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सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

गुरू प्रताप साध की संगति--(प्रवचन--09)

पाहुन आयो भाव सों—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक 29 मई, 1979;
ओशो कम्युन, पूना।
सूत्र:
पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।
घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।
सत्यनाम गयो भूल, झठ मन माया मानो।।
महाप्रतापी रामजी, ताको दियो बिसारि
अब कर छाती का हनो, गये सो बाजी हारि।।
भीखा गये हरिभजन बिनु तुरतहिं भयो अकाज।
पाहुन आयो भाव सों, धर में नहीं अनाज।।

वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।
अच्छर समुझा नाहिं, रहा जैसे का तैसा।।
परमारथ सों पीठ, स्वार्थ सनमुख होइ बैसा।।
सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम में मन लावै
छुइगयो बिज्ञान, परमपद को पहुंचावै।।
भीखा देखे आपु को, ब्रह्म रूप हिये माहिं
वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।


मेरे शहर, गुलाबों के वतन, मेरे चमन
लौट आया हूं मैं फिर मौत के वीरानों से
फिर कोई शेर, कोई नज्म? पुकारे मुझको
फिर मैं अफ्साने बनाऊं तेरे अफ्सानों से
अपनी तहरीक के धारों से अलग, तुझसे भी दूर
एक शब से भी मेरे ख्वाब संभाले न गये
आंख खुलती ही रही रात के सन्नाटे में
शिकवहाये-दिले-बेताब संभाले न गये
कमरे की क़्रब में कम्बल का कफ़न ओढ़े हुए
खुले दरवाजों से बाहर की तरफ़ तकता रहा
मेरी आवाज भी जैसे मेरी आवाज न थी
मेरी आवाज़ में तनहा भी था, हैरान भी था
अपने किरदार के टुकड़ों को इकट्ठा करके
लौट आया कि वहां रहके मिला क्या मुझको
ज़ख्मों के बारे में कुछ पूछ लो दीवाने से
ऐ मेरे शहर की वीरान गुजरगाहो, उठो
मेरी यादों के पियाले में भरो फिर कोई मय
ऐ मेरे ख्चाबों के बेनाम खुदाओ, आओ
मेरे सीने में कई ज़ख्म अभी ज़िन्दा हैं
आओ, ममता भरी गंगा की हवाओ, आओ।
इस संसार में मनुष्य एक परदेसी है। यहां हमारा घर नहीं, यहां हम बेघर हैं। हम कितने ही घर बना लें यहां घर बन सकता नहीं। यहां घर के बनने की कोई संभावना ही नहीं है। यहां तो बनाये सारे घर आज नहीं कल उजड़ेंगे। धोखा हम थोड़े दिन का खा लें भला, राहत थोड़ी देर अपने मन को दे लें भला, लेकिन आज नहीं कल डेरा उठाना पड़ेगा, उठाना ही पड़ता है। मौत से बचने का कोई उपाय नहीं।
और चूंकि मौत से बचने को कोई उपाय नहीं है, अपने घर की याद समय रहते करो। अपने असली घर की याद करो। कहां से आते हो? कौन हो? इसे पहचानो। इसे बिना पहचाने कोई भी व्यक्ति न तो शांति को, न आनंद को, न अमरत्व को उपलब्ध हुआ है, न हो सकता है। इसे बिना पहचाने भीड़ में भी रहोगे और अकेले रहोगे। भीड़ में भी कहां कौन-सी मैत्री है? प्रेम के नाम पर भी सब प्रेम का धोखा है!
कमरे की क़ब्र में कम्बल का कफ़न ओढे हुए
खुले दरवाज़ों से बाहर की तरफ़ तकता रहा
मेरी आवाज़ भी जैसे मेरी आवाज़ न थी
भरे बाजार में तनहा भी था, हैरान भी था
बाजार तो भरा है। शोरगुल बहुत है। लोग ही लोग हैं चारों तरफ। मगर कौन अपना है? अपने तो हम अपने भी नहीं, दूसरा तो क्या खाक अपना होगा! यह देह भी अपनी नहीं, यह भी मिट्टी की है और मिट्टी में गिर जाएगी। और यह मन भी अपना नहीं, यह भी बाहर से उधार मिला है और बाहर ही बिखर जाएगा, तितर-बितर हो जाएगा। जिसे हम अभी समझते हैं अपना होना, वह भी अपना नहीं; दूसरे तो क्या खाक अपने होंगे! और इस जिंदगी में सिवाय टूकड़े-टूकड़े होने के और क्या होता है? जैसे कोई पटक दे दर्पण को भूमि पर और चकनाचूर हो जाए दर्पण, ऐसी हमारी दशा है, चकनाचूर हम हैं।
अपने किरदार के टुकड़ों को इकट्ठा करके
लौट आया कि वहां रहके मिला क्या मुझको
जख्मों के बारे में कुछ पूछ लो दीवाने से
ऐ मेरे शहर की वीरान गुजरगाहो, उठो
एक न एक दिन अपने सारे टुकड़ों को सम्हालकर, अपने सारे टुकड़ों को इकट्ठा करके, असली घर की तलाश करनी ही होगी; अपने असली नगर की तलाश करनी ही होगी। उस नगर को फिर तुम जो नाम देना चाहो दो--कहो परमात्मा, कहो मोक्ष, कहो निर्वाण, कैवल्य, जो तुम्हारी मर्जी; वे सारे भेद नामों के हैं। मगर एक बात पक्की है कि यहां हम अपने घर में नहीं हैं। और लाख इंताजाम कर लेते हैं, बना लेते हैं, मगर सब इंतजाम बिगड़ जाते हैं। कागज की नावें उस पार नहीं पहुंचा सकतीं। और इस क्षणभंगुर जीवन में बनाये गये सब उपाय व्यर्थ हो जाने के लिए आबद्ध हैं।
मेरी यादों  के पियाले में भरो फिर कोई मय
ऐ मेरे ख्वाबों के बेनाम खुदाओ, आओ
मेरे सीने में कई ज़ख्म अभी ज़िन्दा हैं
आओ, ममता भरी गंगा की हवाओ, आओ।
उठनी चाहिए एक पुकार परमात्मा के लिए। उठनी चाहिए एक पुकार स्वर्ग की हवाओं के लिए। उठनी चाहिए एक पुकार उस मदमस्ती के लिए जो केवल धर्म के द्वारा ही संभव होती है।
पुकारो उस अतिथि को!
अतिथि शब्द प्यारा है। अतिथि शब्द  सबसे पहले परमात्मा के लिए उपयोग किया गया है। तुमने कहावत सुनी है--"अतिथि देवता है'। मैं तुमसे कहता हूं: "देवता अतिथि है।' अतिथि का अर्थ होता है जो बिना तिथि बताए आ जाए; जो पहले से कोई खबर न दे कि कब आता हूं, कोई सूचना न दे; जो एक दिन अचानक द्वार पर खड़ा हो जाए।
मगर यूं अचानक अगर वह द्वार पर खड़ा भी हो जाए और तुम्हारी आंखें बंद हों, और तुम्हारे हृदय में प्रार्थना न उठी हो, तो तुम चूक जाओगे। तुम चूके हो बुहत बार। उसने बहुत बार दस्तक दी है मगर तुमने सुनी नहीं। तुम्हारे मन का शोरगुल इतना है, तुम सुनो तो कैसे सुनो? उसकी आवाज धीमी है। उसकी आवाज गुफ्तगू है। वह चिल्लाता नहीं, काना-फूसी करता है। वह आक्रमक नहीं है, हौले-हौले आता है। उसके पैरों की भी आवाज तुम्हारी सीढ़ियों पर सुनाई न पड़ेगी। उसकी दस्तक भी बड़ी माधुर्य से भरी है, संगीतपूर्ण है।
अगर तुम शांत नहीं हो तो चूक जाओगे। और तुम्हारा मन इतने उवद्रव इतनी अशांति, इतने शोरगुल से भरा है कि चूकना निश्चित है। और तुम मौजूद भी कहां हो! अगर वह आये भी तो तुम्हें पाएगा कहां; तुम जहां हो वहां तो तुम कभी हो ही नहीं। परमात्मा तुम्हें खोजे भी तो कहां खोजे; तुम तो भागे हुए हो। तुम्हारा मन तो सतत गतिमान है, चंचल है। अभी यहां, अभी वहां--एक क्षण को भी तुम ठहरे हुए नहीं हो। तुम ठहरो तो मिलन हो। ठहरने का नाम ध्यान है। उसकी तरफ आंख उठा लेने का नाम भजन है। शांत प्रार्थना में झुक जाने का नाम तैयारी है।
कौन सा घरातल है
धरूं कहां पांव?
सुस्ताऊं पल-दो पल
कहो, कहां छांव?
द्रुत धारा
दुविधा की
एक नहीं घाट
निश्चित है
डूबूंगा
चौड़ा है पाट
झंझा के बीच ठौर
भंवर-बीच ठांव
सुस्ताऊं पल-दो पल
कहो, कहां छांव?
गर्दीली गलियां
सब
सड़कें पक्की
देख रहा हूं
सब की
आंखें शक्की
हर शहर पराया है
बैगाना गांव
सुस्ताऊं पल-दो पल
कहो, कहां छांव?
यहां छांव कहां है? बबूल के वृक्ष हैं यहां; इनकी छाया नहीं बनती, इनमें सिर्फ कांटे लगते हैं। यहां दो पल को भी छांव नहीं मिलती। मगर तुम टाले जाते कल पर। तुम बांधे जाते आशा--आज नहीं हुआ, कल होगा। और कल कभी आया है? कल कभी नहीं आया। इस सत्य को पहचानो, परखो; इसे प्राणों में सम्हाल कल रखो--कल न कभी आया है, न कभी आएगा; जो आता है, जो आया है, जो आया हुआ है, वह है आज। कल पर मत टालो। अगर तुम कल पर टालते रहे तो परमात्मा से कभी मिलना न हो सकेगा। परमात्मा आज है और तुम कल हो। परमात्मा नगद है और तुम उधार हो।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन बहुत परेशान हो गया था उधार लेने वाले लोगों से। उसने किसी फकीर से सलाह ली कि क्या करूं, क्या न करूं? परिचित हैं, इनकार भी नहीं कर सकता। द्वार पर आ जाते हैं, संकोच में देना ही पड़ता है। इतना उधार दे चुका हूं कि दुकान डूबी-डूबी हुई जा रही है; दिवाला निकलने के करीब है। मुझे कुछ सहारा दो, कुछ साथ दो।
उस फकीर ने कहा: यह भी कोई कठिन बात है! दरवाजे पर एक तख्ती लगा दो--आज नगद, कल उधार।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: वह मैं समझा, तख्ती लगा दूंगा, मगर कल वे उधार मांगेंगे, फिर मैं क्या करूंगा?
फकीर ने कहा: तू फिक्र छोड़; कल कभी आया है!
