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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम बचपन--(प्रवचन--39)

ऋषि पृथ्‍वी का नमक है(प्रवचनउन्‍नतालीसवां)

प्यारे ओशो!
लौकिकाना हि साभूनामर्थं वागनुवर्तते।
ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोग्नुधावति।।
'लौकिक साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है :
लेकिन जो आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता था।
प्यारे ओशो। वसिष्ठ के इस सूत्र को समझाने की अनुकंपा करें।
क्या आदि ऋषि वास्तव में इतने ही श्रेष्ठ थे?

      योग प्रतीक्षा! साधु—और लौकिक—वह बात ही विरोधाभासी है। फिर साधु और असाधु में भेद क्या रहा?
असाधु वह—जो लौकिक; जिसकी दृष्टि पदार्थ के पार नहीं देख पाती है, पदार्थ में ही अटक जाती है; अंधा है जो। क्योंकि पदार्थ को ही देखने से बड़ा और क्या अंधापन होगा!
अस्तित्व परमात्मा से भरपूर है—सौंदर्य से, सत्य से, आनंद से; और तुम्हें केवल पदार्थ ही दिखाई पड़ता हो! एक बात जाहिर होती है उससे कि तुम्हारे पास सूक्ष्म को देखने की दृष्टि नहीं; सिर्फ स्थूल तुम्हारी पकड़ में आता है।
असाधु वह जो स्थूल को ही पहचानता है। इतना ही नहीं, जो अपने अहंकार की रक्षा के लिए सूक्ष्म को इनकार भी करता है। क्षमा किया जा सकता है वह व्यक्ति जो कहे कि 'मैं क्या करूं, अभी तो मुझे स्थूल ही दिखाई पड़ता है! हो सकता है—सूक्ष्म भी हो; खोजूंगा, तलाश्ता, जिज्ञासा करूंगा। मैंने अपने चित्त के द्वार बंद नहीं कर लिये हैं।
लेकिन वह व्यक्ति क्षमा नहीं किया जा सकता जो कहता हो, 'पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।क्योंकि उसने सूक्ष्म के प्रवेश का मार्ग ही अवरुद्ध कर दिया। अब उसे व्यर्थ ही दिखाई पड़ेगा; सार्थक की कोई प्रतीति नहीं होगी।
इसीलिए वसिष्ठ के इस सूत्र में पहला आक्षेप तो मुझे यह है कि वे कहते हैं :
'लौकिकाना हि साद्यामर्थ वागनुवर्तते
वह जो लौकिक साधु है, उसकी वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।’ 'लौकिक साधु' जैसी कोई घटना ही नहीं होती। और अगर होती है, तो फिर उसे साधु न कहो। जिसको परमात्मा की जरा—सी झलक भी न मिलती हो, उसे साधु कहोगे? जिसे किरण भी दिखाई न पड़ती हो, उसे आंखवाला कहोगे? जिसे सौंदर्य का बोध ही न होता हो, उसे कवि कहोगे? सौंदर्य मर्मज्ञ कहोगे? जिसके जीवन में प्रेम की बूंदाबांदी भी न हुई हो, उसे प्रेमी कहोगे?
लौकिक साधु तो सिर्फ पाखंडी है। यद्यपि यह सच है और शायद इसीलिए वसिष्ठ ने यह सूत्र कहां कि 'सौ साधुओं में से निन्यान्नबे लौकिक साधु हैं।
ऐसा लगता है, वसिष्ठ कठोर नहीं होना चाहते होंगे, इसलिए बात को मिठास से कह दिया। कबीर जैसे न रहे होंगे। कबीर ने कहां है : 'कबित खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ।कि कबीर बाजार में खड़ा है—लट्ठ हाथ में लिए हुए।
कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर बारे आपना, चलै हमारे साथ।।
'हो हिम्मत घर को जलाने की, तो आ जाओ, चलो हमारे साथ।लट्ठ लिए, कबीर कहते हैं, 'मैं खड़ा हूं बाजार में!'
कबीर सीधी चोट करते हैं। उस चोट में कहीं कोई समझौता नहीं होता। वसिष्ठ सत्य को भी कहते हैं, तो लीप—पोत देते हैं। उसको भी थोड़ी—सी मिठास, थोड़ी—सी चासनी दे देते हैं!
'लौकिक साधु' —ऐसी कोई बात ही नहीं होती। लौकिक होगा—तो साधु नहीं। साधु होगा—तो लौकिक नहीं। यह तो विपरीत को एक साथ जोड़ देना हो गया। यह तो यूं हुआ, जैसे कोई कहे—अंधेरा दिन! यह तो आधी रात उगा हुआ सूरज हो गया!
लेकिन एक अर्थ में वसिष्ठ ठीक कहते हैं कि निन्यान्नबे साधु, सौ में से, ऐसे ही हैं—नाम मात्र के साधु! साधु का वेश है—साधु की आत्मा नहीं। साधु का आवरण है—साधु का अंतस नहीं। और आवरण बड़ी सस्ती बात है। आचरण भी बड़ी सस्ती बात है। कोई कठिनाई नहीं है साधु के आचरण में। थोड़े अभ्यास की बात है। दो बार भोजन न किया, एक बार भोजन किया। यह न खाया, वह न पीया। या जैसा कल डोंगरे महाराज ने बताया कि पानी पीओ, तो पहले प्रभु का स्मरण करो! पानी भी पीओ, तो प्रभु का स्मरण करो! भोजन करो, तो प्रभु का स्मरण करो। अगर अन्न बिना प्रभु के स्मरण के खाया, तो पाप खाया! पानी बिना प्रभु के स्मरण के पीया, तो पाप पीया।
ऐसे एक महापुरुष से मेरा मिलना हो गया था। मैं आगरा से गुजर रहा था; जयपुर से लौटता था; आगरा में कोई छह घंटे का समय था गाड़ी बदलने में। एक मित्र बहुत दिन से पत्र लिखते थे कि 'कभी आगरा से गुजरें—और आप जरूर गुजरते होंगे, क्योंकि जयपुर की खबरें मिलती हैं। और यहां छह घंटे स्टेशन पर रुकना ही होता होगा, तो मेरे घर को ही पवित्र करें।
तो मैंने कहां, 'ठीक।
उन्हें खबर कर दी। जानता तो नहीं था; पहचानता तो नहीं था; पत्र से ही मुलाकात थी। जो सज्जन लेने आये थे, उन्होंने आते से ही कहां कि 'बस, जल्दी करिये! कहीं मेरे बड़े भाई न आ जायें!'
मैंने पूछा कि 'आप ही मुझे पत्र लिखते थे?'
उन्होंने. कहां कि 'नहीं। पत्र तो मेरे बड़े भाई लिखते हैं। मगर मेरी और उनकी जानी दुश्मनी है। यह मौका मैं नहीं दे सकता कि आपका स्वागत वे करें। सो मैं पहले से ही हाजिर हूं! बटवारा हो गया है। आधे मकान में वे रहते हैं, आधे में मैं रहता हूं। और आपको तो मेरा ही आतिथ्य—ग्रहण स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि मैं ही पहले आया हूं।
मैंने कहां, 'मुझे क्या फर्क पड़ता है! और आधा घर तुम्हारा, आधा बड़े भाई का—चलो, तुम्हारे साथ ही चल पड़ता हूं तुम आ गये।
उनको लेकर बीच रास्ते पर ही पहुंचा था कि बड़े भाई आ गये! एकदम भागे हुए चले आ रहे थे! आते ही से बोले, 'ओऽऽम्। मैंने पत्र लिखा था'। उन्होंने कहां—' और यह छोटा भाई आपको कहां ले जा रहा है? यह दुष्ट यहां भी आ गया! चलिये, बैठिये मेरे तांगे में!'
