(दसघरा की दस कहानियां )
सेन्ट्रल पार्क में जो अंग्रेजों के जमाने का एक मात्र पुराना लैंम्प था। अब उसकी रोशनी-रोशनी न रह कर मात्र जुगनू की चमक भर रह गई थी। परंतु वह अपनी ऐतिहासिकता और कलात्मकता के कारण ही अब देखने की वस्तु बन गया था। उसको देख कर अँग्रेजों की याद आये बिन आपको नहीं रहेगी। जो युग लैंम्प पोस्ट उसने जीया था, वह भले ही आज जुगनू प्रकाश बन कर रह गया हो। लेकिन जिस जमाने में ये लगा था। ये इस गांव मोहल्ले के लिए तो ईद का चाँद था। है तो बेचारा आज भी ईद का ही चाँद। क्योंकि दोनों देखने भर के लिए सुंदर होते है परंतु मार्ग कम ही किसी को दिखा पाते है। यही हाल बेचारा लैंम्प पोस्ट था, मात्र मन का भ्रम बना रहता था कि हम प्रकाश में जा रहे है। अब ये भी एक अंग्रेजी राज की तरह इतिहास बन गया है। परंतु अंग्रेजों की कारीगरी गजब भी...सालों बाद भी न गला, न गिरा.....मध्यम ही सही जलता तो है। आस पास के लोगों को आने जाने में सुविधा और साहस देता है। सालों इस ने इस वीरान रास्ते पर लोगों को भय मुक्त किया। इस लिए लोग आज भी इसे आदर सम्मान की नजरों से देखते है। परंतु अब सरकार ने एक आधुनिक तरह की ऊंची लाईट लगा दी थी। जिसकी रोशनी पूरे पार्क को ही नहीं आस पास की सड़क तक को रोशन कर रही थी। वैसे तो स्ट्रीट लाईट सालों बाद भी जलती थी। परंतु उस विशाल रोशनी के आगे उस बेचारी की क्या बिसात, यूं कि आप सूरज के आगे दीप जलाये रहो। ये सब उन दुकान चलाने वाले के लिए प्रतीकात्मक के साथ सुविधा जनक भी बन गये थे। आज भी उसी के आस पास हाट बाजार लगता था। छोटी-छोटी दुकानों की रौनक श्याम के समय देखते ही बनती थी। उधर से आने जाने वाले ज्यादातर राहगीर वही से दैनिक इस्तेमाल का सामान खरीदते थे। फल-सब्जी वाला, एक पान वाला, एक पुराने कपड़े जो हर कपड़े 25रू दाम बोलता था। आज कल जामुन के पेड़ के पास जो कोना था, उस के पास एक जूतों वाला भी बैठने लगा है। जो जूते और चपल का ढेर लगा कर आने-जाने वालों को आवाज मार-मार कर रिझाने की कोशिश करता है। हर जूते का दाम पचास रूपये.....लुट का माल है भाइयों लुट लो। पास ही झनकूँ चाय वाला था।
झनकूँ की चाय की चर्चा पूरे शहर में मशहूर थी। उसकी दुकान पर दस पाँच आदमियों की भीड़ हमेशा लगी ही रही थी। कहते है झनकूँ के पिता के हाथ में जादू था, एक बार आप उसके हाथ की चाय पी लो फिर आप गये काम से। पर हमने तो नहीं देखा, पर कुछ बुर्जग कहते है कि उस जमाने में मिट्टी के सकोरे में ही चाय मिलती थी। आप अगर झनकूँ की दुकान पर चाय ले कर चाय मैं फूँक मार कर ठंडी करने की कोशिश की तो वह आपके हाथ से सकोरा छीन लेता था। की साहब चाय पीनी नहीं आती तो फिर नाहक क्यों परेशान होते हो। आप छाछ जाकर पीओ। अरे चाय का लुत्फ तो हलकी-हलकी चुस्की लगाने में ही आता है। आप लगे अपनी फू...फू करने इतनी जल्दी क्या है थोड़ा प्रेम से थोड़ा भाव से इसे नाजुक होटों पर लगाओ। देखा नहीं जापान के लोग कैसे चाय पीते है। उनके यहां तो एक मंदिर होता है चाय पीने का। ये तो पूजा का प्रसाद है। किसी ध्यानी का दिया हुआ वरदान है। सुना है चाय के बारे में की एक बार कोई झेन गुरु जब रात को ध्यान करते उसे बार-बार नींद की झपकी आने लगी। कहावत है भाई ये... उस झेन गुरु ने नींद से दुःखी हो कर अपनी दोनों पलकें उखाड़ कर फेंक दी थी। उन्हीं पलकों से ये चाय का पौधा उगा। अब भला झेन गुरु को यहां कौन समझे, यहां तो ज़िंदगी की भागम-भाग में ही रुले फिर जाती है पूरा जीवन आदमी का। अब कहावत तो कहावत है। पर चाय का निकोटीन हमारा होश बढ़ता है। ये बात वैज्ञानिक भी जान गये है। ये पौधा कोई साधारण पौधा नहीं है। कई औषधि गुण समेटे है अपने आप में। पहली बार जिस पर्वत पर चीन में चाय पाई गई थी। उस पर्वत का नाम था ‘चाह’ और पूरी दुनियां में उसे इसी नाम से जाना जाता है।
