प्यारे
ओशो,
तुमने
लोगों की और
लोगों के
अंधविश्वासों
की सेवा की है
तुम सारे
प्रसिद्ध
दार्शनिको! —
तुमने सत्य की
सेवा च्छीं की
है! और ठीक उसी
कारण से
उन्होने
तुम्हें
सम्मान दिया।....
तुम
गरुड़ नहीं हो :
तो न ही तुम
आतंक में पड़े
प्राण का आनंद
जानते हो। और
जो एक पक्षी न
हो उसे अपना
घर अतल गर्तों
के ऊपर नहीं
बनाना चाहिए।
तुम
कुनकुने हो :
लेकिन समस्त
गहन ज्ञान का
प्रवाह शीतल
है! प्राण के
अंतरतम कुएं
बर्फ जैसे
शीतल हैं :
गर्म हाथों और
हाथ में लेनेवालों
के लिए एक
ताजगी! '
तुम
सम्माननीय
बने और अकड़े
और रीड ताने
खड़े रहते हो
तुम प्रसिद्ध
दार्शनिको! —
कोई भी प्रबल
हवा या संकल्प
तुम्हें आगे
की तरफ धक्का
नहीं देते।
क्या
तुमने कभी भी
सागर पर तैरते
पाल नहीं देखे
हैं गोल हुए
और फूलते जा
रहे और हवा की
तीव्रता के
आगे थरथराते?
एक
पाल की तरह
प्राण की
तीव्रता के
आगे थरथराती
मेरी प्रज्ञा
सागर के वक्ष
पर यात्रा
करती है — मेरी
पालतू न बनायी
गयी प्रज्ञा।
..........ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा!
जरथुस्त्र
दार्शनिक
नहीं हैं।
दर्शनशास्त्र
उनके लिए
मात्र समय की
बरबादी है — न
केवल
तुम्हारे
बल्कि दूसरों
के भी —
क्योंकि
दर्शनशास्त्र
मस्तिष्क के
खेल के अलावा
अन्य कुछ भी
नहीं है। वह
सत्य को पाने
का मार्ग नहीं
है,
वह प्रेम को
पाने का मार्ग
नहीं है, वह
सौंदर्य को
पाने का मार्ग
नहीं है; वह
मात्र रिक्त
शब्दों का वाद
बनाता चला
जाता है।
लेकिन
उन्होंने
करोड़ों को
धोखा दिया है।
और उन्होंने
करोड़ों को
जीवन—रहस्यों
की कुंजी
उपलब्ध करने
की खोज में
निकलने से
वंचित किया है।
दर्शनशास्त्र
ने कभी किसी
को रूपांतरित
नहीं किया है।
वह लोगों के
सिरों को
गुब्बारे की
तरह फुला देतो
है,
लेकिन वह
उनके जीवन में
क्राति नहीं
लाता; उसके
माध्यम से कोई
कायापलट नहीं
घटता। वह सबसे
बड़ी प्रवंचना
है जो मनुष्य
स्वयं को और
दूसरों को
देता रहा है।
उसने खेलने के
लिए लोगों को
सुंदर—सुंदर
शब्द दिये हैं।
उसने लोगों को
बच्चों जैसा
समझा है; और
जो लोग उन
शब्दों से
खेलते रह गये
हैं वे बच्चे
रह गये हैं, अवमंदित—बुद्धि।
उदाहरण
के लिए
दर्शनशास्त्र
के जगत ने
तुम्हें अपना
सर्वाधिक
प्रसिद्ध
शब्द दिया है, ईश्वर
जो मनुष्य की
भाषा में
संभवत:
सर्वाधिक अर्थहीन
शब्द है। वह
तुम्हारे लिए
अपना ही
अन्वेषण नहीं
रहा है; वह
तुम्हारा
अपना ही सृजन
नहीं रहा है; उलटे, दार्शनिकों,
धर्मवेत्ताओं,
पंडित—पुरोहितों