और तब से मुल्ला नसरुद्दीन ने तख्ती लगा दी है द्वार पर--आज नगद, कल उधार। लोग आते हैं, तख्ती पढ़ते हैं तो वे कहते हैं फिर मुल्ला कल आएंगे। मुल्ला कहता है जरूर आना। मगर कल जब आते हैं तब भी तख्ती वही है--आज नगद, कल उधार।
कल तो होता ही नहीं और हम कल की ही आशा लगाये बैठे हैं। कल की आशा का नाम संसार है और आज जीने का नाम मोक्ष। कल का विस्तार वासना है और आज ठहर जाना प्रार्थना।
कौन सा धरातल है
धरूं कहां पांव?
अगर कल में तुम पांव रखना चाहते हो तो नरक पाओगे। कल तो है ही नहीं, वहां कहां पांव रखोगे?
सुस्ताऊं पल-दो पल
कहो, कहां छांव?
अगर कल में सुस्ताना चाहते हो तो कभी सुस्ता न पाओगे। कल तो दौड़ा-एगा, दौड़ाएगा, दौड़ाएगा, दौड़ाता रहेगा जब तक मौत ही न आ जाए; दौड़ताएगा तब तक जब तक कब्र में गिर न जाओ। जो कल से बंधा है उसके जीवन में सुस्ताने की संभावना नहीं है।
द्रुत धारा
दुविधा की
एक नहीं घाट
और तुम्हारे मन में दुविधाएं हैं--यह करूं वह करूं; ऐसा करूं, वैसा करूं; क्या करूं, क्या न करूं! तुम्हारा मन दुविधाओं का एक जाल है। जैसे मछली फंस गयी हो मछुए के जाल में, ऐसे तुम दुविधा के जाल में फेंसे हो। तुम्हारे भीतर कुछ भी थिर नहीं। तुम्हारे भीतर कुछ भी एकाग्र नहीं। तुम्हारे भीतरे कुछ भी समग्र नहीं। अगर एक चीज भी तुम्हारे भीतर समग्र हो जाए, एकाग्र हो जाए तो वहीं से द्वार मिल जाए परमात्मा में।
द्रुत धारा
दुविधा की
एक नहीं घाट
यह जो दुविधा की धारा है इसका घाट होता ही नहीं; इसका घाट हो ही नहीं सकता।
निश्चित है
डूबूंगा
चौड़ा है पाट
जरा गौर तो करो, कितने तुमसे पहले डूब गये, कितने आज डूब रहे हैं, और तुम पार कर पाओगे? बड़े-बड़े पार नहीं कर पाये, तुम पार कर पाओगे? मगर आदमी का अहंकार ऐसा है कि हर अहंकार सोचता है: मैं अपवाद हूं। और लोग न कर पाये होंगे पार, मैं तो पार कर लूंगा। वे कुशल न होंगे, प्रवीण न होंगे, तैरना न आता होगा; उनकी नाव कमजोर होगी; उनकी पतवार मजबूत न होगी, उनकी दिशा भ्रांत होगी: उन्होंने गलत मुहूर्त में नाव छोड़ी होगी। मैं तो मुहूर्त भी ठीक ज्योतिषियों से पूछकर चलूंगा; नाव भी मजबुत बनाऊंगा; पतवारें भी सम्हालकर चलाऊंगा--सब होश रखुंगा। यही वे भी सोचते थे जो तुमसे पहले डूब गए हैं यही सभी सोचते हैं, और यही सोचने में सभी डूबते हैं।
नहीं, यह पाट ही इतना चौड़ा है, इसमें तुम अपने सहारे पार नहीं हो सकते--परमात्मा पार कराये तो कराये। जिसने परमात्मा को नाव बनाया, वह तो पार हो जाता है; और जिसने अपनी नाव खुद बनाने की कोशिश की, अपने ही प्रयास से पार जाना चाहा, वह निश्चित डूबता है।
निश्चित है
डूबूंगा
चौड़ा है पाट
झंझा के बीच ठौर
भंवर-बीच ठांव
सुस्ताऊं पल-दो पल
कहो, कहां छांव?
गर्दीली गलियां
सब
सड़कें पक्की
देख रहा हूं
सब की
आंखें शक्की
जरा लोगों की आंखों में झांको, कहीं तुम्हें आस्था के दीये जलते हुए दिखाई पड़ते हैं? आस्थावानों में भी नहीं। तथाकथित आस्थावानों में भी नहीं। मंदिरों में जाओ, मस्जिदों में जाओ, गुरुद्वारों में जाओ, गिरजों में जाओ, लोगों की आंख में झांको--आस्था का दीया जलता हुआ दिखाई पड़ता है? श्रद्धा की सुगंध अनुभव होती है? नहीं, ये वही के वही लोग हैं। जिनको तुम बाजार में मिलते हो, दुकान पर मिलते हो, जुआघरों में मिलते हो, शराबघरों में मिलते में मिलते हो--ये वही के वही लोग हैं; यही मंदिर भी आ जाते हैं। वस्त्र बदल लेते होंगे, नहा-धो आते होंगे; मगर वह सब तो ऊपर-ऊपर है, भीतर के प्राण तो वही के वही हैं। मंदिर में भी इनका मन तो कहीं और है। मस्जिद में भी इनके प्राण तो कहीं और हैं। गिरजे में भी ये हैं कहां, इनके प्राण तो कहीं और अटके हैं। जरा इनके भीतर झांको--बैठे हैं गिरजे में, होंगे बाजार में।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन मस्जिद नहीं जाता था। एक फकीर गांव में आया था। मुल्ला की पत्नी उससे बहुत प्रभावित थी। वह आदमी भी गजब का था। मुल्ला की पत्नी ने कहा कि मेरे पति को अगर मस्जिद ले आओ तो कुछ समझूं, तो कोई चमत्कार! राख निकाल दी कि घड़ी निकाल दी, इन बातों में मुझे रस नहीं है--मेरे पति को किसी तरह प्रार्थना में लगा दो, परमात्मा में लगा दो तो चमत्कार!
फकीर ने कहा: कल सुबह आऊंगा। जल्दी ही फकीर सुबह-सुबह आया। मुल्ला बगीचे में घूम रहा था। पत्नी अपने पूजागृह में भोर की पूजा कर रही थी, भोर की नमाज पढ़ रही थी। फकीर ने मुल्ला नसरुद्दीन को कहा: यह बात शोभा नहीं देती, अब उम्र हो गयी, अब बाल भी पक गये, अब परमात्मा को कब याद करोगे? और तुम्हारी पत्नी देखो...कहां है तुम्हारी पत्नी?
तो मुल्ला ने कहा: सच पूछो तो पत्नी बाजार में है, सब्जी खरीद रही है। और जिस सब्जी वाली से सब्जी खरीद रही है झगड़ा हो गया है, मारपीट की नौबत है, एक-दूसरे के बाल पकड़ लिए हैं...।
फकीर ने कहा: रुको-रुको, इतनी सुबह कहां दुकान खुली होगी, कहां सब्जी वाला होगा?
और इतनी ही बात सुनी पत्नी ने--जो पूजागृह में बैठी थी--वह निकलकर बाहर आ गयी। उसने कहा: हद हो गयी झूठ की भी! मैं पूजा कर रही हूं। तुम झूठ बोलते हो यह तो मुझे मालूम था नसरुद्दीन, मगर ऐसी झूठ बोलोगे इसकी कल्पना मैंने भी न की थी।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: तू सच-सच बता, पूजा तो तू कर रही थी लेकिन मैं जो कह रहा हूं, क्या सच में गलत है?
पत्नी चौंकी, याद आया, बात तो सच थी। फकीर के सामने झठ भी नहीं बोल सकती थी। फकीर ने पूछा कि तू बोल। तो उसकी पत्नी ने कहा कि हां, बात तो सच है। बैठी तो पूजा करने थी मगर आज सब्जी खरीदने जाना है क्योंकि आप आने वाले हैं, अच्छा भोजन बनाना है। तो वही ख्याल मन में गूंज रहा था, तो विचार में मैं बाजार चली गयी थी। सब्जी खरीद रही थी। और सब्जी वाली दोगुने दाम मांग रही थी। बात बिगड़ गयी। झंझड हो गयी। उसने मेरे बाल पकड़ लिए, मैंने उसके बाल पकड़ लिए। तब ही इस मेरे पति ने आपको कहा...।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: प्रार्थनागृह में बैठने से क्या होगा; मन को बिठान बड़ा कठिन है। पूजा भी करते हैं लोग, हवन, यज्ञ, विधि-विधान--मन नहीं बैठता, मन भागा ही भागा है।
द्रुत धारा
दुविधा की
एक नहीं घाट
देख रहा हूं
सब की
आंखें शक्की
और यहां श्रद्धावान भी बस झूठे हैं--श्रद्धा भी ऊपर-ऊपर है, थोपी हुई है, ओढ़ी है। जरा भीतर कुरेदो, जरा झांको, जरा परदा उठाओ और फूलों के पीछे मवाद मिलेगी; अच्छी-अच्छी बातों के पीछे गंदे-गंदे इरादे मिलेगेशुभाकांक्षाएं से पटा पड़ा है नर्क का मार्ग, ऐसी कहावत है। ठीक ही है कहावत। आकांक्षाएं अगर शब्दों में पूछो तो बड़ी शुभ हैं, मगर अगर प्राणों में झांको तो बड़ी अशुभ हैं। फूलों की चर्चा है, कांटों की खेती है। अमृत के गीत हैं, विष भरा है प्राणों के घट में।
हर शहर पराया है
बेगाना गांव
सुस्ताऊं पल-दो पल
कहो, कहां छांव?
यहां कोई अपना घर नहीं, अपना कोई गांव नहीं। यहां कोई छांव की संभावना नहीं। दो पल के लिए भी विश्राम कहां है? विश्राम तो सिर्फ राम में है। राम ही विश्राम है। गुरु-परताप साध की संगति! वह विश्राम मिल सकता है किसी गुरु के सानिध्य में; दीवानों, मस्तों की संगति में। प्रार्थनापूर्ण लोग जहां इकट्ठे हों वैसी मधुशाला में उठो-बैठो। जहां किसी जीवन में श्रद्धा का, आस्था का दीया जला हो, अपने बुझे दीये को उस दीये के करीब लाओ। जले दीयों के करीब आकर बुझे दीये जल जाते हैं। ज्योति  से ज्योति जले!
