प्यारे
ओशो!
कलि:
शयानो भवति
संजिहानस्तु
द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता
भवति कृतं
संपद्यते
चरन्:।।
चरैवेति।
चरैवेति।।
'जो
सो रहा है वह
कलि है, निद्रा
से उठ बैठने
वाला द्वापर
है, उठकर
खड़ा हो जाने
वाला त्रेता
है, लेकिन
जो चल पडता है,
वह कृतयुग,
सतयुग, स्वर्ण
—युग बन जाता
है।
इसलिए
चलते रहो, चलते रहो।’
प्यारे
ओशो! ऐतरेय
ब्राह्मण के
इस सुभाषित का
अभिप्राय
समझाने का
अनुग्रह करें।
नित्यानंद!
यह सूत्र मेरे
अत्यंत
प्यारे सूत्रों
में से एक है—जैसे
मैंने ही कहां
हो। मेरे
प्राणों की
झनकार है
इसमें। सौ
प्रतिशत मैं
इससे राजी हूं।
इस सूत्र के
अतिरिक्त
सतयुग की, द्वापर
की, त्रेता
की, कलियुग
की जो भी
परिभाषाएं
शास्त्रों
में की गई हैं,
सभी गलत हैं। यह अकेला सूत्र है जो सम्यक् दिशा में इशारा करता है। यह सूत्र सतयुग से लेकर कलियुग तक की धारणा को समय से मुक्त कर लेता है; समाज से मुक्त कर लेता है; अतीत, भविष्य, वर्तमान से मुक्त कर लेता है और इसे प्रतिष्ठित कर देता है व्यक्ति की चेतना में, व्यक्ति के जागरण में, उसकी समाधि में।
सभी गलत हैं। यह अकेला सूत्र है जो सम्यक् दिशा में इशारा करता है। यह सूत्र सतयुग से लेकर कलियुग तक की धारणा को समय से मुक्त कर लेता है; समाज से मुक्त कर लेता है; अतीत, भविष्य, वर्तमान से मुक्त कर लेता है और इसे प्रतिष्ठित कर देता है व्यक्ति की चेतना में, व्यक्ति के जागरण में, उसकी समाधि में।
और
मेरे लेखे, न तो समाज
सत्य है, न
समय सत्य है; सत्य है तो
केवल व्यक्ति।
चूकि व्यक्ति
के पास
स्पंदित
प्राण है; जीवन
है, बोध है,
आत्मा है।
समाज के पास न
तो कोई आत्मा
है, न कोई
हृदय का
स्पंदन है, न जागने की
कोई संभावना
है।
जागनेवाला ही
वहां कोई नहीं;
विवेक ही
वहां कोई नहीं।
और समय तो
मनुष्य की
वासनाओं का
विस्तार है।
अतीत
का कोई
अस्तित्व
नहीं। जो बीता
सो बीता, अब कहीं भी
नहीं है, सिवाय
तुम्हारी
स्मृतियों
में। जैसे
यात्री गुजर
जाए और धूल
उड़ती रह जाए; उड़ती हुई
धूल यात्री
नहीं है। जैसे
गीत विदा हो
जाए और गज रह
जाए; गज
गीत नही है।
मंदिर की
घंटियां बज
चुकी हों और
मंदिर के सन्नाटे
में उनकी गज
थोड़ी देर तक
छाई रहे, वैसी
ही तुम्हारी
स्मृति है—अतीत
की धूल से
ज्यादा नहीं;
अतीत के
धुएं से
ज्यादा नहीं;
जो जा चुका
है उसकी
अनुगूंज।
तुम्हारी
स्मृति के
सिवाय
अस्तित्व
नहीं है कोई
अतीत का।
और
भविष्य का कोई
अस्तित्व
नहीं है।
भविष्य अभी
आया ही नहीं
है, उसका
अस्तित्व
कैसे होगा? लेकिन जो
विक्षिप्त
हैं वे अतीत
में और भविष्य
में ही जीते
हैं। जो
विमुक्त हैं
वे वर्तमान
में जीते हैं।
क्योंकि
वर्तमान ही
केवल है। उसका
न तुम्हारी
स्मृति से कोई
संबंध है और न तुम्हारी
वासना से।
अतीत
है स्मृतियों
का संग्रह।
जिन मुर्दों
को तुम ढो रहे
हो, वह
अतीत है।
जिन्हें तुम
लो रहे हो वे
लाशें हैं—सड़
गई, उनसे
दुर्गंध उठ
रही है। उस
दुर्गंध ने
तुम्हारा
नर्क बना दिया
है। मगर तुम
लाशों को
छोड़ते नहीं।
तुम लाशों को
सजाते हो। तुम
लाशों की पूजा
करते हो। तुम
मुर्दों के
भक्त हो। तुम
मृत्यु के
आराधक हो। और
फिर अगर
तुम्हारा
जीवन इसी
मृत्यु के
नीचे दब जाता
है, इसी
जहर से
विषाक्त हो
जाता है तो
कुछ आश्चर्य
नहीं। यह
स्वाभाविक
निष्पत्ति है।
और अगर किसी
तरह अतीत से
छूटे भी तो एक
पागलपन से
छूटते नहीं कि
तत्क्षण
दूसरे पागलपन
में प्रवेश कर
जाते हो। वह
दूसरा पागलपन
है. भविष्य।
अतीत है
स्मृति और
भविष्य है
वासना, कल्पना—ऐसा
हो, ऐसा हो
जाए। और जैसा
तुम चाहते हो
वैसा कभी न
होगा। कभी हो
भी जाए भूले—चूके
से, कभी
संयोगवशात्
वैसा हो भी
जाए—तुम्हारे
किए तो नहीं, लेकिन संयोग
से हो जाए—तो
भी तृप्ति
नहीं आएगी।
यहां
जो असफल होते
हैं वे तो
असफल होते ही
हैं और सौ में
निन्यान्नबे
प्रतिशत असफल
होते हैं, और यहां
जो सफल होते
हैं, उनकी
असफलता और भी
बड़ी है।
असफलों से भी
ज्यादा बड़ी है,
क्योंकि जो
असफल हुआ उसके
मन में तो अभी
भी आशा होती
है कि शायद कल
जीत द्वार
खटखटाए। अभी उसका
भविष्य
समाप्त नहीं
होता। अभी
वासना आज से
हटकर कल पर
चली जाती है।
वही तो वासना
का ढंग है। वह
हमेशा आगे
सरकती रहती है।
अतीत है
तुम्हारी
पीछे
पड़नेवाली
छाया और भविष्य
है तुम्हारी
आगे पड़नेवाली
छाया। छायाओं
का क्या भरोसा?
तुम आगे
हटते हो, छाया
और आगे हट
जाती है। छाया
माया है। इस
छाया को तो
तुम माया नहीं
कहते, संसार
को माया कहते
हो। जो है
उसको माया
कहते हो और जो
नहीं है उसके
साथ विवाह
रचाए बैठे हो,
उसके साथ
गठबंधन कर
लिया है। और
जो 'नहीं
है' में
जीएगा वह खाली
ही रह जाएगा, रिक्त ही
मरेगा।
कभी
संयोग से यह
भविष्य पूरा
भी हो जाए.. .याद
रखना, संयोग
से; तुम्हारे
किए से कुछ भी
नहीं हो सकता।
तुम बहुत छोटे
हो, अस्तित्व
बहुत बड़ा है।
जैसे बूंद
सागर से लड़े, क्या जीतने
की उम्मीद? जैसे पत्ता
उसी वृक्ष से
लड़े जिससे उसे
रसधार मिल रही
है, क्या
कोई संभावना
है विजय की? हार सुनिश्चित
है। लेकिन कभी
भूले—चूके, दांव कहीं
ठीक ही लग जाए,
तो और भी
बड़ी हार, और
भी बड़ी पराजय,
और भी बड़ा
विषाद घेर
लेता है।
क्योंकि जीत
तो हाथ लगती
है, लेकिन
जीत ने जो
भरोसे दिए थे,
जो वायदे
किए थे, वे
कुछ भी पूरे
नहीं होते।
जिस दिन जीत
हाथ में लगती
है, उस दिन
पता चलता है :
जीत से बड़ी
कोई हार नहीं।
क्योंकि जीवन
जिसके लिए लगा
दिया, जिसे
सोना समझकर
दौड़े थे... और
छोटे—छोटे लोग
ही नहीं, तुम्हारे
मर्यादा
पुरुषोत्तम
राम तक स्वर्ण—मृग
के पीछे दौड़
रहे हैं। असली
सीता को गंवा
बैठे—नकली
स्वर्ण—मृग के
पीछे! और यह
सबकी कथा है :
असली को गंवा
बैठते हैं लोग
नकली के पीछे।
सोने के मृग
के पीछे भागे।
पागल से पागल
आदमी को भी
समझ में आ
जाएगा कि सोने
के मृग कहीं
होते हैं!
जगत को
तो कहते हैं :
मृग—मरीचिका।
यही राम जगत
को तो कहते
हैं कि जैसे
सपने में देखा
गया, माया,
मृग—मरीचिका।
जैसे कि मृग
प्यासा भटक
जाए मरुस्थल
में और दूर
उसे सरोवर
दिखाई पड़े। और
यही राम सोने
के मृग के
पीछे दौड़ रहे
हैं। किसकी
मरीचिका बड़ी
है? अगर
मृग को
मरुस्थल में
प्यास के कारण
दूर सूरज की
किरणों के
पड़ने से... सूरज
की किरणों का
एक ढंग है—जब
खाली रेत पर
वे पड़ती हैं
और रेत उत्तप्त
हो जाती है, तो उत्तप्त
रेत किरणों को
वापिस लौटाने
लगती है। उन
किरणों की
लौटती हुई
तरंगें दूर से
यूं मालूम
पड़ती हैं जैसे
कि पानी लहरें
ले रहा हो—मालूम
ही नहीं पड़ती
हैं, प्रमाण
सहित मालूम
पड़ती हैं।
क्योंकि जब
सूरज की
किरणें वापिस
लौटती हैं तो
उनकी लहरें
जलवत् ही होती
हैं। तरंगें
होती हैं और
उन तरंगों में
पास खड़े वृक्षों
की
प्रतिच्छाया
बनती है जैसे
सरोवर में
बनती है।.. .उस
प्रतिच्छाया
को देखकर मृग
को भरोसा आ
जाता है, तर्क
पूरा हो जाता
है : पानी होना
ही चाहिए, नहीं
तो छाया कैसे
बनेगी? और
प्यास इतनी है
कि पानी को
मान लेने की
स्वाभाविकता
है। प्यास
जितनी बढ़ जाती
है उतनी ही आंखें
प्यास से
आच्छादित हो
जाती हैं। जहां
पानी नहीं है
वहां भी पानी
दिखाई पढ़ने
लगता है—और
फिर प्रमाण
सहित।
तो मृग
अगर धोखा खा
जाए, क्षमा—योग्य
है; मगर
राम को मैं
क्षमा न कर
सकूंगा—राम तो
बिलकुल
अक्षम्य हैं।
ये बातें तो
ज्ञान की... और
जो कर रहे हैं
वह मृग से भी
गया—बीता।
सोने का मृग
नहीं होता, इसे बुद्ध
से भी बुद्ध
आदमी को भी
समझने में अड़चन
न आएगी। लेकिन
राम सोने के
मृग के पीछे
चले गए और
गंवा बैठे
सीता को।
और राम
ही गलती में
थे, ऐसा
नहीं था; सीता
भी गलती में
थी। क्योंकि
जब राम
चिल्लाए दूर
जंगल से कि
मुझे बचाओ, मैं खतरे
में पड़ गया
हूं तो सीता
ने धक्के दिए लक्ष्मण
को कि तू जा।
राम कह गए थे
पहरा देना।
लक्ष्मण
दुविधा में पड़
गया—राम की
मानूं कि सीता
की मानूं? और
सीता ने ऐसी
चोट की
लक्ष्मण पर कि
तिलमिला उठा।
कहीं घाव तो
था, छू
दिया सीता ने।
वह घाव और
सीता का छूना
बड़ा
अर्थपूर्ण है।
सीता ने कहां,
'मुझे पहले
से ही पता है
कि तेरी नजर
मुझ पर है, कि
राम अगर मर
जाएं तो तू
मुझ पर कब्जा
कर ले।’
और
सीता ने यह
बात यूं ही
नहीं कहीं
होगी।
लक्ष्मण के
इरादे नेक इरादे
रहे होंगे? और
इसीलिए तो हम
पति के छोटे
भाई को देवर
कहते थे। देवर
का मतलब होता
था : दूसरा वर।
बड़ा विदा हो
तो
सीनियारिटी
देवर की है।
देवर का मतलब
ही यह होता है
कि नंबर दो।
पहला नबर हटे
कि नंबर दो
कब्जा करे।’देवर' शब्द
अच्छा नही है,
घृणित है।
उस शब्द का उपयोग
भी नहीं होना
चाहिए। दूसरा
वर! पंक्ति
में खड़ा है कि
बड़े भैया, अब
जाओ भी! अब
बहुत हो गया।
अब कुछ थोड़ा
जो बचा—खुचा
है, मुझ
गरीबदास को भी
मिले!