छोटे भाई ने कहां कि 'देखिये, मैंने पहले ही कहां था कि जल्दी करिये। अगर बड़ा भाई आ गया, तो बस, मुश्किल हो जायेगी!'
और बड़ा भाई था भी पहलवान—छाप! छोटे भाई थे भी दुबले—पतले। तो बड़े भाई ने आव देखा न ताव, उन्होंने तो सामान ही उतारकर मेरा भी हाथ पकड़कर अपने तांगे में बिठा लिया! लेकिन एक उनकी खूबी थी कि कोई भी काम करते थे, तो पहले 'ओऽऽम् कहते थे! मेरा हाथ पकड़कर उतारा—तो ओऽऽम्! मेरा बिस्तर उतारा—तो ओऽऽम्! हालांकि कर रहे थे बिलकुल गलत काम! क्योंकि वह छोटा भाई बेचारा चुपचाप खड़ा था। अब क्या कहे! और मैं देख रहा था कि अगर वे उसकी पिटाई भी करेंगे, तो पहले—ओऽऽम्!
और वही हुआ।
उनके घर पहुंच गया। बंटवारा कर लिया था घर का, लेकिन एक कक्ष बीच का, बड़ा कमरा था, वह खाली छोड़ रखा था; वह बांटा नहीं था। उसमें दोनों आ—जा सकते थे। बाकी तो प्रवेश असंभव था एक—दूसरे के घर में, मगर एक कमरा छोड़ रखा था। तो जैसे ही मैं बडे भाई के घर में प्रविष्ट हुआ, दरवाजे पर ही उन्होंने कहां, 'ओऽऽम्। आइये भीतर!'
छोटे भाई ने अपने दरवाजे से कहां कि 'देखिये, आप इतनी कृपा करिये कि कम से कम बीच के कमरे में रुकिये, वहां मैं भी आ सकता हूं बड़े भाई भी आ सकते हैं। अगर आप उनके ही घर में रुके, तो मैं नहीं आ सकूंगा। मेरे घर में रुके, तो वे नहीं आ सकेंगे!' मैंने कहां, 'यह बात तो ठीक है।
लेकिन बड़े भाई ने कहां, 'ओऽऽम्!' और सामान उठाकर वे तो अपने घर में ही ले गये!
बड़े भाई फोटोग्राफर थे, सो उन्होंने कहां, 'इसके पहले कि छोटा भाई उपद्रव करे, और यह आयेगा बार—बार दरवाजे पर और कहेगा कि मेरे घर आइये, और भोजन करिये; यह करिये, वह करिये; मैं .आपकी तसवीर उतार लूं। इसी के लिए असल में मैंने आपको पत्र लिखा था। यही एक आकांक्षा थी।
मैंने कहां, 'जैसी मरजी! अब आपके हाथ में हूं छह घंटे जो करना हो—करिये!'
तसवीर भी क्या उतारी...! हर चीज में ओऽऽम्! बिलकुल डोंगरे महाराज के भक्त थे! प्लग भी लगायें—तो ओऽऽम्! प्लग निकालें, तो ओऽऽम्! मुझे कुर्सी पर बिठा लें—तो ओऽऽम्! कैमरा घुमायें—तो ओऽऽम्! प्लेट लगायें—तो ओऽऽम्! ओऽऽम् से ही सब चीज शुरू हो!
एक कंघी ले आये और मेरे बाल बनाने लगे, और बोले, 'ओऽऽम्!'
मैंने कहां, देखें, मैं जैसा हूं तुम मुझे वैसा ही छोड़ो!' एकदम नाराज हो गये। आदमी तो गुस्सेबाज थे ही। कहां, 'जैसी मरजी!ओऽऽम् कहकर कंघी फेंक दी और मेरे बाल एकदम छितरा दिये!
जब यह सब चल रहा था, तभी पड़ोस के एक सज्जन आ गये। उनको भी खबर मिल गयी कि मैं आया हूं तो आकर बैठ गये। यह फोटो उतर जाये, तो फिर वे मुझसे कुछ बात करना चाहते थे। तभी बड़े भाई की नौकरानी निकली, और उन सज्जन ने कहां कि, 'बाई, एक गिलास पानी...!'
गरमी के दिन थे। बस, एकदम बोले, ‘ओऽऽम्! अरे, मर्द बच्चा होकर शर्म नहीं आती, स्त्री से पानी मांगते हो! नल सामने लगा है, भर लो और पी लो! मर्द होकर और स्त्री से पानी मांगना!'
फिर मेरी तरफ धीरे से बोले, ‘ओऽऽम्। यह मेरे भाई का दोस्त है। साले को ठीक किया!'
ओम भी कहते जाते हैं!
ये जो तुम्हारे तथाकथित साधु हैं, ये ओम् का उच्चार भी करते रहेंगे और ओम् के भीतर क्या—क्या नहीं भरा होगा!
क्या—क्या नहीं उपद्रव होंगे!
आचरण भी साध लेंगे, मगर ठीक आचरण से विपरीत इनका भीतर का जीवन होगा—ठीक विपरीत।
दो दिगंबर जैन मुनियों में मारपीट हो गई। होनी तो असंभव ही चाहिए बात। एक तो दिगंबर जैन मुनि, जिसने सब छोड़ दिया, कपड़े भी छोड़ दिये—अब क्या मारपीट को बचा! लोग कहते हैं—'जर, जोरू, जमीन, झगड़े की जड़ तीन'। वे तो तीनों ही छूट गईं, मगर गजब के लोग हैं, फिर भी झगड़ा निकाल लिया! न जर है, न जोरू है, न जमीन है। कुछ भी नहीं है। दिगंबर जैन मुनि—कपड़े भी नहीं हैं, लंगोटी भी नहीं है—अब झगड़े का क्या उपाय है! उसी दिन मुझे पता चला कि वह सूत्र पर्याप्त नहीं है। अरे, झगड़ा ही करना हो तो आदमी कर लेगा। जर, जोरू, जमीन की कोई जरूरत नहीं। जर, जोरू, जमीन तो बहाने हैं, खूंटियां हैं। झगड़ा टांगना है, कहीं भी टल दो। खूंटी हुई, खूंटी पर टल दो। न हुई, खीली पर टल दो। खीली न हुई, तो खिड़की पर टांग दो; कुर्सी पर टांग दो; नहीं तो अपने ही कंधे पर टांग लो—मगर टांग लोगे। कुछ न कुछ उपाय...।
झगड़ा कहां हुआ? दोनों गये थे सुबह मल विसर्जन को। एकांत में झगड़ा हो गया। एक—दूसरे की पिटाई कर दी। पिटाई काहे से की! और तो कुछ था नहीं; पिच्छी रखते हैं जैन मुनि।
पिच्छी रखी जाती है कि कोई चींटी भी न मर जाये। पिच्छी में ऊन का बना हुआ गुच्छा होता है। छोटी—सी डंडी होती है; ऊन का गुच्छा होता है। तो जैन मुनि कहीं बैठे, तो पहले वह पिच्छी से जगह को साफ कर ले। ऊन का गुच्छा इसलिए ताकि पिच्छी की चोट भी न लगे। अगर चींटी भी हो, तो ऊन के धक्के से उसे कोई चोट न लगे; हटा दी जाये; फिर बैठे। स्थान को साफ करके बैठे। वही पिच्छी थी उनके पास। उसमें डंडा भी होता है लेकिन, पिच्छी में! यह महावीर ने सोचा ही न होगा कि पिच्छी तो ठीक है कि चींटी बच जायेगी, मगर डंडा! कभी मौका आ गया, तो काम आ जायेगा। आ गया उस दिन काम। एक—दूसरे ने पिच्छी से पिटाई कर दी! वह डंडे का उपयोग हो गया!
