प्यारे
ओशो!
महाभारत
का यह सूत्र
बिलकुल आपके
दर्शन से
मिलता
हुआ मालूम
पड़ता है—
मुहूर्त
ज्वलितं
श्रेय:, न तु
धूमायितं चिरम्
मुहूर्त
भर जलना
श्रेयस्कर है, बहुत समय
तक धुआंना
नहीं।
यह
कैसे संभव है? यह
समझाने की
अनुकंपा करें!
सहजानंद! यह
सूत्र
निश्चित ही
मेरी जीवन—दृष्टि
को एक अत्यंत
संक्षिप्त
संकेत में रूपांतरित
कर देता है।
जीवन है त्वरा
का नाम, तीव्रता का
नाम, सघनता
का नाम। जैसे
कोई धूप की
किरणों को
इकट्ठा कर ले,
एकाग्र कर
ले तो तथ्या
आग
प्रज्ज्वलित
हो जाती है।
वे ही किरणें
बिखरकर पड़ती
हैं तो सिर्फ
कुनकुनापन
देती हैं; वे
ही इकट्ठी हो
जाती हैं तो
प्रज्ज्वलित
अग्नि पैदा हो
जाती है।
जीवन
भी दो ढंग से
जीया जा सकता
है : बिखरा—बिखरा, खंड—खंड,
थोड़ा— थोड़ा,
हिसाब—किताब
से, गणित
के ढंग और
रवैये से; और
जीवन यूं भी
जीया जा सकता
है—सघनता से, प्रगाढ़ता से।
या तो न्यूनतम
ढंग से कोई
जीए और या
परिपूर्णतम
ढंग से। जैसे
सौ डिग्री पर
पानी
वाष्पीभूत हो
जाता है; ऐसी
ही जीवन की भी
एक सघनता है, जहां अहंकार
वाष्पीभूत हो
जाता है; जहां
मैं और तूं का
मिलन हो जाता
है; जहां
बूंद सागर में
समा जाती है
या सागर बूंद में
समा जाता है।
लेकिन जो
कुनकुने—कुनकुने
जीते हैं
उन्हें कभी इस
बात का पता नहीं
चलता। वे जान
ही नहीं पाते
जीवन के नृत्य
को, जीवन
के उत्सव को; उनकी जीवन
की बगिया में
कभी वसंत नहीं
आता, फूल
नहीं खिलते, पक्षी गीत
नहीं गाते। वे
ऐसे जीते हैं
जैसे न भी
जीते तो भी
चलता। मरे—मरे
जीते हैं। और
कारण है उनका
हिसाबी—किताबी,
व्यवसायी
मन। सोच—सोचकर
कदम रखते हैं,
फूंक—फूंककर
चलते हैं; बचाव
की ज्यादा
फिक्र है, जीने
की कम; सुरक्षा
की ज्यादा
चिंता है, अनुभव
की कम।
सूफी कहानी
है। एक सम्राट
ने महल बनाया
और उसमें एक
ही द्वार रखा; न कोई और
खिड़की, न
कोई और द्वार।
क्योंकि कहीं
खिड़की से कोई
चोर, कोई
हत्यारा, किसी
द्वार से कोई
दुश्मन
प्रवेश कर जाए।
और उस महल में
वह अकेला ही
रहता। अपनी
पत्नी को भी
उस महल में
प्रविष्ट
नहीं होने
देता था। क्या
भरोसा, किसका
भरोसा? इस
जगत में कौन
अपना है? ऐसी
बड़ी ज्ञान की
बातें भी करता
था, लेकिन
सारी ज्ञान की
बातों के पीछे
था भय—मृत्यु
का भय। जैसे
कि सब तरह से
सुरक्षित हो
जाओगे, न
दुश्मन आ
सकेगा... मित्र
ही न आ सकेगा, तो शत्रु को
आने की क्या
संभावना रह
जाएगी? पत्नी
ही न आ सकेगी, बच्चे ही न आ
सकेंगे। तो
क्या तुम
सोचते हो मौत
न आ सकेगी? मौत
तो फिर भी
आएगी ही आएगी।
वह तो उसी दिन
आ गयी जिस दिन
जन्म हुआ। अब
उसकी क्या
चिन्ता? वह
तो उसी दिन घट
गयी जिस दिन
पहली सास ली।
पहली सांस और
आखिरी सांस
में कुछ भेद
नहीं। पहली ले
ली तो आखिरी
भी ले ही ली।
लेकिन
सोच—विचार से
चलनेवाला
आदमी था। एक
दरवाजा रखा, वह भी बड़ा
संकरा। बस
अकेला आ सके
भीतर और जा
सके। और उस
दरवाजे पर
उसने पहरों पर
पहरे बिठाए।
सात
पंक्तियां
थीं
पहरेदारों की,
क्योंकि हो
सकता है एक
पहरेदार धोखा
दे जाए; सो
जाए, न दे
धोखा; इधर—उधर
चला जाए। तो
दूसरा
पहरेदार था उस
पर नजर रखने
को। मगर दूसरे
का भी क्या
भरोसा; दोनों
मिल जाएं, साठ—गांठ
हो जाए साजिश
हो जाए। तो
तीसरा
पहरेदार था।
यूं सात
पंक्तियां
थीं, पहरे
पर पहरा था।
पड़ोसी
सम्राट उसका
महल देखने आया।
जब उसे खबर मिली
तो स्वभावत:
उसको भी
उत्सुकता जगी।
सुरक्षा तो
ऐसी ही होनी
चाहिए। आया, देखकर
बहुत
प्रभावित हुआ
और कहां, मैं
भी एसा ही महल
बनवाता हूं।
और जब अपने
पड़ोसी सम्राट
को विदा करने
इस महल का
मालिक द्वार
पर आया, उसे
रथ में बिठा
रहा था और
पड़ोसी सम्राट
प्रशंसा किये जा
रहा था उसके
महल की, ऐसी
सुरक्षा उसने
कभी देखी न थी—तभी
सड़क के किनारे
बैठा एक
भिखारी जोर से
हंसने लगा।
दोनों ने
चौंककर उसकी
तरफ देखा और कहां
— 'तुम
क्यों हंसे?'