यह
लक्ष्मणदास
पहले से ही
इरादा यूं
रखते थे। सीता
ने चोट गहरी
की। और चोट
असली रही होगी, नहीं तो
लक्ष्मण
मुस्कुराकर
टाल जाता।
कहता : 'हंसी—मजाक
न कर भाभी।
मैं जानेवाला
नहीं हूं।’ लेकिन यह
चोट कहीं पड़ी,
घाव को छू
गयी, मवाद
निकल आयी।
गुस्से में आ
गया। यह
गुस्सा यूं ही
नहीं आता। जब
तुम्हें कोई
गाली देता है
और गाली अगर
खल जाती है तो
मतलब यह था कि
उसने छू दिया
कोई तुम्हारा
कोमल अंग, जिसे
तुम बचाए
फिरते थे।
मुझे
इतनी गालियां
पड़ती हैं, कोई
चिंता नही, कोई कोमल
अंग नहीं, कुछ
छिपाया नहीं।
मजा लेता हूं
कि कैसे—कैसे
प्यारे लोग
हैं, कितना
श्रम उठाते
हैं! जितनी
मेहनत
गालियां देने
में करते हैं,
इतने में
उनका गीत फूट
सकता है।
जितना श्रम
मुझे गालियां
देने में बिता
रहे हैं, इतना
श्रम अगर गीतो
में लगा दें
तो उनके जीवन
में भी झरने
बह उठें! उन पर
मुझे दया आती
है।
लेकिन
लक्ष्मण
क्रोध में आ
गया। चल पड़ा।
इधर लक्ष्मण
भी छोड़कर चला
गया, मतलब
वह भी मानता
है कि खतरा है,
स्वर्ण—मृग
सच्चा है, स्वर्ण—मृग
के साथ पैदा
हुआ खतरा
सच्चा है। राम,
जो कि
परमात्मा के
पर्यायवाची
हैं इस देश
में, अर्थात्
सर्वव्यापी
हैं, लेकिन
इतना न समझ
पाए, यह
सोने के मृग
में व्याप्त न
हो पाए।
सर्वज्ञ हैं,
सब जानते
हैं और इतना न
जान पाए कि
सोने के मृग नहीं
होते। यह कैसी
सर्वज्ञता, यह कैसा
सर्वव्यापीपन?
यह सब बकवास
है। और सर्व
शक्तिशाली
हैं, तो
सर्व
शक्तिशाली को
क्या खतरा हो
सकता है, जो
वह चिल्लाए कि
मुझे बचाओ? अब इसको कौन
बचाएगा, सर्व
शक्तिशाली को
कौन बचाएगा?
लेकिन
अंधे लोग अंधी
धारणाओं में
जीते चले जाते
है—न प्रश्न
उठाते, न पूछते। एक
बार
पुनर्विचार
तो करें। और
यूं सीता चोरी
गयी।... और सीता
वास्तविक थी!
और सीता का यह
अपहरण, इसमें
तीनों का हाथ
है—राम का, लक्ष्मण
का, सीता
का। रावण का
अकेला जुम्मा
नहीं है। रावण
नंबर चार है।
अगर इन तीन ने
गलती न की
होती तो रावण
चुरा न सकता
था।
लेकिन यही
सबकी दशा है।
अतीत में जी
रहे हैं—जो
नहीं है। और
भविष्य में जी
रहे हैं—जो
नहीं है। और 'जो है' उसको
गंवा रहे हैं।
इस
सूत्र ने समय
से सतयुग की
और कलियुग की
धारणा को
मुक्त कर दिया।
वही चेष्टा
मैं कर रहा
हूं। तुम्हें
समझाया गया है
कि सबसे पहले
कृतयुग था, सतयुग था,
स्वर्ण—युग
था। यह बकवास
है। इसका तो
मतलब हुआ—आदमी
का हास हो रहा
है, पतन हो
रहा है, आदमी
नीचे गिर रहा
है। पहले सब
श्रेष्ठ था, अब सब
अश्रेष्ठ हो
गया है। समय
जब पूर्ण
संतुलित था, तब कृतयुग
था, सतयुग
था। जो करते, उसका तत्क्षण
फल मिलता था—इसलिए
कृतयुग।
सतयुग :
क्योंकि जो
बोलते वही
सत्य होता, कहीं कोई
झूठ न था।
स्वर्ण—युग :
कहीं कोई
दीनता न थी, दासता न थी, दरिद्रता न
थी।
ये सब
बातें झूठ हैं।
जितने पीछे
जाओगे उतनी
दरिद्रता थी, उतनी
दीनता थी, उतनी
गुलामी थी।
राम के समय
में बाजारों
में आदमी
बिकते थे।
गोभी, टमाटर,
आलू—इसी तरह
आदमी, उनकी
नीलामी होती
थी। उनको
टिकटियों पर
खड़ा करके दाम
लगाए जाते मुल्ला
नसरुद्दीन कल
पिटा—पिटाया
आया था।
पट्टियां
बंधी थीं, पलस्तर
हाथ पर चढ़ा था।
मैंने कहां, 'क्या हुआ? किसी कार, ट्रक, रेलगाड़ी
किसके नीचे आ
गए?'
उसने कहां, 'कुछ नहीं।
पति हूं पत्नी
के नीचे आ गया।
जरा—सी भूल हो
गयी और ऐसी
गति हुई, ऐसा
मारा उसने कि
छठी का दूध
याद दिला दिया।’
मैंने
पूछा, 'ऐसी
क्या भूल हो
गयी जो इतना
नाराज हो गयी
पत्नी? आखिर
क्या?'
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहां, 'अब क्या
कहूं! अब क्या
और कहकर अपनी
फजीहत कराऊं? एक
सपने के पीछे
सब हुआ।’
मैंने
पूछा, 'सपने
के पीछे!'
उसने कहां, 'हां, पत्नी
ने एक रात
पहले सपना
देखा और कहने
लगी कि बड़ा
अजीब सपना था,
फजलू के
पिता, कहे
बिना नहीं रहा
जाता। मैंने
देखा एक जगह
मस्तिष्क
नीलाम हो रहे
हैं। कोई
मस्तिष्क दस
हजार में, कोई
पच्चीस हजार में,
कोई पचास
हजार में।
पूछा मैंने कि
ये मस्तिष्क
इतने—इतने दाम
के? तो पता
चला कि कोई
वैज्ञानिक का
मस्तिष्क है,
कोई संत का
मस्तिष्क है,
कोई
गणितज्ञ का, कोई
संगीतज्ञ का,
कोई कवि का,
कोई
चित्रकार का,
बड़े कीमती
हैं।’
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
पूछा, 'यह
भी तो बता, मेरा
भी मस्तिष्क
नीलाम हो रहा
था कि नहीं?'
उसने कहां, 'हो रहा
था। उसी
नीलामी को
देखकर तो मेरी
नींद टूटी।.
एक रुपये के
दर्जन। बंडल
में बंधे थे।
बाकी सब तो
अलग—अलग बिक
रहे थे, तुम्हारा
तो दर्जन में
बिक रहा था।
और रुपये के
दर्जनभर! और
बेचनेवाला कह
रहा था कि अगर
और चाहिए तो
और भी दे दूं।
इनको खरीदता
ही कौन है!'
स्वभावत:
मुल्ला को चोट
लगी, सदमा
पहुंचा भारी।
सो उसने कहां,
'मैंने भी
दूसरे दिन
बनाकर एक सपना
बोल दिया। उसी
से यह मेरी
हालत हुई।
दूसरे दिन
सुबह मैंने भी
कहां कि मैंने
भी एक सपना
देखा कि नीलाम
हो रहे हैं मुंह।
एक से एक
बकवासी! किसी
की कीमत पचास
हजार, क्योंकि
वह
राष्ट्रपति
है। किसी की
कीमत लाख, क्योंकि
वह
प्रधानमंत्री
है। किसी की
कीमत पच्चीस
हजार, क्योंकि
वह बड़ा कवि है।
किसी की कीमत
पंद्रह हजार,
वह बड़ा
संगीतज्ञ है,
बड़ा गायक।’
पत्नी
ने कहां, ' और मेरा भी
मुंह नीलाम हो
रहा था कि
नहीं?' मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहां,
'हो रहा था!
अरे तेरे मुंह
में ही तो
नीलामी चल रही
थी!'
'बस
यह सुनते ही—अब
आप देख ही रहे
है—कि जो मेरी
गति हो गयी!'
तुम जी
रहे हो सपनों
में। अतीत भी
सपना है, भविष्य भी
सपना है। एक
जा चुका, एक
आया नहीं। और
इन दो पाटों
के बीच पिस
रहे हो। लेकिन
ये कहांनियां
तुम्हें यही
कहे जा रही
हैं कि पहले
था कृतयुग, वहा तुम जो
करते वही हो
जाता। उस समय
यह कहांवत सच
न थी : मैन
प्रपोजिस एंड
गाड
डिस्पोजिस।’ आदमी
प्रस्तावित
करता है और
ईश्वर इनकार
कर देता है।’ यह उस समय
बात नहीं होती
थी। तुमने
प्रस्ताव
किया और
परमात्मा ने
स्वीकार किया,
तत्क्षण; वह कृतयुग
था। सभी लोग
कल्पवृक्षों
के नीचे बैठे
थे, यूं
समझो। जो चाहा,
हुआ! सतयुग
था, कोई
झूठ नहीं
बोलता था। लोग
मकानों पर
ताले नहीं
लगाते थे।
यह सब
बकवास है। यह
बिलकुल बकवास
है। दीनता भयंकर
थी। राम के
समय में
बाजारों में
स्त्रियां और
पुरुष बिक रहे
थे, इससे
ज्यादा दीनता
और क्या होगी?
