सूत्र:
68—जैसे
मुर्गी अपने
बच्चों का
पालन—पोषण
करती है,
वैसे
ही यथार्थ में
विशेष ज्ञान
और विशेष कृत्य
का
पालन—पोषण
करो।
69—यथार्थत:
बंधन और मोक्ष
सापेक्ष है; ये
केवल विश्व
से
भयभीत
लोगों के लिए
है। यह विश्व
मन का
प्रतिबिंब
है।
जैसे तुम
पानी में एक
सूर्य के अनेक
सूर्य देखते
हो, वैसे
ही
बंधन और मोक्ष
को देखो।
इनोने
किसी से पूछा
था : 'समस्या क्या
है? वे
जड़ें क्या हैं
जिन से मनुष्य
का समाधान हो सके
और वह यह जानने
का प्रयत्न
करे कि मैं
कौन हूं?'
बिना
किसी प्रयत्न
के आदमी स्वयं
को क्यों नहीं
जान सकता? कोई
समस्या ही
क्यों हो? तुम
हो; तुम
जानते हो कि
मैं हूं। फिर
तुम क्यों
नहीं जान सकते
कि मैं कौन
हूं?
कहा चूक रहे हो? तुम चेतन हो, और तुम्हें बोध है कि मैं चेतन हूं। जीवन है, और तुम जीवित हो। फिर तुम्हें यह बोध क्यों नहीं है कि मैं कौन हूं? वह क्या है जो अवरोध बनता है? वह क्या है जो तुम्हें इस बुनियादी आत्मज्ञान से वंचित रखता है?
कहा चूक रहे हो? तुम चेतन हो, और तुम्हें बोध है कि मैं चेतन हूं। जीवन है, और तुम जीवित हो। फिर तुम्हें यह बोध क्यों नहीं है कि मैं कौन हूं? वह क्या है जो अवरोध बनता है? वह क्या है जो तुम्हें इस बुनियादी आत्मज्ञान से वंचित रखता है?
अगर
तुम अवरोध को
समझ सको तो
अवरोध आसानी
से विसर्जित
किया जा सकता
है। असली सवाल
यह नहीं है कि
कैसे स्वयं को
जाना जाए; असली
सवाल यह है कि
तुम कैसे
स्वयं को नहीं
जान पा रहे हो!
कैसे इतने
स्पष्ट
यथार्थ को, इतने
बुनियादी
सत्य को चूक
रहे हो, जो
तुम्हारे
निकट से निकट
है! कैसे वह
तुम्हें
दिखाई नहीं पड़
रहा है! तुमने
जरूर कोई उपाय
किया होगा; अन्यथा स्वयं
से बचना कठिन
है। तुमने
दीवारें खड़ी
की होंगी, तुम
किसी न किसी
अर्थ में अपने
को धोखा दे
रहे होगे।
अपने से बचने
की, अपने
को न जानने की
युक्ति क्या
है? तरकीब
क्या है?
जब
तक तुम उस
युक्ति को, उस
तरकीब को नहीं
समझते, तुम
कुछ भी करो वह
कारगर नहीं
होगा।
क्योंकि वह
युक्ति बची
रहती है और
तुम पूछते
रहते हो कि
स्वयं को कैसे
जाना जाए? सत्य
को, यथार्थ
को कैसे जाना
जाए? और
नतीजा यह होता
है कि तुम
अवरोध को
सहारा देते हो।
तुम अवरोध को
निर्मित भी
किए जाते हो।
इसलिए तुम जो
भी करोगे वह
व्यर्थ हो
जाएगा।
सच
तो यह है कि
स्वयं को
जानने के लिए
विधायक रूप से
कुछ करने की
जरूरत नहीं है, बस
कुछ
नकारात्मक
करना है।
तुम्हें उस
अवरोध को हटा
देना है जिसे
खुद तुमने
निर्मित किया
है। और जैसे
ही वह अवरोध
गया कि तुम
जान जाओगे।
अवरोध के हटते
ही जानना घटित
होता है; उसके
लिए तुम कोई
विधायक
प्रयत्न नहीं
कर सकते।
तुम्हें
सिर्फ इस बात
का बोध होना
चाहिए कि कैसे
मैं इसे चूक
रहा हूं।
इस
संबंध में कुछ
बातें समझने
जैसी है। पहली
बात कि तुम
अपने सपनों
में जीते हो, और
फिर ये सपने
ही अवरोध बन
जाते हैं।
सत्य कोई
स्वप्न नहीं
है; वह है।
सत्य है; वह
तुम्हें
चारों ओर से
घेरे हुए है, हर तरफ से
घेरे हुए है।
भीतर—बाहर वही
है, तुम
उसे चूक नहीं
सकते। लेकिन
तुम सपने देख
रहे हो; और
तब तुम एक ऐसे
आयाम में चले
जाते हो जो
सत्य नहीं है।
तब तुम एक
काल्पनिक
दुनिया में
सैर करते हो।
और ये सपने
तुम्हारे
चारों ओर
बादलों की
भांति छा जाते
हैं और अवरोध
बन जाते हैं।
जब
तक मन स्वप्न
देखना नहीं छोडेगा, तुम
सत्य को नहीं
जान सकते। जब
तुम सत्य को
सपने के
माध्यम से
देखते हो तो सत्य
विकृत हो जाता
है। और
तुम्हारी आंखें
सपनों से भरी
हैं; तुम्हारे
कान सपनों से
भरे हैं; तुम्हारे
हाथ सपनों से
भरे हैं। तो
तुम जो भी
देखते हो, सपनों
भरी आंख से
देखते हो, तुम
जो कुछ सुनते
हो, सपनों
भरे कान से
सुनते हो, तुम
जो कुछ छूते
हो, सपनों
भरे हाथ से
छूते हो। और
इस तरह सब कुछ
विकृत हो जाता
है, बदल
जाता है।
तुम्हारे पास
जो कुछ भी
पहुंचता है, सपनों के
माध्यम से
पहुंचता है; और सपने सब
कुछ बदल देते
हैं, सब
कुछ रंग देते
हैं।
सपनों
में खोए चित्त
के कारण तुम
सत्य को चूक रहे
हो,
बाहर के
सत्य को चूक
रहे हो और
भीतर के सत्य
को चूक रहे हो।
तुम सत्य को
पाने के लिए
बहुत उपाय कर
सकते हो; लेकिन
वे उपाय भी स्वप्न
देखने वाले
चित्त के
द्वारा ही
होंगे। तुम
धार्मिक सपने
देख सकते हो, तुम सत्य के
संबंध में
सपने देख सकते
हो, ईश्वर
और क्राइस्ट
और बुद्ध के
सपने भी देख
सकते हो; लेकिन
वे भी सपने ही
होंगे।
सपने
देखना छोड़ो; सपनों
को विदा करो।
सपनों के जरिए
सत्य को नहीं
जाना जा सकता
है। लेकिन सपना
देखने से मेरा
क्या
तात्पर्य है?
तुम
अभी मुझे सुन
रहे हो। लेकिन
तुम्हारे
भीतर स्वप्न
भी चल रहा है, और
वह स्वप्न
निरंतर उसकी
व्याख्या कर
रहा है जो कहा
जा रहा है। तब
तुम मुझे नहीं
सुन रहे हो, तुम अपने को
ही सुन रहे हो।
क्योंकि तुम
सुनने के साथ
ही साथ उसकी व्याख्या
भी किए जा रहे
हो। क्या यही
बात नहीं है? जो कहा जा
रहा है, तुम
उस पर विचार
भी कर रहे हो।
लेकिन
विचार करने की
क्या जरूरत है? सिर्फ
सुनो; सोच—विचार
मत करो।
क्योंकि अगर
तुम सोचोगे तो
सुन नहीं
सकोगे, और
अगर सोचना और
सुनना साथ—साथ
चलेंगे तो तुम
अपना शोरगुल
ही सुनोगे।
और वह वही
नहीं है जो
कहा जा रहा है।
सोच—विचार बंद
करो, सुनने
के मार्ग को
विचारों से
खाली रखो। तभी
जो कहा जा रहा
है उसे सुन
सकोगे।
जब
किसी फूल को
देखो तो सपनों
को रोक दो।
अपनी आंखों को
अतीत और
भविष्य के
विचारों और
सपनों से मत भरी
रहने दो; उन्हें
फूलों के
संबंध में
अपनी जानकारी
से खाली रखो।
इतना भी मत
कहो कि फूल
सुंदर है, क्योंकि
तब तुम सत्य
से वंचित हो
रहे हो। ये
शब्द ही देखने
में बाधा बन
जाएंगे। तुम
कहते हो कि
फूल सुंदर है;
यह कहते ही
शब्द बीच में
आ गए और सत्य
की व्याख्या
शब्दों में
शुरू हो गई।
शब्दों को
अपने आस—पास
मत इकट्ठा
होने दो। सीधे
सीधे
देखो; सीधे—सीधे
सुनो, सीधे—सीधे
स्पर्श करो।
जब
तुम किसी को
छुओ तो सिर्फ
छुओ;
यह मत कहो
कि त्वचा
कितनी सुंदर
है, कितनी
चिकनी है। तब
तुम चूक रहे
हो; तब तुम
सपने में खो
गए। जैसी भी
त्वचा है, वह
अभी और यहां
है; उसे
छुओ और उसे
अपने को तुम
पर प्रकट करने
दो। तुम किसी
सुंदर चेहरे
को देखते हो; उसे देखो और
उस चेहरे को
अपने भीतर
प्रवेश करने
दो। उसकी व्याख्या
मत करो; कुछ
भी मत कहो।
अपने अतीत मन
को बीच में मत
आने दो।
पहली
तो बात कि
सपने
तुम्हारे
अतीत चित्त से
निर्मित होते
हैं। यह
तुम्हारा
अतीत मन है जो
निरंतर
तुम्हारे चारों
ओर घूम रहा है।
अतीत को बीच
में मत आने दो।
वैसे ही
भविष्य को भी
बीच में मत
आने दो। जैसे
ही तुम्हें
कोई सुंदर रूप, कोई
सुंदर शरीर
दिखाई पड़ता है,
तुरंत
इच्छाएं पैदा
होने लगती हैं।
तुम उसे पाना
चाहते हो। तुम
एक सुंदर फूल
देखते हो और
तुरंत उसे तोड़
लेना चाहते हो।
लेकिन
चाह के उठते
ही तुम फूल से
दूर चले गए।
फूल तो वहीं
है;
लेकिन तुम
कामना में सरक
गए, भविष्य
में भटक गए।
अब तुम यहां
नहीं हो; तुम
अतीत में हो
जो नहीं है, या भविष्य
में हो जो अभी
नहीं आया है। और
तुम उसे चूक
रहे हो जो अभी
है।
तो
पहली चीज
स्मरण रखने की
है कि अपने और
सत्य के बीच
में शब्दों को
मत आने दो।
जितने कम शब्द
होंगे उतनी कम
बाधा रहेगी।
और जब शब्द
बिलकुल नहीं
होंगे तो कोई
भी बाधा नहीं
है। तब तुम
सत्य का सीधा
साक्षात्कार
करते हो, तुम
उसी क्षण उसके
आमने—सामने
होते हो।
शब्द
सब कुछ नष्ट
कर देते हैं, क्योंकि
वे अर्थ ही
बदल देते हैं।
मैं
किसी की
आत्मकथा पढ़
रहा था—एक
स्त्री की
आत्मकथा। वह
बिस्तर से
बाहर आने के
बाद से पूरे
दिन का वर्णन
कर रही थी। वह
लिखती है कि
एक सुबह मैंने
अपनी आंखें खोलीं।
लेकिन तुरंत
ही वह कहती है
कि यह कहना
सही नहीं है
कि मैंने आंखें
खोलीं; मैंने
तो कुछ भी
नहीं किया, आंखें अपने
आप खुल गईं।
वह वाक्य को
बदल देती है
और लिखती है
कि नहीं, यह
कहना ठीक नहीं
है कि मैंने आंखें
खोलीं; मैंने तो
कुछ नहीं किया;
यह मेरा
प्रयत्न नहीं
था, यह मेरा
कृत्य नहीं था।
फिर वह लिखती
है कि आंखें
अपने आप खुल
गईं। लेकिन
तभी उसे खयाल
आता है कि यह
बात तो बेतुकी
हो गई; क्योंकि
आंखें मेरी
हैं, वे
अपने आप कैसे
खुल सकती हैं!