अब आप को अगर झनकूँ के हाथ की चाय की लत लग गई तो ये प्रवचन तो सुनने ही पड़ेंगे। वरना घर जाकर पत्नी के हाथ का काली धौण काढ़ा पीओ जनाब। झनकूँ की दुकान के दस कदम दूर एक बरसाती पानी की निकासी के लिए पुलिया है। बनी होगी वह कोई 80-90 साल पहले अंग्रेजों की जमाने की कारीगरी भी कमाल थी। इँट टूट जाये मजाल है, मसाले से आप उसे यूं ही अलग कर दो। और आज देश आजादी के बाद बनी कितनी की पुलिया, कोठियां अभी बनी नहीं कि आप देखें तो आपको बाबा आदमी के जमाने की लगेगी। परंतु इतनी पुरानी पुलिया आज भी अच्छी हालत में है। मैं अब उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गया था। जब शरीर अपने उतार पर आ जाता है तो श्वास भी अब फूलने लगी थी। ज्यादा देर चलने से हाथ पैर दोनों ही में थकान हो जाती थी। इसलिए झनकूँ की चाय रोज तो नहीं पीता था परंतु इस पुलिया पर पल-दो पल विश्राम जरूरत करता था। एक पंत दो काम हो जाते थे इस पुलिया पर बैठने में। आस पास का नजारा भी देख कर मन प्रसन्न ही नहीं होता था अपना बाल पन भी लोट आता था। सामने जो जामुन के दो पेड़ दिखते है। हमारे बाल पन में वहाँ पर छ: पेड़ होते थे। हम उस को छ:जामुन के नाम से पुकारते थे। क्या मस्त दिन थे। बंदर की तरह से, उन विशाल पेड़े पर पतली से पतली टहनी पर जाकर जामुन खाते थे। अब तो भाई गया वह जमाना कभी जाकर देखता हूं जामुन के मौसम में एक आधी जामुन मिल जाती है। वह भी सूख कमजोर बेस्वाद। बाकी के पेड़ तो मर गए या यूं कह दो मार दिए गए। आज के सरकारी विभाग ने।
आप कहोगे कैसे। अरे भले मानुस आप देखो, पार्क के चारों और ये जो सफेदे के वृक्ष लगा दिये ये किस काम है। ये जमीन से तीन सो फीट ले कर छ: सौ फीट तक पानी को खत्म कर देते है। ये तो दलदल या नदी नालों के किनारे उगाने के पेड़ है। अंग्रेजों ने एक और जामुन, दूसरी और पिलखन, और बीच में नीम। लेकिन इन सफेदे के पेड़ो ने सब वृक्षों को वक्त से पहले ही मार दिया है। नाले के आस पास बरसाती पानी की नमी के कारण घास पात वहां काफी उगी रहता था। खास कर गाजर घास इसने तो अमरीका से आकर पूरे भारत पर अपना प्रभुत्व ही जमा लिया है। खराब चीज कैसे बिना बोए भी अपना विस्तार करती है। कहां अमरीका और कहां भारत गजब किया इस गाजर घास ने भी। और एक चमत्कार अगर इस को पुरूष छूयेगा तो ये नाराज होगी और उसके हाथों खुजली शुरू हो जायेगी। लेकिन अगर स्त्री चाहे इसे पकड़ कर अपने हाथों पर भी रगड़ ले तो क्या मजाल की आपको जरा भी खुजली हो। कैसी भेद भरी घास है कुदरत भी चमत्कार है।
वहीं एक गड्ढे के पास काल सफेद चितके वाला कुत्ता अकसर मुंह को जमीन पर टेके बड़े ही शांत भाव से बैठा रहता था। इससे पहले भी मैंने उसे कई बार देखा था। पर एक उड़ती सी नजर से ही मैं उसे देखता था। पर आज अचानक कुछ ऐसा हो गया कि मेरा ध्यान उसने अपनी और खींचा। मैंने देखा की एक पुलिस वाला हाथ में डंडा लिए उसके पास से चला गया। पर वह शांत भाव से बैठा रहा, फिर एक महात्मा भी अपना भिक्षा पात्र हाथ में लिए चला गया। अब मेरे कान कुछ खड़े हुए मेरे मन में एक जिज्ञासा सी पैदा हुई। हद तो जब हो गई जब पार्क में कूड़ा कचरा बीनने वाला, जो सरकारी काम को फ्री में लगभग रोज पार्क की आधी सफाई तो यूं ही कर देते थे। अपना पेट भरने के लिए, जिस के लिए भारत सरकार उन्हें धन्यवाद तक नहीं देती। उस कूड़े कचरे वाले को भी देख कर नहीं भोंका। गजब का कुत्ता है यह तो।