ने तुम्हें
भरोसा दिला
दिया है कि तुम
ईश्वर का सृजन
हो।
यह
सर्वाधिक
सार्थक बिंदु
है जरथुस्त्र
के साथ
तीर्थयात्रा
प्रारंभ करने
के लिए। अतीत
में ईश्वर सब
कुछ के
स्रष्टा के
रूप में स्वीकृत
किया गया है, लेकिन
वह अवधारणा ही
मनुष्य को एक
वस्तु बना देती
है। केवल
वस्तुएं
निर्मित की जा
सकती हैं। यदि
मनुष्य ईश्वर
द्वारा
निर्मित किया
गया है, तो
मनुष्य के पास
अपना कोई गौरव,
अपनी कोई
गरिमा नहीं है
— वह' बस एक
कठपुतली है।
किसी भी क्षण
ईश्वर अपना मन
बदल सकता है
और मानवता को
समाप्त कर
सकता है, और
हम नितात
असहाय खड़े रह
जाते हैं। न
अपने निर्माण
में ही हमारा
कोई हाथ है, न अपने
विनाश में ही
हमारा कोई हाथ
होगा।
यदि
यह सच है, तो
जीवन का सारा
अर्थ ही खो
जाता है। वह
एक त्रासदी बन
जाता है, एक
कैद, एक
लंबे समय तक
चलने वाली
गुलामी। और
जरथुस्त्र
अकेले नहीं
हैं इस तथ्य
की ओर इशारा
करने में कि
ईश्वर की
अवधारणा
मनुष्य की उत्काति
(एवेलूशन ) के
खिलाफ है.
महावीर उनसे राजी
हैं; गौतम
बुद्ध उनसे
राजी हैं।
ये
तीनों ही
महाप्रतिभाएं
एक बात पर
सर्वथा एकमत
हैं : मनुष्य
और उसकी चेतना
के स्रष्टा के
रूप में ईश्वर
की इजाजत:
नहीं दी जा
सकती। उसकी
इजाजत देना
समस्त अर्थ, महत्ता,
स्वतंत्रता,
प्रेम, सृजनात्मकता
को नष्ट करना
है — उस सब कुछ
को नष्ट करना
है जो मनुष्य
को आनंद और
मस्ती प्रदान
करता है।
ईश्वर के बिना
मनुष्य
स्वतंत्र है।
उसका सृजन
नहीं किया गया'
है, वह
उत्काति करता
रहा है।
तुम्हें इस
बात को समझ
लेना है, कि
सृजन की
अवधारणा और
उत्काति
(एवेलूशन) की
अवधारणा
विरोधाभासी
हैं। तुम
दोनों को नहीं
रख सकते। सृजन
का मतलब होता
है : कोई
उत्काति नहीं।
उत्काति
का मतलब होता
है कि
अस्तित्व सदा
से रहा आया है —
सतत
परिवर्तनशील, गतिमान,
उत्काति
करता, नये
रूप, बेहतर
रूप लेता। यह
उत्काति है
जिसके द्वारा
मनुष्य और
उसकी चेतना आए
हैं।
जरथुस्त्र के
लिए निर्माण
नहीं उत्काति
धर्म है। और
उत्काति में
ईश्वर के लिए
कोई स्थान
नहीं है, कम
से कम
निर्माणकर्ता
के रूप में तो
नहीं। केवल
संभव स्थान ईश्वर
के लिए यदि
तुम्हें बहुत
ही प्यार हो
उस शब्द से, यदि तुम
चाहते हो कि
कैसे भी उसे
कहीं न कहीं
बिठाया जाएं
तो एकमात्र
शक्यता है कि
मनुष्य की
चेतना अपनी
परम संभावना
तक उद्विकसित
होती है — वही
होगा ईश्वर का
जन्म।
जरथुस्त्र
स्रष्टा के
रूप में ईश्वर
का इनकार करते
हैं,
लेकिन
मनुष्य चेतना
के परम सृजन
के रूप में वह
