइंग। और
ज्ञान बाधा है
होने में; क्योंकि
ज्ञान
विस्तार है, अपने से
बाहर फैलाव
है। और होना
अपने में डूब जाना,
अपने में
ठहर जाना है, मूल बिंदु
पर रुक जाना
है।
तो
वेदांत का जो
अर्थ है, वह है
जिस दिन आप
सारे ज्ञान को
छोड़ने को वैसे
तैयार हो जाएं
जैसे कोई
बुद्ध धन को
छोड़ने को तैयार
हो जाता है।
ज्ञान भी धन
है, भीतरी
संपदा है, संगृहीत
है।
और
बड़े मजे की
बात है : जैसे
धन भी हमारा
नहीं होता, हम
सिर्फ बीच के
श्रृंखला में
बंधे हुए एक
मालिक होते
हैं--बाप का धन
बेटे को मिल
जाता है, बेटे
का धन और बेटे
को मिल जाता
है। धन लेकर
तो कोई पैदा
नहीं होता, एक बात
पक्की है।
कहीं से भी
मिलता हो, कैसे
भी मिलता हो, धन लेकर कोई
पैदा नहीं
होता
है--राज्य
देता हो, कि
परंपरा देती
हो, कि वंश
देता हो, कि
समाज देता हो,
कि श्रम से
खोजा जाता हो,
कि चोरी की
जाती हो--एक
बात तय है कि
धन लेकर कोई पैदा
नहीं होता है
और धन लेकर
कोई मरता नहीं
है। इसलिए धन
बीच की कोई
घटना है जो
हमसे बाहर है।
ज्ञान
भी ऐसा ही है; जान
भी हमें
दूसरों से ही
मिलता है।
ज्ञान भी अर्जित
राशि है समाज
की। इसलिए
जानवर ज्ञानी नहीं
हो पाते, उसका
और कोई कारण
नहीं है, सिर्फ
इतना ही कारण
है कि उनके
पास ज्ञान को
संगृहीत करने
के लिए भाषा
नहीं है।
इसलिए बाप जब
मरता है तो
बेटे को अपना
अनुभव नहीं दे
जा पाता; कोई
उपाय नहीं है।
बेटे को फिर
वहीं से शुरू
करना पड़ता है
जहां से बाप
ने शुरू किया
था। इसलिए
जानवर आगे
नहीं बढ़ पाते।
जिन
कौमों के पास
लिखने का साधन
नहीं है वे कौमें
भी आगे नहीं
बढ़ पातीं, क्योंकि
बाप मुखाग्र
कितना कह सकता
है! बहुत कुछ
खो जाता है; फिर बेटों
को वहीं से
शुरू करना
पड़ता है-- अ ब स
से।
भाषा
के विकास ने
ज्ञान की
तिजोडिया बना
दीं। और जिस
दिन हमने लिपी
भी खोज ली और
लिखना भी खोज
लिया उस दिन
तो ज्ञान के
खोने का डर ही
समाप्त हो
गया। इसलिए
पहली दफा आदमी
में यह घटना
घटी है कि
जानवर हमेशा..
बाप जहां से
शुरू करता है, बेटा
पुन: वहीं से
शुरू करता है;
बाप जहां
मरता है, बेटा
वहीं जाकर
मरता है; उसके
बेटे फिर वहीं
से शुरू करते
हैं, इसलिए
कोई विकास
नहीं हो पाता;
क्योंकि
कोई बेटा बाप
के कंधे पर
खड़ा नहीं हो पाता।
आदमी का सारा
विकास.. हर
बेटा बाप के
कंधे पर खड़ा
होता चला जाता
है। लंबाई
बढ़ती चली जाती
है, ज्ञान
की राशि
इकट्ठी हो
जाती है। हर
पीढी ज्ञान को
इकट्ठा करके
दे देती है।
इसीलिए जो
समाज जितना
ज्ञान इकट्ठा
कर लेते हैं
उतने बुद्धिमान
हो जाते हैं।
ज्ञान एक
संग्रह है।
जरा
ऐसा सोचें कि
बीस साल के
लिए सारे विश्वविद्यालय, सारे
स्कूल, सारे
कॉलेज बंद कर
दिए जाएं, सारे
पुस्तकालय
जला दिए जाएं,
और बीस साल
के लिए किसी
तरह की शिक्षा
का कोई उपाय न
रखा जाए--बाप
बेटे को
समझाना बंद कर
दे, गुरु
शिष्य को
समझाना बंद कर
दे--आपको पता
है, क्या
होगा? बीस
साल में आप
वहां पहुंच जाएंगे
जहां बीस लाख
साल पहले थे।
सब खो जाएगा।
ज्ञान
एक संग्रह है।
और संग्रह को
रोज हस्तांतरित
करना पडता है; इसलिए
स्कूल हैं।
स्कूल, कॉलेज,
विश्वविद्यालय
करते क्या हैं?