तो क्या कहा
जाए?
भाषा
उसे कभी नहीं
कहती है जो है।
अगर तुम कहते
हो कि मैंने आंखें
खोलीं तो झूठ
कह रहे हो। और
अगर तुम कहते
हो कि आंखें
अपने आप खुलीं
तो भी झूठ है।
क्योंकि आंखें
अंश हैं, वे
अपने आप नहीं
खुल सकतीं।
उनके खुलने
में सारा शरीर
सम्मिलित है।
लेकिन हम जो
कुछ कहते हैं
वह ऐसा ही है।
अगर
तुम भारत में
आदिवासी
समाजों में
जाओ—और यहां
अनेक आदिवासी
कबीले है—तो
पाओगे कि उनकी
भाषा—संरचना
बहुत भिन्न है।
उनकी भाषा—संरचना
में स्वप्न
देखने की
गुंजाइश नहीं
है। अगर वर्षा
होती है तो हम
कहते हैं : 'वर्षा
हो रही है।’ आदिवासी
पूछते हैं : 'हो रही है का
क्या अर्थ? हो रही है
कहने का क्या
मतलब?' उनके
पास एक ही शब्द
है, वर्षा।
वर्षा हो रही
है, कहने
की क्या जरूरत
है? वर्षा
कहना काफी है।
वर्षा यथार्थ
है। लेकिन हम
उसमें कुछ न
कुछ जोडते
चले जाते हैं।
और हम जितने शब्द
जोड़ते
हैं उतने ही
भटक जाते हैं,
सत्य से
उतने ही दूर हो
जाते हैं।
बुद्ध
कहा करते थे
कि जब तुम
कहते हो कि
आदमी चल रहा
है तो उसका
क्या अर्थ है? आदमी
कहा है? केवल
चलना है। आदमी
से तुम्हारा
क्या मतलब? जब हम कहते
है कि आदमी चल
रहा है तो ऐसा
लगता है कि
आदमी जैसा कुछ
है और चलने
जैसा कुछ है, और इन दो
चीजों को जोड़
दिया गया है।
बुद्ध कहते
हैं, केवल
चलना है।
जब
तुम कहते हो
कि नदी बह रही
है तो
तुम्हारा क्या
मतलब है? केवल
बहना है, और
वह बहना ही
नदी है। वैसे
ही चलना आदमी
है, देखना
आदमी है, खड़ा
होना और बैठना
आदमी है। अगर
तुम इन चीजों
को अलग कर दो—चलने,
बैठने, खड़े
होने, सोचने
और सपने देखने
को अलग कर दो—तो
क्या पीछे आदमी
रह जाएगा? नहीं,
पीछे कोई
आदमी नहीं
बचेगा। लेकिन
भाषा एक अलग
ही संसार
निर्मित कर
देती है। और
सतत शब्दों
में भटककर
हम भटकते ही
चले जाते हैं।
तो
पहली बात यह
स्मरण रखने की
है कि नाहक
शब्दों के
झमेले में न
पड़ा जाए। जब
जरूरत हो, तो
तुम शब्दों का
उपयोग कर सकते
हो, लेकिन
जब जरूरत न हो
तो खाली रहो, चुप रहो, निःशब्द
रहो, मौन
रहो, शात
रहो। चीजों को
निरंतर शब्द
देते रहने की
जरूरत नहीं है।
दूसरी
बात कि
प्रक्षेपण मत
करो। शब्द मत
दो,
प्रक्षेपण
मत करो। जो है
उसे देखो; अपनी
ओर से कुछ मत जोड़ो। तुम
एक चेहरा
देखते हो। जब
तुम कहते हो
कि यह सुंदर
है तो तुम
उसमें कुछ जोड़
रहे हो, या
यदि तुम कहते
हो कि यह
कुरूप है तो
भी तुम कुछ
जोड़ रहे हो।
चेहरा चेहरा
है; सौंदर्य
और कुरूपता
तुम्हारी
व्याख्याएं हैं।
चेहरा न सुंदर
है न कुरूप; क्योंकि वही
चेहरा किसी के
लिए सुंदर हो
सकता है, किसी
के लिए कुरूप
हो सकता है, और किसी के
लिए दोनों में
से कुछ भी
नहीं हो सकता
है। कोई हो
सकता है कि उस
चेहरे पर
निगाह भी न
डाले, उसके
प्रति उदासीन
रहे। चेहरा बस
चेहरा है; उसमें
कुछ आरोपित मत
करो, प्रक्षेपित
मत करो।
तुम्हारे
प्रक्षेपण
तुम्हारे
सपने हैं। और
जब तुम कुछ
प्रक्षेपित
करते हो तो
तुम चूक जाते
हो। और यह रोज
हो रहा है।
तुम
देखते हो कि
कोई चेहरा
सुंदर है, और
फिर इच्छा
निर्मित होती
है, चाह
पैदा होती है।
यह चाह उस
चेहरे या शरीर
के लिए नहीं
है; यह
तुम्हारी
अपनी ही
व्याख्या या
प्रक्षेपण के
लिए है। वह जो
व्यक्ति है, असली
व्यक्ति, उसका
परदे की तरह
उपयोग किया
गया है और उस
पर तुमने अपने
को
प्रक्षेपित
कर दिया है।
और तब विषाद
अनिवार्य है,
क्योंकि
तुम्हारे
प्रक्षेपण से
यथार्थ चेहरा
अयथार्थ नहीं
हो सकता है।
देर— अबेर
प्रक्षेपण
गिर जाएगा और
असली चेहरा
प्रकट हो
जाएगा। और तब तुम्हें
लगेगा कि मैं
तो ठगा गया।
तुम कहोगे : 'अरे, इस
चेहरे को क्या
हुआ? यह
चेहरा तो इतना
सुंदर था, यह
आदमी तो इतना
रूपवान था, और अब सब कुछ
कुरूप हो चला
है।’
लेकिन
तुम पुन:
व्याख्या कर
रहे हो।
व्यक्ति तो
वही रहता है
जो वह है, लेकिन
तुम्हारी
व्याख्या, तुम्हारा
प्रक्षेपण
जारी रहता है।
तुम यथार्थ को
कभी नहीं
प्रकट होने
देते; तुम
उसका दमन करते
रहते हो; भीतर
और बाहर दोनों
ओर से दमन
करते रहते हो।
तुम कभी स्वयं
सत्य को प्रकट
नहीं होने
देते हो।
मुझे
स्मरण आता है
कि एक दिन
मुल्ला नसरुद्दीन
से उसके एक
पड़ोसी ने कहा
कि मुझे कुछ
घंटों के लिए
तुम्हारा
घोड़ा चाहिए। मुल्ला
ने कहा कि मैं
तो तुम्हें
खुशी से अपना
घोड़ा
दे देता, लेकिन
मेरी पत्नी
घोड़े को लेकर
कहीं गई है और वह
दिन भर बाहर
ही रहेगी। ठीक
उसी समय
अस्तबल से
घोड़े की
हिनहिनाहट
सुनाई पड़ी, और पड़ोसी ने
मुल्ला की तरफ
देखा। मुल्ला
ने कहा: अच्छा, तुम मुझ पर विश्वास
करते हो या घोड़े
पर? और घोड़ा
तो झूठ बोलने
के लिए बदनाम
ही है। तुम
किस पर भरोसा
करते हो?'
हम
अपने
प्रक्षेपणों
के द्वारा
अपने चारों ओर
एक झूठा संसार
निर्मित कर
लेते हैं। और
अगर सत्य
स्वयं भी
सामने खड़ा होता
है और अस्तबल
से घोड़ा
हिनहिनाता है
तो भी हम
पूछते हैं : 'किसका
विश्वास
करोगे?' हम
सदा अपना
भरोसा करते
हैं, सत्य
का नहीं, जो
सदा—सदा उभरकर
सामने आता
रहता है। सत्य
प्रतिपल
प्रकट है, लेकिन
हम अपनी
भ्रांतियों
को जबरदस्ती
उस पर थोपते
रहते हैं।
यही
कारण है कि
प्रत्येक
आदमी को अंततः
विषाद का, निराशा
का शिकार होना
पड़ता है। इसका
कारण सत्य
नहीं, हमारा
प्रक्षेपण है,
हमारा
आरोपण है। अंत
में प्रत्येक
मनुष्य को
उदासी और
निराशा ही हाथ
लगती है; उसे
लगता है कि
समूचा जीवन
व्यर्थ हो गया।
लेकिन अब तुम
कुछ नहीं कर
सकते; अब यह
अनकिया नहीं
हो सकता। समय
अब तुम्हारे
पास नहीं है।
समय चला गया
और मृत्यु
निकट है।
तुम्हारा
भ्रम भंग तो
हुआ, लेकिन
अवसर भी जाता
रहा।
क्यों
हरेक आदमी को
अंत में हताशा
ही हाथ लगती
है?
