मेधों का आमंत्रण—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक
22 मई, 1979;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—
भगवान! क्या
श्रद्धा में
भी संदेह उठ
सकता है?
2—भगवान!
उस दिन आपको
गोली मारने की
बात सुनते ही
मैं रोती रही।
ऐसे तो मैं
कभी जिंदगी
में किसी की
मौत पर भी
नहीं रोयी! अब
तो सिर्फ आपकी
मौत की बात
सुनते ही कांप
उठती हूं।
क्यों? कृपया
समझाइए।
3—भगवान!
आपको बार—बार
देखकर भी ऐसा
लगता है, नहीं देखा
है! कैसे देखूं
कि छवि उतरे
ही उतरे?
पहला
प्रश्न :
भगवान! क्या
श्रद्धा में
भी संदेह उठ
सकता है?
संतोष
सरस्वती!
श्रद्धा में
संदेह उठना
असंभव है।
श्रद्धा में
संदेह उठे तो
श्रद्धा थी ही
नहीं। फिर
तुमने
विश्वास को
श्रद्धा समझ लिया
होगा, मान्यता
को श्रद्धा
समझ लिया
होगा। अंधी
रही होगी
श्रद्धा, आंख
वाली न रही
होगी। अंधी
श्रद्धा का
नाम विश्वास
है। और अंधी
श्रद्धा का
कोई मूल्य
नहीं——दो कौड़ी
भी मूल्य
नहीं। अंधी
श्रद्धा से तो
आंख वाला संदेह
लाख गुना
मूल्य का है।
क्योंकि असली
कीमत आंख की
है। श्रद्धा
और संदेह तो
पीछे आएंगे, पहले तो
आंख...। अगर आंख
वाला संदेह है
तो आंख वाली
श्रद्धा भी
आएगी।
लेकिन
सदियों से
मनुष्य को
समझाया गया है——संदेह
मत करना; संदेह
पाप है। संदेह
को दबा दो, संदेह
की छाती पर बैठ
जाओ, संदेह
को अचेतन में
फेंक दो——जितने
गहरे में फेंक
सको फेंक दो, कि तुम्हें
याद भी न रहे
कि तुम्हारे
भीतर कभी
संदेह था। फिर
ऊपर से ओढ़ लो
विश्वास को, श्रद्धा को,
आस्था को।
वह सब झूठ है
क्योंकि
प्राणों में तो
संदेह है। और
परिधि पर
श्रद्धा है।
मूल्यांकन तो
प्राणों का
होगा, परिधि
का नहीं।
तुम्हारे
जीवन की नियति
तो निर्धारित
होगी
तुम्हारे
केंद्र से——और
केंद्र पर
संदेह है और
सिर्फ ऊपर—ऊपर
लीपापोती की
है।
ईश्वर
को मानते हैं
लोग, जानते
नहीं। और बिना
जाने जो माना
गया वह अंधा
है। इससे तो
आंख वाला
संदेह बहुत—बहुत
कीमती है।
क्योंकि आंख
वाला संदेह, अगर हिम्मतपूर्वक
तुम उसके साथ
चलते ही रहो
तो एक—न—एक दिन
तुम्हें आंख
वाली श्रद्धा
पर पहुंचा देगा।
संदेह
तो सौभाग्य
है। लेकिन बीच
में रुकना मत, बीच में
ठहरना मत।
संदेह की
परिपूर्णता
पर श्रद्धा
पैदा होती है,
इसलिए
श्रद्धा में
तो संदेह पैदा
हो ही नहीं
सकता।
श्रद्धा तो संदेह
की सारी
सीढ़ियों को
पार ही कर
चुकी। वे सारे
भटकाव, वे
सारे प्रश्न,
वे सारी जिज्ञासाएं
तो कभी की पार
कर ली गईं। वे पर्वतमालाएं
तो बहुत पीछे
छूट गईं। वे
खाई—खड्डे तो
अनुभव कर लिए
गए।
संदेह
की आग में पक—पक
कर ही श्रद्धा
पैदा होती है।
तो श्रद्धा
में से तो
संदेह पैदा हो
ही नहीं सकता
। और अगर
श्रद्धा में
संदेह फैदा
हो तो उसका
अर्थ साफ है
कि तुम कुछ
बचा गए——तुम
कुछ संदेह बचा
गए। तुमने कुछ
संदेह सरका कर
रख दिए। तुमने
कुछ संदेहों
का सामना न
किया। तुम
संदेहों से
संघर्ष न किए।
तुमने
संदेहों की
सुनकर खोजा
नहीं, पूछा
नहीं, प्रश्न
न जगाए, जिज्ञासा
न की। तुम
संदेहों को
पीटते गए, बाद
दे गए। जिनको
तुमने पीट
दिया वे
तुम्हारे पीछे
खड़े हैं। आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, कभी भी
कमजोर क्षण
में, कभी
भी कोमल क्षण
में, कभी
भी सम्यक्
अवसर पर जब वे
प्रगट हो
सकेंगे, वे
प्रगट हो
जाएंगे।
जिसे
भी दबाया है
उससे छुटकारा
नहीं होता। दबाए
हुए को बार—बार
दबाना पड़ता है, फिर भी
छुटकारा नहीं
होता। दबाया
हुआ तुम्हारे
जीवन का सदा
के लिए बंधन
हो जाता है।
तो अगर
श्रद्धा में
संदेह उठे तो
समझना कि श्रद्धा
झूठी थी, संदेह
की आग से
गुजरी नहीं
थी। तुम तो
ऐसा प्रश्न
पूछ रहे हो कि
जैसे हम पके
हुए घड़े
में पानी भरें
तो कहीं ऐसा
तो न होगा कि
घड़ा बिखर जाए!
अगर पका हुआ
घड़ा है तो
पानी के भरने
से बिखरेगा
नहीं। हां, कच्चा ही
घड़ा हो, लाल
रंग से रंग
दिया हो, आग
से गुजरा ही न हो,
पका ही न हो——तो
फिर पानी भरोगे,
तो मिट्टी
तो मिट्टी है,
पानी के
पाते ही गीली
हो जाएगी, पानी
के पाते ही
बिखर जाएगी।
कच्चा रंग हो
तो पहली वर्षा
में ही उतर
जाएगा। कच्चा
रंग हो, जरा
धूप पड़ेगी और
उतर जाएगा।
अगर
तुम्हारी
श्रद्धा
कच्ची है तो
संदेह तो उठेंगे, अनिवार्यता
है उनका उठना।
और वे उठेंगे
तो तुम उन्हें
दबाओगे।
और तुम दबाओगे
तो वे फिर—फिर
उठेंगे। उनसे
इतने सस्ते
में छूटने का
कोई उपाय नहीं
है। संदेहों
को जीना पड़ता
है। संदेह की
आग में भुनना
पड़ता है।
संदेह की पीड़ा
से गुजरे बिना
कोई उपाय नहीं,
कोई विकल्प
नहीं। तुम
बचकर नहीं
गुजर सकते, संदेह के
मध्य से ही
जाना होगा। और
जाना एकदम अर्थपूर्ण
है क्योंकि उस
आग से गुजर कर
ही तुम्हारी
मिट्टी पकेगी।
तुम आग के
बाहर पके घड़े
की तरह आओगे, फिर जल भरे।
श्रद्धा का
घड़ा पका हो, फिर अमृत
भरे, फिर
अमृत—घट बने, फिर
परमात्मा
उतरे।
श्रद्धा
में तो संदेह
उठ नहीं सकता
लेकिन इससे
उल्टी बात
जरूर सही है——संदेह
में श्रद्धा
उठ सकती है।
संदेह में ही
श्रद्धा उठती
है। इसलिए अगर
तुमने ऐसा
पूछा होता कि
क्या संदेह
में श्रद्धा
उठ सकती है, तो मैं कहता :
हां, सुनिश्चित
रूप से हां।
संदेह में ही
श्रद्धा
उठेगी, और
कहां श्रद्धा
उठेगी! अंधेरे
में ही दीया
जलेगा और कहां
दीया जलेगा!
लेकिन दीया
जला हो तो अंधेरा
नहीं आ सकता।
रात में ही
सुबह होती है।
रात की ही
परिपूर्णता
पर प्रभात
होता है। लेकिन
दिन में अचानक
अंधेरा नहीं आ
सकता। सूरज उगा
हो और अंधेरा
आ जाए तो सूरज
झूठा रहा
होगा। कागजी
रहा होगा, माना
हुआ रहा होगा,
असली सूरज
नहीं हो सकता,
कल्पना रहा
होगा। तुमने
सपना देखा
होगा सूरज का,
सूरज रहा न
होगा।
वास्तविक
नहीं, बस
काल्पनिक ही
होगा। तो फिर
अंधेरा आ सकता
है, तो फिर
रात हो सकती
है, तो फिर
अमावस उतर
सकती है।
रात में
तो दिन होता
ही है; रात
ही दिन तक
लाती है।
संदेह ही
श्रद्धा तक लाता
है। इसलिए
संदेह में तो
श्रद्धा उठती
है।
मुझे
एक यहूदी
कहानी
प्रीतिकर रही
है। दो यहूदी
युवक अपने
रबाई, अपने
गुरु के पास
अध्ययन कर रहे
हैं। दोनों को
धूम्रपान की
आदत है। मगर
अवसर नहीं मिल
पाता। सुबह से
लेकर सांझ तक
अध्ययन, मनन,
ध्यान, साधन.
. . .समय ही नहीं
है। सिर्फ रोज
सुबह एक घंटा और
एक घंटा शाम बगीचे में
घूमने को
मिलता है। वह
भी बगीचे
में घूमने को
नहीं, घूमकर
ध्यान करने को,
जिसको
बौद्ध
चंक्रमण कहते
हैं।
ध्यान
दो तरह से
किया जा सकता
है, बैठकर, फिर बैठे—बैठे
थक जाओ——आखिर
चौबीस घंटे
बैठे नहीं रह
सकते, अंगों
का चलना—फिरना
जरूरी है, थोड़ा
खून की गति
होनी जरूरी है——तो
फिर चंक्रमण
करो, फिर
चलो। लेकिन
ध्यान की धारा
तो चलती ही
रहे। वह जो
भीतर शांत
स्वर गूंज रहा
है, गूंजता
ही रहे। वह जो
भीतर धुन बंधी
है, स्मरण
जगा है, वह
खंडित न हो।
तुम में से
कोई अगर बोधगया
गया हो तो
उसने वह जगह
देखी होगी, वह मंदिर, वह वट—वृक्ष,
जहां बुद्ध
को ज्ञान मिला,
उस वट—वृक्ष
के पास तुमने
एक छोटा—सा
मार्ग भी देखा
होगा पत्थरों
से पटा हुआ——वह
मार्ग है जहां
बुद्ध
चंक्रमण करते
रहे। घंटे भर
बैठते
बोधिवृक्ष के
नीचे, फिर
अंग गति चाहते
हैं, थोड़ा
श्रम चाहते
हैं, तो
फिर घंटे भर
उठकर चलते
वृक्ष के पास
ही। लेकिन जो
ध्यान भीतर संहाला था
बैठकर उसे
चलकर
संभालते।
ऐसा ही
उस यहूदी गुरु
ने भी अपने
शिष्यों को कहा
था : एक घंटा
सुबह, एक
घंटा शाम बगीचे
में घूमकर
ध्यान करो।
वही समय था, वही मौका था
कि किसी वृक्ष
की आड़ में,
दूर निकलकर
धूम्रपान कर
लिया जाए।
लेकिन दोनों
को लाज भी
लगती थी, संकोच
भी होता था, ग्लानि भी
होती थी।
दोनों ने सोचा
कि हम गुरु से
पूछ ही क्यों
न लें! पूछ कर
करें तो यह जो
अपराध—भाव है
पैदा न होगा।
दोनों
ने तय किया और
दूसरे दिन
दोनों जब आए बगीचे में, एक तो बहुत
उदास था। उदास
भी था, क्रुद्ध
भी था, क्योंकि
उसने गुरु से
पूछा और गुरु
ने तत्क्षण कह
दिया : नहीं, बिल्कुल
नहीं, कभी
नहीं! भूलकर
भी यह सवाल
उठाना मत। ऐसा
कैसे हो सकता
है! लेकिन दूसरा
बड़ा प्रसन्न
था। पहले ने
कहा : तुम इतने
प्रसन्न
क्यों हो? तो
उसने कहा :
मैंने जब गुरु
को पूछा तो
उन्होंने कहा :
हां—हां, बिल्कुल
ठीक है।
धूम्रपान कर
सकते हो।
बात
बड़ी बेबूझ हो
गई! एक को कहा :
कभी नहीं, बिल्कुल
नहीं! और
दूसरे को कहा :
हां, धूम्रपान
कर सकते हो।
तो पहले ने
कहा : यह तो
ज्यादती है, यह अन्याय
है। मुझे
इनकार और
तुम्हें
स्वीकार !