बाप की पीढ़ी
ने जो इकट्ठा
किया है उसे
बेटों की पीढ़ी
को सौंपते हैं,
और तो कुछ
करते नहीं। शिक्षक
जो है वह
संक्रमण का
काम करता रहता
है। उसका कुल
धंधा इतना है
कि पुरानी
पीढ़ी जो इकट्ठा
करती है वह नई
पीढ़ी को दे
दे--बस इतना
उसका काम है, बीच की
श्रृंखला का।
यह
ज्ञान भी
संपदा है और
यह भी हमें
दूसरों से ही
मिलती है। इस
सबके जोड़ का
नाम वेद है।
इसलिए हम वेद
को संहिता
कहते रहे हैं।
संहिता का
अर्थ होता है
संगृहीत, दि
क्लेक्टेड, वह जो
इकट्ठा है, जो भी जाना
है, इकट्ठा
है। इसलिए वेद
से मैं ऐसा
मतलब नहीं लेता
कि वे चार
संहिताएं ही
वेद हैं। जगत
में जो भी
इकट्ठा हुआ है
ज्ञान, वह
सभी वेद है; ज्ञान मात्र
वेद है, और ज्ञानमात्र
संहिता है, क्योंकि वह
सब इकट्ठा ही
होता है; संग्रह।
लेकिन
इसलिए ऋषि
बहुत खयाल पूर्वक
कहता है, ध्यानपूर्वक।
यह शब्द ऐसा
ही नहीं है.. कि 'वेदांत
द्वारा जो
जाना गया'--वेद
द्वारा नहीं;
क्योंकि
संगृहीत
ज्ञान से जो
जाना गया है
वह कोई ज्ञान
नहीं है। ब्रह्म
का ज्ञान
संगृहीत नहीं
होता; वह
हमारे भीतर है
ही, उसे
हमें बाहर से
नहीं लाना
पड़ता।
इसलिए
यह हो सकता है
कि अगर
विश्वविद्यालय
बंद कर दिए
जाएं, शिक्षा
का आयोजन टूट
जाए, और
अगर जैसा कि
सारे जगत में
नये युवकों के
आंदोलन चलते
हैं-- हिप्पी
हैं, और सब
हैं, अगर
वे समर्थ हुए
और जीत गए तो
विश्वविद्यालय
चल नहीं
सकेंगे; पुस्तकालय
जला दिए
जाएंगे; जल्दी
सब समाप्त हो
जाएगा। लेकिन
तो भी ब्रह्मज्ञान
को कोई चोट
नहीं
पहुंचेगी।
सब
वेद जल जाएं, सब
बाइबिल, सब
कुरान नष्ट हो
जाएं, ब्रह्मज्ञान
को कोई चोट
नहीं
पहुंचेगी, क्योंकि
उनसे कभी
ब्रह्मज्ञान
मिला ही नहीं।
इररिलेवेंट
हैं। उनसे कोई
संगति ही नहीं
है। ब्रह्मज्ञान
जब भी मिला
भीतर से मिला।
बाहर प्रकट भला
किया गया हो, मिला बाहर
से कभी नहीं।
तो
वेदों ने भला
कोशिश की हो
कहने की कि
ब्रह्मज्ञान
क्या है, लेकिन
वेदों से
ब्रह्मज्ञान
कभी मिला नहीं
है।
अभिव्यक्ति
होगी, जिसने
जाना उसने
कहने की कोशिश
की है, और
उससे वेद
निर्मित
हुए--लेकिन
जिसने भी कभी जाना
उसे वेद से
नहीं मिला है,
उसे वेदांत
से मिला है।
और जब मैं
वेदांत कहता
हूं तो मेरा
मतलब, उसे
ज्ञानांत से
मिला है; जब
उसने ज्ञान को
भी अंत किया
है, ज्ञान
को भी छोड़
दिया है।
उसने
कहा,
सब जान लिया,
लेकिन जो भी
जाना वह बाहर
से आया। अब हम
उस सबको छोड़ते
हैं और उसे
जानना चाहते
हैं जो भीतर है,
जो बाहर से
कभी भी आया
नहीं है। अब
हम उसी को पहचानना
चाहते हैं। अब
हम उसी
शुद्धतम की
खोज में चलते
हैं जो बाहर
से अनुपलब्ध
है, सदा
अनुपलब्ध है
और भीतर सदा
प्राप्त है।
इसलिए
ऋषि कहता है : ' समस्त
वेदांत ने '... और यह भी
विचारणीय है...
कि अगर सिर्फ
ऋषि इतना ही
कहता कि
वेदांत ने
जिसे जाना, तो थोड़ी सी...
थोड़ी सी भूल
हो जाती।
इसलिए ऋषि कहता
है : '' मैं
समस्त वेदांत
द्वारा जाना
गया...।
''क्योंकि
वेदांत कोई
इसी देश में
यहीं पैदा हो,
ऐसा नहीं
है... जहां भी
वेदांत हुआ
है--समस्त वेदांत...
कहीं भी।
जीसस
भी जानते हैं
तो वेदांत है।
हालांकि उन्हें
उपनिषद का कोई
पता
नहीं--जरूरत
भी नहीं है।
लाओत्सु भी
जानता है तो
वह वेदांत से, इकहार्ट
भी जानता है
तो वह वेदांत
से--जब भी जगत में
कोई जानता है
तो वैदांत से।
सब, जो भी
उसके पास
ज्ञान की
संहिता है उसे
छोड़ कर ही
जानता है।
इसलिए ऋषि
कहता है : 'समस्त
वेदांत ने'... कहीं भी, किसी
काल में, किसी
समय में, और
किसी स्थिति
में, और
किसी स्थान
में किसी ने
जाना हो, तो
वह सदा वेदांत
से ही जाना
गया है : बाइ
सिजेशन ऑफ
नॉलेज। इतना
व्यापक अर्थ
है वेदांत का।
लेकिन
जैसा आदमी है
और जैसा आदमी
का मन है, हम
ऐसे लोगों को
भी मिलते हैं,
ऐसे लोग भी
मिल जाते हैं
जो कहते हैं, हम वेदांती
हैं। वेदांती
कोई भी नहीं
हो सकता। यह
निपट मूढ़ता
है। वेदांती
कोई भी नहीं हो
सकता, क्योंकि
वेदांत वाद
नहीं है।
क्योंकि वाद
तो फिर
शास्त्र बन
जाता है, वेद
बन जाता है।
इसलिए कोई अगर
कहता है कि हम
वेदांत में
मानते हैं, तो बड़ी भूल
की बात कह रहा
है; क्योंकि
जहां मान्यता
मौजूद है वहां
ज्ञान क्या
समाप्त हुआ
होगा, क्योंकि
मान्यता तो
ज्ञान की होती
है। इसलिए कोई
वेदांती नहीं
है.. जब मैं यह
कहता हूं तो
उसका मतलब यह
है कि कोई
वेदांत को वाद
नहीं बना सकता।
और जो भी
बनाएगा वह समझ
ही नहीं पा
रहा है. ही हैज
मिस्त्र दि
पॉइंट; वह
असली बात ही
चूक गया। वेदांत
का मतलब ही यह
है कि बाद
नहीं, शास्त्र
नहीं, ज्ञान
नहीं; अब
वेदांती कैसे
बनिएगा?