र्दारेद्रता
भयंकर थी। ही,
यह और बात
है कि दरिद्र
की दरिद्रता
इतनी भयंकर थी
कि वह बगावत
भी करने का
विचार नहीं कर
सकता था। बगावत
के लिए भी
थोड़े सुख का
स्वाद चाहिए। बगावत
हमेशा
मध्यवर्गीय
लोगों से उठती
हैं, दरिद्रों
से नहीं उठती,
दीनों से
नहीं उठती, भिखमंगों से
नहीं उठती।
तुमने कोई क्रांतिया
भिखमंगों से
होते हुए नहीं
देखी होंगी कि
भिखमंगों ने
क्रांति कर दी।
भिखमंगे ने तो
स्वाद ही नहीं
जाना सुख का, क्रांति
कैसे करेगा? ये तो
मध्यवर्गीय
लोग हैं।
कार्ल—मार्क्स
और लेनिन और
एंजिल्स और
माओत्से—तुंग
और स्टेलिन, सब
मध्यवर्गीय
लोग हैं।
बातें करते
हैं गरीब की।
गरीब को
भड़काते हैं, क्योंकि उसी
के बल पर खड़े
हो सकते हैं।
अमीर के खिलाफ
खड़े होना है।
अमीर को तो
भड़का नहीं
सकते। गरीब को
भड़का सकते हैं।
मगर ध्यान
रखना कि जो
भड़कानेवाला
है वह दोनों
के बीच में है;
न वह गरीब
है, न वह
अमीर है, वह
मध्य में है, त्रिशंकु की
भांति है।
उसने थोड़ा—सा
सुख पाया है
अमीरी का और
बहुत दुख पाया
है गरीबी का।
अब उसको भरोसा
है कि अगर
थोड़ी चेष्टा
करे तो अमीर
हो सकता है।
गरीब का सहारा
लेना पड़ेगा।
इसलिए
क्रांतियां
मध्यवर्गीय
लोग करते हैं।
गरीब का उपयोग
करते हैं
क्रांति में।
कटता हमेशा
गरीब है। चाहे
अमीर काटे
चाहे
मध्यवर्गीय
काटे—कटेगा
गरीब।
मेरे
पिता के पिता
सीधे—सादे
ग्रामीण आदमी
थे, मगर
वे कुछ कहांवतें
बड़ी कीमती
बोलते थे।
कपड़े की उनकी
छोटी—सी दुकान
थी और वे
ग्राहक से
पहले ही पूछ
लेते थे, 'क्या
इरादे हैं? दाम ठीक—ठीक
बता दूं? मील—
भाव नहीं होगा
फिर। या कि
मोल— भाव करना
है? तो फिर
उस हिसाब से
चलूं। एक बात
खयाल रखना कि
तरबूज छुरे पर
गिरे कि छुरा
तरबूज पर गिरे,
हर हालत में
तरबूज कटेगा।
इसलिए जो
तुम्हारी
मर्जी। कटोगे
तुम ही।’
और
उनसे लोग राजी
होते थे, यह कहांवत
ग्रामीण को
जंचती थी कि
बात तो सच है, चाहे खरबूज
को गिराओ छुरे
पर और चाहे
छुरे को गिराओ
खरबूज पर, कोई
छुरा
कटनेवाला
नहीं है। सो
वे उनसे राजी
हो जाते थे कि
आप, मोल—
भाव करने में
कोई सार नहीं
है जो ठीक—ठीक
भाव हो वह बता
दें। कि जब
कटना ही मुझे
है तो जितना
कम कटू उतना
ही बेहतर। तो
छुरे पर ही
छोड़ देना ठीक
है।
गरीब
कटता रहा
हमेशा। उस समय
में इतना कटता
था कि उसकी
चीख भी नहीं निकलती
थी। और यह भी
बात झूठ है कि
घरों में ताले
नहीं लगते थे।
नहीं तो बुद्ध
और महावीर और
ऋग्वेद के समय
में हुए जैनों
के प्रथम
तीर्थंकर
ऋषभदेव, ये सब किसको
समझा रहे हैं
कि चोरी मत
करो! अगर चोरी
होती नहीं थी
तो ये पागल है—ये
तीर्थंकर और
ये बुद्ध और
ये सारे संत—महात्मा,
सब विक्षिप्त
हैं, इनका
दिमाग खराब है।
यह हो सकता है
कि लोगों को
ताला बनाना न
आता हो, यह
मेरी समझ में
आ सकता है।
ताला बनाने के
लिए भी थोड़े
विज्ञान का
विकास चाहिए।
या यह भी हो
सकता है कि
ताला लगाएं
क्या, भीतर
कुछ हो बचाने
को तो ताला
लगाएं! और
ताले पर खर्चा
क्या करना!
ताला भी तो
खरीदने के लिए
कुछ हैसियत चाहिए।
फिर ताला
लगाने के लिए
भी तो भीतर
कुछ चाहिए, नहीं तो
ताला वैसे ही
लगाकर चोरों
को निमंत्रण
दो! वे ताला
देखकर ही
आएंगे। जिस घर
में ताला नहीं
लगा है उसमें
कोई चोर आएगा?
लेकिन चोरी
निश्चित होती
थी, क्योंकि
वेदों तक में
चोरी के खिलाफ
वक्तव्य हैं।
दुनिया
में जो सबसे
पुराना
शिलालेख मिला
है; वह
शिलालेख कहता
है : चोरी मत
करो, बेईमानी
मत करो, धोखाधडी
मत करो, यह
आदमियत का पतन
है। वह सात
हजार साल
पुराना
शिलालेख
बेबीलोन में मिला
है। उसमें जो
वक्तव्य हैं
वे विचारणीय
हैं। उसमें कहां
गया है कि
पत्नियां
पतियों की
नहीं मानती; बाप की बेटे
नहीं मानते; कोई किसी की
नहीं सुनता; शिष्य
गुरुओं के साथ
बगावत कर रहे
हैं। ये किस
बात की खबर
देते हैं ये
शिलालेख? ये
इस बात की खबर
देते हैं कि
दुनिया आज से
भी बदतर थी आज
से भी बुरी थी।
युद्धों
के समर्थन में
सारे शास्त्र
हैं। एक
शास्त्र ने भी
युद्ध का
विरोध नहीं
किया है। आज
दुनिया में
लाखों लोग हैं, जो युद्ध
के विरोध में
हैं। सारे
शास्त्र
स्त्रियों की
गुलामी के
पक्ष में हैं।
आज करोडों लोग
हैं जो
स्त्रियों की
मुक्ति के आंदोलन
में सहयोगी
हैं। सभी शास्त्रों
ने गुलाम को, दास को
समझाया है कि
यही तेरी
नियति है, यही
तेरा भाग्य है,
विधाता ने
तेरी खोपडी
में लिख दिया
है, अब इससे
बचने का कोई
उपाय नहीं, सहज भाव से
गुजार ले।
लेकिन किसी ने
क्रांति का
उद्घोष नहीं
दिया है। क्या
खाक कृतयुग था
यह? क्या
खाक सतयुग था
यह? ही, रहा
होगा स्वर्ण —युग
कुछ लोगों के
लिए।
लोग
कहते हैं कि
भारत कभी सोने
की चिडिया थी।
जिनके लिए तब
थी, उनके
लिए अब भी है।
बिड़ला के लिए,
टाटा के लिए,
सिंघानिया
के लिए, साहू
के लिए अब भी
सोने की
चिड़िया है।
इनके लिए तब
भी थी। इनके
लिए हमेशा थी।
लेकिन यह कोई
पूरे भारत के
सबंध में सचाई
नहीं है।
असल
में जिस देश
में जितनी
गरीबी होती है
उस देश में
थोड़े—से लोगों
के पास अपार
संपदा जुड़ ही
जाएगी। यह
अनिवार्य है।
अपार संपदा
जुड़ ही तब
सकती है जबकि बहुत
बड़ी गरीबी का
विस्तार हो।
जैसे कि
पिरामिड
बनाया जाता है
तो नीचे बड़ी बुनियाद
रखनी होती है, फिर धीरे—
धीरे पिरामिड
छोटा होता
जाता है, फिर
शिखर होता है
पिरामिड का।
अगर शिखर लाना
हो तो नीचे
बड़ी बुनियाद
डालनी होगी।
और
तुम्हें याद
होना चाहिए, पिरामिड
किन लोगों ने
बनाए? जिन्होंने
बनाए उनके पास
सोना था, खूब
सोना था।
लेकिन एक—एक
पिरामिड के
बनने में
हजारों लोगों
की जानें गयीं,
क्योंकि उन
पत्थरों को
चढ़ाने में......
आसान मामला
नहीं था, मशीनें
न थीं...... कोड़ों
के बल वे
पत्थर चढ्वाए
गए। एक—एक
पत्थर को ढोने
में कभी—कभी
हजार—हजार
लोगों की
पीठों पर कोड़े
पड़ते थे। हजार
लोग घोड़ों की
तरह जुटे हुए
थे और उनके पीछे
कोड़े पड़ रहे
थे। उन कोड़ों
की मार के
पीछे, अपनी
जान को बचाने
के लिए, लहूलुहान
छातियों को
लिए हुए लोगों
ने वे पत्थर
चढ़ाए। अब
पिरामिड के
सौंदर्य की
खूब चर्चा
होती है।
अब
ताजमहल को
देखने दूर—दूर
से लोग आते
हैं। जरूर
जिसके पास
सोना था, उसने ताजमहल
बनवाया।
लेकिन जिन
लोगों ने
बनवाया, तीन
पीढियां लगीं
ताजमहल के
बनने में, उन
सबके हाथ कटवा
दिए गए, ताकि
फिर ताजमहल
जैसी कोई
दूसरी कृति न
बन सके। और
जिस स्त्री के
लिए ताजमहल
बनवाया गया था,
उससे कुछ
खास लगाव था
बनवानेवाले
का ऐसा नहीं।
क्योंकि उसकी
और भी सैकड़ों
स्त्रियां
थीं। यह अपने
ही अहंकार की
उद्घोषणा थी।
यह किसी
मुमताज के लिए
बनवायी गयी
कब्र न थी।
ऐसी तो बहुत
मुमताजें
बादशाह के पास
थीं। यह
मुमताज भी
किसी और की
औरत थी और
जबरदस्ती छीनी
गयी थी। इससे
क्या लेना—देना
था! बादशाह को
तो मकबरा
बनाना था।
और शाहजहां, जिसने यह
मकबरा बनवाया,
उसके बेटे
को यह बात साफ
थी—औरंगजेब को—कि
यह मकबरा
अहंकार का
प्रतीक है।
शाहजहां एक और
मकबरा बनवा
रहा था यमुना
के दूसरी तरफ।
यह मकबरा सफेद
संगमरमर से
बनवाया गया था,
दूसरा
मकबरा काले
संगमरमर से
बनवाया जा रहा
था। वह मकबरा
खुद शाहजहां
की कब
बननेवाली थी।
वह इससे भी
बडा होनेवाला
था। स्वभावत:
पत्नी के
मुकाबले पति
का मकबरा बड़ा होना
चाहिए! वह
इससे भी विशाल
होनेवाला था।
दुनिया वंचित
ही रही गयी, उसकी सिर्फ
बुनियाद रखी
जा सकी। और
औरंगजेब ने
शाहजहां को
कैद कर लिया।
और उसने कहां,
'यह मकबरा
नहीं बनेगा।
ये अहंकार के
शिखर नहीं
उठेंगे।’ उसने
मकबरा नहीं
बनने दिया।
जब
शाहजहां कैद
कर लिया गया
तो उसने एक ही
प्रार्थना की
औरंगजेब से कि
और मुझे कुछ
नहीं चाहिए, लेकिन
तीस बच्चे
मुझे दे दो
जिनको मैं
पढाऊं—लिखाऊं।
दिनभर बैठा—बैठा
खाली, दिन
गुजारना
मुश्किल है।
औरंगजेब
ने अपने
संस्मरणों
में लिखवाया
है कि शाहजहां
को हुकूमत
करने का रस
जाता नहीं। अब
तीस बच्चों की
छाती पर मूंग
दलेगा। अब इन
तीस बच्चों के
बीच में ही