उसने कहां,? 'कभी मैं
भी सम्राट था
और कभी मैंने
भी सुरक्षा के
सारे आयोजन
किये थे, सब
व्यर्थ हो गये।
और मैं तुमसे
एक बात कहूं
कि अगर तुम सच
में ही सुरक्षा
चाहते हो, पूरी
सुरक्षा कि
रंच मात्र भी
भय न रह जाए, तो तुम महल
के भीतर बंद
हो जाओ और यह
दरवाजा भी बाहर
से चुनवा दो।
फिर कोई भी
भीतर न आ
सकेगा। अभी तो
हवा का झोंका
आ जाता है; मौत
इसी पर सवार
होकर आ जाएगी।
अभी तो सूरज
की किरणें आ
जाती हैं, मौत
उन पर ही सवार
होकर आ जाएगी।
इतना और कर लो।
मैं इसलिए
हंसा कि तुमने
सब इंतजाम तो
किया, लेकिन
मौत इसी
दरवाजे से आ
जाएगी।’
वह
सम्राट बोला, ' अगर इस
दरवाजे को भी
चुनवा दूं
पागल है तू तो
फिर मैं तो
जिंदा रहते ही
मर गया! यह तो
कब हो जाएगी।
वह फकीर और भी
खिलखिलाकर
हंसा। उसने कहां—'कब्र तो यह
हो ही गयी, इसमें
बचा क्या है? बस एक
दरवाजा। एक
दरवाजा होने
से कहीं कब
निवास बनती है?
निन्यान्नबे
प्रतिशत तो कब
हो ही गयी; एक
प्रतिशत बची
है, उसको
भी क्यों
बचाते हो? और
अगर इतनी तुम्हें
समझ है तो और
दरवाजे भी
खोलो, और
खिड़कियां भी
खोलो; क्योंकि
जितने दरवाजे
होंगे, जितनी
खिडकियां
होंगी, उतना
जीवन होगा।’
असुरक्षा
में जीओ तो ही
जी सकते हो।
भय तो जीने
नहीं देता। और
भय ही हिसाब
लगवाता रहता
है। तो लोग इस
चिंता में
ज्यादा होते
हैं कि ज्यादा
कैसे जीएं।
ज्यादा से
उनका अर्थ
होता है
लम्बाई, गहराई नहीं।
और असल में
ज्यादा से
अर्थ होना
चाहिए—गहराई।
समय के दो
आयाम हैं—एक
लम्बाई और एक
गहराई।
लम्बाई यूं
समझो अ से ब, ब से स, ऐसी
पंक्तिबद्ध
यात्रा। और
गहराई यूं
समझो कि अ से
और गहरा अ—अ—एक,
अ—दो, अ—तीन,
अ—चार। अ
में ही डुबकी!
ब आता ही नहीं।
गहराई अ पर ही
समाप्त हो
जाती है।
इसलिए तो हमने
उसको 'अक्षर'
कहां है।’ अक्षर', मतलब
जिसका कभी
क्षय न हो।
दुनिया की
किसी भाषा में
वर्णमाला को
अक्षर नहीं कहां
जाता, सिर्फ
हमने अक्षर कहां
है। अ पर ही
यात्रा पूरी
हो गयी। बस अ
की ही गहराई
में जाना, ब
तक जाना ही
नहीं। ब तो
क्षर है, स
तो क्षर है।
जीसस
का तुमने सूली
का चित्र देखा
है, वह
चित्र इसी बात
का प्रतीक है।
ईसाई तो उस
प्रतीक को समझ
न पाए। सूली
पर जीसस लटके
हुए हैं, तो
उनका धड़ तो
खम्बे पर है
और उनके हाथ
दूसरे खम्बे
पर। दो खम्बों
से ही तो सूली
बन जाती है।
वस्तुत: सूली
का प्रतीक
भारत से ही
जेरूसलम तक
पहुंचा, जीसस
ही ले गये।
सूली का
प्रतीक भारत
के प्राचीनतम
प्रतीक स्वस्तिक
का अंग है—स्वस्तिक
का बीच का अंग,
उसका
आधारभूत
हिस्सा। बस एक
लकीर खडी हुई
और एक लकीर
आडी। आडी लकीर
समय की लम्बाई
की सूचक है और
खड़ी लकीर समय
की गहराई की।
या यूं कहो कि
आड़ी लकीर है
समय और खड़ी
लकीर है शाश्वतता—अक्षर।
त्वरा
में जीने का
अर्थ है—ऐसे
जीओ कि गहराई
हो, कि
ऊंचाई हो।
गहराई हो
प्रशात
महासागर जैसी,
ऊंचाई हो
गौरीशंकर
जैसी। मगर हम
यूं जीते हैं
कि हमारा जीवन
एक सपाट
रास्ते की तरह
होता है; कोलतार
की बनी सीधी
सड़क, न कोई
ऊंचाई, न
कोई निचाई। इस
सपाट जीवन में
कैसे तो आनंद
हो? इस
सपाट जीवन में
कैसे तो उत्सव
हो? इस
कोलतार की सड़क
पर कैसे तो
गुलाब खिले, कैसे तो बीज
फूटे? यह
कोलतार की सड़क
तो एक अंत से
दूसरे अंत तक
फैलती चली
जाती है एक
जैसी। इसमें
कुछ भिन्नता
भी नहीं, कोई
वैविध्य भी
नहीं। इसमें
कोई आश्चर्य
से भर
देनेवाला
अनुभव भी नहीं।
तो
मेरा संदेश
क्षण में जीने
का है—और क्षण
में इतनी
परिपूर्णता
से जीने का है, जैसे कि
दूसरा क्षण
कभी होगा ही
नहीं; जैसे
बस यही क्षण
है। और सच में
यही क्षण है, दूसरे का
क्या भरोसा है?
