प्यारे
ओशो,
...
मैं भारता की
मनोवृत्ति का
शत्रु हूं :
और सच में
घातक शत्रु
महा शपूर
जन्मजात
शत्रु!...
मैं उस संबंध
में एक गीत गा
सकता हूं — और
मैं गाऊंगा एक
यद्यपि मैं एक
खाली मकान में
अकेला हूं और
उसे मुझे
स्वयं के
कानों के लिए
ही गाना पड़ेगा।
अन्य
गायक भी हैं
ठीक से कहें
तो जिनकी
आवाजें मृदु
हो उठती हैं
जिनके हाथ
भावभंगिमायुक्त
हो उठते हैं
जिनकी आखें
अभिव्यक्तिपूर्ण
हो उठती हैं
जिनके हृदय
जाग उठते हैं केवल
जब मकान लोगों
से भरा हुआ
होता है : मैं
उनमें से एक
नहीं हूं। वह
व्यक्ति जो एक
दिन मनुष्यों
को उड़ना सिखाएगा
समस्त सीमा—
पत्थरों को
हटा चुका ' होगा;
समस्त सीमा—
पत्थर स्वयं
ही उस तक हवा
में उड़ेगे वह
पृथ्वी का नये
सिरे से
बप्तिस्मा
करगे? — 'निर्भार'
के रूप में।
शुतुरमुर्ग
किसी भी घोडे
से तेज दौड़ता
है लेकिन वह
भी अपना सिर
भारी पृथ्वी
में भारी रूप
से गड़ाता है :
वैसा ही है वह
मनुष्य जो उड़
नहीं सकता अभी।
वह पृथ्वी और
जीवन को भारी
कहता है : और
यही भारता की
मनोवृत्ति को
चाहिए! लेकिन
वह व्यक्ति जो
हल्का और एक
पंछी बनना
चाहता हो उसे
स्वयं को
प्रेम करना
अनिवार्य है —
ऐसा ही मैं
सिखाता हूं
ठीक से कहें
तो बीमारों और
मृतकों के साथ
प्रेम से
युक्त नहीं...
व्यक्ति को
स्वयं को एक
गहन एवम्
स्वस्थ प्रेम
सहित प्रेम
करना सीखना
अनिवार्य है
ताकि व्यक्ति
इसे स्वयं
अपने साथ
टिकासके और
इधर-उधर भटकता
न फिरें—ऐसा
हीमैं सिखाता
हूं।
ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
कोई
व्यक्ति जो
चाहता है कि
मनुष्य
सितारों की ऊंचाइयों
तक उठे वह
भारता
(गुरुत्व ) की
मनोवृत्ति का
शत्रु होने को
विवश है।
भारता
(गुरुत्व )
केवल एक भौतिक
घटना भर नहीं
है,
उसका
प्रतिरूप
आध्यात्मिक
जीवन में भी
उपस्थित है।
ठीक जैसे कि वस्तुएं
पृथ्वी
द्वारा नीचे की
तरफ खींची
जाती हैं और
हम इसे
गुरुत्वाकर्षण
का बल (फोर्स
ऑफ ग्रेविटी )
कहते हैं, वैसे
ही कोई चीज
मनुष्य के
भीतर भी उसे
नीचे की तरफ
खींचती है, जिसे
जरथुस्त्र
भारता की
मनोवृत्ति
(स्पिरिट ऑफ
ग्रेविटी )
कहते हैं
क्यों मनुष्य
एक बौना ही
बना रह गया है
जबकि उसकी
क्षमता बृहत
होने की है? क्यों
मनुष्य एक
नन्ही सी झाड़ी
ही बना रह गया है
जबकि उसकी
क्षमता
लेबनान के
विशाल देवदार होने
की है, आकाश
की ऊंचाइयों
में पहुंचता
हुआ, खुलेपन
में, स्वतंत्रता
में? क्यों
मनुष्य
निम्नतम
बातों से ही
चिपकता है
बजाय उस सबसे
मुक्त हो जाने
के जो उसे नीच,
कुरूप, हिंसक,
ईर्ष्यालु
बनाते हैं? क्यों नहीं
वह प्रेम, चेतना,
आनदमयता की
ऊंचाइयों में
विकसित हो
सकता और हर ओर
मंगलमयता के
फूल बरसा सकता?
