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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

गुरू प्रताप साध की संगति--(प्रवचन--07)

राम भजै सो धन्य—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 मई, 1979;  
ओशो कम्यून इटंरनेशल, पूना
सूत्र:
रामरूप को जो लख, सो जन परम प्रबीन।।
सो जन परम प्रबीन, लोक अरु बेद बखानै।।
सतसंगति में भाव—भक्ति परमानंद जानै।।
सकल विषय को त्याग बहुरि परबेसपावै।।
केवल आपै आपु आपु में आपु छिपावै।।
भीखा सब तें छोटे होइ, रहै चरन—लवलीन।।
रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन।।

मन कम बचन बिचारिकै राम भजै सो घन्य।।
राम भजै सो धन्य,धन्य बपु मंगलकारी।।
रामचरन—अनुराग परमपद को अधिकारी।।
काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरिआवै।।
परमातम चैतन्यरूप महं दृष्टि समावै।।
व्यापक पूरनब्रह्म है भीखा रहनि अनन्य।।
मन क्रम बचन बिचारिकै राम भजै सो धन्य।।

धनि सो भाग जो हरि भजै, ता सम तुलै न कोई।।
ता सम तुलै न कोई, होइ निज हरि को दासा।
रहै चरन—लौलीन राम को सेवक खास।।
सेवक सेवकाई लहै भाव—भक्ति परवान।
सेवा को फल जोग है भक्तबस्य भगवान।।
केवल पूरन ब्रह्म है, भीखा एक न दोइ
धन्य सो भाग जो हरि भजै, ता सम तुलै न कोई।।

गुरु—परताप साध की संगति!
सत्य को पाना एक उलटबांसी है, एक विरोधाभास है। सत्य को पाना तर्कातीत है, सारे गणित, सारे हिसाब—किताब से उल्टा है। और सबसे आधारभूत जो उलटबांसी है, वह यह—सत्य प्रयास से नहीं मिलता और बिना प्रयास भी नहीं मिलता। जो प्रयास करते ही नहीं, उन्हें तो मिलेगा ही नहीं और जो प्रयासमात्र ही करते हैं उन्हें भी नहीं मिलेगा।
साधारण तर्क का नियम ऐसा नहीं है। साधारण गणित की व्यवस्था ऐसी नहीं है। साधारण तर्क सोचता है, विचारता है—या तो प्रयास से मिलेगा या अप्रयास से मिलेगा। लेकिन सत्य एक उलटबांसी है—प्रयास से नहीं मिलता, बिना प्रयास से भी नहीं मिलता।
फिर सत्य कैसे मिलता है? प्रयास तो चाहिए ही चाहिए—अथक प्रयास चाहिए; समग्र प्रयास चाहिए। लेकिन उतने से काम न होगा, प्रयास के साथ—साथ प्रार्थना भी चाहिए—तब काम होगा, तब सोने में सुगंध आ जाएगी। प्रयास हो पूरा, तो तर्क कहेगा अब प्रार्थना की क्या जरूरत? जब हम सौ प्रतिशत प्रयास कर रहे हैं, तो प्रयास का फल मिलना चाहिए। लेकिन प्रयास अकेला हो तो अहंकार से छुटकारा नहीं होता। प्रयास अकेला हो तो अहंकार और मजबूत होता है, अस्मिता और सघन होती है, कर्ता और भी जड़ जमा लेता है।
और जब तक अहंकार है, तब तक सत्य की उपलब्धि नहीं। जब तक अहंकार है, तब तक परमात्मा की प्रतीति नहीं। जब तक अहंकार है, तब तक स्वयं का साक्षात्कार नहीं। और प्रयास से अहंकार नहीं जाएगा, प्रयास से तो अहंकार और बढ़ेगा। कोई भी प्रयास करो—धन कमाओगे, तो धनी का अहंकार हो जाएगा और त्याग करोगे, तो त्यागी का अहंकार हो जाएगा; ज्ञान अर्जित करोगे तो ज्ञानी का अहंकार और ध्यान में उतरोगे, तो ध्यानी का अहंकार।
कृत्य से अहंकार का छुटकारा नहीं है। अहंकार पीछा करेगा ही, तुम जो भी करोगे उसी में से निकल—निकल आएगा। नए—नए रूप लेगा, नई अभिव्यक्तियां लेगा, नए—नए ढंग कि पहचान में भी न आये। तुम चेष्टा करके विनीत हो जाओगे तो तुम्हारी विनम्रता में अहंकार खड़ा होगा। तुम्हारे भीतर उद्घोषणा होने लगेगी—मुझसे विनम्र और कोई भी नहीं। देखो मुझसे विनम्र और कोई भी नहीं! तुम्हारी विनम्रता भी अहंकार का ही आभूषण बन कर रह जाएगी, उसकी ही दासी। इसलिए प्रयास पूरा हो तो भी उपलब्धि नहीं होगी।
अहंकार से कैसे छुटकारा होगा? अहंकार प्रार्थना में गलता है। जैसे सूरज के उगते ही बर्फ गलने लगती है; जैसे सूरज के उगते ही ओस की बूंदें उड़ने लगती हैं—ऐसे ही प्रार्थना के जगते ही अहंकार शून्य होने लगता है। प्रार्थना प्रसाद है। प्रयास तुम्हारा तुमसे ऊपर कैसे ले जाएगा? तुम्हारा प्रयास तुम्हें ही तुमसे ऊपर कैसे ले जाएगा? यह तो अपने ही जूतों के बंदों को पकड़कर अपने को उठने की कोशिश होगी। नहीं, सहारा मांगना होगा। पार का सहारा मांगना होगा। परमात्मा को पुकारना होगा। उसका हाथ तलाशना होगा। वह उठाएगा तो उठना हो पाएगा। वह जगाएगा तो जगना हो पाएगा।
लेकिन उस तक पुकार उसकी ही पहुंचती है जिसने अपनी तरफ से जो भी किया जा सकता था कर लिया। काहिलों की, सुस्तों की, अकर्मण्यों की प्रार्थना उस तक नहीं पहुंचती। अकर्मण्य की प्रार्थना में प्राण नहीं होते। अकर्मण्य की प्रार्थना तो लाश है, उसमें से बदबू उठती है, सुगंध नहीं। आलसी की प्रार्थना का क्या अर्थ; सिर्फ आलस्य को छिपाने के लिए उपाय है। आलसी की प्रार्थना तो अपने आलस्य को ढांकने का ढंग है। प्रार्थना तो उसी की है जिसने अपने को पूरा दांव पर लगाया। प्रार्थना तो उसी की है जिसने अपने को पूरा दांव पर लगाया। प्रार्थना तो उसी की है. जिसने जो भी किया जा सकता था किया, कुछ भी अनकिया न छोड़ा। वह प्रार्थना का अधिकारी है। उसकी प्रार्थना में प्राण होंगे, उसकी प्रार्थना में पंख होंगे, उसकी प्रार्थना का अधिकारी है। उसकी प्रार्थना में प्राण होंगे, उसकी प्रार्थना में पंख होंगे, उसकी प्रार्थना उड़ेगी अनंत तक।
प्रार्थना का क्या अर्थ होता है? प्रार्थना का अर्थ होता है कि मैं जो कर सकता था कर चुका, अब असहाय हूं। मैं जो कर सकता था कर चुका, अब विवश हूं। अब तुम्हें पुकारता हूं, अब तुम कुछ करो। प्रार्थना का अर्थ है: मेरे किए से किनारे तक आ गया लेकिन तुम हाथ बढ़ाओ तो किनारे से उठूं। अन्यथा मझधार में ही लोग नहीं डूबते, किनारों पर भी लोग डूब जाते हैं। अक्सर किनारों पर डूब जाते हैं, मझधारों से तो बच जाते हैं, क्योंकि मझधारों में तो सावधान रहते हैं, सचेत रहते हैं, होश भरे रहते हैं। किनारे पर आते—आते बेहोश हो जाते हैं, सोचते हैं: अब तो आ ही गए, अब तो आ ही गए, अब क्या चिन्ता? निश्चिंत होने लगते हैं। उसी निश्चिंतता में खतरा है। किनारे पर आते—आते भरोसा आने लगता है कि अब तो पहुंच ही गए, अब क्या पुकारना है!
मैंने सुना है एक नाव डूबी—डूबी हो रही थी। लोग घुटने टेक कर प्रार्थना कर रहे थे परमात्मा से। सिवाय उसके कोई उपाय सूझता नहीं था। तूफाना जोर का था। आंधी भयंकर थी। लहरें आकाश छूने की चेष्टा कर रही थीं। नाव छोटी थी, डांवांडोल थी। पानी भीतर आ रहा था, उलीच रहे थे लेकिन कोई आशा न थी। किनारा बहुत दूर...किनारे का कोई पता न चलता था।
सारे लोग तो प्रार्थना कर रहे थे, लेकिन एक मुसलमान फकीर चुपचाप बैठा था। लोगों को उस पर बहुत नाराजगी आई। लोगों ने कहा कि तुम फकीर हो, तुम्हें तो हमसे पहले प्रार्थना करनी चाहिए और तुम चुप बैठे हो! हम सबका जीवन संकट में है, तुम से इतना भी नहीं होता कि प्रार्थना करो। और हो सकता है हमारी प्रार्थना न पहुंचे क्योंकि हमने तो कभी प्रार्थना की ही नहीं पहले। तुम्हारी पहुंचे, तुम जिंदगी—भर प्रार्थना में डूबे रहे हो। और आज तुम्हें क्या हुआ है? रोज हम तुम्हें देखते थे प्रार्थना करते—सुबह, दोपहर, सांझ। मुसलमान फकीर पांच दफा नमाज पढ़ता था। आज तुम्हें क्या हुआ है? आज तुम क्यों किंकर्तव्यविमूढ़ मालूम होते हो?
लेकिन फकीर हंसता रहा। नहीं की प्रार्थना और तभी जोर से चिल्लाया कि रुको, क्योंकि लोग प्रार्थना कर रहे थे—कोई कह रह था कि जाकर मैं हजार रुपये दान करूंगा; कोई कहता था कि मस्जिद को दे दूंगा; कोई कहता था चर्च को दान कर दूंगा; कोई कह रहा था कि संन्यास ले लूंगा सब छोड़कर। बीच में फकीर एकदम से चिल्लाया कि सम्हलो, इस तरह की बातें न करो, किनारा दिखाई पड़ रहा है।
किनारा करीब आ गया था। तूफान की लहरें नाव को तेजी से किनारे की तरफ ले आई थीं। बस सारी प्रार्थनाएं वहीं समाप्त हो गयीं। अधूरी प्रार्थनाओं में लोग उठे गए, अपना सामान बांधने लगे, भूल ही गए प्रार्थना और परमात्मा को। तब फकीर प्रार्थना करने बैठा। लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा: तुम भी एक पागल मालूम होते हो। अब क्या प्रार्थना कर रहे हो? अब तो किनारा करीब आ गया।
उस फकीर ने कहा कि मैंने सद्गुरुओं से सुना है नावें मझधार में नहीं डूबतीं, किनारों पर डूबती हैं। मैंने सद्गुरुओं से सुना है कि मझधार में तो लोग सचेष्ट होते हैं, सावधान होते हैं; किनारों पर आकर बेहोश हो जाते हैं। मैंने सद्गुरुओं सेसुना है कि मझधार में तो लोग प्रार्थनाएं करते हैं, परमात्मा को पुकारते हैं; किनारा करीब देखते ही परमात्मा को भूल जाते हैं। फिर कौन फिक्र करता है! जब किनारा ही करीब आ गया तो कौन परमात्मा की फिक्र करता है। चालबाज तो ऐसे हैं, बेईमान तो ऐसे हैं कि जिनका हिसाब नहीं।
जब किनारा ही करीब आ गया तो कौन परमात्मा की फिक्र करता है। चालबाज तो ऐसे हैं, बेईमान तो ऐसे हैं कि जिनका हिसाब नहीं।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बहुत धन कमाकर लौटता था और नाव डूबने लगी। हालत ऐसी आ गई, आखिरी हालत आ गई—अब डूबी, तब डूबी...अब ज्यादा देर नहीं। जब तक भरोसा था तब तक उसने हिम्मत रखी। जब देखा कि अब डूबी ही तो उसने कहा कि सुनो, परमात्मा से कह रहा है, कि मेरी जो सात लाख की कोठी है वह दान कर दूंगा। उस कोठी से उसे बड़ा मोह था। वैसी कोठी नहीं थी दूर—दूर तक। दूर—दूर तक उसकी कोठी की ख्याति थी। बहुत बार लोगों ने दाम देने चाहे थे। सम्राटों ने कोठी मांगी थी, उसने नहीं दी थी। वही उसका एकमात्र लगाव था जिंदगी में। उसने कहा: कोठी भी दे दूंगा। अब जब जिंदगी ही खतरे में है तो तू कोठी ले लेना। दान कर दूंगा कोठी को गरीबों में। कोठी बेचकर बांट दूंगा सारा पैसा।
संयोग की बात नाव बच गई। अब तुम मुल्ला का संकट समझ सकते हो। और लोगों ने भी सुन ली थी प्रार्थना। वे कहने लगे: मुल्ला, अब?
