मन के आँगन से साक्षी के आकाश तक—(प्रवचन—चौथा)
दिनांक
24 मई, 1979;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान!
आप विश्वास को
सतही और गलत
कहते हैं। आप
कहते हैं कि
सत्य को मानना
नहीं, जानना
है। लेकिन मनस्विद
कहते हैं कि
मनुष्य जैसा
सोचता है वैसा
ही हो जाता है।
इस दृष्टि से
क्या साधना
में विचार और
विश्वास का
उपयोग किया जा
सकता है?
2—भगवान!
मेरी पत्नी
मुझे संन्यास
लेने से रोक रही
है, मैं
क्या करूं?
3—भगवान!
मैं अपने मन
के शैतान से
संघर्ष का सतत्
अभ्यास कर रहा
हूं, फिर
भी सफलता
क्यों नहीं
मिलती?
पहला
प्रश्न :
भगवान!
आप विश्वास को
सतही और गलत
कहते हैं। आप
कहते हैं कि
सत्य को मानना
नहीं, जानना
है। लेकिन मनस्विद
कहते हैं कि
मनुष्य जैसा
सोचता है वैसा
ही हो जाता
है। इस दृष्टि
से क्या साधना
में विचार और
विश्वास का
उपयोग किया जा
सकता है?
आनंद
मैत्रेय! मनस्विद
जो कहते हैं, ठीक
ही कहते हैं
और वही खतरा
है। मनुष्य
जैसा विचार
करेगा वैसा ही
हो जाएगा
लेकिन ऊपर—ऊपर
ही, आचरण
में ही; अंतस्
में नहीं, व्यवहार
में; व्यक्तित्व
में नहीं ।
आधारशिला
इतनी आसानी से
नहीं बदलती।
जैसे तुमने
किसी सम्मोहनविद्
को प्रयोग
करते देखा हो,
वह किसी
पुरुष को
सम्मोहित
अवस्था में कह
दे कि तुम
स्त्री हो तो
वह पुरुष
स्त्री की तरह
चलने लगता है,
लेकिन इससे
स्त्री नहीं
हो जाता; रहता
तो पुरुष ही
है लेकिन एक
भ्रांति का
आवरण छा जाता
है।
अगर
कोई व्यक्ति
निरंतर किसी
बात को अपने
ऊपर आरोपित
करता रहे तो
वह आत्मसम्मोहन
है,
आटो—हिप्नोसिस
है। उसे भी
लगेगा वैसा ही
हो गया, दूसरों
को भी लगेगा
वैसा ही हो
गया। दूसरों
को तो
स्वभावतः
लगेगा
क्योंकि
दूसरे केवल
तुम्हारे
बहिरंग को ही
देख सकते हैं,
तुम्हारे
अंतरंग को तो
केवल तुम ही
देख सकते हो।
लेकिन भीतर
अगर कोई ज़रा
झांकेगा तो
पाएगा ऊपर—ऊपर
सब बदल गया, सब रंग ऊपर—ऊपर
है; और
भीतर तो जो था,
जैसा था
वैसा का वैसा
है; उसमें
अंतर नहीं
पड़ता है।
विचार
आत्मा को
रूपांतरित
नहीं करते हैं, न
कर सकते हैं।
विचार की
सामर्थ्य
क्या है? विचार
की सामर्थ्य
आत्मा से बड़ी
नहीं है। लहरें
कहीं सागर को
रूपांतरित कर
सकती हैं? हां,