कुछ गांव के ग्रामीण लोगों ने पकड़ लिया उनको एक—दूसरे को मारते हुए। वे पुलिस थाने ले गये। बामुश्किल उनको बचाया गया। जैनियों में बड़ी हड़कंप मची, क्योंकि उनके जैन मुनि इस तरह का व्यवहार करें, जो निरंतर आत्मज्ञान की बात करते हैं! जो जीवन को तपाते, तपश्चर्या क्ररते, साधना करते!
और इनके झगडे का कारण क्या? जब पुलिस ने पूछताछ की, जो झगड़े का कारण था, वह और भी बड़ा मजेदार था! वह जो पिच्छी का डंडा था, बांस का डंडा, उसको भीतर से पोला करके उसमें सौ—सौ के नोट भरे हुए थे! वह उनका बटुआ था—वह जो डंडा था।
अगर जैन मुनियों की पिच्छी देखो, तो डंडा जरूर गौर से देख लेना! क्योंकि वही है उनके पास। और कोई उपाय नहीं है मगर। आदमी इतना होशियार है कि उसको डंडा को पोला करके अंदर उसमें गिड्डयों पर गिड्डयां उन्होंने भर रखी थीं!
झगड़ा यह हो गया कि बटवारा—जो बड़े मुनि थे, वे ज्यादा चाहते थे, छोटे मुनि से। सीनियारिटी का सवाल था! और छोटे मुनि भी बराबर चाहते थे; नहीं तो, वे कहते, 'हम पोलपट्टी उखाड़ देंगे! षड्यंत्र में कहीं कोई सीनियर—जूनियर होता है! यह कोई सरकारी दफ्तर थोड़े ही है!
इसी पर झगड़ा हुआ। इसी पर मारपीट हो गई। रुपये भी पकडे गये। और जैनियों ने किसी तरह, रिश्वत खिलाकर मामले को दबाया कि कहीं यह पता न चल जाये सबको!
मेरे पास आये कि 'क्या करना चाहिए!' मैंने कहां कि ' अखबारों में खबर देनी चाहिए! फोटो छापने चाहिए!'
उन्होंने कहां, ' आप क्या कहते हो! अरे, हम यह पूछने आये हैं कि इसको किस तरह रफा—दफा करना! क्योंकि मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है। उसमें हमारे धर्म की भी प्रतिष्ठा का सवाल है!'
मैंने कहां कि 'मेरे लिए भी धर्म की प्रतिष्ठा का सवाल है! और मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है! निन्यान्नबे इस तरह के मुनि उस एक मुनि को डुबाये दे रहे हैं, जो सच्चा होगा। उसको बचाना है कि इन निन्यान्नबे को बचाना है!'
लेकिन लोग निन्यान्नबे को बचाने में लगे हैं; एक डूबे, तो डूब जाये! संख्या का मूल्य है! हर जगह संख्या का मूल्य है।
तो वसिष्ठ इस अर्थ में, प्रतीक्षा, ठीक कहते हैं कि 'लौकिकानां हि साभूनामर्थं वागानुवर्तते।वह जो लौकिक साधु है..! 'लौकिक' अर्थात् जो साधु नहीं है, बस, दिखाई पड़ते हैं; नाम मात्र को हैं; लेबल साधु का है, भीतर कुछ और है। भीतर तो लोक ही है। अभी अलोक से कोई संबंध नहीं हुआ; अलौकिक से कोई नाता नहीं हुआ।
मगर ये ही तो तुम्हें मिलेंगे। फिर चाहे मुक्तानंद हों, चाहे अखण्डानंद हों, और चाहे स्वरूपानंद हों—यही तुम्हें मिलेंगे। लौकिक साधु ही तुम्हें मिलेंगे। और तब यह सूत्र बडा सार्थक है।
लौकिक साधु की बात को तुम ठीक से खयाल में ले लो, तो सूत्र में बडी सार्थकता है। सूत्र कहता है : 'ऐसे साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।ऐसे साधुओं के पास अपनी कोई अंतरवाणी तो होती नहीं। अपना कोई अनुभव तो होता नहीं। ऐसी तो कोई प्रतीति होती नहीं कि जिस शब्द को छू दें, वह जीवित हो जाये। ऐसा कोई जादू तो होता नहीं कि मिट्टी को छुए और सोना हो जाये। तो ऐसे व्यक्तियों की वाणी तो शास्त्रों का अनुसरण करेगी। शास्त्र में उनका अर्थ है; जीवन में उनके कोई अर्थ नहीं है। अर्थ गीता में है, वेद में है, कुरान में है, बाइबिल में है, धम्मपद में है। अर्थ स्वयं में नहीं है। और जो अर्थ स्वयं में नहीं है, वह अनर्थ है। उसे अर्थ कहो ही मत। क्योंकि गीता में जो अर्थ है, वह कृष्ण का अर्थ होगा; वह कृष्ण का अनुभव होगा। वह अर्जुन का भी नहीं बन सका! तो तुम्हारा क्या बनेगा?
कभी सोचो इस बात को। कितना सिर मारा कृष्ण ने, तभी तो गीता बनी! काफी सिर मारा! मगर अर्जुन भी बचाव करता गया। वह भी दावपेंच लगाता रहा! बड़ी देर तक यह मल्लयुद्ध चला! और जब अर्जुन ने अंततः यह कहां कि 'मेरे सब संदेह गिर गये; निरसन हो गया मेरे संदेहों का'—तो भी मुझे भरोसा नहीं आता! मुझे तो यही लगता है कि वह घबडा गया, कि बकवास कब तक करनी! मतलब यह आदमी मानेगा नहीं। यह खोपड़ी खाये चला जायेगा! यहां से बचाऊंगा, तो वहां से हमला करेगा।
तर्क उसका हार गया—वह स्वयं नहीं हारा। क्योंकि महाभारत की कथा इस बात को प्रगट करती है कि जब पांडव मरे और उनका स्वर्गारोहण हुआ, तो सब गल गये रास्ते में ही; अर्जुन भी गल गया उसमें! सिर्फ युधिष्ठिर और उनका कुत्ता, दो पहुंचे स्वर्ग के द्वार तक। अगर अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आ गई थी, और जीवन रूपांतरित हो गया था, तो गल नहीं जाना चाहिए था।
महाभारत की कथा इस बात की सूचना दे रही है कि अर्जुन को भी अनुभव नहीं हुआ। मान लिया—कि अब कब तक तर्क करो! कब तक प्रश्न करो? इससे बेहतर है—निपट ही लो। उठाओ गांडीव—जूझ जाओ युद्ध में। मरो—मारो—झंझट खत्म करो। इस आदमी से बचाव नहीं है! इस आदमी के पास प्रबल तर्क है। मगर तर्क से कोई रूपांतरित नहीं होता। अर्जुन भी रूपांतरित नहीं हुआ। कृष्ण का अर्थ अर्जुन का भी अर्थ नहीं बन सका, जो कि आमने—सामने थे; जिनमें मैत्री थी; संबंध था; एक—दूसरे के प्रति सद्भाव था।
तो तुम्हारे और कृष्ण के बीच तो पांच हजार साल का फासला हो गया! तुम क्या खाक कृष्ण के अर्थ को अपना अर्थ बना पाओगे? तुम्हें तो अपना अर्थ खुद खोजना होगा। हौ, यह बात जरूर सच है, तुम अगर अपना अर्थ खोज लो, तो तुम्हें कृष्ण का अर्थ भी अनायास मिल जायेगा। क्योंकि सत्य के अनुभव अलग—अलग नहीं होते हैं।
सत्य को मैं जानूं कि तुम जानो, कि कोई और जाने; अ जाने कि ब जाने कि स जाने, सत्य का अनुभव तो एक होता है। सत्य का अनुभव हो जाये, तो बाइबिल और वेद और जेन्दावेस्ता—सब के अर्थ एक साथ खुल जायेंगे।
लोग मुझसे पूछते हैं कि 'क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?' अब जैसे यह सूत्र मैंने इसके पहले कभी पढ़ा ही नहीं। यह वसिष्ठ का सूत्र भी है, यह भी मुझे पक्का नहीं। यह तो जो प्रश्न पूछा है प्रश्नकर्ता ने, उसको मानकर मैं उत्तर दे रहा हूं। मैंने यह सूत्र कभी पढ़ा नहीं। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं।
लोग मुझसे पूछते हैं कि 'क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?' पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। एक शास्त्र मैंने पढ़ा—अपने भीतर—और उसको पढ़ लेने के साथ ही सारे शास्त्रों के अर्थ प्रगट हो गये। अब तुम कोई भी शास्त्र उठा लाओ, मेरे पास अपनी रोशनी है, जिसमें मैं उसका अर्थ देख लूंगा। इससे क्या फर्क पड़ता है!