न केवल
उन्हें ही जो
जीवन में असफल
होते हैं, बल्कि
जो सफल होते
हैं उन्हें भी
इसी अनुभव से
गुजरना पड़ता
है। यह तो ठीक
है कि असफल
लोगों को लगता
है कि धोखा हुआ,
मगर सफल
लोगों को भी
ऐसा ही लगता
है। नेपोलियन
और हिटलर और
सिकंदर का
भ्रम भी टूटता
है; उन्हें
भी लगता है कि
सारा जीवन
व्यर्थ गया।
क्यों? इसका
कारण सत्य है
या इसका कारण
तुम्हारा वह
सपना है जो
तुम
प्रक्षेपित
कर रहे थे? और
फिर तुम
स्वप्न को
नहीं
प्रक्षेपित
कर पाए और
अंतत: सत्य
प्रकट हो गया।
और आखिर में
सत्य जीत जाता
है और तुम हार
जाते हो—सत्यमेव
जयते।
तुम तभी जीत
सकते हो यदि
तुम
प्रक्षेपित न
करो।
इसलिए
दूसरी बात
स्मरण रखो, चीजों
को ठीक वैसी
देखो जैसी वे
हैं।
प्रक्षेपण मत
करो; व्याख्या
मत करो, चीजों
पर अपने मन को
आरोपित मत करो।
सत्य को, वह
जो भी हो, जैसा
भी हो, प्रकट
होने दो। यह
सदा शुभ है।
और तुम्हारे
सपने कितने ही
सुंदर हों, वे अशुभ हैं।
क्योंकि
सपनों के साथ
तुम मोह— भंग
की यात्रा पर
निकले हो, जिसमें
निराशा
अनिवार्य है।
और यह मोह— भंग
जितना शीघ्र
हो उतना बेहतर
है।
लेकिन
जैसे ही एक
भ्रम टूटता है, तुम
तुरंत उसकी
जगह दूसरा
भ्रम निर्मित
कर लेते हो।' उनके बीच
अंतराल आने दो;
दो भ्रमों
के बीच अंतराल
आने दो; ताकि
सत्य देखा जा
सके। यह कठिन है;
सत्य को
सीधे—सीधे
देखना कठिन है।
हो सकता है, वह तुम्हारी
कामनाओं के
अनुकूल न हो।
सत्य के लिए
जरूरी नहीं है
कि वह
तुम्हारी कामनाओं
के अनुकूल हो।
लेकिन तब
तुम्हें सत्य
के साथ रहना
होगा, सत्य
में रहना होगा।
और तुम सत्य
में ही हो। तो
अपने को धोखा
देने की बजाय
सत्य का सीधा
साक्षात्कार,
सत्य को
सीधे—सीधे देख
लेना बेहतर है।
तुम्हें
बोध नहीं है
कि तुम किस
तरह प्रक्षेपण
करते रहते हो।
कोई कुछ कहता
है और तुम कुछ
का कुछ समझते
हो। और तुम
अपनी समझ के
आधार पर चीजों
को देखते हो और
उनसे एक ताश का
महल निर्मित कर
लेते हो। लेकिन
तुमने जो समझा
वह कभी नहीं कहा
गया था; और जो
कहा गया था
उसका अर्थ कुछ
और ही था।
सदा
उसे देखो जो
है। जल्दबाजी
मत करो। गलत
समझने की बजाय
न समझना कहीं
बेहतर है।
अपने को
ज्ञानी समझने
की बजाय जान—बूझ
कर अज्ञानी
बने रहना
बेहतर है।
अपने संबंधों
को देखो—पति, पत्नी,
मित्र, शिक्षक,
मालिक, नौकर—सबको
देखो।
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
ढंग से सोच
रहा है; प्रत्येक
व्यक्ति
दूसरे की
व्याख्या कर
रहा है। उनमें
कहीं कोई मिलन
नहीं है, कहीं
कोई संवाद
नहीं है। वे
लड़ रहे हैं, वे निरंतर
संघर्ष में
हैं। और यह
संघर्ष दो
व्यक्तियों
के बीच नहीं
है; यह
संघर्ष दो
झूठी
प्रतिमाओं के
बीच है।
तो
सावधान रहो कि
तुम दूसरों की
झूठी प्रतिमाएं
न बनाओ।
यथार्थ के साथ, सत्य
के साथ रहो—चाहे
वह कितना ही
कठिन, कितना
ही दुष्कर
क्यों न हो, चाहे वह
असंभव ही
क्यों न मालूम
हो। और एक बार
यदि तुम सत्य
के साथ जीने
के सौंदर्य को
जान लोगे तो
फिर तुम कभी
सपनों के शिकार
नहीं बनोगे।
और
तीसरी बात
समझने की यह
है कि तुम
सपने क्यों
देखते हो।
सपना सब्स्टीयूट
है,
सपना
परिपूरक है।
अगर यथार्थत:
तुम्हें
तुम्हारी
वांछित चीज नहीं
मिलती है तो
तुम उसके सपने
देखने लगते हो।
उदाहरण के लिए,
अगर तुम दिन
भर उपवासे रहे
हो तो रात में
तुम भोजन के
सपने देखोगे,
तुम देखोगे
कि तुम्हें
सम्राट ने
भोजन के लिए
आमंत्रित किया
है। या ऐसा ही
कोई सपना देखोगे
जिसमें तुम
भोजन ही भोजन
कर रहे हो।
दिन भर तुमने
उपवास किया तो
अब रात नींद
में तुम भोजन
कर रहे हो। और
अगर तुम काम—दमन
से पीड़ित हो
तो तुम्हारे
सपने कामुक
होंगे।
तुम्हारे
सपनों से जाना
जा सकता है कि
दिन में तुम
किस चीज का
दमन करते हो।
रात के सपने
बता देंगे कि
दिन में तुमने
उपवास किया था।
सपने
परिपूरक हैं।
और मनसविद
कहते हैं कि
मनुष्य जैसा
है,
सपनों के
बिना उसका जीना
कठिन होगा। और
वे एक अर्थ
में सही हैं।
जैसा मनुष्य
है, सपनों
के बिना उसका
जीना कठिन
होगा। लेकिन
यदि तुम अपना
रूपांतरण
चाहते हो तो
तुम्हें
सपनों के बिना
रहना होगा।
सपने क्यों
निर्मित होते
हैं? सपने
कामनाओं के
कारण निर्मित
होते हैं।
अतृप्त
कामनाएं सपने
बन जाती हैं।
अपनी कामनाओं
को, वासनाओं
को समझो; बोधपूर्वक
उनका
निरीक्षण करो।
तुम जितना
उनका
निरीक्षण
करोगे, वे
उतनी ही विलीन
हो जाएंगी। और
तब तुम मन के
जाले बुनना
बंद कर दोगे; तब तुम अपने
निजी संसार
में रहना छोड़
दोगे।
सपनों
की साझेदारी
नहीं हो सकती
है। दो घनिष्ठ
मित्र भी एक—दूसरे
को अपने सपनों
में साझेदार
नहीं बना सकते; वे
एक—दूसरे को
अपने सपनों
में आमंत्रित
नहीं कर सकते।
क्यों? तुम
और तुम्हारा
प्रेमी, दोनों
एक ही सपना
नहीं देख सकते,
तुम्हारा
सपना
तुम्हारा है,
दूसरे का
सपना दूसरे का
है। सपने
बिलकुल निजी
हैं, वैयक्तिक
हैं। सत्य
उतना निजी
नहीं है; केवल
पागलपन निजी
होता है। सत्य
सार्वभौम है;
तुम उसमें
दूसरों को भी
साझेदार बना
सकते हो।
लेकिन सपनों
की साझेदारी
नहीं हो सकती;
वे
तुम्हारी
निजी विक्षिप्तताएं
हैं,
वैयक्तिक
कल्पनाएं हैं।
तो फिर क्या किया
जाए?
एक
व्यक्ति दिन
में इतनी
समग्रता से जी
सकता है कि
कुछ भी अवशेष
न रहे, कुछ भी
बाकी न रहे।
अगर तुम भोजन
कर रहे हो तो
समग्रता से
भोजन करो। इस
समग्रता से
भोजन का स्वाद
लो, सुख लो
कि रात में
उसे किसी सपने
में भोगने की जरूरत
न पड़े। अगर
तुम किसी को
प्रेम करते हो
तो इतनी
समग्रता से
प्रेम करो कि
फिर प्रेम को
तुम्हारे
सपने में
प्रवेश न करना
पड़े। तुम दिन
में जो भी
करते हो उसे
इतनी समग्रता
से करो कि
चित्त में कुछ
भी अधूरा, कुछ
भी अटका न रह
जाए जिसे सपने
में पूरा करना
पड़े।
इसे
प्रयोग करो।
और कुछ महीनों
के भीतर
तुम्हारी
नींद की
गुणवत्ता बदल
जाएगी। सपने
कम से कम होने
लगेंगे और
नींद गहरी से
गहरी होती
जाएगी। और जब
रात में सपने
कम होंगे तो
दिन में प्रक्षेपण
भी कम हो
जाएंगे।
क्योंकि
सच्चाई यह है
कि तुम्हारी
नींद जारी रहती
है,
तुम्हारे
सपने चलते
रहते हैं। रात
में बंद आंखों
के साथ और दिन
में खुली आंखों
के साथ सपने
जारी रहते हैं।
तुम्हारे
भीतर उनका सतत
प्रवाह चलता
रहता है। कभी
एक क्षण को आंखें
बंद करो और
प्रतीक्षा
करो। तुम देखोगे
कि सपनों की
फिल्म लौट आई
है, सपनों
का कारवां चला
जा रहा है। वह
सदा मौजूद ही
है, तुम्हारी
प्रतीक्षा
करता है।
सपने
वैसे ही हैं
जैसे दिन में
तारे होते हैं।
दिन में तारे
कहीं चले नहीं
जाते; सिर्फ
सूर्य के
प्रकाश के
कारण वे दिखाई
नहीं पड़ते हैं।
वे वहां ही
हैं, और जब
सूरज छिप जाता
है तो वे फिर
प्रकट हो जाते
हैं।
तुम्हारे
सपने ठीक वैसे
ही हैं; तुम्हारे
जागरण में भी
वे भीतर सरकते
रहते हैं। वे
प्रतीक्षा
में हैं; आंखें
बंद करो और वे
सक्रिय हो
जाते हैं।
जब
रात में सपने
कम होने
लगेंगे तो दिन
में तुम्हारे
जागरण की
गुणवत्ता और
हो जाएगी। अगर
तुम्हारी रात
बदलती है तो
तुम्हारा दिन
भी बदल जाता
है। अगर
तुम्हारी
नींद बदलती है
तो तुम्हारा
जागरण भी बदल
जाता है। अब
तुम ज्यादा
सजग होंगे।
जितने कम सपने
भीतर दौड़ेंगे, तुम
उतने ही कम
सोए होगे। अब
तुम चीजों को
ज्यादा
स्पष्ट, ज्यादा
सीधे—सीधे देख
सकोगे।
तो
किसी चीज को
अधूरा मत छोड़ो; यह
पहली बात। और
तुम जो भी कर
रहे हो, उस
कृत्य में
पूरे के पूरे
मौजूद रहो।
उससे हटो मत, कहीं और मत
जाओ। अगर तुम
स्नान कर रहे
हो तो वहीं
रहो। पूरे
संसार को भूल
जाओ; अभी
यह स्नान ही
तुम्हारा
पूरा जगत है।
सब समाप्त हो
गया है, संसार
खो गया है; बस
तुम हो और
स्नान है।
स्नान के साथ
रहो।
प्रत्येक
कृत्य में इस
समग्रता से
भाग लो कि तुम
न तो उसके
पीछे छूट जाओ
न उससे आगे ही चले
जाओ। तुम
कृत्य के साथ—साथ
रहो। तब सपने
विदा हो
जाएंगे। और
जैसे—जैसे
सपने विदा
होंगे, तुम
सत्य में
प्रवेश करने
में ज्यादा
समर्थ हो
सकोगे।
अब विधि।
विधि इससे ही
संबंधित है।
जैसे
मुर्गी अपने
बच्चों का
पालन— पोषण
करती है वैसे
ही यथार्थ में
विशेष ज्ञान
और विशेष
कृत्य का पालन—
पोषण करो।
इस
विधि में
मूलभूत बात है
'यथार्थ में'। तुम भी
बहुत चीजों का
पालन—पोषण
करते हो; लेकिन
सपने में, सत्य
में नहीं। तुम
भी बहुत कुछ
करते हो; लेकिन
सपने में, सत्य
में नहीं।
सपनों को पोषण
देना छोड़ दो, सपनों को बढने
में सहयोग मत
दो। सपनों को
अपनी ऊर्जा मत
दो। सभी सपनों
से अपने को
पृथक कर लो।
यह
कठिन होगा, क्योंकि
सपनों में
तुम्हारे
न्यस्त
स्वार्थ हैं।
अगर तुम अपने
को अचानक सपनों
से बिलकुल अलग
कर लोगे तो तुम्हें
लगेगा कि मैं डूब
रहा हूं, मर
रहा हूं। क्योंकि
तुम हमेशा
स्थगित सपनों
में रहते आए हो।
तुम कभी यहां
और अभी नहीं
रहे; तुम
सदा कहीं और
रहते आए हो।
तुम आशा करते
रहे हो।
क्या
तुमने पडोस का
डब्बा नामक
यूनानी कहानी सुनी
है?