सम्राट बनकर बैठेगा।
अब इन तीस
बच्चों को ही
सताएगा, आज्ञा देगा।
पुरानी आदतें
नहीं जातीं।
जरूर
कुछ लोगों के
पास धन था, होने ही
वाला था, क्योंकि
सबका धन छीन
लिया गया था।
सोने
की चिड़िया
भारत न कभी था, न आज है।
लेकिन कुछ
लोगों के पास
सोना था, खूब
सोना था। सारा
देश चूस लिया
गया था। इसको
स्वर्ण—युग
कहते हो? यह
धारणा
प्रचारित की
गयी है पंडितो
के द्वारा कि
सब सुंदर बीत
चुका; अब
आगे सिर्फ
अंधेरा है, निराशा है।
इसलिए अब
निराशा को
अंगीकार करो,
अंधेरे को
जीओ। शाति से
जीओ, संतोष
से जीओ, ताकि
भविष्य में
परमात्मा
तुम्हारे
संतोष के लिए
तुम्हें
पुरस्कार दे।
यह क्रांति
का गला घोंटने
का उपाय है।
इन पंडितो ने
यह प्रचारित
किया है कि जब
सतयुग था तो
समय चार पैरों
पर खड़ा था।
जैसे कुर्सी
में चार पैर
होते हैं तो
संतुलित होती
है। फिर आया
त्रेता; तो समय की एक
टल टूट गयी।
जैसे तिपाई
होती है, तीन
पैरों पर।
संतुलन अब भी
रहा, लेकिन
वह संतुलन न
रहा जो चार
पैरों से होता
है। तिपाई
जल्दी उलट
सकती है, जरा—सा
धक्का देने से
उलट सकती है।
तीन ही टलें
हैं उसकी, इसलिए
त्रेता। फिर
द्वापर; एक
टांग और टूट
गयी। अब तो दो
पैर पर समय
खड़ा हुआ। और
ये दो पैर भी
ऐसे नहीं जैसे
बैलगाड़ी के
होते हैं, बल्कि
यूं समझो जैसे
साइकिल के
होते हैं।
पैडल मारते
रहो, मारते
रहो, तो
चलता है; जरा
पैडल रुका कि
साइकिल भी
गिरी, तुम
भी गिरे, हाथ—पैर
भी टूटे। और
सबसे बुरी
हालत है
कलियुग की; कलियुग यानी
जब एक ही पैर
बचा। अब हर
आदमी लंगड़ा है
और हर आदमी
बैसाखी लिए है।
हर आदमी काना
है और हर आदमी
का एक कान सड़
चुका है। हर
आदमी का एक
फेफड़ा मर चुका
है। हर आदमी
आधा लकवा खा
गया है। यह
कलियुग है। अब
आगे सिर्फ कब
है और कुछ भी
नहीं।
प्रतीक्षा
करो। एक पैर
तो कब में
तुम्हारा जा
ही चुका है।
एक ही बाहर
बचा है। अब
ज्यादा की कुछ
आशा न करो। अब
जीवन में सुख
की संभावना मत
मानो। अब क्या
तीर्थंकर
होंगे? अब
क्या अवतार
होंगे? अब
क्या बुद्ध
होंगे? अब
तो बुद्धओं
में ही रहना
है और बुद्ध
ही रहना है।
कोई इस
बुद्धपन से
छुटकारे का
उपाय नहीं।
यह
निराशा पंडित
फैला रहे हैं।
यह
दुर्भाग्यपूर्ण
बात है। और
जिस देश के मन
में ये निराशा
के भाव बैठ
जाएं, उसका
भविष्य शमिल
हो गया। इसलिए
नहीं कि
भविष्य शमिल
था। इस धारणा
ने धूमिल कर
दिया और स्वभावत:
हर धारणा में
एक दुश्चक्र
होता है। जब
तुम एक धारणा
मानकर चलते हो
कि अब भविष्य
अंधकारपूर्ण
है तो तुम इस
ढंग से जीते
हो कि प्रकाश
तो होना नहीं
है, इसलिए
प्रकाश लाने
की जरूरत क्या?
घर में तेल
हो, बाती
हो, दीया
हो, माचिस
हो तो भी तुम
दीया जलाते
नहीं। जब दीया
जलना ही नहीं
है, जब यह
समय के ही
अनुकूल नहीं
है, तो
क्यों खाक
मेहनत करनी, अंधेरे में
ही जीओ! और जब
अंधेरे में
जीते हो तो
स्वभावत:
तुम्हारी
धारणा को पोषण
मिलता है कि
ठीक कह गए संत,
ठीक कह गए
महंत, ठीक
कह गए ऋषि—मुनि
कि आगे अंधेरा
ही अंधेरा है।
अंधेरा ही तो
दिख रहा है।
अंधेरा बढ़ता
ही जा रहा है।
तुम्हारी
धारणा के कारण
दीया नहीं
जलाते हो क्योंकि
आगे अंधेरा है,
दीया जलनेवाला
नहीं है। जैसे
कि अंधेरे ने
कभी दीए को
आया है!
अंधेरे की
क्या कूबत है,
क्या बिसात
है कि दीए को
बुझा दे? अंधेरा
नपुंसक है।
अंधेरा है ही
नहीं। जब दीया
जलता है तो
तुम लाकर
टोकरी भर
अंधेरा भी
उसके ऊपर डाल
दो तो भी दीया
बुझेगा नहीं।
लेकिन अंधेरे
के डर से लोग
दीया नहीं जला
रहे हैं, तो
फिर तो अंधेरा
रहेगा। और जब
अंधेरा रहेगा
तो स्वभावत:
धारणा को पोषण
मिलेगा कि ठीक
कहां, ठीक कहां
शास्त्रों ने
कि अंधेरा ही
अंधेरा है!
तुम
जीवन को सुंदर
बनाने की
चेष्टा छोड़
दिए तो सड़ गए।
सड़ गए तो
तुम्हारे ऋषि—मुनि
सही गिद्ध हो
रहे हैं कि यह
तो होना ही था, यह तो
पहले ही कह गए
थे लोग। मानो
या न मानो, मगर
जो होना है वह
होना है। जो
बदा है वह
होना है। इस
तरह भारत को
भाग्यवादी
बना दिया है।
मैं इस
सूत्र से पूरा
राजी हूं
क्योंकि यह
सूत्र क्रांतिकारी
है, आग्नेय
है। यह सूत्र
तुम्हारी समझ
में आ जाए तो
तुम्हें धर्म
की नयी परिभाषा,
एक नया बोध
पैदा हो, एक
नयी किरण जगे।
कलि:
शयानो भवति.. ...इसने
अर्थ ही बदल
दिया। यह
सूत्र कहता है
: 'जो सो
रहा है वह कलि
है।’ इसने
संबंध ही तोड़
दिया समय से।
इसने संबंध
जोड दिया
मूर्च्छा से।
और यही
बुद्धपुरुषों
का अनुदान है
इस जगत को कि
तुम्हारे
कीटों को भी
फूलों में बदल
देते हैं; तुम्हारी
मूढ़ताओं को भी
बोध की दिशा
देते हैं; तुम्हारे
अंधविश्वासों
को भी श्रद्धा
का आयाम बना
देते हैं।
'जो
सो रहा है वह
कलि है।’ जो
मूर्च्छित
है वह अगर
हजार साल पहले
था तो भी
कलियुग में था
और दस हजार
साल पहले था
तो भी कलियुग
में था। उसके
सोने में
कलियुग है।
कलि:
शयानो भवति
संजिहानस्तु
द्वापर:।
निद्रा
से उठ
बैठनेवाला
द्वापर है। और
जो कभी भी
निद्रा से उठ
बैठा, जिसने
झाड़ दी निद्रा,
जो लेटा
नहीं बैठ गया—वह
द्वापर है। जब
भी बैठ गया—आज
तो आज, अतीत
में तो अतीत
में, भविष्य
में तो भविष्य
में—जब भी बैठ
गया तब द्वापर
है।
उतिष्ठस्त्रेता
भवति...।’और
जो उठ खड़ा हुआ
वह त्रेता है।’
सो रहे
हैं सारे लोग।
मूर्च्छित
हैं सारे लोग।
उन्हें यह भी
पता नहीं वे
कौन हैं, क्यों हैं, किसलिए हैं,
कहां से आते
हैं, कहां
जाते हैं, क्या
है उनका
स्वभाव? यह
मूर्च्छा है।
अपने से
अपरिचित होना
मूर्च्छा है।
अपने
से परिचित
होने की पहली
किरण—जब तुम
नींद से उठ
बैठे, आंख
खोली, बैठ
गए; तो
द्वापर का
प्रारंभ। ये
तुम्हारी
चेतना के चरण
हैं, समय
के नहीं।
... कृतं
संपद्यते चरन्।’ और जो चल
पड़ता है वह
कृतयुग बन
जाता है।’ सोना,
उठ बैठना, चल पड़ना—जो
चल पड़ा, वह
कृतयुग है।
उसके जीवन में
स्वर्ण—विहान
आ गया। गति आ
गयी तो जीवन आ
गया।
गत्यात्मकता
आ गयी तो उषा आ
गयी! तो रात
टूट गयी, पूरी
तरह टूट गयी...
चरैवेति
चरैवोइत!
इसलिए ऐतरेय
उपनिषद् यह
सूत्र देता है
चलते रही, चलते
रहो। रुकना ही
मत। अनंत
यात्रा है।
इसकी कोई
मंजिल नहीं।
यात्रा ही
मंजिल है।
यात्रा का हर
कदम मंजिल है।
अगर तुम हर
कदम को उसकी
परिपूर्णता
में जीओ तो
कहीं और मंजिल
नहीं; यहीं
है, अभी है,
वर्तमान
में है—भविष्य
में नहीं, अतीत
में नहीं।
तुम्हारे बोध
में है, तुम्हारे
बोध की
समग्रता में
है।
मैं इस
सूत्र से
पूर्णतया
राजी हूं.
चरैवेति चरैवेति!
चलते रही, चलते रहो।
कहीं रुकना
नहीं है। रुके
कि मरे। रुके
कि सड़े।
बहते
रहे तो स्वच्छ
रहे।
और यह
देश सड़ा इसलिए
कि रुक गया और
कब का रुक गया!
यह अब भी
स्वर्ण—युग की
बातें कर रहा
है, सतयुग
की, कृतयुग
की बातें कर
रहा है। यह
अभी भी बकवास
में पड़ा हुआ
है, अभी भी
रामलीला देखी
जा रही है।
अभी भी बुद्ध
रासलीला कर
रहे हैं। हर
साल वही नाटक—सदियों
से चल रहा है
वही नाटक।
नाटक में भी
कुछ नया
जोड्ने की सामर्थ्य
नहीं है और
कहीं कुछ नया
जोड़ दिया जाए
तो उपद्रव हो
जाता है।
रीवा
के एक कालेज
में रामलीला
खेली
उन्होंने—युवकों
ने। जरा
बुद्धि का
उपयोग किया।
युवक थे, जवान थे, तो
थोड़ी बुद्धि
का उपयोग किया।
सो उन्होंने
रामचंद्र जी
को सूट—बूट
पहना दिए टाई
बौध दी, हैट
लगा दिया। अब
हैट, सूट—बूट
और टाई के साथ
धनुष—बाण
जंचता नहीं, सो बंदूक
लटका दी।
स्वाभाविक है,
हर चीज की
एक संगति होती
है। अब इसमें
कहां धनुष—बाण
जमेगा! अब
इनके पीछे
सीता मैया को
चलाओ तो उनमें
भी बदलाहट
करनी पड़ी। सो
एड़ीदार जूते
पहना दिए मिनी
स्कर्ट पहना
दी। जनता नाराज
भी हो और झांक—झांककर
भी देखे।
भारतीय जनता!
भारतीय मन तो
बड़ा अद्भुत मन
है! लोग
बिलकुल झुके
जा रहे। किसी
से पूछो, क्या
ढूंढ रहे हो, वह कोई कहता
मेरी टोपी गिर
गयी, कोई
कहता मेरी टिकट
गिर गयी। सभी
का कुछ न कुछ
गिर गया है।
लोग झांक—झांककर
देख रहे हैं
और नाराज भी
हो रहे हैं कि यह
क्या मजाक है!