मुल्ला ने कहा: घबड़ाओ मत। जिस बुद्धि से प्रार्थना निकली है, उसी बुद्धि से कोई तरकीब भी निकलेगी। परमात्मा इतनी आसानी से मुझे लूट नहीं सकता। अब किनारा आ गया है, अब देख लेंगे।
और दूसरे दिन उसने जाकर गांव में डुंडी पिटवा दी कि कोठी नीलाम हो रही है। दूर—दूर से लोग खरीददार आये। बड़ी भीड़ लग गई। राजे आये, महाराजे आए। उसकी कोठी वैसी थी। और सब चकित हुए, उसने कोठी के सामने ही संगमरमर के खंभे से एक बिल्ली बांध रखी थी।
लोगों ने पूछा: यह बिल्ली कैसी बांधी, किसलिए बांधी?
उसने कहा: ठहरो, पहले सुनो। बिल्ली के दाम सात लाख रुपया, कोठी का दाम एक रुपया। मगर दोनों साथ बिकेंगे
लोगों ने कहा: पागल हो गए हो, बिल्ली के दाम सात लाख! आवारा बिल्ली, यहीं मुहल्ले की बिल्ली पकड़ ली है, तुम्हारी भी नहीं है, तुम्हारे बाप की भी नहीं है, इसी मुहल्ले में आवारा घूमती रही है—इसके दाम सात लाख और कोठी का दाम एक रुपया!
मुल्ला ने कहा: तुम इस चिंता में न पड़ो, ये दोनों साथ बिकेंगी
लोगों ने कहा: हमें क्या प्रयोजन है! कोठी के दाम तो सात क्या अगर नौ भी मांगे तो हम देने को राजी हैं।
बिक गई कोठी एक रुपये में और सात लाख में बिल्ली। सात लाख मुल्ला ने तिजोड़ी में रखे, एक रुपया गरीबों में बांट दिया।
वह जो मझधार में बच भी जाएगा किनारे पर आकर फिर बेईमान हो जाएगा। क्योंकि प्रार्थना उसका हिसाब थी, गणित थी। प्रार्थना उसका प्राण नहीं था! प्रार्थना सिर्फ बचाव का एक उपाय था; एक शस्त्र था, एक साधना नहीं थी; एक सुरक्षा थी, समर्पण नहीं थी।
तुम्हारा प्रयास हो सकता है तुम्हें किनारे तक ले आये, लेकिन किनारे के ऊपर कौन तुम्हें खींचेगा? वे हाथ तो सिर्फ प्रार्थना के द्वारा ही तुम तक आ सकते हैं। प्रार्थना सेतु है मनुष्य और परमात्मा के बीच। प्रार्थना ही मनुष्य को परमात्मा से जोड़ती है, प्रयास नहीं। और प्रार्थना क्यों जोड़ती है? क्योंकि प्रार्थनापूर्ण हृदय खुल जाता है। जैसे कमल खिलता है सुबह और सूरज की किरणें उसमें नाचती हुई उसके अंतस्तल तक चली जाती हैं, ऐसे ही प्रार्थना में प्राण खुलते हैं, प्राण का कमल खुलता है और परमात्मा नाचता हुआ प्रवेश कर जाता है। प्रार्थना में प्रसाद की वर्षा होती है।
मगर प्रार्थना कहां सीखोगे? प्रयास तो तुम जानते हो। यही प्रयास जो तुमने जिंदगी में धन कमाने लिए किया है, यही प्रयास काम आ जाएगा। यही दौड़—धूप, यही चिंता—विचार, यही श्रम काम आ जाएगा। सिर्फ दिशा बदलेगी—जो धन की तरफ लगी थी चेष्टा, ध्यान की तरफ लग जाएगी; जो पद की तरफ लगा था प्रयत्न, वह परमात्मा की तरफ लग जाएगा; जो हठ संसार को जीतने के लिए था, वही आत्म—विजय के लिए संलग्न हो जाएगा।
तुम प्रयास तो जानते हो क्योंकि प्रयास का अभ्यास संसार में सभी कर रहे हैं। थोड़ा या ज्यादा, कम या ज्यादा, मात्रा के भेद होंगे लेकिन प्रयास से तो सभी परिचित हैं। प्रार्थना कहां सीखोगे? प्रार्थना तो संक्रामक होती हो। प्रार्थना तो केवल उनसे पास बैठकर ही हो सकती है जिन्होंने प्रार्थना जानी हो। प्रार्थना तो एक अर्पूव शब्दातीत तरंग है। मस्तों के पास बैठोगे तो मस्त हो जाओगे; उदास लोगों के पास बैठोगे तो उदास हो जाओगे; रोतों के पास बैठोगे तो रोने लगोगे। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कब तक अपने की बचाओगे?
प्रार्थना भी ऐसे ही सीखी जाती है—गुरु—परताप साध की संगति। गुरु का अर्थ है: जिसने पा लिया, जिसने अंधकार तोड़ दिया अपना, जिसके भीतर रोशनी उतर आई है, जिसकी वीणा बज उठी। उसके पास बैठोगे तो उसकी बजती वीणा तुम्हारी सोई वीणा के तारों को भी झंकृत करेगी। संगीतज्ञ कहते हैं कि अगर एक ही कक्ष में वीणावादक वीणा बजाए और दूसरी वीणा को कोने में रख दिया जाए तो वीणावादक जब अपनी वीणा को समग्रता से छेड़ेगा तो कोने में रखी वीणा के तार भी कंपने लगते हैं, उनसे भी स्वर उठने लगता है क्योंकि तरंगें पूरे कक्ष को भर देती हैं। और जब एक वीणा जग उठती है तो दूसरी वीणा भी कैसे सोई रह सकती है?
सोये हुए आदमी को कोई दूसरा सोया आदमी हुआ आदमी नहीं जगा सकता या कि तुम सोचते हो जगा सकता है? सोये हुए आदमी को कोई जागा हुआ ही जगा सकता है, क्योंकि जागा हुआ हिला सकता है, क्योंकि जागा हुआ पुकार दे सकता है, क्योंकि जागा हुआ लाकर ठंडा पानी तुम्हारी आंखों पर डाल सकता है, क्योंकि जागा हुआ कोई—न—कोई इंतजाम कर सकता है—बिस्तर से खींचकर तुमको बाहर कर सकता है, तुम्हारा कंबल छीन सकता है। जागा हुआ कुछ कर सकता है। लेकिन जो खुद ही सोया है वह क्या करेगा? शायद सोये हुए आदमी की मनोदशा, सोये हुए आदमी के आसपास की तरंग, तुम अपने—आप जग रहे होते तो भी न जगने दे। क्योंकि सोया हुआ आदमी भी अपने पास एक विधुत—क्षेत्र निर्मित करता है। तुमने कभी ख्याल किया, तुम्हारे पड़ोस में बैठा हुआ एक आदमी जम्हाई लेने लगे, तुम्हें जम्हाई आने लगती है। तुमने शायद ध्यान नहीं दिया होगा, पास में बैठा एक आदमी सोने लगे, बस तुम्हें नींद आने लगती है।
हर व्यकित अपने आसपास एक ऊर्जा—क्षेत्र निर्मित करता है। जो उसके भीतर होता है वह उसके बाहर तरंगित होता है।
एक दुकानदार, फलों का बेचने वाला, एक लोमड़ी को पाल रखा था। लोमड़ी बड़ी चालबाज, होशियार जानवर है—जानवरों में राजनीतिज्ञ जानवर है। उसने लोमड़ी पाल रखी थी दुकान की देख—रेख के लिए। और लोमड़ी बड़ी होशियार हो गई थी। अगर कभी दुकानदार भोजन के लिए जाता, लोमड़ी से कह जाता कि बैठ और गौर रखना, ध्यान रखाना—कोई कोई चीज न चुरा ले, कोई अंदर न आए। शोरगुल मचा देना, मैं आ जाऊंगा
मुल्ला रास्ते से गुजर रहा था। उसने सुना, दुकानदार लोमड़ी से कह रहा है कि बैठ यहां मेरी जगह और देख और सावधान रहना। कोई भी व्यक्ति किसी तरह की कारगुजारी करे, तुझे शक हो तो आवाज कर देना। किसी भी तरह का कृत्य कोई आदमी यहां दुकान के आसपास करे तो तू सावधान रहना। मुल्ला ने सुना। दुकानदार तो भीतर भोजन करने चला गया। मुल्ला ने देखे अंगूरों के गुच्छे, अनार, नाशपातियां, सेव...उसकी लार टपकने लगी। लेकिन वह लोमड़ी सामने बैठी थी बिलकुल सजग, बिलकुल योगस्थ, ध्यानस्थ। वह बिलकुल देख रही थी, वह मुल्ला को भी बहुत गौर से देखने लगी।
मुल्ला ने मालूम क्या किया? मुल्ला उस लोमड़ी के सामने ही बैठ गया, सड़क पर, आंखें बंद कर लीं और झपकी खाने लगा। थोड़ी देर में लोमड़ी सो तब उसने अंगूर फटकार दिए।
जब दुकानदार आया, उसने देखा अंगूर नदारद हैं। उसने लोमड़ी पूछा: अंगूर कहां गए?
उसने कहा कि मेरे देखे तो यहां कोई आया नहीं।
दुकानदार ने कहा: लेकिन काई जरूर आया होगा। तूने किसी को यहां देखा था?
उसने कहा: हां, एक आदमी को मैने चलते देखा था।
उसने कुछ किया था?