किसी आदमी
ने बदला लेने
के लिए पडोस
के पास एक
डब्बा भेजा।
उस डब्बे में
वे सब रोग बंद
थे जो अभी
मनुष्य—जाति
के बीच फैले
हैं। वे रोग
उसके पहले
नहीं थे; जब
वह डब्बा खुला
तो सभी रोग
बाहर निकल आए।
पडोस रोगों को
देखकर डर गई
और उसने डब्बा
बंद कर दिया।
केवल एक रोग
रह गया, और
वह थी आशा।
अन्यथा आदमी
समाप्त हो गया
होता; ये
सारे रोग उसे
मार डालते, लेकिन आशा
के कारण वह
जीवित रहा।
तुम
क्यों जी रहे
हो?
क्या तुमने
कभी यह प्रश्न
पूछा है? यहां
और अभी जीने
के लिए कुछ भी
नहीं है; सिर्फ
आशा है। तुम
भी पडोस का
डब्बा ढो रहे
हो। ठीक अभी
तुम क्यों
जीवित हो? हरेक
सुबह तुम
क्यों बिस्तर
से उठ आते हो? क्यों तुम
रोज—रोज फिर
वही करते हो
जो कल किया था?
यह
पुनरुक्ति
क्यों? कारण
क्या है?
तुम
इसका कोई कारण
नहीं बता सकते
जो अभी से, वर्तमान
से संबंधित हो
कि तुम क्यों
जी रहे हो।
अगर कोई कारण ढूढोगे तो
वह भविष्य से
संबंधित होगा।
वह कोई आशा
होगी कि कुछ
होने वाला है,
किसी दिन
कुछ होने वाला
है। और
तुम्हें यह
पता नहीं है
कि वह दिन कब
आएगा।
तुम्हें यह भी
पता नहीं है
कि क्या होने
वाला है।
लेकिन किसी
दिन कुछ होने
वाला है, इस
उम्मीद में
तुम अपने को
खींचे चले
जाते हो, अपने
को ढोए चले जाते
हो। मनुष्य
आशा में जीता
है। लेकिन यह
जीवन नहीं है,
क्योंकि
आशा तो सपना
है। जब तक तुम
यहां और अभी
नहीं जीते हो,
तुम जीवित
ही नहीं हो।
तब तक तुम एक
मृत बोझ हो।
और वह कल तो
कभी आने वाला
नहीं है जब
तुम्हारी सब
आशाएं पूरी हो
जाएंगी। और जब
मृत्यु आएगी
तो तुम्हें
पता चलेगा कि
अब कोई कल
नहीं है, और
अब स्थगित
करने का भी
उपाय नहीं है।
तब तुम्हारा
भ्रम टूटेगा;
तब तुम्हें
लगेगा कि यह
धोखा था।
लेकिन किसी
दूसरे ने
तुम्हें धोखा
नहीं दिया है;
अपनी
दुर्गति के
लिए तुम स्वयं
जिम्मेवार हो।
इस
क्षण में, वर्तमान
में जीने की
चेष्टा करो।
और आशाएं मत
पालो—चाहे वे
किसी भी ढंग
की हों। वे
लौकिक हो सकती
हैं, पारलौकिक
हो सकती हैं; इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता है। वे
धार्मिक हो
सकती हैं, किसी
भविष्य में, किसी दूसरे
लोक में, स्वर्ग
में, मृत्यु
के बाद, निर्वाण
में, लेकिन
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
कोई आशा मत
करो। यदि
तुम्हें थोड़ी
निराशा भी
अनुभव हो, तो
भी यहीं रहो।
यहां से और इस
क्षण से मत
हटो। हटो ही
मत। दुख सह लो,
लेकिन आशा
को मत प्रवेश
करने दो। आशा
के द्वारा
स्वप्न
प्रवेश करते
हैं। निराश
रहो, अगर
जीवन में
निराशा है तो
निराश रहो।
निराशा को
स्वीकार करो;
लेकिन
भविष्य में
होने वाली
किसी घटना का
सहारा मत लो।
और
तब अचानक
बदलाहट होगी।
जब तुम
वर्तमान में
ठहर जाते हो
तो सपने भी ठहर
जाते हैं। तब
वे नहीं उठ
सकते, क्योंकि
उनका स्रोत ही
बंद हो गया।
सपने उठते हैं,
म् क्योंकि तुम
उन्हें सहयोग
देते हो, तुम
उन्हें पोषण
देते हो।
सहयोग मत दो; पोषण मत दो।
यह सूत्र
कहता है : 'विशेष
ज्ञान का पालन—पोषण
करो।’
विशेष
ज्ञान क्यों? तुम
भी पोषण देते
हो, लेकिन
तुम विशेष सिद्धांतों
को पोषण देते
हो, ज्ञान को
नहीं। तुम विशेष
शास्त्रों को
पोषण देते हो, ज्ञान को नहीं।
तुम विशेष मतवादों
को, दर्शनशास्त्रों को, विचार—पद्धतियों
को पोषण देते
हो, लेकिन
विशेष ज्ञान
को कभी पोषण
नहीं देते। यह
सूत्र कहता है
कि उन्हें हटाओ,
दूर करो; शास्त्र और सिद्धांत
किसी काम के
नहीं हैं।
अपना अनुभव
प्राप्त करो
जो प्रामाणिक
हो; अपना
ही ज्ञान
हासिल करो, और उसे पोषण
दो। कितना भी
छोटा हो, प्रामाणिक
अनुभव असली
बात है। तुम
उस पर अपने
जीवन का आधार
रख सकते हो।
वे जैसे भी
हों, जो भी
हों, सदा
प्रामाणिक
अनुभवों की
चिंता लो जो
तुमने स्वयं
जाने हैं।
क्या तुमने
स्वयं कुछ
जाना है?
तुम
बहुत कुछ
जानते हो; लेकिन
तुम्हारा सब
जानना उधार है।
किसी से तुमने
सुना है; किसी
ने तुम्हें
दिया है।
शिक्षकों ने,
मां—बाप ने,
समाज ने
तुम्हें
संस्कारित
किया है। तुम
ईश्वर के बारे
में जानते हो;
तुम प्रेम
के संबंध में
जानते हो; तुम
ध्यान के विषय
में जानते हो।
लेकिन तुम
यथार्थत: कुछ
भी नहीं जानते।
तुमने इनमें
से किसी का
स्वाद नहीं
लिया है। यह
सब उधार है।
किसी दूसरे ने
स्वाद लिया है;
स्वाद
तुम्हारा
निजी नहीं है।
किसी दूसरे ने
देखा है; तुम्हारी
भी आंखें हैं,
लेकिन
तुमने उनका
उपयोग नहीं
किया है। किसी
ने अनुभव किया—किसी
बुद्ध ने, किसी
जीसस ने—और
तुम उनका शान
उधार लिए बैठे
हो।
उधार
ज्ञान झूठा है, और
वह तुम्हारे
काम का नहीं
है। उधार
ज्ञान अज्ञान
से भी खतरनाक
है। क्योंकि
अज्ञान
तुम्हारा है,
और ज्ञान
उधार है। इससे
तो अज्ञानी
रहना बेहतर है,
कम से कम
तुम्हारा तो
है, प्रामाणिक
तो है, सच्चा
है, ईमानदार
है। उधार
ज्ञान मत ढोओ,
अन्यथा तुम
भूल जाओगे कि
तुम अज्ञानी
हो; और तुम
अज्ञानी के
अज्ञानी बने
रहोगे।
यह सूत्र
कहता है : 'विशेष
ज्ञान का पालन—पोषण
करो।’
सदा
ही जानने की
कोशिश इस ढंग
से करो कि वह
सीधा हो, सच हो,
प्रत्यक्ष
हो। कोई
विश्वास मत
पकड़ो, विश्वास
तुम्हें भटका
देगा। अपने पर
भरोसा करो, श्रद्धा करो।
और अगर तुम
अपने पर ही
श्रद्धा नहीं
कर सकते तो
किसी दूसरे पर
कैसे श्रद्धा
कर सकते हो?