भीखा के सूत्र:
पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।
घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।
पाहुन आयो भाव सों...परमात्मा आया है, अतिथि होकर आया है, पाहुना होकर आया है, द्वार पर खड़ा है। जैसे सुबह-सुबह सूरज निकले और उसकी किरणें द्वार पर खड़ी हों और तुम्हारा द्वार बंद हो तो किरणें जबर्दस्ती भीतर प्रवेश नहीं करेंगी। जब इस सूरज की किरणें जबर्दस्ती भीतर प्रवेश नहीं करतीं, अनधिकार प्रवेश नहीं करतीं, बिना आज्ञा के प्रवेश नहीं करतीं, तो उस परम प्रकाश की किरणें तो कैसे बिना आज्ञा के प्रवेश करेंगी! तुम निमंत्रण दो, तुम पलक-पांवड़े बिछाओ, तो ही वह परम अतिथि, पाहुना भीतर प्रवेश करे।
पाहुन आयो भाव सों...और परमात्मा तो जब भी आता है प्रेम से ही आता है। परमात्मा यानी प्रेम। परमात्मा का कुछ और होने का ढंग ही नहीं है। परमात्मा का अर्थ यानी प्रेम। परमात्मा का निचोड़ प्रेम है, सुगंध प्रेम है।
पाहुन आयो भाव सों...बहुत भाव से, बहुत प्रेम से परमात्मा द्वार पर खड़ा है, और तुम? तुम सोये हो। तुम्हारी आंखें बंद हैं। तुम्हारी कोई तैयारी नहीं है अतिथि को स्वीकार करने की।
...घर में नहीं अनाज...! भीखा तो गांव के आदमी हैं, गांव की भाषा में बोलते हैं। वे यह कह रहे हैं कि तैयारी बिलकुल भी नहीं है, घर में अनाज भी नहीं है और पाहुन द्वार पर आकार खड़ा हो गया है अब क्या करोगे!
घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।
वे किस अनाज की बात कर रहे हैं--भजन की। क्योंकि परमात्मा का तो एक ही स्वागत हो सकता है, वह भजन से। वह तो भजन का भूखा है। उसकी भूख तुम किसी और तरह नहीं मिटा सकोगे, वह तो भक्ति का भूखा है। तुम्हारे भीतर भक्ति हो, भजन हो, तो परमात्मा तृप्त हो जाए।
और ध्यान रखाना, जिस दिन परमात्मा तुमसे तृप्त होगा, उसी दिन तुम तृप्त हो सकोगे, उसके पहले नहीं। कभी नहीं, हजारों-हजारों जनमों में भी नहीं, अनंत-अनंत मार्गों पर भटको, लेकिन तुम तृप्त न हो सकोगे। जब तक परमात्मा तुमसे तृप्त नहीं है, तब तक तुम तृप्त न हो सकोगे। उसकी तृप्ति ही तुम्हारी अंतरात्मा में झलकेली तृप्ति की भांति। उसकी तृप्ति ही तुम्हारे दर्पण में तृप्ति की भांति प्रतिबिम्ब बनेगी।
जिस दिन परमात्मा तुमसे तृप्त है, उस दिन तुम तृप्त हो। और कोई तृप्ति नहीं है। और सब तृप्तियां भ्रांतियां हैं।
भजन के बिना तुम क्या हो? एक ऐसा घर जिसमें दीया नहीं जला है। एक ऐसा फूल जो खिला नहीं। एक ऐसा द्वार जो बंद है। एक ऐसा प्राण जिसमें धड़कन नहीं। भजन के बिना तुम क्या हो? एक लाश। एक मुर्दा। एक धोखा जवीन का। चल लेते हो, उठ लेते हो, माना; बाजार चले जाते हो, दुकान कर लेते हो, चार पैसे कमा लेते हो, माना; लेकिन यह सब यंत्रवत हो रहा है--इसमें जागरूकता नहीं है, इसमें अहोभाव नहीं है, इसमें आनंद नहीं है, उमंग नहीं है, उत्साह नहीं है, उत्सव नहीं है--इसमें जीवन का कोई लक्षण नहीं है।
सिर्फ सांस का बारह भीतर आना जीवन है? सिर्फ भोजन कर लेना और पानी पी लेना और फिर मल-मूत्र का त्याग कर देना जीवन है? रोज सुबह उठ आना और आपाधापी में लग जाना और सांझ थककर फिर बिस्तर पर पड़ जाना और फिर सुबह वह आपाधापी--यह जीवन है? इस पुनरुक्त्ति को तुम जीवन कहते हो! कहां है इसमें काव्य? कहां है संगीत? कहां है नृत्य? न कोई बांसुरी बजती है, न किसी मृदंग पर थाप पड़ती है।
अगर यह जीवन है, तो मृत्यु क्या बुरी? अगर यह जीवन है, तो मृत्यु इससे लाख गुनी बेहतर। कम-से-कम विश्राम तो होगा। कम-से-कम कब्र में शांति तो होगी। कम-से-कम कब्र पर हरी घास तो ऊगेगी। कम-से-कम कब्र पर कभी कोई फूल तो खिलेगा। तुम खाद बन जाओगे, उस फूल पर कभी कोई तितली मंडराएगी, कभी कोई चांद ऊगेगा; उस फूल के पास कभी कोई पक्षी गीत गाएगा, कोई मोर नाचेगा--कुछ तो होगा! मगर तुम्हारी जिंदगी में कब मोर नाचे? कब तितलियां उड़ी? कब सुवास उठी? कब प्रकाश झरा?
नहीं, भजन के बिना तुम बिलकुल खाली हो, बिलकुल रिक्त हो।
...भजन बिनु खाली जानो।
सत्यनाम गयो भूल, झूठ मन माया मानो।।
और जिसे याद करना है...स्मरण रखना, वह कोई नयी बात नहीं है। जिसे याद करना है, उसे हम भूल गये हैं, वह हमें याद थी। हर बच्चा जब पैदा होता है तो उसे परमात्मा की याद होती है। अभी-अभी मौत से पार हुआ है, अभी-अभी नौ महीने पहले मरा है। मौत का झटका, मौत का धक्का, झकझोर गया है। एक जिंदगी बेकार हो गयी थी। मौत ने आकर चौंका दिया था, नींद तोड़ दी थी, सब ख्वाब बिखर गये थे। और फिर नौ महीने गर्भ की शांति, शून्यता, सन्नाटा, ध्यान...! एक तो मौत का झटका जो कह गयी कि जिंदगी बेकार है। कि तुम जैसे जिये व्यर्थ जिये, न जीते तो भी चलता। कि तुमने कुछ पाया नहीं--कोई घाट न मिला, कोई पाट न मिला, नाव मझदार में डूब गयी, अब देख लो। और तुम अपवाद नहीं होंगे। सब मरते हैं, तुम मरे, देखो अब मिट्टी मिट्टी में गिरी। एक तो मौत जगा गयी, मौत कह गयी कि मिट्टी मिट्टी में चली और चैतन्य उड़ चला। और फिर नौ महीने का विश्राम। नौ महीने मां के गर्भ में न कोई काम है, न कोई चिंता है। मौत का झकझोरा फिर नौ महीने का विश्राम।
बच्चा जब पैदा होता है, परमात्मा की याद से भरा पैदा होता है, होना ही चाहिए। फिर उसे याद आ गयी होती है अपने असली घर की। मगर हम भुलाने में लग जाते हैं। हम उसे भरमाने में लग जाते हैं। समाज, शिक्षा, राज्य, सबकी चेष्टा यह है--भरमाओ, भटकाओ। हम जल्दी से बच्चे को भाषा सिखाने में लग जाते हैं ताकि मौन खंडित हो जाए। जिस दिन बच्चा मम्मी, पप्पा, डैडी, कहने लगता है, हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। घर में आनंद की लहर छा जाती है कि बच्चा भाषा सीख गया। रोओ उस दिन क्योंकि बच्चा मौन भूल रहा है, बच्चे की शांति खंडित हो रही है। बच्चे की शांत झील में तुमने कंकड़-पत्थर फेंक दिये। डैडी--एक पत्थर, मम्मी--एक पत्थर और। झील को तुम झकझोरने लगे। मगर मम्मी खुश है, डैडी प्रसन्न हैं; उनके अहंकार को तृप्ति मिल रही है, उनका बेटा बोलने लगा। बस अब सिखाये चलो। अब चूकना शूरु हुआ। अब भटकना शृरु हुआ। अब फिर वही चक्कर।
सत्यनाम गयो भूल, झठ मन माया मानो।।
अब भूल जाएगा परमात्मा फिर, और झूठ में मन उलझ जाएगा। और बहुत मुश्किल है कि कभी कोई मिल जाए जो तुम्हें जगा दे। क्योंकि धीरे-धीरे तुम्हारी नींद सघन करने के उपाय किया जा रहे हैं। धारणाएं, सिद्धांत, विश्वास, शास्त्र, सब नींद को गहरा करते हैं; सब अफीम हैं; सब सांत्वनाएं हैं। झूठी सांत्वनाएं क्योंकि सत्य अतिरिक्त और कोई सांत्वना सच्ची नहीं हो सकती। कौन तुम्हें जागएगा? कौन चोट करेगा?
मैंने सुना है, एक फकीर एक यूनिवर्सिटी में अध्यापक हो गया। जैसे ही वह नया-नया पहले दिन कक्षा में उपस्थित हुआ तो एक मनचले छात्र ने अपना नाम आने पर खड़े होकर कहा: यस मैडस!