सागर
रूपांतरित हो
तो लहरें
रूपांतरित हो
जाती हैं।
विचार तो तरंगे
हैं तुम्हारे
अनंत चैतन्य
के सागर की, बस लहरें
हैं——ऊपर—ऊपर, इनको तुम
रंग भी डालो,
इनको तुम
बदल भी डालो,
तो भी
तुम्हारा
जीवन—अस्तित्व
वैसा का वैसा
रहेगा जैसा
था। हां, एक
भ्रांति जरूर
पैदा हो जाएगी,
और भयंकर
भ्रांति पैदा
हो सकती है, और भ्रांति
महंगी चीज है,
बहुत महंगा
सौदा है
क्योंकि तुम
भ्रांति में जीओगे
और जीवन हाथ
से खिसकता चला
जाएगा।
कोई
व्यक्ति
अभ्यास करे
शांत होने का
और निरंतर
अभ्यास करे, कोई
भी अवस्था में
अशांति को
प्रगट न होने
दे——कोई गाली
भी दे तो पी
जाए, पत्थर
आएं सह जाए, अपमान हो, अपने को
अछूता रखे; भीतर तो
तिलमिलाहट
होगी मगर उसे
बाहर न आने दे;
ऐसा साधता
रहे, अशांति
के किसी भी
अवसर को
अशांति पैदा न
करने दे और
जहां—जहां
शांति का कोई
अवसर मिले
वहां शांति को
प्रगट करे; कम—से—कम
अभिनय करे, तो धीरे—धीरे,
केवल समय की
बात है, शांति
उसका अभ्यास
हो जाएगी। और
उस अभ्यास से सबसे
बड़ा खतरा यही
है कि उसे
भ्रांति होगी
कि मैं शांत
हो गया।
एक
गांव में एक
बहुत अशांत और
बहुत क्रोधी
व्यक्ति था।
इतना क्रोधी, इतना
अशांत कि गांव
ने ऐसा
व्यक्ति नहीं
जाना था। पूरा
गांव उससे पीड़ित
था। दुष्ट था,
शक्तिशाली
भी था, धनी
भी था। क्रोध
में जो न कर
गुजरे... एक दफे
घर को ही उसने
अपने आग लगा
दी। और एक बार
अपनी पत्नी को
धक्का देकर
कुएं में गिरा
दिया। पत्नी
की मृत्यु हो
गयी। उसी समय
गांव में एक जैन
मुनि आए थे, दिगंबर जैन
मुनि। पत्नी
की मृत्यु ने
उसे भी झकझोर
दिया, बड़ा
वैराग्य उदय
हुआ। जाकर जैन
मुनि के चरणों
में सिर रख
दिया और कहा
कि मुझे भी
दीक्षा दें, मैं मुनि
होना चाहता
हूं। हो गया
बहुत, देख
लिया संसार
बहुत, दुख
है, पाप ही
पाप है, इस
गर्हित ग१६७
से मुझे उबारो!
दिगंबर
जैन मुनि होने
की तो सीढ़ियां
हैं—— पहले कोई
ब्रह्मचारी
होता है फिर
कोई छुल्लक
होता है, फिर एलक... ऐसी सीढ़ियां चढ़ते—चढ़ते
कोई नग्न
दिगंबर
अवस्था तक
पहुंचता है।
लेकिन उस आदमी
ने कहा कि
नहीं, मैं
तो अभी, इसी
वक्त मुनि
होने को तैयार
हूं।
मुनि
भी चमत्कृत
हुए——ऐसा
संकल्प, ऐसी दृढ़ता!