असल
में अगर
वेदांत में
प्रवेश करना
है,
तो सब वाद, सब शास्त्र,
सब
सिद्धांत
छोड़ने
पड़ेंगे। वेद
भी छोड़ देना पड़ेगा।
तो उस आदमी को
हम कह सकते
हैं, वेदांतमय--
लेकिन
वेदांती
नहीं। वेदांत
में प्रवेश
किया उस आदमी
ने, यह तो
हम कह सकते
हैं; लेकिन
वह आदमी लौट
कर यह नहीं कह
सकता कि मैं वेदांती
हूं। यह
असंगति होगी;
तो शब्द ही
अर्थ खो देगा।
''
समस्त
वेदांत
द्वारा जाना
गया ब्रह्म ही
हूं मैं। ''
'मैं वही हूं
जिसे
ज्ञानियों ने
तब जाना जब
सारा ज्ञान
शून्य हो जाता
है। यहां जो
घोषणा कर रहा
है ऋषि, वह
घोषणा परम
तत्व की है।
कोई सोच सकता
है कि बड़ी
अहंकारग्रस्त
है.. कि मैं
हूं वही, जिसे
सब, समस्त,
सर्व
वेदांतों ने
जाना। नहीं, जरा भी कहीं
कोई अस्मिता
नहीं है। इतना
ही कह रहा है
वह कि अब मैं
उस तत्व की बात
करता हूं उस
परम तत्व की
बात करता हूं
जहां ज्ञान भी
नहीं पहुंच
पाता; जहां
ज्ञान भी
असमर्थ है
वहीं मेरा वास
है; जहां
सिर्फ होने की
समर्थता है; जहां शुद्ध
अस्तित्व का
ही प्रवेश है--
जानना भी जहां
विध्वंस हो
जाता है, और
जानना भी जहां
विध्न हो
जाता है, और
जानना भी जहां
असंगति पैदा
करता है, विसंगीत
पैदा करता है,
और जानने से
भी जहां
बेचैनी होती
है, जानने
की लहर भी
जहां नहीं
है...।
हमने
बहुत सुनी हैं
ये बातें कि
विचार शांत हो
जाए तो ध्यान
होता है।
लेकिन अब एक
और गहरी बात
समझ लें.. कि
ज्ञान भी शांत
हो जाए तो ब्रह्म
होता है।
विचार शांत हो
जाए तो ध्यान
होता है, लेकिन
ध्यान में
जानना बना
रहता है।
जानना भी समाप्त
हो जाए, जानने
की तरंग भी खो
जाए, ज्ञान
भी खो जाए, तो
ब्रह्म होता
है।
''
मैं रूप
नहीं, नाम
नहीं, कर्म
नहीं, केवल
सच्चिदानदस्वरूप
ब्रह्म हूं।
आकाश, वायु
आदि जान पड़ने
वाली वस्तुएं
मैं नहीं हूं।
''
''मैं
देह नहीं हूं? '--यह बहुत
बहुमूल्य वचन
अंतिम है, अति
बहुमूल्य--''मैं देह
नहीं हूं तो
फिर मुझे
जन्म-मरण कैसे
हो? मैं
प्राण नहीं तो
मुझे
भूख-प्यास
कैसे लगे? मैं
मन नहीं तो
मुझे शोक-मोह
किस बात का? ''
और
अंतिम वचन
उत्तर है पहली
जिज्ञासा का, जहां
से उपनिषद
शुरू हुआ था।
इतनी लंबी
यात्रा के बाद
जो उत्तर है, वह बहुत
चकित करने
वाला है, वह
उत्तर है : '' मैं
कर्ता नहीं
हूं तो मुझे
बंधन और मोक्ष
कैसा? ''
जिज्ञासा
शुरू हुई थी
कि बंधन क्या
है,
मोक्ष क्या
है? यह पहली..
-पहली बात।
ऋषि ने इतनी
लंबी चर्चा की,
और जीवन के
गहन तत्व में
प्रवेश किया,
और अभी आप
सोच भी नहीं
सकते थे कभी
कि आखिर में अगर
ऋषि को यही
कहना है तो यह
पहले ही कह
देना था।
ऋषि
यह कह रहा है
कि बंधन है ही
नहीं, तो
मोक्ष कैसा? क्योंकि
बंधने वाला
मैं नहीं हूं
मैं बंध सकता
नहीं हूं; स्वतंत्रता
मेरा स्वभाव
है, इसलिए
मुझे बांधेगा
कौन? मैं
बैका कैसे? बंधन मुझ पर
टिकेंगे कैसे?
मैं इतना भी
तो नहीं हूं
कि -बांधा जा
सकूं। इतना भी
आकार कहां कि
बंधन कसा जा
सके? इतना
भी रूप कहां
कि कारागृह
चारों तरफ
बनाई जा सके? सीमा कहां? सारी सीमाओं
को गिरा कर, सारे रूप से
मुक्ति की बात
करके, शायद
अब तक जिशासु
भी भूल गया
होगा कि पूछा
था मैंने--बंधन
क्या है, मोक्ष
क्या है? बात
बहुत दूर चली
गई थी, आपको
भी शायद ही
स्मरण रहा हो!
बात इतनी दूर
चली गई
थी--इतनी गहरी..
इतनी गहरी..