वरना भारत के पूर्व में चाहे अनेक धर्म संप्रदाय जाती भेद रहे हो। पर अब उन सब को समेट सुकेड़ कर एक ही धर्म ने अपनी गोद में ले लिया है। ‘’कूड़ा कचरा’’ आप पूरे भारत में
घूम-फिर कर देख सकते है। और ये धार्मिकता धार्मिक स्थानों पर तो प्रचुर मात्रा पर मिलेगी ही।
मोदी जी ने आकर कर पहली बार इस और जनता का ध्यान इसकी और खिंचा था। लोग थोड़े जागे भी है। परंतु आज भी अधिक लोगों की मानसिकता वही के वहीं है। आप पार्क क्या सड़क आस पास खाने के बाद यूं ही कचरा फेंक देते है। अरे भले मानस चार कदम पर ही तो आगे कूड़ा दान है। हाथ बढा कर वहाँ डाल देते। परंतु यही तो धर्म है यही उनकी शान है। यहां वहां जहां तक आपकी नजरे जायेगी कोने कतरो, पार्क के अंदर, गली मोहल्ले में भी इस को देख सकते हो। गंदगी के मामले में और जनसंख्या के मामले में हम नोबल प्राइस ले सकते है। पर कोई दे तब ना.....भारत का अब एक ही धर्म रह गया गंदगी फैलाओ। अब वो कबाड़ी भी बेचारा देश की कितनी मदद करें। वह भी उस संत कुत्ते के पास से गुजर गया। भाई ये तो हद हो गई। आज तो चमत्कार पे चमत्कार दिखाई दे रहे है। कुत्तों के बारे में जो आज तक मैंने पढ़ा या सुना या समझा वो बाते सारी की सारी ज्योतिष फैल हो रही थी। या बेचारे खलील जिब्राहिम साहब भी अगर आज यहां होते तो अपने दांतों तले उँगली जरूरी दबा लेते। यह कि ये क्या हो गया हजारों साल से सुनते आये है कुत्ते के भौंकने के बारे में आज वह दर्शन शस्त्र फैल हो गया। मुझे लगा ये हो न हो कुत्तों का कोई बुद्धत्व प्राप्त होगा। ऐसा संत कुत्ता कभी मैंने तो ने कहीं नहीं देखा न ही सूना और न ही पढ़ा।
अब मेरी जिज्ञासा कुछ और बढ़ गई थी। मैं उठा और उसकी और बढ़ा....मेरे पैरो की आहट सून कर उसने भय के कारण अपनी गर्दन उठा कर मेरी और देखा। मैं रूक गया। अंदर से थोड़ा डरा भी हालांकि में कुत्तों से कम ही डरता था। क्योंकि कुत्ते देख कर ही नहीं मात्र गंध से आप की तरंगों को पकड़ सकते है। पागल आदमी कुत्ते से कतरायेगा। पागल आदमी ही कुत्ते को मारेगा। कुत्ता आपके विचार ही नहीं आपके भाव तरंगों को भी पकड़ लेता है कि वह कैसी है। भाव से ही आपके स्वभाव का पता चलता है कि वह कैसे है। क्योंकि मेरा मानना है कि वह नाहक किसी को नहीं काटते आज कल कुछ मुर्ख कुत्ते भी पैदा हो गये जो नाहक भोंकते रहते है। परंतु न जाने क्यों आज मैं अंदर से कुछ डर गया। अचानक में चलते-चलते रुका था, कुछ भय के कारण। मेरे इस तरह से रूक जाने से वह कुछ असमंजस में उलझा दिखाई दिया। जो शायद उसकी समझ में नहीं आया। लेकिन उसके बाद मेरी देशी में न देख कर भिन्न दिशा में देखने लगा। फिर मैं दबे पैर कुछ और आगे बढ़ा। उसके बाद उस कुत्ते ने अपने बचाव का दूसरा हथियार निकाल लिया। और वह अचानक पूछ हिलाने लगा। इससे मेरा भय गायब हो गया। क्योंकि कुत्ता जो पूछ हिलायेगा, और भौंकेगा, वह काटेगा नहीं....पुरानी कहावत है, बिन भौंकने वाले कुत्ते से, गंभीर औरत से, और शांत जल से हमेशा बच कर चलना चाहिए। अब ये बातें यूं ही नहीं कह दि गई होंगी। इन बातों में एक-एक युग का अनुभव समाया होता है।