ईश्वर को
स्वीकार करने
के लिए राजी
हैं। गलतफहमी
से बचने के
लिए चेतना की
इस परम उत्काति
को वह 'परममानवं
कहते हैं।
परममानव उनका
ईश्वर है। लेकिन
वह प्रारंभ
में नहीं आता,
वह
सर्वोच्च
आरोह पर ही
आता है, अंत
में। वह
तुम्हारा
मालिक और
तुम्हारा
प्रभु नहीं है,
वह
तुम्हारा
उद्विकसित
रूप है, परिष्कृत
रूप। इसलिए एक
और बात याद
रखने की है :
जरथुस्त्र की मान्यता
एक ईश्वर में
नहीं हो सकती।
करोड़ों
प्राणी हैं, वे सब के सब
उत्काति से
गुजर रहे हैं,
और करोड़ों
ईश्वर होंगे —
क्योंकि
प्रत्येक
जीवन में बीजू
है, क्षमता,
एक ईश्वर बन
जाने की।
जरथुस्त्र
ईश्वर और धर्म
की अवधारणा
में एक समग्र
क्राति ले आते
हैं। अब धर्म
एक पूजा—पाठ
या एक मान्यता
नहीं रहा, अब
धर्म मनुष्य
का महानतम
सृजनात्मक
कृत्य बन जाता
है। अब धर्म
वह नहीं रहा
जो मनुष्य को
गुलाम बनाता
है, उसके
प्राणों को
कैद करता है।
जरथुस्त्र के
हाथों में
ध्रर्म समस्त
जंजीरों को
छिन्न—भिन्न
कर देने की, समस्त
बाधाओं को
विनष्ट कर
देने की कला
बन जाता है —
ताकि मानव
चेतना दिव्य
चेतना बन सके,
ताकि मानव
विदा हो और
परममानव को
जन्म दे।
पच्चीस
शताब्दियों
पूर्व इस
व्यक्ति के
पास एक
अत्यधिक
सक्षम
अवधारणा थी :
ईश्वर को
प्रारंभ में
रखने से कोई
फर्क नहीं
पैदा होता।
ज्यादा से
ज्यादा तुम
विश्वास करने
वाले बन जाते
हो — और
विश्वास सब
अंधे होते हैं, विश्वास
सब झूठे होते
हैं। वे
तुम्हें
विकसित होने
में मदद नहीं
करते, वे
केवल तुम्हें
एक गुलाम की
तरह मृत
स्तुतइrयों
के समक्ष, सड़े
धर्मग्रंथों
के समक्ष, आदिम
दार्शनिकताओ
के समक्ष
घुटने टेकने
में मदद करते
हैं।
जरथुस्त्र
पूरी पृथ्वी
को उस सबसे
स्वच्छ कर देना
चाहते हैं जो
सड़ गया है, जो
पुराना
हान्येह
चाहते हैं कि
तुम्हारी आखें
एक सुदूर
सितारे पर लगी
हों — सितारा
जो तुम्हारा
भविष्य है, सितारा जो
तुम बन सकते हो,
सितारा जो
तुम्हें बनना
ही है, क्योंकि
जब तक तुम वह
सुदूरवर्ती
सितारा न बन जाओ
तुम्हारा
जीवन एक नृत्य
न होगा, तुम्हारा
जीवन एक गीत न
होगा, तुम्हारा
जीवन एक
महोत्सव न
होगा।
जरथुस्त्र
का ईश्वर शब्द
को छोड़ देना
ठीक बात है।
यह एक कल्पना
थी और हम
कल्पना के साथ
किसी भी प्रकार
से संबंधित
नहीं हो सकते।
लेकिन
परममानव
कल्पना नहीं
है;
वह
तुम्हारी
संभावना है, यह हर
व्यक्ति की
संभावना है।
परममानव की
अवधारणा
मात्र
तुम्हें
समृद्ध बनाती
है, तुम भर
गया महसूस
करते हो, तुम
अब एक भिखारी