सनते ही कक्षा में हंसी गूंजने लगी। लेकिन फकीर तो फकीर था! फकीर भी खिलखिला कर हंसा और इतने जोर से हंसा कि कक्षा में धीमी-धीमी जो हंसी चल रही थी, वह एक झटके में बंद हो गयी। और फकीर ने फिर शालीनता से कहा:
"यह इश्क मोहब्बत की तासीर कोई देखे,
अल्लाह भी मजनुं को लैला नजर आता है।'
अब तो पूरी कक्षा ठहाकों से गूंज उठी। बेचारे मजनूं की हालत सच में देखने जैसी थी।
कौन तुम्हें चौंकाएगा? कौन तुम्हें झकझोरगा? फकीरों से मिलना तो मुश्किल होता जा रहा है। जिनसे तुम मिलोगे भी वे भी बंधनों में बंधे हैं--कोई हिंदु है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है। और जो हिंदु है, जो मुसलमान है, जो ईसाई है, वह साधु नहीं है, वह साधु नहीं हो सकता। साधु का क्या कोई धर्म होता है? साधु के तो सब धर्म अपने होते हैं। साधु तो स्वयं धर्म होता है। साधु का कोई विशेषण नहीं होता। जब तक कोई कहे कि जैन साधु तब तक समझना कि साधु नहीं। जब कोई कह सके हिम्मत से कि साधु, विशेषणरहित तब समझना कि कुछ बात हुई, कोई क्रांति घटी।
ऐसा कोई साधु मिल जाए, ऐसी कोई संगति मिल जाए, तो तुम जाग सकते हो--गुरु-परताप साध की संगति--नहीं तो इस संसार में तो सब सुलाने के आयोजन हैं। यह संसार तो सोये हुए लोगों की भीड़ है। और सोये हुए लोग जागे हुए आदमी को बर्दाश्त नहीं करते क्योंकि जगा हुआ आदमी कुछ खटर-पटर करेगा, कुछ शोरगुल करेगा, उठेगा, बैठेगा...।
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। मेरे एक प्रोफेसर थे। दर्शन-शास्त्र के प्रोफसर थे तो जैसा होना चाहिए वैसे थे--झक्की थे, बहुत झक्की थे। उनकी कक्षा में मैं अकेला ही विद्यार्थी था। उनका कक्षा में कोई विद्यार्थी होने को राजी भी नहीं होता था क्योंकि उनकी कक्षा भी बड़ी अजीब थी। वे कभी तीन घंटे बोलते, कभी चार घंटे बोलते। वे कहते कि घंटा जब शुरू होता है तब तो मेरे हाथ में है शुरू करना, लेकिन जब तक मैं पूरा न हो जाऊं, जब तक मैं अपनी बात पूरी न कह दूं, तब तक मैं रुक नहीं सकता। तो चालीस मिनट में घंटा तो तब जाएगा लेकिन चालीस मिनट में मैं अपनी बात कैसे पूरी कहूंगा, जब पूरी होगी बात तब होगी।
कौन बैठे तीन-चार घंटा? मैं बैठ सकता था, मैंने उनसे कहा: देखिए, मेरा भी एक नियम है। वे बोले: तुम्हारा क्या नियम है? मेरा नियम यह है कि मैं आंख बंद करके सुनता हूं और मैं बिलकुल पसंद नहीं करता कि बीच में मुझे कोई बाधा डाले। आप बोलें जितना बोलना है। उन्होंने कहा मुझे इसमें कोई अड़चन नहीं है। तो मैं उनकी कक्षा में सोता था, वे बोलें जितना बोलना हो। उन्होंने मुझे यह भी कह दिया था--अगर तुम्हें बीच में कभी बाहर जाना हो तो तुम जा सकते हो, मगर पूछने की जरूरत नहीं है कि क्या मैं बाहर जाऊं, क्योंकि उससे मेरे बोलने में बांधा पड़ती है। तुम बाहर जाओ, तुम घूम-फिर कर आ जाओ, मैं बोलता रहूंगा। मैं अपनी धारा में किसी तरह का खंडन पसंद नहीं करता।
दोत्तीन-चार साल से उनकी कक्षा में एक भी विद्यार्थी नहीं आया था। तीन-चार साल बाद मैं आया था तो उनका मैं बहुत प्यारा हो गया, बहुत चहेता हो गया। उन्होंने कहा कि ऐसा क्यों नहीं करते--वे भी अकेले थे, कभी उन्होंने विवाह किया नहीं--तुम क्यों हॉस्टल में पड़े हो, मेरे पास बड़ा बंगला है, तुम वहीं आ जाओ। तो मैंने कहा यह भी ठीक है। मैं उनके बंगले में पहुंच गया। वहां बड़ी अड़चन खड़ी हुई। अड़चन यह खड़ी हुई कि वे दो बजे रात उठ आते और गिटार बजाते। अब दो बजे रात कोई गिटार बजाये तो मैं सो ही न पाऊं; दो बजे के बाद तो सोना असंभव। इलेक्ट्रिक गिटार पूरे घर में गूंजे
एक दिन मैंने सुना। दूसरे दिन मैंने उनसे कहा कि क्षमा करें, मेरी भी एक आदत है।
कहो, क्या आदत है?
मैंने कहा: मैं दो बजे तक जोर-जोर से पढ़ूंगा। तो मैं दो बजे रात तक इतने जोर-जोर से पढ़ता कि वे सो न पाते।
तो दूसरे दिन सुबह मुझसे बोले कि देखो, मैं अपनी आदत छोड़ूं, तुम अपनी आदत छोड़ो। फिर चल सकता है। क्योंकि इस घर में अगर हम दो में से एक भी जागा रहा तो दूसरा सो नहीं सकता। और तुम्हारी भी खूब आदत है, मैंने पढ़ने वाले बहुत देखे मगर जोर-जोर से पढ़ने वाला...इतने जोर से जैसे तुम हजार, दो हजार आदमियों के सामने व्याख्यान दे रहे हो। मैंने कहा: भविष्य का अभ्यास कर रहा हूं।
उन्होंने गिटार छोड़ दिया, मैंने पढ़ाई छोड़ दी, तब कहीं सो सके हम दोनों अन्यथा सोना मुश्किल था।
एक भी जागा हो तो सोये लोगों को अड़चन तो खड़ी करेगा। और जगा हुआ आदमी इसलिए हमें कष्टपूर्ण मालूम होता है। हम जागे हुए आदमी बर्दाश्त नहीं करते, हम उनके साथ दर्व्यवहार करते हैं। और वे ही हैं जो हमारे सौभाग्य हैं। और वे ही हैं जिनसे हमारे सौभाग्य की संभावना है। और वे ही हैं जिनसे हमारा रूपान्तरण हो सकता है, हमारा अंधकार कटे और सुबह हो। और वे ही हैं जिनसे हम नाराज हैं। हम पूजा करते, सम्मान करते, सत्कार करते, उनका जो हमारी नींद को और गहरा कर देते हैं।
हम पंडित-पुरोहितों का बहुत सम्मान करते हैं। मगर जीसस के साथ तुमने क्या किया? और सुकरात के साथ तुमने क्या किया? और मंसूर के साथ तुमने क्या किया? ये जागे हुए लोग जिनके साथ तुम जुड़ जाते तो तुम्हारा भी दीया जल जाता, तो तुम भी रोशन हो गये होते। शायद तुम्हें वापस दुनिया में आने की जरूरत न पड़ती, अब तक तुम आकाश में लीन हो गये होते। अब तक सारा अस्तित्व तुम्हारा होता, इस छोटी-सी देह मएं तुम बंद न होते। मगर नहीं, जागा हुआ आदमी कष्ट देता है।
सोयों की दुनिया है यह। यहां सब सोये हैं; इनके साथ तुम भी सोये रहो तो सोयों को भी अच्छा लगता है; तुम्हें भी सुविधा होती है।
अदालत में वकील पक्षों में बहस चल रही थी। गरमा-गरमी धीरे-धीरे बढ़ने लगी और बातें गाली-गलौज तक पहुंचने लगी। सरकारी पक्ष का वकील अभियुक्त्त के वकील से बोला; "तुम गधे हो।' अभियुक्त का वकील बोला: "गधा मैं नहीं, गधे तुम हो।' मजिस्ट्रेट ने अपनी हथौड़ी से टेबल को ठोंकते हुए कहा: "सभ्य जनों, आप लोग भूल रहे हैं कि मैं भी यहां हूं।'
सोये हुए लोगों की दुनिया--उनका गणित एक, उनका तर्क एक, उनका हिसाब एक, उसमें एक तालमेल होता है। जागा हुआ आदमी एकदम तालमेल के बाहर हो जाता है; उसकी भाषा और हो जाती है, उसका गणित और हो जाता है। वह तुमसे विपरीत दिशा में चलने लगता है। तुम भागे जा रहे हो छायाओं के पीछे, वह पीठ कर लेता है। मगर जागे हुए का साथ करोगे तो ही जाग सकते हो।
सत्यनाम गयो भूल...जिनको याद आ गया हो सत्यनाम; जो पुनः छोटे बच्चों की भांति हो गये हैं; जिन्हाोने फिर से जन्म ले लिया है, द्विज हो गये हैं जो; ब्राह्मण हो गये हैं जो; जिन्होंने ब्रह्म को जान लिया है--वे ही तुम्हें जना सकेंगे।
झूठ मन माया मानो...तन बड़े झूठे में पड़ गया है, बड़ी माया में उलझ गया है।
पहिये की धुरी पर मक्खी एक बैठकर,
गर्व से भरी और बोली यों एंठकर,
कितनी धूल उड़ रही है मेरी पदचाप से?
कहोगे न यह सब मेरे ही प्रताप से?
पिद्दी उठ बोला तब, यह भी होगा सही,
पैरों पर आसमान क्या तू देखती नहीं?
सून गर्वोंक्ति, बोला गधा एक सस्वर,
देखा अरे, गायक है मुझ-सा कहीं पर?
विस्मित विधाता देख बोले यह क्या किया?
पुतले में हाथी का अहंकार भर दिया?
