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मंगलवार, 26 नवंबर 2013

जरथुस्‍थ--नाचता गाता मसीहा--प्रवचन-17


मानवोचित होशियादी की बात—(सत्रहवां—प्रवचन)


प्यारे ओशो,

यह ऊंचाई नहीं, अतल गहराई है जो डरावनी है!
अतल गहराई जहां' निगाह नीचे की तरफ गोता लगाती है और हाथ ऊपर की तरफ कसकर पकड़ते हैं। वहां हृदय अपनी दोहरी आकांक्षा के जरीए मुझे से आक्रांत हो उठता है। आह मित्रो क्या तुमने भी मेरे हृदय की दोहरी आकांक्षा का पूर्वाभास पाया है?
मेरी आकांक्षा मनुष्यजाति के साथ चिपकी रहती है मैं स्वयं को मनुष्यजाति के साथ बंधनों सें बांधता हूं क्योकि मैं परममानव (सुपरमैन) में आकृष्ट हो गया हूं : क्योकि मेरी दूसरी आकांक्षा मुझे परममानव तक खीच लेना चाहती है।


कि मेरा हाथ सुदृढ़ता में अपना विश्वास बिलकुल खो ही न दे : यही कारण है कि मैं मनुष्यों के बीच अंधेपन से जीता हूं जैसे कि मैने उन्हें पहचाना ही नहीं.......... 

रथुस्‍त्र विचारक नहीं बल्कि एक द्रष्टा हैं। समस्त विचार अंधेरे में टटोलना है। देखना सर्वथा अलग बात है।
अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में सोच सकता है, लेकिन कितने भी जोरों से वह सोचे यह उसे प्रकाश का अनुभव नहीं देनेवाला है। उसका सोच—विचार हमेशा रिक्त ही रहनेवाला है। एक बड़ा खतरा यह है कि वह अपने सोच—विचार में यकीन करने लग सकता है। और यदि एक अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में अपने सोच —विचार में यकीन करने लग जाए तो वह अपनी आखें पाने के संबंध में, अथवा कोई चिकित्सक खोजने के संबंध में जो उसकी आखें ठीक कर सके, बिलकुल भूल ही जाता है।

ब मैं कहता हूं कि जरथुस्त्र एक विचारक नहीं बल्कि एक द्रष्टा हैं, तो मैं इस बात पर जोर डालना चाहता हूं कि ठीक जैसे कि तुम आखों से बाहर की तरफ देख सकते हो, वैसे ही एक बोध है, एक संवेदनशीलता है जो कि भीतर की तरफ देखने में सक्षम है। और जब तक कि व्यक्ति के पास वह क्षमता न हो, समस्त तर्क—वितर्क अर्थहीन हैं।
यही कारण है कि जरथुस्त्र कभी भी कोई तर्क—वितर्क नहीं देते, वह बस अपने अनुभवों को बताते हैं। लेकिन यदि तुम उनके वक्तव्यों को समझ सको, वह स्वयं को देखने की एक अंतर्यात्रा का प्रारंभ बन सकता है। अन्यथा तो लोग बस बाहर भर ही देखते रह जाते हैं; उन्हें कभी इस बात का पता ही नहीं चलता कि अपनी अंतरात्मा में ही, अपने होनेपन में ही देखने की संभावना भी है।

प्रामाणिक धर्म की केवल एक ही फिक्र होती है, और वह है तुम्हारे अंतर्जगत का अन्वेषण, अंतरोन्यूख आंख का खुलना। पूरब में हमने इसे तृतीय नेत्र कहा है; वह केवल एक प्रतीक है, एक अलंकार, लेकिन व्यक्ति भीतर की तरफ देख सकता है।
मौन में, गहन मौन में, जब मन अपनी सतत बकवास बंद कर देता है, अचानक तुम्हें एक महान आयाम का पता चलता है जो इतना सुंदर है जिसकी तुम सपने में भी कभी कल्पना न कर सकते। तुम्हें अपना ही पता चलता है, और तुम्हारा पूरा जीवन रूपांतरित हो जाता है।
स्वयं को देख लेना मात्र तुम्हारे भीतर एक परममानव का प्रारंभ बन जाता है। तब तुम किसी के पुराने, सड़े—गले, पूर्वाग्रहयुक्त, अंधे अनुयायी नहीं रह जाते, जो कि हो सकता है स्वयं उसी नाव में सवार हो जिसमें तुम हो।
जो व्यक्ति स्वयं को देख सकता है वह समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है — धार्मिक, सैद्धातिक, धर्मवैज्ञानिक, दार्शनिक। क्योंकि अब उसके पास अपनी दृष्टि है, उसे किसी अन्य व्यक्ति पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है, उसे किन्हीं उद्धारकों की जरूरत नहीं है उसका उद्धार हो ही चुका है।