ऐसा कुछ
होना ही चाहिए
जो उसे नीचे
की तरफ खींचता
है और ऊपर की
दिशा में नहीं
उठने देता।
जरथुस्त्र
इसे बिलकुल
सही नाम देते
हैं — गुरुत्व
(भारता) की
मनोवृत्ति।
और व्यक्ति को
बहुत सजग होना
होगा इस
गुरुत्वाकर्षण
से छुटकारा
पांने के लिए।
यह
गुरुत्वाकर्षण
मनुष्य पर तभी
काम करता है
जब वह अचेतन
हो; जितना
अधिक अचेतन वह
है, उतना
ही अधिक वह भारता
के शिकंजे में
है। जितना
ज्यादा
चैतन्य वह
बनता है, उतना
ही ज्यादा वह
स्वयं से ऊपर
उठने के लिए स्वतंत्र
होता है। और
जब तक मनुष्य
स्वयं से ऊपर
न उठे आगे
ऊर्ध्व—विकास
की कोई
संभावना नहीं
बची है।
जरथुस्त्र
कहते हैं, मैं
भारता की
मनोवृत्ति का
शत्रु हूं : और
सच में घातक
शत्रु: महा
शत्रु
जन्मजात शत्रु।
— प्रत्येक
रहस्यदर्शी
है।
रहस्यदर्शिता
की परिभाषा
भारता की
मनोवृत्ति के
खिलाफ संघर्ष
के रूप में की
जा सकती है।
मैं
उस संबंध में
एक गीत गा
सकता हूं — और
मैं गाऊंगा एक
यद्यपि मैं एक
खाली मकान में
अकेला हूं और
उसे मुझे
स्वयं के
कानों के लिए
ही गाना पड़ेगा।
अन्य
गायक भी हैं
ठीक से कहें
तो जिनकी
आवाजें मृदु
हो उठती हैं
जिनके हाथ
भावभगिमायुक्त
हो उठते हैं
जिनकी आखें
अभिव्यक्तिपूर्ण
हो उठती हैं
जिनके हृदय
जाग उठते हैं
केवल जब मकान
लोगों से भरा
हुआ होता है :
मैं उनमें से
एक नहीं हूं।
वह
व्यक्ति जो एक
दिन मनुष्यों
को उड़ना सिखाएगा
समस्त सीमा—
पत्थरों को
हटा चुका होगा; समस्त
सीमा— पत्थर
स्वयं ही उस
तक हवा में
उडेगे वह
पृथ्वी का नये
सिरे से
बप्तिस्मा
करेगा
निर्भार के रूप
में।
पहले, इस
बात की हलकी
झलक लें कि
क्या
तुम्हारे भीतर
भारता की
मनोवृत्ति
निर्मित करता
है।
चीजों
पर सब प्रकार
की अधिकार—
भावना
तुम्हें भारी
बनाती है, तुम्हें
उड़ने नहीं
देती; वह
तुम्हारे पंख
नष्ट कर देती
है। मैं चीजों
के उपयोग के
खिलाफ नहीं
हूं। उतनी
सारी चीजों का
उपयोग करो
जितनी तुम कर
सको, लेकिन
उन पर कब्जा
मत जमाओ, क्योंकि
जैसे ही तुम
किसी चीज पर
कब्जा जमाते हो,
बिना
तुम्हें पता
चले ही तुम उन
चीजों के कब्जे
में हो जाते
हो। कोई
मनुष्य जो
केवल रुपये—पैसों
की चाह करता
है, स्वयं
को अपनी ही धन—दौलत
का कैदी हो
गया पाता है।
वह सोचा करता
था कि उसका
कब्जा है, लेकिन
अंततः वह पाता
है कि वह