अब रचा एक नया मानव का संसार।
पर किया नर ने विधाता का ही बहिष्कार।
गधे-धोड़े सब पीछे पड़ गये, छूट गये बहुत पीछे, आदमी ने अहंकार की सर्वाधिक उदघोषणा की। इसीलिए तो फिर परमात्मा ने आदमी के बाद कुछ नहीं बनाया; थक गया, घबड़ा गया, डर गया। बहुत भूल वैसे ही हो चुकी थी आदमी को बनाकर, आदमी के बाद फिर उसने बनाना ही बंद कर दिया। आदमी ने काफी मूढ़ता प्रदर्शित की है। सबसे बड़ी मूढ़ता यह है कि उसका अहंकार इतना है, उसका मैं-भाव इतना है कि वह परमात्मा को स्मरण करे भी तो कैसे करे! परमात्मा के स्मरण में तो समर्पण करना होगा; अहंकार को अर्पित करना होगा; चरणों में झुकना होगा। भजन और क्या है? झुक जाने की कला; मिट जाने की कला। भजन और क्या है? अहंकार का विसर्जन और प्रभु का स्मरण, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
महाप्रतापी रामजी, ताको दियो बिसारि
अब कर छाती का हनो, गये जो बाजी हारि।।
परमात्मा को तो भूल गये हो। जिसके साथ जुड़कर तुम महाशक्तिवान हो जाओ, उसे तो विस्मरण कर दिया है, और क्षुद्र-क्षुद्र बातों को खोज रहे हो--धन को, पद को, प्रतिष्ठा को। दो कौड़ी के खिलौनों में उलझ गये हो। असली तो भूल गया, नकली ने खूब भरमा लिया है। स्वभावतः नकली में कुछ खूबियां हैं जो असली में नहीं हैं; जो असली में हो ही नहीं सकतीं। नकली खूब विज्ञापन करता है। असल में नकली जीता विज्ञापन पर है, असली को तो विज्ञापन की कोई जरूरत नहीं होती। सूरज सुबह निकलता है, कोई घोषणा नहीं करता; कोई घोषणा आवश्यक नहीं है। उसके निकलते ही फूल खिलने लगेंगे; पक्षी गीत गाएंगे; लोग जगने लगेंगे। लेकिन किसी दिन अगर कोई झूठा सूरज निकले तो पहले विज्ञापन करेगा, डुंडी पिटवाएगा, शोरगुल मचवाएगा--तो ही शायद कोई भूला-भटका पक्षी गाए, कोई भूला-भटका फूल खिल जाए, कोई भूला-भटका आदमी जग जाए।
नकली विज्ञापन पर जीता है। तुम जिन नकली बातों में उलझे हो उनका कितना विज्ञापन है? सदियों-सदियों का विज्ञापन है। इतना लंबा उनके विज्ञापन का इतिहास है कि तुम याद भी नहीं कर सकते कि कब विज्ञापन शुरू हुआ, कब भ्रांतियां तुम पर थोपी जानी शुरू की गयीं। इतनी थोपी गयी हैं, इस तरह थोपी गयी हैं कि झूठ सच मालूम होने लगा है।
अडोल्फ हिटलर ने ठीक लिखा है अपनी आत्मकथा में कि अगर झूठ को बार-बार दोहराया जाए तो वह सच जैसा मालूम होने लगता है।
यही तो विज्ञापन की सारी कला है--बस दोहराए जाओ, फिक्र मत करो कि लोग मानते हैं कि नहीं मानते। लोगों की तीन सीढ़ियां हैं मनाने की। पहले तो वे हर चीज को कहते हैं गलत, ठीक नहीं हो सकती, असंभव। यह पहली सीढ़ी है; समझो कि उन्होंने मानने की दुनिया में कदम रख दिया। दूसरी बात वे कहते हैं कि शायद हो सके, शायद संभव हो--यह दूसरी सीढ़ी। और तीसरी सीढ़ी? वे कहते मैंने तो पहले ही कहा था कि यह ठीक है। हम तो पहले से कहते थे, कोई मानता नहीं था।
बस धीरज चाहिए विज्ञापन करने का। झूठ से झूठ बात पर लोगों को भरोसा लाया जा सकता है। कितनी झूठी बातों पर तुम्हें भरोसा है कभी तुमने ख्याल किया? कपड़े के एक टुकड़े को बांध कर झंडा बना देते हैं और चले लोग--झंडा ऊंचा रहे हमारा! चाहे प्राण भले ही जाएं, झंडा नहीं झुकना चाहिए। और झंडे में है क्या? सिर्फ सदियों-सदियों का प्रचार है।
नक्शों पर देश बांट दिये गये हैं और देश बन गये! और उन सीमाओं पर लोग प्राण गंवाते हैं। और सीमायें झूठी हैं। आदमी कहीं भी बंटा हुआ नहीं है। सारी पृथ्वी एक है। मगर छोटे-छोटे अड्डे बना लिए हैं।
राजनीतिज्ञ जी भी नहीं सकता इन झूठों के बिना। ये झंडों के झूठ, ये डंडों के झूठ, ये रेखाओं के झूठ--इन्हीं के बीच तो राजतीतिज्ञ जीता है, यही तो उसकी दुनिया है। ये सारे झूठ हट जाएं तो राजनीति समाप्त हो जाए। राजनीति समाप्त हो जाए, तो युद्ध समाप्त हो जाएं, वैमनस्य समाप्त हो जाए। लेकिन तब बहुत से लोगों का मजा ही चला जाएगा। उनका मजा ही यही है। नेतृत्व उनका मजा है। अगर दुनिया में शांति हो तो नेताओं की कोई जरूरत नहीं। दुनिया में लोग अगर प्रेम से जी रहे हों तो नेताओं की क्या आवश्यकता है? लोग लड़ने चाहिए, लोग अज्ञानी रहने चाहिए, तो ही पंडित-पुरोहित को भी जीने की सुविधा है?
इन सबकी चेष्टा यह है कि तुम परमात्मा को भूल जाओ क्योंकि जो परमात्मा को याद रखेगा वह इनमें से किसी जाल में भी नहीं पड़ सकता है। परमात्मा को भूलते ही तुम शिकार हो जाओगे हजार तहर के झूठों के। एक दीया क्या बुझता है, अंधेरे में हजार तरह के झूठ चलने लगते हैं। एक दीया क्या जलता है, अंधेरे के हजारों झूठ एक साथ समाप्त हो जाते हैं।
अब कर छाती का हनो, गये सो बाजी हारि
राम को तो भूल बैठे हो, फिर छाती पीट रहे हो कि जिंदगी में कुछ नहीं है, कि कोई अर्थ नहीं है; कि क्या करें? क्या न करें? राम को तो भूल बैठे हो जिससे अर्थ हो सकता था, गरिमा हो सकती थी, गौरव हो सकता था। वृक्ष को तो पानी नहीं देते हो और कहते हो फूल आते नहीं!
फ्रेडरिक नीत्से ने पश्चिम में घोषणा की--ईश्वर मर गया है, और फिर फ्रेडरिक नीत्से पागल हो गया यह घोषणा करके। क्योंकि फिर सवाल उठा कि जिंदगी में अर्थ क्या है? फिर जीएं क्यों? जीने का सार क्या है? पहले ईश्वर नहीं है यह घोषणा कर दी, अहंकार ने यह घोषणा करवा दी कि ईश्वर नहीं है अब मुसीबत आयी। बिना ईश्वर के अर्थ खो गया। बिना ईश्वर के संदर्भ ही न बचा जिसमें अर्थ पैदा हो सके।
बिना ईश्वर के हम क्या हैं? सिर्फ दुर्घटनाएं। सिर्फ मिट्टी के पुतले--आज हैं, कल नहीं हो जाएंगे; थे या नहीं बराबर हो जाएगा। ईश्वर है तो शाश्वतता है। ईश्वर है तो अमरता है। ईश्वर है तो देह के बाद भी हम जिएंगे। ईश्वर है तो देह के बाद भी जीवन रहेगा--और नये पंख, और नये आयाम। ईश्वर है तो अंत नहीं है, अनंत है। और अनंतता के ही संदर्भ में अर्थ हो सकता है। नहीं तो इस छोटी-सी जिंदगी का क्या मूल्य?
इस बात को ठीक से समझ लेना--अर्थ होता है हमेशा अपने से बड़े संदर्भ में। एक कविता है, उसकी एक पंक्ति में अर्थ है लेकिन कविता के संदर्भ में, अगर कविता को तुम अलग कर लो और पंक्ति को बचा लो, पंक्ति में कोई अर्थ न रह जाएगा। फिर पंक्ति में भी शब्दों में अर्थ है, लेकिन पंक्ति के संदर्भ में, अगर एक शब्द को तुम अलग खींच लो तो उसमें कुछ अर्थ न रह जाएगा। फिर शब्द में भी अर्थ है लेकिन अगर शब्दों से तुम अक्षरों को अलग खींच लो तो अक्षरों में क्या अर्थ रह जाएगा? अ में क्या अर्थ है? ब में क्या अर्थ है? "अब' में अर्थ है। लेकिन अ में कोई अर्थ नहीं, ब में कोई अर्थ नहीं। रा में क्या अर्थ है? म में क्या अर्थ है? लेकिन "राम' में कोई अर्थ नहीं। फिर अगर राम की पूरी कथा के संदर्भ में राम को लो तो और बहुत अर्थ है। और अगर सारे जगत के संदर्भ में राम को लो तो अर्थ ही अर्थ है, अर्थ का महासागर है।
अर्थ होता है अपने से बड़े संदर्भ में लेकिन आदमी का अहंकार चाहता है--हमसे ऊपर कोई भी नहीं। बस वहीं अड़चन हो जाती है। जिसने कहा मुझसे ऊपर कोई भी नहीं, उसके जीवन में अर्थ खो जाता है। जिसने कहा मुझसे ऊपर सब कुछ है--आकाश पर आकाश हैं; आसमानों पर आसमान हैं--उसके जीवन में अर्थ ही अर्थ की वर्षा हो जाती है। फिर ऐसा व्यक्ति कुछ भी बोले उसका एक-एक वचन उपनिषद् है। फिर ऐसा व्यक्ति उठे तो उसका उठाना, उसका बैठना उपासना है। ऐसा व्यक्ति न बोले तो उसके न बोलने में संगीत है।
बोलों के देवता!
बोल कुछ ऐसे बोलो!
ऐसे बोल कि
जिनके शब्दों में अमरत्व-सिंधु लहराए,
ऐसे बोल कि
जिनको सुनने उच्च हिमालय शीश उठाए
ऐसे बोलो: युग की सांसों में लय की मधुता तुम घोले!
सूझों के अंकुर
उन्मादों की उर्वर धरती पर फूटें,
कहीं न कोमल कला-कुसुम
नव कठिन ज्ञान के हाथों टूटें,
अन्तारात्मा-कलाकार! मत, निज को बुद्धित्तुला पर तोलो!
करो मूकता की अर्चा
तुम व्यथा-अश्रुओं को न गिराओ,
उन्मादी बलिदान-पंथ पर
फूलों जैसे शीश चढ़ाओ,
वीणा-घट में भरे वेदना-रस, जीवन-सिंचित कर डोलो!
बोलों के देवता!
बोल कुछ ऐसे बोलो!