लेकिन ऋषि कहता
है. ' मैं कर्ता
नहीं हूं तो
मुझे बंधन और
मोक्ष क्यों
हो? 'और
जब बंधन ही न
हो सके तो
मोक्ष का क्या
अर्थ होगा? अगर बंधन ही
मुझ पर नहीं
बन सकता तो
मोक्ष का सवाल
कहां है?
प्रश्न
से शुरू हुआ
यह उपनिषद, और
प्रश्न पर
पूरा होता है।
ऋषि कहता है
कि बंढ़ग्न
क्यों हो? मोक्ष
क्यों हो? मैं
जैसा हूं वहां
बंधन और मोक्ष
का कोई उपाय ही
नहीं है। यदि
यही कहना था, तो पहले ही
कह दिया होता।
एक
सूफी घटना
मुझे याद आती
है। फकीर हसन
गुरु की तलाश
में निकला।
अपने ही गांव
के बाहर गया है।
गांव के बाहर
ही एक चट्टान
के पास बैठा
हुआ एक का फकीर
है। हसन ने
पूछा कि मैं
खोज पर निकला
हूं। इस गांव
में तो सत्य
मिलेगा इसकी
कोई आशा नहीं
है--किसी को भी
अपने गांव में
नहीं होती--और
जिन लोगों को
मैं जानता हूं
इनके पास कुछ
सत्य होगा
इसके बाबत तो
निश्चित हूं
कि यह भूल कर भी
नहीं हो सकता।
इसलिए जा रहा
हूं छोड़ कर इस
जगह को। क्या
आप मुझे कुछ
निर्देश करेंगे
कि मैं किस
तरफ जाऊं, कहां
खोजूं?
उस
फकीर ने कहा :
बहुत मुश्किल
है,
बड़ा कठिन
है। फिर भी
तने पूछा तो
मे नई। बताता हूं।
इस-इस
रूप-रेखा का
आदमी जिस दिन
तुझे मिले, उसका पीछा
मत छोड़ना। ऐसा
चेहरा, ऐसी
आंख, ऐसी
सिर पर पगड़ी, ऐसा कुर्ता,
ऐसे ढंग से
बैठा, ऐसे
पत्थर पर, ऐसे
झाडू के
नीचे--यह सब
बता देता हूं।
जिस दिन तुझे
यह आदमी मिल
जाए उस दिन तू
पीछा मत छोड़ना।
वह
आदमी खोजता
रहा... खोजता
रहा... कहते हैं
हसन ने हर नगर, हर
गांव छान
डाले--न वह झाड़
मिले, न वह
पत्थर की
चट्टान, न
वह आदमी--तीस
साल जमीन पर
भटकता रहा, भटकता रहा, भटकता रहा।
थक गया, ऊब
गया, परेशान
हो गया, जरा-
जीर्ण हो गया,
सत्य की तो
कोई झलक मिली
नहीं, वह
जो सत्य की
प्यास थी वह
भी करीब-करीब
बुझ गई और धूल
से भर गई। और
अब शक होने
लगा कि सत्य
है भी, जो
मिले? और
उस बूढ़े पर भी
बहुत क्रोध
आने लगा कि
नासमझ ने कहां
का और एक... शुरू
गांव से निकले
और मुसीबत में
पड़ गए... उसने और
कहां की यह सब
रूप- रेखा बता
दी! यह न बताता
तो शायद कहीं
हम खोज भी
लेते, हम
इसी के खोजने
में बर्बाद
हुए; न यह
जगह मिली, न
यह आदमी मिला!
अपने
गांव वापस लौट
रहा है। गांव
के
प्रवेश-द्वार
पर ही वह का बैठा
हुआ है। चकित
हुआ हसन देख
कर.. दरख्त वही
मालूम होता है
जिसकी उसने
बात की थी, चट्टान
भी वही है! पास
आया, देखा
कि आंखें भी
वही हैं! पैर
पकड़ लिए और
चिल्लाया कि
पागल तो नहीं
हो तुम? अगर
तुम ही हो वह
जिसका मुझे पकड़ना
है, तो
पहले ही क्यों
न बता दिया? ये तीस साल
मुझे क्यों
भटकाया?
उस
बूढ़े फकीर ने कहा.
मैंने तो उसी
दिन बता दिया
था;
पर तीस साल
जरूरी थे
भटकने के लिए
तब तू मुझे पहचान
पाता। मैंने
तो सब बात यह
उसी दिन तुझसे
कही थी कि ऐसी
चट्टान हो, लेकिन तूने
मेरी, जिस
चट्टान पर
बैठा था, उसकी
तरफ देखा ही
नहीं। ऐसा
दरख्त हो..
तूने दरख्त की
तरफ देखा ही
नहीं! तू
जल्दी में था;
तू खोज पर
जाने के लिए
उत्सुक था। तू
कहां...? और
तू मान कर ही
बैठा था कि
जहां से तू जा
रहा है वहां
तो सत्य हो ही
नहीं सकता।
मैंने आंखों का
वर्णन किया था,
और तूने
मेरी आंख की
तरफ भी नहीं
देखा। और मैंने
चेहरे की
रूप-रेखा बताई
थी। झंझट में
तू नहीं पड़ा, झंझट में
मैं पड़ा हूं
क्योंकि तीस
साल से यह चट्टान
नहीं छोड़ सका
कि यह नासमझ न
मालूम.. न मालूम
कब यह नासमझ
लौटेगा।
लौटेगा जरूर,
क्योंकि
जाएगा कहां? जो वर्णन मैंने
किया है, सिवाय
इस चट्टान, इस दरख्त के
नीचे कहीं
मिलने वाला है
नहीं। तो तेरे
पीछे परेशानी
में मैं हूं।
लेकिन जरूरी था
कि तीस साल तू
भटके... आवश्यक
था किइस पीड़ा
सेगुजरे। यह
संताप साधना
थी।
यह
ऋषि भी उत्तर
दे सकता था--कह
सकता था, बंधन
कैसा! बंधेगा
कौन? और
बंधन नहीं है,
मोक्ष कैसा?