और एक पुजारी
नहीं महसूस
करते।
तुम्हें किसी
गिरजाघर या
मंदिर या
मस्जिद जाने
की जरूरत नहीं
रह जाती
क्योंकि अब
किसी प्रार्थना
की जरूरत नहीं
३। तुम्हें एक
स्रष्टा बनना
है, तुम्हें
स्वयं को
रूपातरित
करना है।
धर्म
रूपातरण की
कीमिया बन
जाता है — एक
गुलाम से एक
मालिक में।
जरथुस्त्र
बहुत से
शब्दों को
बदलते हैं जो
मनुष्य पर
बहुत
विनाशकारी
रूप से हावी
रहे हैं। वह
घटना शब्द का
प्रयोग नहीं
करना चाहते, वह
प्रक्रिया
शब्द का
प्रयोग करना
चाहते हैं। वह
होनाशब्द का
उपयोग नहीं
करना चाहते, वह बननाशब्द
का उपयोग करना
चाहते हैं — ताकि
सदा कुछ और
उपलब्ध करने
को है, सदा
तुम्हारी
आत्मा द्वारा
ऊंची उड़ान
भरने के लिए
विस्तृत आकाश
है। तुम
सृष्टि की
सीमाओं पर
नहीं पहुंच
सकते, क्योंकि
कोई सीमाएं
हैं नहीं।
तुमने
लोगों की और
लोगों के
अंधविश्वासों
की सेवा की है? तुम
सारे
प्रसिद्ध
दार्शनिको! —
तुमने सत्य की
सेवा नहीं की
है। और ठीक
उसी कारण से
उन्होंने
तुम्हें
सम्मान दिया।....
यह
दुर्भाग्यपूर्ण
है,
लेकिन
तथ्यपूर्ण, कि लोग
तुम्हारा
सम्मान
करेंगे यदि
तुम उनके अंधविश्वासों
को सहारा दो, यद्यपि कि
उनके
अंधविश्वासों
को सहारा देने
में तुम
उन्हें
विषाक्त कर
रहे हो। वे
तुम्हारे
प्रति बहुत
सम्मानपूर्ण
होंगे — वे
तुम्हें संत
बना देंगे, वे तुम्हें
पैगंबर बना
देंगे, वे
तुम्हें
उद्धारक बना
देंगे। लेकिन
उनके
अंधविश्वासों
में बाधा मत
पहुंचाओ।
उनके
अंधविश्वास
उनके साथ इतने
लंबे काल से रहे
आए हैं, और
उन्होंने
उनको सत्य के
रूप में
स्वीकार कर
लिया है और
उनके साथ बड़ा
आराम महसूस
करते हैं —
क्योंकि सत्य
को खोजने की
जरूरत नहीं है,
उनके पास वह
है ही। जैसे
ही तुम उनके
अंधविश्वासों
की आलोचना करते
हो, मानवता
की सारी भीड़
तुम्हारे
विरोध में हो
जाती है; वे
सब के सब
तुम्हारे
दुश्मन बन
जाते हैं।
यह
अजीब है कि
नाम जो
तुम्हें
दर्शनशास्त्र
के इतिहास में
मिलेंगे, ये
वे लोग नहीं
हैं जिन्हें
सूली लगायी
गयी, ये वे
लोग नहीं हैं
जिन्हें
पत्थर फेंक—फेंक
कर मार डाला
गया। ये वे
लोग हैं
जिन्हें
सम्मान मिला —
और अभी भी
उनका सम्मान
किया जाता है,
सदियों बाद।
और अजीब बात
यह है कि
उन्होंने
तुम्हें कुछ भी
योगदान नहीं
किया है।
एकमात्र लोग
जिन्होंने
तुम्हें कोई
योगदान किया
है, तुमने
उन्हें सूली
लगा दी है।
ऐसा
लगता है कि
अपने मित्रों
के लिए तुम
अपनी सूली सदा
तैयार ही रखते
हो,
और अपने
दुश्मनों के
लिए तुम सदा
अपना सम्मान