रामलीला के
साथ मजाक!
और जब
सीता मैया ने
सिगरेट जलायी, तब बात
बिगड़ गयी। लोग
उचककर मंच पर
चढ़ गए। जिन
रामचंद्र जी
और सीता मैया
के हमेशा पैर
छूते थे, उनकी
पिटाई कर दी, पर्दा फाड
डाला। और इसी
धूम— धक्का
में सीता मैया
की स्कर्ट भी
फाड़ डाली। अरे
ऐसा अवसर कौन
चूके! .सीता
मैया की फजीहत
हो गयी।
ब्लाउज वगैरह
फाड़ दिए। वह
तो भला हो कि
सीता मैया
वहां थीं ही
नहीं, गांव
का एक छोकरा
था। सो और
गुस्सा आया।
सो छोकरे की
और पिटाई की
कि हरामजादे,
शर्म नहीं
आती, सीता
मैया बना है!
वही
रामलीला, वही नाटक!
सदियां बीत
गयीं, हम
रुके पड़े हैं।
हम डबरे हो
गये हैं।
चरैवेति, चरैवेति!
बहो, चलो, गतिमान होओ।
छोडो अतीत को।
ये जंजीरें
तोडो। यह
मूर्च्छा
छोडो। थोड़ा
होश सम्हालो।
ध्यान की सारी
प्रक्रियाएं
होश को
सम्हालने की
प्रक्रियाएं
हैं। ध्यान से
ही ये सूत्र
पूरा हो सकता
है. कलि: शयानो
भवति। ध्यान
से ही तो तुम
उठोगे। यह
विचारों की
तंद्रा तभी तो
—टूटेगी। यह
खोपड़ी में भरा
कचरा सदियों—'सदियों का, तभी तो
जलेगा। ध्यान
की अग्नि ही
इसे राख कर
सकती है।
... संजिहानस्तु
द्वापर:।
और आंख
खुली तो उठ ही
बैठोगे। कब तक
पड़े रहोगे? जिसकी आंख
खुली उसे
दिखाई पड़ने
लगेगा कि फूल
खिल गए हैं, सूरज निकल
आया, पक्षी
गीत गा रहे
हैं। अब पड़े
रहना मुश्किल
हो जाएगा। यह
जीवन का
आकर्षण और
जीवन का
सौंदर्य! ये
परमात्मा के
छुपे हुए ढंग
तुम्हें
बुलाने के! यह
उसका निमंत्रण
है। जागे कि
सुनाई पड़ा। और
तब उठकर चल
पड़ोगे—तलाश
में सत्य की, तलाश में
सौंदर्य की, तलाश में
भगवत्ता की।
और जो चल पड़ा
उसने पा लिया।
क्योंकि जो चल
पड़ा वही
कृतयुग बन
जाता है, वही
सतयुग बन जाता
है।
सतयुग
में कोई पैदा
नहीं होता।
सतयुग अर्जित
करना होता है।
पैदा तो हम सब
कलियुग में
होते हैं। फिर
हममें से जो
जाग जाता है, वह
त्रेता। जो उठ
बैठता है, चल
पडता है, वह
कृत। और जो
चलता ही रहता
है, वही
भगवान है, वही
भगवत्ता को
उपलब्ध है।
इसलिए
भगवत्ता को
उपलब्ध
व्यक्ति के
साथ चलना भी
मुश्किल हो
जाता है। वह
चलता ही जाता
है।
कितने
लोग मेरे साथ
चले और ठहर गए!
जगह—जगह रुक
गार, मील
के पत्थरों पर
रुक गए! जिसकी
जितनी औकात थी,
सामर्थ्य
थी, वहां
तक साथ आया और
रुक गया। फिर
उसे डर लगने
लगा कि और
चलना अब खतरे
से खाली नहीं।
किसी मील के
पत्थर को उसने
मंजिल बना
लिया और वह
मुझसे नाराज हुआ
कि मैं भी
क्यों नहीं
रुकता हूं मैं
भी क्यों और
आगे की बात
किए जाता
मेरे
साथ सब तरह के
लोग चले। जैन
मेरे साथ चले, मगर वहीं
तक चले जहां
तक महावीर का
पत्थर उन्हें
ले जा सकता था।
महावीर का मील
का पत्थर आ
गया कि वे रुक
गए। और मैंने
उनसे कहां, महावीर से
आगे जाना होगा।
महावीर को हुए
पच्चीस सौ साल
हो चुके। इन
पच्चीस सौ
सालों में
जीवन कहां से
कहां पहुंच
गया, गंगा
का कितना पानी
बह गया!
महावीर तक आ
गए, यह
सुंदर, मगर
आगे जाना होगा।
उनके लिए
महावीर अंतिम
थे; वहीं
पड़ाव आ जाता
है, वहीं
मंजिल हो जाती
है।
मेरे
साथ बौद्ध चले, मगर
बुद्ध पर रुक
गए। मेरे साथ
कृष्ण को
माननेवाले
चले, लेकिन
क्या पर रुक
गए। मेरे साथ
गांधी को
माननेवाले
चले, लेकिन
गांधी पर रुक
गए। जहां
उन्हें लगा कि
उनकी बात के
मैं पार जा
रहा हूं वहां
वे मेरे
दुश्मन हो गए।
मैंने बहुत
मित्र बनाए, लेकिन उनमें
से धीरे— धीरे
दुश्मन होते
चले गए। यह
स्वाभाविक था।
जब तक उनकी
धारणा के मैं
अनुकूल पड़ता
रहा, वे
मेरे साथ खड़े
रहे। मेरे साथ
तो वही चल
सकते हैं, जिनकी
धारणा ही
चरैवेति—चरैवेति
की है, जो
चलने में ही
मंजिल मानते
हैं। जो
अन्वेषण में
ही, जो शोध
में ही, अभियान
में ही गंतव्य
देखते हैं।
गति ही जिनके
लिए गंतव्य है, वही मेरे
साथ चल सकते
हैं। क्योंकि
मैं तो रोज
नयी बात कहता
रहूंगा। मेरे
लिए तो रोज
नया है। हर
रोज नया सूरज
ऊगता है, जो
डूबता है वह
डूब गया। जो
जा चुका, जा
चुका—बीती
ताहि बिसार
दे!
लेकिन
यहां भी लोग आ
जाते हैं, वे
प्रश्न लिखकर
पूछते हैं, उनके मैं
जवाब नहीं
देता हूं कि
आपने पंद्रह साल
पहले यह कहां
था। पंद्रह
साल पहले
जिसने कहां था
वह कब का मर
चुका। मैं कोई
वह आदमी हूं
जो पंद्रह साल
पहले था? कितने
वसंत आए, कितने
वसंत गए!
कितने दिन ऊगे,
कितनी
रातें आयीं!
कितना बीत गया
पंद्रह साल में!
वे पंद्रह साल
पहले को पकड़े
बैठे हैं। वे
प्रश्न पूछते
हैं कि अब हम
उसको मानें कि
आज जो आप कह
रहे हैं उसको
मानें?
मैं जो
आज कह रहा हूं
उसको मानो और
वह भी सिर्फ आज
कह रहा हूं कल
भी कहूंगा, इसका कोई
पक्का मत
समझना। मुझे
कहीं नहीं
ठहरना है।
ठहरना मृत्यु
है। ठहर—ठहरकर
ही तो गंदे
डबरे हो गए।
कोई मुहम्मद
पर ठहर गया, मुसलमान हो
गया—एक गंदा
डबरा हो गया।
अब लाख तुम
इसके आसपास
शोरगुल मचाओ,
बैंड—बाजे
बजाओ, कि
कुरान की
आयतें पढ़ो, कि कपूर
जलाओ, कि
लोभान का धुआं
उड़ाओ, कि
ताज—ताजिए
बनाओ, कि
वली साहब नचाओ,
सब कुछ करो,
वह गंदा
डबरा वहा है।
और उसकी गंदगी
छिपती नहीं।
जो
कृष्ण के साथ
रुक गए वे कब
के रुक गए! वहा
तो कीचड़ ही कीचड़
है। अब तो वहा
पानी पीने
योग्य भी नहीं।
उस कीचड़ में
अब कुछ केंचुए
मिल जाएं तो
मिल जाएं, कृष्ण तो
न मिलेंगे। और
हंस अब उस
कीचड़ में नहीं
उतरेंगे। और
परमहंसों की
तो तुम बात ही
मत करो। कहां
कीचड़ और कहां
परमहंस! मगर
उस कीचड़ को ही
लपेटे जो बैठे
हैं, तुमको
परमहंस मालूम
पडते हैं, क्योंकि
कीचड़ कृष्ण की
है। कृष्ण की
राख चढ़ाए जो
बैठे हैं, तुम
सोचते हो—'अहा,
यह रहे
महात्मा!' यह
सब धोखा— धड़ी
है। कृष्ण खुद
आज लौटकर आएं
तो इनके साथ
राजी नहीं हो
सकते। कृष्ण
तो चरैवेति
चरैवेति को
मानेंगे।
कृष्ण को तो
फिर से गीता
कहनी पड़ेगी, जैसे मुझे
कहनी पड़ रही
है।
मैंने
कृष्ण की गीता
कह दी है, अब शीघ्र ही
मुझे अपनी
गीता कहनी
पड़ेगी।
निश्चित ही
उसमें कृष्ण
की काफी फजीहत
होने वाली है।
उर्सा की
तैयारी करवा
रहा हूं धीरे—
धीरे राजी कर
रहा हूं
तुम्हें। अब
राम की रामायण
फिर से लिखनी
पड़ेगी। और राम
से ऐसी बातें
कहलवानी
होंगी जो कि
हिंदुओं को
बिलकुल न
जंचेंगी।
क्योंकि वे तो
वही बातें
सुनना
चाहेंगे जो राम
ने पहले कही
थीं—चाहे उन बातों
का अब कोई
संदर्भ हो या
न हो, कोई
पृष्ठभूमि हो
या न हो।
इसलिए
मुझसे कभी
भूलकर न पूछो
कि मैंने
पंद्रह साल
पहले क्या कहां
था। पंद्रह
साल की तो बात
छोड़ो, पंद्रह
दिन पहले क्या
कहां था उसकी
भी मत पूछो।
उसकी भी छोड़ो,
कल मैंने
क्या कहां था,
उसकी भी मत
पूछो।
पिकासो
एक चित्र बना
रहा था और
उसके एक मित्र
ने कहां कि
मैं एक बात
पूछना चाहता
हूं। तुमने
हजारों चित्र
बनाए, सबसे
सुंदर चित्र
कौन—सा है? पिकासो
ने कहां, 'यही
जो अभी मैं
बना रहा हूं।
और यह तभी तक
जब तक बन नहीं
गया है, बन
गया कि मेरा
इससे नाता टूट
गया। फिर मैं
दूसरा
बनाऊंगा। और
निश्चित ही
दूसरा मेरा
श्रेष्ठतम
होगा, क्योंकि
इसको बनाने
में मैंने कुछ
और सीखा, इसको
बनाने में
मेरे हाथ और
सधे; इसको
बनाने में
मेरे रंगों
में और निखार
आया; इसको
बनाने में और
सूझ—बूझ जगी।’
अब तुम
मुझसे पूछते
हो, मैंने
गीता पर यह कहां
था पंद्रह साल
पहले, कि
महावीर पर बीस
साल पहले यह कहां
था। तब से
मेरे हाथ बहुत
सधे। तब से
मेरी तूलिका
बहुत निखरी।
तब से मेरे गो
में नए उभार
आए। उस बकवास
को जाने दो।
वह बात ऐतिहासिक
हो गयी। मैं
तो आज जो कह
रहा हूं बस
उससे जो राजी
है वह मेरे
साथ है। और
उसे यह स्मरण
रखना है कि
मुझसे राजी
होना चरैवेति
चरैवेति से
राजी होना है।
कल मैं आगे चल
पडूंगा, तब
तुम यह न कह
सकोगे कि कल
ही तो हमने यह
तंबू गाडा था
और अब उखाडना
है और हम तो इस
भरोसे में गाडे
थे कि आ गए!