मुक्ति
कैसी, किसकी?
लेकिन तब
जिज्ञासा की
कोई यात्रा
नहीं हो पाती।
और तब
जिज्ञासु
शायद चुप होकर
लौट जाता, लेकिन
शांत होकर
नहीं लौट सकता
था। शायद उसका
मुंह भी बंद
हो जाता, शायद
वह इसके उत्तर
में कुछ कह भी
न पाता, लेकिन
इससे कोई सहयोग
और समाधान उसे
मिलने वाला
नहीं था।
इतनी
प्रतीक्षा
ऋषि को करनी
पड़ी। यह लंबी
यात्रा थी। इस
लंबी यात्रा
में इंच-इंच
उस जिज्ञासु
को मिटाया
उसने।
बड़े
मजे की बात है, जिज्ञासा
को बिलकुल छोड़
दिया। उसने जो
पूछा था उसकी
बात ही जैसे
एक तरफ रख दी; उसी को
मिटाने में लग
गया... और कहने
लगा : शरीर
नहीं, इंद्रिय
नहीं, मन
नहीं, बुद्धि
नहीं, मैं
नहीं, तू
भी नहीं, वह
भी नहीं, वेद
भी नहीं, ज्ञान
भी नहीं--उस
सबके पार, और
पार, और
पार.. उसे
बिखेरता गया,
उसे गलाता
गया। और अब जब
बिलकुल गलाने
की सीमा पूरी
हो गई, और
जब देखा कि
बर्फ की जो
चट्टान आई थी
वह पिघल कर
पानी होकर सागर
के साथ मिल गई
है, तब
उसने पूछा है
अब जिज्ञासु
से.. कि मैं
तुझसे पूछता
हूं कि बंधन
कैसा, किसको?
कौन बंधेगा?
क्योंकि तू
है कहां, जो
बंध सके? और
अगर तू कभी
बंधा ही नहीं
है, तो
मुक्ति की
तलाश क्या कर
रहा है? किसको
मुक्त करेगा?
कौन होगा
मोक्ष को
उपलब्ध?
इस
लिहाज से यह
अदभुत है
उपनिषद।
प्रश्न से शुरू
होता है, प्रश्न
पर पूरा होता
है, लेकिन
प्रश्न का रूप,
प्रश्न की
व्यवस्था, प्रश्न
का गुण बदल
जाता है।
प्रश्न पूछा
था शिष्य ने
प्रारंभ में,
और प्रश्न
पूछता है गुरु
अंत में; और
दोनों के बीच
में कहीं
उत्तर है।
इसलिए दोनों
ने प्रार्थना
की थी : ' हमारी
रक्षा करना; हम साथ ही
पराक्रम करें,
हमारा
साथ-साथ
पुरुषार्थ हो;
हम दोनों को
बचाना; हम
डूब न जाएं
बीच में। '
उत्तर
देना बहुत
आसान था, समाधान
तक पहुंचाना
बहुत कठिन है।
उत्तर कोई भी
दे देता है।
उत्तर देने से
कोई गुरु नहीं
होता--शिक्षक
हो सकता है, गुरु नहीं
होता। गुरु और
शिक्षक का यह
फर्क है। गुरु
समाधान देता
है, शिक्षक
उत्तर देता
है। शिक्षक से
आप पूछ सकते हैं
क्या क्या है,
वह बता देता
है। आवश्यक
नहीं है इस
उत्तर के देने
में कि यह उत्तर
उसका स्वयं का
ही हो; इसको
किसी और ने
दिया होगा। यह
भी आवश्यक
नहीं है कि यह
उत्तर जो दे
रहा है, इससे
उसका कोई
समाधान हुआ
हो। यह भी
आवश्यक नहीं
है। यह उत्तर
है बंधा हुआ।
यह परंपरागत
उत्तर है, यह
शिक्षक शिष्य
को सौंप देता
है।
लेकिन
गुरु उत्तर
नहीं देता, गुरु
समाधान देता
है। समाधान
दिया जा सकता
है समाधि देकर
ही; और तो
कोई उपाय नहीं
है। असल में
समाधि के द्वारा
ही समाधान हो
सकता है। यह
पूरी
प्रक्रिया जो
इस उपनिषद में
कही है, समाधि
की प्रक्रिया
है। अगर इस प्रक्रिया
से एक-एक कदम
बढ़ते चले जाएं
तो समाधि
उपलब्ध हो जाएगी।
समाधि समाधान
है।
और
जिस दिन
समाधान हो गया
उस दिन गुरु
उससे पूछता है
कि अब मैं
तुझसे ही
पूछता हूं।
क्योंकि यह
सारी
जिज्ञासा ऐसी
थी.. जैसा
मैंने बीच में
आपको कहा कि
अंधेरे में
सांझ के
धुंधलके में दिखाई
पड़ गई है
रस्सी, और
मान लिया है
सांप, और
आप भाग कर आए
हैं मेरे पास,
और कहते हैं
कि सांप है
वहा, उसे
कैसे भगाएं? उसे कैसे
हटाएं? लकड़ी
से मारें कि
गोली चलाएं? कि क्या
करें? कि
उस राह से ही
जाना छोड़ दें?