लोमड़ी ने कहा: उसने कुछ भी नहीं किया, करता तो मैं आवाज कर देती। उस आदमी ने तो कुछ नहीं किया, वह तो बैठकर सो गया। हां, उसके सोने से एक झंझट हुई उसको सोते देखकर—वह घुर्राने लगा, मुझे भी नींद आ गई।
उस दुकानदार ने कहा: आगे से ख्याल रख, सोना भी एक कृत्य है,  एक क्रिया है। आगे से अगर इस तरह कोई आदमी हरकत करे सोने की यहां तेरे सामने तो बिलकुल सावधान हो जाना। तब तो समझ ही लेना कि कोई बहुत चालबाज आदमी...तेरे से भी ज्यादा चालबाज आदमी है।
सोये हुए आदमियों को देखकर तुम्हें नींद आने लगे यह स्वाभाविक है, क्योंकि सोया हुआ आदमी अपने आसपास एक विद्युत—मंडल पैदा करता है जिसमें नींद आती है। जम्हाई लेते आदमी के पास बैठा हुआ एक दूसरा आदमी जम्हाई लेने लगता है। ठीक ऐसा ही जागरण के तल पर भी होता है। अगर कोई जागा हुआ आदमी सोये हुए आदमी के पास बैठ जाए, कुछ भी न करे, आवाज भी न दे...।
कभी तुम एक कोशिश करना, एक छोटो—सा प्रयोग करना, तुम चकित होओगे। तुम्हारी पत्नी सोयी हो, पति सोया हो, बेटा सोया हो, उसके पास सिर्फ बैठ जाना बहुत जागरूक होकर, जितने जागरूक हो सको, जितनी सजगता ला सको, प्राणपण से, सारी शक्ति लगाकर सिर्फ जागे हुए उसके पास बैठ जाना। तुम चकित हो जागोगे कि क्षण भी नहीं बीतेंगे कि वह आंख खोल देगा। ये जाने—माने प्रयोग हैं। उसके भीतर कुछ हो जाएग। तुम्हारा जागरण उस पर संघात करेगा, उस पर चोट करेगा, वह करवट लेने लगेगा, उसकी नींद टूटने लगेगी। गुरु—परताप...! ऐसे ही परम रूप से जो जाग्रत हैं उनके पास बैठने से, प्रसाद की वर्षा होती है। उनके प्रताप से, उनके आभामंडल से, उनसे विकीर्ण होती हुई किरणों से, तुम्हारी नींद टूटने लगती है।
गुरु—परताप साध की संगति! और दीवानों के साथ उठता—बैठना, साधुओं के साथ उठना—बैठना। क्योंकि हम जिन्दगी में वही करते हैं, हम जिंदगी में वही हो जाते हैं, जिन तरंगों को हम अपने भीतर आत्मासात करते हैं।
तुमने कहावत सुनी होगी, आदमी वही हो जाता है जो भोजन करता है। लेकिन तुम कहावत का अर्थ शायद ही समझे होओ। कहावत का अर्थ तो साफ मालूम होता है, लेकिन ऐसी कहावतें कई अर्थ रखती हैं। ऊपरी अर्थ तुम्हारी समझ म आता है—आदमी वही हो जाता है जैसा भोजन करता है। तुम सोचते हो, तो फिर शाकाहार करना चाहिए; मांसाहार करोगे, जंगली जानवरों को खाओगे, तो जंगली जानवर हो जाओगे। तुमने फिर दूसरी बात सोची है—शाकाहारी कीरोगे तो साग—सब्जी हो जाओगे। वह शाकाहारी कभी नहीं कहते। शाकाहारी जैन मुनि लोगें को समझाते है: कभी मांसाहार नहीं करना, नहीं तो जंगली जानवरों जैसे हो जाऐगे। समझ गए, ठीक। और शाकाहार करोगे फिर? और बदतर हालत हो जाएगी। झाड़—झंखाड़ हो गए, पत्ते इत्यादि निकलने लगे, फुल—फल लगने लगे। और एक झंझट हो जाएगी। जानवर तो कम—से—कम विकसित अवस्था है, पौधों से तो विकसित अवस्था है।
भोजन तुम जो करोगे वैसे ही हो जाओगे—इसका ऐसा अर्थ नहीं है जैसा लोग करते हैं, नहीं तो आदमी दूध पिये तो दूध हो जाए। और फिर मोरारजी देसाई का क्या हो? जीवन—जल पियो, जीवन—जल हो गए।
नहीं, यह ऊपरी अर्थ काम नहीं आएगा; भोजन का बहुत गहरा अर्थ है। भोजन का, आहार का अर्थ होता है: हम जिन तरंगों को अपने भीतर आत्मासात करते हैं, हम वैसे ही हो जाते हैं। आहार से मतलब है: सूक्ष्म आहार। जो संगीत को पिएगा, उसके भीतर कुछ संगीतपूर्ण होने ही वाला है, हो ही जाएगा। अगर जो संगीत को पीता है बहुत, संगीत में जीता है बहुत, वीणा बजाता है, बांसुरी सुनता है, सितार में डूबता है—इसकी जिंदगी में फर्क होने शुरू हो जाएंगे, इसकी जिंदगी में संगीत की छाप आनी शुरू हो जाएगी, इसके व्यवहार में संगीत आने लगेगा, उसके उठने—बैठने में संगीत छाने लगेगा, यह बोलेगा तो संगीत होगा, यह चुप रहेगा तो संगीत होगा। जो पूजा में, प्रार्थना में, अर्चना में लीन होगा, स्वाभावतः उसके भीतर कुछ पूजा की घूप जैसी सुगंध उठने लगेगी, उसके भीतर मंदिर का दिया जलने लगेगा।
आहार से मतलब इतना ही नहीं है कि तुम जो मुंह से लेते हो, आहार से अर्थ है कि तुम जो आत्मा से ग्रहण करते हो। जो गालियां सुनेगा, उन लोगों के पास बैठेगा जहां गालो—गलौज दिये जा रहे हैं... क्या तुम सोचते हो उसके जीवन में संगीत और काव्य पैदा हो जाएगा, गालियां ही पैदा होंगी। बबूलों से दोस्ती करोगे, बबूल हो जाओगे। दोस्ती ही करनी हो तो कमलों से करना क्योंकि हम जिनके साथ होते हैं वैसे हो जाते हैं। और आहार बड़ी चीज है, भोजन तो बहुत क्षुद्र है बात।
रात पूरे चांद के नीचे बैठकेर देखा, कभी टकटकी लगाकर आकाश में पूर्णिमा के चांद को देखा, कुछ तुम्हारे भीतर भी आंदोलित होने लगता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य सबसे पहले समुद्र में ही पैदा हुआ। पहला रूप जीवन का मछली है। हिंदुओं की बात ठीक मालूम होती है कि परमात्मा का पहला अवतार मत्स्य अवतार, मछली का अवतार। वैज्ञानिक विकासवाद भी इसे स्वीकार करता है। और उसके आधार हैं। अब भी मनुष्य के शरीर में जल का अनुपात अस्सी प्रतिशत है। अस्सी प्रतिशत तो तुम जल हो। और तुम्हारे भीतर जो अस्सी प्रतिशत जल है उसमें वे ही रासायनिक द्रव्य हैं जो सागर के जल में हैं—उतना ही नमक, उतने ही रासायनिक द्रव्य, ठीक उतने ही।
तुम्हारे भीतर साधारण जल नहीं है, ठीक समुद्र का जल है। मां के पेट में भी, बच्चा जब पैदा होता है तो मां के पेट में समुद्र के जल जैसी अवस्था होती है। छोटा—सा कुंड बन जाता है समुद्र के जल का, उसी में बच्चा तैरता है। फिर से यात्रा शुरू होती है, पहले मछली की तरह...। अगर बच्चे का तुम विकास देखो नौ महीने का तो तुम मछली से बन्दर तक का विकास देखोगे। इसलिए जब स्त्रियां गर्भवती होती हैं तो नमक ज्यादा खाने लगती हैं। नमकीन चीजें उन्हें अच्छी लगने लगती हैं, क्योंकि पेट में नमक की बहुत जरूरत पड़ जाती है; वह जो बच्चा है, उसके लिए नमक से भरा हुआ कुंड चाहिए—उसमें ही तैरेगा, उसमें ही बड़ा होगा।
पूर्णिमा का चांद जब होता है तो तुमने सागर में उतुंग लहरें उठती देखीं, और तुम भी तो अस्सी प्रतिशत सागर का जल हो—पूरे चांद को देखकर तुम्हारे भीतर भी तरंगें उठती होंगी, उठती हैं। यह जानकर तुम हैरान होओगे कि सर्वाधिक लोग पागल पूर्णिमा की रात्रि को होते हैं। सर्वाधिक लोग बुद्धत्व को भी उपलब्ध पूर्णिमा की रात्रि को होते हैं।  गिरना भी पूर्णिमा की रात्रि, चढ़ना भी पूर्णिमा की रात्रि। बुद्ध के जीवन में तो बड़ा प्यारा उल्लेख है कि वे पूर्णिमा के दिन ही पैदा हुए, पूर्णिमा के दिन ही बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, पूर्णिमा के दिन ही उनकी मृत्यु हुई।
इस दुनिया में बुद्धत्व को जितने लोग उपलब्ध हुए हैं उनमें से अधिक लोग पूर्णिमा के दिन हुए हैं। पूर्णिमा की रात बड़ी अद्भुत है! और पागल भी लोग पूर्णिमा की रात्रि ही होते हैं। दुनिया में हत्याएं भी पूर्णिमा की रात सबसे ज्यादा होती हैं और आत्महत्याएं भी सबसे ज्यादा होती हैं। हिंदी में भी हम पागल को चांदमारा कहते हैं, अंग्रेजी में लूनाटिक कहते हैं। लूनाटिक का मतलब भी चांदमारा
अगर चांद का इतना प्रभाव होता है, इतने दूर चांद का इतना प्रभाव होता है कि किसी को पागल कर दे, कि किसी को बुद्धत्व को पहुंचा दे, कि किसी की आत्माहत्या हो जाए, कि कोई हत्या कर दे। और ऐसा आदमी तो बहुत मुश्किल है खोजना जो चांद से बिलकुल प्रभावित न होता हो—असंभव है! किसी—न—किसी रूप में चांद प्रभावित करता है।
तो क्या उन लागों की हम बात करें जिनके भीतर का चांद प्रगट हो गया हो, जिनके भीतर की बदलियां कट गई हों, जिनके भीतर पूर्णिमा हो गई हो; जो भीतर पूर्ण हो गए हों, जिन्होंने चैतन्य की पूर्णता को पा लिया हो। वे ही सद्गुरु हैं, उनके प्रताप से प्रार्थना का जन्म होता है। और उनके आसपास जो जमात इकट्ठी हो जाती है—दीवानों की, पियक्कड़ों की, मस्तों की, उनको ही साधु कहा है। साधुओं की संगति हो और गुरु का प्रताप हो, तो तुम्हारे सारे प्रयास सार्थक हो जाएंगे। क्योंकि फिर प्रयास + प्रार्थना...। तुम्हारे भीतर प्रार्थना की धुन बजने लगेगी। और जब प्रयास + प्रार्थना, तो फिर कोई बाधा न रही। प्रयास + प्रार्थना = परमात्मा—ऐसा समीकरण है। गुरु—परताप साध की संगति!
संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती!
या पिछले पहर रात अमृत में ढलती!
यों ध्यान में यौवन के थिरकता है रूप:
ज्यों स्वप्न की परछाई नयन में चलती!
ज्यों सोम सरोवर में हृदय—हंस का स्नान!
ज्यों चांदनी लहरों में बांसुरी की तान!
मुग्धा के मुदुल अधर पै यों साध की बात:
ज्यों ओस—धुले फूल की पावन मुसकान!
सद्गुरुओं के पास क्या घटता है शब्दों में कहना कठिन है। संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती! लेकिन कुछ इशारे किये जा सकते हैं। सद्गुरु की संगति में कुछ घटता है, कुछ संगीत... संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती! अब संगीत की कोई परिभाषा नहीं हो पायी अभी तक; कभी हो भी नहीं पाएगी। संगीत को भाषा में अनुवादित करने का भी कोई उपाय नहीं है। और संगीत में कोई अर्थ होता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं। संगीत में कुछ अर्थ नहीं होता। अभिप्राय तो बहुत होता है, अर्थ बिलकुल नहीं होता। आनंद तो बहुत फलित होता है। लेकिन कोई तुमसे पूछे कि क्या ठीक—ठीक बोलो, शब्दों में बांधों तो बस, तुम एकदम मूक हो जाओगे, गूंगे हो जाओगे। गूंगे को गुड़ हो जाता है। संगीत से ज्यादा गूंगे का गुड़ और क्या है!