कब्जे में है।
यह
रहस्यदर्शी
उस
गुरुत्वाकर्षण
नियम के अंतर्गत
नहीं है जो
लोगों को नीचे
की ओर खींचता
है। समस्या के
प्रति उसकी
पद्य का ढंग
संकेत देता है
कि उसके पास
पंख हैं।
भारता की
मनोवृत्ति
उसे बाधा नहीं
पहुंचा सकती।
जब
कभी भी तुम्हें
कुछ ऐसा करने
का भाव होता
है जो किसी
व्यक्ति के
लिए
नुकसानमंद है, जब
कभी भी तुम
कुछ ऐसा करते
हो जो केवल एक
पाखंड है, जब
कभी भी तुम
कुछ करते हो
जो अभिनय, अप्रामाणिक,
गैरनिष्ठापूर्ण
के सिवाय अन्य
कुछ नहीं है, जब कभी भी
तुम सच्चे
नहीं हौ रहे
हो, तब तुम
नीचे की ओर
गिर रहे हो, तुम अपनी
ऊंचाइयां खो
रहे हो। जब
कभी भी तुम
ईर्ष्यालु
महसूस करते हो,
घृणा से भरे
हुए, हिंसा,
क्रोध, रोष
से भरे हुए
तुम इसे महसूस
कर सकते हो कि
तुम भारी हो
गये। ईर्ष्या
तुम्हें भारी
करती है, क्रोध
तुम्हें भारी
करता है, अहकारपूर्ण
दिखावे तुम्हें
भारी करते हैं।
तुम
करीब—करीब इसे
महसूस कर सकते
हो और चीजों
के बीच भेद कर
सकते हो — क्या
तुम्हें भारी
करता है और
क्या तुम्हें
हल्का करता है।
प्रेम
तुम्हें
हल्का करता है, दयाभाव
तुम्हें
हल्का करता है,
करुणा
तुम्हें
हल्का करती है,
मौन
तुम्हें
हल्का करता है,
उल्लास
तुम्हें
हल्का करता है।
कोई भी चीज जो
तुम्हें
हल्का और
निर्भार करती
है तुम्हें
कैद से मुक्त
होने में मदद
पहुंचाती है।
वह
पृथ्वी और
जीवन को भारी
कहता है : और
यही भारता की
मनोवृत्ति को
चाहिए! लेकिन
वह व्यक्ति जो
हल्का और एक
पंछी बनना
चाहता हो उसे
स्वयं को
प्रेम करना
अनिवार्य है —
ऐसा ही मैं
सिखाता हूं।
पहली
शिक्षा उसके
लिए जो भारता
की कैद से
निकलना चाहता
है स्वयं को
प्रेम करने की
है। कोई धर्म
उसे नहीं
सिखाता।
दरअसल, समस्त
धर्म ठीक उससे
उलटा सिखाते
हैं — स्वयं से
नफरत करो। वे
इसे इतने साफ
तौर से नहीं
कहते, लेकिन
जो कुछ भी वे
कहते हैं, यही
उसका अंतरस्थ
अर्थ है। तुम
किसी योग्य
नहीं; तुम
एक पापी हो; तुम्हें
अपनी योग्यता
नैतिक होकर, धार्मिक
होकर, संत
होकर सिद्ध
करनी होगी। वे
तुम्हें
आदर्श देते
हैं और
तुम्हें उन
आदर्शों की
कार्बन
प्रतिलिपि
होना है — तब वे
तुम्हें
सम्मान देते
हैं। लेकिन
कार्बन
प्रतिलिपि
कार्बन
प्रतिलिपि ही
है; वह
तुम्हारी
मौलिक आत्मा
नहीं है — वह
तुम नहीं हो!