ऐसे बोल निश्चित पैदा होते हैं। मगर ऐसे बोल तुमसे पैदा नहीं होते, तुम जब माध्यम होते हो तब पैदा होते हैं। जब तुम सिर्फ बांसुरी होते हो और परमात्मा के ओंठों पर अपनी बांसुरी को छोड़ देते हो, तब ऐसे बोल पैदा होते हैं जिनमें माधुर्य है, जिनमें रस है, जिनमें अमृत है! ऐसे ही उपनिषद जन्मे। ऐसे ही कुरान जन्मा। ऐसी ही बाइबिल जन्मी। ऐसे ही धम्मपद जन्मा। ऐसे ही भीखा के ये सीधे-सीधे बोल जन्मे।
महाप्रतापी रामजी, ताको दियो बिसारि
अब कर छाती का हनो, गये सो बाजी हारि
इस दुनिया में सिर्फ एक ही बाजी है--हारो या जीतो। राम के साथ जुड़ गये तो जीत गये, राम से टूट गये तो हार गये, और कुछ बाजी नहीं है। हिसाब-किताब सीधा-सीधा, साफ-साफ है, दो और दो चार जैसा गणित स्पष्ट है। जीतना हो, राम से जुड़ जाओ; हारना हो, राम से टूट जाओ। लेकिन एक बात तुम्हें याद दिला दूं, अगर जीतने के लिए राम से जुड़े तो कभी न जीतोगे। अगर जीतने की आकांक्षा से राम से जुड़े, तब तो तुम राम से जुड़े ही नहीं, तुम तो अहंकार  से ही जुड़े रहे, तुम्हारा अहंकार राम का भी शोषण करने लगा। यह भजन न हुआ, यह भक्ति न हुई, यह भाव न हुआ--यह तो शोषण हुआ। तुमने राम को भी साधन बना लिया, साध्य तो तुम ही रहे।
मैं फिर कहता हूं: जीतना हो तो राम से जुड़ो, मगर जीतना तुम्हारी आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। राम से जो जुड़ता है वह परिणाम में जीत ही जाता है। मगर राम से जुड़ने की कला भी समझ लो--जो हारता है राम के सामने, वही जुड़ता है। इस विरोधाभास में ही सारी भक्ति का शास्त्र है। जो हारता है, राम से जुड़ता है...हारे को हरिनाम! और जो हार कर राम से जुड़ गया, जीत गया। यह प्रेम का गणित है। यहां हार जीत बन जाती है और यहां जीत हार हो जाती है।
भीखा गये हरिभजन बिनु, तुरतहिं भयो अकाज।
और अगर बिना परमात्मा से जुड़े चले गये फिर, तो तुरंत ही अकाज हो जाएगा। क्या अकाज? इधर मरे, उधर जन्मे। देर नहीं लगती, क्षण-भर की देर नहीं लगती। क्योंकि मरते वक्त, आदमी एक ही आकांक्षा से भरा होता है--जीवेषणा। मरते वक्त सारी आकांक्षाएं एक ही आकांक्षा बन जाती हैं--कैसे जीऊं, कैसे और जीऊं! सारा प्राण एक ही बिंदु पर केंद्रित हो जाता है--मरूं नहीं, मृत्यु न हो। यही आकांक्षा नये जन्म में ले जाती है। मरते वक्त जिसके मन में जीने की प्रबल आकांक्षा है, वह मरते ही तत्क्षण किसी गर्भ में प्रवेश कर जाता है। उसको कहा अकाज; बुरा काम हो गया, हानि हो गयी।
भीखा गये हरिभजन बिनु, तुरतहिं भयो अकाज।
तो भीखा कहते हैं: सावधान किये देता हूं कि अगर हरिभजन के बिना गये...बहुत बार गये हो, हर बार अकाज हुआ, इस बार सम्हलो! अब तो सम्हलो। इस बार सम्हल कर जाओ! इस बार मरते क्षण हरिभजन हो, जीवेषणा नहीं। इस वक्त मरते क्षण राम हृदय में हो, काम नहीं। इस बार मरते क्षण प्रार्थनापूर्ण हो हृदय, वासनापूर्ण नहीं। इस बार मरते वक्त देह से, मन से मुक्त हो जाने की प्रबल आकांक्षा, अभीप्सा हो, तो सुकाज हो जाएगा। फिर नयी देह नहीं होगी, नया आवागमन नहीं होगा। फिर तुम मुक्त आकाश के हिस्से हो जाओगे, सारा आकाश तुम्हारा होगा। फिर तुम क्षुद्र देह में न बंधोगे। तुम सीमा में आबद्ध न होओगे। और वही दुख है, वही नर्क है। सीमा में असीम का आबद्ध होना नर्क है, असीम का असीम में लीन हो जाना स्वर्ग है।
पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।
और जब मौत आएगी तो परमात्मा खड़ा होगा द्वार पर...लेने आएगा तुम्हें कि शायद तैयारी हो तो तुम्हें ले जाए।...पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज...मगर तुम उसका स्वागत न कर पाओगे; तुम अपनी कौड़ियों में ही उलझे रहोगे।
मैंने सुना है, एक मारवाड़ी मर रहा था। आखिरी दम छोड़ने का क्षण, उसने आंख खोली, पास में बैठी अपनी पत्नी से कहा: लल्लू की मां, लल्लू कहां है?
तो पत्नी ने सोचा कि बेटे की याद आयी। कहा कि घबड़ाएं, आपके उस तरफ बैठा हुआ है। सांझ हो रही है और अंधेरा उतर रहा है और फिर मरते आदमी को ठीक-ठीक दिखाई भी नहीं पड़ रहा है। आप चिंता न करें लल्लू उस तरफ बैठा है।
तो और भी चिंता से मारवाड़ी ने पूछा: फिर कल्लू कहां है?
कहा आप बिलकुल चिंता न करें, पत्नी ने कहा, लल्लू के पास ही कल्लू भी बैठा हुआ है।
तब तो मारवाड़ी बिलकुल हाथ टेककर उठने की कोशिश करने लगा। पत्नी ने कहा: क्या करते हो? तो उसने पूछा: और छोटू कहां है?
तो कहा: वह आपके बिलकुल पैरों के पास बैठा है।
तो मारवाड़ी ने कहा: हद हो गयी, फिर दुकान कौन चला रहा है? जब सब यहीं बैठे हैं, तो दुकान कौन चला रहा है?
मरते वक्त भी "दुकान कौन चला रहा है' यहां मन अटका है। यह आदमी मर कर भी दुकान के चक्कर लगाएगा। देखेगा कि लल्लू, कल्लू, छोटू, क्या कर रहे हैं? कमाई ठीक से हो रही कि नहीं? वह जो कहानियां कहती हैं कि मर जाने के बाद लोग अपने गड़े हुए धन पर सांप बनकर बैठे जाते हैं, ठीक ही कहती होंगी क्योंकि अधिकतर लोग तो जिंदगी में ही, जिंदा ही सांप बनकर बैठे रहते हैं, मरकर भी और क्या करेंगे? जो जिंदगी-भर किया है वही मरकर भी करेंगे।
एक और मारवाड़ी के संबंध में मैंने सुना है। कोई मारवाड़ी नाराज न हो जाए। अब मैं करूं भी क्या; ये कहानियां किसी और के नाम से कहो तो जमती ही नहीं। मैं तो कई बार सोचता हूं कि किसी और के नाम से कहो। लेकिन किसी और के नाम से इनका कोई तालमेल ही नहीं होता। जैसे पश्चिम में सब कहानियां यहूदियों के नाम से कही जाती हैं, वैसे भारत में ऐसी कोई भी कहानी कहनी हो तो सिवाय मारवाड़ी के कोई उपाय ही नहीं। मारवाड़ी भारत का यहूदी है।
एक आदमी अपने मित्र को एक कहानी सुना रहा था। बोला कि दो यहूदी...बस इतना ही बोल पाया था कि उसके मित्र ने कहा: छोड़ो भी जी यहूदी, यहूदी यहूदी, कहानी किसी और नाम से नहीं कह सकते? उसने कहा: ठीक, और नाम से सही। दो ईसाई सिनागाग जा रहे थे...। अब सिनागाग तो यहूदी ही जाते हैं वह तो यहूदियों के मंदिर का नाम है। मगर कहानी तो घटनी है सिनागाग में। अब ईसाई को भी रखने से क्या होगा?
तो कोई मारवाड़ी नाराज न हो।
एक मारवाड़ी मर रहा था। मरना तो सभी को पड़ता है। मारवाड़ी तक को मरना पड़ता है और आदमियों की तो बिसात क्या! उसके चार-छः लड़के बैठकर विचार कर रहे थे। छोटा लड़का बोला: एक रॉल्सरॉयस गाड़ी लानी चाहिए। पिता के अंतिम समय उनकी लाश को रॉल्सरॉयस गाड़ी में रखकर ले चलेंगे मरघट।
दूसरे भााई ने कहा: फिजूल खर्चा, अरे, मुर्दें को क्या रॉल्सरॉयस में ले गये कि एम्बेसेडर गाड़ी में ले गये, क्या फर्क पड़ता है? एम्बेसेडर से काम चल जाएगा।
तीसरे भाई ने कहा कि मुर्दें को क्या फर्क पड़ता है एम्बेसडर...नाहक का खर्चा बांधना, पेट्रोल महंगा, पड़ोसी गाड़ी दें कि न दें, मेरा तो ख्याल है कि वह पुरानी तरकीब ही ठीक कि अर्थी बना लेगे और कंधे पर रख कर ले चलेंगे।
चौथे भाई ने कहा: मरघट है दूर, गरमी के दिन और देश मारवाड़। खुद तो हम जल-भुन जाएंगे ही, साथ कौन जाएगा अर्थी के? और इनकी जिंदगी-भर की कहानियां और इनके जिंदगी-भर के गोरख-धंधे...वैसे ही कोई साथ जाने को तैयार नही, तो इतनी दोपहरी में कौन साथ जाएगा? और हम भी थक-मर जाएंगे ले जाकर। बैलगाड़ी में रखकर ले चलना ठीक रहेगा।
पांचवें ने कहा: फिजूल की बकवास में पड़े हो, अपने घर जो गधा है, वही ठीक है उसी पर बांध देंगे और ले चलेंगे।
तभी बाप जो मर रहा था, यह सब सुन रहा था, एकदम उठ आया और कहने लगा: मेरी चप्पल कहां हैं?