सद्गुरु के पास क्या घटता है, वह तो महा—संगीत है। साधरण संगीत तो सुना जाता है कानों से, सद्गुरु के पास जो घटता है, वह तो ग्रहण किया जाता है केवल अंतरात्मा से। कान भी उसे नहीं सुनते, आंख भी उसे नहीं देखती, हाथ उसे छू नहीं सकते; उसके लिए तो केवल हृदय ही देखता है, हृदय ही सुनता है, हृदय ही छूता है; वह तो प्रेम की अत्यंत पावन घटना है।
संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती!
या पिछले पहर रात अमृत में ढलती!
या कभी—कभी तुम जल्दी उठ आये हो...अब तो लोगों ने उठना बंद कर दिया, लोग देर से सोते और देर से उठते हैं, और चौबीस घंटों का जो सबसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहर है—जब अमृत ढलता है—उससे चूक जाते हैं। उस अमृत ढलने के पहर को ही हमने ब्रह्ममुहूर्त कहा था। अभी जब सूरज उगा नहीं, रात जाती—जाती मालूम हो रही है; रात का आखिरी विदाई का क्षण आ गया और सूरज अभी उगा नहीं, बस उगेगा, वह जो मध्य का काल है, वह जो संध्या है, वह जो बीच का क्षण है, वह जो अंतराल है, वह ब्रह्ममुहूर्त है। उस क्षण अमृत ढलता है। क्यों? क्योंकि जब भी इतना बड़ा रूपांतरण होता है कि रात दिन में बदलती है तो थोड़ी—सी देर को न रात रह जाती है,न दिन रह जाता है, मध्य की अवस्था आ जाती है। और मध्य की अवस्था संतुलन की अवस्था है, सम्यकत्व की अवस्था है।
इसलिए दो पहर प्रार्थना के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं—एक सुबह, जब रात जा चुकी और दिन अभी आया नहीं; और एक सांझ, जब दिन जा चुका और रात अभी आयी—आयी है, अभी आयी नहीं। ये दो क्षण प्रार्थना के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन दो क्षणों में तुम पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से सर्वाधिक मुक्त होते हो; इन दो क्षणों में तुम अपने सर्वाधिक निकट होते हो; इन दो क्षणों में परमात्मा तुम्हारे बहुत पास होता है, अगर जरा हाथ बढ़ाओ तो हाथ में हाथ आ जाए।
इसलिए भारत में तो...क्योंकि इस देश ने प्रार्थना पर जितने प्रयोग किये दुनिया में किसी और देश ने नहीं किये। दुनिया के और देशों में और बहुत काम हुए हैं, उस संबंध में हम कुछ दावा नहीं कर सकते अपना—विज्ञान है, गणित है, भौतिकशास्त्र है, रसायनशास्त्र है, इन्जीनियरिंग है, सारी दुनिया में बड़े काम हुए हैं। हम तो दावा सिर्फ एक कर सकते हैं कि हमने प्रार्थना का विज्ञान खोजा है। चूंकि भारत ने प्रार्थना पर बहुत प्रयोग किये, यह बात समझ में आ गई कि चौबीस घंटे में दो क्षण ऐसे होते हैं जो सर्वाधिक परमात्मा के निकट ले जाते हैं। इसलिए भारत में संध्या प्रार्थना का एक नाम ही हो गया। लोग कहते हैं: संध्या कर रहे हैं। संध्या कर रहे हैं अर्थात् प्रार्थना कर रहे हैं। प्रार्थना और संध्या पर्यायवाची हो गए।
संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती!
या पिछले पहर रात अमृत में ढलती!
कुछ ऐसी ही घटना घटती है गुरु के पास—सुबह—सुबह की ताजी हवा, सुबह—सुबह की ताजी किरण, सुबह—सुबह की ताजी ओस, सुबह का वह नहाया हुआ क्वांरा रूप...! यों ध्यान में यौवन के थिरकता है रूप... जैसा युवावस्था में सौंदर्य आकर्षित करता है, ऐसा ही सत्य के खोजी की सद्गुरु आकर्षित करता है।
ज्यों स्वप्न की परछाई नयन में चलती! और बात इतनी बारीक है कि स्वप्न की भी अगर परछाई बने तो तुलना हो सकती है। स्वप्न तो स्वयं ही परछाई है, परछाई की परछाई नहीं बनती। लेकिन अगर स्वप्न की भी परछाई बन सके तो सद्गुरु के पास जो घटता है, वह इतना बारीक है, इतना नाजुक है, इतना सूक्ष्म...।
ज्यों सोम सरोवर में हृदय—हंस का स्नान! जैसे चांद का सागर हो, चांदनी का सागर हो...या सोम का हम दूसरा अर्थ ले सकते हैं, वेद में सोमरस की चर्चा है, सोमरस अमृत का पर्यायवाची है; अगर सोमरस का ही कोई सागर हो, अमृत का ही कोई सागर हो...ज्यों सोम सरोवर में हृदय हंस का स्नान! और हृदय हंस बन जाए, और सोम के सागर में स्नान करे, ऐसा ही शिष्य का स्नान हो जाता है गुरु के पास। गुरु बन जाता है सोम सरोवर, शिष्य बन जाता है हंस!
ज्यों चांदनी लहरों में बांसुरी की तान!
मुग्धा के मृदुल अधर पै यों साध की बात:
ज्यों ओस—धुले फूल की पावन मुसकान!    
जैसे सुबह—सुबह ओस में धुले हुए फूल की पावन मुसकान है, ऐसी ही कुछ अभूतपूर्व घटना सद्गुरु और शिष्य के बीच घटती है। किसी और को तो कानों—कान पता भी नहीं चलता। घटना घट जाती है, क्रांति हो जाती है, सोये जग जाते हैं, मगर दूसरों को पता भी नहीं चलता। यह तो गुरु और शिष्य को ही पता चलता है कि लेन—देन कब हो गया, कि कब दो हृदय मिल गए और एक हो गए, कि कब दो आत्माओं ने अपनी दूरी खो दी। कोई तीसरा पास भी बैठा रहे दर्शक की भांति, उसे कुछ भी पता न चलेगा।
यह सत्य की खोज तो केवल उनकी ही है जो डूबने को तैयार हैं। दर्शक की भांति यह खोज नहीं हो सकती; इस खोज के लिए तो समर्पित होना अनिवार्य है।
भीखा के सूत्र:
रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन
वे कहते हैं: मैं तो उसे ही कहूंगा बुद्धिमान, उसे ही कहूंगा कुशल, उसे ही कहूंगा प्रवीण, जो राम के रूप को देख ले, बाकी सब बुद्धिमान तो बस बुद्ध हैं। कहने के बुद्धिमान हैं। गणित उन्हें आता होगा और धन कमाने की कला आती होगी; और इतिहास के बड़े पंडित होंगे और बड़ी शोध की होगी; और भूगोल के बड़े ज्ञाता होंगे और बड़ी यात्रााएं की होंगी; बड़े पदों पर होंगे; बड़ी प्रतिष्ठा होगी, यश होगा, उपाधियां होंगी—मगर सब व्यर्थ है, क्योंकि मौत सब छीन लेगी! इस तरह के लोग धोखे में जी रहे हैं।
भीखा ठीक कहते हैं: रामरूप को जो लखै...मैं तो सिर्फ एक को ही बुद्धिमान कहता हूं, वे कहते हैं, जो राम के रूप को लख ले, जो राम को देख ले, जो राम का दर्शन कर ले, जो सत्य को पहचान ले, जो इस जगत में व्याप्त ब्रह्म के साथ सगाई कर ले। रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन...बस वही कुशल है, वही बुद्धिमान है, वही प्रज्ञावान है।
सो जन परम प्रबीन, लोक अरु बेद बखानै।।
और भीखा कहते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, मैं ही नहीं कह रहा हूं, वेद भी यही कहते हैं और सदा—सदा से लोगों का अनुभव भी यही है। मौत जिसे छीन ले उसे कमाने में समय गंवाया, वह कमाई नहीं है, गंवाई है। मौत जिसे न छीने उसने चाहे सब गंवाया हो तो भी कुछ कमाया। जीसस का वचन है: अगर जिंदगी को बचाओगे, सब गंवा बैठोगे और अगर जिंदगी को गंवाने की तैयारी हो, तो सब कमाने का राज मैं तुम्हें दे सकता हूं।
सतसंगति में भाव—भक्ति परमानंद जानै।।
बस एक ही चीज बचेगी मौत के पार कि जिसने सत—संगति में, भाव—भक्त्ति में डुबकी ली हो और परमानंद को जाना हो। शेष सब खो जाएगा। शेष सब पानी पर खींची गई लकीरें हैं, तुम बना भी न पाओगे और मिट जाएंगी। तुम्हारी यशप्रतिष्ठा की बातें, तुम्हारी आकांक्षाएं, सब कागज की नावें हैं, चला भी नहीं पाओगे कि डुब जाएंगी। रेत के महल हैं, अब गिरे तब गिरे, हवा का जरा—सा झोंका और सब महल मिट्टी में मिल जाएंगे।
सतसंगति में भाव—भक्ति परमानंद जानै।।
रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन।।
सकल विषय को त्याग बहुरि परबेसपावै।।
और जिसने राम के रस को पी लिया, उससे सारे विषयों का त्याग हो जाता है। सकल विषय को त्याग बहुरि परबेसपावै...ऐसे व्यक्त्ति को फिर दोबारा लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता। कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। उत्तीर्ण हो गया; संसार की परीक्षा से पार हो गया; संसार की कसौटी पर कस लिया गया।
केवल आपै आपु आपु में आपु छिपावै।।
तब उसे पता चलता है कि यह भी खूब रहस्यपूर्ण खेल था—अपने में ही छिपा था, अपने को ही खोज रहा था, अपने में ही खोजना था। सब अपने में है। सारा संसार, सारा विश्व स्वयं के भीतर है। लेकिन भीतर तो हम जाते नहीं, हम बाहर भागे—भागे फिर रहे हैं। हम ता भीतर से बचते फिरते हैं कि कहीं भीतर जाना न हो जाए। हम तो भीतर से डरते हैं। जरा देर को अकेले बैठना पड़े तो मुश्किल हो जाती है। थोड़ी—सी देर को अकेले रह जाओ कि बेचैनी होने लगती है कि क्या करूं, क्या न करू!
खालीपन अखरता है। सदियों—सदियों बुद्धिमानों ने एकांत खोजा। और बुद्धिहीन? समय काटते रहे। लोग ताश खेल रहे हैं। उनसे पूछो क्या कर रहे हो? वह कहते हैं: समय काट रहे हैं! कोई शतरंज खेल रहा है, लकड़ी के हाथी—घोड़े चला रहा है। उससे पूछो, क्या कर रहे हो? वह कहता है: समय काट रहे हैं! कोई रेडियो ही खोले बैठा है। लोग टेलीविजन के सामने घंटों बैठे हैं, तीनत्तीन घंटे फिल्में देख रहे हैं! कुछ काम—धाम नहीं है। होटलों में बैठे बातचीत कर रहे हैं, क्लब—घरों में बैठे बकवास कर रहे हैं, वही बकवास जो हजार बार कर चूके हैं, वे ही बातें, जो वे भी कह चुके हैं और दूसरों से भी सून चुके हैं।
मगर अकेले में बैठने को कोई राजी नहीं है। क्या हो गया है आदमी को? सदियों में तो हमने उल्टा किया था। हम एकांत खोजते थे। घड़ी—भर को समय मिल जाए तो आंख बंद करके बैठते थे। अब तो कोई आंख बंद करके बैठता नहीं। अब तो कोई थोड़ी देर को द्वार—दरवाजे बंद करके नहीं बैठता। अब तो कोई थोड़ी देर के लिए कभी जंगल नहीं जाता कि दो—चार—दस दिन के लिए पहाड़ चला जाए, चुप वहां बैठ जाए। पहाड़ भी जाता है तो ले चला ट्रांजिस्टर—रेडियो साथ। तो कोई के लिए जा रहे हो वहां? ये ट्रांजिस्टर—रेडियो तो तुम यहीं सुन लेते, इसको पहाड़ पर सुनोगे तो फायदा क्या है? पहाड़ भी जाते हैं लोग तो कैमरा लटकाये हुए चले।
मैं एक मित्र के साथ हिमालय गया। कितनी ही सुंदर स्थिति हो, कितना ही सुंदर समय हो, बस वे खट—खट अपने कैमर को ही करते रहें। मैंने उनसे कहा कि तुम देखोगे कब? इतना सुंदर सूरज उग रहा है मगर तुम अपने कैमर में लगे हो! इतनी सुंदर छटा है बादलों की, और तुम कैमरे में लगे हो!