मेरे पास दीया जला हुआ है, तुम वेद लाओगे, तो वेद उस दीये की रोशनी में झलकेगा। और तुम कुरान लाओगे, तो कुरान झलकेगी। और तुम धम्मपद लाओगे, तो धम्मपद झलकेगा। तुम जो भी ले आओगे—उस रोशनी में झलकेगा।
दीये को क्या फर्क पड़ता है कि वेद सामने रखा है कि कुरान कि बाइबिल! दीये की रोशनी तो पड़ेगी—सब पर समान, समभाव
तो मैं तो यह भी नहीं कह सकता हूं कि यह वसिष्ठ का सूत्र ही है। हो या न हो, इतना साफ है कि वह जो लौकिक साधु है, जिसको वसिष्ठ ने लौकिक साधु कहां है, उसके पास कोई अपनी अनुभूति की संपदा नहीं होती। भीतर तो वह बिलकुल थोथा होता है। ईश्वर को मानता है—जानता नहीं। और जब तक जाना नहीं, तब तक मानने में कुछ मूल्य है? तब तक मानना असत्य है, बेईमानी है, पाखंड है। जो जाना है, बस, उसको मानना। और जो न जाना हो, तब तक साफ रहे कि मैंने नहीं जाना है, तो कैसे मानूं? कम से कम ईमानदारी तो मत गंवा देना। धार्मिक होने के लिए कम से कम ईमानदारी तो अनिवार्य है।
और तुम्हारे तथाकथित विश्वासियों ने उतनी निष्ठा भी नहीं बरती। कोई हिन्दू बन गया, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन। किसी ने जाना नहीं। यहां तक कि जो नास्तिक बना बैठा है, उसने भी कुछ जाना नहीं; उसने नास्तिकता उधार ले ली है। किसी ने आस्तिकता उधार ले ली है!
तुम्हारा सारा जीवन उधार है! स्वभावत: तुम्हारी वाणी किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी। तुम किसी और का गीत गाओगे। गीत तो गा लोगे, मगर वह थोथा होगा। उसमें कोई गहराई न होगी; ऊपर—ऊपर होगा। शब्द ही शब्द होंगे; शब्दों के भीतर कोई संपदा न होगी। बुझे हुए दीयों की कतार होगी, मगर एक भी दीया जला हुआ नहीं होगा। क्योंकि अगर एक दीया भी जला हो, तो पूरी कतार ही जलाई जा सकती है; सारी दीपावली मनाई जा सकती है।
तो यूं सूत्र ठीक है; सिर्फ 'लौकिक साधु' शब्द पर मेरा ऐतराज है। उसे साधु नहीं कहना चाहिए। समय आ गया कि हम उसे साधु न कहें। उसकी दृष्टि लौकिक है, तो क्यों साधु कहना? ही, यह हो सकता है कि घर छोड्कर चला गया हो; लेकिन घर छोड़कर गया, वह भी लौकिकता है।
कैसा मजा है! एक तरफ तो तुम्हारे ये साधु कहते हैं : 'संसार माया है' और दूसरी तरफ कहते हैं : 'संसार त्याग करो।माया का भी त्याग हो सकता है? जो है ही नहीं, उसका भी त्याग हो सकता है? यह क्या पागलपन की बात है! रात तुमने सपना देखा कि तुम सम्राट थे; बड़ा तुम्हारा साम्राज्य था। स्वर्ण तुम्हारे महलों में ढेरों से भरा था। हीरे—जवाहरात के अंबार लगे थे। और सुबह तुम्हारी आंख खुली; तुम जाग गये। और तुमने पाया कि वह सपना था! फिर क्या तुमसे यह कहना होगा कि ' भैया, सपने का अब त्याग करो। छोड़ो सपने को; वह सपना था!' और क्या तुम यह कहोगे, 'छोड़ेंगे भाई। धीरे— धीरे छोड़ेंगे। अभी कैसे छोड़ें! शास्त्र के अनुसार छोड़ेंगे। पचहत्तर वर्ष की उम्र में संन्यास लेंगे, तब छोड़ेंगे! अभी कैसे छोड़ दें! अभी तो भोग लेने दो थोडा। अभी तो यह स्वर्ण—महल, ये हीरे—जवाहरात, यह साम्राज्य, यह मजा—मौज—अभी तो भोग लेने दो! अभी तो मैं जवान हूं। अभी छोड़ने की बात न करो। माना कि तुम जो कहते हो, ठीक ही कहते हो; ठीक ही कहते होओगे। क्यों तुम गलत कहोगे! क्यों तुम मुझे भरमाओगे! तुम साधु पुरुष हो! नमन करता हूं; चरण छूता हूं। तुम्हारी पूजा करूंगा, और याद रखूंगा। मगर समय पकने दो। जब पचहत्तर साल का हो जाऊंगा, तब इस सपने को बिलकुल त्याग कर दूंगा। अरे, छोड़ना तो है ही। संसार माया है। कौन नहीं जानता है! मगर अभी नहीं। अभी समय नहीं। अभी समय आया नहीं।
क्या तुम ऐसा कहोगे? सपने को सपने की तरह जानने में ही सपना छूट गया। इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कहता। मैं कहता हूं : जब सपना ही है, तो छोड़ना क्या!
छोड़ना नहीं है—जागना है। भागना नहीं है—जागना है।
सदियों से तुम्हें भगोड़ापन सिखाया गया है। और भागने का अर्थ है : मूल्य बदलते नहीं; मूल्य वही के वही रहते हैं। कुछ लोग धन की तरफ दौड़े जा रहे हैं, उनका मूल्य भी धन है—कितना इकट्ठा कर लें। और फिर कुछ लोग हैं जो धन छोड्कर भागे जा रहे हैं। उनका मूल्य भी धन है; उनकी कसौटी भी धन है—कितना छोड़ दें!
तुम त्यागियों को भी नापते हो, तो तराजू वही। राकफेलर को और बिरला को और टाटा को भी नापते हो, तो तराजू वही। और महावीर को, और बुद्ध को नापते हो, तो भी तराजू वही! असली सवाल तराजू का है। जैन शास्त्र वर्णन करते हैं : इतने हाथी, इतने घोड़े, इतना धन, इतना महल—सब महावीर ने छोड़ दिया! यह हाथी—घोड़ों की गिनती, ये धन के अम्बार—उनकी चर्चा शास्त्र इतने रस से करते हैं, कि बात जाहिर है, वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमारे महावीर कोई छोटे—मोटे साधु नहीं थे; बड़े साधु थे! महासाधु थे! देखो, कितना छोड़ा!
मापदण्ड क्या है?