सारिपुत्र
बुद्ध के पास
आया और उसने
कहा : 'मैं आपमें
विश्वास करने
के लिए आया
हूं मैं आ गया
हूं। मुझे आप
में श्रद्धा
हो, इसमें
मेरी सहायता
करें।’ बुद्ध
ने कहा : 'अगर
तुम्हें
स्वयं में
श्रद्धा नहीं
है तो मुझमें
श्रद्धा कैसे
करोगे? मुझे
भूल जाओ। पहले
स्वयं में
श्रद्धा करो;
तो ही
तुम्हें किसी
दूसरे में
श्रद्धा होगी।’
यह
स्मरण रहे, अगर
तुम्हें
स्वयं में ही
श्रद्धा नहीं
है तो किसी
में भी
श्रद्धा नहीं हो
सकती। पहली
श्रद्धा सदा
अपने में होती
है; तो ही
वह प्रवाहित
हो सकती है, बह सकती है, तो ही वह
दूसरों तक
पहुंच सकती है।
लेकिन अगर तुम
कुछ जानते ही
नहीं हो तो
अपने में
श्रद्धा कैसे
करोगे? अगर
तुम्हें कोई
अनुभव ही नहीं
है तो स्वयं
में श्रद्धा
कैसे होगी? अपने में
श्रद्धा करो।
और मत सोचो कि
हम परमात्मा
को ही दूसरों
की आंखों से
देखते हैं; साधारण
अनुभवों में
भी यही होता
है। कोशिश करो
कि साधारण
अनुभव भी
तुम्हारे
अपने अनुभव
हों। वे
तुम्हारे
विकास में
सहयोगी होंगे;
वे तुम्हें
प्रौढ़ बनाएंगे,
वे तुम्हें
परिपक्वता देंगे।’'
बड़ी
अजीब बात है
कि तुम दूसरों
की आंख से
देखते हो, तुम
दूसरों की जिंदगी
से जीते हो।
तुम गुलाब को
सुंदर कहते हो।
क्या यह सच
में ही
तुम्हारा भाव
है या तुमने दूसरों
से सुन रखा है कि
गुलाब सुंदर होता
है? क्या
यह तुम्हारा
जानना है? क्या
तुमने जाना है?
तुम कहते हो
कि चांदनी
अच्छी है, सुंदर
है। क्या यह
तुम्हारा
जानना है? या
कवि इसके गीत
गाते रहे हैं
और तुम बस
उन्हें दुहरा
रहे हो?
अगर
तुम तोते जैसे
दुहरा रहे हो
तो तुम अपना जीवन
प्रामाणिक
रूप से नहीं
जी सकते। जब
भी तुम कुछ
कहो,
जब भी तुम
कुछ करो, तो
पहले अपने
भीतर जांच कर
लो कि क्या यह
मेरा अपना जानना
है? मेरा
अपना अनुभव है?
उस सबको
बाहर फेंक दो
जो तुम्हारा
नहीं है; वह
कचरा है। और
सिर्फ उसको ही
मूल्य दो, पोषण
दो, जो
तुम्हारा है।
उसके द्वारा
ही तुम्हारा
विकास होगा।
'यथार्थ में
विशेष ज्ञान
और विशेष
कृत्य का पालन—पोषण
करो।’
यहां
'यथार्थ में'
को सदा
स्मरण रखो।
कुछ करो। क्या
कभी तुमने
स्वयं कुछ
किया है या
तुम केवल
दूसरों के
हुक्म बजाते
रहे हो? केवल
दूसरों का
अनुसरण करते
रहे हो? कहते
हैं 'अपनी
पत्नी को
प्रेम करो।’ क्या तुमने
यथार्थत: अपनी
पत्नी को
प्रेम किया है?
या तुम
सिर्फ
कर्तव्य निभा
रहे हो; क्योंकि
तुम्हें कहा
गया है, सिखाया
गया है कि
पत्नी को
प्रेम करो, या मा को
प्रेम करो, या पिता को, भाई को
प्रेम करो? तुम्हारा
प्रेम भी
अनुकरण मात्र
है। क्या
तुमने कभी ऐसा
प्रेम किया है
जिसमें तुम थे?
क्या कभी
ऐसा हुआ है कि
तुम्हारे
प्रेम में
किसी की
सिखावन न काम
कर रही हो, किसी
का अनुसरण न
हो रहा हो? क्या
तुमने कभी
प्रामाणिक
रूप से प्रेम
किया है?
तुम
अपने को धोखा
दे सकते हो; तुम
कह सकते हो कि हां,
किया है।
लेकिन कुछ
कहने के पहले
ठीक से
निरीक्षण कर लो।
अगर तुमने
सचमुच प्रेम किया
होता तो तुम
रूपांतरित हो
जाते; प्रेम
का वह विशेष
कृत्य ही
तुम्हें बदल
डालता। लेकिन
उसने तुम्हें
नहीं बदला, क्योंकि
तुम्हारा
प्रेम झूठा है।
और तुम्हारा
पूरा जीवन ही
झूठ हो गया है।
तुम ऐसे काम
किए जाते हो
जो तुम्हारे
अपने नहीं हैं।
कुछ करो जो
तुम्हारा अपना
हो; और
उसका पोषण क्रो।
बुद्ध बहुत
अच्छे हैं; लेकिन तुम
उनका अनुसरण
नहीं कर सकते।
जीसस अच्छे
हैं; लेकिन
तुम उनका
अनुसरण नहीं
कर सकते। और
अगर तुम
अनुसरण करोगे
तो तुम कुरूप
हो जाओगे, तुम
कार्बन कापी
हो जाओगे। तब
तुम झूठे हो
जाओगे, और
अस्तित्व
तुम्हें
स्वीकार नहीं
करेगा। वहां
कुछ भी झूठ
स्वीकृत नहीं
है।
बुद्ध
को प्रेम करो, जीसस
को प्रेम करो;
लेकिन उनकी
कार्बन कापी
मत बनो। नकल
मत करो; सदा
अपनी निजता को
अपने ढंग से खिलने दो।
तुम किसी दिन
बुद्ध जैसे हो
जाओगे, लेकिन
मार्ग
बुनियादी तौर
से तुम्हारा
अपना होगा।
किसी दिन तुम
जीसस जैसे हो
जाओगे, लेकिन
तुम्हारा
यात्रा—पथ
भिन्न होगा, तुम्हारे
अनुभव भिन्न
होंगे। एक बात
पक्की है : जो
भी मार्ग हो, जो भी अनुभव
हो, वह
प्रामाणिक
होना चाहिए, असली होना
चाहिए, तुम्हारा
होना चाहिए।
तब तुम किसी न
किसी दिन
पहुंच जाओगे।
असत्य
से तुम सत्य
तक नहीं पहुंच
सकते हो।
असत्य
तुम्हें और
असत्य में ले जाएगा।
जब कुछ करो तो
भलीभांति
स्मरण रखकर
करो कि यह तुम्हारा
अपना कृत्य हो, तुम
खुद कर रहे हो;
किसी का
अनुकरण नहीं
कर रहे हो। तो
एक छोटा सा
कृत्य भी, एक
मुस्कुराहट
भी सतोरी का, समाधि का
स्रोत बन सकती
है।
तुम
अपने घर लौटते
हो और बच्चों
को देखकर मुस्कुराते
हो। यह
मुस्कुराहट
झूठी है; तुम अभिनय
कर रहे हो।
तुम इसलिए मुस्कुराते
हो क्योंकि मुस्कुराना
चाहिए। यह ऊपर
से चिपकायी गई
मुस्कुराहट
है; तुम्हारे
होंठों के
अतिरिक्त
तुम्हारा कुछ भी
इस
मुस्कुराहट
में सम्मिलित
नहीं है। यह
मुस्कुराहट
कृत्रिम है, यांत्रिक है।
और तुम इसके
इतने अभ्यस्त
हो गए हो कि
तुम बिलकुल ही
भूल गए हो कि
सच्ची
मुस्कुराहट
क्या है। तुम
हंस सकते हो, लेकिन संभव
है वह हंसी
तुम्हारे
केंद्र से न आ
रही हो।
सदा
ध्यान रखो कि
तुम जो भी कर
रहे हो उसमें
तुम्हारा
केंद्र
सम्मिलित है
या नहीं। अगर
तुम्हारा
केंद्र उस
कृत्य में
सम्मिलित नहीं
है तो बेहतर
है कि उस
कृत्य को न
करो। उसे
बिलकुल मत करो।
कोई तुम्हें
कुछ करने के
लिए मजबूर
नहीं कर रहा
है। बिलकुल मत
करो। अपनी
ऊर्जा को उस
घड़ी के लिए
बचा कर रखो जब
कोई सच्चा भाव
तुम्हारे
भीतर उठे। और
तब उसे करो।
यों ही मत
मुस्कुराओ; ऊर्जा
को बचाकर रखो।
मुस्कुराहट
आएगी, जो
तुम्हें पूरा
का पूरा बदल
देगी। वह
समग्र
मुस्कुराहट
होगी। तब
तुम्हारे
शरीर की एक—एक
कोशिका
मुस्कुराएगी।
तब वह विस्फोट
होगा, अभिनय
नहीं।
और
बच्चे जानते
हैं,
तुम उन्हें
धोखा नहीं दे
सकते। और जब
तुम उन्हें
धोखा दे सको, समझ लेना कि
वे बच्चे न
रहे। वे जानते
हैं कि कब
तुम्हारी
मुस्कुराहट
झूठी होती है;
वे झट ताड़
लेते हैं। जो
कोई भी सच्चा
है वह ताड़
ही लेगा।
तुम्हारे आसू
झूठे हैं; तुम्हारी
मुस्कुराहट
झूठी है। ये
छोटे—छोटे
कृत्य हैं, लेकिन तुम
छोटे—छोटे
कृत्यों से ही
बने हो। किसी
बड़े कृत्य की
मत सोचो; मत
सोचो कि किसी
बड़े कृत्य में
सच्चाई बरतुंगा।
अगर तुम छोटी—छोटी
चीजों में
झूठे हो तो
तुम सदा झूठे
ही रहोगे। बड़ी