यद्यपि वे समझ
न पाए कि न तो
यह संकल्प है,
न यह दृढ़ता
है; यह वही
पुराना
क्रोधी
स्वभाव है, जो क्षण में
पत्नी को कुएं
में ढकेल दे, वह क्षण में
अपने को भी मुनित्व
में ढकेल सकता
है। जो घर में
आग लगा दे, ज़रा से
क्रोध में, वह अपनी
जिंदगी में भी
आग लगा सकता
है। लेकिन मुनि
तो बहुत
आह्लादित हुए,
उन्होंने
तत्क्षण उसे
दीक्षा दी। और
कहा, बहुत
लोग आते हैं, बहुत खोजी
आते हैं मगर
तुम जैसा खोजी
नहीं । और
चूंकि तुमने
क्रोध के जीवन
का परित्याग
किया है, तुम्हें
मैं नाम देता
हूं—— मुनि
शांतिनाथ।
शांतिनाथ
की ख्याति
बहुत फैली
क्योंकि दूसरे
मुनि अगर दिन
में एक बार
आहार करते तो
शांतिनाथ दो
दिन में एक
बार आहार
करते। दूसरे
मुनि अगर सीधे—सपाट
रास्तों पर
चलते तो
शांतिनाथ
इरछे—तिरछे, कंकड़—पत्थरों,
कांटों से
भरे रास्तों
पर चलते।
दूसरे मुनि अगर
वृक्षों की
छाया में
बैठते तो
शांतिनाथ
सूरज के नीचे,
जलती हुई आग
बरसती हो, वहां
खड़े होते।
सर्दी के दिन
होते तो दूसरे
मुनि घास—फूस
को ओढ़कर
सो रहते मगर
शांतिनाथ
खुले आकाश के
नीचे, नग्न
पड़े रहते।
ख्याति बढ़ने
लगी, लेकिन
इस सबके पीछे
वही क्रोधी
स्वभाव था, वही अहंकारी
स्वभाव था।
क्योंकि
क्रोध अहंकार
की छाया है, क्रोध
अहंकार की ही
परिणति है——जितना
अहंकार होता
है, उतना
ही क्रोध होता
है। अब क्रोध
ने नया रूप लिया
था——तपस्वी का,
तपश्चर्या
का, पुण्य
का। अहंकार ने
अब नए आभूषण
पहने थे——दिगंबरत्व
के, नग्नता
के, त्याग
के, व्रत
के, नियम
के।
कल ही
भीखा ने कहा न——
कि करो त्याग, करो
तपश्चर्या, करो दान, करो
नियम, करो
व्रत, कुछ
भी न होगा।
अगर अहंकार न
मरे तो कुछ भी
नहीं होता है,
क्योंकि
अहंकार इन
सबका अपशोषण
कर लेता है।
अहंकार इतना
कुशल है कि
श्रेष्ठतम
वस्तु को भी
पचा जाता है।
और यह तो
शुद्ध
अहंकारी आदमी
था। इसकी
ख्याति फैलती
चली गयी, फैलती
चली गयी। दूर—दूर
से इसे
निमंत्रण आने
लगे।
वर्षो
बाद मुनि
शांतिनाथ
दिल्ली में
विराजमान थे।
उनके गांव का
एक युवक जो
उनके साथ ही
पढ़ा था, उनके
साथ ही बड़ा
हुआ था, उनके
दर्शन को आया।
देखते ही
शांतिनाथ उसे
पहचान तो गए, लेकिन क्या फहचानना
दो कौड़ी
के इस आदमी को!
न पहचानते यह
सवाल ही न था, वर्षो साथ
थे, लंगोटिया यार थे, लड़े
थे, झगड़े
थे, दोस्ती
की थी, साथ—साथ
वर्षो जिए थे।
मित्र ने देख
तो लिया कि पहचान
गए हैं मगर
नहीं पहचानना
चाहते हैं।
क्योंकि कहां
अब मुनि शांतिनाथ
और कहां तुम
संसारी, जमीन—आसमान
का फर्क हो
गया; कहां
तुम नारकीय और
कहां वे मोक्ष
में विराजमान!
तुम्हें पहचानें,
यह भी
अपमानजनक है;
कभी तुमसे
कोई संबंध रहा,
यह भी दीनता
प्रगट करेगा
तो मुंह फेर
लिया, औरों
से बात करने
लगे।
वह
आदमी आया था
बड़े भाव से; यह
ढंग देखा तो
ख्याल उठा कि
कुछ फर्क हुआ
नहीं, बात
वहीं की वहीं
है। नग्नता
क्या करेगी? तपश्चर्या
क्या करेगी? ऊपर से
आरोपित आचरण
क्या करेगा? आत्मा वही
की वही है।
उसने परीक्षा
के लिए पूछा
कि महाराज, क्या मैं
आपका नाम पूछ
सकता हूं?