यदि
मैं आपको इतना
ही कहूं कि
वहां कोई
सांप-बाप नहीं
है,
भ्रांति
में पड़े हो, मन का
प्रक्षेप है,
गलती से देखा
होगा; तो
यह आशा करनी
बहुत मुश्किल
है कि आप मेरी
बात मानेंगे।
हो सकता है
चुप हो जाएं, लेकिन मेरी
बात से सांप
ज्यादा
वास्तविक है। बात
ही तो है! सांप
ज्यादा
वास्तविक है।
नहीं, उत्तर
तो मैं दे
सकता हूं
लेकिन उत्तर
से हल न होगा, ज्यादा उचित
होगा कि उठाऊं
दीया और आपके
साथ चलूं.. और
कहूं कि आओ, पहले हम
सांप को देख
लें कि कितना
बड़ा है, फिर
उस हिसाब से
तलवार ले चलें,
या उस हिसाब
से लकड़ी ले
चलें, या
उस हिसाब से
आयोजन करें
उसके विनाश
का--पहले चलें,
पहले सांप
की सामर्थ्य
को देख लें।
और
जानते हुए कि
वहां सांप
नहीं है, यह
दीया लेकर जो
चले आपके साथ
तो शिक्षक
नहीं है।
शिक्षक उत्तर
दे देगा। हो
सकता है, यह
भी बता दे कि
आदमी को कैसे
रस्सी में
सांप दिखाई पड़
जाता है; सब
समझा दे।
लेकिन अगर आप
उससे कहें कि
चलिए फिर आप
उसी रास्ते पर,
वह कहे कि
यह उत्तर भी
मेरा सुना हुआ
है; हम झंझट
में नहीं
पड़ते। हो सकता
है, सांप
हो ही। इससे
हमारा
लेना-देना
नहीं है; यह
उत्तर
शास्त्रीय
है। हमने जाना
है; हमारे
गुरु ने हमसे
कहा, उनके
गुरु ने उनसे
कहा, यह
हमें बिलकुल
पता है। हम सब
बता देते हैं
लेकिन यहां से
हम जाते नहीं।
लेकिन
गुरु आपके साथ
जाएगा--जानते
हुए कि वहां
सांप नहीं है।
लेकिन यह
अनुभव आपका भी
बनना चाहिए कि
सांप नहीं है।
दीया लेकर
जाएगा। यह
पूरा उपनिषद
दीया लेकर आगे
चलता है। और
एक-एक इंच
रास्ते पर
प्रकाश पड़ने
लगता है, अंधेरा
कटने लगता है,
फिर जाकर वह
खड़ा हो जाता
है रस्सी के
सामने। आपको
सांप दिखाई
पड़ता जाता है,
लेकिन वह
कहता है कि
देखो, सांप
कहां है? यह
पूंछ नहीं है,
यह रस्सी है,
यह धड़ नहीं
है, यह
रस्सी है; यह
फन नहीं है, यह रस्सी
है।
यह
पूरी की पूरी
इतनी ही है
सारी चर्चा कि
मैं यह नहीं
हूं मैं यह
नहीं हूं मैं
यह नहीं हूं--यह
सांप काटा जा
रहा है। जब ‘मैं’
बिलकुल कट
जाता है, रस्सी
शेष रह जाती
है, तो वह
गुरु पूछता है
: अब मैं तुमसे
पूछता हूं : सांप
को कैसे मारें?
किस सांप को
मारें? और अगर
सांप नहीं है
तो तलवार
काटेगी क्या?
और अगर सांप
नहीं है तो
मैं तुम्हें
क्या सलाह दूं
कि बचो कैसे? अब तुम्हीं
मुझे बताओ!
और
इस प्रश्न पर
उपनिषद पूरा
हो जाता है।
''और इस
प्रकार यह
उपनिषद
समाप्त। ''
और
शिष्य की तरफ
से एक भी
उत्तर नहीं है
अब। शिष्य को
कुछ तो कहना
चाहिए! कम से
कम धन्यवाद!
कम से कम आभार!
कम से कम कहना
चाहिए कि
बलिहारी गुरु
आपकी! कुछ तो!...
कुछ तो कहना
चाहिए। लेकिन
शिष्य बिलकुल
चुप है। शिष्य
चुप है, क्योंकि
एक अर्थ में
शिष्य मिट गया
है; बोलने
योग्य भी नहीं
बचा है। यह
सांप ही नहीं कटा,
इस कटने में
शिष्य भी कट
गया है। वह
आदमी जो पूछता
हुआ आया था, अब नहीं है।
वह मन जो
पूछता आया था,
अब नहीं है।
वह अहंकार
जिसके पास
प्रश्न थे और
उत्तर की तलाश
थी, वह अब
नहीं है।
असल
में जो आया था
वह अब नहीं है, और
अब जो है वह
कभी भी नहीं
था। कौन दे
धन्यवाद? किसको
दे धन्यवाद? उत्तर भी
क्या?
झेन
फकीर लिंची
कहा करता था
अपने शिष्यों
से,
कि अगर
तुमने मेरे
प्रश्न का
जवाब न दिया, तो भी यह
डंडा
तुम्हारे सिर
पर पड़ेगा, और
अगर तुमने
जवाब दिया तो
भी। निश्चित
ही मुश्किल हो
जाती होगी, क्योंकि अब
कोई उपाय ही
नहीं बचा।
और
लिंची
शिष्यों से
सवाल पूछा
करता था। लिंची
का रिवाज यह
था : कि वह कहता
था कि तुम
मुझसे सवाल
तभी पूछ सकोगे
जब तुम मेरे
जवाब दो, यह
शर्त है। गुरु
शिष्य से कहता
था कि पहले
तुम मेरे सवाल
का जवाब दो, तब मैं
तुम्हें जवाब
दूंगा। और
शर्त यह थी कि डंडा
उसके हाथ में
होता था लिंची
के। और वह कहता
था, अगर
तुमने जवाब
दिया तो तो
मैं मारूंगा
ही, अगर
नहीं दिया तो
भी मारूंगा।
अक्सर लोग भाग
जाते थे; लेकिन
जो जानते थे
वे रुक भी
जाते थे।
जब
पहली दफा
बोकोजू उससे
मिलने गया, तो
बोकोजू ने कहा
कि ऐसा करो, सवाल-जवाब
पीछे हो लेंगे,
पहले डंडा
मार लो; क्योंकि
इस काम से
निपट जाएं।
इससे इसमें
अड़चन पड़ेगी, और नाहक
इसमें उलझाव
बना रहेगा।
इससे हम पहले निपट
लें, यह
सरल काम है, सवाल-जवाब
बहुत कठिन
हैं। पहले
डंडा मार लो, यह रहा मेरा
सिर। लिंची ने
कहा : वह आदमी आ
गया; अब
मैं तुझसे
नहीं पूछूंगा,
तू मुझसे
पूछ सकता है।
पूछना
अगर कुतूहल है, तब
तो एक बात है; मूल्य की
नहीं है वह।
पूछना अगर
जिज्ञासा है,
तो दांव है;
और दांव बड़ा
है। क्योंकि
ऐसे सवाल
पूछना कि बंधन
क्या है और
मोक्ष क्या है,
जीवन को
दांव पर लगाने
के सवाल हैं।
तो
जब गुरु ने
आखिर में पूछा
है सब मिटा कर...