इसीलिए तो कोई गरीब आज तक, न तो हिन्दुओं ने उसे अवतार माना, न बुद्धों ने उसे बुद्ध माना, न जैनों ने उसे तीर्थंकर माना! क्योंकि कसौटी ही पूरी नहीं होती। सवाल यह है कि छोड़ा क्या? कितना छोड़ा? अब तुम कहो, 'हमने एक लंगोटी छोड़ दी!' तो वे कहेंगे, 'भाग जाओ यहां से! लंगोटी छोड्कर और तीर्थंकर होने के इरादे रख रहे हो! राजपाट कहां है? हाथी—घोड़े कितने हैं?' अब तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी भविष्य में! तीर्थंकर होने मुश्किल हो जायेंगे, क्योंकि राजपाट न रहे। अब तो सिर्फ इग्लैंड में ही तीर्थंकर हो सकते हैं! या ताश के पत्तों में! कहते हैं, बस, पांच ही राजा बचेंगे दुनिया में। चार तो ताश के पत्तों के, और एक इग्लैंड का। और इंग्लैंड का राजा ताश के पत्तों से भी गया—बीता है। ताश के पत्तों में भी कुछ अकड़ होती है; इंग्लैड के राजा में वह भी नहीं है वह सिर्फ नाम मात्र का है। अब तो इंग्लैंड में ही आशा समझो कि बुद्ध पैदा हों; तीर्थंकर पैदा हों; अवतार पैदा हों! भारत में तो असंभव! अब तो राजपाट रहे नहीं। अब साम्राज्य नहीं, हाथी—घोड़े नहीं—छोड़ोगे क्या? क्या कहोगे कि 'मैंने एक साइकिल छोड़ दी!' कम से कम घोडा तो हो! क्या छोड़ोगे? और साइकिल छोड्कर दावा करोगे तीर्थंकर होने का! लोग कहेंगे, 'लाजसंकोच न आयी! अरे, शरम खाओ! है क्या तुम्हारे पास!'
इसीलिए तो कोई कबीर को तीर्थंकर नहीं कहता। हालांकि कबीर में क्या कमी है किसी तीर्थंकर से! मगर कैसे कबीर को तीर्थंकर कहो? जुलाहे—छोडने वगैरह को कुछ है ही नहीं। पकड़ने को ही नहीं है; छोड़ने को कहां से लाओ! रोज बुन लेते हैं कपड़ा, रोज बेच लेते हैं। बस, किसी तरह खाना—पीना चल जाये। वह भी पूरा नहीं चल पाता। उसमें भी बड़ी झंझटें आ जाती हैं।
बड़ी अद्भुत कहानी है; सत्य वेदांत ने लिखकर मुझे भेजी है। बहुत प्यारी है, खूब सोचने जैसी है। और सिर्फ कबीर जैसे आदमी की जिन्दगी में हो सकती है। कबीर की कीमत आंकनी मुश्किल है।
कहानी यह है कि कबीर को तो जो भी घर में आ जाये—और सुबह से बहुत से लोग आ जाते..! कबीर की मस्ती में कौन न डूबना चाहे! कबीर के आनंद में कौन न भागीदार होना चाहे! दूर—दूर से लोग आ जाते। सुबह से कीर्तन छिड़ जाता। नाच होता, गीत होता। भीतर की शराब बहती। लोग मदमस्त होकर पीते! फिर भोजन का समय हो जाता। तो कबीर की आदत थी, वे लोगों से कहते कि ' भैया, यूं ही मत चले जाना। अरे, भोजन तो कर जाओ। अब आ ही गये, तो भोजन कर जाओ।
कभी दो सौ आदमी, कभी तीन सौ आदमी, कभी पांच सौ आदमी! गरीब कबीर की हैसियत क्या! बामुश्किल दिनभर कपडा बुनकर कितना बुनोगे? उधारी चढ़ती जाती! पत्नी परेशान, बेटा परेशान! एक दिन यह हालत हो गई कि जब पत्नी बाजार गई और दुकानदार से उसने भोजन के लिए प्रार्थना की कि घर में दो सौ आदमी बैठे हैं और मेरे पति ने निमंत्रण दे दिया है! मैं पीछे के दरवाजे से भागकर आयी हूं। जल्दी से कुछ चावल दो, घी दो, आटा दो।
उस दुकानदार ने कहां, 'अब बहुत हो गया। पहले का कर्ज चुकाओ। यह कर्ज बढ़ता ही जा रहा है। यह चुकेगा कैसे? मेरी दुकान तुम डुबा दोगे! यह कबीर का तो भोजन चले और मेरा भंडा फूटा जा रहा: है। कबीर तो हर किसी को निमंत्रण दे देते हैं! कबीर को पता है कि बरबादी मेरी हो रही है! यह चुकेगा कैसे? कर्ज इतना हो गया है कि अब मैं और नहीं दे सकता।
पत्नी ने कहां, 'कुछ भी करो, आज तो देना ही होगा; इज्जत का सवाल है। मैं किस मुंह से जाकर कहूं! लोग बैठे हैं। भोजन तो कराना ही होगा।
उस दुकानदार की बहुत दिन से कबीर की पत्नी पर नजर थी। कबीर की पत्नी थी; सुंदर रही होगी। कबीर जैसे व्यक्ति की पत्नी हो—असुंदर भी रही होगी, तो सुंदर हो गयी होगी। कबीर का संग—साथ मिला होगा, रंग—रूप निखर आया होगा। प्रसाद उतर आया होगा। जहां चौबीस घंटे कबीर के आनंद की वर्षा हो रही थी, वहां कोई कुरूप कैसे रह जायेगा! सुंदर थी—बहुत सुंदर थी।
नजर तो दुकानदार की बहुत दिन से थी, आज मौका देख लिया उसने कि आज यह फंस गई। उसने कहां कि 'अगर तेरी सच में ही ऐसी निष्ठा है, तो वायदा कर कि आज रात मेरे पास सोयेगी। तो सारा कर्ज समाप्त कर दूंगा।
पत्नी ने कहां, 'जैसी मरजी। भोजन तो कराना ही होगा।
कबीर की ही पत्नी थी। कोई साधारण लौकिक साधु की पत्नी नहीं थी। कबीर की ही पत्नी थी। यह कबीर के ही योग्य थी बात। उसने कहां, 'यह ठीक है। अगर तुझे इससे ही हल हो जाता हो, तो ठीक है। यह निपटारा हुआ। और यह अच्छा रास्ता मिल गया! तूने पहले ही क्यों न कहां! यह रोज—रोज की परेशानी कभी की मिट गई होती। ठीक है, सांझ मैं आ आऊंगी।
वह तो ले आयी। उसने सब को भोजन करवाया। सांझ वर्षा होने लगी। बड़े जोर से वर्षा होने लगी। वह सजी—संवरी बैठी। कबीर ने पूछा, 'कहीं जाना है या क्या बात है! तू सजी—सवरी बैठी है। बरसा जोर से हो रही है।
उसने कहां, 'जाना है, और जरूर जाना है। तुमसे क्या छिपाना है...!' इसको प्रेम कहते हैं।तुमसे क्या छिपाना है!'