शांतिनाथ
तो एकदम
आगबबूला हो गए, बाहर
नहीं आयी आग, अभ्यास काफी
था, मगर
भीतर तो एक
लपट आ गयी।
भली—भांति पता
है इस आदमी को
कि मेरा नाम
क्या है! पुराना
नाम भी पता है,
नया नाम भी
पता है। लेकिन
प्रत्यक्ष
में इतना ही
कहा : अरे मूढ़!
अखबार नहीं
पढ़ता? सारी
दुनिया जानती
है मैं कौन
हूं, तुझे
पता नहीं है!
मेरा नाम है
शांतिनाथ!
मित्र
को तो पक्का
भरोसा आ गया
कि जो सोचा था, ठीक
ही सोचा ।
मैंने तो नाम
ही पूछा था, इतना
क्रुद्ध हो
जाने की क्या
जरूरत थी।
थोड़ी देर इधर—उधर
की बात हुई, उस आदमी ने
फिर कहाः
महाराज, मेरी
ज़रा
स्मृति कमजोर
है, मैं
भूल गया, आपने
क्या नाम
बताया था?
पास
में कोई कुआं
होता तो
शांतिनाथ
धक्का दे देते
मगर वहां कोई
कुआं था भी
नहीं। फिर
अभ्यास, तपश्चर्या,
नियम, वृत
की बड़ी दीवाल
भी थी बीच में;
एकदम उसको
छलांग भी नहीं
सकते थे। वही
प्रतिष्ठा भी
थी, उसको
तोड़ भी नहीं
सकते थे। कहा : मूढ़ मैंने
बहुत देखे मगर
तू महामूढ़
है। सुना नहीं
तूने, ठीक
से सुन ले, एक
बार और कहे
देता हूं, मेरा
नाम मुनि
शांतिनाथ।
फिर
थोड़ी देर इधर—उधर
की बात चली और
उस आदमी ने
कहा : महाराज, बस
एक बार और, आपका
नाम क्या है?
इतना
सुनना ही था
कि टूट गए सब
नियम—व्रत, भूल
गयी सब साधना,
उठा लिया
पास में पड़ा
एक डंडा, मार
दिया उसकी
खोपड़ी में और
कहा कि अब समझ
तभी तुझे याद
रहेगा, मेरा
नाम
शांतिनाथ।
उस
आदमी ने कहा :
महाराज, नाम
तो मुझे आपका
भली—भांति याद
है, मैं बस
इतना कहना
चाहता हूं कि
नाम ही है, आप
वही के वही
हैं, कहीं
कोई अंतर नहीं
पड़ा है।
ऊपर से
आदमी साध ले
सकता है। मनस्विद
ठीक कहते हैं
कि तुम जैसा
विचार करोगे
वैसे हो जाओगे, मगर
विचार में ही
पाओगे। और
विचार जरूर
तुम्हारे आसफास
एक वर्तुल बना
देंगे, मगर
विचार
तुम्हारी
आत्मा को
रूपांतरित
नहीं करते।
आत्मा तो
रूपांतरित
होती है
निर्विचार
में, शून्य
में, ध्यान
में, समाधि
में। लेकिन मनस्विद
इस संबंध में
कुछ भी नहीं
कह सकते
क्योंकि मनस्विद
विचार के पार
जाते ही नहीं।
यही तो
दुर्भाग्य है
आधुनिक
मनोविज्ञान
का कि वह मन के
पार और कोई
अस्तित्व
मानता नहीं है,
बस मन पर
समाप्ति है।
इसलिए मनस्विद
मनुष्य के संबंध
में जो भी
कहता है, वे
अधूरे सत्य
हैं। और स्मरण
रहे अधूरे
सत्य झूठों से
भी ज्यादा
घातक होते हैं,
क्योंकि
उनमें सत्य की
थोड़ी—सी झलक
होती है; झूठ
तो बिल्कुल
झलक—रहित होता
है, उसे
पहचान लेने
में कठिनाई
नहीं। अधूरे
सत्य, अध—कचरे
सत्य बहुत
खतरनाक होते
हैं क्योंकि
भ्रांति देते
हैं सत्य की, आभा, झलक
सत्य की देते
हैं और होते
भी नहीं।
मनोविज्ञान
आधे में अटका
है——न तो
मनोविज्ञान
पदार्थवादी