मैं
तुम्हारे सब
भरोसे तोड़
दूंगा। मैं तो
तुम्हें
खानाबदोश
बनाना चाहता
हूं।’खानाबदोश'
शब्द बड़ा
प्यारा है।
खाना का अर्थ
होता है. घर; जैसे मयखाना।
खाना का अर्थ
होता है : घर,... दवाखाना!
बदोश का अर्थ
होता है. कंधे
पर।’दोश' यानी कंधा, बदोश यानी
कंधे पर।
खानाबदोश बडा
प्यारा शब्द
है। इसका मतलब—जिसका
घर कंधे पर; जो चल पड़ा है,
चलता ही
रहता है, चलता
ही जाता है, जो रुकता ही
नहीं है सत्य
की इस अनंत
यात्रा में।
और इसका
सौंदर्य यही
है कि यह
यात्रा अनंत
है, कहीं
समाप्त नहीं
होती, इसका
पूर्ण—विराम
नहीं आता है।
जिस दिन पूर्ण—विराम
आ जाएगा उस
दिन फिर करोगे
क्या? फिर
जीवन व्यर्थ
हुआ। फिर
आत्महत्या के
सिवाय कुछ भी
न सूझेगा।
इसलिए
जिनने
तुम्हें धारणा
दी है कि
मोक्ष आ गया
कि सब आ गया, कि
मुक्ति आ गयी
कि सब आ गया, कि समाधि आ
गयी कि सब आ
गया, उन्होंने
तुम्हें गलत
धारणा दी है।
उन सबने
तुम्हें कहीं
ठहर जाने का
मुकाम बता दिया
है।
और तुम
सब ठहर जाने
को इतने आतुर
हो, चलना
ही नहीं चाहते
तुम, पहली
तो बात। तुम
कलि में ही
रहना चाहते हो।
की ल: शयानो
भवति कोई कह
दे कि शैया ही,
जहां तुम सो
रहे हो। यही
जगह तो है!
देखो न, विष्णु
शयन कर रहे
हैं शेषनाग
पर! ये विष्णु
सदा से कलियुग
में हैं। इनकी
नींद नहीं
टूटी। और वह
जो नाग है, वह
हजार—हजार
फनों से उनकी
रक्षा कर रहा
है। बड़ी
जहरीली रक्षा
है यह। वह
इन्हें उठने
भी नहीं देगा।
वे उठे कि
उसने फुफकारा—'कहां जाते
हो, लेट रह
बच्चा, कहां
जाता है?' यह
शैया कोई
छोड़नेवाली
नहीं है। और
अगर किसी तरह
इनसे बच भी
जाए तो
लक्ष्मी मैया
हैं, वह
पैर दबा रही
हैं।
सावधान
उन लोगों से
जो पैर दबाते
हैं, क्योंकि
दबाते—दबाते
वे गर्दन
दबाएंगे।
आखिर वे भी तो
आगे बढ़ेंगे न—
चरैवेति
चरैवेति! कोई
पैर पर ही
रुके रहेंगे?
बचना हो तो
पैर ही दबाने
से बचना।
इसलिए मैं
किसी को पैर
नहीं दबाने
देता, क्योंकि
मैं जानता हूं
पैर
दबानेवाला
धीरे— धीरे
आगे बढ़ेगा और
अंततः गर्दन
पर आएगा। सब
सेवक गर्दन पर
आ जाते हैं।
सभी सेवक नेता
हो जाते हैं।
वही गर्दन पर
आ जाना है। वे
कहते हैं, 'देखो
हमने कितनी
देश—सेवा की!
अब क्या जरा
तुम्हारी
गर्दन न दबाएं?
तो फिर देश—सेवा
किसलिए की? अरे इतनी
सेवा की, कुछ
तो पुरस्कार
दो! इतने पैर
दबाए, अब थोड़ी
तो गर्दन भी
दबाने दो! अब
यह मजा हम ही
लेंगे, कोई
दूसरा तो नहीं
ले सकता। पैर
हमने दबाए और
गर्दन कोई और
दबाए यह कभी न
होने देंगे।’
और जो पैर
दबाते—दबाते
गर्दन तक आ
गया है, उसको
तुम रोक भी न
पाओगे। तुम
रोकने का समय
पहले ही चूक
गए।
दो
शिष्य एक गुरु
के पैर दबा
रहे थे। दोपहर
का वक्त, गरमी के दिन।
गुरु रहे
होंगे कोई
गुरुघंटाल।
असली गुरु पैर
नहीं दबवाएगा।
असली गुरु
क्यों पैर
दबवाएगा? और
लंगड़ों से
क्या पैर
दबवाना? अंधों
से क्या पैर
दबवाना? सोए
हुओं से क्या
पैर दबवाना? ये तो कुछ
उपद्रव
करेंगे ही। तो
गुरु तो नहीं रहे
होंगे, गुरुघंटाल
रहे होंगे।
दोनों पैर दबा
रहे थे। दो ही
शिष्य थे उनके।
सो हर चीज में
बटवारा करना
पड़ता था। एक
ने बाया पैर
लिया था, एक
ने दायां।
गुरु ने करवट
बदली। बायां
पैर दाएं पैर
पर चढ़ गया।
जिसका दायां
पैर था, उसने
कहां, 'हटा
ले अपने बाएं
पैर को! अगर
मेरे पैर पर
तेरा पैर चढ़ा
तो भला नहीं।’
लेकिन
जिसका पैर चढ़
गया था, उसने कहां, 'अरे देख लिए
ऐसे धमकी
देनेवाले!
किसकी हिम्मत है
जो मेरे पैर
को नीचे उतार
दे, जब चढ़
ही गया तो चढ़
ही गया? चढ़ेगा!
कर ले जो तुझे
करना हो!'
उसने कहां, 'देख, हटा
ले! मान जा!' वह
उठा लाया लट्ठ।
उसने कहां, 'वह दुचली
बनाऊंगा तेरे
पैर की...।’ मगर
दूसरा भी कुछ
पीछे तो छूट
जानेवाला
नहीं था। सोए
हुए आदमियों
के साथ यही तो
खतरा है।
दूसरा तलवार
उठा लाया।
उसने कहां, 'हाथ लगा, लकड़ी
चला मेरे पैर
पर और देख तेरे
पैर की क्या
गति होती है!
ही झटके में
फैसला कर
दूंगा।’
इस
आवाज में, शोरगुल
में गुरु की
नींद खुल गयी।
सुना आंखें
बंद किए—किए
कि यह मामला
बिगड़ा जा रहा
है। उसने कहां,
'भाइयो, जरा
ठहरो! यह भी तो
खयाल करो कि
पैर मेरे हैं।’
उन्होंने
कहां, 'आप
शात रहिए!
आपको बीच—बीच
में बोलने की
कोई जरूरत
नहीं है। जब
बटवारा हो
चुका तो हो
चुका। यह
इज्जत का सवाल
है। आप शांत
रहो।’
यही
हाल विष्णु का
होगा इधर सांप
फनफना रहा, उधर
लक्ष्मी मैया
पैर दबाते—दबाते
जमाने हो गए, गर्दन तक तो
पहुंच ही गयी
होंगी। वह
गर्दन दबा रही
होंगी।
विष्णु उठ भी
नहीं सकते, वे कलि—काल
में ही हैं।
और वही
तुम्हारे
अवतार बनते
हैं। वही कभी
राम बन जाते, कभी परशुराम
बन जाते। वही
कभी कृष्ण बन
जाते। उनका
धंधा एक ही है।
यूं समझो कि
असलियत में तो
वे वहीं रहते
हैं अपनी शैया
पर, पता
नहीं कौन उनकी
जगह नाटक कर
जाता है! यह सब
नाटक—चेटक चल
रहा है। यह एक
ही आदमी भारत
की छाती पर
चढ़ा हुआ है और
वह शैया पर सो
रहा है।
कलियुग जारी
है, सदियों
से जारी है।
इसको तोड्ने
का समय आ गया
है।
उठो!
निद्रा
छोड्कर बैठो।
उठकर खड़े हो
जाओ और फिर
चलो। जो चल
पड़ता है, वही कृतयुग
बन जाता है।
इसलिए मैं तुम्हारे
इन सारे
धर्मों की
धारणाओं का
स्पष्ट विरोध
करता हूं जो
कहते है आज
कोई तीर्थंकर
नहीं हो सकता।
तीर्थंकर
होने का किसी
समय से कोई
संबंध नहीं है।
जैन कहते हैं 'तीर्थंकर
चौबीस ही हो
सकते हैं, वे
हो गए।’ अगर
चौबीस ही हो
सकते हैं, समझ
लो यह भी मान
लो।.
एक जैन
मुनि से मेरी
बात हो रही थी।
कहते थे, चौबीस ही हो
सकते हैं।
मैंने कहां, 'चलो यह भी
मान लो, तो
जो चौबीस हुए,
यही वे
चौबीस थे इसका
कोई प्रमाण है?
इनमें हो
सकता है एक भी
असली न हो और
अभी चौबीस होने
को हों।
प्रमाण क्या
है इनके चौबीस
होने का? यह
भी मान लो कि
चौबीस ही हो
सकते हैं, चलो
कौन झगड़ा करे,
चौबीस—पच्चीस
कोई भी संख्या
चलेगी, मगर
ये ही चौबीस
थे, महावीर
ही चौबीसवें
थे और ऋषभदेव
ही पहले थे, यह क्या
पक्का है?'
ऋग्वेद
में ऋषभदेव का
नाम है, तो जैन
घोषणा करते
हैं कि हमारा
धर्म ऋग्वेद से
पुराना हैं।
मगर हिंदू दयानंद
जैसे व्यक्ति
यह मान नहीं
सकते। वे
ऋषभदेव को
ऋषभदेव पढ़ते
ही नहीं। वे
पढ़ते हैं—वृषभदेव!
सांड!
नदीबाबा! वे
ऋषभदेव को
ऋषभदेव मानते
ही नहीं, वे
वृषभदेव
मानते हैं।
अब
वृषभदेव
तुम्हारे
पहले
तीर्थंकर थे? यह जैन
मानने को राजी
न होंगे। और
क्या सबूत कि
जो प्रथम था
वह कोई छाती
पर लिखवाकर
आया था, कोई
सर्टिफिकेट, प्रमाण—पत्र
लेकर आया था?
मेरी
आलोचना
निरंतर
अखबारों में
की जाती है कि
मैं स्व—घोषित
भगवान हूं।
मैं ऐसे पूछता
हूं तुम्हारा
कौन—सा भगवान
था जो
सर्टिफिकेट
लेकर आया था? अगर मैं
स्व—घोषित हूं
तो कौन था जो
स्व—घोषित
नहीं था? आखिर
महावीर का
दावा खुद का
दावा था।
महावीर के समय
में आठ और लोग
थे जो दावेदार
थे। यह और बात
है कि वे आठों
हार गए महावीर
से तर्क में।
मगर इससे यह
सिद्ध नहीं
होता कि जो
तर्क में जीत
गया था, जो
वकालत में जीत
गया था, वह
असली था।
और
तर्क में ही
जीतना हो तो
मुझे कोई 'अड़चन है? अगर तर्क से
ही प्रमाणित
हो सकता हो, तब तो मेरी
जीत
सुनिश्चित है।
तर्क की तो
बखिया मैं
अच्छी तरह उखेड़
सकता हूं
इसमें मुझे
कोई अड़चन
नहीं है।
तुम्हारे बड़े
से बड़े
तार्किकों की
धज्जी उड़ाई जा
सकती है, इसमें
कुछ भी नहीं।
इनको चारों
खाने चित्त
करने में कोई
अड़चन नहीं, क्योंकि
इनके तर्क भी
पिटे—पिटाए
हैं और पुराने
हैं। अब तर्क
नए दिए जा
सकते हैं, जिनका
इनको पता भी
नहीं था, जिनका
इनको होश भी
नहीं था, जिनको
उठाने की इनकी
हिम्मत भी
नहीं हो सकती।
अब कौन
कहेगा कि
विष्णु
महाराज
कलियुग में जी
रहे हैं? किसी ने आज
तक नहीं कहां।
मगर साफ है।
शैया पर—जब
देखो तब शैया
पर लेटे हुए
हैं। जिंदा भी
हैं कि मर गए, यह भी शक है।
और सांप
फुफकार रहा है,
मर ही चुके
होंगे। कब तक
जिंदा रहोगे
सांप पर? और
सोना, यह
भी कोई ढंग है?