आए न आए। बस
यही क्षण है।
इसको ही त्वरा
से जी लो, समग्रता
से जी लो। मत
कल के लिए
स्थगित करो।
मत कहो कि कल
जीएंगे। मत
कहो कि सांझ
जीएंगे। सुबह
है तो सुबह
जीओ। सांझ है
तो सांझ जीओ।
जो हाथ में
मिला है उसको
पूरा का पूरा
पी लो, उसमें
डूब जाओ। आएगा
दूसरा क्षण तो
उसमें भी डूब
लेंगे; नहीं
आएगा तो हमारा
खोता क्या है?
हम इस क्षण
को पूरा जी
लिए। और एक
क्षण को भी
जिसने पूरा जी
लिया, उसने
शाश्वत का
स्वाद पा लिया।
उस स्वाद को
चाहे धर्म कहो,
चाहे प्रभु
कहो, चाहे
सत्य कहो—जो
मर्जी हो, जो
नाम प्यारा हो,
वही दे दो।
महाभारत
का यह सूत्र
सारगर्भित है
: मुहूर्तं
ज्वलितं
श्रेय:। यूं
जलो जैसे कि
कोई मशाल को
दोनों तरफ से
एक साथ जला दे।
मुहूर्त
ज्वलितं
श्रेय:। एक
मुहूर्त :
मुहूर्त समय
का छोटे से
छोटा हिस्सा
है—सैकिंड भी
उतना छोटा
नहीं। सैकिंड
को भी बांटा
जा सकता है।
इसलिए सैकिंड
सबसे छोटा
हिस्सा नहीं
है। मुहूर्त
कहते हैं हम
उस क्षण के
हिस्से को जो फिर
अविभाज्य है; फिर
जिसको बांटा न
जा सके। वह
परम अणु, परमाणु,
जिसके आगे
फिर विभाजन
असंभव हो जाता
है। उस
अविभाज्य
मुहूर्त को
समग्रता से जी
लो
अब इसमें
दो बातें खयाल
रख लेने की
हैं। एक तो
जीवन की
समग्रता बड़ी
चीज है, जैसे सागर।
और मुहूर्त
ऐसा छोटा है
जैसे बूंद।
बूंद में सागर
को उतर आने दो।
मुहूर्त को
ऐसे जीओ, जैसे
बस यही सब है।
न पीछे कुछ, न आगे कुछ। न
पीछे लौटकर
देखो, क्योंकि
उतने देखने
में मुहूर्त
विदा हो जाएगा।
न आगे झांककर
देखो, क्योंकि
उतने देखने
में मुहूर्त
विदा हो जाएगा।
खींच लो अपने
को अतीत से।
खींच लो अपने
को भविष्य से।
बस यहीं, इसी
पल, अभी! और
तब तुम्हारे
जीवन में पहली
दफा सौ डिग्री
तापमान पैदा
होता है। इतनी
सघनता हो जाती
है कि आ गया
मधुमास, कि
खिल उठेगा कमल।
सारी ऊर्जा आ
गयी। नहीं तो
सब बिखरा—बिखरा
है, खंड—खंड
है। कुछ
हिस्सा बचपन
में रह गया है,
कुछ हिस्सा
यौवन में रह
गया है, कुछ
हिस्सा अधेड़
अवस्था में
अटका रह गया
है, कुछ
बुढ़ापे तक चला
आया है। कुछ
अभी तुम यहां
हो, कुछ
आगे जा चुका
है। कुछ शायद
मर भी चुका हो
और कुछ शायद
मृत्यु के पार
स्वर्गों की
या मोक्षों की
तलाश कर रहा
हो। ऐसे फैले
हुए जी रहे हो।
इतने फैल
जाओगे तो जीवन
विरल हो जाता
है। तो
स्वभावत:
न्यूनतम पर
जीते हो फिर।
फिर चुल्लुभर
पानी हो तो
उसमें डूबो भी
तो कैसे डूबो!
मुहूर्त
ज्वलितं
श्रेय:।
श्रेयस्कर है
एक मुहूर्त
में भभककर जल
उठना। न तू
धूमायितं
चिरम्। ऐसे धुआं—धुआं
ही होते रहो—न
मालूम
अनंतकाल तक, चिरकाल
तक, क्या
सार है? धुआं—धुआं
ही होते रहो, खुद की भी आंखें
आंसुओ से
भरेंगी और
दूसरों की आंखें
भी आंसुओ से
भर जाएंगी। और
रोशनी तो होगी
नहीं। सच तो
यह है कि अगर धुआं
न हो तो
अंधेरा भी
बेहतर। और धुआं
ही धुआं हो तो
अंधेरा और
बदतर हो जाता
है। चले थे
रोशनी की तलाश
में, अंधेरे
को और
विक्षिप्त कर
लिया। धुआं—धुआं
हो गया। लेकिन
लोग धुआं— धुआं
ही जी रहे हैं।
इस धुंधुआंती
जिंदगी में
कैसे तुम
समझोगे कि अमृत
भी छिपा है, आनंद भी
छिपा है, मोक्ष
भी छिपा है।
नहीं भरोसा
आता। नहीं
भरोसा आ सकता
है। जीवन कोई
प्रमाण तो
देता ही नहीं।
कहते होंगे
बुद्ध और कहते
होंगे महावीर
और कहते होंगे
कृष्ण और
क्राइस्ट और
मुहम्मद, तो
कहने दो। ये
दो—चार
सिरफिरों के
कहने से कुछ
होनेवाला है?