उन्होंने कहा: चप्पल का क्या करोगे? उसने कहा कि मैं पैदल ही चलता हूं। अरे, अभी इतनी जान मुझमें शेष है, नाहक का खर्चा करना, गधे को सताना, आजकल घास भी महंगा और हर चीज की झंझट...। इतना तो मैं अभी चल सकता हूं। मरघट तक मैं पैदल ही चला चलता हूं, वहीं चलकर मर जाऊंगा, तुम्हें कोई दिक्कत ही नहीं आएगी।
मरते क्षण भी लोग सोचेंगे तो वही जिंदगी-भर सोचा है। जिंदगी-भर जैसे जिये हैं उसका ही तो निचोड़ मृत्यु के समय आंख के सामने खड़ा हो जाएगा।
भीखा गये हरिभजन बिनु, तुरतहिं भयो अकाज।
देर नहीं लगती, उसी क्षण अकाज हो जाता है।
पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।
जब मौत आती है मौत ही नहीं आती, मौत के दो चेहरे हैं...। तुमने तो मौत के संबंध में जो कहानियां सुनी हैं वे यही हैं कि भैंसे पर बैठकर यमदूत, काले, भयंकर...वह एक ही हिस्सा है कहानी का। वह तुमने गलत लोगों से सुनी हैं। गलत लोगों की जिंदगी में वही होता है। सौ में से निन्यानबे की जिंदगी में वही होता है लेकिन बुद्धों की जिंदगी में भैंसे पर बैठकर यमदूत नहीं आते, बुद्धों के जीवन में तो स्वयं परमात्मा आता है; बुद्धों के जीवन में तो स्वयं प्रकाश आता हैं; बुद्धों के जीवन में तो स्वयं अमृत बरसता है। जब उनकी मृत्यु आती है तो मृत्यु उनके लिए परमात्मा लिए परमात्मा का द्वार है।
यह तो बुद्धओं के जीवन में भैंसा और यमदूत इत्यादि आते हैं। यह उनकी ही वृत्तियों का प्रगाढ़ रूप है। यह उनके ही चित्त का प्रतिफलन है। यह उनके ही जीवन का सार-निचोड़ है। यह कालख उनके ही हृदय की कालख है और यह भैंसा उनकी ही वासना का भैंसा है।
जिन्होंने ध्यान को जाना है, भजन को जाना है, उन्होंने मृत्यु का एक बड़ा मधुर और मृदुल रूप जाना है। जीवन तो जीवन, मृत्यु भी उनके लिए कमल के फूलों की तरह आती है। बस फूलों की पंखड़ियां बरस जाती हैं। देह से छुटकारा दुखपूर्ण नहीं, होता, सुखपूर्ण होता है, महा-सुखपूर्ण होता है। देह से मुक्त्ति ऐसी होती है जैसे किसी ने पिंजड़ा खोल दिया और आकाश का पंछी उड़ चला।
वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।
और तुम पढ़ते रहो वेद और पुराण; और पढ़ते रहो कुरान और बाइबिल, कुछ भी न होगा।
जो अच्छर समुझा नाहिं...अगर तुमने अक्षर को, राम को, शाश्वत को, सनातन को, नित्य को नहीं जाना। अगर तुम अक्षरों में ही उलझे रहे और "अक्षर' को न जाना; शब्दों में ही उलझे रहे और निःशब्द को न जाना, तो तुम चूक जाओगे। तो तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी होगा नहीं। तुम कूड़ा-करकट इकटठा कर लोगे, भीतर तुम वैसे के वैसे रहोगे।
सत्य प्रिया ने एक अच्छी कहानी मेरे पास भेजी है। एक बहुत प्रसिद्ध सर्जन, उन्हें जरूरत थी एक सहायक र्डाक्टर की। विज्ञापन दिया। बड़े-बड़े डिग्रियों वाले र्डाक्टर उम्मीदवार थे। पर उन्होंने एक सरदार को चुना। सरदार अभी-अभी लौटा था, इंग्लैंड से बड़ी डिग्रियां लेकर लौटा था, खूब पढ़-लिखकर लौटा था, बड़े प्रमाण-पत्र लाया था, शेष सब उसके सामने फीके थे। और पहले ही दिन यह घटना घटी।
सर्जन ने एक बड़ा आपरेशन किया। आपरेशन पूरा होने से पहले ही मरीज होश में आ गया। सर्जन ने जल्दी से अपने सहायक सरदार को कहा कि दौड़कर क्लोरोफार्म की बोतल ले आओ। सरदार जी दूसरे कमरे से बोतल लेकर खट-खट जूते बजाते दौड़ते आ ही रहे थे कि चिकना फर्श और तभी घड़ी ने बाहर के घंटे बजाये, सो सरदार जी धड़ाम से फर्श पर गिरे, बोतल गिरी। बोतल टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी। सर्जन तो बहुत घबड़ाया। उसने कहा: सरदार जी, अब क्या होगा? क्योंकि अस्पताल में यह आखिरी बोतल थी।
सरदार जी बोले: सर, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए। मैं अभी मरीज को बेहोश किये देता हूं। यह कह कर सरदार जी ने अपना शर्ट उतारा और अपनी हथेली को कच्छ (कांख) पर मलकर मरीज को सुंधा दिया। मरीज फौरन बेहोश हो गया। सर्जन ने आश्चर्य से सरदार जी की तरफ देखा, तो सरदार जी बोले: आप बिलकुल चिंतित न हों; अभी कच्छा बाकी है।
इंग्लैंड भी हो आये, बड़ी डिग्रियां भी ले आये, मगर फिर सरदार आखिर सरदार...। ऊपर-ऊपर सब हो गया मगर भीतर की पकड़ तो वही रहेगी न! भीतर आदमी नहीं बदलता ऐसे। तुम वेद पढ़ो, पुराण पढ़ो, कंठस्थ कर लो, तोते हो जाओ, नहीं कुछ लाभ होगा।
वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।
अच्छर समुझा नाहिं, रहा जैसे का तैसा।
तुम नहीं समझोगे अगर राम को तो तुम वैसे के वैसे रहोगे, तुम्हारा पांडित्य किसी काम का नहीं है। गंगा नहाओ, काशी जाओ, काबा जाओ, कुछ काम नहीं पड़ने वाला है जब तक कि तुम्हारे भीतर उस पाहुने को तुम अंगीकार न कर पाओ, जब तक तुम्हारे भीतर ऐसी तैयारी न हो कि जब प्रभु आये तो तुम दानों हाथ आलिंगन के किए फैला सको, उसे बाहों में भर लो, कि जब प्रभु आये तो तुम उसके चरणों में सिर रख दो!
और प्रभु प्रतिक्षण आता है, प्रतिपल आता है, आता ही रहता है; उसके अतिरिक्त आने को कोई और है भी नहीं। हवा का झोंका आता है तो उसी ने दस्तक दी है। फूलों की गंध आयी तो वही आया। सूरज की किरण झांकी तो वही झांका। पक्षी गाया तो वही गाया। वृक्ष में फूल खिला तो वही खिला। उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जो जानते हैं उनके लिए परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। और जो नहीं जानते उनको परमात्मा को छोड़कर और सब कुछ है। मगर उस एक के साधने से सब सध जाता है और सब साधे सब जाय!
तुम वेद, कुरान पढ़ोगे, चालबाज हो जाओगे, होशियार हो जाओगे, बेईमान हो जाओगे। तुम्हारी बेईमानी पांडित्य का रूप ले लेगी। तुम शब्दों और तर्कों में कुशल हो जाओगे। तुम लफ्फाज हो जाओगे। तुम मीठ-मीठे अच्छेदार शब्दों के जाल बुनने लगोगे। उसमें तुम दूसरों को फंसाओगे ही फंसाओगे खुद भी फंस जाओगे। तुम नयी-नयी तरकीबें निकाल लोगे लेकिन वे सारी तरकीबें तुम्हें संसार में ही उलझाए रखेंगी
एक कॉलेज में यह घटना घटी। एक मोटी लड़की थी। किसी लड़के ने उसे भैंसे कह दिया। इस बात ने काफी तूल पकड़ा और बात आखिर प्रिंसपल तक जा पहूंची
प्रिंसिपल ने उसे लड़के को और उस लड़की को दोनों को अपने आफिस में बुलाया। प्रिंसपल ने लड़के से कहा: बेटे, तुम्हें शर्म आनी चाहिए, क्या महिलाओं से इस प्रकार अपशब्दों का प्रयोग करते हैं?
लड़के ने कहा: मगर सर, क्या किसी मोटी लड़की को भैंसे कहना गुनाह है?
प्रिंसिपल ने कहा: गुनाह तो नहीं, मगर यह बेढंगा है बेटे। तुम इसके माफी मांगो।
लड़का: तो महोदय, क्या किसी भैंस को मैं बहिनजी कह सकता हूं?
प्रिंसिपल ने कहा: हां-हां, क्यों नहीं, किसी भैंस को तुम बहनजी कहकर संबोधित करो कोई हर्जा नहीं है।
लड़का उस मोटी लड़की की तरफ मूंह करके बोला: माफ कर दीजिए बहिनजी
तुम होशियार हो जाओगे, शब्दों में कुशल हो जाओगे, तर्कजाल बैठालने लगोगे विवादी हो जाओगे, लेकिन इससे भजन पैदा नहीं होगा, भक्ति पैदा नहीं होगी। और जहां भजन नहीं, भक्ति नहीं, तुम वैसा के वैसा।
वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।
अच्छर समुझा नाहिं, रहा जैसे का तैसा।
 परमारथ सों पीठ, स्वार्थ सनमुख होइ बैसा।।
परमात्मा की तरफ पीठ कर ली है तुमने और स्वार्थ के सामने मुंह किये बैठे हो। स्वार्थ की पूजा कर रहे हो। झूठे देवताओं की पूजा कर रहे हो।
सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम मे मन लावै
और तुम्हारा सारे शास्त्रों का ज्ञान क्या है? उधार, बासा, दुसरों का। अपने अनुभव के बिना कोई मुक्ति नहीं है। अपने अनुभव के बिना कोई सत्य नहीं है। मैं अपना सत्य तुमसे कहूंगा, तुम तक पहूंचते-पहूंचते असत्य हो जाएगा।
मेरा सत्य तुम्हारा सत्य हो ही नहीं सकता--इस बात को बिलकुल निर्णायक रूप से हृदय में समा जाने दो। आसान और सस्ता यही है कि हम दूसरों के सत्यों को अपना समझ लें क्योंकि न मेहनत, न श्रम, न साधना...हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए...कुछ लगता ही नहीं। पढ़ ली किताब, अच्छी-अच्छी बातें सीख लीं। अच्छी-अच्छी बातें बोलने भी लगे, मगर बस ओंठ पर ही रहेंगी ये अच्छी बातें, तुम्हारे हृदय की कालिख और कल्मष इनसे धोया नहीं जाएगा। यह स्नान ऊपर-ऊपर रहा, धूल झड़ जाएगी देह की, मगर आत्मा की धूल का क्या होगा? और तुम्हारी बुद्धि बड़ी पारंगत हो जाएगी। हां, तुम दूसरों पर ज्ञान का नहीं बंधता, तुम्हारी तुम्हारी निर्दोंषता का बंधता है, सरलता का बंधता है। तुम्हारे पांडित्य का नहीं, तुम्हारी विनम्रता का। पांडित्य तो अहंकार का आभूषण है। परमात्मा से संबंध बनता है जब तुम कह पाते हो समग्र हृदय से कि मैं अज्ञानी हूं, कि मेरे जानने से भी क्या जाना जा सकेगा, मेरी औकात क्या, मेरी बिसात क्या, यह छोटी-सी खोपड़ी है और यह विराट अस्तित्व जैसे कोई चम्मच से सागर को भर-भरकर खाली करना चाहे...।
मैंने सुना है कि अरिस्तोतल--यूनान का सबसे बड़ा दार्शनिक--समुद्र के किनारे टहलने गया था। और कोई एक नंगा फकीर एक बड़े अजीब काम में लगा था-- एक छोटी-सी चम्मच से पानी भरकर लाता था सागर का और रेत में उसने एक गङ्ढा खोद रखा था, उसमें पानी डालकर फिर भागा जाता, फिर चम्मच भरता, फिर गङ्ढे में डालता, फिर भागा जाता।...दोनों ही काम फिजूल थे क्योंकि सागर कब खाली होगा इसकी चम्मच से और जो रेत में डाल जाता था पानी, जब तक लौटकर आता रेत पी जाती। न गङ्ढा भरता, न सागर खाली होता।
अरिस्तोतल देखता रहा, फिर उससे न रहा गया। ऐसे दूसरे के काम में व्यवधान डालना उसके शिष्टाचार के विपरीत था मगर यह बात जरा सीमा के बाहर हो रही थी। न रहा गया उससे। उसने कहा: क्षमा करना मेरे भाई, तुम्हारा उपक्रम देखकर मुझे हैरानी होती है; तुम कर क्या रहे हो? तुम्हारा इरादा क्या है?
उस नंगे फकीर ने कहा कि समुद्र को खाली करके इस गङ्ढे में भरना है।
अरिस्तोतल हंसने लगा। उसने कहा: मजाक तो नहीं कर रहे हो? इतना बड़ा समुद्र इतनी छोटी चम्मच, यह छोटा-सा गङ्ढा, वह भी रेत में, यह कैसे हो पाएगा? और जिंदगी बहुत छोटी है, अभी बीत जाएगी, चार दिन की है।
और वह फकीर हंसने लगा। और उसने कहा: मैं तुम्हारे लिए ही यह उपक्रम कर रहा हूं। यह तुम्हारी खोपड़ी कितनी बड़ी है, चम्मच से ज्यादा बड़ी? और यह अस्तित्व कितना बड़ा है? सागर से अनंत गुना बड़ा। और तुम इस खोपड़ी से समझने चले हो अस्तित्व को? कि इसका राज खोल लोगे? कि इसका रहस्य जान लोगे? यह कब हो पाएगा, जिंदगी बहुत छोटी है?