थोड़ा और पास जाकर मैंने देखा उसकी दोनों आंखों की पुतलियाँ एक दम सफेद थी। जैसे नीले आसमान को श्वेत बादलों ने ढक लिया हो। अब वहां कहां चाँद-तारे कहां बेचारा सूरज झांक सकता था। एक सफेद धुंध फैल गई और चारों और। मैं जहां पर खड़ा था वह उस दिशा से थोड़ा भिन्न दिशा में गर्दन टेढ़ी कर के देखने की कोशिश कर शायद आवाज से समझने की कोशिश कर रहा था। मैं समझ गया ये बेचारा कुत्ता बुद्ध तो नहीं निकला पर मेरे अनुमान के अनुसार संत जरूर निकला। ये कुत्ता तो अंधा था बेचारा कुतो का सूरदास। सूना नहीं कभी किसी किताब में कि कोई अंधा कुत्ता भी होता है। पर साधारण सी बात है आंखें है तो खराब भी हो सकती है। इस में मुझे इतना अचरज करने की कोई जरूरत नहीं थी। मैं पास ही जो झनकूँ चाचा की दुकान थी उस पर गया। और दो रूपये का एक बिस्किट मांगा। पैसे देते हुए मैंने झनकूँ से पूछा भैया वो जो कुत्ता बैठा है वो अंधा है क्या? उसने मुझे ऊपर से नीचे तक दो बाद देखा और बचे तीन रूपये और बिस्किट मेरे हाथ पर रखते हुए कहने लगा। कपड़ों से तो पढ़ लिखे लगते हो। पर लगता है काले अक्षर ही पढ़े है, जीवन की पढ़ाई नहीं जानी। मैं उसके उत्तर से थोड़ा झेपा, क्योंकि हम जिस विषय को जानते है, उसी विषय के बारे में सामने वाले से क्यों पूछते है। वो ठीक था परंतु हमें एक आदत सी हो गई है। जैसे किसी की शादी का टेंट लगा हो आप पूछेंगे आज यहां क्या हो रहा है। हालांकि आप जानते है। ये मनुष्य का बहुत बड़ा रोग है.... और हथेली पर रखे खुदरे पैसों को जोर से बंद किया और मुड़ गया। पीछे से झनकूँ के शब्द सुनाई देते रहे न जाने लोग इतने अखबार पढ़ते है, फिर भी सामान्य ग्यान में पिछड़ते क्यों जा रहे है......अरे भाई आँख है और आप उसे अभी देख कर आये है फिर भी पूछ रहे हो की वह अंधा है।
मेरा ज्ञान भी कितना था। घर से दफ्तर और कुछ चटपटी खबर, बलात्कार, या घोटालों के विषय में.....बस इतना ही तो मैं पचा पाता था। एक प्रकार से सरकारी कर्मचारी कुएँ का मेंढ़क हो जाता है। मैं वहां से जल्दी दूर जाना चाहता था, ताकि मेरे कानों में उनकी आवाज न आये। क्योंकि में जानता था ये छोटा मोटा काम करने वाले दुकानदार इतने वाक पट्ट हो जाते है कि अच्छे-अच्छों के कान कुतर देते है। वरना इस तरह सड़क पर बैठ कर रोजी रोटी चलाना कोई आसान काम है। हम जैसे भोंदू को अगर यहां बैठा दिया जाये तो श्याम तक दस पैसे न कमा सके। भला हो भगवान का वह सब पर दया करता है। उसने हम सरकारी नौकरी दे दी वरना तो न जाने क्या होता अपना।
मेरे पैरों की आहट सुन कर उसने मुझे पहचान लिया, और जौर-जौर से पूछ हिलाने लगा। मैंने पैकेट खोला और उसके सामने बिस्कुट रख दिये, उसने उन्हें एक बार सूंघा और फिर एक अदृश्य आसमान की और देखा और खाने लेगा। वह एक-एक बिस्कुट को बड़े चाव से खा रहा था। इसका अंदाज मुझे उसके चेहरे और पूछ से लग रहा था। मैंने इधर उधर देख कर एक बिस्कुट अपने मुख में भी डाल लिया। सोचा ये कोन मुझे खाते देख रहा है। अब मैं रोज वहां से आने लगा पहले तो मैं कभी-कभी गलियों से होकर छोटे रास्ते से घर चला जाता था। क्योंकि यह रास्ता कुछ लम्बा पड़ता था। परंतु जब जरा ताजा हवा खाने का मन होता था तो इधर से आ जाता था। ये रास्ता एक दम हरा भरा खूला था। मानो आप प्रकृति के पास आ गए हो। दिन में अपने टिफिन से बचा कर अंधे कुत्ते के लिए एक रोटी और सब्जी रख लेता। पर जिस दिन मेरी छूटी होती या बरसात वगैरह आ जाती तो मैं वहां नहीं जा पाता था। उसकी याद मुझे जब मैं घर पर खाना खाने लगता तो आती था। सच उसका चेहरा इतना भोला था की मैं उसे निहारता रहता था। वह तो मुझे नहीं देख पाता था परंतु मैं तो उसे जी भर कर देख और प्यार भी कर सकता था। मेरे मन में एक दर्द भरा रहता था उस दिन कि आज मेरा दोस्त मेरा इंतजार करता ही रह गया।