अपनी
जिंदगी को
अनुभव ही असली
प्रमाण है। और
अपने चारों
तरफ जो हजारों
लाखों लोगों
की भीड़ है, करोड़ों
की भीड़ है, इसका
प्रमाण। ये
दों—चार
सिरफिरे कहते
हैं कि परम
आनंद है, दुःखनिरोध
है! हजार—हजार
सूरज उगते हैं;
हजार—हजार
कमल खिल जाते
हैं! शाश्वतता
मिलती है; अमृत
की झड़ी लगती
है—पागल हैं, कल्पनाप्रवण
हैं—कवि होंगे;
सपने देखते
होंगे।
और यूं
नहीं कि
साधारण आदमी
ऐसा कहता है, बड़े
विचारशील लोग,
जैसे
सिगमंड
फ्रायड जैसे
मनोवैज्ञानिक
भी यही कहते
हैं कि इन
झक्कियों की
बातों में न
पड़ना, इनकी
बातें बस मन
के भुलावे हैं।
बुद्ध और
महावीर कहते
हैं कि जगत
मृग—मरीचिका
और सिगमंड
फ्रायड कहते
हैं कि ये दों—चार
सिरफिरे
होंगे, मृग—मरीचिका
में। यह
करोड़ों—करोड़ों
लोगों का
अनुभव यही
वास्तविक
अनुभव है, यही
हकीकत है। और
यह मंसूर जिस
हकीकत की बात
करता है, कहता
है अनलहक, कि
मैं हूं वह
हकीकत—सिर्फ
सपनों में भटक
गया है, आत्मसम्मोहित
हो गया है। यह
करोड़ों लोगों
का अनुभव ही
सही होना
चाहिए।
इसलिए
भला तुम बुद्ध
की मूर्ति
पूजते हो और
सुबह उठकर
कुरान पढ़ते हो
या कि चर्च
जाते हो, कुछ फर्क
नहीं पड़ता!
तुम्हें
भरोसा नहीं
आता।
तुम्हारी
जिंदगी में
प्रमाण नहीं।
तुम्हारी
जिंदगी में धुआं
ही धुआं। और
कृष्णमूर्ति
कहते हैं :
धूम्र—रहित
शिखा, 'स्मोकलेस
फ्लेम'।
शरहित शिखा!
वह तो तुमने
कभी जानी नहीं।
धुएं सहित भी
शिखा नहीं
जानी, बस धुआं
ही धुआं उठता
रहता है।
गीली
लकड़ी जलाओ तो धुआं
उठता है—जितनी
गीली उतना धुआं
उठता है। खयाल
रखना, धुआं
अग्नि का
हिस्सा नहीं
है। आमतौर से
लोग यही सोचते
हैं कि धुआं
उठता है अग्नि
से। अग्नि से
नहीं उठता।
अगर लकड़ी
बिलकुल सूखी
हो, उसमें
जरा भी पानी न
हो, जरा भी
आर्द्रता न हो;
धुआं नहीं
उठता। धुआं
उठता है लकड़ी
में पानी के
कारण—गीली
लकड़ी!
बुद्ध
ने ठीक कहां
है कि जब तक
तुम्हारा मन
वासना से गीला
है तब तक धुआं
उठेगा। जिस
दिन तुम वासना
से मुक्त हुए; इच्छा से
मुक्त हुए; कल्पना से
मुक्त हुए; यह आपाधापी
गयी मन की; सूख
गये, सूखे
काष्ठवत् हो
गये—उस दिन
शिखा ही उठेगी—प्रज्ज्वलित
शिखा, शरहित।
और वही
प्रज्ज्वलित
शिखा जीवन का
परमधन है, परम
अनुभव है।
तुमने
एक बात खयाल
की? पानी
सदा नीचे की
तरफ बहता है
और अग्नि सदा
ऊपर की तरफ
उठती है। वह
उनका स्वभाव
है। एस धम्मो
सनंतनो। यह
उनका धर्म है।
पानी नीचे की
तरफ बहता है।
अपने—आप तुमने
कभी पानी को
ऊपर चढ़ते देखा?
चढ़ाना हो तो
बड़ी मेहनत
करनी पडती है,
श्रम करना
पड़ता है। बिना
श्रम के नहीं
चढ़ता। चाहे नल
चलाओ, चाहे
कुएं से पानी
भरी और पहाड़ी
पर पानी चढ़ाना
हो तो और
मुश्किल हो
जाती है। पानी
नीचे की तरफ
बिना श्रम के
बहता है।
पहाड़ों से उतर
आती है गंगा, किसी को कोई
मेहनत नहीं
करनी पड़ती। चढाओ
तो गंगा को
पहाड़ पर, बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी।
एडीसन
बहुत बड़ा
वैज्ञानिक
हुआ। उसने एक
हजार
आविष्कार
किये, संभवत:
किसी दूसरे
आदमी ने इतने
आविष्कार नहीं
किये। लेकिन
लोग बड़े हैरान
थे कि जब भी
उसके घर में जाते
थे, उसका
दरवाजा खोलते
थे, बगीचे
का, तो बड़ा
भारी! आखिर
उसके एक मित्र
ने कहां कि
एडीसन, तुमने
इतने
आविष्कार
किये, कम
से कम इतना तो
करो कि कुछ
ढंग के स्टिंग
बनाओ। यह कहां
का तुमने बाबा
आदम के जमाने
का दरवाजा लगा
रखा है! इसको
खोलने में
इतनी मेहनत
होती है।
एडीसन
हंसने लगा।
उसने कहां कि
उस मेहनत का
कारण है। एक बार
कोई दरवाजा
खोलता है तो
मेरी टंकी में
पानी भर जाता
है। कौन
पंचायत करे
भरने की!