तैयार रखते हो।
दुनिया
के सारे लोग
अंधविश्वासों
में जी रहे हैं, और
उनके समस्त
पंडित—पुरोहित
और उपदेशक और
दार्शनिक और
धर्मवेत्ता
उसमें उन्हें
सहारा दे रहे
हैं — उन्हें
समादर मिलता
है, वे
महान सत्र'', बन जाते हैं।
लेकिन यह अति
अमानवीय है।
बेहतर है कि
तुम्हारा सारा
सम्मान खो जाए
लेकिन लोगों
को सत्य को
कहना चाहिए।
अभी
भी समय है, उनका
केंसर दूर
किया जा सकता
है।
अभी
भी समय है, परममानव
आ सकता है।
दुखी
मनुष्य, अपने
सारे दुखों
सहित, विदा
किया जा सकता
है। कोई जरूरत
नहीं है
उन्हें पक्के
रखने की। तुम
पकड़ रहे हो
क्योंकि किसी
ने तुम्हें
बताया नहीं है
कि और बड़ी
संभावनाएं
हैं : उच्चतर
अनुभूतियां, अधिक आनंद; तुम्हारा
जीवन एक सतत
गीत और नृत्य
बन सकता है।
तुम खिल सकते
हो। तुम्हारे
जीवन में
सुगंध हो सकती
है बजाय इस बीभत्स
चिंता के, इस
संताप के, और
सारी मितलाहट
के जो तुम
अपने चारों
तरफ लिए फिर
रहे हो।
तुम
गरुड़ नहीं हो —
वह
दार्शनिकों
से कह रहे हैं —
तो न ही तुम
आतंक में पड़े
प्राण का आनंद
जानते हो।
केवल
गरुड़ ही
ऊंचाइयों के
अकेलेपन को
जानता है, ऊंचाइयों
के मौन को, ऊंचाइयों
के खतरों को।
लेकिन खतरों
को जाने बिना
कोई कभी भी
विकसित नहीं
होता।
जरथुस्त्र की
मूल शिक्षा है
: खतरनाक ढंग
से जीओ। सुदूर
आकाशों तक
गरुड़ के संग
जाओ, डरो
मत, क्योंकि
तुम्हारा
आतरिक स्वरूप
अमृत है। जो
खतरों से
भयभीत हैं, वे ही लोग
हैं जिन्हें
अपने अमृत
स्वरूप का कुछ
पता नहीं है।
उनके भय से
उनके अज्ञान
का पता चलता
है अन्य कुछ
भी नहीं।
और
जो एक पक्षी न
हो उसे अपना
घर अतल गर्तों
के ऊपर नहीं
बनाना चाहिए।
लेकिन महा
अतलगर्तों के
ऊपर घर बनाने
का आनंद!.. वह
आनंद केवल कुछ
साहसी
आत्माओं का है।
और जरथुस्त्र
के अनुसार, धर्म
सब के लिए
नहीं है। वह
केवल गरुड़
पक्षियों के
लिए है; वह
केवल उनके लिए
है जिनकी
खतरनाक ढंग से
जीने की
तैयारी है —
क्योंकि केवल
वे ही सत्य को
पा सकते हैं, केवल वे ही
जीवन के अर्थ
को पा सकते
हैं, केवल
वे ही एक दिन
परममानव बन
सकते हैं।
पालने
से लेकर कब्र
तक तुम्हारी सारी
फिक्र इस बात
की है : कैसे
जीवित बचे
रहना, कैसे
सुरक्षित बने
रहना, कैसे
निरापद बने
रहना। और तुम
जा कहां रहे
हो? — कब्र
को। तुम्हारी
सारी
सुरक्षाएं और
तुम्हारे
सारे बचाव
तुम्हें कब्र
की ओर ही ले जा
रहे हैं। इसके
पहले कि कब्र
आए थोड़ा नाच
लो, थोड़ा
उत्सव मना लो,
उल्लास भरे
हृदय से गीत
गा लो।
खतरों
के साथ जीओ!