मेरा घर बहुत छोटा था, दो कमरों का, सामने थोड़ा आँगन था। जहां पर हम कभी सर्दी के दिनों में धूप लेने के लिए बैठ जाते थे। वरना तो वह जगह उपेक्षित ही पड़ी रहती था। परिवार में इस समय हम दो ही प्राणी थे। हम मात्र पति-पत्नी ही। लड़का नौकरी के सिलसिले में बंगलौर चला गया। और लड़की की शादी कद दी वह पराये घर की हो गई। कभी-कभी आती भी है तो साल में एक दो घंटे भर के लिए। मैंने कितनी बार सोचा उस कुत्ते के विषय में पत्नी से बात करूं। कि उसे अपने घर ले आया जाये। फिर सोचा पता नहीं अंधे कुत्ते को देख कर वह क्या सोचेगी। कि ये किस काम का न चौकीदार कर सकेगा न ही आते जाते को देख कर भोंक सकेगी। वैसे भी चौकीदारा करवाने के लिए हमारे पास था ही क्या। चार कुर्सी एक पलंग एक अलमारी और चार कपड़े इन्हें तो कोई ले जाकर अपना माथा ही पीटेगा। चौकीदारे के नाम पर आज कल तो फैशन हो गया है। कि आपके घर कितने कुत्ते है। चौकीदारों से आज कल अमीरों का चौकीदार पूरी नहीं होती उन्हें भी इसके अलाव तीन चार कुत्ते और चाहिए। वह भी भिन्न जाति के भिन्न-भिन्न नसल के। ये शोक पैसा हो तो आप चाहे चार कुत्ते पाल लो आज कल तो ये स्टेटस हो गया है। जिसके पास जितने कुत्ते उतना ही वह अमीर। एक जमाने में जितनी बीबी आपकी आप उतने अमीर। फिर अमेरिकी ने नया प्रपंच रचा कि कितनी कारें आपके पास आप उतने अमीर। फिर उसके बाद आया आप के पास कितने मकान आपके पास उतने अमीर। अब एक नया चलन कि आपके पास कितने कुत्ते उतने ही प्रेम पूर्ण महान। पत्नी के अलावा मेरे मन में एक शंका थी की उसे अगर मैं घर पर लाया तो फिर पड़ोसियों भी कुछ एतराज करेंगे। सो उन हजार दबी इच्छाओं के साथ मैं इस कुत्ता पालने की इच्छा को में अपने मन में ही दबा कर रह गया। जहां हजारों अधूरी इच्छाएं पड़ी है वहां एक और किसी कोने में समा जायेगी। बात आई गई हो गई। पर मैं उस कुत्ते से रोज मिलता। वह भी मुझे देख कर बहुत खुश होता था। अब मुझे घर जाने में देर भी हो जाती थी। पत्नी इंतजार भी करती थी और गुस्सा भी। परंतु मुझे उस कुत्ते के पास बैठ कर बहुत अच्छा लगा था।
दीपावली के दिन थे, सारे बाजार सज रहे थे। पूरे भारत में दीवाली से एक माह पहले आपको शहर का माहौल बदला-बदला नजर आने लगेगा। पहले तो रामलीला की रौनक, और फिर दीवाली। इसी बीच मैं कई-कई दिनों से उस और जा नहीं पाया था। क्योंकि इन दिनों श्याम जल्दी ढलने लग जाती ओर अँधेरा बहुत पहले ही उतर आता था। एक तो दफतर का काम कमर तोड़ देता था। फिर मैं पतली गली से होकर घर आ जाता था। परंतु इस बीच मन हमेशा उस कुते के बारे में ही सोचता रहता था। कि वह कैसा होगा। रात को चार बूंदे गिरी थी तो वह कहां पर छूप कर सोया हो। हजारों पशु पक्षी ठिठुरती रातों में पानी में भीगते हुए सोते रहते है। फिर भी सुबह उठ कर गीत गा परमात्मा को धन्यवाद देते है। और ये महान मानव इतनी सुख सुविधा के बाद भी रोता झिझकते ही उठता है। रोता कलपता ही खाना खाता है, काम करता है। और रोता कलपता ही सो जाता है। इसके चेहरे पर आप पल भी हंसी ढूंढ नहीं सकते हो।
खाना खाने के बाद मैंने धूप में बैठे यूं ही समाचार पत्र के पन्ने उलटे अचानक मेरा माथा ठनका अरे ये क्या। उस समाचार पत्र के पहले पन्ने पर मैंने उस अंधे कुत्ते का फोटो देखी। मेरी आँखें फटी की फटी रह गई। ऐसा क्या हुआ उस बेचारे के साथ की उसकी फोटो समाचार पत्र में आई थी। मैंने फटा-फट सारी खबर पढ़ी तो मैं दंग रह गया। कुछ ही दिन पहले समाचार पत्र में पढ़ा था। कि शहर में किसी सेठ की दुकान में रात को सेंध लगा कर कुछ चोरों ने लाखों के जवाहरात चोर लिए थे। और आज तक न तो चोरी का सामान मिला न ही उन चोरों का पता चला। इस बात से पुलिस काफी परेशान थी। वह अपनी और से हर संभव प्रयत्न कर रही थी। परंतु चोरों का कोई सुराग नहीं मिला। न ही वह चोरी का सामान बाजार में बिकने के लिए आया। मानो उस चोरी के सामान को जमीन ही निगल गई या आसमान खा गया। लेकिन अचानक उस दिन उनकी पकड़ में चोर