दिनभर लोग आते—जाते
रहते हैं, वे पानी
भरते रहते हैं
टंकी में। वह
दरवाजा जो है,
ऐसा नहीं कि
उसके स्टिंग
खराब हैं या
कोई और बात है,
तुम्हें
पता नहीं कि
एक तुमने
दरवाजा खोला
कि मेरी पूरी
टंकी पानी से
भर गयी।
वह
उसका
आविष्कार था।
पानी
ऊपर चढ़ाना हो
तो श्रम तो हो
जाएगा। और आग
को नीचे ले
जाना बहुत
मुश्किल है।
जलती हुई मशाल
को तुम उल्टा
भी कर दो, तो भी आग ऊपर
की तरफ ही
भागेगी। आग की
लपट को नीचे
की तरफ ले
जाना बहुत
मुश्किल है।
उसके लिए फिर
श्रम करना
पड़ेगा, आयोजन
करना पड़ेगा।
इन दोनों की
प्रक्रिया
अलग, स्वभाव
अलग, प्रकृति
अलग। और लकड़ी
में दोनों
छिपे हैं।
लच्छी में जल
भी है और आग भी
है। शायद आग
के कारण ही
वृक्ष ऊपर उठ
पाता है और जल के
कारण ही उसकी
जड़ें जमीन से
गहरी पहुंच
पाती हैं। तो
वृक्ष में
दोनों का
तालमेल है। आग
उसे ऊपर की
तरफ उठाती है।
वे जो फूल
खिलते हैं, आग के कारण
खिलते हैं।
इसलिए तो जब
कभी जंगल में
पलाश के फूल
खिल जाते हैं
तो यूं लगता
है जैसे पूरे
जंगल में आग
लग गई। पलाश
के फूलों की
जब
पंक्तिबद्ध
खिलावट होती है,
तब पूरा
जंगल पलाश के फूलों
से भर जाता है—फूल
ही फूल! और
पलाश क्या
फूलता है, कोई
दूसरा वैसा
फूलना जानता
नहीं। सब
पत्ते झर जाते
हैं, फूल
ही रह जाते है—तो
सारा जंगल यूं
लगता है कि आग
पकड़ गया; लपटें
उठ रही हैं।
फूल आग
का हिस्सा है।
इसलिए बिना
सूरज के फूल
नहीं खिल
सकेगा। तुम
फूलवाले पौधे
को भी अगर ऐसी
जगह लगा दो
जहां सूरज न
आता हो, तो पत्ते तो
लग जायेंगे, लेकिन फूल न
खिल पायेंगे।
या भूल—चूक से
कुछ थोड़ी
किरणें पहुंच
भी जाती हों
तो यूं मुरझाए—मुरझाए
फूल खिलेंगे।
इसलिए तो कमरे
के भीतर तुम
गुलाब नहीं
उगा सकते हो—सूरज
चाहिए। फूल
में सूरज ही
छिपा है। और
जड़ें पानी की
तलाश कर रही
हैं, गहरी
जा रही हैं।
वैज्ञानिक
बहुत चकित हुए
हैं यह बात
जानकर कि जडों
को कुछ
संवेदनशीलता
है कि पानी
कहां है। जिस
तरफ पानी है, जड़ें उसी
तरफ जाती हैं।
इसलिए जो बहुत
संवेदनशील
लोग हैं, वे
तो एक गीली
टहनी को वृक्ष
की, हाथ
में लेकर और
चलते हैं और
पता लगा लेते
हैं कि पानी
जमीन में कहां
है। वह जो
गीली टहनी है,
वह तत्क्षण
खबर दे देती
है। मगर उसके
लिए बहुत
संवेदनशील
लोग चाहिए। जो
जल के खोजी
होते हैं, जो
जमीन में जल
खोजने का काम
ही करते हैं, वे एक गीली
टहनी को, तत्क्षण
तोड़ी गयी टहनी
को हाथ में ले
लेते हैं और
उसको बिलकुल
आहिस्ता से
पकड़ते हैं कि
उस पर कोई जोर
न पड़े और उसको
पकडकर चलते
जाते हैं।
जहां वह टहनी
झटका दे देती
है, खबर दे
देती है उनके
हाथ को, उनका
संवेदनशील
हाथ फौरन उस
झटके को पहचान
लेता है। टहनी
कह रही है कि
यहां जल है।
टहनी के भीतर
छिपा हुआ जल
जल की भाषा को
पहचानता है।
वह नीचे, जमीन
के नीचे, हो
सकता है पचास
फीट नीचे जल
हो, मगर
पचास फीट जमीन
की पर्तों को
पार करके जल जल
की भाषा पहचान
लेता है। तत्क्षण
टहनी खबर दे
देती है कि
यहां जल है।
ठिठक जाता है
जल का खोजी।
और सौ प्रतिशत
सही साबित
होते हैं जल
के खोजी।
रेगिस्तानों
में भी खोज
लेते हैं; जहां
कि दो सौ फीट, तीन सौ फीट
गहरा पानी
होगा वहा भी
वृक्ष को कुछ
अपनी अन्तर—अनुभुति
है।
एक
वैज्ञानिक
इसकी तलाश में
लगा हुआ था, हैरान
हुआ जानकर कि
बड के एक
वृक्ष ने, और
कहीं पानी न
था, तो अपनी
जड़ों को सड़क
के उस पार
पहुंचाया
जहां से म्मुनिस्पिल
कमेटी का पाइप
निकलता था।
पाइप! वह तो
बंद है। वह तो
सीमेंट का
पाइप है, उसके
भीतर जल जा
रहा है। लेकिन
बढ़ के वृक्ष
को कहीं भीतरी
कोई सूझ—बूझ, कोई भीतरी
प्रज्ञा है।
जब वृक्ष खोदा
गया तो किसी
तरफ उसकी जडें
नहीं गयी थीं,
सारी जड़ें
पाइप की तरफ
गयी थीं और
उन्होंने जाकर
पाइप को फोड़
लिया था। तो
वे पाइप के
भीतर
प्रविष्ट हो
गयी थीं और पाइप
से पानी ले
रही थीं। चूकि
पानी वहां था