चीजों में
झूठा होना तो
और भी सरल है।
अगर
तुम छोटी—छोटी
चीजों में
झूठे हो तो
तुम्हें बड़ी
चीजों में
झूठे होना और
भी आसान होगा।
क्योंकि बड़ी
चीजें
प्रदर्शन के
लिए होती हैं, वे
दूसरों को
दिखाने के लिए
होती हैं; उनमें
तुम बहुत
सरलता से झूठे
हो सकते हो।
अगर संतत्व को
आदर मिलता है
तो तुम संत बन
सकते हो। तब
तुम दिखावे के
लिए कर रहे हो;
तुम
प्रदर्शनी की
एक चीज भर हो।
तुम महात्मा
बन सकते हो; क्योंकि वह
आदृत है, उससे
अहंकार की
तृप्ति होती
है।
पर
यह सब झूठा है।
थोड़ी कल्पना
करो कि अगर
समाज की
दृष्टि बदल जाए
तो क्या होगा।
ऐसी ही बदलाहट
जब सोवियत रूस
में या चीन
में हुई तो
तुरंत साधु—महात्मा
वहां से विदा
हो गए। अब वहा
उनके लिए कोई
आदर नहीं है।
मुझे
याद आता है कि
मेरे एक मित्र, जो
बौद्ध भिक्षु
हैं, स्टैलिन
के दिनों में
सोवियत रूस गए
थे। उन्होंने
लौटकर मुझे
बताया कि वहा
जब भी कोई व्यक्ति
उनसे हाथ
मिलाता था तो
तुरंत झिझककर
पीछे हट जाता
था और कहता था
कि तुम्हारे
हाथ बुर्जुआ
के, शोषक
के हाथ हैं।
उनके
हाथ सचमुच
सुंदर थे; भिक्षु
होकर उन्हें
कभी काम नहीं
करना पड़ा था।
वे फकीर थे, शाही फकीर; उनका श्रम
से वास्ता
नहीं पड़ा था।
उनके हाथ बहुत
कोमल, सुंदर
और स्त्रैण थे।
भारत में जब
कोई उनके हाथ
छूता तो कहता
कि कितने
सुंदर हाथ हैं।
लेकिन सोवियत
रूस में जब
कोई उनके हाथ
अपने हाथ में लेता
तो तुरंत सिकुड़कर
पीछे हट जाता,
उसकी आंखों
में निंदा भर
जाती और वह
उन्हें कहता
कि तुम्हारे
हाथ बुर्जुआ
के, शोषक
के हाथ हैं।
वे वापस आकर
मुझसे बोले कि
मैंने इतना
निंदित महसूस
किया कि मेरा
मन होता था कि
मजदूर हो जाऊं।
रूस
से साधु—महात्मा
विदा हो गए, क्योंकि
आदर न रहा। सब
साधुता
दिखावटी थी, प्रदर्शन की
चीज थी। आज
रूस में केवल
सच्चा संत ही
संत हो सकता
है। झूठे नकली
संतों के लिए
वहां कोई
गुंजाइश नहीं
है। आज तो वहा
संत होने के
लिए भारी
संघर्ष करना
पड़ेगा, क्योंकि
सारा समाज
विरोध में
होगा। भारत
में तो जीने
का सबसे सुगम
ढंग साधु—महात्मा
होना है, सब
लोग आदर देते
हैं। यहां तुम
झूठे हो सकते
हो, क्योंकि
उसमें लाभ ही
लाभ है।
तो
इसे स्मरण रखो।
सुबह से ही, जैसे—ही
तुम आंख खोलते
हो, सच्चे
और प्रामाणिक
होने की
चेष्टा करो।
ऐसा कुछ भी मत
करो जो झूठ और
नकली हो।
सिर्फ सात दिन
के लिए यह
स्मरण बना रहे
कि कुछ भी झूठ
और नकली, कुछ
भी
अप्रामाणिक
नहीं करना है।
जो भी गंवाना
पड़े, जो भी
खोना पड़े, खो
जाए; जो भी
होना हो, हो
जाए; लेकिन
सच्चे बने रही।
और सात दिन के
भीतर
तुम्हारे
भीतर नए जीवन
का उन्मेष
अनुभव होने
लगेगा।
तुम्हारी मृत
पर्तें टूटने
लगेंगी, और
नयी जीवंत
धारा
प्रवाहित
होने लगेगी।
तुम पहली बार
पुनर्जीवन
अनुभव करोगे,
फिर से
जीवित हो
उठोगे।
कृत्य
का पोषण करो, ज्ञान
का पोषण करो—यथार्थ
में, स्वप्न
में नहीं। जो
भी करना चाहो
करो, लेकिन
ध्यान रखो कि
यह काम सच में
मैं कर रहा हूं
या मेरे
द्वारा मेरे
मां—बाप कर
रहे हैं? क्योंकि
कब के जा चुके
मरे हुए लोग, मृत माता—पिता,
समाज, पुरानी
पीढ़ियां, सब
तुम्हारे
भीतर अभी भी
सक्रिय हैं।
उन्होंने
तुम्हारे
भीतर ऐसे
संस्कार भर
दिए हैं कि
तुम अब भी
उनको ही पूरा
करने में लगे
हो। तुम्हारे
मां—बाप अपने
मृत मां—बाप
को पूरा करते
रहे और तुम
अपने मृत मां—बाप
को पूरा करने
में लगे हो।
और आश्चर्य कि
कोई भी पूरा
नहीं हो रहा
है। तुम उसे
कैसे पूरा कर
सकते हो जो मर
चुका? लेकिन
मुर्दे
तुम्हारे
माध्यम से जी
रहे हैं।
जब
भी तुम कुछ
करो तो सदा
निरीक्षण करो
कि यह मेरे
माध्यम से
मेरे पिता कर
रहे हैं या
मैं कर रहा
हूं। जब
तुम्हें
क्रोध आए तो
ध्यान दो कि
यह मेरा क्रोध
है या इसी ढंग
से मेरे पिता
क्रोध किया करते
थे जिसे मैं
दोहरा भर रहा
हूं।
मैंने
देखा है कि पीढ़ी
दर पीढ़ी
वही सिलसिला
चलता रहता है, पुराने
ढंग—ढांचे दोहरते
रहते हैं। अगर
तुम विवाह
करते हो तो वह
विवाह करीब—करीब
वैसा ही होगा
जैसा
तुम्हारे मां—बाप
का था। तुम
अपने पिता की
भांति
व्यवहार
करोगे; तुम्हारी
पत्नी अपनी
मां की भांति
व्यवहार करेगी।
और दोनों
मिलकर वही सब
उपद्रव करोगे
जो उन्होंने
किया था।
जब
क्रोध आए तो
गौर से देखो
कि मैं क्रोध
कर रहा हूं या
कि कोई दूसरा
व्यक्ति
क्रोध कर रहा
है?
जब तुम
प्रेम करो तो
याद रखो, तुम
ही प्रेम कर
रहे हो या कोई
और? जब तुम
कुछ बोलो तो
देखो कि मैं
बोल रहा हूं
या मेरा
शिक्षक बोल
रहा है? जब
तुम कोई भाव—
भंगिमा बनाओ
तो देखो कि यह
तुम्हारी
भंगिमा है या
कोई दूसरा ही
वहा है?
यह
कठिन होगा; लेकिन
यही साधना है,
यही
आध्यात्मिक
साधना है। और
सारे खो को
विदा करो।
थोड़े समय के
लिए तुम्हें
सुस्ती पकड़ेगी,
उदासी घेरेगी,
क्योंकि
तुम्हारे झूठ गिर
जाएंगे और
सत्य को आने
में और
प्रतिष्ठित होने
में थोड़ा समय
लगेगा।
अंतराल का एक
म् समय होगा; उस समय को भी
आने दो। भयभीत
मत होओ, आतंकित
मत होओ। देर—अबेर
तुम्हारे
मुखौटे गिर
जाएंगे, तुम्हारा
झूठा
व्यक्तित्व
विलीन हो
जाएगा, और
उसकी जगह
तुम्हारा
असली चेहरा, तुम्हारा
प्रामाणिक
व्यक्तित्व
अस्तित्व में
आएगा, प्रकट
होगा। और उसी
प्रामाणिक
व्यक्तित्व
से तुम ईश्वर
का
साक्षात्कार
कर सकते हो।
इसीलिए
यह सूत्र कहता
है :
'जैसे मुर्गी
अपने बच्चों
का पालन—पोषण
करती है, वैसे
ही यथार्थ में
विशेष ज्ञान और
विशेष कृत्य
का पालन—पोषण
करो।’
दूसरा
सूत्र:
यथार्थत:
बंधन और मोक्ष
सापेक्ष हैं
ये केवल विश्व
से भयभीत
लोगों के लिए
हैं यह विश्व
मन का
प्रतिबिंब है।
जैसे तुम पानी
में एक सूर्य
के अनेक सूर्य
देखते हो वैसे
ही बंधन और
मोक्ष को देखो।
यह
बहुत गहरी
विधि है; यह
गहरी से गहरी
विधियों में
से एक है। और
विरले लोगों
ने ही इसका
प्रयोग किया
है। झेन इसी
विधि पर
आधारित है। यह
विधि बहुत
कठिन बात कह
रही है—समझने
में कठिन, अनुभव
करने में कठिन
नहीं। किंतु
पहले समझना
जरूरी है।
यह
सूत्र कहता है
कि संसार और
निर्वाण दो
नहीं हैं, वे
एक ही हैं।
स्वर्ग और नरक
दो नहीं हैं, वे एक ही हैं।
वैसे ही बंधन
और मोक्ष दो
नहीं हैं, वे
भी एक ही हैं।
यह समझना कठिन
है, क्योंकि
हम किसी चीज
को आसानी से
तभी सोच पाते
हैं जब वह
ध्रुवीय
विपरीतता में
बंटी हो।
हम
कहते हैं कि
यह संसार बंधन
है,
इससे कैसे
छूटा जाए और
मुक्त हुआ जाए?