दूसरे ने कहा :
क्या मैं पूछ
सकता हूं कि
तुमने क्या
पूछा था? तो
पहले ने कहा :
मैंने पूछा था
जो पूछने का
हमने तय किया
था। मैंने
उनसे पूछा कि
क्या मैं
ध्यान करते
समय धूम्रपान
कर सकता हूं? उन्होंने
कहा : कभी नहीं,
भूलकर भी
नहीं, यह
सवाल ही मत
उठाना, यह
बात हो ही
नहीं सकती। वे
एकदम क्रुद्ध
हो गए, आगबबूला
हो गए। वह
हंसने लगा, उसने कहा :
बात समझ में आ
गई। तुम्हारे
पूछने में ही
भूल थी। तो
पहले ने पूछा :
तुमने क्या
पूछा था? मैंने
पूछा था कि
क्या
धूम्रपान
करते समय मैं
ध्यान कर सकता
हूं? उन्होंने
कहा : हां—हां
क्यों नहीं।
धूम्रपान
करते वक्त
ध्यान किया जा
सकता है, इसमें
क्या बुराई है,
अच्छा ही
है। धूम्रपान
तो कर ही रहे
हो, अगर इन
क्षणों को
ध्यान से भी
जोड़ दिया तो
शुभ ही है।
लेकिन अगर कोई
पूछे कि ध्यान
करते वक्त
धूम्रपान कर
सकता हूं? यह
नहीं हो सकता।
ध्यान और
धूम्रपान!
नीचे गिर रहे
हो। धूम्र का
पान करते समय
ध्यान करने में
ऊपर उठ रहे
हो। प्रश्न एक
जैसे लगते हैं,
मगर एक जैसे
नहीं हैं।
तुमने
पूछा संतोष
सरस्वती, क्या
श्रद्धा में
भी संदेह उठ
सकता है? कभी
नहीं। काश
तुमने पूछा
होता क्या
संदेह में
श्रद्धा उठ
सकती है? तो
मैं कहता
निश्चित। और
तो उठेगी
कैसे! संदेह
में तो आदमी
जीता ही है।
संदेह तो उसकी
सहज अवस्था
है। संदेह तो
स्वाभाविक
है। संदेह की
रात में ही हम
पैदा हुए हैं।
वहीं हमारा
जन्म हुआ है।
प्रभात की हम
खोज कर रहे
हैं। सुबह की
हम तलाश कर
रहे हैं। सूरज
का हम इंतजार
कर रहे हैं।
संदेह
में श्रद्धा
उठ सकती है।
और यह भी
तुमसे कह दूं
केवल संदेह
में ही उठ
सकती है। जो
संदेह से बचे, वे श्रद्धा
से बच गए।
तुम्हें बड़ी
गलत बातें सिखाई
गई हैं सदियों
से। तुम्हें
कहा गया है
संदेह छोड़ो।
मैं तुमसे
कहता हूं
संदेह करो, जी भरकर करो,
पूरा—पूरा
करो। रत्ती भर
भी मत छोड़ना
क्योंकि जितना
तुम छोड़ोगे
उतना ही
तुम्हें पीछे
सताएगा। उससे
पहले ही निपट
लेना बेहतर
है।
संदेह
करो, घबड़ाना क्या है !
सत्य इतना
विराट है, संदेह
नष्ट थोड़े ही
कर देगा सत्य
को। सत्य है
तो संदेह क्या
बिगाड़ लेगा? बाल बांका न
करेगा सत्य
का। सत्य है
तो तुम मारो
कितना ही
संदेह से सिर,
आज नहीं कल
आंखें खुलेंगी,
सत्य की
प्रतीति
होगी। सत्य के
होने में ही
इतना बल है कि
कौन संदेह उसे
मिटा पाएगा!
इसलिए मैं
कहता हूं, खूब
संदेह करो, जी भरकर
संदेह करो, रस ले—लेकर
संदेह करो। और
सब संदेह
तुम्हारे गिरेंगे;
गिरना ही
पड़ेगा
क्योंकि सत्य
है। और जब
संदेह गिरते
हैं——सत्य के
अनुभव से, सत्य
के साक्षात्
से——तो फिर
कैसे उठ सकते
हैं? फिर
उनके उठने का
उपाय कहां रहा?
उनके तो
प्राण निकल गए।
वे तो अब
लाशें हो गए!
अब वे मुर्दे
कैसे जग सकते
हैं?
लेकिन
तुमने अगर
संदेह करने
में कंजूसी की
और अगर तुम
पुरानी
परंपराओं को
मानकर चलते
रहे——कि संदेह
तो है मगर उसे
दबा गए, ऊपर
से विश्वास की
ओढ़नी ओढ़
ली, भीतर
संदेह है ऊपर
राम—नाम की
चदरिया ओढ़ ली——तो
तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
तुम आज नहीं
कल पाओगे कि
राम—नाम की
चदरिया काम
नहीं आती।
चदरिया चदरिया
है। भीतर
आत्मा नहीं है,
संदेह ही
संदेह इकट्ठे
हो जाते हैं।
तुम डरोगे,
तुम भयभीत
होओगे।
तुम्हें सदा
एक भय छाया की
तरह पीछा करता
रहेगा।
क्योंकि तुम
जानते हो भलीभांति
कि कुछ संदेह
हैं जिनके साथ
तुम बेईमानी
कर गए हो। और
वे कभी भी उठ
सकते हैं। कोई
भी छोटी—सी
घटना उन्हें
उकसा सकती है——किसी
की बात, जरा—सी
बात। तुम
मानते हो
ईश्वर है; तुम
खूब गहराई से
श्रद्धा करते
हो; ऐसा
तुम सोचते हो
कि ईश्वर है——लेकिन
कोई जरा—सा
संदेह उठा
देगा, छोटा
बच्चा भी, और
तुम्हारा
सारा भवन ढहढहा
कर गिर जाएगा।
तुम
कहते हो कि
प्रत्येक चीज
जो है उसको
बनाने वाला
चाहिए, इसलिए
ईश्वर है। और
अगर किसी
बच्चे ने यह
पूछ लिया कि
ईश्वर को
किसने बनाया?
और तुम लड़खड़ा
जाओगे। अगर
तुम कहो कि
ईश्वर को किसी
ने नहीं बनाया——तो
फिर संसार को
ही बनाने वाले
की क्या जरूरत
है? अगर
ईश्वर बिन बना
हो सकता है तो
संसार भी बिन बना
हो सकता है——तुमने
बिन बने होने
के सिद्धांत
को स्वीकार कर
लिया। और तुम
यह कहो कि
ईश्वर को किसी
और ईश्वर ने
बनाया है, किसी
महा ईश्वर ने
बनाया है, तो
इसका कहां अंत
होगा? पूछा
जा सकता है :
फिर उस महा
ईश्वर को
किसने बनाया?
ये दो
ही उपाय हैं——या
तो कहो कि
ईश्वर को किसी
ने नहीं बनाया, तो तुम्हारी
मौलिक धारणा
ही खंडित हो
गई, जिसके
आधार पर तुमने
ईश्वर को माना
था; और या
फिर कहो कि
ईश्वर को और
किसी और ईश्वर
ने, उसको
फिर और किसी
ईश्वर ने। तुम
एक अंतहीन गड्ढा
में गिर
जाओगे। आखिर
अंतिम ईश्वर
कौन बनाएगा? प्रश्न वहीं
का वहीं खड़ा
है, कहीं
भी नहीं गया।
तुम सरकाते
रहे, तुम
छिपाते रहे, तुम चुराते
रहे आंखें, तुम बचते
रहे, भागते
रहे; मगर
जो भागेगा, डरेगा, वह
मुक्त नहीं हो
सकता।
भय कभी
मुक्ति नहीं
लाता। सामना
करो! संदेह है
तो जरूर उसका
कुछ उपयोग
होगा।
परमात्मा ने
तुम्हें संदेह
दिया है, वह
तलवार की तरह
है। उसका बड़ा
उपयोग है।
उससे प्रश्न
को काटो। उससे
समस्याओं को
काटो। उससे
डरो मत।
परमात्मा
व्यर्थ कुछ भी
नहीं देता है।
संदेह दिया है
तो उसकी बड़ा सार्थकता
है। संदेह
दिया है ताकि
तुम संदेह के
मार्ग से चल—चलकर
एक दिन
श्रद्धा पर
पहुंच जाओ।
संदेह तभी तक
कर सकते हो जब
तक अनुभव
नहीं। और
संदेह तुम्हें
उकसाएगा
कि अनुभव करो।
क्योंकि
संदेह को अगर
तुम ठीक से पकड़कर
चलो तो एक
अपूर्व घटना
घटती है। उस
अपूर्व घटना को
समझ लेना।
संदेह
को अगर कोई
आत्मसात करे, इनकार न करे,
प्रभु की
अनुकंपा माने;
जरूर कोई
छिपा हुआ राज़—रहस्य
होगा, ऐसा
समझे——तो एक
दिन तुम्हें
संदेह पर भी
संदेह उठेगा।
और वह बड़ा
अपूर्व क्षण
है! और जिस दिन
संदेह पर संदेह
उठेगा उस दिन
घड़ी आई अनुभव
की। उस दिन तुम
कहोगे : कब तक
शब्दों में
भटकता रहूं? कब तक
शब्दों के जाल
में उलझा रहूं?
अब अनुभव
चाहिए। आग के
संबंध में तो
बहुत सोच लिया,
सोचने से
कुछ तय नहीं
होता कि आग है
या नहीं। दोनों
तरफ तर्क दिए
जा सकते हैं——बराबर,
समतुल्य
तर्क दिए जा
सकते हैं।
तर्क
तो वेश्या जैसा
है। वह तो
किसी के भी
साथ हो जाता
है। जो पैसा चुकाने
को राजी हो, उसी के साथ
हो जाता है।
यूनान
में एक पुरानी
कहानी है।
यूनान में सोफिस्ट
संप्रदाय
हुआ। यह सोफिस्ट
संप्रदाय
शुद्ध तर्कवादियों
का संप्रदाय
था। इनकी
श्रद्धा तर्क
में थी। ये
कहते थे कि
तर्क सब कुछ
है। और ये यह
भी कहते थे कि
सत्य जैसी कोई
चीज नहीं है।
सत्य तो
तुम्हारी
मान्यता है।
अपनी मान्यता
को सुदृढ़
करने के लिए
तुम तर्क का
जाल खड़ा कर
लो। तर्क की
बैसाखियां
लगा दो तो
सत्य खड़ा हो
जाता है। हालांकि
सत्य जैसी कोई
चीज नहीं।
सत्य है ही नहीं, सब तर्क ही
तर्क है।
इसलिए हर सत्य
के लिए, जिसको
तुम सत्य
मानना चाहते
हो, तर्क
जुटाए जा सकते
हैं।
एक
बहुत बड़ा सोफिस्ट
अपने शिष्यों
को. . . .उसे इतना
भरोसा था अपने
तर्क पर, आधी
फीस लेता था
शिक्षण देते
समय और कहता
था आधी तब
लूंगा जब तुम
अपना पहला
विवाद जीतोगे।
और स्वभावतः
उसके सारे
शिष्य विवाद
जीतते थे।
इसलिए आधी फीस
पीछे लेता था।
मगर एक
महाकंजूस
भरती हुआ उसके
स्कूल में।
उसने आधी फीस
दी, तर्क
सीखा, फिर
किसी से विवाद
किया ही नहीं।
महीने
बीते, गुरु
बेचैन। वर्ष
बीतने लगे, गुरु ने कई
बार पूछा कि
भई, विवाद
किसी से नहीं
किया?
उसने
कहा : मैं
विवाद कभी
करूंगा ही
नहीं। वह आधी
फीस की झंझट
कौन ले! तुम
मुझसे आधी फीस
न ले सकोगे
आखिर मैं भी
तुम्हारा ही
शिष्य हूं।
लेकिन
गुरु ऐसे तो
नहीं छोड़ दे
सकता था। गुरु
ने अदालत में
मुकदमा किया
कि इसने मुझे
आधी फीस नहीं
चुकाई है।
गुरु का हिसाब
साफ था। गुरु
का हिसाब यह
था कि अब तो
इसे अदालत में
विवाद करना ही
पड़ेगा मुझसे, अगर मैं
विवाद जीता तो
आधी फीस वहीं
रखवा लूंगा
क्योंकि
अदालत कहेगी
कि आधी फीस
दो। और अगर मैं
विवाद हारा तो
अदालत के बाहर
कहूंगा कि बच्चू
कहां जा रहे
हो, विवाद
तुम जीत गए, आधी फीस! चित
भी मेरी पट भी
मेरी।
मगर
शिष्य भी तो
आखिर उसी का
शिष्य था।
उसने कहा : कोई
फिक्र नहीं।
अगर अदालत में
हारा तो मुझे पता
है कि वह बाहर
आकर फीस मांगेगा
कि तुम जीत
गए। तो मैं
अदालत से
निवेदन करूंगा
कि मैं अदालत
में जीता हूं
इसलिए अब फीस
कैसे चुका
सकता हूं? क्योंकि यह
तो अदालत का
अपमान होगा।
और अगर अदालत
में मैं हार
गया तब तो कोई
सवाल ही नहीं।
बाहर आकर कहूंगा
अदालत में भी
हार गया, पहला
विवाद भी हार
गया, अब
कैसी फीस? जब
गुरु को यह
पता चला कि. . . .तो
उसने मुकदमा
खींच लिया
क्योंकि यह तो
. . . सेर को सवा
सेर मिल गया।
तर्क
का कोई अपना
पक्ष नहीं है।
तर्क इस अर्थ
में निष्पक्ष
है। वही तर्क
ईश्वर को
सिद्ध करता है, वही तर्क
ईश्वर को
असिद्ध करता
है। और संदेह
तर्क में जीता
है। लेकिन एक
दिन अगर तुम
संदेह में
जीते ही रहे, जीते ही रहे,
तो तुम्हें
यह समझ में आ
जाएगा कि तुम
तर्क के रेगिस्तान
में भटक गए हो,
जहां एक भी
मरूद्यान
नहीं——न वृक्ष
की छाया है
कोई, न दूब
की हरियाली है
कोई, न
पानी के झरने
हैं, न
पानी के झरनों
का संगीत है——तुम
एक सूखे
मरुस्थल में
भटक गए हो।
तर्क बिल्कुल
सूखा मरुस्थल
है। वहां घास
भी नहीं उगती।
तर्क में कोई
चीज नहीं
उगती। तर्क
में तो उगी
हुई चीजें हों
तो भी मर जाती
हैं। तर्क तो
जहर है।
मगर यह
अनुभव कैसे
आएगा? यह
तुम संदेह में
चलोगे तो ही
अनुभव आएगा।
और एक दिन जब
तुम संदेह में
चलते—चलते
संदेह से थक
जाते हो, संदेह
से ऊब जाते हो,
संदेह की
व्यर्थता देख
लेते हो, संदेह
की निस्सारता
अनुभव कर लेते
हो——तब
तुम्हारे मन
में एक नया
प्रश्न उठता
है कि मैं
अनुभव करके देखूं।
विचार करके
बहुत देखा, कुछ पाया
नहीं, हाथ
कुछ लगा नहीं,
खाली का
खाली हूं, अनुभव
करके देखूं,
जीवन निकला
जा रहा है।
यह
अनुभव की
आकांक्षा ही
श्रद्धा के
मंदिर की पहली
सीढ़ी है। और
जो अनुभव में
उतरेगा, जो
जानेगा आत्मा
को, वह
कैसे संदेह
करेगा!? जो
जानेगा
परमात्मा को,
वह कैसे
संदेह करेगा!?