नहीं और वृक्ष
हरा हो रहा था
और वृक्ष बड़ा
हो रहा था, इसलिए
वैज्ञानिक
उत्सुक हुए थे
कि इसको पानी
मिल कहां गया,
पानी यहां
है नहीं। किसी
को सूझा भी न
था कि वृक्ष
भी होशियार
होते हैं कि
इसने पाइप खोज
लिया
म्मुनिस्पिल
कमेटी का। न
केवल खोज लिया,
उसको तोड भी
लिया। कोमल
जड़ों ने
सीमेंट की
पर्तों को
तोड़कर उसके
भीतर प्रवेश
कर लिया है।
जल
वृक्ष की जड़ों
का हिस्सा है
और आग वृक्ष
के फूलों का
हिस्सा है। आग
उसे ऊपर की
तरफ ले जाती
है, जल
उसे नीचे की
तरफ ले जाता
है। और जब तुम
लकड़ी जलाते हो
तो उसमें
दोनों होते हैं।
इसलिए तो अगर
दो लकड़ियां
सूखी हों तो
दोनों के लडने
से आग पैदा हो
जाती है।
सिर्फ लड़ने से
आग पैदा हो जाती
है। वह आग
पैदा करने का
पुराने से
पुराना ढंग है।
दो लकड़ियों को
लड़ा और आग
पैदा हुई। मगर
लकड़ियां होनी
चाहिए बिलकुल
सूखी।
बुद्ध
ने कहां है :
मनुष्य की जब
वासना.. वासना
नीचे की तरफ
ले जाती है और
प्रार्थना
ऊपर की तरफ ले
जाती है—या
कहो प्रेम।
मोह और प्रेम।
मोह नीचे की
तरफ ले जाता
है; वह
जलवत् है। और
प्रेम
अग्निवत् है;
वह ऊपर की
तरफ ले जाता
है। प्रेम का
ही अन्तिम
परिष्कार
प्रार्थना है।
और मोह की
अन्तिम गहराई
वासना है।
मनुष्य में
दोनों हैं—वासना
भी है, प्रार्थना
भी है। अगर
वासनारहित हो
जाए मनुष्य तो
उसके जीवन में
मुहूर्तभर
में ऐसी रोशनी
प्रगट होती है;
ऐसी ज्वलंत
कि एक मुहूर्त
में वह सारे
जीवन के सार
को पहचान लेता
है, सारे
जीवन का अर्थ
अनुभव में आ
जाता है। और
कुछ लोग हैं
जो रहते हैं, जीते हैं, सौ—सौ वर्ष
जीते हैं, मगर
उनके हाथ राख
भी नहीं लगती,
खाक भी नहीं
लगती।
मैं
क्षण में जीने
का पक्षपाती
हूं। मत जीवन
को लम्बाने की
चिंता करो, जीवन को
गहराओ।
मुहूर्त
ज्यलितं
श्रेय:, न तु
धूमायितं
चिरम्। क्या
करोगे चिरकाल
तक धुआं धुआं
होकर? चिरकाल
से धुआं— धुआं
ही तो होते
रहे हो, अब
तो चौंको, अब
तो जागो! और
तुम्हारे
भीतर अग्नि
छिपी है; वह
सूत्र छिपा है
जो तुम्हें
उठा दे आकाश
की आखिरी
ऊंचाइयों
तक। तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
गीत छिपा है।
योगप्रीतम
की यह कविता—
ऐसा
कोई गीत नहीं
है, जिसमें
तेरा राग नहीं
हो
ऐसी
कोई प्रीत न, जिसमें
तेरा मदिर
सुहाग नहीं हो
इस
जीवन की
अंधियारी में
पूर्ण चन्द्र—से
तुम खिल आये
इस
जीवन के
सूनेपन में
तुमने ये
मधुमास जगाये
ऐसा
रस बरसाया
तुमने, जीवन नई
बहार हो गया
ऐसा
कोई फूल न, जिसमें
तेरा मधुर
पराग नहीं हो
ऐसा
कोई गीत नहीं
है, जिसमें
तेरा राग नहीं
हो
इस
जीवन के हर
नर्तन में
तेरी ही
प्यारी
रुनझुन है
इस
जीवन में जो
कीर्तन है बस
उसमें तेरी ही
धुन है
तुम
हो इस जीवन के
मधुवन, तुम ही हो
प्राणों के
गुंजन
बिना
तुम्हारे
खेला जाये, ऐसा कोई
फाग नहीं है
ऐसा
कोई गीत नहीं
है, जिसमें
तेरा राग नहीं
हो,
ऐसी
कोई प्रीत न, जिसमें
तेरा मदिर
सुहाग नहीं हो
मेरे
भावाकुल अन्तस्
में शोभित है
शृंगार
तुम्हारा
मेरा
यह संन्यास
तुम्हारा
मेरा यह संसार
तुम्हारा
मेरे
मन के
वृन्दावन में, निशि—दिन
रास रचाते हो
तुम
ऐसी
कोई लगन नहीं
है, जिसमें
तेरी आग नहीं
हो,
तुम
हो इस जीवन के
मधुवन, तुम ही हो
प्राणों के
गुंजन
बिना
तुम्हारे
खेला जाये, ऐसा कोई
फाग नहीं है
ऐसा
कोई गीत नहीं
है, जिसमें
तेरा राग नहीं
हो
वह तो
छिपा पड़ा है
तुम्हारे
भीतर। चित्त
चकमक लागे
नहीं! बस जरा
चित्त को चकमक
लगानी है, जरा सूखा
करना है। जरा
वासना की
आर्द्रता कम
करनी है। और
फिर तुम एक
क्षण में
प्रज्ज्वलित
हो उठोगे।
ठीक
कहता है, महाभारत का
यह सूत्र। ज्वलित
हो उठोगे, प्रज्जलित
हो उठोगे। और
वही
श्रेयस्कर है।
नहीं कि बहुत
दिन जीए।
लोग
कैसे—कैसे जी
रहे हैं—सड़
रहे हैं और जी
रहे हैं! जैसे
जीना अपने आप
में ही कोई
मूल्य है! गल
रहे हैं, मर रहे हैं
और जी रहे हैं!