पूरी कहानी कह दी कि यूं—यूं मामला है।’... कर्ज बहुत बढ़ गया है। आज दुकानदार देने को राजी न था। उसने तो कहां कि आज रात अगर तू मेरे पास आकर रुक जाये, पूरी रात, तो सारा कर्ज माफ कर दूंगा। तो कुंजी हाथ लग गई। अब कोई चिंता नहीं। अब तुम जितनों को निमंत्रण देना हो—दो। यह मूरख इतने दिन तक बोला क्यों नहीं! यह बोल देता, तो कभी की बात खतम हो जाती। यह रोज—रोज की अड़चन तो न होती! तो मुझे जाना है।
कबीर ने कहां कि 'बरसा बहुत जोरों की हो रही है। मैं तुझे छोड़ आता हूं!' यह सिर्फ कबीर ही कह सकते हैं। कबीर ने छाता लिया; पत्नी को छाते में छिपाया। उसे ले गये और कहां कि 'तू भीतर जा, मैं बाहर बैठा हूं क्योंकि बरसा बंद हो नहीं रही है। जब निपट चुके, तो मैं तुझे घर वापस ले चलूंगा। रात भी अंधेरी है; बरसा भी जोर की है; तो मैं यहां बाहर छप्पर में बैठा रहूंगा।
कबीर छप्पर में बैठे रहे। पत्नी ने दरवाजे पर दस्तक दी। दुकानदार वैसे तो बड़ी उत्सुकता से राह देख रहा था, लेकिन डर भी रहा था। डर इसलिए रहा था कि पत्नी ने इतनी सहजता से हा भर दी थी कि उसे भरोसा ही न आ रहा था! कि एक दफा भी इनकार न किया। अरे, कोई सती—सावित्री होती, तो फौरन चप्पल निकाल लेती! जो चप्पल निकाले, समझ लेना कि यह सती—सावित्री नहीं है! वह चप्पल निकालना ही जाहिर कर रहा है कि लंपट है।
एकदम ही भर दिया! भरोसा नहीं आ रहा था। और कबीर की पत्नी ऐसा हौ भर दे! न लाज, न संकोच, न विरोध! एक, चेहरे पर बदली भी न आयी! जैसे कोई खास बात ही न हो। आयेगी भी कि नहीं—यह भरोसा नहीं था। सोचता था कि धोखा दे गई। सोचता था कि ले गई सामान; आने—वाने वाली नहीं है।
लेकिन जब द्वार पर उसने दस्तक दी और दरवाजा खोला और पत्नी सामने खड़ी थी! सज—बज कर आयी थी। जो भी घर में सुंदर था, वह पहनकर आयी थी।
घबड़ा गया; दुकानदार घबड़ा गया! पसीना छूट गया। सोचा न था कि पत्नी आ जायेगी। एक दफा तो आंख पर भरोसा न आया। और दूसरी बात देखकर और हैरान हुआ कि इतनी धुआंधार बरसा हो रही है, मूसलाधार, और पत्नी बिलकुल भीगी नहीं है! उसने पूछा कि 'इतनी मूसलाधार बरसा में मुझे भरोसा नहीं था कि तू आयेगी। मगर आयी—यह ठीक। मगर यह चमत्कार क्या है कि तुझ पर तो बूंद भी नहीं पडी! तेरे कपड़े तो भीगे भी नहीं!'
उसने कहां, 'भींगते कैसे। अरे, कबीर जो मुझे साथ लेकर आये; खुद भींगते रहे, छाते में मुझे छिपाये रहे। कहने लगे —मै भीग जाऊं, तो कोई बात नहीं, लेकिन तुझे तो अब उस दुकानदार के पास जाना है। उस बेचारे का क्या कसूर कि आज बरसा हो रही है।
वह तो दुकानदार और भी लड़खड़ा गया। उसने कहां, 'कबीर छोड़ गये! कबीर कहां हैं? गये, कि यहीं हैं?'
उसने कहां, 'गये नहीं। छप्पर में बैठे हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि जब तू निपट जाये, पता नहीं, बरसा रुके न रुके। रात अंधेरी है। तो ले जाने के लिए बैठे हैं! तो जल्दी निपट लो। तुम्हें जो करना हो कर लो, क्योंकि उनको ज्यादा देर बिठाये रखना भी ठीक नहीं। सुबह ब्रह्म—मुहूर्त में फिर उठ आना होता है और फिर भजन—कीर्तन। और भक्त इकट्ठे होंगे!'
पैरों पर गिर पड़ा वह दुकानदार। भागा; कबीर के पैर छुए। कबीर ने कहां कि 'तू समय खराब न कर। तू अपना काम निपटा; हमें अपना काम करने दे। तू इन बातों में मत उलझ। अरे, यह पैर छूना वगैरह पीछे हो लेगा। सुबह आ जाना; भजन—कीर्तन कर लेना। वहीं पैर भी छू लेना। कार अभी तू अपना काम निपटा।
उसने कहां, 'आप कहते क्या हैं! और मुझे न मारो। और मुझे न दुत्कारो! और मुझे गर्हित न करो। और मुझे अपमानित न करो! '
कबीर ने कहा, 'नहीं, तेरा हम कोई अपमान नहीं कर रहे हैं। इन बातों का मूल्य ही क्या है?'
यह होगी ज्ञानी की दृष्टि। कबीर को मैं कहूंगा तीर्थंकर। मेरे लिए कबीर ने कितने घोड़े और कितने हाथी छोड़े, यह सवाल नहीं है। एक बात देख ली कि यह संसार और इसके मूल्यों का कोई मूल्य नहीं है। इसकी नीति कुछ नीति नहीं; इसकी अनीति कुछ अनीति नहीं। सब व्यावहारिक बातें हैं। और उस परम सत्य को कुछ भी नहीं छूता है। वह परम सत्य सदा कुंवारा है; अछूता है। वह जल में कमलवत् है।
मगर कबीर को कौन तीर्थंकर माने! कौन अवतार माने! कौन कबीर को बुद्ध माने? वही मूल्य है। एक बंधा हुआ मूल्य है — धन का।
तो जिनको तुम साधु भी कहते हो, उनको भी तुम साधु लौकिक कारणों से ही कहते हो। उन्होंने कुछ छोड़ दिया। जो तुम्हारे लिए बहुत मूल्यवान था, उन्होंने छोड़ दिया। बस, साधु हो गए!