नहीं, श्रद्धा में
संदेह नहीं उठ
सकता, मगर
श्रद्धा
सच्ची होनी
चाहिए, आंखवाली होनी
चाहिए। सब
संदेहों को
पार करके आई
हो। सब
संदेहों से निखर कर आई
हो। सब
संदेहों ने
धार रखी हो, पैना किया
हो पकाया हो।
इसलिए
मैं अपने
संन्यासियों
को कहता हूं
कि संदेह से
बचना मत, संदेह
को दबाना मत, संदेह से
भागना मत।
संदेह
श्रद्धा का
सेवक है, शत्रु
नहीं। हां, विश्वास का
शत्रु है
लेकिन
श्रद्धा का
सेवक है।
अगर
तुम मुझसे
पूछो तो
विश्वास, श्रद्धा
का शत्रु है; और संदेह, सेवक है।
जिसने
विश्वास कर
लिया, वह
कभी श्रद्धा
को उपलब्ध
नहीं होगा। जो
विश्वास से
हिंदू है, वह
कभी धार्मिक
नहीं होगा। और
जो विश्वास से
मुसलमान है, वह कभी
धार्मिक नहीं
होगा। उसने तो
झंझट ही नहीं
ली खोज की।
उसने तो बड़ी
सस्ती बातें
मान लीं, उधार
सत्य मान लिए।
दूसरों
के सत्य
तुम्हारे
सत्य न हो
सकते हैं, न कभी हुए
हैं——न कभी
होंगे। दूसरे
का सत्य
तुम्हारे लिए
सदा असत्य ही
रहेगा। सत्य
तो अपना ही
होता है, निज
का ही होता है,
स्वानुभव का होता है।
और जब सत्य स्वानुभव
का होता है, फिर कैसा
संदेह?
संतोष, श्रद्धा में
तो कोई संदेह
नहीं उठ सकता।
श्रद्धा तो
सारे संदेहों
को मारकर, सारे
संदेहों को
पार करके, सारे
संदेहों को
पीकर, आत्मसात
करके आई है, कुछ बचा ही
नहीं है कि अब
उठ सके। लेकिन
संदेह में
जरूर श्रद्धा
उठती है। अगर
तुम संदेह
करोगे तो एक न
एक दिन
श्रद्धा तक
पहुंच जाओगे।
जल्दी
श्रद्धा मत कर
लेना।
जल्दबाजी मत
करना। सस्ती
श्रद्धा मत कर
लेना। क्योंकि
पिता मानते
हैं, तुम
मत मान लेना।
हालांकि पिता
की बड़ी इच्छा
होती है कि वे
जो मानते हैं,
वह मत मान
लेना क्योंकि
अहंकार की
तृप्ति इसमें
है। तुम्हारे
पंडित—पुरोहित,
तुम्हारे
राजनेता जो
मानते हैं, उसको मत मान
लेना। उन सबकी
तो इच्छा यही
है कि जल्दी
से मानो।
और
इसका बड़ा
दुष्परिणाम
होता है
क्योंकि तुम न
मालूम कितने
तरह के लोगों
की बातें मान
लेते हो! वे
सभी मनवाने को
उत्सुक हैं।
उनकी किसी की
भी इच्छा नहीं
कि तुम संदेह
करो। क्योंकि
उनमें किसी की
भी हिम्मत
नहीं और
सामर्थ्य नहीं
कि तुम्हें
सत्य तक ले जा
सकें।
जो
तुम्हें सत्य
तक ले जा सकता
है, वही
तुम्हें
संदेह के लिए
स्वीकार
करेगा; आमंत्रण
देगा कि जाओ, संदेह करो, प्रश्न उठाओ,
जिज्ञासा
करो, चलो
हम खोजें, हम
खोज पर निकलें।
लेकिन जो खुद
ही डरे हुए
हैं, जिन्होंने
खुद ही बासे
और उधार
उच्छिष्ट, दूसरों
की टेबल से
गिर गए रोटी
के टुकड़े बीन
लिए हैं, वे
तुम से नहीं
कह सकते कि
संदेह करो। वे
तो खुद ही कंपे
हैं संदेह से।
वे तो खुद ही
डरे हैं संदेह
से। वे तो
तुम्हारी
छाती पर चढ़कर
तुम्हारे ऊपर
थोप देंगे
विश्वास को।
और
उनका थोपा हुआ
विश्वास
तुम्हारे लिए
भयंकर सिद्ध
होने वाला है।
क्योंकि बहुत
लोगों की चेष्टा
है——मां थोप
रही है अपने
विश्वास, पिता
थोप रहा है
अपने विश्वास,
भाई थोप रहा
है अपने
विश्वास, बहन
थोप रही है
अपने विश्वास
और रिश्तेदार,
नाते—रिश्तेदार
सब अपने
विश्वास थोप
रहे हैं। तुम न
मालूम कितने
शिक्षकों से पढ़ोगे
पहली कक्षा से
लेकर
यूनिवर्सिटी
की अंतिम कक्षा
तक, वे सभी
अपने विश्वास
तुम पर थोपेंगे।
फिर न मालूम
कितने
राजनेता हैं,
न मालूम
कितने अखबार
हैं, न मालूम
कितनी
किताबें हैं——सब
अपने विश्वास
थोपने को
उत्सुक हैं।
यह सब कचरा
तुम पर ऐसा लद
जाएगा, विरोधाभासी
कचरा, कि
तुम करीब—करीब
विक्षिप्त
दशा में जियोगे।
एक कुछ कहता
है, दूसरा
कुछ और कहता
है। और दोनों
एक बात फर राजी
हैं कि मानो
हमारी; हम
जो कहते हैं
ठीक कहते हैं।
हम तुम्हारे
हित में कहते
हैं। संदेह करना
मत; संदेह
किया कि भटक
जाओगे।
इस तरह
तुम्हारे
भीतर
विरोधाभासी
विश्वास इकट्ठे
हो जाते हैं——जो
तुम्हारे
जीवन को सोख
लेते हैं, तुम्हारे
रक्त को पी
जाते हैं। और
तुम्हारे भीतर
इतने विरोधी
स्वर इकट्ठे
हो जाते हैं
कि तुम्हें
समझ में ही
नहीं आता कि
कौन स्वर आत्मा
का है, कौन
स्वर
परमात्मा का
है! और ऐसी—ऐसी
बातें कही
जाती हैं कि
अगर तुम जरा
ही सोचोगे तो
बड़े हैरान हो
जाओगे। लोगों
से कहा जाता
है : ईमानदार
बनो और ईश्वर
पर भरोसा रखो।
अब ज़रा
सोचते हो इस
विरोधाभास को——ईमानदार
बनो और ईश्वर
पर भरोसा रखो !
अगर तुम
ईमानदार हो तो
भरोसा नहीं रख
सकते क्योंकि
भरोसे में तो
बेईमानी है।
अनुभव होगा तब
भरोसा होगा, उसके पहले
कैसे भरोसा!? अगर आदमी
ईमानदार है तो
नास्तिक
होगा। नास्तिक
ही हो सकता
है। क्योंकि
वह कहेगा : मैं
ईश्वर को
जानता नहीं, कैसे मानूं?
और अगर
ईश्वर को
मानेगा तो
ईमानदार नहीं
हो सकता। और
मजा देखते हो,
ईमान शब्द
का अर्थ ही
धर्म हो गया
है। मुसलमान
धर्म को ईमान
कहते हैं।
धर्म का अर्थ
विश्वास का
पर्यायवाची
हो गया।
ईमानदार
आदमी विश्वास
नहीं कर सकता, बेईमान ही
विश्वास कर
सकता है।
ईमानदार आदमी
तो प्रश्न
उठाएगा, हजार
प्रश्न
उठाएगा, कठिन
प्रश्न
उठाएगा; जिनके
जवाब न दिए जा
सकें ऐसे
प्रश्न
उठाएगा; जिनको
कोई शास्त्र
हल न कर सके
ऐसे प्रश्न
उठाएगा।
निश्चित ही
ऐसा व्यक्ति
कहीं भी पसंद
नहीं किया
जाएगा——न मां—बाप
पसंद करेंगे,
न गुरु पसंद
करेंगे, न
नेता पसंद
करेंगे, न
पंडित—पुरोहित—मौलवी
पसंद करेंगे,
कोई पसंद
नहीं करेगा
ऐसे आदमी को।
प्रश्न उठानेवाले
आदमी को कौन
पसंद करता है!
क्योंकि वह
तुम्हारे
अज्ञान को
प्रगट करवा
देता है। उसका
प्रश्न
तुम्हारे
अज्ञान को
बाहर ले आता
है। अपने ऊपर—ऊपर
तुमने जो
ज्ञान थोप रखा
है, वह
उसको खरोंच
देता है, और
भीतर से
अज्ञान को
बाहर निकाल
देता है। वह तुम्हारी
छाती पर चढ़कर
पूछता है : सच
में तुमने
ईश्वर को जाना
है? सच में
जाना है? वह
तुम्हें घबड़ा
देता है। वह
तुम्हें डरा
देता है। तुम
एकदम से कह भी
नहीं सकते कि
हां। तुम्हारी
हां में भी भय
होता है। जाना
तो नहीं है, तुमने तो
सिर्फ माना
है।
प्रश्न
उठाने वाले
लोगों को, संदेह करने
वाले लोगों को
कोई अच्छा
नहीं अनुभव
करता। उनसे
लोग नाराज
होते हैं। लोग
तो चाहते हैं
विश्वास करो;
हम जो कहें
उसे मानो।
क्योंकि
हमारी अगर
मानते हो तो
हमारे ज्ञान
को बल मिलता
है। और जब हम
देखेंगे कि
बहुत लोग
हमारी बात
मानते हैं तो
हमें लगेगा कि
हम जरूर ठीक
ही कह रहे
होंगे, यह
तभी तो इतने
लोग मानते हैं,
नहीं तो
कैसे इतने लोग
मान सकते थे!
यह बड़ा जाल है,
बड़ा षड़यंत्र
है। व्यक्ति
को अपने
अहंकार पर
भरोसा दिलाने के
लिए बहुत—से
लोगों को झूठ
में उतारना
पड़ता है, असत्य
में उतारना फड़ता है। मेरी
प्रक्रिया
बिल्कुल और है,
बिल्कुल
भिन्न है। मैं
मानता हूं, संदेह
व्यक्ति के
जन्म के साथ
पैदा होता है,
इसलिए
संदेह ईश्वर
का प्रसाद है,
उसकी भेंट
है। और संदेह
का ठीक—ठीक
उपयोग करोगे
तो एक दिन
अद्भुत
श्रद्धा का
जन्म होगा।
फिर कोई संदेह
न कभी उठेगा, न उठ सकता
है। और ऐसी
श्रद्धा ही मुक्तिदायी
है, जिसमें
संदेह असंभव
है।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान! उस दिन
आपको गोली
मारने की बात
सुनते ही मैं
रोती रही। ऐसे
तो मैं कभी
जिंदगी में किसी
की मौत पर भी
नहीं रोई! अब
तो सिर्फ आपकी
मौत की बात
सुनते ही कांप
उठती हूं।
क्यों? समझाइए।
सुमन
भारती!
संन्यास में
जो दीक्षित
हुए हैं उन्होंने
अपनी आत्मा
मुझसे जोड़ दी; उन्होंने
अपने को
मुझमें लीन कर
लिया, मुझको
अपने में लीन
कर लिया।
संन्यास का
यही तो अर्थ
है, हमने
द्वंद्व छोड़ा,
द्वैत छोड़ा,
दुई मिटाई,
दो से हम एक
हुए। शिष्य और
गुरु. . . .गुरु—परताप
साध की संगति. . .
.एक हो जाते
हैं। जितनी यह
एकता सघन होती
जाती है, उतना
ही सत्य प्रगट
होता जाता है।
और अभी
सत्य को प्रगट
होना है। अभी
सत्य के बहुत
सोपान चढ़ने
हैं। इसलिए
मेरे न होने
की बात पीड़ा
देगी। स्वभावतः
पीड़ा देगी।
अभी जो होना
है नहीं हुआ
है और कोई
सीढ़ी छीन ले!