जैसे जीवन का
कोई अपने—आप
में अर्थ है!
तुम इतने दिन
तो जी लिये
क्या यह बात
भी समझ में
नहीं आयी कि
बस सांस लिये
जाने में ही
कुछ अर्थ नहीं
है? कि रोज
भोजन खा लिया,
कि रोज भोजन
पचा लिया, इसमें
ही कुछ अर्थ
नहीं है। पचास
वर्ष किया यह
काम कि सौ
वर्ष किया यह
काम कि डेढ़ सौ
वर्ष किया यह
काम, क्या
प्रयोजन है?
वैज्ञानिक
चिन्तित हैं
कि आदमी को और
कैसे लम्बाएं।
वैज्ञानिकों
के हिसाब से
आदमी कम से कम
तीन सौ वर्ष
तो जी ही सकता
है। भगवान न
करे कि वह
कहीं सफल हो
जायें इस
कार्य में।
ऐसे ही आदमी
परेशान हैं।
सत्तर—अस्सी
साल में ही
इतना ऊधम
मचाता है, इतने
उपद्रव करता
है, तीन सौ
साल जीएगा तो
बहुत कठिन हो
जाएगा। और वैज्ञानिकों
के तो और भी
लम्बे इरादे
हैं। वे तो
कहते हैं, तीन
सौ साल तो कम
से कम जी ही
सकता है—कम से
कम! सात सौ साल
ज्यादा से
ज्यादा जी
सकता है। कोई
उन्हें अड़चन
नहीं मालूम
पड़ती। लेकिन
करोगे क्या? सड़ते रहोगे।
सात सौ साल
जीकर करोगे
क्या? न
मालूम कितनी
पीढ़ियां इस
बीच पैदा हो
जाएंगी।
तुम्हारे
बच्चों के
बच्चों के
बच्चों के बच्चे
तुम्हें
पहचानेंगे भी
नहीं। कोई
परिचय भी न रह
जाएगा। और
इतने दिन जीने
के बाद क्या
यही खेल फिर
भी सार्थक
मालूम होंगे?
यही
राजनीति, यही
खिलौने, यही
धन, यही पद—प्रतिष्ठा,
इसमें कुछ
रस मालूम होगा?
सत्तर साल
में तो आदमी
किसी तरह
भरमाए रखता है
अपने को।
भरमाए— भरमाए
ही दिन बीत
जाते हैं, रात
आ जाती है।
झूले से लेकर
कब तक ज्यादा
देर नहीं लगती।
मगर सात सौ
साल तो बहुत
कठिन हो जाएगा।
वैज्ञानिक
सात सौ साल की
बात कर रहे
हैं। और जिन
देशों में
उम्र अस्सी
साल के औसत को
पार गयी है, वहां के
आत्ममरण की
मांग कर रहे
हैं; आत्मघात
का जन्मसिद्ध
अधिकार होना
चाहिए। और मैं
भी समझता हूं
उनकी बात में
अर्थ है। और
आज नहीं फल, दुनिया के
विधानों में
इसको जोड़ना ही
पड़ेगा, क्योंकि
आज रूस में
ऐसे सैकड़ों के
हैं जिनकी उम्र
डेढ़ सौ वर्ष
के करीब पहुंच
गयी है—जो अब
मरना चाहते
हैं। मगर कैसे
मरे? मरना
गैर—कानूनी है।
और उससे भी
बुरी हालत
अमरीका में है।
अमरीका
में ऐसे
हजारों लोग हैं
जो अस्पतालों
में पड़े हैं, बिस्तरों
पर पड़े हैं। न
उठ सकते हैं, न बैठ सकते
हैं, मगर
मर भी नहीं
सकते। न जी
सकते हैं, न
मर सकते हैं।
कैसी दुविधा!
अदालतों में
मुकदमे चल रहे
हैं, मरना
चाहते हैं, लेकिन अदालत
आज्ञा नहीं
देती, क्योंकि
कानून नहीं है
कोई। आत्महत्या
की आज्ञा कैसे
दी जाए? दवाइयों
से उनको
इंजेक्यान
दिये जा रहे
हैं, नलियों
से भोजन दिया
जा रहा है।
नलियों से मल—मूत्र
निकाला जा रहा
है। किसी का
हृदय ठीक से
नहीं चल रहा
है, तो
मशीन चला रही
है। बैट्री से
चल रहा है। और
किसी की सांस
नहीं चल रही
है तो मशीन
चला रही है।
अब सवाल यह है
कि इस मशीन को
बंद करना कि
नहीं करना? और बंद किया
जाए तो वह
कानूनी है या
गैर—कानूनी? अगर इस मशीन
को बंद करते
हैं तो हत्या
का पाप लगेगा
कि नहीं? यह
अपराध होगा कि
नहीं? कौन
बंद करे? डाक्टर
बंद करे, बेटे
बंद करें, पत्नी
बंद करे, कौन
बंद करे? कौन
झंझट ले? कुछ
लोग तो बेहोश
हालत में पड़े
हैं, उनको
होश ही नहीं, इसलिए उनसे
पूछने का भी
सवाल नहीं है
अब। अब उनकी
हालत बिलकुल
गाजर—मूली
जैसी है। आदमी
अब उन्हें
कहना ठीक भी
नहीं है, गोभी
के फूल हो गये।
गोभी के फूल
से भी गये
बीते, क्योंकि
गोभी के फूल
का भी कुछ
उपयोग है, कम
से कम सब्जी
बन सकती है, वे उस काम के
भी न रहे।
मगर
कानून अधिकार
नहीं देता
मरने का। जरूर
यह अधिकार
देना पड़ेगा।
जैसे और
जन्मसिद्ध
अधिकार हैं, उन्हीं
में यह भी
जोड़ना पड़ेगा,
अथनेशिया
का, आत्मघात
का जन्मसिद्ध
अधिकार। बडा
उल्टा—सा
लगेगा देखने
में।
जन्मसिद्ध—जीवन
का अधिकार और
बात मरने की!