आ गये। हुआ यूं कि चोरों ने चोरी का सामान उस नाले में दबा कर रख दिया था। ताकी मामला कुछ ठंडा हो जाये तो बाद में निकल ले। अगर पुलिस समझदार है तो चोर भी चालाक और चतुर होते जा रहे है। बात जब काफी दिनों पुरानी हो गई तब उन्होंने सोचा की अब अपना सामान निकल लिया जाये। उस सामान को निकालने के लिए जब वो चोर वहां गये जहां पर उन्होंने सामान को गाड़ा था। रात अंधेरी थी। ठंडी कड़ाके की पड़ रही थी। सर्दी के दिनों में गलियों में क्या और पार्क में एक दम से जल्दी सूनापन फैलने लग जाता था। सब अपने-अपने घरों में दुकानें की जल्दी में होते है। परंतु हाए बेचारे चोरों की किस्मत इतना इंतजार कर के जब वह उस सामान को निकलने के लिए आये। और उन्होंने वहां पर गढ़ा खोदना शुरू किया। तभी अचानक न जाने कहां से वह अंधा कुत्ता नकल कर सामने आ गया। अचानक बिना भोंके उसने उन पर हमला कर दिया। ये साधारण कुत्ते के लक्षण तो जरा भी नहीं थे। इस तरह से तो कोई पागल कुत्ता ही काटता है। इस सब के लिए वह तैयार नहीं थे। किसी की पीठ पर किसी के हाथ पर चोर तो रोते चिल्लाते भागने लगे। अरे खा लिया मार दिया।
आदमी होता तो दो-दो हाथ करते अपने लिए नहीं तो कम से कम चोरी के सामान के लिए जरूर परंतु अब तो समाने एक कुत्ता है। केवल अपनी ही रक्षा तो करनी थी। समान की उन्हें जारा भी चिंता नहीं थी। उनमें से एक चोरों की तो पैर पर काट लिया, एक को हाथ पर काट लिया, ओर एक की पैंट पकड़ ली। खूब हूं हल्ला मचा। चारों और शोर मचा तो भीड़ इक्कठा हो गई। उधर से गश्त पर जो हवलदार साहब घूम रहे थे। वह भी उधर लपका ओर लोगों ने बताया की एक कुत्ते ने तीन चार आदमियों को काट लिया। और वह एक चोर की पेंट पकड़ कर उसे जाने नहीं दे रहा था। तभी सिपाही की नजर पास के उस अधूरे गड्ढे की और गई तभी उसने देखा की गड्ढे में कुछ जेवर है। तब लोगों ने उन चोरों को पकड़ लिया। बस फिर क्या था बात आग की तरह फेल गई। पुलिस के साथ सारा शहर एक दम से मानो जाग गया। हवलदार क्या थानेदार क्या सब का मजमा वहाँ लग गया। कुछ लोगों ने कहा की अरे ये कुत्ता तो अंधा है। इस ने कैसे चोरों को पकड़ लिया। समाचार वालों को भी एक चटपटी खबर मिली की एक अंधे कुत्ते ने एक चोर को पकड़ लिया। हवलदार साहब ने चोरों को पकड़ा और जेवर की पोटली उठाई और चारों चोरों को गाड़ी में बिठाया और थाने की और चल दिया। जनता भी पीछे-पीछे उन्हें तो एक जासूसी घटना वह भी आंखों देखी मिल गई। अरे भाई ये खबर आप अगर अख़बार में ही पढ कर जब इतने उत्तेजित हो जोते हो तो जब ये रियल टाइम पर घट रही हो आप उसके साक्षी हो तब कहां आंखों में नींद। सब मेला बिछुड़ गया बेचारा रह गया अंध कुत्ता उसकी और किसी का ध्यान नहीं गया था। समाचार पत्र में लिखा कि बहादुर अंधे कुत्ते ने लाखों की चोरी का राज खोला और चोरों को पकड़वाया। बस एक फोटो डाली और बिकने लगा आपका समाचार पत्र हो गई आपकी फर्ज अदायगी।
ये समाचार पढ़ कर मेरा सीना फूल कर कुप्पा हो गया। उस समय मुझे अपने दोस्त की बहुत याद आई थी। लगा की कब छूटी हो जाये और में आपने दोस्त के पास जाऊं और उसे शाबाशी जाकर दूँ। पर में जब उधर से गुजरा तो वहां पर एक दम सन्नाटा सा था। झनकूँ की चाय की दुकान पर भीड़ थी। पर झनकूँ की दुकान पर मेरा जाने का साहस नहीं हुआ। उसकी चपलता से मैं डर गया था। और मैं इधर उधर चोर नजरों से देखता हुआ घर चला आया। सोचा कल पुलिस स्टेशन पर ही जाकर पता करूंगा। उस रात मैंने पत्नी को अपने दोस्त अंधे कुत्ते की कथा सुनाई। की कैसे उसने लाखों की चोरी का माल बरामद करवाया और चोरों को भी पकड़वाया। और उत्साह में भर कर मैंने कह दिया कि मैं आपसे कहने वाला था कि इस कुत्ते को अपने घर ले आये। पर मैं कह नहीं सका। देखा इसने कितनी बहादुरी का काम किया है, अंधा होने पर भी कि आँख वालों को मात दे दी। पता है कुत्ता आदमी को सूंघ भर लेने से पहचान जाता है कि आपके विचार कैसे है। आपका स्वभाव कैसा है। मेरी पत्नी को इन बातों में कोई रस नहीं था। वो मुझे ऐसे देखने लगी मानो में सठिया गया हूं। और हंसती हुई दूसरे कामों में लग गई। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी चमत्कारी बात में भी किसी को रस नहीं हो ऐसा कैसे सकता है। पर मैं अपने उत्साह और जोश की गर्दन दबा कर बैठ गया।
अगले दिन में दफ्तर से कुछ जल्दी निकला और उस पुलिस स्टेशन पर जाकर पूछा। की कल जो सेठ जी के घर चोरी हुई थी उसका क्या हुआ। वह हवलदार भी अपने पेट में कथा को दबा नहीं पा रहा था। मानो उसे एक दर्शक मिल गया। बड़े प्यार से कहने लगा बाबू चमत्कार हो गया। हम तो नाहक कपड़े डंडा लेकर खड़े होते है। पैसे भी सरकार के यूं ही डकार जाते है। काम तो उस कुत्ते ने गजब का किया था। और बाबू पता है आपको की वह कुत्ता अंधा था। न सुनते हुए भी मुझे उसकी वो कथा पुराण सुननी ही पड़ रही थी। क्योंकि मैं अपने दोस्त कुत्ते के बारे में जानना चाहता था। तो पता चला कि जिस सेठ के घर जो चोरी हुई थी। वह इतना खुश हुआ की उस अंधे कुत्ते को अपनी कार में बिठा कर अपनी कोठी में ले गया। मैंने पूछा आप मुझे उस सेठ की कोठी का पता बता सकते है। वहां खड़े सिपाही ने कहां ये हमारे बूते के बहार की बात है। इंस्पेक्टर साहब से बात कर के देख लो। मैं डरते हुए अंदर गया। शायद पहली बार पुलिस स्टेशन का मुखड़ा देखा था। पर मुझे देख कर इंस्पेक्टर साहब अच्छे से बोले और पूछने लगे आप इस अंधे कुत्ते को कैसे जानते हो। मैंने सारी बात बताई ओर उस सेठ का पता चाहा। कि मैं एक बार उस से मिलना चाहता हूं। तब इंस्पेक्टर ने कहा छोड़ो भी अब तो वह कुत्ता अंधा भला हो पर अमीर हो गया। शायद उस की आंखें भी सेठ ठीक कर दे। पता है पंद्रह लाख की चोरी बरामद हुई है। अब वह आपके काम का नहीं है शायद वह आपको पहचाने भी नहीं। पर मैं जानता था ये बातें फिजूल है। मेरा दोस्त कोई मनुष्य थोड़ा ही है। जिस पर पैसे का रंग चढ़ जाये। वह तो एक प्यारा अंधा कुत्ता है.....पर मैं उससे मिलने का जो साहस लेकर गया वह चकना चुर हो गया। और मैं उस से मिलने की एक छोटी आस को लेकर गया था और एक बूझी और झूठी निराशा को लेकर आया बाहर।
मैं ये सोच रहा था देखो कल की बात थी। क्या ये उसके किसी कर्म के कारण ऐसा हुआ या उसके साहास ने वो सब करा दिया। परंतु साहसी तो वह कुत्ता था ही परंतु एक बात थी की वह प्रेम से भरा था। इसलिए आपने देखा जो व्यक्ति प्रेम से भरा होगा वह ईमानदार जरूर होगा। ये सब सोचने का विषय है की उस अंधे कुत्ते ने कैसे उन चोरों को पहचाना। की वो चारों ही चोर है और एक चोरी का माल निकाल रहे है। शायद वो दबाने गये होंगे तब भी वहीं कहीं होगा। शायद उन चोरों की उस पर नजर न पड़ी हो। पर मुझे अंदर-अंदर एक खुशी थी, की मेरा दोस्त अब जहां भी है उसे कोई दुखी नहीं रहेगा। उसे अब अच्छा खाने को मिलेगा शान से सेठ के घर पर रहेगा। जीवन को हम जानते नहीं केवल मन से ही तो जीते है। मेरा मन उस समय उसे घर लाने के लिए था। अगर वह मेरे साथ घर आ जाता तो जीवन भर मेरे यहां रूखी सूखी खाता परंतु शायद वहां उसे सब सुविधा मिले परंतु हो सकता है प्रेम का आभाव हो। अब जब भी में वहां से गुजरता अब भी उस पुलिया पर कुछ देर जरूर दम लेता और उस दोस्त को याद करता। पता नहीं उसे मेरी याद आती होगी या नहीं। पर उसके बिना वह जगह सूनी-सूनी सी लगती थी। लगता था अभी पल में मेरा दोस्त आ जायेगा। और पूछ हिलाने लगेगा। पर ऐसा न हो तो ही अच्छा है। वो वहां आराम से होगा........इतना तो मुझे यकीन करना ही होगा।