और सीढ़ी पर हम
चढ़े थे और आधे ही
चढ़े थे! हम नाव
में बैठे ही
थे कि कोई नाव
छीन ले! हम
द्वार में
प्रविष्ट
होने को ही थे, हिम्मत, साहस
बांधा था कि
कोई दरवाजा
बंद कर दे——तो
धक्का लगेगा,
तो पीड़ा
होगी।
तो तू
ठीक कहती है
कि मैं किसी
की मृत्यु पर
भी कभी नहीं
रोई। किसी की
मृत्यु पर कौन
रोता है? जब
भी लोग रोते
हैं तो दूसरे
की मृत्यु पर
नहीं रोते, दूसरे की
मृत्यु को
देखकर अपनी
मृत्यु की याद
आती है, उस
पर रोते हैं।
कौन किसकी
मृत्यु पर
रोता है? न
तुम दूसरों की
खुशियों
से खुश हो, न
दूसरों के
दुखों से दुखी
होते। हां, दिखाते हो——औपचारिक,
शिष्टाचारवश दो आंसू भी
बहाते हो, मुस्कराते
भी हो। कोई मर
जाता है तो रो
भी लेते हो।
रोना पड़ता है।
न रोओ तो लोग
कहेंगे बड़े कठोर
हो, पत्थर
हो, पाषाण
हो। नहीं
चाहते कि कोई
पाषाण
तुम्हें कहे,
तो रो लेते
हो।
एक घर
में मैं
मेहमान था। उस
घर में मृत्यु
हो गई। घर की
जो महिला थी——सर्दियों
के दिन थे, मैं बाहर
बैठा था——उसने
मुझे आकर कहा
कि आप बाहर
बैठे हैं, लोग
आएंगे बैठने,
तीन दिन
पूरे हो गए अब
लोग आएंगे
बैठने, मैं
भीतर रहूंगी,
आप यह घंटी
बजा देना!
मैंने
कहा : घंटी
बजाने से क्या
प्रयोजन?
उसने
कहा : बस, घंटी
बजाते ही मैं
दहाड़ मारकर रोऊंगी।
रोना बिल्कुल
जरूरी है, नहीं
तो लोग क्या
कहेंगे कि घर
में मौत हो गई. . .
.।
मैंने
यह चमत्कार
देखा कि वह
मजे से काम
करती रहती, सब ठीक—ठाक
चलता रहता और
जैसे कोई आया
और मैंने घंटी
बजाई. . . .।
पहली बार तो
कोई आया ही
नहीं था, मैंने
घंटी बजाई
और खुद ही
भीतर पहुंचा।
उसने तो घूंघट
मार लिया और
दहाड़ मारकर
रोने लगी।
मैंने कहा :
रुक, मैं
तो सिर्फ
परीक्षा के
लिए . . . । उसने
घूंघट में से
देखा और हंसने
लगी। कहा :
आपने भी हद कर
दी!
एक
शिष्टाचार
है। कौन किसके
लिए रोता है? जब पत्नी
पति के लिए
रोती है तो
पति के लिए
थोड़े ही रो
रही है। उसके
भीतर पति ने
कुछ जगह बना ली
थी जो खाली हो
गई—— वह खाली
जगह काटती है,
वह जब तक भर
न जाएगी तब तक
रोएगी। वह उस
खाली जगह के
लिए रो रही
है। पति के
साथ वर्षो रही,
इन वर्षो
में पति ने एक
स्थान उसके घर
के भीतर ही
बना लिया था——उसके
भीतर, आत्मा
में। एक जगह
सुरक्षित हो
गई थी पति के लिए,
पति के हटते
ही वह जगह
खाली हो गई।
वह खाली घाव रिसता
है, दुखता
है।
उपनिषद्
कहते हैं : पति
पत्नी के लिए
नहीं रोते, पत्नियां पतियों
के लिए नहीं रोतीं।
पति पत्नी को
प्रेम नहीं
करते, पत्नियां पतियों
को प्रेम नहीं
करतीं। यहां
सभी अपने
प्रेम में पड़े
हैं। यहां सब
अपने अहंकार
की पूजा में लगे
हैं। तुम
पत्नी को थोड़े
ही प्रेम करते
हो! ज़रा
गौर से देखो
तो वाया
पत्नी अपने को
ही प्रेम करते
हो——वाया।
सीधे—सीधे
कैसे करो, बीच
में कुछ
चाहिए। जैसे
दर्पण से अपने
को ही देखते
हो, बिना
दर्पण के अपनी
तस्वीर कैसे देखोगे? कोई दर्पण
के सामने खड़ा
है तो तुम यह
थोड़े ही कहते
हो कि दर्पण
को देख रहा
है। दर्पण को
कौन देखता है?
दर्पण के
द्वारा, वाया
अपने को देखता
है। ऐसे ही
पत्नी जब
तुम्हें देखकर
एकदम
प्रफुल्लित
हो जाती है तो
तुमने दर्पण
में अपनी छवि
देखी। पत्नी
भागी—भागी आती
है, पैर
धोती है, जूते
उतारती है——अहा!
तुमने दर्पण
में अपनी छवि
देखी।
मुल्ला
नसरुद्दीन
कह रहा था अपने
मनोवैज्ञानिक
को कि हालतें
बिल्कुल बदल
गई हैं और
जिंदगी बरबाद
हुई जा रही
है। पहले जब
मैंने शादी की
थी, तीन साल
ही हुए, जब
मैं घर आता
सांझ को तो
पत्नी दौड़कर
मेरी जूतियां
उतारती थी और
पत्नी का
कुत्ता भौंकता
था। अब हालत
बिल्कुल बदल
गई। अब पत्नी भौंकती है और
कुत्ता मेरा
जूता खींचता
है।
लेकिन
मनोवैज्ञानिक
ने कहा : मैं
नहीं समझता, सेवाएं तो
वही की वही
मिल रही हैं, हर्ज क्या
है? पहले
पत्नी जूता
उतारती थी, कुत्ता
भौंकता था; अब कुत्ता
जूता खींचता
है, पत्नी भौंकती
है। तुम्हें
फर्क क्या पड़
रहा है? तुम्हें
सेवाएं वही की
वही मिल रही
हैं।
पत्नी
में तुम अपनी
तसवीर देखते
हो। पति घर आया, गहने ले आया,
फूल ले आया,
आइसक्रीम
ले आया, मिठाइयां
ले आया——पत्नी
को अपनी तसवीर
दिखाई पड़ती है——अहा!
तो अभी भी
मुझे प्रेम
करते हैं, तो
अभी भी मुझे
चाहते हैं।
हालांकि जो
बहुत होशियार पत्नियां
हैं, उनको
इससे संदेह हो
जाता है कि
रोज तो
आइसक्रीम
लाते नहीं हैं,
आज
आइसक्रीम
लाएं हैं, जरूर
कुछ गड़बड़ है, दाल में कुछ
काला है। जरूर
दफ्तर में
किसी स्त्री
से ज़रा
प्रेमपूर्ण
वार्ता की
होगी, अपराधभाव अनुभव हो
रहा है तो
आइसक्रीम ले
आए हैं। ऐसे तो
रोज साड़ी
खरीदकर नहीं
लाते, आज साड़ी खरीद
लाए हैं, जरूर
कहीं दाल में
काला है। जो
बहुत कुशल पत्नियां
हैं, पहुंची
हुई पत्नियां
हैं, सिद्ध
पत्नियां
हैं, वे
ऐसे आसानी से
नहीं छोड़ेंगी,
उनको कुछ और
दिखाई पड़ता
है। वे दर्पण
में बहुत गहरे
देखती हैं। वे
दर्पण के
अंतस्तल तक देखती
हैं, उसके
अचेतन तक
देखती हैं।
मगर
ध्यान रखना, तुम चाहे
खुश होओ, चाहे
नाराज, दूसरे
का उपयोग तुम
दर्पण की तरह
करते हो। सब संबंध
दर्पण हैं। न
तो कोई किसी
को प्रेम करता
है, न कोई
किसी को. . . .किसी
भी अर्थो
में किसी से
किसी का कोई
संबंध नहीं
है। हम सब घूम—फिरकर
अपने पर लौट
आते हैं।. . .
.इसलिए कौन
रोता है किसके
लिए सुमन!
लेकिन
मेरी मौत की
बात सुनकर
तुझे लगता है
कि तू कांप
उठती है। उसका
कारण साफ है।
मेरे साथ एक
यात्रा पर
निकली है।
यात्रा——जो
अभी अधूरी है।
यात्रा——जो
मेरे साथ भी
पूरी होनी
बहुत कठिन है, क्योंकि
हजार—हजार
बाधाएं हैं——तेरी
ही तरफ से
बाधाएं हैं।
मगर अभी भरोसा
है कि मैं हूं
तो कल पर टाला
जा सकता है।
लेकिन यह सुनकर
कि कोई मुझे
गोली मार दे, तेरा हृदय
धक से हो
जाएगा, तुझे
गोली अभी लग
जाएगी। तो फिर
तेरा क्या होगा!
अभी तो कुछ
यात्रा हुई न
थी।
बुद्ध
जब मरने लगे
और आनंद जब
रोने लगा तो
तुम ज़रा
उन दोनों की
वार्ता पर
ध्यान देना।
चालीस साल
बुद्ध के साथ
रहा, बुद्ध के
मरने पर रोने
लगा——अभी मरे
नहीं हैं, बुद्ध
ने कहा कि बस
अब मैं छोड़ता
हूं यह देह। किसी
को कुछ पूछना
हो तो पूछ ले।
तो आनंद एकदम
रोने लगा। कभी
रोया न था, क्षत्रिय
था, राजपुत्र
था, बुद्ध
का चचेरा भाई
था। बुद्ध ने
कभी उसकी आंख
में आंसू न
देखे थे। न
मालूम कितने
भिक्षु मरे, न मालूम
कितने
भिक्षुओं को
दफनाया गया, वह कभी रोया
नहीं था। आज
अचानक रोने
लगा। बुद्ध ने
कहा : आनंद
तेरी आंखों
में आंसू और
तू रोता है, क्यों?
तो
उसने कहा : अब
तक तो भरोसा
था कि आप हैं
तो त्राण हो
जाएगा। आप हैं
तो कोई—न—कोई
उपाय हो
जाएगा। अब तक
तो यह भरोसा
था कि दीया जल
रहा है, अगर
मेरी आंखें
नहीं खुली हैं
तो आज नहीं कल,
कल नहीं
परसों, एक
न एक दिन खुलेंगी
और मैं भी
रोशनी से भर जाऊंगा।
अब आप चले, मेरा
क्या होगा?
ज़रा
ख्याल करना, आनंद भी
बुद्ध के मरने
पर नहीं रो
रहा है——आप चले,
मेरा क्या
होगा? आनंद
तो अपने लिए
रो रहा है। उपनिषद्
ठीक कहते हैं।
साधारण पति—पत्नियों
की तो बात छोड़
दो, चालीस
वर्ष तक बुद्ध
के सत्संग में
रहने के बाद
भी, निकटतम
शिष्य होकर भी,
आनंद यह
कहता है कि
मेरा क्या
होगा, आप
तो चले। इसमें
शिकायत कहीं
ज्यादा है।
इसमें यह है
कि आप तो धोखा
दे चले। कि आप
तो अपने वचन
छोड़ चले। कि
आपके
आश्वासनों का
क्या हुआ? कि
आपने इतने
प्रलोभन दिए
थे, उन
सबका क्या हुआ?
वायदों का
क्या हुआ? आपके
वायदों पर तो
जीए अब तक और
अब आप चले, मेरा
क्या होगा? अगर गौर से
देखा तो आनंद
अपने लिए रो
रहा है।
मगर
मैं इसमें कुछ
निंदा नहीं कर
रहा हूं, यह
स्वाभाविक
है। न रोए
आनंद तो क्या
करे! चालीस
साल इस आदमी
के चरणों में
समर्पित कर
दिए! और अभी
सीढ़ी का अंत
नहीं आया और
सीढ़ी गिरने
लगी, और
सीढ़ी डगमगाने
लगी। अभी नाव
उस किनारे
नहीं लगी और
मझधार में
डूबने लगी।
स्वाभाविक
है।
सुमन, तुझे भी जो
धक्का लगा, वह
स्वाभाविक
है। उस धक्के
के लिए बैठकर
बहुत सोच—विचार
न करो, उस
धक्के का
उपयोग कर लो।
यह तो किसी ने
प्रश्न ही
पूछा था। यह
कोई गोली मार
देनेवाला
व्यक्ति नहीं
है जिसने
प्रश्न पूछा।
गोली मार
देनेवाले
व्यक्ति कहीं
प्रश्न पूछते
हैं? पागल
हुए हो।
प्रश्न पूछकर
झंझट खड़ी
करेंगे? प्रश्न
पूछकर कोई
गोली मारता है?
प्रश्न
पूछकर गोली
मारेगा तो कल जेलखाने
में होगा। फिर
पूछनेवाले
ने तो यही कहा
था कि मेरे मन
में आपके
प्रति बड़ा
प्रेम है और
साथ—ही—साथ
कभी—कभी घृणा
उठती है। आपके
प्रति बहुत
लगाव है लेकिन
कभी—कभी ऐसा
भी हो जाता है,
इतनी घृणा
उठती है कि
लगता है गोली
मार दूं। यह
तो सिर्फ
प्रश्न ही
उसने पूछा है,
सिर्फ लगता
है। यह कोई
गोली मारनेवाला
नहीं है, अपना
संन्यासी है।
यह गोली मार
नहीं सकता, यह पत्थर
नहीं मार सकता,
गोली की तो
बात दूर। यह
फूल नहीं मार
सकता, गोली
की तो बात
दूर। यह तो
इसने अपने भाव
निवेदन किए
हैं। यह तो
स्पष्टता से,
साफ—साफ
अपनी बात कही
है——कि प्रेम
इतना फिर भी
ऐसा क्यों
होता है?