उन्होंने कहा: आप फिक्र न करें, घर लौटकर अलबम बनाकर मजे से देखेंगे।
तो मैंने कहा: फिर यहां आने की जरूरत क्या थी? अलबम तो तैयार बाजारों में बिकते हैं। हिमालय की सुंदरतम तसवीरें बाजारों में मिलती हैं। तुम उतनी सुंदर तसवीर ले भी न पाओगे, वे ज्यादा प्रोफेसनल, ज्यादा व्यावसायिक लोगों के द्वारा ली गई तसवीरें हैं। तुम काहे के लिए यहां परेशान हुए? तसवीरों को देखोगे, और सामने सौंदर्य खड़ा है!
मगर लोग, बस ऐसे हैं। पहाड़ पर भी जाएंगे तो वही आदतें...। पहाड़ पर गए हैं, स्वच्छ वायु लेने और वहीं बैठे सिगरेट पी रहे हैं! आदमी की बुद्धिहीनता की कोई सीमा है! अगर सिगरेट ही पीनी थी तो बम्बई बेहतर। वहां बिना पिये ही हवा में इतना धुआं है कि पियो सिगरेट कि न पियो, धूम्रपान चल रहा है। तुम हिमालय किस लिए आये हो? थोड़ी देर पहाड़ से दोस्ती करो, पहाड़ों के पास कुछ राज छिपे हैं—ये अब भी ध्यानमग्न हैं, ये पहाड़ अभी भी सभ्य नहीं हुए हैं, ये अभी भी तुम्हारे विश्वविद्यालयों से उत्तीर्ण नहीं हुए हैं, इन पहाड़ों को अभी भी दिल्ली जाने का पागलपन सवार नहीं हुआ है, ये पहाड़ अभी भी निर्दोष हैं—जरा इनसे दोस्ती बनाओं, जरा इनके पास बैठो। जरा छोड़ो दुनिया को, भूलो दुनिया को—थोड़े अपने में डुबो।
केवल आपै आपु आपु में आपु छिपावै।।
तब तुम्हें पता चलेगा, कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं, जिसे हमे तलाशते थे वह भीतर है। जिसे हम बाहर तलाशते थे वह भीतर है, इसलिए बाहर मिलता नहीं था। मिलता कैसे,बाहर था ही नहीं। संपत्तियों की संपत्ति भीतर, राज्यों का राज्य भीतर है। तुम सम्राट हो मगर भिखमंगे बने बैठे हो। और तुम भिखमंगे रहोगे जब तक तुम बाहर हाथ फैलाये रहोगे। द्वार—द्वार से कहा जाएगा—आगे बढ़ो। और जो तुम्हें आगे बढ़ा रहे हैं उनकी भी हालत तुमसे कुछ बहुत बेहतर नहीं है, वे भी तुम जैसे ही भिखमंगे हैं।
मैंने सुना है एक भिखमंगे ने एक मारवाड़ी के घर के सामने आवाज दी: "कुछ मिल जाए'भिखमंगे को पता नहीं होगा कि घर मारवाड़ी का है, नहीं तो वह आवाज देता ही नहीं। भिखमंगे मारवाड़ियों के घर के सामने आवाज देते ही नहीं। भिखमंगों के शास्त्रों में लिखा है कि मारवाड़ी से बचना, अकेला मिल जाए तो भाग खड़े होना, क्योंकि देना तो दूर कुछ छीन न ले! पता नहीं होगा, नया—नया भिखमंगा होगा। गांव के जो पुराने भिखमंगे थे, वे तो कभी उस द्वार पर आवाज देते ही नहीं थे, क्योंकि उस द्वार से कभी किसी को कुछ मिला नहीं। असल में भिखमंगे पहचान लेते थे, जब भी उस द्वार के सामने कोई आवाज देता था कि कोई नया भिखमंगा गांव में आ गया; एक नया प्रतियोगी गांव में आ गया।
इस भिखमंगे ने आवाज दी कि मिल जाए कुछ; तीन दिन का भूखा हूं। मारवाड़ी ने कहा कि पत्नी घर पर नहीं है।
मगर भिखमंगा भी एक ही था! रहा होगा पिछले जन्म में मारवाड़ी। उसने कहा: मैं पत्नी को मांग भी नहीं रहा हूं। अरे, रोटी मिल जाए। पत्नी को मैं क्या करूंगा? खुद के खाने के लाले पड़ रहे हैं और तुम पत्नी पकड़ाने चले। पत्नी अपनी तुम रखो, मुझे तो दो रोटी मिल जाएं बस काफी है।
मगर मारवाड़ी भी कुछ ऐसे, इतनी आसानी से हल नहीं हो सकता। उसने कहा: घर में कोई भी नहीं है, रोटी तुम्हें दे कौन?
उस भिखमंगे ने कहा: तुम्हारे हाथ—पैर नहीं हैं? सामने बैठे हो भले—चंगे। अरे, जरा उठो, व्यायाम भी हो जाएगा।
दो मारवाड़ीयों में टक्कर हो गई। वे एक—दूसरे से कुछ हारने वाले लोग नहीं थे। मारवाड़ी ने कहा: अरे, चल—चल, आगे बढ़। घर में कुछ है ही नहीं देने को तो मेरे उठने और व्यायाम करने से भी फायदा क्या?
तो उस भिखमंगे ने कहा कि फिर ऐसा करो, तुम भी मेरे साथ आ जाओ। जब घर में कुछ है ही नहीं तो यहां बैठे—बैठे क्या कर रहे हो, भूखे मर जाओगे! दोनों मांगेंगे—खाएंगे और दोनों मजा मरेंगे। आाओ, निकल आओ।
तुम जिनके सामने हाथ फैला रहे हो वे खुद भी भिखमंगे हैं, उनके पास भी कुछ नहीं है देने को। तुम किससे मांग रहे हो? इस संसार में कोई भी तुम्हें कुछ दे नहीं सकता। और जो तुम्हें चाहिए वह परमात्मा ने तुम्हें पहले से ही दिया हुआ है। तुम्हें उसने मालिक बनाकर ही भेजा है, तुम उस मालिक के ही अंश हो। याद करो, स्मरण करो। उपनिषद् बार—बार कहते हैं: स्मरण करो, स्मरण करो कि तुम उस मालिक के हिस्से हो।
भीखा सब तें छोट होइ, रहै चरन—लवलीन।।
और अगर चाहते हो कि दुनिया के सम्राट से तुम्हारा मिलना हो जाए और तुम भी सम्राट हो जाओ; मालिको के मालिक से मिलना हो जाए और तुम भी मालिक हो जाओ, तो कला छोटी है—भीखा सब तें छोट होइ...बिलकुल छोटे हो जाओ, नाकुछ हो जाओ, शून्यवत हो जाओ। रहै चरन—लवलीन...और प्रभु के चरणों के अतिरिक्त तुम्हारे मन में कोइ और आकांक्षा, अपेक्षा, अभीप्सा न बचे। रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन! और ऐसा जो बिलकुल छोटा हो जाता है, ऐसा जो नाकुछ हो जाता है—शून्यवत—उसको ही उपलब्धि होती है परमात्मा के चरणों की। और भीखा कहते हैं बस, मैं तो उसी को बुद्धिमान कहता, किसी और को नहीं।
खुदा जाने तिरे रिंदों पे क्या गुजरी कि महफिल में,
न साजो—मीना है साक़ी, न रक्से जाम है साक़ी
आज तो हालत बड़ी बुरी हो गई है। न मालूम क्या हुआ, परमात्मा के दीवानाो पर क्या गुजरी है; मधुशाला खाली पड़ी है, सुराहियां खाली पड़ी हैं, प्यालियां खाली पड़ी हैं; अब मधु के दौर नहीं चलते— न रंग है, न रस है, न मस्ती है; आदमी उदास है।
खुदा जाने तिरे रिंदों पे क्या गुजरी कि महफिल में,
न साजो—मीना है साकी, न रक्से जाम है साक़ी
सब नृत्य बंद हो गया, सब गीत बंद हो गया। हे परमात्मा! तेरे पियक्कड़ों पर क्या गुजरी? यह हुआ क्या?