परंतु एक दिन साहास कर मैं उस सेठ के घर की और चल दिया। और कुछ नहीं कम से कम उसे दूर से तो देख लूंगा। यही सोच कर मैं एक उम्मीद के साथ उस और गया। बहुत ही शानदार कोठी थे। मैं गेट के पास गया और वहां के चौकीदार से बात करने लगा। की वह अंधा कुत्ता अब कहां है। तब उसने बुरा मूंह बना कर कहां देखो किस्मत उसकी कहां से कहां पहुंच गया। और हम है की यही जूतियां रगड़ते रहे गए। मैंने कहां की क्या मैं उसे देख सकता हूं। तब उसने कहां की आप देख तो लेंगे परंतु वह आपको पहचानेगा कैसे। आप नाहक परेशान हो रहे है। उसकी किस्मत खुल गई आप क्यों चक्कर में पड़ते है।
हम अभी यहीं बाते कर रहे थे की एक गाड़ी गेट पर आकर खड़ी हुई चौकीदार डर गया। और भाग कर उसने गेट खोला। तभी गाड़ी के अंदर से सेठ ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा ये आदमी कौन है। चौकीदार ने कहा कि ये अंधे कुत्ते के बारे में पूछ रहा है। तब वह सेठ उतर कर गाड़ी से मेरी और आया। उसने मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछा आप उस अंधे कुत्ते को कैसे जानते हो। कहते थे कि वह तो लावारिस था। मैंने कहां हां साहब वह लावारिस ही था। सेंट्रल पार्क में रहता था। जब मैं उधर से आता था तो वही पर उससे मेरा मिलना हो गया था। इसी तरह से मेरा उससे लगाव हो गया था। बस एक बार उसे देख लेने को मन कर रहा था। उस सेठ ने मेरी आंखों में देखा और चौकीदार को बोला ये आदमी जब भी यहाँ आये इसे उस टोनी से मिलने देना। अब उस अंधे कुत्ते का नाम ‘’टोनी’’ रख दिया था।
मैं बहुत खुश हुआ। और सेठ को धन्यवाद दिया। सेठ ने कहां उसे यहां सब आराम तो है परंतु शायद उसके जीवन में जो स्वतंत्रता थी जो प्रेम था वह उससे छीन गया है। परंतु उसे अब में गलियों में तो नहीं छोड़ सकता। मैं जैसे ही अंदर गया उस चौकीदार के साथ। एक दम शैंम्पू से चमक रहे थे उसके बाल। उसने मेरी खुशबू को दूर से ही पहचान लिया और दौड़ कर मेरे पास आया। मैंने उसके सर पर जैसे ही हाथ रखा वह अगले पैरों से मेरे सीने पर पैर रख कर खड़ा हो गया और मुख चाट लिया। थोड़ी देर में मेरे लिए चाय और नाश्ता आया। तब हम दोनों दोस्तों ने मिल कर चाय और नाश्ता किया। यानि मैंने चाय पी और मेरे दोस्त ने मेरे साथ बिस्किट खाये। वह उस दिन बहुत खुश था। फिर सेठ और उसकी पत्नी वहां हमसे मिलने के लिए आई ये सब देख कर वह बहुत प्रसन्न थी। की आज इतने दिनों में ये टोनी खुश है।
उसकी पत्नी ने पोनी के सर पर हाथ फेरते हुए कहा कि आप यहां आते रहा करें। ये आपको बहुत चाहता है। हम तो इसके लिए अंजान है। मन बहुत प्रसन्न हुआ। सच ही सेठ का पूरा परिवार धनी होने के साथ प्रेम पूर्ण ह्रदय लिये हुए था। श्रेष्ठ से ही सेठ बना है शब्द। सच ही यूं ही जीवन में इतना सुख वैभव नहीं मिल जाता जन्मों के हमारे कर्म होते है।
उसकी जिंदगी मजे से कटने लगी थी। यही सोच कर मैं अति प्रसन्न हो कर मंत्र मुग्ध सा वहां से भारी कदमों पर चल कर घर पहुंच जाता। एक और कितनी प्रसन्नता थी। एक और अपने दोस्त की जुदाई दर्द दे रही थी। परंतु राहत थी की मैं अपने दोस्त से जब चाहे मिल सकता हूं।
खुश रहे मेरे दोस्त....अंधा कुत्ता अब टोनी कहलाएगा। प्रेम का विस्तार कुत्ता खुद ही कर लेता है। वह जल तत्व की प्रचुरता अपने में समेटे है। प्रेम तो उसके अंग-अंग से झरता है।
प्यारा और न्यारा टोनी।
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