प्रेम
इतना है इसीलिए
ऐसा होता है।
क्योंकि
हमारा जो
प्रेम है वह
घृणा से मुक्त
नहीं होता है।
वह घृणा का ही
दूसरा पहलू
है। हमारा
प्रेम जितना
सघन होता है, उतनी ही
हमारी घृणा भी
सघन होती है।
दोनों में
संतुलन रहता
है। एक और
प्रेम है——बुद्धों
का प्रेम, पर
वह तो
बुद्धत्व के
बाद होता है, उस प्रेम
में घृणा का
कोई नाममात्र
भी नहीं होता।
उस प्रेम में
सिर्फ प्रेम
होता है। ऐसा
समझो कि तुम
गीली लकड़ियां
जलाओ तो उसमें
से धुआं उठता
है। अगर लकड़ियां
बहुत गीली हों
तो धुआं ही
धुआं उठता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन बहुत
नाराज हो गया।
किसी बात पर पत्नी
से झंझट हो गई
थी। गुस्से
में एकदम बोला
कि इस घर को आग
लगा दूंगा।
उसका छोटा
बेटा जो कोने
में बैठा था, वह हंसने
लगा। मुल्ला
को और क्रोध
आया। उसने कहा
: तू क्यों हंस
रहा है? उल्लू
के पट्ठे, तू
क्यों हंस रहा
है?
तो
उसने कहा : मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि आपसे
चूल्हा तो
जलता नहीं, घर में आग
लगाने चले!
असल में
चूल्हा नहीं
जलता उसी के
झगड़े से तो आप
घर में आग
लगाने की बात
कर रहे हैं।
चूल्हा जलाने
को पत्नी ने
कहा था, वह
नहीं जला, उसी
पर झगड़ा
बढ़ा। अब आप कह
रहे हैं : घर
में आग लगा
दूंगा! देखें!
इसलिए मुझे
हंसी आ गई।
अगर
लकड़ी बहुत
गीली हो तो आग
तो पैदा होगी
ही नहीं, धुआं
ही धुआं पैदा
होगा। लकड़ी
जितनी सूखी हो
उतना कम धुआं
पैदा होता है।
और लकड़ी अगर
बिल्कुल सूखी
हो तो धुआं
पैदा ही नहीं
होता, निर्धूम
अग्नि जलती
है। इसका अर्थ
क्या हुआ? इसका
अर्थ हुआ लकड़ी
से धुआं पैदा
नहीं होता, लकड़ी में जो
पानी पड़ा है, उससे धुआं
पैदा होता है।
धुआं पानी से
पैदा होता है,
लकड़ी से
पैदा नहीं
होता। भूलकर
भी मत सोचना
कि लकड़ी से
धुआं पैदा
होता है। आग
से धुआं पैदा
नहीं होता, धुआं पैदा
होता है गीलेपन
से, आर्द्रता
से।
मनुष्य
का जो प्रेम
है वह गीली
लकड़ी जैसा है।
उसमें प्रेम
भी है और
उसमें घृणा भी
है। और इसलिए
बहुत धुआं
पैदा होता है।
आग तो जलती
कहां——धुआं ही
धुआं होता है।
प्रेम के नाम
से भी आग कहां
जलती है? आग
ही जल जाए तो
तुम कुंदन हो
जाओ। धुआं ही
धुआं पैदा
होता है, आंखें
खराब हो जाती
हैं।
ज़रा
प्रेमियों को
तो देखो : लड़ते—झगड़ते
ज्यादा हैं, प्रेम वगैरह
कहां! धीरे—धीरे
उसी लड़ने—झगड़ने
को प्रेम
समझने लगते
हैं। फिर किसी
दिन वह लड़ना—झगड़ना न हो
तो खाली—खालीपन
लगता है, तलब
पैदा होती है।
पत्नी मायके
चली जाए तो एक—दो
दिन अच्छा
लगता है, फिर
तलब पैदा होती
है। तलब किस बात
की? तलब इस
बात की कि कोई झगड़ा न कोई
झांसा। घर में
बैठे हैं
बुद्धू की
तरह। अब उसी
अखबार को
कितनी बार पढ़ो!
पत्नी होती तो
कोई रंग
निकलता। बात
में से बात
उठती। थोड़ा घर
में शोरगुल
रहता। थोड़ी
आवाज होती।
थोड़े बर्तन
बजते। थोड़ी
प्यालियां गिरतीं और टूटतीं।
कुछ होता
मालूम होता।
जिंदगी में
कुछ चहल—पहल
होती। पत्नी
चली गई मायके. .!
ऐसे
सोचते बहुत थे
कि कभी मायके
चली जाए तो अच्छा, थोड़ी शांति
हो। मगर दिन, दो दिन में
सब शांति अखरने
लगती है, खलने
लगती है। चिट्ठियां
लिखने लगते
हैं, प्रेम—पातियां
लिखने लगते
हैं। और पत्नी
भी भरोसा कर
लेती है इन
प्रेम—पातियों
पर! और ये
उन्हीं सज्जन
की प्रेम—पातियां
हैं जिनको दो
दिन पहले
पत्नी छोड़कर
आई है। वे भी
जब प्रेम—पातियां
लिखते हैं तो . . .
.चिट्ठियां
तो लोग गजब की
लिखते हैं। चिट्ठियां
ही लिखनी हैं
तो उसमें फिर
क्या कंजूसी
करनी ! दिल खोलकर
कविताएं उड़ेल
देते हैं। जो
कवि नहीं हैं,
वे भी चिट्ठियां
लिखते वक्त
एकदम कवि हो
जाते हैं।
और बड़ा
मजा है कि
जिनका अनुभव
तुम्हारे
बाबत बिल्कुल
विपरीत है वे
भी भरोसा करते
हैं। पति कहता
है कि तेरे
बिना मन नहीं
लगता और पत्नी
एकदम मान लेती
है——अहा! मेरे
बिना मन नहीं
लगता, मैंने
पहले ही कहा
था, लाख
समझाया था कि
जाऊंगी तब तड़फोगे,
रोओगे।
इसलिए तो पत्नियां
अक्सर धमकी
देती हैं कि
मर ही जाऊंगी।
उनकी धमकी का
मतलब है कि
फिर पछताओगे।
फिर रोओगे। फिर
सिर धुनोगे।
फिर याद
करोगे। और वे
ठीक ही कह रही
हैं। पति भी
यही सोचते हैं
कि अगर मर
जाऊं तो इसको
पता चलेगा। जब
तक हूं तब तक
जान खा रही
है। जिस दिन
मर जाऊंगा,
उस दिन याद
करेगी। उस दिन
कब्र पर फूल चढ़ाएगी, दीए जलाएगी।
उस दिन जार—जार
रोएगी।
लेकिन
न कोई मरता——न
पत्नी मरती, न पति मरते। पत्नियां
भी मरने का
उपाय करती हैं
तो दवा की गोलियां,
नींद की
गोलियां खा
लेती हैं, मगर
हमेशा इतनी, जितने में
बच जाएं। दस
महिलाएं दवा
की गोलियां
खाती हैं, एक
मुश्किल से
मरती है दस
में से। पति
भी मरने के
बहुत उपाय
करते हैं मगर
मरते—करते
नहीं। घर से
निकल जाते हैं
कि चला छोड़कर।
ऐसा चक्कर
लगाकर
मोहल्ले का, थोड़ी गपशप
करके घर वापिस
आ जाते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन ऐसे ही
चला गया घर
छोड़कर। बस अब
चला। उसने कहा
: हो गया सब
खत्म। चला जाऊंगा, लेट जाऊंगा
ट्रेन के आगे
और मर जाऊंगा।
पत्नी
ने कहा : जाओ
भी।
मैं घर
बैठा था।
मैंने कहा कि
ऐसे मत भेजो।
उसने
कहा : तुम ठहरो
तो, तुम ज़रा
देखो तो। जाने
भी दो। जाओ!
मुल्ला
थोड़ी देर में
वापिस आ गया।
मैंने
पूछा : क्यों?
उसने
कहा कि पानी
गिरने लगा और
बिना छतरी लिए
ही चला गया।
अब
जिसको मरने
जाना है वह
कोई छतरी की
फिक्र करता
है!
एक दिन
तो मैंने सुना
है कि वह
बिल्कुल
पहुंच ही गया
रेल पर। दो
पटरियां थीं
रेल की। दोनों
को गौर से देखा, फिर एक पर
लेट रहा।
एक
चरवाहा जो पास
में ही खड़ा
अपनी भेड़ें, गाय इत्यादि
चरा रहा था, उसने भी
देखा उसे
लेटते हुए। वह
भी हैरान हुआ कि
दोनों को उसने
जांचकर
देखा कि किस
पटरी पर लेटना
है। फिर उसने
पूछा कि मेरे
मन में एक
जिज्ञासा
उठती है, अब
आप तो जा ही
रहे हैं
दुनिया से, यह मेरे मन
में सवाल उठता
है कि आपने
बड़ी जांच—पड़ताल
की कि किस
पटरी पर लेटना
है।
उसने
कहा कि जांच—पड़ताल
न करूं तो
क्या बिना
जांच—पड़ताल
किए ही लेट
जाऊं? यह
पटरी जंग खाई
हुई है, इस
पर ट्रेन आती
ही नहीं। जंग
के हिसाब से
लेटा हूं। वह
दूसरी पटरी
चमक रही है
बिल्कुल, साफ
मामला, फैसला
हो जाएगा।
और उस
आदमी ने पूछा, जब आप जवाब
देने को राजी
हैं तो एक
सवाल और कि यह
टिफिन किसलिए
लाए हैं?
उसने
कहा कि और
कहीं ट्रेन
लेट हो जाए, तो भूखे ही
मर जाएं?
टिफिन
लेकर मरने आए
हैं?
न कोई
मरता. . . .लेकिन
धमकियां चलती
हैं। धमकियां
ये इसलिए दी
जाती हैं कि
देखें दूसरे
पर क्या असर
होता है! पति—पत्नी
कलह ही कर रहे
हैं——चौबीस
घंटे कलह। इसी
कलह में कभी—कभी, बीच—बीच
प्रेम के भी
क्षण होते हैं,
बस पानी के
बबूलों की तरह
फूट—फूट जाते
हैं। तुम जिस
प्रेम को
जानते हो, वह
यही प्रेम है।
तुम
मुझसे भी
प्रेम करोगे
तो स्वभावतः
यही प्रेम
होगा पहले तो
और तुम
दूसरे
प्रेम लाओगे
कहां से! तो
तुम्हारे
प्रेम में
सम्मान भी
होगा और गहरा
छिपा हुआ कहीं
विरोध भी
होगा।
तुम्हारे
प्रेम में
प्रेम भी होगा
और घृणा भी होगी।
तुम एक तरफ से
मित्र भी
रहोगे, एक
तरफ से शत्रु
भी।
मगर यह
कोई हैरानी की
बात नहीं है, यह
स्वाभाविक
है। रमते रहे,
जमते रहे, उठते रहे, बैठते रहे
तो धीरे—धीरे
निखार लेंगे।
पानी को उड़ा
देंगे, लकड़ियों को सुखा
लेंगे।
सत्संग का काम
ही इतना हैः लकड़ियों
को सुखा देना।
गुरु—परताप
साध की संगति!
बैठते—बैठते लकड़ियां
सूख जाएंगी।
ऐसा सूखा
काष्ठ हो
जाएगा कि फिर आग
उठेगी तो धुआं
नहीं होगा।
निर्धूम
अग्नि प्रेम
का शुद्धतम
रूप है।
सुमन, जिसने पूछा
था प्रश्न कि
कभी ऐसी घृणा
उठ आती है, उसने
कुछ अपनी ही
बात नहीं कही,
तुम सबकी बात
कही।
तुम्हारे मन
में भी उठ आती
है। मैं ऐसे संन्यासियों
को जानता हूं
जो स्वभावतः
बड़ी अपेक्षाएं
रखते हैं; फिर
कभी अपेक्षा
पूरी नहीं हुई,
क्रोध में आ
जाते हैं।
माला निकालकर
फेंक दी, फिर
उठाकर सिर से
लगा लेते हैं,
फिर जल्दी
से पहन लेते
हैं। मैं ऐसे
संन्यासियों
को जानता हूं,
तसवीर
निकालकर घर के
बारह फेंक दी,
फिर दस—पांच
मिनट बाद
पहुंचे जल्दी
से घुटने टेककर
नमस्कार किया,
माफी मांगी,
फिर तसवीर
लाकर वापिस
टांग दी। अब
चूंकि अपराध—भाव
भी पैदा हुआ
तो दीया भी
जलाया और फूल
भी चढ़ा दिए।
मुझे खुद
संन्यासी आकर
कह जाते हैं
कि यह सब होता
है। ऐसा कभी
हो तो नाराज न
होना। मैंने
कहा : मैं
फिक्र ही नहीं
करता तुम चाहे
फूल चढ़ाओ
तो और तुम
चाहे फेंको
तो। तसवीर
तुम्हारी है और
तुम्हारे मन
का दर्पण है, मेरा उससे
क्या लेना—देना!