मगर वसिष्ठ के सूत्र में बात कीमत की है। बात यह है कि ऐसे साधु की वाणी थोथी होगी। वह किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी'। उसके पास अपना तो कोई अर्थ नहों है; अपना कोई साक्षात्कार नहीं है। कहेगा कि 'मधु मीठा होता है, मगर यह उसका अपना स्वाद नहीं है।
और वसिष्ठ ने कहां : 'ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति और आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता थ।।
प्रतीक्षा, इसमें 'आदि' तूने कहां से जोड़ दिया! सूत्र तो सिर्फ इतना है— 'ऋषीणां...।वे जो ऋषि हैं; वे जो ऋषि की अनुदशा को उपलब्ध हुए हैं। इसमें 'आदि' का कोई सवाल नहीं। लेकिन हम अनुवाद भी जब करते हैं, तो भी हमारी बुद्धि बीच—बीच में व्याघात उत्पन्न करती है। यह जिसने भी अनुवाद किया हो, उसने 'आदि ऋषि' जोड़ दिया! क्योंकि हमारी धारणा यह है कि जो भी होना था श्रेष्ठ—पहले हो चुका। स्वर्णयुग तो बीत चुका; अब तो कलयुग चल रहा है। अब कहां ऋषि! —इसलिए ' आदि ऋषि!' हालांकि सूत्र में कुछ 'आदि' का सवाल नहीं है।
सिर्फ सूत्र तो इतना कह रहा है. 'ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमथोंsनुधावति। वे जो ऋषि हैं, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता है।वे जो भी बोल देते हैं, वही सार्थक हो जाता है। वे जो भी बोल देते हैं...। वे बोलें तो, न बोलें तो; उनका मौन भी सार्थक होता है; उनकी वाणी भी सार्थक होती है। उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। उन्हें अपनी वाणी को किसी अर्थ के पीछे नहीं चलना होता। वे तो बहते हैं—सरिता की भांति। अर्थ उनके साथ बहता है। इसलिए वे जो भी कहें, उसमें ही गरिमा होती है, गौरव होता है। वे जो भी कहें, उसमें ही सौंदर्य होता है।
'ऋषि' शब्द बड़ा प्यारा है। पहले उस शब्द को समझ लो। हमारे पास दो शब्द हैं—सिर्फ हमारे पास दो शब्द हैं, सारी दुनिया में—कवि और ऋषि। दुनिया की सभी भाषाओं में कवि शब्द तो है लेकिन 'ऋषि' शब्द नहीं है। दोनों का अर्थ एक होता है, लेकिन थोड़े भेद से। जरा—सा बारीक भेद; यूं बाल बराबर भेद, लेकिन जमीन और आसमान को अलग कर देता है।
कवि का अर्थ है, जिसे सत्य की कभी—कभी झलक मिलती है। और ऋषि का अर्थ है, जो सत्य में ही ठहर गया। कवि का अर्थ है : जो दूर से, बहुत दूर से हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों को देखता है—मगर दूर से। और ऋषि का अर्थ है : जिसने वहीं निवास बना लिया; वह जो हिमाच्छादित शिखरों पर रहने लगा। कवि के लिए सत्य एक किरण की तरह आता है और चला जाता है; एक झलक की तरह; एक हवा का झोंका; यह आया—वह गया! मगर उस झोंके में भी कवि के भीतर फूल खिल जाते हैं।
ऋषि स्वयं ही फूल हो गया। कवि का वसंत आता है, जाता है। ऋषि के लिए वसंत ही एकमात्र ऋतु है। चौबीस घंटे वसंत है। ऋषि का अर्थ है—जिसने ध्यान से सत्य का अनुभव किया; जिसकी आंखें खुल गईं—असली आंखें खुल गई; जिसने पदार्थ में परमात्मा को देख लिया; जिसने संसार में मोक्ष को अनुभव कर लिया। ऐसे ऋषि जो भी बोलें... साधारण से साधारण शब्द भी उनके हाथों में असाधारण अर्थ ले लेते हैं।
और जिनको तुम साधु कहते हो, इनके हाथों में सुंदर से सुंदर शब्द भी बड़े कुरूप हो जाते हैं, अपंग हो जाते हैं।
सारी बात आदमी की है; शब्दों में कुछ नहीं होता; व्यक्तियों में होता है; व्यक्तियों की अनुभूतियों में होता है। अगर व्यक्ति के भीतर आह्लाद है, ईश्वर का उन्माद है, मोक्ष की मस्ती है, तो वह जो भी बोल दे, वही मंत्र है, वही श्लोक है, वही ऋचा है। और अगर व्यक्ति के भीतर वह परम उन्माद नहीं है, तो वह सुंदर—सुंदर शब्दों को बिठाता रहे, जमाता रहे, शायद कविता रच लेगा, भाषा के हिसाब से, व्याकरण के हिसाब से, छंद के हिसाब से, मात्रा के हिसाब से—लेकिन उसमें आत्मा नहीं होगी। वह लाश ही होगी।
लाश भी दिखाई पड़ सकती है बिलकुल आदमी जैसी। लाश को भी तुम खूब सजा सकते हो। पश्चिम में तो लाश को सजाने का धंधा होता है। पश्चिम में तो बड़ा भय है मृत्यु का। होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि ईसाइयत, यहूदी, मुसलमान—भारत के बाहर पैदा हुए तीनों धर्म एक ही जीवन में भरोसा करते हैं। बस, एक ही जीवन; और कोई जीवन नहीं! तो घबड़ाहट स्वाभाविक है। यूं भी आदमी मौत से घबड़ाता है। यहां भी आदमी मौत से घबड़ाता है, जहां कि अनंत जीवनों का विश्वास है। पहले भी हम थे, आगे भी हम होंगे। मगर वह विश्वास ही है। घबड़ाहट तो भीतर होती है कि कौन जाने बचे न बचे! मगर पश्चिम में तो साफ ही है कि बचना नहीं है; एक ही जीवन है। बस, फिर दुबारा लौटना नहीं है। फिर तो कयामत की रात तक पड़े रहना है कब में। तो घबड़ाहट स्वाभाविक है।
जरा सोचो तो, कब आयेगी कयामत। अनंत—अनंत काल तक कब में ही सड़ते रहोगे, सड़ते रहोगे, सड़ते रहोगे। गल जाओगे! हट्टी—हट्टी गलकर मिट्टी हो जायेगी, तब आयेगी कयामत! पता नहीं, आयेगी भी कि नहीं आयेगी! और इतने काल तक तुम्हें पड़े रहना पड़ेगा कब में ही। घबड़ाहट है!
तो मृत्यु को झुठलाने का पश्चिम में बहुत उपाय होता है। इसलिए पश्चिम में एक धंधा ही हो गया है; पूरब में वैसा कोई धंधा नहीं है अभी। पश्चिम में धंधा है—मौत को सजानेवालों का धंधा! काफी लाभवाला धंधा है! जब कोई मर जाता है, तो उस पर हजारों रुपये खर्च होते हैं! उसको सजाया जाता है। जैसे कि कोई अभिनेताओं को सजाता है नाटक में। अब. यह नाटक का अंत ही हो रहा है! आखिरी सजावट कर ही लेनी चाहिए। पटाक्षेप हो रहा है। परदा गिरने का है। गिर ही चुका है।
तो उसके चेहरे को सुंदर बनाते हैं; रंगते हैं; लाली देते हैं उसके गालों को, उसके ओठों को। उसकी आंखों को काजल देते हैं। उसके बालों को रंग देते हैं। अगर बाल न हों, तो झूठे बाल लगा देते हैं। अगर दात गिर गये हों, तो झूठे दात लगा देते है! सुंदर कपड़े पहनाते हैं। इत्र छिड़कते हैं। फूलों से सजा देते हैं। आदमी यूं लगने लगता है, जैसे दूल्हा हो! दूल्हा भी फीका लगे। आदमी यूं लगने लगता है, जैसे यह कोई मरघट नहीं जा रहा है; यह कोई बारात निकल रही है!
फिर खूबसूरत से खूबसूरत ताबूत; कीमती से कीमती ताबूत, उनमें उसकी लाश को सजाया जाता है। धोखा... हर तरह का धोखा! लेकिन लाख उपाय करो, तो भी जिंदा आदमी जिंदा आदमी है, और मरा हुआ आदमी मरा हुआ आदमी है। कितना ही सुंदर लगे।
उतना ही भेद कविता में और ऋचा में है। उतना ही भेद कवि में और ऋषि में है। ऋषि है जीवंत। मात्रा का उसे पता नहीं। अब कोई मीरा की कविताओं में मात्राएं हैं, कि कोई छंद हैं! अगर भाषा और मात्रा और छंद के हिसाब से तौला जाये, तो कबीर और मीरा की गिनती कहीं भी नहीं होगी। तब तो तुलसीदास बड़े कवि मालूम होंगे। कहते भी हैं कि तुलसीदास महाकवि हैं। हैं भी वे महाकवि। बस, लेकिन कवि ही हैं—ऋषि नहीं। कबीर कवि नहीं है—ऋषि है। शब्द अटपटे हैं, लेकिन उन शब्दों के पीछे गहन अर्थ चला आ रहा है। शब्द जीवंत हैं; पंख हैं उनमें। यूं कि अभी उड़ जायें! किन्हीं पिंजरो में बंद नहीं।
तुलसीदास के शब्द कितने ही सुंदर हों, पींजड़ों में बंद हैं। लेकिन तुलसीदास की महिमा! क्योंकि लोग तो व्यर्थ से प्रभावित होते है; सार्थक से तो घबड़ाते हैं क्योंकि सार्थक तो झकझोर देता है। सार्थक तो आता है झंझावात की तरह। धूल झाड़ देता है। और तुमने धूल को समझ रखा है बड़ी कीमती! सो जो तुम्हारी धूल को और जमा दे, वही प्यारा लगता है।
तुलसीदास महाकवि! कबीरदास तो अटपटे हैं। सधुक्कड़ी उनकी भाषा है। पंडित कहते हैं—सधुक्कड़ी। उसके लिए भाषा अलग रख लिया है नाम—सधुक्कड़ी भाषा! संध्या भाषा! उलटबांसी! सीधी बात ही नहीं करते; उलटी बांसुरी बजाते हैं! कुछ का कुछ कहते हैं!