है कि कह सके
हिम्मत से कि
सिर्फ पदार्थ
है और कुछ भी
नहीं; और न
आत्मवादी है
कि कह सके कि
आत्मा ही है
परम सत्य, शेष
सब सीढ़ियां
हैं।
मनोविज्ञान
दोनों के मध्य
में अटका है।
मनोविज्ञान
है धोबी का
गधा, न घर
का न घाट का। न
तो शरीर को ही
परिसमाप्ति मानता
है और न आत्मा
तक आंखें
उठाता है।
दोनों के बीच
में है मन, शरीर
और आत्मा के
बीच में है
विचार का जगत,
मनोविज्ञान
अभी विचार के
जगत में ही
उलझा है।
इसलिए
मनोविज्ञान
की जो
उपलब्धियां
हैं, कोई
बड़ी
उपलब्धियां
नहीं हैं।
मनोविश्लेषक
तीन साल, चार
साल, पांच
साल के
मनोविश्लेषण
के बाद भी कोई
बड़ी सहायता
मानसिक रूप से
रुग्ण लोगों
को नहीं पहुंचा
पाता। इतनी
सहायता तो कुछ
दिनों के
ध्यान से ही
मिल जाती है।
इतनी सहायता
तो जापान में
एक पुरानी
परंपरागत व्यवस्था
है, कि जब
भी कोई पागल
या विक्षिप्त
हो जाता है तो उसे
ले जाते हैं
बौद्ध आश्रम
में। हर बौद्ध
आश्रम में
आश्रम
निवासियों से
दूर कुछ झोंपड़े
होते हैं।
उनमें पागलों
को रख देते
हैं, उनको
खाना पहुंचा
देते हैं, न
उनसे कोई बात
करता, न
उनसे कोई चीत
करता, उन्हें
बिल्कुल
अकेला छोड़
देते हैं। और
हैरानी की बात
है कि तीन—चार
सप्ताह में
पागल ठीक हो
जाता है।
सिर्फ अकेला
छोड़ देते हैं।
परिवार , समाज
से अलग खींच
लेते हैं, उसकी
जरूरतें पूरी
कर देते हैं
लेकिन उससे कोई
बातचीत नहीं
करता।
मनोवैज्ञानिक
चार—पांच साल
बातचीत और सिर
फोड़ने के
बाद ——खुद का भी
और मरीज का भी——इतनी
सहायता नहीं
पहुंचा पाता
जितना झेन फकीर
जापान में तीन—चार
सप्ताह के
एकांत निवास
से पहुंचा
देते हैं। अब
तो पश्चिम से
इस प्रक्रिया
को समझने के लिए
लोग जापान जा
रहे हैं।
क्या
कारण होगा? इतनी
आसानी से हल
हो जाता है!
बड़े सत्य अगर
स्वीकार किए
जाएं तो छोटी
बीमारियां
क्षण में तिरोहित
हो जाती हैं।
लेकिन अगर तुम
बीमारियों के
ऊपर देखो ही न
तो बीमारियां
बहुत बड़ी
मालूम होती
हैं। जिसने
अपना आंगन ही
देखा है और
आकाश नहीं, उसे आंगन
बहुत बड़ा
मालूम होता
है।
पुरानी
कहानी है। एक लोमड़ी
सुबह—सुबह
उठी। भूख लग
आयी थी, नाश्ते
की तलाश में
चली। उसने
लौटकर अपनी
छाया देखी।
बड़ी छाया बन
रही थी। सुबह
का सूरज उग रहा
था सामने, बड़ी
छाया बनी। उस लोमड़ी ने
कहा कि आज तो
एक ऊंट मिले
शिकार के लिए
तो ही नाश्ता
हो सकेगा।
दोपहर तक ऊंट
को खोजती रही।
ऊंट मिल भी
जाता तो क्या
करती? ऊंट
मिला भी नहीं,
भूख बढ़ती भी
गयी, फिर
उसने लौटकर एक
बार छाया को
देखा। अब
दोपहरी थी, सूरज ऊपर आ
गया था, छाया
बिल्कुल
सिकुड़ कर नीचे
पड़ रही थी, करीब—करीब
न के बराबर।
वह लोमड़ी
कहने लगी अब
तो एक चींटी
भी मिल जाए तो
काफी!