खुदा जाने तिरे रिंदों पे क्या गुजरी कि महफिल में,
न साजो—मीना है साकी, न रक्से जाम है साक़ी
जुनूं में और खिरद में दरहक़ीक़त फर्क इतना है,
ये ज़ेर—दार है साक़ी, वे ज़ेरे—दाम है साक़ी
अभी तो चंद क़तरे ही मिले हैं तशनाकामों को,
मगर पीरे—मुगां की बज्म में कोहराम है साक़ी
सुए—मंज़िल बढ़ा जाता हूं मैखानामैखाना,
मज़ाकेजुस्तुजू तशनालबी का नाम है साक़ी
निज़ामेत्तशनाकामी अब ज्य?ादा चल नहीं सकता,
कि जो मैखाना परवर है उसी का जाम है साक़ी
अभी सूदोजियां का कुछ—न—कुछ एहसास बाक़ी है,
जुनूं के हाथ में अब तक खिरद का जाम है साक़ी
कभी दो चार क़तरे भी सलीक़े से न पी पाये,
वो रिंदो—खाम हैं साक़ी वो नंगे—जाम हैं साक़ी
कभी दो घूंट भी नहीं पी पाये जिंदगी में जीवन के रस की; प्याली खाली ही रह गई, ओंठ प्यासे ही रह गए। क्या हो गया आदमी को? आदमी पीने की कला ही भूल गया, आदमी जीने की कला ही भूल गया। आदमी अपने से परिचित होने का विज्ञान भूल गया है।
मन क्रम बचन बिचारिकै राम भजै सो धन्य।।
सीखो फिर से वह कला, फिर से सीखने होंगे पाठ—भूले पाठ।
मन क्रम बचन बिचारिकै राम भजै सो धन्य...मन से, कर्म से, वचन से होशपूर्वक जो राम को भजता है, वह धन्य हो जाता है। ख्याल रखना, राम को भजने वाले बहुत हैं, राम—चदरिया ओढ़े हुए लोग बहुत हैं—काशी में मिल जाएंगे, हरिद्वार में मिल जाएंगे। भज ही रहे हैं राम—राम...। मगर बस तोतों जैसा रट रहे हैं। उसका कोई भी मूल्य नहीं है, दो कौड़ी मूल्य नहीं है। क्योंकि न तो उनके मन में राम है, न उनके कर्म में राम है न उनके वचन में राम है, न उनके होश में राम है। यंत्रवत कोई माला फेर रहा है...। लोग दुकानों पर बैठे माला फेरते रहते हैं! दुकान भी चलाते रहते हैं, माला भी फेरते रहते हैं। थैलियां बना ली हैं लोगों ने, थैलियां में माला छिपाये हुए हैं और चला रहे हैं।
ये मालाएं काम नहीं आएंगी। यह राम—राम जपना काम नहीं आएगा। हृदय से उठना चाहिए भाव। ये जबानों पर अटके रह जाते हैं शब्द, इससे गहरे नहीं जाते। न तो रोटी—रोटी जपने से भूख मिटती है और न पानी—पानी जपने से प्यास मिटती है, राम—राम जपने से क्या होगा? राम—राम जपने से तुम सिर्फ अपनी विक्षिप्तता प्रगट कर रहे हो, और कुछ भी नहीं। यह बात जपने की नहीं है, यह बात तो हृदय में उतारने की है, भाव की है। तुम्हारे हृदय में राम का आवास हो, फिर तुम राम जपो कि न जपो, जलेगा।
राम भजै सो धन्य, धन्य बपु मंगलकारी।
जो राम को जप ले हृदयपूर्वक,आत्मापूर्वक, वह धन्य है। वह धन्य है, इतना ही नहीं; उसका शरीर भी धन्य है। क्योंकि जिस देह में राम से भरा हृदय हो, वह देह मंदिर हो गई; वह देह साधारण देह न रही, तीर्थ हो गई। ऐसे पैर जहां पड़ेंगे वहां तीर्थ बनेंगे। ऐसा व्यक्ति जहां उठेगा—बैठेगा वहां तीर्थ बनेंगे। ऐसे ही तो मक्का बना, ऐसे ही तो काशी बनी, ऐसे ही तो गिरनार बनी। आखिर तीर्थ बने कैसे? किसी के भीतर ऐसा राम प्रगट हुआ, किसी के भाव में ऐसा राम सघन हुआ, कि उसके आसपास की मिट्टी भी पवित्र हो गई।
रामचरन—अनुराग परमपद को अधिकारी।।
और जिसे पाना हो परमपद, उसका अधिकार सिर्फ इतना ही चाहिए कि राम के चरणों में झुकने की कला। झुकने की कला आदमी भूल गया है। झुकना हम जानते ही नहीं। हम कभी—कभी जाकर मंदिर में सिर झुका लेते हैं, मगर अहंकार तो खड़ा ही रहता है। तुमने कभी देखा, तुम मंदिर में जाकर नमस्कार कर रहे हो, सिर झुका रहे हो, अगर मंदिर में भीड़—भाड़ हो और ज्यादा लोग हों तो तुम बड़ी कुशलता से सिर झुकाते हो, बड़े ढंग से, बड़े लहज़े से, बड़ी लज्जत से, क्योंकि चार लोग देख रहे हैं, गांव में खबर हो जाएगी, कि है यह आदमी घार्मिक। और कोई न हो मंदिर में तो पटका सिर और भागे, एक काम था निपटा दिया।
टालर्स्टाय ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं एक दिन सुबह—सुबह चर्च गया। गांव का जो सबसे बड़ा धनपति था, वह मंदिर में, चर्च में, परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था। अभी अंधेरा था तो टालर्स्टाय को वह देख नहीं पाया। और जैसा ईसाइयों की प्रार्थना में पश्चात्ताप करना होता है और कन्फेशन और अपने पापों का उद्घाटन...। तो वह अपने पापों का उद्घाटन कर रहा था, वह परमात्मा से कह रहा था, मैं बड़ा पापी हूं। मुझसे बुरा आदमी इस संसार में दूसरा नहीं। धन भी मैंने छीना है गरीबों का। परायी स्त्रिायों पर भी मेरी नजर बुरी रही...वह तरहत्तरह की बातें कह रहा था, जो भी कहनी चाहिए।
टालर्स्टाय सुनते रहे। उन्हें तो भरोसा ही नहीं आया क्योंकि इस आदमी की बड़ी प्रतिष्ठा थी, यह तो गांव में साधु समझा जाता था। तभी धीरे—धीरे सुबह होने लगी, रोशनी थोड़ी हुई। उस आदमी ने लौटकर देखा, टालर्स्टाय को देखा तो वह टालर्स्टाय के पास आया! उसने कहा कि ख्याल रखना, ये बातें बाहर न जा पाएं, किसी को इन बातों का पता न चले, नहीं तो अदालत में मानहानि का मुकदमा चलाऊंगा
तो टालर्स्टाय ने कहा: लेकिन तुम्हीं तो कह रहे थे।
उसने कहा: हां, मैं ही कह रहा था लेकिन तुमसे नहीं कह रहा था, परमात्मा से कह रहा था। और जनता से नहीं कह रहा था। दुनिया में कोई बदनामी करवानी है! मैं तुम्हें जताये देता हूं कि अगर इसमें से एक भी बात कहीं बाहर गई तो तुम्हीं जिम्मेवार रहोगे क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त यहां कोई और नहीं है।
टालस्टॉय ने कहा: यह कैसी प्रार्थना? अगर तुम सच ही अपने पापों का पश्चात्ताप कर रहे हो तो जानने दो सबको, पहचानने दो सबको।
मगर उससे अहंकार को चोट लगेगी, वह नहीं हो सकता। परमात्मा को बताने से तो अहंकार को मजा आ रहा है, चौट नहीं लग रही। मनोवैज्ञानिक कहते हैं और मैं उनसे राजी हूं कि जिन लोगों ने अपनी आत्मकथाओं में पापों का उल्लेख किया है, वह बढ़ा—चढ़ाकर किया है। क्योंकि जब बता ही रहे हैं तो...आदमी के साथ यही तो बड़ी खूबी है, जब पाप ही बता रहे हैं तो फिर बढ़ा—चढ़ाकर ही बताना ठीक है। अतिशयोक्ति मनुष्य की आदतों में एक है।
अगस्तीन ने अपने संस्मरण लिखे हैं। उनमें ऐसा लगता है कि बहुत बढ़ा—चढ़ा कर बात कही गई है। इतने पाप एक आदमी कर सके, यह भी संभव नहीं है। महात्मा गांधी ने भी अपनी आत्मकथा में जो बातें लिखी हैं उनमें अतिशयोक्ति है, वे सच नहीं हैं, सब सच नहीं हैं। बहुत बढ़ा—चढ़ाकर लिखा है।
पाप को भी बढ़ा—चढ़ाकर कहने का एक मजा है। क्या मजा है? कि मैं कोई छोटा पापी नहीं हूं। कि मैं हर कोई आम पापी नहीं हूं कि तुम जैसा हर किसी का...साधारण पापी...असाधरण पापी हूं। और फिर जब पाप को खूब बढ़ा—चढ़ाकर बताओ तो उसकी पृष्ठभूमि में तुम्हारा महात्मापन भी बड़ा हो जाता है। स्वभावतः जिसने इतने बड़े पाप किये और फिर महात्मा हो गया है, सब पाप छोड़ दिये, उसकी महिमा भी ज्यादा हरैजन्होंने कुछ पाप किये ही नहीं थे...अब तुम यही समझो कि तुमने दो पैसे की चोरी की थी, और घूमने लगे, चिल्लाने लगे कि मैंने दो पैसे की चोरी की थी, अब मैंने चोरी करने का त्याग कर दिया। लोग कहेंगे बकवास बंद करो। चोरी भी कोई बड़ी नहीं थी तो त्याग ही कैसे बड़ा हो सकता है? लेकिन तुम कहो कि मैंने दो करोड़ की चोरी की थी और त्याग कर दिया। तो बात में कोई दम मालूम पड़ती है। तो जिसने दो पैसे चुराये हैं वह भी दो करोड़ की चोरी की बात करेगा।
अतिशयोक्ति आदमी पाप की भी कर सकता है अगर अहंकार को तृप्ति मिलती हो। और अगर पाप के कारण महात्मापन बड़ा होता हो तब तो फिर कहना ही क्या!
एक महिला हर रविवार को जाती थी अपने पादरी के पास, अपने पापों की स्वीकृति के लिए। पादरी जरा परेशान था। क्योंकि पाप उसने एक ही किया था—एक आदमी को एक दफे प्रेम किया था। और वही पाप वह कम—से—कम सात दफे आकर कन्फेस कर चुकी थी। जब आठवीं दफे आयी तो पादरी ने कहा कि बाई कब तक तेरा वही पाप मैं बार—बार सुनूं और तुझे क्षमा करवाऊं? तेरी क्षमा हो चुकी। एक ही बार किया है पाप, अब कितनी बार उसकी तू क्षमा मांगती है?
लेकिन उस स्त्री ने कहा: उस पाप की बात ही करने में बड़ा मजा आता है। और बार—बार क्षमा पाने में भी बड़ा मजा आता है, बड़ा रस आता है।
आदमी पाप की अभिव्यक्ति में भी रस ले सकता है। शायद टालर्स्टाय ने जिस धनपति को सुना, वह भी बढ़ा—चढ़ा कर कह रहा हो। जब परमात्मा से ही कह रहे हैं तो फिर क्या कमी करनी? दिल खोलकर ही कह दिया हो। खूब बढ़ा—चढ़ाकर कह दिया हो। अगर पापों का प्रायश्चित करना ही महात्मापन है तो फिर बड़े ही बड़े पापों का प्रायश्चित करना ठीक है। छोटे—मोटे पाप का क्या हिसाब? छोटे—मोटे पापियों की वहां भी कोई गिनती नहीं होगी, ख्याल रखना। जब कयामत के दिन निर्णय का दिन आएगा, तो तुम जरा सोचो तो कि कहां खड़े होआगे क्यू में? सारी दुनिया के लोग इकट्ढे होंगे।
एक यहूदी अपने रबाई से पूछ रहा था कि मैं यह जानना चाहता हूं कि एक ही दिन में निर्णय हो जाएगा? कहा तो यही जाता है कि एक दिन कयामत का और उस दिन सबका निर्णय हो जाएगा। वह यहूदी जरा बेचैन था, सिर खुजलाने लगा। उसने कहा कि मैं फिर से पूछता हूं आपसे कि जितने लोग आज तक पैदा हुए दुनिया में, और जितने लोग आगे पैदा होंगे, और जितने अभी हैं, ये सब लोग रहेंगे, और एक ही दिन में फैसला हो जाएगा?
रबाई ने कहा कि हां भाई।
तो उस आदमी ने कहा: एक बार और पूछना है, स्त्रियां भी रहेंगी?
तो उसने कहा: तू बार—बार वही बात क्यों पूछता है! पुरुष भी रहेंगे, स्त्रियों भी रहेंगी।
तो उसने कहा: फिर मुझे फिक्र ही छोड़ देनी चाहिए। इतना शोरगुल मचने वाला है कि हम गरीबों की तो पूछ ही कहां होगी। हम तो कहीं क्यू में पीछे खड़े रह जाएंगे, हमारा नंबर भी नहीं लगने वाला है। तुम भी जरा सोचना, कोई तम्बाकू खा रहा है, वह सोच रहा है: हमारा नंबर लगेगा। तुम पागल हो गए हो! तम्बाकू खाकर ही नंबर लगवा लोगे? कोई हुक्का गुड़गुड़ा लेता है, वह कहता है: हमारा नंबर लगेगा। वहां हिटलरों की, चंगेजखान, नादिरशाह, माओत्से तुंग, स्टैलिन, इन लोगों की पूछ होगी। इनकी भी बड़ी भीड़ होगी। साधारण आदमी की क्या बिसात!