लेकिन
ये स्वाभाविक
चित्त की
दशाएं हैं
क्योंकि
चित्त हमेशा द्वंद्वात्मक
है। चित्त में
हमेशा
द्वंद्व है।
चित्त में
हमेशा
विपरीतता बनी
रहती है। इस चित्त
के पार जब
उठोगे तो
विपरीतता चली
जाएगी। जब
चित्त शून्य
होओगे, जब
ध्यानपूर्ण
होओगे, तब
तुम्हारे पास
प्रेम होगा——जिसमें
घृणा नहीं
होगी, श्रद्धा
होगी; जिसमें
संदेह नहीं होगा,
आनंद होगा;
जिसमें दुख
की छाया भी
नहीं पड़ती ।
वह दिन भी आएगा।
लेकिन आज ही आ
जाए इतनी
तुम्हारी
सामर्थ्य
नहीं, इतनी
तुम्हारी
तीव्रता नहीं,
इतनी
तुम्हारी
प्रज्वलित
अभीप्सा
नहीं।
नहीं, दुख न करना।
जिसने कहा कि
कभी—कभी गोली
मार देने का
मन होता है, वे कोई गोली
मारने वाले
नहीं हैं।
गोली शायद
उनके पास होगी
भी नहीं। कोई
बंदूक हाथ में
दे दे तो
शायद समझ में
भी नहीं आएगा
कि कैसे चलाएं।
यह तो सिर्फ
भाव की बात
कही है
उन्होंने।
और यह
नाराजगी
इसलिए हो जाती
है कि
अपेक्षाएं बहुत
कर लेते हैं।
कोई यहां आ
जाता है, सोचता
है बस
आत्मज्ञान
लेकर जाना है।
फिर आठ—दस दिन
ध्यान किया और
आत्मज्ञान
नहीं हुआ, तो
नाराज न हो तो
क्या करे!
क्रोध से भर
जाता है क्योंकि
वह यह सोचकर
आया था कोई
दूसरा आत्मज्ञान
उसको देगा।
जैसे मैं उसे
आत्मज्ञान
दूंगा। मुझे
लोग पत्र
लिखते हैं कि
हम आपके द्वार
से खाली जा
रहे हैं। जैसे
कि...भिखारियों
की तरह सोचते
हैं, जैसे
कि उनका भिक्षापात्र
मैं भर दूं।
उन्हें अपने
पर बिल्कुल
भरोसा ही नहीं
रहा है। कि
तुम भिखारी
नहीं हो, तुम्हारा
भिक्षापात्र
भरना नहीं है;
तुम भरे ही
हुए हो, इसकी
प्रत्यभिज्ञा—भर
करनी है, इसकी
पहचान—भर
करानी है। तुम
मालिक हो, स्वामी
हो, सम्राट
हो, अनंत
धन के धनी हो——सिर्फ
याद दिलानी
है। मुझे कुछ
तुम्हें देना
नहीं है। देने
को कुछ है
नहीं, लेने
को कुछ है
नहीं।
तुम्हें जो
मिलना चाहिए वह
मिला ही हुआ
है, सिर्फ
याद दिलानी
है।
मगर
याद तो न
करेंगे; यहां
इस आशा में
बैठे रहेंगे
कि आशीर्वाद
कोई दे दे
और मिल जाए सब,
भर जाए झोली
और चलें घर!
ऐसा नहीं होगा
तो नाराजगी
पैदा होती है।
तो क्रोध पैदा
होता है।
जितनी
ज्यादा
अपेक्षा होगी, उतनी ज्यादा
निराशा होगी,
उतना
ज्यादा क्रोध
होगा, उतनी
घृणा पैदा
होगी।
अपेक्षा न
करो। मेरे पास
निरपेक्ष—भाव
से बैठो।
निरपेक्ष—भाव
से बैठने वाला
ही संगति करता
है, सत्संग
करता है। न
कुछ चाहिए है,
न कुछ चाहने
का सवाल है।
जो है काफी है,
पर्याप्त
है। जितना है,
उतना जरूरत
से ज्यादा है।
जो है उसके
लिए परमात्मा
को धन्यवाद
देना है। जो
मिला है उसके
लिए अनुग्रह
से झुकना है।
फिर घृणा पैदा
नहीं होगी, फिर विरोध
पैदा नहीं
होगा।
लेकिन
तेरी बात मैं
समझा, तू
कहती है कि उस
दिन आपको गोली
मारने की बात
सुनते ही मैं
रोती रही। ऐसे
तो मैं कभी
जिंदगी में
किसी की मौत
पर नहीं रोयी!
अब तो सिर्फ
आपकी मौत की
बात सुनते ही
कांप उठती
हूं। क्यों? कृपया समझाइए।
पहली
बार तुझे
प्रेम हुआ।
पहली बार किसी
ने तेरे हृदय
पर फूल उगाए।
पहली बार किसी
ने तेरे हृदय
के तारों को
छुआ है, छेड़ा है। पहली
बार किसी का
जीवन तेरे लिए
मूल्यवान
हुआ। पहली बार
किसी के जीवन
से तेरे जीवन
का नाता हुआ
है। पहली बार
किसी के साथ
अपनत्व, एकात्मता,
आत्मीयता, निकटता की
प्रतीति हुई
है, इसलिए।
मैं
पलकों में पाल
रही हूं,
यह
सपना सुकुमार
किसी का!
जाने
क्यों कहता है
कोई
मैं
तम की उलझन
में खोई,
धूममयी
वीथी—वीथी में,
लुक—छिपकर
विद्युत्—सी
रोई;
मैं
कण—कण में ढाल
रही अलि,
आंसू
के मिस प्यार
किसी का!
मैं
पलकों में पाल
रही हूं,
यह
सपना सुकुमार
किसी का!
रज
में शूलों
का मृदु चुंबन,
नभ
में मेघों का
आमंत्रण,
आज
प्रलय का
सिंधु कर रहा,
मेरी
कंपन का
अभिनंदन;
लाया
झंझा—दूत सुरभिमय,
सांसों
का उपहार किसी
का!
मैं
पलकों में पाल
रही हूं,
यह
सपना सुकुमार
किसी का!
पुतली
ने आकाश
चुराया,
उर
ने विद्युत्—लोक
छिपाया,
अंगराग—सी
है अंगों में
सीमाहीन
उसी की छाया;
अपने
तन पर भाता है
अलि,
जाने
क्यों श्रृंगार
किसी का!
मैं
पलकों में पाल
रही हूं,
यह
सपना सुकुमार
किसी का!
पहली
बार तूने जगत
के पार का एक
सपना देखा है।
पहली बार मेरी
आंखों से झांका
है, मेरे
झरोखे से देखा
है। और जीवन
में एक नया रंग,
एक नयी गंध,
एक नया गीत
उठा है। इस
गीत की अभी कड़ियां
जमने को हैं।
यह साज अभी
पूरा सजा नहीं,
यह साज अभी
पूरा बैठा
नहीं! तार छिड़
गए हैं लेकिन
वीणा अभी कसी
जानी है। कोई
तार ढीला है, कोई तार ज्यादा
कसा है——साज
अभी बिठाना
है। मृदंग पर
थाप पड़ गयी है,
पहली—पहली
आवाज आ गयी
है। पर अभी
बहुत दूर जाना
है, बहुत
दूर देश की
यात्रा है।
पुकार तो
सुनायी पड़ गयी
है, लेकिन
पुकार अंत
नहीं है, प्रारंभ
है।
और
इसलिए अगर
तुझे कोई कहे
कि मुझे
समाप्त कर देगा।
तो तेरा क्या
होगा? यह जो
झंकृत तेरी
वीणा है, यह
क्या बस झंकृत
ही रह जाएगी? यह झंकार भी
फिर खो जाएगी।
तेरा मन कहेगा
: नहीं, अभी
कुछ देर और।
अभी
मुझे
कुछ हो लेने
दो। अभी मुझे
कुछ बन लेने
दो। अभी मुझे
कुछ पा लेने
दो। यह गीत
पूरा हो जाए।
ये कड़ियां
पूरी बैठ
जाएं। यह संगीत
पूरा जग जाए।
यह स्वाद तो
पूरा हो जाने
दो।
मिट्टी
की इमारत साया
देकर मिट्टी
में हमवार हुई।
वीरानी
से अब काम है
और वीरानी
किसकी यार
हुई।।
डर—डर
के कदम यूं
रखता हूं ख्वाबों
के सहरा में
जैसे।
ये
रेग अभी ज़ंजीर
बनी, ये
छांव अभी दीवार
हुई।।
हर
पत्ती बोझल हो
के गिरी, सब शाखें
झुककर टूट
गईं।
उस
बारिश ही से फ़स्ल उजड़ी
जिस बारिश से
तैयार हुई।।
छूती
है ज़रा तन
को जो हवा
चुभते हैं रगों
में कांटे से।
सौ
बार ख़िज़ां
आई होगी, महसूस मगर
इस बार हुई।।
वो
नाले हैं बेताबी
के चीख़
उठता है
सन्नाटा भी।
ये
दर्द की शब
मालूम नहीं कब
तक के लिए
बेदार हुई।।
अब
ये भी नहीं है
बस में कि हम
फूलों की डगर
पर लौट चलें।
जिस
राहगुज़र
पर चलना है, वो राहगुज़र
तलवार हुई।।
अब
गैर हवा कितनी
ही चले अब
गर्म फ़ज़ा
कितनी ही रहे।
सीने
का ज़ख्म चिराग़ बना, दामन की आग
बहार हुई।।
सुमन, अब लौटने का
तो कोई उपाय
नहीं, घबड़ा
मत। मैं रहूं
या न रहूं, जो
गीत तुझमें
जन्मा है, वह
पूरा होगा। जो
स्वर तुझमें
पैदा हुआ है, वह संपूर्ण
होगा।
अब
ये भी नहीं है
बस में कि हम
फूलों की डगर
पर लौट चलें।
जिस
राहगुज़र
पर चलना है, वो राहगुज़र
तलवार हुई।।
अब ग़ैर हवा
कितनी ही चले, अब गर्म फ़ज़ा
कितनी ही रहे।
सीने
का ज़ख्म? चिराग बना, दामन की आग
बहार हुई।।
अब
घबड़ा मत। अब
जख्मों को
चिराग बन जाने
का क्षण आ गया
और अब दामन की
आग भी वसंत हो
जाएगी। अब
अंगारे भी
शीतल फूल
होंगे। मगर डर
लगता है, भय
होता है। जब
तक बात पूरी
नहीं हो गयी, जब तक घटना
पूरी नहीं घट
गयी, जब तक
साधना सिद्धि
नहीं बन गयी
तब तक सद्गुरु
छूट न जाए
इससे चिंता
होती है।
चिंता
स्वाभाविक
है। मगर घबड़ाओ
मत।
अगर
किसी ने सच
में श्रद्धा
से मुझे चाहा
है तो यह देह
गिर भी जाए तो
भी भेद न
पड़ेगा। जो अंगुलियां
तुम्हारे हृदयत्तंत्री
को छेड़ती
थीं छेड़ती
ही रहेंगी और
जो स्वर
तुम्हें
पुकारते थे, पुकारते ही
रहेंगे, शायद
और भी गहनता
से। क्योंकि
तब वे बाहर से
न आएंगे, तब
वे तुम्हारे
भीतर से ही उठेंगे।
और जो सन्निधि
तुम्हें मेरे
पास मिली है, वह समात हो
जानेवाली
नहीं है। और
जिनकी समात हो
जाएगी, समझना
कि उनको मिली
ही न थी।
शिष्य और गुरु
का प्रेम
एकमात्र
प्रेम है जो
मृत्यु के पार
भी जाता है।
मृत्यु उसे
खंडित नहीं कर
पाती। मृत्यु
उसके सामने
नपुंसक है।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान! आपको
बार—बार देखकर
भी ऐसा लगता
है, नहीं
देखा है! कैसे देखूं कि
छवि उतरे ही
उतरे?
अविनाश
भारती! जो
दिखाई पड़ता है, वह मैं नहीं
हूं; जो
दिखाई पड़ता है,
वह तुम भी
नहीं हो।
दृश्य तो धोखा
है, दृश्य
तो सपना है, द्रष्टा
सत्य है। और
तुम मेरे द्रष्टा
को न देख
सकोगे। मेरे
द्रष्टा को
देखने का तो
एक ही उपाय है
कि तुम अपने
द्रष्टा को देखो।
द्रष्टा
न तो मेरा है, न तो तेरा
है। उससे
परिचय करने का
एक ही रास्ता
है कि दृश्य
से अपना संबंध
छोड़ो, धीरे—धीरे
उसको पकड़ो जो
देख रहा है, सब देख रहा
है। तुम मुझे
सुन रहे हो——तुम
दो तरह से सुन
सकते हो। एक
तो मेरे
शब्दों पर ही
तुम एकाग्र हो
जाओ और अपने
को बिल्कुल भूल
जाओ।
सुननेवाला
याद ही न रहे, बोलनेवाला ही दृष्टि
में रह जाए, तो तुम चूक
जाओगे।
तुम्हें मेरे
शब्द तो सुनायी
पड़ेंगे, मेरे
अर्थो से
तुम वंचित रह
जाओगे। एक और
ढंग है सुनने
का——मेरे शब्द
सुनो मगर उससे
भी ज्यादा
मूल्यवान है
कि तुम्हारे
भीतर जो सुन
रहा है, उसकी
स्मृति न भूले,
उसका
विस्मरण न हो।
तुम्हारी
चेतना का तीर
दोहरा होना
चाहिए——मेरे
शब्दों की तरफ
एक और एक
तुम्हारे
चैतन्य की
तरफ। तुम मुझे
देख रहे हो, यह तीर का एक
पहलू हुआ। तीर
का दूसरा पहलू
यह होना चाहिए,
जो ज्यादा
मूल्यवान है——कौन
देख रहा है? दृश्य पर ही
मत अटक जाओ, दृश्य में
ही मत भटक जाओ,
दृश्य में
बंद मत हो
जाओ। नहीं तो
तुम्हारी वही
गति होगी जो
भौंरे की हो
जाती है। इतना
खो जाता है
कमल में कि जब
सांझ सूरज डूबने
लगता है और
कमल की पंखुड़ियां
बंद होने लगती
हैं तब भी उसे
याद नहीं आता।
पंखुड़ियां
बंद हो जाती
हैं, भौंरा
कमल में बंद
रह जाता, उड़
ही नहीं पाता।
दृश्य
में ऐसे ही हम
बंध गए हैं, जैसे कमलों
में भौंरे बंध
जाते हों। हम
दृश्य में अटक
जाते हैं और
द्रष्टा को
भूल जाते हैं।
द्रष्टा
को याद करो।
द्रष्टा को
जगाओ, निखारो। द्रष्टा
का जितना—जितना
उपयोग हो सके
उतना उपयोग
करो। फूल को
देखो मगर देखनेवाले
को मत भूलो।
चांदत्तारों
को देखो मगर देखनेवाले
को मत भूलो।
बाजार में चलो,
लोगों को
देखो, रास्ते
पर दुकानों को
देखो, मगर देखनेवाले
को मत भूलो।
देखनेवाला तो
सतत अहर्निश
तुम्हारे
भीतर बना रहे।
इसी को भीखा
ने सुमरण
कहा है। यही
है बुद्ध की सम्मासति,
सम्यक्
स्मृति। यही
है गुरजिएफ की
सेल्फ रिमेंब्रिंग।
तुम
कहते हो : आपको
बार—बार देखकर
भी ऐसा लगता
है, नहीं
देखा है!