तुम
गौतम बुद्ध
बनने की कोशिश
कर सकते हो — और
पच्चीस
शताब्दियों
से पूरब में
लाखों—लाखों
लोगों ने गौतम
बुद्ध बनने की
कोशिश की है, लेकिन
कोई एक भी उस
ऊंचाई तक
पहुंच नहीं
सका है।
ज्यादा से
ज्यादा वे
बौद्ध बनकर रह
गये, बुद्ध
के अनुयायी, और वह भी
बहुत कुनकुने—कुनकुने,
सब प्रकार
के पाखंडों से
युक्त; न
गौतम बुद्ध की
निष्ठा उनमें,
न गौतम
बुद्ध जैसी
खोज उनमें।
भारता
की मनोवृत्ति
तुम्हें
सिखाती है कि
जीवन
भारयुक्त है; लेकिन
जरथुस्त्र कह
रहे हैं, यह
तुम पर निर्भर
है। यह
तुम्हारा
चुनाव है कि
जीवन
भारयुक्त
होनेवाला है
अथवा हलका
होनेवाला है।
यदि तुम भीड़
के साथ न
चिपको, यदि
तुम मालिकियत
के साथ न
चिपको, तो
जीवन नितांत
हलका हो सकता
है। उसके लिए
पहला नींव का
पत्थर है
स्वयं को
प्रेम करना।
किसी की नकल
करने की जरूरत
नहीं है, क्योंकि
वही बिंदु है
जहां हर
व्यक्ति भटक
गया है।
स्वयं
को वैसे ही
प्रेम करो
जैसे तुम हो।
वह
तुम्हारे
विकास को नहीं
रोकता। दरअसल, जितना
अधिक तुम
स्वयं को
प्रेम करते हो
उतना ही अधिक
तुम स्वयं को
परिष्कृत
करते हो।
जितना अधिक
तुम स्वयं को
प्रेम करते हो
उतने ही अधिक
तुम
प्रसादपूर्ण
बनते हो।
जितना अधिक
तुम स्वयं को
प्रेम करते हो
उतनी ही अधिक
मौलिक व
प्रामाणिक
तुम्हारी
निजता है। और
केवल एक मौलिक
निजता—संपन्न
व्यक्ति ही एक
पक्षी की तरह
इतना हलका हो
सकता है कि
उसकी
अंतश्चेतना
का समग्र आकाश
ही उसे उड़ने
के लिए उपलब्ध
होता है। तब
कोई इसे रोक
नहीं सकता।
ठीक
से कहें तो
बीमारों और
मृतकों के साथ
प्रेम से
युक्त नहीं...
धर्म तुमसे
कहते रहे हैं :
बीमारों को
प्रेम करो, मृतकों
को प्रेम करो।
अस्पताल जाओ,
अस्पताल
बनवाओ, गरीबों
की सेवा करो।
ऐसा लगता है
कि सभी धर्मों
का लेना—देना
बीमारों से ही
है, मृतकों
से ही है, गरीबों
से ही है; किसी
का भी लेना—देना
तुमसे और
तुम्हारी
समृद्धियों
से और तुम्हारी
महानताओं से
और तुम्हारी
भव्यताओं से
नहीं है। मैं
तुमसे कहता
हूं : जब तक तुम
स्वयं को
प्रेम नहीं
करते, जब
तक तुमने अपनी
ही
समृद्धियों, अपनी ही
ऊंचाइयों को
नहीं पा लिया
है, तुम
किसी भी
व्यक्ति के
साथ अपना
प्रेम बांटने
में समर्थ न
होओगे।
निश्चित ही, बीमार व मृत
को देखभाल की
जरूरत है, लेकिन
उनको प्रेम की
जरूरत नहीं है।
इसे समझ लेना
जरूरी है, क्योंकि
ईसाइयत ने इसे
करीब—करीब
सार्वभौम रूप
से स्वीकृत
सत्य बना दिया
है—, किं—
बीमारों और
मृतकों को
प्रेम करना
महानतम धार्मिक
बात है, सर्वाधिक
आध्यात्मिक।
लेकिन यह
नितात रूप से
मनोविज्ञान
कें विपरीत है
और स्वभाव के
विपरीत है।
मैं
तुम्हारे
साथ स्पष्ट
रहना चाहता
हूं — बीमारों
की देखभाल करो, लेकिन
प्रेम कभी मत
प्रदर्शित
करो। बीमार की
देखभाल करना
बिलकुल ही अलग
बात है। तटस्थ
रहो, क्योंकि
सिरदर्द ऐसी
कोई महा घटना
नहीं है; देखभाल
करो, लेकिन
अपनी
मिठबोलियों
से बचो! बहुत
ही व्यावहारिक
ढंग से देखभाल
करो। उसके सिर
में दवा लगाओ,
लेकिन
प्रेम मत
दर्शाओ
क्योंकि वह
खतरनाक है। जब
एक बच्चा
बीमार है, उसकी
देखभाल करो, लेकिन नितात
तटस्थ रहकर।
बच्चे को समझ
में आने दो
किं बीमार
होकर वह तुम्हें
ब्लैकमेल
नहीं कर सकता।
पूरी मानवता
ही एक—दूसरे
को ब्लैकमेल
कर रही है। रुग्णावस्था,
वृद्धावस्था,
बीमारियां
करीब—करीब
मांगपूर्ण बन
चुकी हैं —
तुम्हें मुझे
प्रेम करना ही
होगा क्योंकि
मैं बीमार हूं
मैं वृद्ध
हूं...