तो अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए आदमी पापों को भी बढ़ा—चढ़ाकर बोल सकता है, लोग बोलते हैं। और फिर उनकी पृष्ठभूमि में महात्मापन भी बड़ा हो जाता है। छोटा करो अपने को। अपने पाप भी बड़े नहीं हैं, अपने पुण्य भी बड़े नहीं हैं। अपना होना ही बड़ा नहीं है। अपना होना ही नहीं है।
रामचरन—अनुराग परमपद को अधिकारी।।
ऐसे जो झुक जाएगा उसके चरणों में, वह परमपद का अधिकार हो जाता है। लेकिन एक बात तुम्हें याद दिला दूं, परमपद के अधिकारी होने के लिए मत झुकना, नहीं तो फिर भूल हो जाएगी। ये ही जटिलताएं हैं धर्म के मार्ग पर। तीर्थयात्रा के ये ही उलझाव हैं। पढ़ा वचन: रामचरन—अनुराग परमपद को अधिकारी। दिल ने कहा: यार, यह बात जंचती है। परमपद के अधिकारी तो होना है। तो अब ठीक है चलो, परमपद के अधिकारी होना है, यह भी कर लेंगे, चरणों में भी झुक लेंगे। चलो एक बार चरणों में भी झुक लें। अगर खुशामद ही करने से होना है, अगर स्तुति करने से होना है, चलो यह भी कर लें। मगर होना है परमपद का अधिकारी।
अगर परमपद का अधिकारी होने की वासना है तो तुम झुकोगे कैसे? यह अहंकार झुकने ही नहीं देगा। नहीं, तो इस वचन का अर्थ दूसरा है, तुम ऐसा अर्थ मत लेना। परमपद का अधिकार तुम्हारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए, लक्ष्य तो है झुकना। लक्ष्य तो है झुकना अपने—आप में। आनंद तो है झुकने में, फिर यह उसका परिणाम है। इसकी चिंत्ता है, न इसकी अपेक्षा। झुककर ऐसा देखना मत फिर आंख के कोर से कि अभी तक परमपद नहीं मिला। जरा आंख खोलकर देख लें अभी तक मिला कि नहीं मिला। ऐसी भूल करोगे तो...और ऐसी भूल की जाती रही है, की जा रही है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: ध्यान नहीं लगता।
मैं उनसे कहता हूं: ध्यान लगेगा लेकिन अपेक्षा छोड़ दो। कोई भी भीतर अपेक्षा मत रखो कि शांति मिलनी चाहिए, स्वास्थ्य मिलना चाहिए, आनंद मिलना चाहिए—सब अपेक्षा छोड़ दो। ध्यान को ध्यान की मस्ती के लिए करो।
तो वे कहते हैं: फिर मिलेगा? फिर पक्का है?
चुक गए। नहीं बात समझ में उनके आयी।
ध्यान ध्यान का ही लक्ष्य है। प्रेम प्रेम का ही लक्ष्य है। प्रार्थना प्रार्थना का ही लक्ष्य है। हां, परिणाम में बहुत फूल खिलते हैं, बहुत सुगंध लुटती है, बहुत दीये जलते हैं। मगर वह परिणाम में। वे तुम्हारी आकांक्षा के हिस्से नहीं होने चाहिए।
काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरिआवै।।
ध्यान रखाना, झुको तो उस झुकने में—काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरिआवै! अगर जरा—सी लहर भी आ गई उस झुकने में तो झुकना व्यर्थ हो गया। अगर तुमने मांगा कि स्वर्ग मिल जाए; कहीं दिल में, कोने में छिपी एक आवाज रही कि हे प्रभु! इस संसार में तो बहुत कष्ट पाये, अब बैकुण्ठ बुला ले; कि यहां तो बहुत तकलीफ उठायी; यहां लुच्चे—लफंगे तो पदों पर बैठे हैं, सीधे—सादों की कोई पूछ नहीं है; यहां सच्चरित्रों का तो कोई सम्मान नहीं है, दुश्चरित्र राजनेता हो गए हैं। अब तो बैकुण्ठ बुला ले। तो दिल में यह इच्छा है कि वहां तो सच्चरित्रों की पूछ होगी; वहां तो सीधे—सादों की पूछ होगी; वहां तो सीधे—सादे सिंहासन पर बैठेंगे। और यहां जिनकी प्रतिष्ठा है, वहां मुश्किल में पड़ेंगे। वहां उनको काम इत्यादि मिलेंगे ऐसे कि झाडू—बुहारी लगाओ, शूद्र इत्यादि के काम करो, और हम बैठेंगे ब्राह्मण होकर, द्विज होकर।
अगर ऐसी आकांक्षा कहीं जरा—सी भी छिपी है तो चूक हो जाएगी। स्वर्ग में अप्सराएं मिल जाएं, और बहिश्त में शराब के झरने मिल जाएं; और कल्पवृक्ष मिलें और उनके नीचे बैठे हैं और जो—जो इच्छाएं हैं सब पूरी हो जाएं, जो यहां नहीं पूरी हुई, जो यहां पूरा करना चाहते थे लेकिन नहीं हो सकीं, क्योंकि दूसरे लोग ज्यादा दुष्ट और ज्यादा गलाघोंट प्रतियोगिता करने में समर्थ, छीना—झपटी बड़ी है, यहां तो कुछ नहीं हो पाया अब वहां देख लेंगे। अगर ऐसी कहीं जरा—सी भी लहर...लहर शब्द पर ध्यान देना। काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरिआवै...झुकने में लहर भी आ गई तो सब व्यर्थ हो गया, झुकना व्यर्थ हो गया; तुम झके ही नहीं।
परमात्मा चैतन्यरूप महं दृष्टि समावै
झुको ऐसे कि एक लहर न उठे वासना की। और परमात्मा चैतन्यरूप महं दृष्टि समावै...बस एक ही दृष्टि रह जाए, परमात्मा की तरफ लगी हुई; और कोई मांग नहीं, और कोई शर्त नहीं, सारी दृष्टि उसी में लीन हो जाए। जैसे सरिताएं सागर में डूब जाती हैं और एक हो जाती हैं; ऐसे तुम्हारी सारी दृष्टि उसी में लीन हो जाए, उसी एक में समाहित हो जाए।
व्यापक पूरनब्रह्म है भीखा रहनि अनन्य।
जिसने ऐसा कर लिया कि जिसकी आंख परमात्मा में डूब गई, जिसका देखना परमात्मा में डूब गया, और कोई वासना न रही, और कोई लहर न रही—उसने जाना है कि परमात्मा सब तरफ व्याप्त है। व्यापक पूरनब्रह्म है भीखा रहनि अनन्य...और तब फिर परमात्मा को याद भी नहीं करना होता, क्योंकि हमारे भीतर भी वही है। सबके भीतर वही है। अनन्य, हम उससे अन्य नहीं हैं, हम उसके साथ एक हैं। फिर तो उठना—बैठना प्रार्थना है; खाना—पीना पूजा है; चलाना—फिरना अर्चना है; जीना साधना है; श्वास का भीतर आना बाहर जाना, पर्याप्त है।
...भीखा रहनि अनन्य।।
मन क्रम बचन बिचारिकै राम भजै सो धन्य।।
धनि सो भाग जो हरि भजै, ता सम तुलै न कोई।।
और धन्यभागी हैं वे जन्होंने इस तहर हरि को भजा और पाया क्योंकि फिर उनसे किसी की तुलना नहीं हो सकती; वे अतुलनीय हैं, वे अद्वितीय हैं।
ता सम तुलैकोइ, होइ निज हरि का दासा।।
जो परमात्मा का सेवक हो गया है, दास हो गया है, जिसने अपने को पूरा—का—पूरा चरणों में लूटा दिया है; उसके साथ किसी की तुलना नहीं हो सकती। कितना ही धन हो तुम्हारे पास, तुम निर्धन हो उस आदमी के समक्ष। और कितना ही बड़ा पद हो तुम्हारे पास, तुम पदहीन हो उस आदमी के समक्ष।
बुद्ध का एक गांव में आगमन हुआ। उस गांव के सम्राट को उसके बूढ़े वजीर ने कहा: बुद्ध आ रहे हैं, भगवान आ रहे हैं, तथागत का आगमन हो रहा है, आप स्वागत को चलें। नगर के द्वार पर आपकी मौजूदगी जरूरी है।
वह सम्राट जरा हेंकड़ ढंग का आदमी था। उसने कहा: मैं उस भिखमंगे के स्वागत को क्यों जाऊं? मेरे पास क्या कमी है? उसके पास ऐसा क्या है? उसे आना होगा मिलने तो खुद आ जाएगा।
उस बढ़े वजीर की आंखों से आंसू टप—टप गिरे। सम्राट तो बहुत हैरान हुआ।
उस वजीर को कभी रोते नहीं देखा था। उसने पूछा: तुम क्यों रोते हो?
उसने कहा: मैं इसलिए रोता हूं कि आज आपकी सेवा से मैं मुक्त हो रहा हूं, मेरा त्यागपत्र स्वीकार कर लें।
वह वजीर तो कीमती था। उसके बिना तो राज्य को सम्हालना भी मुश्किल था। वह सम्राट तो शराब पीने में और वेश्याओं को नचाने में ही समय बिताता था। सारा काम तो वजीर करता था। उसकी बुद्धिमत्ता ही थी कि राज्य बड़ा था, सुसंगठित था, सुव्यवस्थित था। उसका छोड़ना तो सब गड़बड़ हो जाएगा। उसने कहा कि नहीं—नहीं, क्या इतनी सी बात से त्यागपत्र। लेकिन मेरी बात में गलती तो नहीं है, सम्राट ने फिर भी कहा।
उस बूढ़े वजीर ने कहा: गलती बहुत है। त्यागपत्र देकर गलती बताने वाला हूं, क्योंकि जब तक त्यागपत्र न दिया आपका नौकर हूं, आपकी गलती कैसे बताऊं? पहले त्यागपत्र फिर आपकी गलती बता दूंगा।
सम्राट ने कहा: गलती तुम पहले बताओ, मैं नाराज नहीं होऊंगा। मैं पहले क्षमा कर देता हूं। मेरी गलती क्या है?
उस बूढ़े वजीर ने कहा: तुम्हारी गलती यह है कि तुम्हारे पास जो है, वह बुद्ध के पास भी था, उसको वे लात मार आये, तुम अभी लात नहीं मार सके हो। और बुद्ध के पास जो है, वह पाने में तुम्हें अभी कई जन्म लग जाएंगे। पाना तो दूर, बुद्ध के पास जो है  अभी उसे तुम देखने की भी क्षमता नहीं रखते हो। तुम्हारे पास आंख भी नहीं है जो देख सके कि बुद्ध के पास क्या है! इसलिए तुम समझ रहे हो कि बुद्ध भिखारी हैं। मैं तुमसे कहता हूं तुम भिखारी हो और बुद्ध सम्राट हैं। या तो चलो मेरे साथ बुद्ध के स्वागत को, उनके चरणों में सिर रखो, या मेरा त्यागपत्र स्वीकार करो। क्योंकि मैं ऐसे आदमी के नीचे काम नहीं कर सकता जो इतना अंधा है।
इस वजीर की बात मूल्यवान है। धन कितना ही हो तो भी जिसके पास रामधन है उसके सामने तुम गरीब हो। और पद कितना ही तुम्हारी हो लेकिन जिसको रामपद मिल गया उसके सामने तुम्हारी क्या हैसियत है!