तब मुक्ति
कुछ है जो
बंधन के
विपरीत है, जो बंधन
नहीं है।
लेकिन यह
सूत्र कहता है
कि दोनों एक
हैं, मोक्ष
और बंधन एक
हैं। और जब तक
तुम दोनों से
नहीं मुक्त
होते, तुम
मुक्त नहीं हो।
बंधन तो बांधता
ही है, मोक्ष
भी बांधता
है। बंधन तो
गुलामी है ही,
मोक्ष भी
गुलामी है।
इसे समझने की
कोशिश करो। उस
आदमी को देखो
जो बंधन के
पार जाने की
चेष्टा में
लगा है। वह
क्या कर रहा
है? वह
अपना घर छोड
देता है, परिवार
छोड़ देता है, धन—दौलत छोड़
देता है, संसार
की चीजें छोड़
देता है, समाज
छोड देता
है, ताकि
बंधन के बाहर
हो सके, संसार
की जंजीरों
से मुक्त हो
सके। लेकिन तब
वह अपने लिए
नयी जंजीरें गढ़ने लगता
है, और वे
जंजीरें
नकारात्मक
हैं, परोक्ष
हैं।
मैं
एक संत को
मिला जो धन
नहीं छूते हैं।
वे बहुत
सम्मानित संत
हैं। उनका
सम्मान वे लोग
जरूर करेंगे
जो धन के पीछे
पागल हैं। यह
व्यक्ति उनके
विपरीत ध्रुव
पर चला गया है।
अगर तुम उनके
हाथ में धन रख
दो तो वे उसे
ऐसे फेंक
देंगे जैसे कि
वह जहर हो या
कि तुमने उनके
हाथ पर सांप
रख दिया हो।
वे उसे फेंक
ही नहीं देंगे, वे
आतंकित हो
उठेंगे। उनका
शरीर कांपने
लगेगा।
क्या
हुआ है? वे धन
से लड़ रहे हैं।
वे पहले जरूर
ही लोभी, अति
लोभी व्यक्ति
रहे होंगे।
तभी वे दूसरी
अति पर पहुंच
गए। उनकी धन
की पकड़
आत्यंतिक रही
होगी; वे
धन के लिए
पागल रहे
होंगे; वे
धन से ग्रस्त
रहे होंगे। वे
अब भी धन से
ग्रस्त हैं, लेकिन अब
उसकी दिशा बदल
गई है। वे
पहले धन की
तरफ भाग रहे
थे, अब वे
धन से भाग रहे
हैं। लेकिन
भागना कायम है,
पकड़ बनी है।
मैं
एक संन्यासी
को जानता हूं
जो किसी
स्त्री को
नहीं देख सकते।
वे बहुत घबड़ा
जाते है। अगर कोई
स्त्री मौजूद
हो तो वे आंखें
झुकाए
रखते है, वे
सीधे नहीं
देखते। क्या
समस्या है? निश्चित ही,
वे अति
कामुक रहे
होंगे, कामवासना
से बहुत
ग्रस्त रहे
होंगे। वह
ग्रस्तता अभी
भी जारी है, लेकिन पहले
वे स्त्रियों
के पीछे भागते
थे और अब वे
स्त्रियों से
दूर भाग रहे
हैं। पर
स्त्रियों से
ग्रस्तता बनी
हुई है; चाहे
वे स्त्रियों
की ओर भाग रहे
हों या
स्त्रियों से
दूर भाग रहे
हों, उनका
मोह बना ही
हुआ है।
वे
सोचते हैं कि
अब वे
स्त्रियों से
मुक्त हैं, लेकिन
यह एक नया
बंधन है। तुम
प्रतिक्रिया
करके मुक्त
नहीं हो सकते।
जिस चीज से
तुम भागोगे वह
पीछे के
रास्ते से तुम्हें
बांध लेगी; उससे तुम बच
नहीं सकते।
यदि कोई
व्यक्ति
संसार के
विरोध में
मुक्त होना
चाहता है तो
वह कभी मुक्त
नहीं हो सकता,
वह संसार
में ही रहेगा।
किसी चीज के
विरोध में
होना भी एक
बंधन है।
यह
सूत्र बहुत
गहरा है। यह
कहता है. 'यथार्थत:
बंधन और मोक्ष
सापेक्ष हैं.....।’
वे
विपरीत नहीं, सापेक्ष
हैं। मोक्ष
क्या है? तुम
कहते हो, जो
बंधन नहीं है
वह मोक्ष है।
और बंधन क्या
है? तब तुम
कहते हो, जो
मोक्ष नहीं है
वह बंधन है।
तुम एक—दूसरे
से उनकी
परिभाषा कर
सकते हो। वे
गर्मी और ठंडक
की भांति हैं;
विपरीत
नहीं हैं।
गर्मी क्या है
और ठंडक क्या
है? वे एक
ही चीज की कम—ज्यादा
मात्राएं हैं—ताप
की मात्राएं
हैं। लेकिन
चीज एक ही है, गर्मी और
ठंडक सापेक्ष
हैं।
अगर
एक बाल्टी में
ठंडा पानी हो
और दूसरी बाल्टी
में गर्म पानी
हो,
और तुम अपना
एक हाथ ठंडे
पानी की
बाल्टी में डालो और
दूसरा हाथ
गर्म पानी की
बाल्टी में, तो तुम्हें
क्या अनुभव
होगा? तुम्हें
जो अनुभव होगा
वह बस ताप की
मात्रा का
फर्क होगा। और
अगर तुम पहले
दोनों हाथों
को बर्फ पर
रखकर ठंडा कर
लो और तब
उनमें से एक
को गरम पानी
में डालो
और दूसरे को
ठंडे पानी में,
तब क्या
होगा? तब
फिर तुम्हें
फर्क मालूम
पड़ेगा। गर्म
पानी में पड़ा
हाथ पहले से
ज्यादा गर्मी महसूस
करेगा। और अगर
तुम्हारा
दूसरा हाथ
ठंडे पानी से
भी ज्यादा
ठंडा हो चुका
है तो उसे
ठंडा पानी भी
गर्म मालूम पडेगा।
ठंडा पानी उस
हाथ के लिए
ठंडा न रहा।
बात सापेक्ष
है। फर्क
मात्रा का, डिग्री का
है; चीज
वही है।
तंत्र
कहता है, बंधन
और मोक्ष, संसार
और निर्वाण दो
चीजें नहीं
हैं; वे
सापेक्ष हैं,
वे एक ही
चीज की दो
अवस्थाएं हैं।
इसीलिए तंत्र
अनूठा है।
तंत्र कहता है
कि तुम्हें
बंधन से ही
मुक्त नहीं
होना है, तुम्हें
मोक्ष से भी
मुक्त होना है।
जब तक तुम
दोनों से
मुक्त नहीं
होते, तुम
मुक्त नहीं हो।
तो
पहली बात कि
किसी भी चीज
के विरोध में
जाने की कोशिश
मत करो, क्योंकि
ऐसा करके तुम
उसी चीज की
किसी भिन्न अवस्था
में प्रवेश कर
जाओगे। वह
विपरीत दिखाई
पड़ता है, लेकिन
विपरीत है
नहीं।
कामवासना से
ब्रह्मचर्य
में जाने की
चेष्टा करोगे
तो तुम्हारा
ब्रह्मचर्य
कामुकता के
सिवाय और कुछ
नहीं होगा।
लोभ से अलोभ
में जाने की
चेष्टा मत करो,
क्योंकि वह
अलोभ भी
सूक्ष्म लोभ
ही होगा।
इसीलिए अगर
कोई परंपरा
अलोभ सिखाती
तो उसमें भी
वह तुम्हें
कुछ लालच देती
है।
मैं
एक महात्मा के
साथ ठहरा हुआ
था। और वे अपने
अनुयायियों
को समझा रहे
थे: 'अगर तुम लोभ
छोड़ दोगे तो
तुम्हें
परलोक में बहुत
मिलेगा। यदि
तुम लोभ को
त्याग दोगे तो
दूसरे लोक में
तुम्हें बहुत
कुछ मिलेगा।’
जो
लोग लोभी है, परलोक
के लोभी है, वे इस उपदेश से
बहुत प्रभावित
होंगे। वे इसके
लालच में बहुत
कुछ छोड़ने को
भी तैयार हो जाएंगे।
लेकिन पाने की
प्रवृत्ति, पाने की चाह
बनी रहती है।
अन्यथा लोभी
आदमी अलोभ की
तरफ क्यों
जाएगा? उसके
लोभ की
सूक्ष्म
तृप्ति के लिए
कुछ अभिप्राय,
कुछ हेतु तो
चाहिए ही।
तो
विपरीत
ध्रुवों का
निर्माण मत
करो। सभी विपरीतताए
परस्पर जुड़ी
हैं;
वे एक ही
चीज की भिन्न—भिन्न
मात्राएं हैं।
और अगर तुम्हें
इसका बोध हो
जाए तो तुम
कहोगे कि दोनों
ध्रुव एक हैं।
अगर तुम यह
अनुभव कर सके,
और अगर यह
अनुभव
तुम्हारे
भीतर गहरा हो
सके, तो
तुम दोनों से
मुक्त हो
जाओगे। तब तुम
न संसार चाहते
हो न मोक्ष।
वस्तुत: तब
तुम कुछ भी
नहीं चाहते हो;
तुमने
चाहना ही छोड
दिया। और उस
छोड़ने में ही
तुम मुक्त हो
गए। इस भाव
में ही कि सब
कुछ समान है, भविष्य गिर
गया। अब तुम
कहां जाओगे?
यदि
कामवासना और
ब्रह्मचर्य
एक ही हैं, तो
कहां जाना है?
यदि लोभ और
अलोभ एक ही
हैं, हिंसा
और अहिंसा एक
ही हैं, तो
फिर जाना कहा
है? कहीं
जाने को न बचा।
सारी गति
समाप्त हुई; भविष्य ही न
रहा। तब तुम
किसी चीज की
भी कामना, कोई
भी कामना नहीं
कर सकते, क्योंकि
सब कामनाएं एक
ही हैं। फर्क
केवल परिमाण
का होगा। तुम
क्या कामना
करोगे? तुम
क्या चाहोगे?
कभी—कभी
मैं लोगों से
पूछता हूं जब
वे मेरे पास
आते हैं, मैं
पूछता हूं : 'सच में तुम
क्या चाहते हो?'
उनकी चाह
उनसे ही पैदा
होती है। वे
जैसे हैं
उसमें ही उसकी
जड़ होती है।
अगर कोई लोभी
है तो वह अलोभ
की चाह करता
है। अगर कोई
कामी है तो वह
ब्रह्मचर्य
की कामना करता
है। कामी
कामवासना से
छूटना चाहता
है, क्योंकि
वह उससे पीड़ित
है, दुखी है।
लेकिन
ब्रह्मचर्य
की इस कामना
की जड़ उसकी
कामुकता में
ही है।
लोग
पूछते हैं : 'इस
संसार से कैसे
छूटा जाए?'