लगेगा ही
क्योंकि जो
तुम देखते हो,
वह मैं नहीं
हूं, वह तो
मिट्टी की देह
है——कल नहीं थी,
कल फिर नहीं
हो जाएगी। वह
मैं नहीं हूं,
वह तो
मिट्टी की देह
में छिपा हुआ
जो चैतन्य है——वह
मैं हूं वही
तुम भी हो।
वहां हम एक
हैं। तुम्हारी
देह अलग, मेरी
देह अलग; लेकिन
तुम्हारी
आत्मा और मेरी
आत्मा अलग—अलग
नहीं। चेतना
एक सागर है।
उस चेतना में
देह की लहरें
अनंत हैं।
तुम
अपने द्रष्टा
में डूबो
तो तुम मुझे
पहचान पाओगे।
तुम समाधि में
उतरो तो ही
तुम मुझे
पहचान पाओगे
अन्यथा नहीं
पहचान पाओगे।
जो मुझे बाहर
से देखकर चला
जाएगा, वह
व्यर्थ ही आया
व्यर्थ ही
गया।
तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं।
तुम चाहते हो
कि जो मेरे
भीतर हुआ है, तुम्हारे
भीतर हो जाए।
वही आकांक्षा
तुम्हारे इस
विचार में
उतरी है कि
कैसे देखूं
कि छवि में
बंद हो जाओगे।
और छवि मैं
नहीं हूं।
बंधन हो जाएगी,
कारागृह हो
जाएगी, जंजीर
हो जाएगी।
उसे
खोजो, चिन्मय
को जो मृण्यम
में छिपा है।
और उसकी खोज अंतरखोज
है। उसे तुम
पहले भीतर ही
पाओगे, तभी
तुम मेरे भीतर
देख सकोगे।
आकांक्षा जगी
है, शुभ
आकांक्षा जगी
है, तो
उसकी पूर्ण
आहुति भी होगी,
उसका समापन
भी होगा।
धूल
मिट्टी के जगत
में बो दिया
यदि
ज्योति
का आनंद का
लघु बीज,
तो
इसे कर
अंकुरित
विकसित बरसकर,
नेति
के उस पार
तनिक पसीज!
धूल
मिट्टी में
दबा लाचार हूं
मैं,
खा
रही है मुझे
मेरी खीझ!
तू
मुझे छू दे कि
फिर चैतन्य कर
दे,
फूल
हंस ले और
मिट्टी धूल
जाए छीज!
मृत्तिका
के पात्र में
ज्वाला जगा दे,
तू
शलभ बनकर शिखा
पर रीझ,
धूल
मिट्टी के जगत
में बो दिया
यदि
ज्योति
का आनंद का
लघु बीज!
यह अभी
लघु बीज है——ज्योति
का, आनंद का।
यह वृक्ष
बनेगा, बड़ा
वृक्ष कि
हजारों पक्षी
जिस पर बसेरा
करें; कि
जिसके नीचे सैकड़ों
यात्री छाया
में बैठें।
एक—एक
संन्यासी को
विराट बीज
बनना है। एक—एक
संन्यासी को
बीज से विराट
बनना है।
धूल
मिट्टी के जगत
में बो दिया
यदि...और
परमात्मा ने
बो दिया है——धूल
में, मिट्टी
में, चैतन्य
का बीज।
धूल
मिट्टी के जगत
में बो दिया
यदि
ज्योति
का आनंद का
लघु बीज,
मगर
कोई लघु बीज, लघु बीज
नहीं है, दिखाई
पड़ता है छोटा।
वनस्पतिशास्त्री
कहते हैं : एक
बीज से सारी
पृथ्वी हरी हो
सकती है, इतना
उसमें छिपा
है। सारी
पृथ्वी ही
क्यों सारे चांदत्तारे
भी हरे हो
सकते हैं एक
बीज से, इतना
उसमें छिपा
है। क्योंकि
एक बीज से
वृक्ष होता
है। वृक्ष में
करोड़ों बीज
लगते हैं। फिर
एक—एक बीज से
करोड़ों बीज।...
तुम
थोड़ा सोचो!
वैज्ञानिक
इसकी खोज में
लगे हुए हैं
कि इस पृथ्वी
पर पहली दफा
हरियाली कैसे आयी? पहला बीज
कहां से आया? एक ही बीज की
जरूरत पड़ी
होगी, फिर
धीरे—धीरे
फैलते चले गए।
एक बीज से
अनंत होते चले
गए। अनंत से फिर
और अनंत होते
चले गए, फिर
सारी पृथ्वी
हरी हो गयी।
आया तो एक ही
बीज होगा।
कैसे आया? कौन
ले आया पहले
बीज को?
वैज्ञानिक
बहुत तरह की परिकल्पनाएं
करते हैं——शायद
किसी पुच्छल
तारे के पास
से गुजर जाने
के समय बीज
गिर गया हो।
शायद किसी
उल्कापात के
साथ...रात तुम तारों
को गिरते
देखते हो न, वे तारे
नहीं हैं, तारे
नहीं गिरते, सिर्फ छोटे—छोटे
पत्थर हैं जो
हवा के घर्षण
से जल उठते हैं
और तारों जैसे
मालूम होते
हैं। शायद
किसी उल्कापात
के साथ, किसी
दूर—दूर आबाद
किसी तारे से
कोई बीज आ गया
होगा, एकाध
बीज चिपका हुआ
आ गया होगा।
बस एक बीज ने सारी
पृथ्वी हरी कर
दी! सारी
पृथ्वी को
जीवन से भर
दिया। बीज
छोटा दिखाई
पड़ता है, छोटा
है नहीं।
धूल
मिट्टी के जगत
में बो दिया
यदि
ज्योति
का आनंद का
लघु बीज,
तो
इसे कर
अंकुरित विकसित
बरस कर,
नेति
के उस पार
तनिक पसीज!
तो फिर
स्वभावतः
प्राणों में
यह अभीप्सा
उठती है कि जब
यह बीज बो
दिया मिट्टी
में हे दूर के वासी, हे दूर के
माली, हे
मालिक——
तो
इसे कर
अंकुरित
विकसित बरस कर,
नेति
के उस पार
तनिक पसीज!
तो फिर
थोड़े पसीजो।
हे जगत के
प्राण! थोड़ी
दया करो, थोड़ी
अनुकंपा करो! बरसो कि यह
बीज टूटे, कि
यह बीज फूटे, कि यह बीज
विराट बने, कि यह बीज
विस्तीर्ण हो!
विस्तार की
आकांक्षा प्रत्येक
में छिपी है——बीज
में भी, मनुष्य
में भी।
विस्तार की
आकांक्षा, विस्तीर्ण
होने की
आकांक्षा ही
धर्म की मौलिक
खोज है। हमने
परमात्मा को
जो अंतिम शब्द
दिया है——ब्रह्म,
वह बड़ा
प्रीतिकर है,
उसका अर्थ
होता हैः जो
फैलता ही चला
जाता है। हमारा
शब्द विस्तार
भी ब्रह्म से
ही बना है। जो
विस्तीर्ण
होता ही चला
जाता है, जिसके
विस्तार का
कोई अंत नहीं,
वह ब्रह्म
हमारे भीतर भी
बीज है जो
विस्तीर्ण
होना चाहता है,
जो ब्रह्म
होना चाहता
है।
तो
प्रार्थना
उठती है——
तो
इसे कर
अंकुरित
विकसित बरस कर,
नेति
के उस पार
तनिक पसीज!
धूल
मिट्टी में
दबा लाचार हूं
मैं,
खा
रही है मुझे
मेरी खीझ!
स्वभावतः
जब तक बीज मिट्टी
में दबा है और
अंकुरित नहीं
हुआ है——खीझता
है, विषादग्रस्त
होता है। मेरे
भाग्य की घड़ी
आएगी या नहीं!
वह सौभाग्य का
क्षण आएगा या
नहीं? मैं
अभागा बीज ही
रहकर तो न मर जाऊंगा? यह खोल टूटेगी
या नहीं? यह
कारागृह, ये
जंजीरें जो
मुझे घेरे हैं,
मिटेंगी या नहीं? मुझ
में भी हरे
अंकुर
निकलेंगे या
नहीं? मैं
भी उठूंगा
आकाश में, ऊर्ध्वगामी
बनूंगा, ऊर्ध्वरेतस?
मुझमें भी
हरियाली होगी,
फूल लगेंगे,
पत्ते
लगेंगे।
पक्षी गीत गाएंगे
मुझ पर बैठकर।
चांदत्तारों
से मैं भी
बतकही कर
सकूंगा या
नहीं? खीझ
पैदा होती है
जब तक बीज
टूटे न तब तक
खीझता है।
और वही
खीझ तुम हर
मनुष्य में
पाओगे। हर
आदमी खीझा
हुआ है, ज़रा गौर करो, खीझ
के कोई साफ—साफ
कारण भी नहीं
हैं! जिस दिन
तुम्हारी
जिंदगी में
कोई दुख का
कारण नहीं
होता, उस
दिन भी खीझ
होती है। ऐसा
लगता है कि
कुछ—कुछ खोया
है। कुछ होना
था, जो
नहीं हो रहा
है। साफ पकड़
भी नहीं बैठती,
मुट्ठी में
कारण भी हाथ
नहीं आता कि
मैं क्यों
नाराज हूं, मैं क्यों खीझा हुआ
हूं? बेबूझ
मालूम होता
है। और चूंकि
हम बेबूझ को
बर्दाश्त
नहीं कर सकते,
हम कोई
बहाना खोज
लेते हैं। पति—पत्नी
पर खीझ लेता
है कि आज रोटी
जल क्यों गयी?
आज पानी
ठंडा क्यों
नहीं है? पत्नी
बच्चों पर खीझ
लेती है कि
स्कूल से देर से
क्यों आए? बच्चे
अपनी किताबें फाड़ डालते
हैं।
खीझ
सरकती जाती है
एक से दूसरे
पर। और कुल
कारण इतना है
कि अगर कोई भी
कारण न हो
तुम्हारी जिंदगी
में दुख का तो
भी तुम दुखी
रहोगे।
तुम्हारी सारी
सुविधाएं
पूरी कर दी
जाएं तो भी
तुम दुखी रहोगे।
क्यों? क्योंकि
खीझ का कारण
सुविधा की कमी
नहीं है। विस्तार
का अभाव है, ब्रह्म का
अभाव है। बीज
वृक्ष होना
चाहता है, वृक्ष
अनंत बीज होना
चाहता है, अनंत
बीज अनंत
वृक्ष होना
चाहते हैं——फैलते
ही जाना चाहते
हैं। चैतन्य
का यह जो
विस्तार है, यह किसी अंत
को मानना नहीं
चाहता, यह
किसी सीमा में
आबद्ध नहीं
होना चाहता।
धूल
मिट्टी में
दबा लाचार हूं
मैं,
खा
रही है मुझे
मेरी खीझ!
तू
मुझे छू दे कि
फिर चैतन्य कर
दे,
फूल
हंस ले और
मिट्टी धूल
जाए छीज!
यही तो
प्रार्थना है, जनमों—जनमों
कि तू मुझे छू
दे। कि फिर
चैतन्य कर दे।
तोड़ दे मिट्टी
के इस घड़े
को ताकि मुक्त
हो जाए अमृत!
फूल हंस ले! एक
मौका दे दे
कि मेरा फूल
भी हंस ले
आकाश में। और
मिट्टी धूल
जाए छीज!
मृत्तिका
के पात्र में
ज्वाला जगा दे
तू शलभ
बनकर शिखा पर
रीझ!
आदमी
परमात्मा को खोजे तो
कहां खोजे? कुछ पता
नहीं, कुछ
ठिकाना नहीं।
कहां छिपा है,
इसका कोई
संकेत भी नहीं
देता। बच्चे
लुका—छिपी का
खेल खेलते हैं
तो थोड़ा संकेत
देते हैं। छिप
जाते हैं फिर
वहां से आवाज
दे देते हैं। खोजने
का रास्ता बता
देते हैं।
लेकिन
परमात्मा ऐसा
छिपा है कि
कोई इशारा भी
नहीं मिलता, कहां!