छाया
को देखकर अगर
तुम निर्णय
करोगे तो
तुम्हारे
निर्णय बहुत
कीमती नहीं हो
सकते। विचार तो
छाया मात्र
हैं,
और विचार तो
तुम्हारी विक्षितता
है।
विक्षिप्तता
को ही अगर
अंतिम मान
लेना है तो
फिर इस
विक्षिप्तता
से समाधान
कैसे होगा? समाधान कहां
से आएगा? इसलिए
सिग्मंड फ्रायड
ने, इस सदी
के सबसे बड़े मनस्विद
ने, अपने
अंतिम निष्कर्षो
में यह बात
कही है कि
मनुष्य कभी
सुखी नहीं हो सकता,
ज्यादा—से—ज्यादा
हम इतना ही कर
सकते हैं कि
मनुष्य को सामान्य
रूप से दुखी
रहने का
अभ्यास करवा
दें। सामान्य
दुख से संतुष्ट
रहना सिखा दें,
इतना ही कर
सकते हैं, मनुष्य
सुखी कभी नहीं
हो सकता। यह
निष्कर्ष इस
बात का सबूत
है कि बस आंगन
को ही सब मान
लिया तो अब हल
कैसे हो?
हल
हमेशा पार से
आते हैं। हल
हमेशा विराट
से आते हैं। समाधन के
लिए तुम ही सब
कुछ नहीं हो, तुमसे
भी ऊपर कुछ है——
तो ही मार्ग
खुलता है।
अन्यथा मार्ग
नहीं खुलता।
परमात्मा को
अस्वीकार
किया कि फिर
मनुष्य अपनी
विक्षिप्तता
में ही जी
सकता है। फिर सिग्मंड फ्रायड
ही सत्य है कि
ज्यादा—से—ज्यादा
हम मनुष्य को
सामान्य
विक्षिप्तता
का पाठ सिखा
सकते हैं कि
ज्यादा
विक्षिप्त न
हो जाओ, कम—से—कम
विक्षिप्त
रहो। अंतर, स्वस्थ आदमी
में और
विक्षिप्त
आदमी में मात्रा
का ही होगा, फ्रायड के
हिसाब से, गुण
का नहीं होगा।
फ्रायड बुद्ध
को स्वीकार
नहीं कर सकते
क्योंकि बुद्धत्व
का अर्थ होता
हैः परम
स्वास्थ्य ।
हमारे पास
स्वास्थ्य
शब्द बड़ा
कीमती है। स्वास्थ्य
का अर्थ होता
हैः स्वयं में
स्थित हो जाना।
लेकिन स्वयं
को तो स्वीकार
ही नहीं करता
मनोविज्ञान, वह तो विचार
की भीड़ को ही
स्वीकार करता
है!