अरे उठो भी,
नहाओ— धोओ
भी, कम से
कम दतौन वगैरह
करो, कुछ
चाय—नाश्ता
करो। कुछ भजन—पूजन
करो, कुछ
तो करो! यह
मुर्दे की तरह
पड़े हो; यह
आसन न हुआ, शवासन
हो गया।
कौन
लेकर आया था
प्रमाण —पत्र? महावीर
के समय में
संजय
वेलट्ठिपुत्त
था, जो कह
रहा था, 'मैं
चौबीसवा
तीर्थंकर हूं।’
उसका कसूर
अगर कोई था तो
एक ही था कि वह
आदमी जरा
दीवाना था और
मस्त था।
महावीर जैसा
नियमबद्ध
नहीं था, इसलिए
भीड़— भाड़
इकट्ठी न कर
पाया। मस्तों
का वह
दुर्भाग्य है।
उनकी मस्ती के
कारण भीड़ उनके
पास इकट्ठी
नहीं हो सकती,
कुछ मस्त
इकट्ठे हो
सकते हैं।
संजय
वेलट्ठिपुत्त
जोरदार बातें
कहता था। जैसे
महावीर ने कहां
कि सात नर्क
होते हैं।
उसने कहां, 'गलत! ये सात
तक ही गए
होंगे। अरे
सात सौ नर्क
हैं, मैं
सब पूरी आखिरी
छानबीन कर आया।
और सात सौ ही
स्वर्ग हैं।
ये सातवें
स्वर्ग तक गए
होंगे, इसलिए
बेचारे
सातवें तक की
बातें करते
हैं। जो जहां
तक गया है
वहां तक की
बात करता है।
मैंने ऊपर से
नीचे तक सब
छानबीन कर
डाली।’
यह
मस्ती में कही
हुई बात .है।
यह मजाक कर
रहा है वह कि
क्या बकवास
लगा रखी है सात
की! और फिर सात
की ही बात हो
तो सात सौ की
क्यों न हो!
अरे फिर
कंजूसी क्या?
संजय वेलट्ठिपुत्त
मस्ताना आदमी
था। मक्खली
गोशालक
दावेदार था कि
मैं असली
चौबीसवा तीर्थंकर
हूं! वह
महावीर का
पहले शिष्य था।
फिर देखा उसने
जब महावीर हो
सकते हैं
चौबीसवें
तीर्थंकर तो
मैं क्यों
नहीं हो सकता!
सो अलग हो गया
और उसने घोषणा
कर दी। महावीर
को स्वभावत:
नाराजगी तो
हुई कि मेरा
ही शिष्य, बारह साल
मेरे साथ रहा
और मेरी ही
बातें करता है
और मेरे ही
खिलाफ
दावेदारी
करता है।
महावीर उस
गांव गए जहां मक्खली
गोशालक ठहरा
हुआ था। उस
धर्मशाला में
ठहरे और मक्खली
गोशालक से कहां
कि मैं मिलना
चाहता हूं। मक्खली
गोशालक मिला।
उन्होंने
पूछा कि तू
मेरा शिष्य था।
उसने कहां, इससे सिद्ध
होता है कि आप
अज्ञानी।
महावीर
ने कहां, 'इससे कैसे
सिद्ध होता है
कि मैं
अज्ञानी?'
गोशालक
ने कहां, 'आप पहचान ही
नहीं पाए। यह
देह वही है, मगर वह
आत्मा तो गयी।
इसमें
चौबीसवें
तीर्थंकर की
आत्मा
प्रविष्ट हो
गयी है, जो
तुम्हारी
शिष्य कभी
नहीं रही। तुम
अभी तक देह पर
अटके हो।
तुम्हें देह
ही दिखाई पड़
रही है। अरे
आत्मा को
देखो! यह क्या
अज्ञान है?'
महावीर
कहते रहे, 'यह झूठ
बोल रहा है।’ और लोगों को
भी बात जंची
कि यह आदमी
अजीब बातें कर
रहा है, कि
इसकी आत्मा तो
जा चुकी और
चौबीसवें
तीर्थंकर की
आत्मा इसमें
प्रवेश कर
गयी! मगर वह भी
मस्त किस्म का
आदमी था; उसके
शिष्य भी
मस्तमौला थे।
इसलिए भीड़—
भाड़ इकट्ठी
नहीं हो सकी।
मगर बात तो
उसने मजे की
कही। वह भी
मजाक में ही
कही थी।
ऐसे और
भी लोग थे।
अजित
केशकंबली था।
खुद गौतम
बुद्ध थे। गौतम
बुद्ध ने
इनकार किया है
कि महावीर
तीर्थंकर हैं, सर्वज्ञ
हैं। कैसे
सर्वज्ञ हैं,
क्योंकि
बुद्ध ने कहां,
'मैंने
उन्हें ऐसे
घरों के सामने
भिक्षा मांगते
देखा जिस घर
में वर्षों से
कोई नहीं रहता।
ये क्या खाक
सर्वज्ञ हैं,
इनको यह भी
पता नहीं कि
यह घर खाली है,
उसके सामने
भिक्षा मांगते
खड़े हैं! जब
पडोस के लोग
कहते हैं कि
वहां कोई रहता
ही नहीं, आप
बेकार खड़े हैं,
तब ये आगे
हटते हैं। और
ये तीन काल के
ज्ञाता और
इनको इतना भी
ज्ञान नहीं कि
घर खाली हैं!
दरवाजे के
पीछे देख नहीं
पाते और तीन
काल देख रहे
हैं, त्रिलोक
इनकी आंखों के
सामने हैं! ये
कैसे
तीर्थंकर हैं!
सुबह उठकर
चलते हैं
रास्ते पर
अंधेरे में, कुत्ते की
पूंछ पर पैर
पड़ जाता है; जब कुत्ता
भौंकता है तब
पता चलता है
कि पूंछ पर
पैर पड़ गया है।’
ये
बुद्ध ने
महावीर के
संबंध में
बातें कही हैं।
तो कौन
तीर्थंकर है? किसके
पास दावा है? किसके पास
सर्टिफिकेट
है? या कि
तुम सोचते हो
कि कोई
तीर्थंकर, कोई
अवतार वोट से
तय होता है? तो किसको
वोट मिली थी? और वोट अगर
मिलती तो ये
सब हार गए
होते। बुद्ध
को कितनी वोट मिलती।
जीसस को कितनी
वोट मिलती? मुहम्मद को
कितनी वोट मिलती।
आज की संख्या
मत गिनना। आज
तो करोड़ों की
संख्या है
जीसस के पीछे।
कोई एक अरब
आदमी ईसाई हैं।
मगर जीसस को
जब सूली लगी
तो एक भी
शिष्य वहा मौजूद
नहीं था, सब
भाग खड़े हुए।
एक शिष्य ने
पीछा करने की
कोशिश की थी
रात में, तो
जीसस ने कहां
था कि देख, मत
पीछे आ। मैं
तुझे जानता
हूं। सुबह
मुर्गा बोले,
इसके पहले
तीन बार तू
मुझे इनकार
करेगा। लेकिन
उसने कहां, 'कभी नहीं, कभी नहीं!
मैं और इनकार
करूं! मेरा
समर्पण पूरा
है!'
वह चल
पड़ा। दुश्मन
जीसस को पकड़कर
चले, जंजीरें
बांधकर चले।
रात थी अंधेरी,
मशालें लेकर
चले और वह भी
उस भीड़ में
सम्मिलित हो
लिया। लेकिन
भीड़ को शक हुआ—यह
आदमी कुछ
अपरिचित
मालूम पड़ता है।
यह अपने वाला
नहीं है। और
कुछ संदिग्ध
दिखता है, कुछ
डरा—डरा भी, कुछ भयभीत
भी, कुछ
आह्लादित भी
नहीं मालूम
होता कि जीसस
पकड़ लिए गए
हैं, सब
प्रसन्न हो
रहे हैं कि अब
खात्मा हो गया
इस आदमी का, यह उपद्रव
मचा रहा था।
सिर्फ यह आदमी
उदास दिखता है।
पकड़ लिया कि
तुम कौन हो, क्या तुम
जीसस के शिष्य
हो? उसने कहां
कि नहीं, मैं
तो एक परदेसी
हूं। जेरुसलम
की तरफ जा रहा
था। रात
अंधेरी है, तुम्हारे
पास मशालें
हैं, इसलिए
साथ हो लिया।
और तुम भी
जेरुसलम जा
रहे हो, सोचा
कि ठीक है, रास्ते
में किस—किससे
पूछूंगा!
अंधेरी रात है,
कोई मिले न
मिले।
जीसस
पीछे लौटे और
उन्होंने कहां, 'देख, अभी
मुर्गे ने
बांग भी नहीं
दी!' और यह
घटना तीन बार
घटी; मुर्गे
के बांग देने
के पहले तीन
बार घटी। इनसे
वोट मिल सकता
था? और ये
दस—बारह लोग
थे कुल, उनमें
से ही एक ने
तीस रुपये में
जीसस को बेचा था—जुदास
ने। कितने लोग
उन्हें वोट
देने जाते? कौन हिम्मत
करता वोट देने
की, जो
मुर्गे के
बांग देने के
पहले इनकार कर
दिए थे! और
जीसस के पास
कौन—सा
सर्टिफिकेट
था परमात्मा
का कि वे ही
ईश्वर के
इकलौते बेटे
हैं?
मुझ पर
आलोचना की
जाती है कि मै
स्व—घोषित
भगवान हूं।
मैं तुमसे
कहता हूं इसके
सिवाय तो कोई
उपाय ही नहीं
है, कभी
नहीं रहा।
आखिर आंख वाला
ही घोषणा कर
सकता है कि
मुझे प्रकाश
दिखाई पड़ रहा
है। अंधों से
वोट लेनी
पड़ेगी, कि
अंधों का सर्टिफिकेट
चाहिए पड़ेगा?
मैं जब
विश्वविद्यालय
से उत्तीर्ण
हुआ तो मैं
प्रथम कोटि
में
विश्वविद्यालय
में प्रथम आया
था। स्वभावत:
मुझे
निमंत्रण
मिला शिक्षा—मंत्रालय
से कि अगर मैं
चाहूं तो मेरे
लिए पहला अवसर
है प्रोफेसर
हो जाने का।
मैं गया।
मैंने कहां, 'ठीक, आपका
निमंत्रण आया,
मैं राजी
हूं।’
उन्होंने
कहां, 'लेकिन
कागज—पत्र आप
सब ले आए हैं?'
मैंने कहां, 'यह रहा
सर्टिफिकेट
जो जाहिर करता
है कि मैं प्रथम
श्रेणी में
प्रथम आया हूं।
और क्या चाहिए?'