संसार
उन पर बहुत
भारी पड़ रहा
है। वे संसार
के बोझ के
नीचे दबे जा
रहे हैं। और
वे संसार से
बुरी तरह
चिपके भी हैं, क्योंकि
जब तक तुम
संसार से
चिपकते नहीं
हो तब तक
संसार
तुम्हें
बोझिल नहीं कर
सकता। यह बोझ
तुम्हारे सिर
में है; और
उसका कारण तुम
हो, बोझ
नहीं। तुम इसे
ढो रहे हो। और
लोग सारा
संसार उठाए
हैं; और
फिर वे दुखी
होते हैं। और
दुख के इसी
अनुभव से
विपरीत कामना
का उदय होता
है, और वे
विपरीत के लिए
लालायित हो
उठते हैं।
पहले
वे धन के पीछे
भाग रहे थे, अब
वे ध्यान के
पीछे भाग रहे
हैं। पहले वे
इस लोक में
कुछ पाने के
लिए भाग—दौड़
कर रहे थे; अब
वे परलोक में
कुछ पाने के
लिए भाग—दौड़
कर रहे हैं।
लेकिन भाग—दौड़
जारी है। और
भाग—दौड़ ही
समस्या है, विषय
अप्रासंगिक
है। कामना समस्या
है; चाह
समस्या है।
तुम क्या
चाहते हो, यह
अर्थपूर्ण
नहीं है; तुम
चाहते हो, यह
समस्या है।
और
तुम चाह के
विषय बदलते
रहते हो। आज
तुम 'क' चाहते
हो, कल 'ख’ चाहते हो, और तुम
समझते हो कि
मैं बदल रहा
हूं। और फिर
परसों तुम 'ग' की चाह
करते हो, और
तुम सोचते हो
कि मैं
रूपांतरित हो
गया। लेकिन तुम
वही हो। तुमने
'क' की
चाह की, तुमने
‘ख’ की चाह
की, तुमने ‘ग’ की चाह की; लेकिन यह क—ख—ग
तुम नहीं हो; तुम तो वह हो जो
चाहता है, जो
कामना करता है।
और वह वही का
वही रहता है।
तुम
बंधन चाहते हो
और फिर उससे
निराश हो जाते
हो,
ऊब जाते हो।
और तब तुम
मोक्ष की
कामना करने
लगते हो।
लेकिन तुम
कामना करना
जारी रखते हो।
और कामना बंधन
है; इसलिए
तुम मोक्ष की
कामना नहीं कर
सकते। चाह ही
बंधन है; इसलिए
तुम मोक्ष
नहीं चाह सकते।
जब कामना
विसर्जित
होती है तो
मोक्ष है; चाह
का छूट जाना
मोक्ष है।.
इसीलिए
यह सूत्र कहता
है : 'यथार्थत:
बंधन और मोक्ष
सापेक्ष हैं।’
तो
विपरीत से
ग्रस्त मत होओ।
'ये केवल
विश्व से
भयभीत लोगों
के लिए हैं।’
बंधन
और मोक्ष, ये
शब्द उनके लिए
हैं जो विश्व
से भयभीत हैं।
'यह विश्व मन
का प्रतिबिंब
है।’
तुम
संसार में जो
कुछ देखते हो
वह प्रतिबिंब
है। अगर वह
बंधन जैसा
दिखता है तो
उसका मतलब है
कि वह
तुम्हारा
प्रतिबिंब है।
और अगर यह
विश्व मुक्ति
जैसा दिखता है
तो भी वह
तुम्हारा
प्रतिबिंब है।
'जैसे तुम
पानी में एक
सूर्य के अनेक
सूर्य देखते
हो, वैसे
ही बंधन और
मोक्ष को देखो।’
सुबह
सूरज उगता है।
और सरोवर अनेक
हैं—बड़े और
छोटे, शुद्ध
और गंदे, सुंदर
और कुरूप। एक
ही सूरज इन
अनेक सरोवरों
में
प्रतिबिंबित होता
है। जो
व्यक्ति
प्रतिबिंबों
को गिनेगा
वह सोचेगा कि
सूर्य अनेक
हैं। और जो
प्रतिबिंबों
को न देखकर
यथार्थ को
देखेगा उसे एक
सूर्य ही
दिखेगा।
जिस
संसार को तुम
देखते हो वह
तुम्हारा
प्रतिबिंब है।
अगर तुम कामुक
हो तो सारा
संसार
तुम्हें कामुक
मालूम पड़ेगा।
और अगर तुम
चोर हो तो
सारा संसार
तुम्हें उसी धंधे
में संलग्न
मालूम पड़ेगा।
एक
बार मुल्ला नसरुद्दीन
और उसकी पत्नी, दोनों
मछली पकड़ रहे
थे। और वह जगह
प्रतिबंधित
थी, केवल
लाइसेंस लेकर
ही लोग वहां मछली
पकड सकते थे।
अचानक एक
पुलिस का
सिपाही वहा आ
गया। मुल्ला
की पत्नी ने
कहा. 'मुल्ला,
तुम्हारे
पास लाइसेंस
है, तुम
भागों; इस
बीच मैं यहां
से खिसक
जाऊंगी।’ मुल्ला
भागने लगा। वह
भागता गया, भागता गया
और सिपाही
उसका पीछा
करता रहा।
मुल्ला ने
अपनी पत्नी को
वहीं छोड़ दिया
और भागने लगा।
दौड़ते—दौड़ते
मुल्ला को ऐसा
लगा कि उसकी
छाती फट जाएगी।
तभी उस सिपाही
ने उसे पकड़
लिया; सिपाही
भी पसीने से
तरबतर था।
उसने मुल्ला
से पूछा : 'तुम्हारा
लाइसेंस कहां
है?' मुल्ला
ने लाइसेंस
निकाल कर
दिखाया।
सिपाही ने गौर
से लाइसेंस को
देखा और उसे
सही पाया। और
तब उसने पूछा : 'नसरुद्दीन,
फिर तुम भाग
क्यों रहे थे?
तुम्हारे
पास लाइसेंस
था तो तुम भाग
क्यों रहे थे?'
मुल्ला
ने कहा : 'मैं
एक डाक्टर के
पास जाता हूं और
वह कहता है कि
भोजन के बाद आधा
मील दौड़ा
करो।' सिपाही
ने कहा. 'ठीक
है; लेकिन
जब तुमने देखा
कि मैं
तुम्हारे
पीछे भाग रहा
हूं चिल्ला
रहा हूं तब
तुम क्यों
नहीं रुके?' नसरुद्दीन ने कहा : 'मैं
समझा कि शायद तुम
भी उसी डाक्टर
के पास जाते
हो।’
बिलकुल
तर्कसंगत है; यही
हो रहा है। तुम
अपने चारों तरफ
जो कुछ देखते
हो वह तुम्हारा
प्रतिबिंब
ज्यादा है, यथार्थ कम।
तुम अपने को
ही सब जगह
प्रतिबिंबित देख
रहे हो। और
जिस क्षण तुम
बदलते हो, तुम्हारा
प्रतिबिंब भी
बदल जाता है।
और जिस क्षण
तुम समग्रत:
मौन हो जाते
हो, शांत
हो जाते हो, सारा संसार
भी शात हो
जाता है।
संसार बंधन
नहीं है; बंधन
केवल एक
प्रतिबिंब है।
संसार मोक्ष
भी नहीं है, मोक्ष भी
प्रतिबिंब है।
बुद्ध को सारा
संसार
निर्वाण में
दिखाई पड़ता है।
कृष्ण को सारा
जगत नाचता—गाता,
आनंद में, उत्सव मनाता
हुआ दिखाई
पड़ता है।
उन्हें कहीं
कोई दुख नहीं
दिखाई पड़ता है।
लेकिन
तंत्र कहता है
कि तुम जो भी
देखते हो वह प्रतिबिंब
ही है, जब तक
सारे दृश्य
नहीं विदा हो
जाते और शुद्ध
दर्पण नहीं
बचता—प्रतिबिबरहित
दर्पण। वही
सत्य है। अगर
कुछ भी दिखाई
देता है तो वह
प्रतिबिंब ही है।
सत्य एक है; अनेक तो
प्रतिबिंब ही
हो सकते हैं।
और एक बार यह
समझ में आ जाए—सिद्धांत
के रूप में
नहीं, अस्तित्वगत,
अनुभव के
द्वारा—तो तुम
मुक्त हो, बंधन
और मोक्ष
दोनों से
मुक्त हो।
नरोपा
जब बुद्धत्व
को उपलब्ध हुए
तो किसी ने उनसे
पूछा. 'क्या
आपने मोक्ष को
प्राप्त कर
लिया?' नरोपा
ने कहा. 'हां
और नहीं दोनों।
हां, क्योंकि
मैं बंधन में
नहीं हूं; और
नहीं, क्योंकि
वह मोक्ष भी
बंधन का ही
प्रतिबिंब था।
मैं बंधन के
कारण ही मोक्ष
की सोचता था।’
इसे
इस ढंग से
देखो। जब तुम
बीमार होते हो
तो स्वास्थ्य
की कामना करते
हो। यह
स्वास्थ्य की
कामना
तुम्हारी
बीमारी का ही
अंग है। अगर
तुम स्वस्थ ही
हो तो तुम
स्वास्थ्य की
कामना नहीं
करोगे। कैसे
करोगे? अगर
तुम सच में
स्वस्थ हो तो
फिर स्वास्थ्य
की चाह कहां
है? उसकी
जरूरत क्या है?
अगर
तुम यथार्थत:
स्वस्थ हो तो
तुम्हें कभी
यह महसूस नहीं
होता है कि
मैं स्वस्थ
हूं। सिर्फ
बीमार, रोगग्रस्त
लोग ही महसूस
कर सकते हैं
कि हम स्वस्थ
हैं। उसकी
जरूरत क्या है?
तुम कैसे
महसूस कर सकते
हो कि तुम
स्वस्थ हो? अगर तुम
स्वस्थ ही
पैदा हुए, अगर
तुम कभी बीमार
नहीं हुए, तो
क्या तुम अपने
स्वास्थ्य को
महसूस कर सकोगे?
स्वास्थ्य
तो है, लेकिन
उसका अहसास
नहीं हो सकता।
उसका अहसास तो
विपरीत के
द्वारा, विरोधी
के द्वारा ही
हो सकता है।
विपरीत के
द्वारा ही, उसकी पृष्ठभुमि
में ही किसी
चीज का अनुभव
होता है। अगर
तुम बीमार हो
तो स्वास्थ्य
का अनुभव कर सकते
हो; और अगर
तुम्हें
स्वास्थ्य का
अनुभव हो रहा
है तो निश्चित
जानो कि तुम
अब भी बीमार
हो।
तो
नरोपा ने कहा 'ही
और नहीं दोनों।
ही इसलिए कि
अब कोई बंधन
नहीं रहा, और
नहीं इसलिए कि
बंधन के जाने
के साथ मुक्ति
भी विलीन हो
गई। मुक्ति
बंधन का ही
हिस्सा थी। अब
मैं दोनों के
पार हूं न
बंधन में हूं
और न मोक्ष
में।’
धर्म
को चाह मत
बनाओ। धर्म को
कामना मत बनाओ।
मोक्ष को, निर्वाण
को कामना का
विषय मत बनाओ।
वह तभी घटित
होता है जब
सारी कामनाएं
खो जाती हैं।
आज इतना
ही।
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