 
ह एक सबसे बड़ी समस्या है — उन लोगों से प्रकाश के संबंध में बात करना जिनके पास आखें नहीं हैं। लेकिन हर व्यक्ति की अंतर्निहित संभावना है रोगमुक्त हो जाने की, स्वस्थ हो जाने की। सारी जो उसे जरूरत है वह है समस्त पूर्वाग्रहों को और समस्त मान्यताओं को किनारे रख देने की और उतना सरल, अज्ञानी और पूर्वाग्रहरहित हो जाने की जैसे एक शिशु। सरलता एक द्रष्टा की भाषा समझ सकती है, क्योंकि द्रष्टा भी एक शिशु है — एक उच्चतर तल पर, लेकिन दोनों में कुछ समान है।
शिशु कुछ भी नहीं जानता, और द्रष्टा ने सब कुछ जान लिया है और उसे छोड़ दिया है क्योंकि वह कचरा था। दोनों बहुत निकट आ गये हैं, और उनके बीच एक प्रकार का संवाद संभव है। यही है जिसकी जरूरत है जब तुम जरथुस्त्र जैसे व्यक्ति को समझने का प्रयास कर रहे हो। यह तुम्हारी बौद्धिक कुशाग्रता का सवाल नहीं है, यह तुम्हारे सरल हृदय का सवाल है।

रथुस्त्र के अनुसार, मनुष्य एक अतल गर्त के ऊपर ताना गया रस्सा है। एक तरफ मनुष्य पशुओं के जगत से जुड़ा है, और दूसरी तरफ स्वयं मनुष्य से भी पार जाने की अभीप्सा लिए हुए है — क्योंकि मनुष्य अपने आप में एक सत्ता नहीं है, वह केवल एक सेतु है; वह कुछ है जिस से गुजर जाना है; एक सीढ़ी।

, मित्रो क्या तुमने भी मेरे हृदय की दोहरी आकांक्षा का पूर्वाभास पाया है? कोई भी व्यक्ति जो ऊर्ध्वविकास करना चाहता है वह विभाजित है; उसका जैविक, शारीरिक गुरुत्वाकर्षण उसको नीचे की ओर खींचता है, और उसकी आध्यात्मिक अभीप्सा उसको उच्चतर स्थानों से, प्रकाशित शिखरों से पुकारती है। वह विभाजित है, वह दोहरा बन जाता है।

वे जो कभी ऊपर उठना नहीं चाहते, निश्चित ही वे कभी गिरते नहीं; वे कभी गलत कदम नहीं लेते, वे कभी चलते नहीं। वे बस वहीं बने रहते हैं जहा वे हैं। लेकिन उनका जीवन लगभग मृत है, क्योंकि जीवन का कुछ अर्थ तभी होता है जब वह एक निरंतर गति हो ऊंचाइयों की तरफ, एक स्वागत हो उस चुनौती का जो ऊंचाइयों से आ रही है, और एक दुस्साहसी आत्मा हो अतल गहराइयों को स्वीकार करने के लिए। लेकिन सजग और सतर्क बने रही ताकि एक भी कदम गलत न पड़े!
यह करीब—करीब तने हुए रस्से पर चलने जैसा है — उत्तेजना विशाल है। वे जो शिखर पर पहुंच जाते हैं उनकी मस्ती अपरिमित है। केवल उन्होंने ही अपना जीवन जीआ है; औरों ने तो केवल अपना समय काटा है।

जो वह कह रहे हैं वह हर मनुष्य की स्थिति है।
क्यों तुम एक भीड़ के हिस्से रहे आए जाते हो? क्यों तुम अपनी निजता का उद्घोष नहीं करते? क्यों तुम दूसरों द्वारा आरोपित मिथ्या पात्रों का अभिनय किये चले जाते हो, और उनके खिलाफ विद्रोह नहीं करते? क्यों तुम इतने सारे संगठनों — धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक — के हिस्से बने रहते हो यह जानते हुए कि यह किसी ढंग से तुम्हारे काम नहीं आनेवाला; यह तुम्हारे विकास की नींव नहीं बननेवाला? यह तुम्हें केवल तुम्हारी कब्र तक ले जाएगा... तुम्हारे सारे रोटरी क्लब और तुम्हारे सारे लायंस क्लब और तुम्हारे सारे राजनैतिक दल और तुम्हारे सारे धर्म।

दि तुम अकेले छोड़ दिये जाओ, तो तुम्हें अपने स्वयं के भीतर झांकना ही होगा। बाहर किसी भी चीज से अव्यस्त, अपने अकेलेपन में ऊंचाइयों की अभीप्सा, एक गरुड़ पक्षी की भाति सूरज के आरपार उड़ान भरने की कामना उठने को बाध्य है, क्योंकि यह हर व्यक्ति के भीतर है।
जीवन स्वयं पर विजय पाना चाहता है।
वह जरथुस्त्र की मूलभूत शिक्षाओं में से एक है : जीवन स्वयं पर विजय पाना चाहता है। लेकिन विजय करने में, खतरा है — तुम नये केवल तभी हो सकते हो जब पुराना मरे। लेकिन खतरा साफ है। कौन जाने... यदि पुराना मरे और नया कभी आए ही न!

.......ऐसा जरथुस्‍त्र ने कहा।

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