'उन्होंने
कहां, 'चरित्र
का प्रमाण —पत्र
चाहिए।’
मैंने कहां, 'यह जरा
मुश्किल है।’
उन्होंने
कहां, 'क्यों,
इसमें क्या
मुश्किल है? क्या आप
अपने
विश्वविद्यालय
के उपकुलपति
का चरित्र का
प्रमाण—पत्र
नहीं ला सकते?
मैंने कहां, 'ला सकता
हूं लाने में
कोई अड़चन
नहीं। आ रहा
था तो
उन्होंने
मुझसे कहां था,
लेकिन
मैंने इनकार
किया, क्योंकि
मैं उनको
चरित्र का
सर्टिफिकेट
नहीं दे सकता
तो उनसे मैं
कैसे चरित्र
का सर्टिफिकेट
लूं? शराबी—कबाबी,
वेश्यागामी—कौन—से
गुण हैं जो
उनमें नहीं
हैं? उनसे
मैं क्या
चरित्र का
सर्टिफिकेट
लूं?'
मैंने
उनसे पूछा, 'आप सोचते
हैं आपसे मैं
चरित्र का
सर्टिफिकेट
ले सकता हूं? पहले आप यह
तो पूछो कि
मैं आपको
चरित्र का सर्टिफिकेट
दे सकता हूं?'
सो बात
वहीं बिगड़ गयी।
शिक्षा —मंत्री
ने कहां, 'फिर जरा
मुश्किल आएगी।’...'
फिर क्या
किया जाए?' —
मैंने कहां, 'मैं ही
चरित्र का
सर्टिफिकेट
लिख सकता हूं
अपने बाबत।’
उन्होंने
कहां, 'ऐसा
नियम नहीं है।’
तो
मैंने कहां, 'आप जिसके
दस्तखत कहें
उसके दस्तखत
कर सकता हूं।’
उन्होंने
कहां, 'यह
कैसे होगा?'
मैंने कहां, 'यह आप
कार्बन—कापी
समझें। और
जिसके दस्तखत
मैं करता हूं
उससे दस्तखत
मैं ले लूंगा,
मूल कापी
मेरे पास
रहेगी। आप मूल
कापी चाहेंगे
तो मूल कापी
आपको लाकर दे
दूंगा।’
तो
मेरे
प्रोफेसर थे
डाक्टर एस. के.
सक्सेना, उनके नाम से
मैंने
सर्टिफिकेट
लिख दिया।
शिक्षा—मंत्री
थोड़े हिचके—बिचके,
मगर मेरा
रंग—ढंग देखकर
उनको समझ में
आ गया कि इस
आदमी से झंझट
लेना ठीक भी
नहीं। सो
उन्होंने सर्टिफिकेट
रख लिया, मुझे
नौकरी भी मिल
गयी। मैंने
डाक्टर एस के.
सक्सेना से
जाकर कहां कि
यह मेरा
सर्टिफिकेट
है? आपके
दस्तखत मैंने
किए हैं, आप
इसकी मूल
प्रति बना दें।
उन्होंने
कहां, 'जिंदगी
हो गयी मेरी
सर्टिफिकेट
लिखते, मूल
प्रति पहले
बनायी जाती है,
फिर उसकी सर्टिफाइड
कापी होती है!'
मैंने कहां,
'मेरे साथ
कोई नियम काम
नहीं करता।
आपको एतराज
अगर हो जो
मैंने अपने
बाबत लिखा है
इसमें, तो
आप मत मूल
प्रति दें। आप
सर्टिफिकेट
पढ़ लें।’
सर्टिफिकेट
में मैंने जो
लिखा था वह
शिक्षा—मंत्री
ने भी पढ़ा
नहीं था, सिर्फ रख
लिया था। जब
डाक्टर एस. के.
सक्सेना ने
उसको पढ़ा, कहने
लगे कि तुमने
क्या लिखा है
कि मैं परम अज्ञानी
हूं कि मेरे
चरित्र का कोई
ठिकाना नहीं कि
मैं आज कुछ
हूं कल कुछ
हूं मैं भरोसे
का आदमी नहीं
हूं! यह
चरित्र का
सर्टिफिकेट
है?
मैंने कहां, 'अंधों को
देना है, अंधों
से लेना है। आंखवाला
और करे क्या? तुम सिर्फ
दस्तखत करो। न
शिक्षा—मंत्री
ने पढा, न
तुम पढ़ो।’
उन्होंने
जल्दी से
दस्तखत किए।
उन्होंने कहां
कि तुम मुझसे
कहते, मैं
सुंदर
सर्टिफिकेट
लिखता। मैंने कहां,
'तुमसे मैं
सर्टिफिकेट
ले सकता नहीं।
वही अड़चन है।
तुम भी जानते
हो कि मैं
तुमसे
सर्टिफिकेट
नहीं ले सकता।’
उन्होंने
कहां, 'वह
मैं जानता हूं।
सच में मैं
अधिकारी भी
नहीं हूं।’ वे आदमी बड़े
ईमानदार थे।
वे इतने
ईमानदार आदमी
थे कि उनके घर
मैं ठहरता था
तो वे सिगरेट
भी नहीं पीते
थे, शराब
भी नहीं पीते
थे। मैंने
उनसे कहां, 'यह बात
अनाचार की है।
इससे मुझे
कष्ट होता है।
मैं आपके घर
ठहरना बंद कर
दूंगा, क्योंकि
मैं किसी में
दमन नहीं लाना
चाहता। यह दमन
है। आप दिनभर
सिगरेट पीते
हैं, मेरी
मौजूदगी में
आप बिलकुल
सिगरेट नहीं
पीते, तकलीफ
होती होगी। यह
पाप मैं सिर
पर न लूंगा।
और सिगरेट
पीने में हर्ज
क्या है? अरे
साल दो साल
पहले... जल्दी
मरोगे! सो ऐसे
भी जीकर क्या
कर रहे हो? और
कई लोग कतार
में खड़े हैं
जो राह देख
रहे हैं कि
तुम मरो तो वे
प्रधान हो
जाएं। तुम जब
तक न मरो तब तक
वे विभाग के
अध्यक्ष नहीं
हो सकते। सो
जी भरकर पीओ।
शराब में क्या
हर्जा है? यूं
ही बेहोश हो, अब और क्या
बेहोश होओगे?
और बेहोश
आदमी से और
क्या अपेक्षा
की जा सकती है?
क्या ध्यान
पीएगा? तुम
मेरा लाज—संकोच
करोगे तो मैं
यहां नहीं
आऊंगा, क्योंकि
मेरा लाज—संकोच
दमन बने तो
जिम्मेवारी
मेरी हो जाती
है। ही, तुम्हारी
समझ में आ जाए
कि यह मूर्खता
है और छूट जाए,
तब बात और।
तब फिर मैं
रहूं या न
रहूं
तुम्हारे घर
में, फिर
तुम्हें
सिगरेट नहीं
पीनी चाहिए, शराब नहीं
पीनी चाहिए।
मेरी मौजूदगी
के कारण तो
दमन होगा।’
इसलिए
वे कहने लगे
कि यह तो मैं
जानता हूं कि
मेरे प्रमाण—पत्र
का कोई अर्थ
नहीं। मगर इसी
तरह के प्रमाण—पत्रों
के अर्थ समझे
जा रहे हैं।
जो लोग
मुझसे पूछते
हैं स्व—घोषित
भगवान आप कैसे, उनसे मैं
कहना चाहता
हूं : जिसने
भगवत्ता जानी
वही घोषणा
करेगा। बुद्ध
ने स्वयं
घोषणा की कि
मैं परम
निर्वाण को
उपलब्ध हुआ
हूं। किसका और
सर्टिफिकेट
है? मुहम्मद
ने खुद घोषणा
की कि मेरे
ऊपर परमात्मा
की किताब उतरी
है। किसका और
सर्टिफिकेट
है? कोई
गवाह है? हालत
तो यह है कि
खुद मुहम्मद
को भी शक हुआ
था कि यह
किताब
परमात्मा की
मुझ पर उतर
रही है या मैं
पागल हो रहा
हूं! जब किताब
उतरी तो वे घर
भागे हुए आए, उन्हें
बुखार चढ़ गया।
यह मुहम्मद की
सादगी, सरलता
का सबूत है।
उन्होंने
अपनी पत्नी से
कहां कि जितनी
भी दुलाइयां
हों घर में, सब मेरे ऊपर
डाल दे। मुझे
कुछ हो गया है।
या तो मैं
सन्निपात में
हूं क्योंकि
मुझसे ऐसी
बातें निकल
रही हैं जो
मेरी नहीं, मैंने कभी
सोची नहीं।
ऐसी सुंदर
आयतें मेरे.
भीतर गज रही
हैं। ऐसे
सुंदर गीत जो
निश्चित ही
मेरे नहीं हैं,
जिन पर मेरा
कोई
हस्ताक्षर
नहीं है। तो
या तो मैं
सन्निपात में
हूं कि मुझे
कुछ का कुछ हो
रहा है, अल्ल—बल्ल,
जो मेरे वश
के बाहर है और
या, फिर
मैं कवि हो
गया हूं जो कि
और भी बदतर है।
क्योंकि
सन्निपात से
तो आदमी का
इलाज है, कवि
हो गए तो फिर
कोई इलाज ही
नहीं। जहां न
पहुंचे शशि, वहा पहुंचे
कवि! इनका तो
कुछ हिसाब ही
नहीं है।
लेकिन
आयशा, उनकी
पत्नी ने कहां
कि मुझे कुछ
कहो, क्या
हो रहा है
तुम्हारे
भीतर? मुहम्मद
ने पहले अपनी
आयतें सुनायी।
आयशा ने कहां,
'तुम भूल
में हो। आयशा
उनसे उम्र में
बहुत बड़ी थी।
इसलिए कभी—कभी
अपनी उम्र से
ज्यादा उम्र
की स्त्री से
शादी करना
फायदे की बात
है। काफी बड़ी
थी। मुहम्मद
छब्बीस साल के
थे, आयशा
चालीस साल की
थी। अनुभवी थी।
मां की उम्र
की थी। उसने
आयतें सुनीं।
उसने कहां, इससे सुंदर
सूत्र तो
मैंने कभी
सुने नहीं! न तो
तुम सन्निपात
में हो, न
तुम कवि हो।
तुम पर
परमात्मा के
वचन उतरे हैं।
ये वचन इतने
प्यारे हैं कि
परमात्मा के
ही हो सकते
हैं।’
उसने
भरोसा दिलाया, तब कहीं
मुहम्मद को
भरोसा आया।
आयशा उनकी पहली
शिष्या थी—पहली
मुसलमान।
उसने ही सहारा
दिया तो
मुहम्मद
हिम्मत जुटा पाए
औरों से कहने
की। मगर बहुत
सम्हल—सम्हल
करकदम चले।
लेकिन प्रमाण
क्या था? भीड़—
भाड़ ने तो
मुहम्मद को
माना नहीं।
जगह—जगह से
उखाड़े गए। एक—एक
गांव से भगाए
गए। जिंदगीभर
लोग उनको
मारने के पीछे
पड़े रहे। इनसे
तुम वोट ले
सकते थे?
मेरे
जैसे व्यक्ति
को तो अपनी
घोषणा स्वयं
ही करनी होगी।
और मेरे जैसे
व्यक्ति को
पचाना केवल
थोडे—से
छातीवाले
लोगों की बात
हो सकता है।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं : यह
सूत्र मैंने
ही कहां होगा।
यह सूत्र और
कौन कहेगा? यह सूत्र
बिलकुल मेरे
हृदय की आवाज
है। यह मेरी
आयत है—
कलि:
शयानो भवति
संजिहानस्तु
द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता
भवति कृतं
संपद्यते चरन्।
चरैवेति।
चरैवेति।।
'बहुतेरे हैं
घाट' प्रवचनमाला
से
दिनांक
23 मार्च 1981; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
thank you guruji
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