कब्र
तो आएगी ही, चाहे
तुम खतरनाक
ढंग से जीओ
अथवा कुनकुने—कुनकुने।
केवल फर्क यह
होगा कि : जो
व्यक्ति
खतरनाक ढंग से
जीआ है, जो
पूरी तरह जीआ
है, त्वरापूर्वक,
उसे अपने
भीतर के
अमर्त्य का
पता चल जाएगा।
तब कब्र तो
आएगी, लेकिन
मृत्यु नहीं
आएगी। जो
व्यक्ति कभी
भी समग्रता से
नहीं जीआ है, कभी भी अपने
भीतर
पर्याप्त
गहरे में नहीं
गया है, क्योंकि
वहा बर्फ जैसी
ठंढक है, वह
भी कब्र तक
पहुंचेगा, लेकिन
वह जीवन के
शाश्वत
सिद्धात को
नहीं जान पाएगा।
वह तो बस आखों
में आसू लिए
मरेगा
क्योंकि वह
अपना जीवन
नहीं जी पाया
है। वह जीआ
नहीं है, और
मृत्यु आ
पहुंची।
जो
व्यक्ति
समग्रता से
जीआ है, वह
मृत्यु का भी
उत्सव मनाता
है — क्योंकि
मृत्यु उसके
पास अज्ञात की
परम चुनौती के
रूप में आती
है। और वही
उसका पूरा
जीवन रहा है :
अज्ञात की चुनौतियों
को स्वीकार
करना। वह
मृत्यु का
स्वागत करेगा
और गीत के साथ
और नृत्य के
साथ मृत्यु
में प्रवेश
करेगा, क्योंकि
वह जानता है
कि उसके भीतर
कुछ है जो नष्ट
नहीं किया जा
सकता, जिसकी
मृत्यु नहीं
होती।
तुम
सम्माननीय
बने और अकड़े
और रीढ़ ताने
खड़े रहते हो
तुम प्रसिद्ध
दार्शनिको! —
कोई भी प्रबल
हवा या संकल्प
तुम्हें आगे
की तरफ धक्का
नहीं देते।
क्या
तुमने कभी भी
सागर पर तैरते
पाल नहीं देखे
हैं गोल हुए
और फूलते जा
रहे और हवा की
तीव्रता के
आगे थरथराते?
एक
पाल की तरह
प्राण की
तीव्रता के
आगे थरथराती
मेरी प्रज्ञा
सागर के वक्ष
पर यात्रा
करती है
— मेरी पालतू
न बनायी गयी
प्रज्ञा!
प्रज्ञा
सदा ही गैर—पालतू
है।
प्रज्ञा
सदा ही
अनियंत्रित
है। प्रज्ञा
सदा ही
सहजस्फूर्त
है।
ज्ञान
एक गुलाम है, पालतू
ज्ञान बहुत
दरिद्र है।
संगणक
(कम्प्यूटर )
के पास
प्रज्ञा नहीं
हो सकती; वह
तो केवल मनुष्य
का, मनुष्य
चेतना का
विशेषाधिकार
है — प्रज्ञा
का होना।
लेकिन तब
तुम्हें
अनियंत्रित
के लिए गैर—पालतू
के लिए, सहजस्फूर्त
के लिए तैयार
रहना होगा।
लोग
स्वतंत्रता
की बातें करते
हैं लेकिन लोग
स्वतंत्रता
चाहते नहीं, क्योंकि
स्वतंत्रता
खतरे लाती है।
गुलामी सुविधाजनक
है — कोई अन्य
तुम्हारे
जीवन का
उत्तरदायित्व
लेता है।
लेकिन
प्रज्ञा
स्वतंत्रता
है। तुम्हें
कभी भी पता
नहीं होता कि
अगले क्षण तुम
क्या जानने जा
रहे हो; तुम
उसका
पूर्वाभ्यास
नहीं कर सकते।
वह अचानक आती
है। लेकिन वह
एक ऐसा आनंद
है, एक ऐसी
धन्यता, कि
जिन्होंने
गैर— पालतू
प्रज्ञा को
नहीं जाना है
उन्होंने कतई
कुछ भी नहीं
जाना है।
...
ऐसा
जरयुस्त्र ने
कहा।
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