मगर कारण? कारण यह है कि कबीर कोई पढ़े—लिखे व्यक्ति नहीं हैं। कबीर कोई शास्त्रीय व्यक्ति नहीं हैं, मगर सत्य को जाना है। इसलिए बोलचाल की भाषा ही बोलते हैं, मगर उसमें ही वह सारा रस भर दिया है, कि फूल फीके पड़ जायें। वह सारी रोशनी भर दी है, कि चांद—तारे फीके पड़ जायें। छोटे से छोटे वचन, मगर बड़े से बड़े शास्त्रों का निचोड़ आ गया है।
इसलिए प्रतीक्षा, 'आदि ऋषि' शब्द मत जोड़ो। आदि' से क्या लेना—देना है? 'ऋषि' का 'आदि' से क्या संबंध? ऋषि तो आज भी होते हैं। जब भी सत्य को जाना है, तभी ऋषि का जन्म हुआ।
ऋषि का अर्थ तो है : जिसे भीतर की देखने की आंख मिल गई। और तब यह सच है कि 'ऋषि की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है।वह अर्थ की चिंता नहीं करता, न व्याकरण की चिंता करता है, न भाषा की चिंता करता है। और इसलिए अनेक बार ऐसा हुआ है कि ऋषियों के बोलने के कारण नयी भाषाएं पैदा हो गयीं।
महावीर ने संस्कृत में नहीं बोला; प्राकृत में बोला। महावीर के बोलने के कारण प्राकृत बनी। संस्कृत में एक पांडित्य है, एक आभिजात्य है। महावीर ने संस्कृत का उपयोग नहीं किया? बोलचाल की भाषा में बोले। उसमें वह पांडित्य नहीं है, लेकिन जीवंतता है।
बुद्ध पाली में बोले। पाली बोलचाल की भाषा है; बे पढ़े—लिखे आदमी की भाषा है। मगर बड़ी प्यारी!
जब लोग शब्दों का उपयोग करते है, तो शब्दों के किनारे घिस जाते हैं, शब्दों में गोलाई आ जाती है, सौंदर्य आ जाता है। लोगों के शब्द घिसते—घिसते बड़े प्यारे हो जाते हैं! और जब भी कभी लोगों पर ऊपर से भाषा थोपी जाती है, तो कभी उस भाषा में प्राण नहीं आते। जैसा इस देश में उपयोग किया गया।
स्वतंत्रता के बाद इस देश में जिन्होंने सबसे बड़ी हानि हिन्दी को पहुंचाई, वे थे—डाक्टर रघुवीर, सेठ गोविंददास। दोनों मेरे निकट से परिचित व्यक्ति थे। और दोनों को मैंने कहां था कि 'तुम दुश्मन हो हिन्दी के।हालांकि दोनों समझे जाते थे कि हिन्दी के सबसे बड़े समर्थक हैं। मगर उन्हीं ने नष्ट किया।
भाषाएं ऐसे ऊपर से नहीं थोपी जातीं। रघुवीर ने कैसी भाषा थोपने की कोशिश की! हालांकि गणित ठीक था उनका; व्याकरण ठीक थी उनकी; सब बातें ठीक थीं। मगर भाषाएं जन्मती हैं; ऐसे थोपी नहीं जातीं। भाषाएं कृत्रिम नहीं होतीं। जनता जब सैकड़ों वर्ष तक उपयोग करती है शब्दों का, तो उन शब्दों में एक रस आ जाता है; एक जीवंतता आ जाती है। निरंतर के चलन से उनमें गोलाई आ जाती है। जैसे नदी में बहते हुए पत्थर गोल हो जाते हैं, शंकरजी की पिण्डी बन जाते हैं। ऐसे प्रत्येक शब्द में...।
रघुवीर के शब्दों में गोलाई नहीं है और बेहूदापन है। हालांकि हिसाब की दृष्टि से बिलकुल ठीक हैं। अब जैसे—'रेलगाड़ी', तो रेलगाड़ी शब्द का ठीक—ठीक अनुवाद भाषा में करना हो, तो रघुवीर ने बिलकुल ठीक किया—'लोह—पथ—गामिनी'। मगर कौन इसका उपयोग करेगा? जिससे कहोगे, वही हंसेगा! किसी से कहोगे कि 'लोह—पथ—गामिनी से जा रहे हैं', तो वह पहले चौंककर देखेगा कि तुम होश में हो कि ज्यादा पी गये! क्या हो गया तुम्हें! लोह—पथ—गामिनी से जा रहे हो! तुम्हें जाने के लिए कुछ और उपाय न बचा! हालांकि लोह—पथ—गामिनी बिलकुल ठीक रेलगाड़ी का ही अनुवाद है। रेल का अर्थ होता है—लोह—पथ। और लोह—पथ पर जो दौड़ती है, वह गामिनी; गमन करती है, बिलकुल ठीक है। लोह—पथ—गामिनी!
इससे तो डाक्टर राममनोहर लोहिया बेहतर आदमी थे। उन्होंने जनता के शब्द चुनने की फिक्र की है। जैसे 'रिपोर्ट' की जगह वे 'रपट' लिखते थे! क्योंकि गांव का किसान जब कहता है, तो वह कहता है, ' भइया, रपट लिखवाई कि नहीं!' रिपोर्ट घिस —घिसकर ' रपट ' हो गई। स्‍ ' स्टेशन' घिस —घिसकर 'टेशन' हो गया! मगर जो 'टेंशन ' में मजा है —वह 'स्टेशन' में नहीं! और जो 'रपट' में बात है —वह 'रिपोर्ट ' में नहीं। रपट में एक सचाई है। कबीर तो 'रपट' लिखवायेंगे; 'रिपोर्ट ' नहीं लिखवायेंगे! कबीर 'टेशन' जायेंगे — 'स्टेशन ' नहीं जा सकते!
अभी पाच सौ साल पहले ही नानक के कारण 'गुरमुखी' भाषा पैदा हुई—सिर्फ नानक के कारण। क्योंकि नानक ने पंजाब की लोक— भाषा का उपयोग किया—और एक नयी भाषा को जन्म दे दिया। मगर वह जन्म ऊपर से थोपा हुआ नहीं है; वह कोई कृत्रिम नहीं है। लोग जिस भाषा का उपयोग कर रहे थे, सदियों से, उसी भाषा को छू दिया—और जादू हो गया!
ऋषि की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। ऋषि फिक्र नहीं करता कि शब्द क्या हैं; किन्हीं भी शब्दों को चला देता है। चलते हुए शब्दों को उपयोग में ले आता है, और उनमें बड़े अर्थ के फूल खिल जाते हैं।
यह सूत्र उपयोगी है। लेकिन इसमें से दो बातें छोड़ देना। एक तो 'लौकिक साधु' जैसा कोई व्यक्ति होता नहीं। या तो कोई साधु होता है—या लौकिक होता है। और दूसरी बात— ' आदि ऋषि'— गलत अनुवाद है। ऋषि सदा होते रहे; आज भी हैं; कल भी होंगे। यह दुनिया उस दिन स्वाद खो देगी जिस दिन ऋषि पैदा न होंगे। जब तक ऋषि हैं, तब तक जमीन पर नमक है; तब तक जीवन में स्वाद है।
ऋषि का अर्थ केवल इतना ही है—जिसने देखा, अनुभव किया, जीया; जो जीकर बोला; जिसके बोलने में हृदय की धड़कन है।
आज इतना ही।

 'अनहद में बिसराम' प्रवचनमाला से
दिनांक 16 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।

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