सब पोंछ डाली
स्लेट पूरी।
जरा एक अक्षर
बचने न दिया।
ज्ञान भी न बच
जाए। तो आखिर
में उसको भी
पोंछा और कहा
कि वेद भी वहां
नहीं जाते। सब
तरफ मिटा डाला, राख
कर दिया जला
कर, दग्ध
कर दिया बीज
को पूरा। और
अब गुरु पूछता
है कि कैसा
बंधन! कौन
बंधेगा? कैसा
मोक्ष! कोई
बंधा ही नहीं
कभी तो मुक्ति
कैसी? अगर
शिष्य बोल
जाता धन्यवाद
भी. तो फिर से
उपनिषद शुरू
करना पड़ता; क्योंकि
उसका मतलब था :
भला सांप मिट
गया हो लेकिन
शिष्य अभी
नहीं मिटा है--
अभी बोल सकता
है; अभी
इतना कह सकता
है कि बड़ी
कृपा है आपकी,
सब समझा
दिया, सब
समझ गया, ज्ञान
को मैं उपलब्ध
हो गया। जिस
गुरु के पास
से आप ज्ञानी
होकर लौट आएं,
उस गुरु के
पास जाना
बेकार हो गया;
जिस गुरु के
पास जाकर आप
मिटें, लौट
ही न पाएं, तो
ही जाना
सार्थक है।
धर्म
मिटने की कला
है;
अपने ही हाथ
अपने को बुझा
लेने का
विज्ञान है।
जैसे दीये में
कोई फूंक मार
दे और ज्योति
खो जाए, ऐसे
ही हमारी
अस्मिता, हमारा
अहंकार खो
जाए--खोजे से न
मिले फिर कहीं;
निपट शून्य
रह जाए पीछे...
रिक्त, खाली--उस
खाली और रिक्त
में ही उसका
दर्शन होता है
जो वस्तुत:
हमारा होना
है।
यह
अंतिम बात है
''इस प्रकार
का यह रहस्य
है। ''
इस
प्रकार का यह
रहस्य समाप्त
हुआ। इस
प्रकार यह
उपनिषद पूरा
होता है।
उपनिषद का
अर्थ होता है :
रहस्य।
उपनिषद का
अर्थ होता है :
रहस्य। रहस्य
का अर्थ होता
है. जिसे हम समझ
भी लें, तो भी
समझ में नहीं
आता; और
जिसे हम न भी
समझे हुए हों,
तो समझ में
आता हुआ मालूम
पड़ता है।
रहस्य का मतलब
यह होता है।
जो नहीं समझते
वे भ्रांति
में पड़ जाते
हैं कि समझा, और जो समझते
हैं उनको पता
चलता है कि
कहो समझे?
--रहस्य
का यह अर्थ
होता है। अगर
कोई चीज समझने
से समझ में आ
जाए तो रहस्य
नहीं है। अगर
कोई चीज न
समझने से न
समझ में आए, तो भी रहस्य
नहीं है।
रहस्य का अर्थ
होता है. जो
नहीं जानते
उनको लगता है
कि जानते हैं, और
जो जानते हैं
उनको लगता है,
कहां जानते
हैं!
सुकरात
ने कहा है
जीवन के अंतिम
दिनों में कि जब
तक नहीं जानते
थे तभी तक
अच्छा था, कम
से कम जानने
का भ्रम तो था;
अब और बड़ी
मुश्किल हो गई
है : जब से जाना
है तब से इस
मुसीबत में
पड़े कि जानते
ही कहां हैं!