इसके पहले कि अरिस्तोतल उससे पूछे कि भाई तुम कौन हो, तुम्हारा नाम क्या है, वह फकीर तो चलता बना। अरिस्तोतल उनके पीछे भी दौड़ा लेकिन वह तो भाग ही गया। कहानी में साफ नहीं है कि यह फकीर कौन था। लेकिन बहुत सम्भव है यह आदमी डायोजनीज रहा हो क्योंकि वही यूनान में नंगा रहता था। अगर न भी डायोजनीज रहा हो तो डायोजनीज की हैसियत का ही कोई दूसरा फकीर रहा होगा, उसका कोई शिष्य रहा होगा।
उस दिन से अरिस्तोतल को कभी चैन न मिला। उस दिन से यह बात उसे भूली ही नहीं। सोचता था उस दिन के बाद भी, विचारता था, लेकिन जानता था कि यह चम्मच से सागर खाली करने का उपाय है जो सफल नहीं हो सकता, जिसकी असफल हो जाने की नियति सुनिश्चित है।
सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम में मन लावै
शास्त्र जानो, मतों को जानो, दर्शन को जानो, बड़े-बड़े विचार सीखो, बड़े सिद्धांतों को स्मृति का अंग बना लो, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ेगा; मन तो उलझा रहेगा काम में, वासना में; मन तो उलझा रहेगा संसार के भ्रम में, सपनों में--कोई भेद नहीं पड़ेगा।
एक बड़े फर्म का मैनेजर मरणासन्न अवस्था में पलंग पर पड़ा हुआ था। फर्म का मालिक उसे अंतिम विदाई देने के लिए आया हुआ था। मैनेजर बड़ा धार्मिक व्यक्ति था। नियमित पूजा-पाठ, ब्रत-नियम, उपवास, तीर्थयात्रा, सत्यनारायाण की कथा, यज्ञहवन, जो भी सम्भव है, सब करता था, करवाता था। उसकी प्रसिद्धि थी गांव में। उसका असली नाम लोग भूल गये थे, उसको लोग भगतजी के नाम से ही जानने लगे थे।
भगतजी मर रहे थे। मालिक फर्म का आया हुआ था। भगतजी ने दुखित स्वर में कहा: मालिक, मुझे माफ कर देना। अब मृत्यु के क्षण में आपसे क्या छिपाऊं क्योंकि अब जब मर ही रहा हूं, तो आपको बता देना उचित ही होगा कि मैंने आपकी फर्म से लाखों रुपये का घोटाला किया है। और कम्पनी मेरी ही वजह से घाटे में चल रही थी।
फर्म के मालिक ने कहा: घबड़ाओ मत भगतजी, तुम्हीं थोड़े ही व्रत, नियम उपवास करते हो, मैं भी करता हूं; और तुम्हीं थोड़े ही तीर्थयात्रा करते हो, मैं भी करता हूं; और तुम्हीं थोड़े ही सत्यनारायण की कथा करवाते हो, मैं भी करवाता हूं; तुम्हीं थोड़े ही भगत हो, मैं भी भगत हूं।
भगतजी ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं।
तो उस मालिक ने कहा: समझो, अब मरते वक्त तुमसे भी क्या छिपाना। निश्चिंत मरो भगतजी, घबड़ाओ मत, न ही किसी प्रकार का अपराध-भाव अपने हृदय में लाओ क्योंकि तुम्हें जहर भी मैंने ही दिलवाया है।
सारा धर्म, सारा क्रियाकांड पाखंड की तरह ही है, जब तक कि राम हृदय में न बसे; जब तक कि राम हृदय में न गूंजे। और कैसे गूंजेगा राम हृदय में? तुम हटो, जगह खाली करो, सिंहासन रिक्त करो!
पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।
घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।
भरो इस हृदय को आनंद-उत्सव से, उसकी प्रार्थना से। उतरेगा जरूर पाहुन। पाहुना आएगा, सदा आता रहा है। आना निश्चित है, तुम्हारी तैयारी चाहिए।
सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम मन में लावै
छूइगयो विज्ञान, परमपद को पहूंचावै।।
व्यर्थ की बकवास में पड़े हो जिसको तुम ज्ञान कहते हो, विज्ञान सीखो। विज्ञान का अर्थ होता है: ब्रह्मज्ञान। विज्ञान का अर्थ होता है: विशेष ज्ञान जो ब्रह्म से मिला दे, ऐसा ज्ञान जो ब्रह्म से मिला दे।
छुइगयो विज्ञान, परमपद को पहूंचावै
ज्ञान में ही उलज्ञे रहोगे, फिर विज्ञान कब छुओगे? और विज्ञान कहां सीखा जाता है? ज्ञान तो किताबों से मिल जाता है, विज्ञान...? गुरु-परताप साध की संगति!
भीखा देखे आपु को, ब्रह्म रूप हिये मार्हि
जिस दिन तुम देख लोगे ब्रह्म को अपने ही हृदय में, अपने ही भीतर धड़कता हुआ, जीवन्त, तरंगित...वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुज्ञा नाहिं...उसके पहले पढ़ते रहो वेद-पुराण, कुछ अर्थ का नहीं है। जिस दिन अपने भीतर अक्षर को देखोगे उस दिन सब अक्षरों में जो लिखा है, समझ आ जाएगा, बिना पढ़े समझ आ जाएगा; नहीं कुरान पढ़नी होगी और समझ आ जाएगा।
एक ईसाई मिशनरी झेन फकीर से मिलने गया। गया था झेन फकीर को प्रभावित करने ईसा के वचनों से। उसने सुंदरतम वचन ईसा के चुने थे। पर्वत पर जो प्रवचन है ईसा का, जिसमें वे बार-बार कहते हैं: धन्यभागी हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। धन्यभागी हैं वे जो इस जगत में अंतिम हैं, क्योंकि प्रभु के राज्य में, मेरे प्रभु के राज्य में वे ही प्रथम होंगे। ऐसे-ऐसे अद्भुत वचन! जब वह फकीर पढ़ने लगा...उसने पहला ही वचन पढ़ा कि धन्यभागी हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि प्रभु का राज्य उन्हीं का है।
झेन फकीर ने कहा कि बस और ज्यादा पढ़ने की जरूरत नहीं है; जिसने भी यह कहा हो, वह आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है।
उस फकीर ने कहा: अरे, आगे तो सुनिए।
झेन फकीर ने कहा: तुम्हारी मर्जी हो तो सुनाओ मगर बात पूरी हो गयी। जिसने भी यह कहा है, किसने कहा है कया लेना-देना, मगर जिसने भी कहा है वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है।
उसने यह भी नहीं पूछा कि यह वचन किसका है हिंदु का, मुसलमान का, बौद्ध का, जैन का, ईसाई का, किसका? किस शास्त्र का है यह भी नहीं पूछा!
जिसने अपने भीतर अक्षर को देख लिया, उसने सबके भीतर अक्षर को देख लिया। उसे आ गयी पहचान सारे उपनिषदों की। उसे वेदों का वेद उपलब्ध हो गया। वह स्वयं वेद हो गया।
भीखा देखे आपु का, ब्रह्म रूप हिये माहिं
वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।
अगर तुमने वेद-पुरान पढ़ भी लिए और अक्षर को अपने भीतर नहीं जाना--सब व्यर्थ है, सब बिलकुल व्यर्थ है।
उड़ धाये नीड़-ओर विहग-वृन्द फर-फर कर,
चैं-चुक-चुक के सुचारु रव से नभ थर-थर कर।
घन-गन-संकुलित गगन कज्जल का पुंज बना;
मानो नभ-थाली में दृग अंजन सघन सना;
अस्ताचल ओट हुआ दिन-मणि का रथ अपना
जग को मोहित करने आया निशि का सपना;
नभचारी नभ-पथ से लौट चले अपने घर
पंखों से फर-फर कर!
सांझ हुई; सनिकेतन को गृह की सुध आयी;
अनिकेतन के हिय में निशि की चिंता छायी;
दिन-क्षण, विचरण ही में, बीत गये दुखदायी,
अब यह वंध्या संध्या श्रान्ति-समस्या लायी;
पाये निशि-वास कहां थकित पथिक यह बेघर?
आया विश्राम-प्रहर!
जब जीवन-रवि डूबा, मरण-तिमिर बढ़ आया,--
जब कराल काल व्याल अंधकार चढ़ आया--
तब हिय यों पूछ उठा: यह क्या मृण्मय माया?
यह कैसा परिवर्तन? यह कैसी तम-छाया?
अब निशि-आवास-दान करे कौन करुणाकर?
कंपता है हिय थर-थर!
निशि का विश्राम कहां? पूछा जब यों मन ने,
ठौर कहां? पूछा जब यों इस मृण्यस कण ने,
बोली तब अमर साध: कैसे निशि के सपने?
, रे! आह्लान किया तेरा, चिर चेतन ने!
काले अवगुण्ठन में छिप आये हैं प्रियवर
मत डर, रे अजर, अमर!
आज, सांझ तेरी यह नव प्रभात पूर्ण हुई,
तुझ से अनिकेतन की चिंता सब चूर्ण हुई;
हुए आज द्वन्द्व दूर, आज दूर हुई दुई;
मरघट के नभ से है आज अमिय फुही चुई;
मृत्यु का कराल कण्ठ गाता है जीवन स्वर
अब कैसा भय? क्या डर?
मृत्यु अगर तुमने जीवन में प्रभु को स्मरण नहीं किया तो बहुत भयभीत करती है और प्रभु को स्मरण किया--मृत्यु का कराल कण्ठ गाता है जीवन स्वर! तब तो मृत्यु में से अमृत का अनुभव होता ह।
अब कैसा भय? क्या डर?
आज, सांझ तेरी यह नव प्रभात पूर्ण हुई,
तब तो सांझ सुबह हो गयी। अमावस पूर्णिमा हो गयी। जहर अमृत हो गया।
आज, सांझ तेरी यह नव प्रभात पूर्ण हुई,
तुझ से अनिकेतन की चिंता सब चूर्ण हुई;
हुए आज द्वन्द्व दूर, आज दूर हुई दुई;
मरघट के नभ से है आज अमिय फूई चुई;
मरघट पर अमृत बरसता है। जिन्होंने राम को स्मरण कर लिया है, उनकी मृत्यु भी मृत्यु नहीं है। और जिन्होंने राम को स्मरण नहीं किया, उनका जीवन भी जीवन नहीं है। गुरु-परताप साध की संगति! खोजो गुरु, खोजो साधुओं की संगति ताकि तुम्हरा जीवन तो जीवन हो ही सके, तुम्हारी मृत्यु भी जीवन हो सके। यह महा-अवसर है, चूक न जाए। जागो!

आज इतना ही।


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