जरथुस्त्र
सही हैं ठीक
से कहें तो
बीमारों और मृतकों
के साथ प्रेम
से युक्त नहीं।
व्यक्ति
को स्वयं को
एक गहन एवम्
स्वस्थ प्रेम
सहित प्रेम
करना सीखना
अनिवार्य है ताकि
व्यक्ति इसे
स्वयं अपने
साथ टिका सके
और इधर—उधर
भटकता न फिरे —
ऐसा ही मैं
सिखाता हूं।
तुम्हें
स्वयं को
प्रेम करना
चाहिए बिना यह
सोचे कि तुम
इसके पात्र हो
अथवा नहीं।
तुम जीवित हो—वह
पर्याप्त
सुबूत है कि
तुम प्रेम के
पात्र हो, ठीक
जैसे कि तुम
सांस लेने के
पात्र हो। तुम
नहीं सोचते कि
तुम सास लेने
के पात्र हो अथवा
नहीं। प्रेम
आत्मा के लिए
ख्म पोषण है, ठीक जैसे कि
भोजन है शरीर
के लिए। और
यदि तुम स्वयं
के प्रति
प्रेम से भरे
हुए हो तो तुम
दूसरों को भी
प्रेम करने
में सक्षम
होओगे। लेकिन
स्वस्थ को
प्रेम करो, मजबूत को
प्रेम करो।
बीमार
की देखभाल करो, वृद्ध
की देखभाल करो;
लेकिन
देखभाल
बिलकुल भिन्न
बात है। प्रेम
और देखभाल के
बीच का भेद एक
मा और एक नर्स
के बीच का भेद
है। नर्स
देखभाल करती
है, मा
प्रेम करती है।
जब बच्चा
बीमार है तो
मां के लिए भी
केवल नर्स भर
होना बेहतर है।
जब बच्चा
स्वस्थ है, उतना प्रेम
बरसाओ उस पर
जितना तुम
बरसा सकते होओ।
प्रेम का
साहचर्य
स्वस्थता, शक्ति
और मेधा के
साथ होने दो; वह बच्चे को
उसके जीवन में
बहुत दूर तक
मदद करेगा।
और
सच में,
स्वयं को
प्रेम करना
सीखना न आज के
लिए आदेश है न
कल के लिए।
बल्कि कला सब
में
उत्कृष्टतम
सूक्ष्मतम
परम और
सर्वाधिक
अध्यवसायी है।
यह आदेश नहीं
है, यह कला
है, एक
अनुशासन; तुम्हें
इसे सीखना
होगा। संभवत:
प्रेम महानतम
कला है जीवन
में। लेकिन
व्यक्ति
सोचता है कि
वह प्रेम करने
की क्षमता
लेकर ही पैदा
हुआ है, तो
कोई भी उसे
परिष्कृत
नहीं ञ्च? वह
अपरिष्कृत और
आदिम ही बना
रह जाता है।
और यह उन
ऊंचाइयों तक
परिष्कृत
किया जा सकता कि
उन ऊंचाइयों
में तुम कह
सकतै हो :
प्रेम परमात्मा
है।
एक
प्रतिभाशाली
व्यक्ति, एक
व्यक्ति
जिसके पास
थोड़ी भी
ध्यानमय
चेतना है, अपने
जीवन कला का
एक सुंदर
नमूना बना
सकता है; उसे
प्रेम से, संगीत
से, काव्य
से, नृत्य
से इतना भर
सकता जिसकी
कोई सीमाएं
नहीं हैं।
जीवन कठोर
नहीं है। यह
मनुष्य की
मूढ़ता है जो
उसे कठोर बना
देती है।
ऐसा
जरमुस्त्र ने
कहा.......
thank you guruji
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