लम्बे
जीवन का यही
परिणाम
होनेवाला है।
गहन जीवन होना
चाहिए।
विज्ञान
लम्बाने की
कोशिश करता है
और धर्म गहराने
की। इसलिए
विज्ञान से
मैं कहूंगा कि
जितने दिन आदमी
जीता है, स्वस्थ जीए
इसकी फिक्र
करो, लम्बाने
की चिंता में
मत पड़ो।
परिपूर्ण
स्वास्थ्य से
जी सके, इसकी
चिंता करो। और
धर्म इसकी
चिंता करे कि
यह स्वास्थ्य
का उपयोग आदमी
जीवन को
गहराने में
कैसे कर सके।
ध्यान
से जीवन
गहराया जा
सकता है, विज्ञान से
स्वस्थ बनाया
जा सकता है।
विज्ञान के
बिना जीवन
स्वस्थ नहीं
होगा और ध्यान
के बिना जीवन
गहराई को नहीं
पाएगा। विज्ञान
बाहर से सहारा
दे और ध्यान
भीतर से, तो
आदमी के जीवन
में बड़ी क्रांति
घट सकती है।
एक—एक मुहूर्त
एक—एक
शाश्वतता बन
सकता है।
मैं तो
जीवन को प्रेम
करता हूं।
मेरे लिए तो
जीवन
परमात्मा का ही
दूसरा नाम है—जीवन, उसके
सारे
रंगरूपों में।
मैं
पलायनवादी
नहीं हूं। मैं
सारे
पलायनवादियो
का विरोधी हूं।
और इसलिए तो
पुरानी धर्म
की जो जड़
आधारशिलाए हैं,
उनको
उखाड़ने में
लगा हूं।
क्योंकि उन सब
में पलायन
छिपा हुआ है—भागो,
छोड़ो! मैं
कहता हूं : जीओ,
जागो। भागो
मत, छोड़ो
मत। जो मिला है
अवसर, उसका
उपयोग करो।
ऐ
काश कि सोजेगम, अश्कों
में न ढल जाये
दामन
से अगर पोछुं
दामन मेरा जल
जाये
हमाके
तो गुलिस्तां
के हर गुल से
मुहब्बत है,
गुलचीं
को जो नफरत हो, गुलशन से
निकल जाये
हर
खार हमारा है, हर फूल
हमारा है,
हमने
ही लहू देकर
गुलशन को
संवारा है
हम
डूबनेवालों
को, काफी
ये सहारा है
साहिल
पै तू आ जाना, हर मौज
कनारा है
सौ
जुल्म किये
तुमने, इक आह न की
हमने
वो
दर्द
तुम्हारा था, ये दर्द
हमारा है
हम
तश्नालबी
अपनी दुनिया
से छुपा लेंगे
साकी
से रुसवाई अब
हमको गवारा है
अब
उनका हंसी आचल
किस्मत में
नहीं शायद
आंसू
भी हमारे हैं, दामन भी
हमारा है
खामोश
फजाओं में
बजने लगी
शहनाई
ये
तूने सजा दी
है या दिल में
उतारा है
आंखों
में जब अश्कों
के तूफान
मचलते थे
हमने
वो जमाना भी
हंस—हंस के
गुजारा है
उनके
लबे नाजुक को
क्या राज
बताएंगे
कुछ
तू ही बता ए दिल, क्या हाल
हमारा है
आंसू
भी हमारे हैं
दामन भी हमारा
है
यहां
कांटे भी
हमारे हैं, फूल भी
हमारे हैं। यहां
जिंदगी के दुख
भी हमारे हैं,
सुख भी
हमारे हैं।
क्योंकि
सुखों से ही
आदमी नहीं
सीखता, दुखों
से और भी
ज्यादा सीखता
है। फूल तो
भरमा भी लें, काटे जगा
देते हैं।
हर
खार हमारा है, हर फूल
हमारा है
हमने
ही लहू देकर
गुलशन को
संवारा है
और यह
हमारी ही
बगिया है। हम
ही इसके मालिक
हैं। बस इतनी
ही बात घट जाए :
हम
डूबनेवालों
को; हम
डूबनेवालों
को काफी ये
सहारा है। बस
इतना हो जाए :
साहिल पर तू आ
जाना, हर
मौज कनारा है।
फिर कोई चिंता
नहीं किनारे
की। हम डूब
जाएंगे मझधार
में, फिर
मझधार ही
किनारा है। बस
तू साहिल पर आ
जाना।
परमात्मा की
झलक भर मिल
जाए, साहिल
पर सही, फिर
मझधार भी
किनारा है। उस
प्रेमी की
थोड़ी—सी झलक
मिल जाए।
और वह
झलक कभी भी
मिल सकती है, अभी भी मिल
सकती है। मगर
उसके लिए हमें
अपने जीवन को
फैलाव से खींचना
होगा; एक
बिंदु पर थिर
कर लेना होगा।
हमें अखंड हो
जाना होगा, खंड—खंड
नहीं। और हमें
एक जीवन की
पूरी शैली का
आविष्कार करना
होगा।
यूं
समझो कि एक
सीधी पंक्ति
में जीना, लकीर में
जीना, लकीर
के फकीर होकर जीना,
लीक पर जीना,
भीड़ के साथ
जीना—संसार है।
और गहराई में
जीना, अ से
ब और ब से स की
तरफ नहीं, अ
से और गहरे अ
की तरफ, और
और गहरे अ की
तरफ, अक्षर
तक पहुंच जाने
की डुबकी
संन्यास है।
मुहूर्त को ही
जीवन बना लेना
संन्यास है।
और कल जीएंगे,
परसों
जीएंगे—यह
आकांक्षा
संसार है।
आज इतना
ही।
'पीवत
रामरस लगी
खुमारी' प्रवचनमाला
से
दिनांक
12
जनवरी 1981; श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
thank you guruji
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