ता सम तुलै न कोई, होइ निज हरि को दासा।
लेकिन इसमें एक शब्द बड़ा कीमती है—होइ निज हरि को दासा...जो स्वयं स्वेच्छा से हरि का दास हो गया है, किसी के दबाव से नहीं। नहीं तो अकसर ऐसा हो जाता है, मां—बाप अपने बच्चों को ले आते हैं मेरे पास, वह बच्चा झुक ही नहीं रहा है और मां उसका सिर झुका रही है चरणों में, दबा रही है उसको।
मैं कहता हूं: यह तू क्या कर रही है? उस बच्चे को झुकना नहीं है। तेरे झुकाने से कुछ सार भी नहीं है। और इस तरह जबर्दस्ती झुका—झुका कर तू उसकी आदत खराब कर देगी, उसको भी झुकने की आदत पड़ जाएगी। वह फिर झुकता रहेगा जिंदगी—भर झूठा। मंदिरों में लोग ले जाते हैं बच्चों को पकड़कर गर्दन झुका देते हैं।
इसी तरह तुम्हारी गर्दन पकड़कर तुम्हें झुकाया गया है। तुम मंदिरों में स्वेच्छा से झुक रहे हो या तुम सिर्फ भूल गए कि बचपन में झुकाया गया था औ झुकने की आदत हो गई है? यह गुलामी है। इसलिए हिंदू हिंदू मंदिर में झुकता है, जैन मंदिर में नहीं झुकता क्योंकि जैन मंदिर में उसे कभी झुकाया नहीं गया, उसका अभ्यास नहीं करवाया गया। जैन जैन मंदिर में झुकता है, हिंदू मंदिर में नहीं झुकता।
औरों की तो बात छोड़ दो, जैनों के दो संप्रदाय हैं—श्वेताम्बर और दिगम्बर। श्वेताम्बर जैन श्वेताम्बर जैन मंदिर में झुकाता है, वह दिगम्बर जैन मंदिर में नहीं झुकता, हालांकि वहां भी महावीर की प्रतिमा है! दोनों के मंदिर में महावीर की प्रतिमा है लेकिन थोड़ा—सा फर्क अपनी प्रतिमाओं में कर लिया है, करना ही पड़ा। जब अलग—अलग दुकान करनी हो तो थोड़े मार्के बदलने पड़ते हैं, थोड़े नाम बदलने पड़ते हैं। दिगम्बर की जो मूर्ति है उसकी आंखें बंद हैं, श्वेताम्बर की जो मूर्ति है उनकी आंखें खुली हैं, अधखुली हैं। इतना—सा फर्क है—मार्के का फर्क!
मैं एक यात्रा पर था, एक महिला मेरे साथ यात्रा पर थी। जैन महिला, उसने कसम खा रखी थी, जब तक वह मंदिर में जाकर पूजा न कर ले तब तक भोजन न करे। एक दिन ऐसा हुआ कि गांव में कोई जैन—मंदिर नहीं था तो पूजा नहीं हो सकी। तो मैंने कहा: तू किसी भी मंदिर में पूजा कर ले। तुझे पूजा ही तो करनी है न?
उसने कहा: किसी मंदिर में कैसे कर लूं? कुदेव की पूजा करूं! ये गणेश जी की पूजा करूं कि शिवजी की पूजा करूं? कृष्ण का मंदिर है, इनकी पूजा करूं? मेरे शास्त्र में लिखा है, कृष्ण नर्क में पड़े हैं। और गणेशजी को देखकर मुझे सिर्फ हंसी आती है, पूजा का भाव पैदा नहीं होता। और शिवजी...ये गांजा, भांग, अफीम...बम भोले...इनकी पूजा करूं? ये हिप्पियों के हिप्पी, इनकी पूजा करूं? भूखी रह जाऊंगी मगर पूजा नहीं हो सकती।
वह भूखी ही रही। दिन—भर मैं भी परेशान रहा, वह भूखी बैठी थी। भूखी बैठी, तो थी तो क्रुद्ध, थी तो नाराज। दूसरे गांव हम गए तो मैंने पहले ही पता लगाया कि जैन मंदिर है? तो उन्होंने कहा: हां, जैन मंदिर है। तो मैं निश्चिंत हुआ। मैंने उससे कहा: आज बे फिक्री से स्नान करके तू पूजा कर आ और लौट आ।
वह लौटकर बड़ी नाराज आयी और उसने कहा कि वह श्वेताम्बर जैन मंदिर है। मैं दिगम्बर हूं।
तो मैंने उससे पूछा: फर्क क्या है?
मैं तो महावीर की आंख बंद की हुई मूर्ति की पूजा करती हू, ध्यानस्थ, और वहां तो आधी खुली आंख है।
मैंने कहा: तू इतना तो सोच, कभी—कभी महावीर आंख भी खोलते होंगे कि नहीं! कि आंख बंद ही रखते थे? महावीर तो दोनों काम करते होंगे—कभी आंख खोलते होंगे, कभी बंद करते होंगे; कभी आधी भी खोलते होंगे, कभी पूरी भी खोलते होंगे। कि जिंदगी—भर आंख बंद ही रखी उन्होंने? चलते—फिरते कैसे थे?
उसने कहा: वह कुछ भी हो, लेकिन मैं तो दिगम्बर मूर्ति की ही पूजा करूंगी।
जिन मंदिरों में तुम्हें झुकाया गया है जबर्दस्ती, वे तुम्हारी आदतें हो गए हैं। यह कोई झुकना नहीं है। यह कोई असली झुकना नहीं है। इसलिए भीखा ठीक कहते हैं: होई निज हरि को दासा। अपने से झुको—न संस्कारों से, न समाज से, न मां—बाप के कारण, न शिक्षा के कारण, न किसी भय से, न किसी लोभ से; अपने बोध से झुको, झुकने के मजे से झुको। फिर क्या फिक्र...फिर मंस्जिद में भी झुक सकते हो, गुरुद्वारे में झुक सकते हो, मंदिर में भी झुक सकते हो। क्या लेना—देना है? फिर मंदिर न भी हो तो वृक्षों के पास झुक सकते हो, आकाश के नीचे झुक सकते हो, पृथ्वी पर झुक सकते हो। कहीं भी झूक सकते हो; झुकने वाले को क्या अड़चन? जो कहता है झुकने में शर्त है हमारी, हम यहीं झुकेंगे। वह झुकना नहीं चाहता। उसने झुकने पर भी अर्थ जोड़ दिया है। उसने झुकने में भी शर्त लगा दी। उसने झुकने में भी अहंकार को नियोजित कर दिया है।
रहै चरन—लौलीन राम को सेवक खासा।।
जो उसके चरणों में ही लीन रहता है, डूबा रहता है, जिसे उसके चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं, सबके चरणों में उसके चरण दिखाई पड़ते हैं।
सेवक सेवकाई लहै भाव—भक्ति परवान।
एक ही प्रमाण है तुम्हारे भाव का, तुम्हारी भक्ति का कि तुम इस परमात्मा से भरे जगत की सेवा में लवलीन हो जाओ। तुम अगर एक वृक्ष को भी पानी डाल रहे हो तो इसी तरह डालना कि राम के ही चरण पखार रहे हो। तुम अगर एक कुत्ते को भी रोटी खिला रहे हो तो इसी तरह खिलाना कि राम को ही रोटी खिला रहे हो। तुम अपने बच्चे में भी राम को देखना, अपने पति में भी, अपनी पत्नी में भी। तुम धीरे—धीरे इस भाव को विस्तीर्ण करते जाना कि सारे चरण उसके हैं, सारे हृदय उसके हैं, वही है और कुछ भी नहीं है, उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है।
सेवा को फल जोग है भक्तबस्य भगवान।।
और जो ऐसी सेवा करने में समर्थ हो जाएगा उसका फल योग है, परमात्मा से मिलन है। उसका फल है सुहागरात। उसका फल है परमात्मा से सगाई। उसका फल है परमात्मा से एक हो जाना। और जो इस तरह परमात्मा से एक हो गया, परमात्मा उसके वश में है, उसके इशारे पर है, उसके इशारे पर चलेगा। ऐसा नहीं है कि भक्त उसे इशारे पर चलवाता है, कि भक्त उसे इशारे पर चलवाना चाहता है, लेकिन वह भक्त के इशारे पर चलेगा।
मैंने सुना है, पूरानी कथा है। कृष्‍ण भोजना करने बैठे हैं। आधा ही भोजन किया है। एक कौर मुंह तक ले जाते थे कि थाली में पटक कर भागे दरवाजे की तरफ। तो रुक्मिणी ने पूछा: कहां जाते हैं? मगर जवाब भी न दिया। फिर दरवाजे पर ठिठक गए। एक क्षण उदास खड़े रहे फिर लौट आये। गए तो बड़ी तेजी से थ, लौटे बहुत आहिस्ता। वापिस थाली पर बैठ गए। छोड़ गए थे जिस कौर को उसे फिर उठा लिया। रुक्मिणी ने पूछा: अब तो कहो, भागकर कहां गए थे? फिर दरवाजे से लौट क्यों आये?
तो कृष्‍ण ने कहा: मेरा एक भक्त एक रास्ते से गुजर रहा है, लोग उसे पत्थर मार रहे हैं, लेकिन जो उसे पत्थर मार रहा है वह उसमें भी मुझे ही देख रहा है। खून बह रहा है उसके सिर से, लहूलुहान हो गया है। लेकिन मस्त है मस्ती में। वह हरे कृष्‍ण हरे राम की ही धुन लगाये हुए है। तो मुझे भागना पड़ा। उसकी रक्षा की जरूरत है।
रुक्मिणी ने कहा: यह मेरी समझ में आया; फिर लौट क्यों आये?
कृष्‍ण ने कहा: लौटना पड़ा क्योंकि जब तक मैं दरवाजे पर पहुंचा तब तक उसने खुद ही पत्थर उठा लिया और उसने कहा कि ऐसी की तैसी तुम्हारी! वह भूल—भाल गया मुझे तो। अब तो वह खुद ही पत्थर का जवाब पत्थर से दे रहा है। लोगों को भगाये दे रहा है खुद ही। अब तो उसने अपना जीवन अपने हाथ में ले लिया। अब मेरी कोई जरूरत न रही। जब तो उसका अहंकार वापिस लौट आया है।
बारीक है मामला। जरा में अहंकार वापिस लौट सकता है, जाते—जाते लौट सकता हैं। लगता हो कि दूर निकला गया, फिर भी लौट सकता है।
सेवा को फल जोग है भक्तबस्य भगवान।
केवल पूरन ब्रह्म है, भीखा एक न दोइ
भीखा कहते हैं: केवल एक परमात्मा है, न तो कोई दूसरा है, न कोई दूसरा हो सकता है। और चूंकि दूसरा भी नहीं है इसलिए एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं: भीखा एक न दोइ। जब दूसरा नहीं है तो एक भी कैसे कहें? एक कहने से दो की शुरुआत होती है। एक कहो तो फिर संख्या की यात्रा शुरु हो गई। बस भगवान है। न तो एक कह सकते हैं न दो।
इसीलिए भारत ने एक नया शब्द खोजा—अद्वैत। अद्वैत का मतलब समझे? अद्वैत का मतलब यह नहीं कि एक है, अद्वैत का मतलब इतना कि दो नहीं है। इतना ही कह सकते हैं ज्यादा—से ज्यादा कि दो नहीं है। एक कहने में भूल हो जाएगी। एक कहने में दो की गिनती समाविष्ट हो जाती है। एक में कोई अर्थ ही न होगा अगर दो न हो। इसलिए दो नहीं है इतना ही कह सकते हैं। पर भीखा और भी मीठी बात कह रहे हैं: भीखा एक न दोई...न तो एक है, न दो है—बस है। गिनती में नहीं आता। गिनती में नहीं आ सकता। गणना के पार है। विचारातीत है।
धन्य सो भाग जो हरि भजै, ता सम तुलैकोइ।।
ऐसे परमात्मा को जो न एक है न दो, जिसने जान लिया, वह धन्यभागी है, बड़भागी है। उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती। सम्राट उसके सामने भिखारी हैं, धनी उसके सामने दरिद्र हैं। उसे मिल गया राज्यों का राज्य, पदों का पद। उसने पा लिया परमात्मा को तो पा लिया सब। अब पाने को कुछ भी शेष नहीं रहा। परमात्मा को पाते ही सब पा लिया जाता है। जन्होंने परमात्मा को नहीं पाया, उन्होंने कुछ भी नहीं पाया और जन्होंने परमात्मा को पाया, उन्होंने सब पा लिया है।
गुरु—परताप साध की संगति!
आज इतना ही।


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