ज्ञानी
तो कहते हैं :
कण—कण में।
ज्ञानी तो
कहते हैं : पल—पल
में। जीसस ने
कहा है : पत्थर
को उठाओ और
उसके नीचे तुम
मुझे पाओगे और
वृक्ष की शाखा
को तोड़ो और
उसके भीतर तुम
मुझे पाओगे।
मगर तुम पत्थर
उठाते हो, कुछ नहीं
मिलता। और
वृक्ष की शाखा
तोड़ते हो, कुछ
हाथ नहीं आता।
शाखा और हाथ
से टूट गयी, पत्थर उठाने
में और मेहनत
हो गयी।
ज्ञानी तो कहते
हैं : कण—कण में
है। वे तो
कहते हैं : सब
जगह है, पते
की कोई जरूरत
नहीं। संकेत
चाहिए ही नहीं
सारी दिशाओं
में वही
व्याप्त है।
लेकिन ज्ञानी
की बात ज्ञानी
जानें।
अज्ञानी
पूछता
है : कोई पता हो, ठिकाना हो; कहां पत्र लिखूं?
एक
पोस्ट—आफिस
में एक पत्र
आया। एक आदमी
ने ईश्वर को
लिखा था कि
मेरी पत्नी
बहुत बीमार है
और पचास रुपए
एकदम चाहिए, इससे कम में
काम नहीं
चलेगा। पचास
रुपए तत्क्षण
भेज दो मनीआर्डर
से। और पते
में लिखा था
परम पिता
परमेश्वर को मिले।
पोस्ट—आफिस के
लोगों को दया
आयी। बेचारा
गरीब! और भी दया
आयी कि इसको
यह भी पता
नहीं कि
परमात्मा को
कहीं चिट्ठियां
लिखी जाती हैं,
कहीं चिट्ठियां
पहुंचायी जा
सकती हैं? किसको
उसका पता है? लेकिन होगा
बहुत मुसीबत
में और होगा
भोला—भाला
आदमी तो पोस्ट—आफिस
के क्लर्को
ने कहा कि हम
कुछ इकट्ठा
करके चंदा इसे
भेज दें। चंदा
तो किया मगर
पच्चीस ही
रुपए चंदा हो
पाया। तो
उन्होंने
पच्चीस रुपए
ही भेज दिए कि
कुछ तो इसको
सहायता
मिलेगी।
लौटती
ही डाक से
चिट्ठी फिर
आयी। पता लिखा
था परमात्मा
को मिले। बड़ी
नाराजगी में
चिट्ठी लिखी
थी उसने। उसने
लिखी थी कि यह
बात ठीक नहीं
है। अगली बार
आप सीधे ही भेजना।
पोस्ट—आफिस के
जरिए भेजा तो
उन दुष्टों ने
पच्चीस रुपए
कमीशन काट
लिया।
परमात्मा
का कोई पता
नहीं है। तुम
आकाश की तरफ मुंह
उठाकर जब
प्रार्थना
करते हो तब भी
तुम अज्ञात
में टटोल रहे
हो, तुम सिर
झुकाकर जमीन
पर रखकर
प्रार्थना
करते हो तब भी
तुम अंधेरे
में टटोल रहे
हो। उसका कोई
पता नहीं है।
तुम्हारी
भाषा उस तक
पहुंचती भी है
या नहीं? तुम्हारी
प्रार्थनाएं
इतनी समर्थ भी
हैं कि उसे खोज
लेती होंगी या
कि सब कोरे
आकाश में खो
जाता है? इसलिए
जो ठीक—ठीक
प्रार्थना का
सूत्र समझेगा
उसकी प्रार्थना
ऐसी होगी——
मृत्तिका
के पात्र में
ज्वाला जगा दे
तू
शलभ बनकर शिखा
पर रीझ!
हम तो पतंगे
बनने से रहे
क्योंकि हमें
तेरी शिखा
कहीं दिखाई
पड़ती नहीं। अब
तो एक उपाय है
कि हमें तू
शमा बना दे और
तू पतंगा बन।
तू हमें खोज, एक ही उपाय
है अब। हमारे खोजे से तो
नहीं होता। हम
तो खोज—खोज थक
गए। हम तो जनमों—जनमों से
खोज रहे हैं।
खोज—खोजकर
अनेकों ने तो
यही तय कर
लिया कि तू है
ही नहीं। आखिर
कब तक खोजें?
मेरे देखे
जो लोग
नास्तिक हैं
वे लोग अनंत—अनंत
जनमों के
खोजी हैं।
बहुत खोजा, नहीं पाया।
फिर—फिर खोजा
और नहीं पाया।
आखिर आदमी की
सामर्थ्य है,
बिसात है।
कब तक खोजे?
तो एक जगह
जाकर निर्णय
लेना पड़ेगा कि
अगर नहीं
मिलता तो अब
यही निर्णय ले
लेना ठीक है
कि है ही
नहीं। झंझट
मिटी, अब
खोज न करनी
पड़ेगी।
नास्तिक में
मैं छिपे हुए जनमों—जनमों
के आस्तिक को
देखता हूं। जब
भी कोई
नास्तिक मेरे
पास आता है तो
मैं झांकता
हूं और यही
देखता हूं कि
बहुत खोजा
उसने। खोज—खोजकर
थक गया, इतना
थक गया, इतने
विषाद से भर
गया कि अब कब
तक खोजता रहे?
तो
आत्मरक्षा के
लिए एक उपाय
है अब कि तू है
ही नहीं। ताकि
न रहेगा बांस,
न बजेगी
बांसुरी। तू
है ही नहीं तो
खोज खत्म। अब
तुझसे झंझट
मिटी। अब हम
किसी और काम
में लगें।
जिंदगी चार
दिन की है, इस
चार दिन की
जिंदगी को भोग
लें। तेरी खोज
में कब तक
बरबाद करते
रहें।
जब कोई
नास्तिक मेरे
पास आता है तो
मैं अति आतुर
हो जाता हूं
कि उसे
संन्यास में
प्रवेश दे
दूं। नास्तिक
मुझसे पूछते
हैं : हम
नास्तिक हैं, क्या हमें
भी संन्यास
देंगे? मैं
उनको कहता हूं
: आस्तिक में
मेरी उतनी
उत्सुकता
नहीं, जितनी
मेरी
उत्सुकता
नास्तिक में
है। क्योंकि
नास्तिक बहुत
खोज चुका है।
शायद
निन्यानबे
डिग्री तक
पहुंच चुका था
खोजते—खोजते।
बस एक डिग्री
और कि क्रांति
घटती, कि
वाष्पीभूत हो
जाता।
लेकिन
प्रार्थना का
ठीक रूप यही
हो सकता है——
मृत्तिका
के पात्र में
ज्वाला जगा दे
तू
शलभ बनकर शिखा
पर रीझ,
अब तो
एक ही उपाय है
कि मैं बन
जाऊं ज्वाला
और तू शलभ। तू
बन पतंगा, तू मुझ पर
रीझ। तू आ, मेरे
आए नहीं कुछ
हो सकता। मैं
कहां आऊं? तू
दौड़, तू
मेरी तरफ आ।
और मैं
तुमसे कहता
हूं : अगर तुम
शून्य हो जाओ
तो परमात्मा
तुम्हारी तरफ
सब दिशाओं से
दौड़ पड़ता है।
जैसे कभी जाकर
नदी में मटकी
में पानी भरा? जैसे ही तुम
मटकी में पानी
भरते हो गड्ढा
होता है नदी
में, चारों
तरफ से जल दौड़
पड़ता है। जैसे
प्रकृति गड्ढा
को पसंद नहीं
करती। तुम
देखते हो
गर्मी में बवंडर
उठते हैं, हवा
के तूफान आते
हैं। क्यों
उठते हैं? कैसे
उठते हैं? जब
बहुत सूरज की
गर्मी पड़ती है
तो हवा इतनी
ज्यादा
उत्तप्त हो
जाती है कि
विरल होने
लगती है, उसका
सघनपन
टूट जाता है, गड्ढा पैदा
हो जाते हैं।
और जहां गड्ढा
पैदा हुआ है, चारों तरफ
से हवा दौड़
पड़ती है। उसी
हवा के दौड़ने
को हम बवंडर
कहते हैं। हवा
इतनी तेजी से
दौड़ती है गड्ढा
को भरने को कि
बवंडर पैदा हो
जाता है।
ठीक
ऐसे ही जिस
दिन तुम ध्यान
में शून्य हो
जाओ उस दिन
परमात्मा
बवंडर की तरह
आता है। चारों
तरफ से आता है, सब दिशाओं
से आता है——ऊपर
से भी, नीचे
से भी; बाएं
से भी, दाएं
से भी; उत्तर,
दक्षिण, पूरब,
पश्चिम, सब
तरफ से आता
है।
मृत्तिका
के पात्र में
ज्वाला जगा दे
तू
शलभ बनकर शिखा
पर रीझ,
धूल
मिट्टी के जगत
में बो दिया
यदि
ज्योति
का आनंद का
लघु बीज!
जब
बीज बोया है
तो अब उपेक्षा
न कर।
अविनाश, मैं जानता
हूं, यहां
मेरे पास जो
लोग इकट्ठे हो
रहे हैं, वे
ही लोग हैं
जिनके भीतर
बीज को तोड़ने
की अभीप्सा
जगी है। यह
कोई साधारण तीर्थस्थल
नहीं है जहां
मुर्दे
सदियों—सदियों
से इकट्ठे
होते रहे हैं
इसलिए और मुर्दे
भी आते जाते
हैं। यह कोई
काशी नहीं है
जहां करवट
लेने आखिरी
वक्त लोग
पहुंच जाते
हैं। यह कोई
मक्का—मदीना
नहीं है जहां
की यात्रा कर
आए, बस
यात्रा कर आए
और सब हो गया।
यहां तो केवल
उनके लिए ही
जगह है जो
मिटने को राजी
हैं, जो
टूटने को राजी
हैं, जो
खोने को राजी
हैं, जो
शून्य होने को
राजी हैं।
तुम
शून्य हो जाओ
तो परमात्मा
दौड़ पड़े। तुम
शून्य हो जाओ
तो तुम्हारा
द्रष्टा जग
जाए। और तुम
अपने द्रष्टा
को देख लो तो
तुम मुझे देख
लो। जब तक तुम
अपने को न देख
पाओगे, तुम
मुझे भी न देख
पाओगे।
और घबड़ाओ
मत, उदास न
होओ, निराशा
का कोई भी
कारण नहीं है;
रात जब बहुत
अंधेरी होती
है, तभी
सुबह करीब
होती है।
ढल
रही है सांझ,
ढलने
दो,
अंधेरा
और बढ़ने दो,
तिमिर
को करवटें ले
मन—विविर में
मूक सोने दो!
समय
अविराम गति से
चल
रहा है,
(चुप
रहो तुम!)
बन
अहेरी
भोर
का ले रश्मि—शर
दिग्शिंजिनी
पर चढ़ाकर
वह
ढाह
देगा एक पल
में
तिमिर—मृग
को।
आती है
रात, आने दो; सुबह का
अहेरी भी आ
रहा है, सुबह
का शिकारी भी
आ रहा है, वह
सूरज भी आ रहा
है। जैसे—जैसे
रात अंधेरी
होती जा रही
है, वैसे—वैसे
सूरज करीब आता
जा रहा है। वह
अपनी प्रत्यंचा
पर, धनुष
पर प्रकाश के
तीर चढ़ाकर...एक
ही तीर में
तुम्हारे जनमों—जनमों के
अंधकार को
विनष्ट कर
देगा। एक ही
तीर में तुम्हारी
मृत्यु छीन
लेगा।
लेकिन
साधक के जीवन
में अंधेरी
रात आती है, इसका स्मरण
रखना। ईसाई
रहस्यवादियों
ने उसे ठीक
नाम दिया है——डार्क
नाइट आफ द सोल——आत्मा
की अंधेरी
रात। लेकिन
सौभाग्यशालियों
के जीवन में आती
है वह। परम
सौभाग्यशालियों
के जीवन में
आती है। बड़े बड़भागी
हैं जो, उनके
जीवन में आती
है। क्योंकि
उसके बाद फिर
सुबह है। तड़फो
अभी! सांझ
होने लगी, रात
अंधेरी होने
लगी, विरह
की ज्वाला
धधकने लगी, धधकने दो और
घी डालो
इसमें और हवा
दो और पंखा दो
कि ज्वाला भभके।
जल्दी ही सुबह
भी होगी।
ढल
रही है सांझ,
ढलने
दो,
अंधेरा
और बढ़ने दो,
तिमिर
को करवटें ले
मन—विविर में
मूक सोने दो!
समय
अविराम गति से
चल
रहा है,
(चुप
रहो तुम!)
बन
अहेरी
भोर
का ले रश्मि—शर
दिग्शिजिनी
पर चढ़ाकर
वह
ढाह
देगा एक पल
में
तिमिर—मृग
को।
यह जो
अंधेरे का मृग
है, एक तीर
में गिर जाएगा,
एक क्षण में
गिर जाएगा।
मगर
प्रतीक्षा
चाहिए।
प्रार्थना और
प्रतीक्षा ये
दो शब्द याद
रखो, शेष
सब अपने से हो
जाता है। तुम
प्रार्थना करो
और प्रतीक्षा
करो!
प्रार्थना और
प्रतीक्षा के
मध्य
परमात्मा
घटता है।
आज
इतना ही।
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