इसका नाम है
रहस्य।
डेल्फी
की देवी ने
घोषणा कर दी थी
कि सुकरात
महाज्ञानी है
यूनान में। तो
जिन लोगों ने
घोषणा सुनी, भागे
हुए सुकरात के
पास गए और कहा
कि सुकरात, सुनते हो? डेल्की की
देवी ने घोषणा
की है कि
सुकरात महाज्ञानी
है। सुकरात ने
कहा कि देवी
ने थोड़ी देर कर
दी; जब हम
थे तब कोई
कहने न आया... जब
हम थे--वक्त था,
हम शानी थे,
तब किसी ने
घोषणा न की; तब हम खुद ही
घोषणा करते
फिरते थे। और
अब... अब जब कि
पता चला कि
कुछ भी नहीं
जानते हैं, तब उस देवी
को सूझा! जरूर
कहीं कोई भूल
हो गई है; तुम
फिर से जाकर
पूछ आओ।
वे
लोग वापस गए।
एक अर्थ में
प्रसन्न गए, क्योंकि
सुकरात शानी
है इससे मन को
बड़ी पीड़ा हुई
थी। अगर सुकरात
कहता कि हां, मैं ज्ञानी
हूं तो वे
इतना भरोसा न
करते। लेकिन
सुकरात ने कहा
: मैं परम
अज्ञानी हूं।
उन्होंने कहा
: यही ठीक कहता
होगा, देवी
से कोई भूल हो
गई होगी। वापस
देवी से जाकर
उन्होंने
पूछा कि कुछ
भूल हो गई, मालूम
होता है। देवी
ने कहा कि
मुझसे भूल
होती ही नहीं।
उन्होंने कहा
: जरूर हो गई
होगी, क्योंकि
खुद सुकरात ही
कहता है कि
मैं बिलकुल अज्ञानी
हूं।
देवी
ने कहा :
इसीलिए तो
उसके
महाज्ञानी
होने की मैंने
घोषणा की।
इसीलिए! यही
तो कारणी भूत
है;
जब तक वह
शानी था तब तक
मैं घोषणा
नहीं कर सकती
थी। इसका नाम
रहस्य है।
उपनिषद
का अर्थ होता
है. रहस्य।
ऐसे 'उपनिषद' शब्द
का अर्थ होता
है. जो गुरु के
पास बैठ कर जाना
गया... गुरु के
पास ' बैठ
कर ' जाना
गया, गुरु
से ' सुन कर '
नहीं, गुरु
के पास बैठ कर;
क्योंकि
सुन कर तो
शब्द ही मिलते
हैं, लेकिन
पास बैठ कर
कुछ और भी मिल
जाता है।
लेकिन
पास बैठने की
एक कला है; सुनना
बहुत आसान है,
पास बैठना
बहुत मुश्किल
है।
उपनिषद
शब्द का अर्थ
होता है. गुरु
के पास बैठ कर
जो
मिला--सिर्फ
पास बैठ
कर--उसकी
सन्निकटता में, उसके
सामीप्य में,
उसके प्रति
समर्पण में, उसके प्रेम
में, उसके
पास मिट कर, उसके पास
अपने को भूल
कर जो मिला।
इसलिए वस्तुत:
गुरु जो कहता
है वह
महत्वपूर्ण
नहीं है, गुरु
जो होता है
वही
महत्वपूर्ण
है; क्योंकि
जो कहता है वह
सुना जाता है,
और जो होता
है उसके पास
बैठा जाता है।
गुरजिएफ
के साथ ऐसा
निरंतर होता
था कि गुरजिएफ
के पास कोई
शिष्य बैठा है, वह
उसको ऐसे
क्रोध से
देखेगा कि
छाती में हड़कंप
हो जाए। अनेक
शिष्य भाग
जाते थे
गुरजिएफ के पास
से। और वह
कुशल था
बहुत--इतना
कुशल था... जो लोग
उसे निकट से
जानते रहे हैं,
वे कहते हैं
कि वह इतना
कुशल था कि इस
तरफ बैठे आदमी
को क्रोध बता
सकता था, एक
आंख वाले
हिस्से से, इस तरफ वाले
आदमी को प्रेम
बता सकता था।
और दोनों
आदमियों में
पीछे विवाद हो
जाता था कि यह
आदमी कैसा है।
वह एक आदमी
कहता कि इतना
प्रेमी, और
उसकी आंख से
बिलकुल प्रेम
झर रहा था; और
वह दूसरा आदमी
कहता, तुम
पागल हो गए हो!
मैं भी मौजूद
था, और
मैंने उसकी
आंख में सिवाय
दुष्टता के और
कुछ भी नहीं
देखा।
पश्चिम
के एक बहुत
विचारशील
आदमी एलन वॉट
ने तो उसे
रॉस्कल सेंट
कहा है
गुरजिएफ को.
शैतान संत।
लेकिन
गुरजिएफ
अदभुत आदमी
था। और साधारण
संत होना बहुत
आसान मामला है, साधारण
शैतान होना भी
बहुत आसान
मामला है।
लेकिन जो उसे
जानते थे, जो
उसके पास बैठे
थे, वे
निरंतर लोगों
से कहते थे, वह क्या
करता है, क्या
बोलता है, कैसी
ओख करता है, इसकी तुम
फिकर ही मत
करना, तुम
तो उसके पास
ही होने की
फिकर करना। वह
क्या कहता
है--आंख से, कि
शब्द से, कि
चेहरे से, उसकी
तुम फिकर ही
मत करना; क्योंकि
उससे अगर कुछ
सीखना हो तो
उसके पास होना
ही पर्याप्त
है--सिर्फ पास
होना।
और
तुम उसकी
अभिव्यक्ति
की ओर ध्यान
मत देना कि वह
क्या कह रहा
है.. कि गाली बक
रहा है, कि
क्रोध दिखला
रहा है, कि
प्रेम दिखला
रहा है; तुम
इसकी फिकर ही
मत करना, ये
तरकीबें हैं
उसकी, इनसे
वह जांच लगा
लेता है कि
तुम सुनने आए
हो कि पास
होने आए
हो--निकट होने
आए हो कि
सुनने-समझने
आए हो।
सुनने-समझने
आए हो तो वह
विदा कर देता
है;
क्योंकि वह
कहता है, वह
जो
सुनने-समझने
आया है वह
ज्यादा दूर
नहीं जा सकता।
पास होना
चाहिए--एक
इटिमेसी, एक
सामीप्य, एक
निकटता। उस
निकटता में
चेतना
एक-दूसरे में आर-पार
प्रवेश करने
लगती है। बीच
के द्वार खुल
जाते हैं
सामीप्य में,
ओर चेतना एक
से दूसरे में
आने-जाने लगती
है।
और
जिस दिन यह
चेतना का
प्रवाह भीतर
होने लगता है, उस
दिन उपनिषद घटित
होता है--उस
दिन। उस दिन, उसके पहले
नहीं।
समाप्त......
ओशो
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