पश्चिम
का एक बड़ा
विचारक डेविड ह्यूम, डेविड
ह्यूम
नास्तिकों के
लिए ऐसे ही है
जैसे
आस्तिकों के
लिए कृष्ण, क्राइस्ट।
इसलिए मैं
डेविड ह्यूम
को कहता हूं:
संत डेविड ह्यूम।
डेविड ह्यूम
ने बहुत बार
पढ़ा, सुकरात
से लेकर
इकहार्ट तक
सारे संतों ने
एक ही बात कही——भीतर
जाओ, परम
आनंद है वहां,
आत्मा का
राज्य, कि
प्रभु का
राज्य; बस,
भीतर जाओ, सब पाओगे——धनों
का धन, पदों
का पद! ... पढ़ते—पढ़ते
एक दिन, जानते
हुए भी कि
भीतर क्या रखा
है, उसने
भी आंखें बंद
कीं और भीतर
देखा। एक ही
दिन देखा बस
और डायरी में लिखाः कुछ
नहीं है, सिर्फ
विचार ही
विचार हैं——स्मृतियां,
विचार, कल्पनाएं,
ऊहापोह; न
कोई आत्मा है,
न कोई
परमात्मा है;
न कोई
स्वर्ग का
राज्य है, न
कोई
सच्चिदानंद
है; कुछ भी
नहीं है।
संत
डेविड ह्यूम
इतना भी न समझ
सका कि यह काम
एकाध बार आंख
बंद करने से
नहीं होता। यह
तो ऐसा ही हुआ
कि मैं एक सज्जन
को जानता हूं, विश्वविद्यालय
में अध्यापक
थे मेरे साथ; व्यायाम
करने जाते थे,
एक डंड
लगाते और उठकर
अपनी मसल नापते!
अब ऐसे आदमी
कहीं डंड—बैठक
लगा सकते हैं?
दोत्तीन दिन में ही
मुझसे बोले कि
कुछ सार नहीं
है, मैंने
लगाकर देखे
डंड—बैठक, कुछ
और ही राज़
होगा, मसल
तो वैसे—के—वैसे
ही हैं। मगर
उन्होंने तो
कम—से—कम तीन
दिन किया था
अभ्यास, डेविड
ह्यूम तो
एक ही दिन...! और
वह तो शरीर का
अभ्यास था, डेविड ह्यूम
ने थोड़ा—सा मन
का अभ्यास
किया...! अभ्यास
क्या खाक कहो
उसे, एक
बार आंख बंद
करके बैठकर
भीतर देखा, देखा वहां
विचारों की
चहल—पहल, आना—जाना,
बस आंख खोल
दी होगी, कहा
कि कुछ है
नहीं, बस
विचार ही
विचार हैं।
मगर एक
बात डेविड ह्यूम
जैसा
विचारशील
व्यक्ति भी
चूक गया——किसने
देखा कि विचार
हैं?
यह कौन है
जिसने देखा कि
विचार ही
विचार हैं? निश्चित ही
जिसने देखा, वह स्वयं
विचार नहीं हो
सकता——वह
साक्षी है।
लेकिन थोड़े
दिन डुबकी
मारता तो इस
साक्षी से
संबंध जुड़ता।
वह साक्षी मन
के पार है।
वही साक्षी
आत्मा है। उसी
साक्षी में
क्रांति घटती
है। वही आकाश
है, मन तो
छोटा आंगन है।
हां, मन
के अभ्यास से
तुम सज्जन बन
सकते हो, लेकिन
मन के अभ्यास
से तुम कभी
संत नहीं बन
सकते। और
सज्जन के भीतर
दुर्जन छिपा
ही रहता है; सज्जन
दुर्जन को दबा
लेता है।
दुर्जन और
सज्जन में
बहुत भेद नहीं
है——दुर्जन
सज्जन को दबा
लेता है और
सज्जन दुर्जन को
दबा लेता है।
लेकिन दोनों
में कोई
बुनियादी भेद
नहीं है। अगर
तुम दुर्जन को
थोड़ा कुरेदोगे
तो उसके भीतर
सज्जन पाओगे।
इसलिए
तुम कभी—कभी
चकित भी होते
हो,
किसी शराबी
में तुम ऐसी
भलमनसाहत
पाओगे जोकि
भले आदमियों
में नहीं
होती। और किसी
चोर में कभी
तुम इस तरह की
मैत्री पाओगे
जोकि सज्जनों
में नहीं
होती। और कभी
किसी पापी में
तुम ऐसी करुणा
पाओगे कि
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं
में नहीं
होती। कि नदी
में कोई डूबता
हो तो चोर या
पापी छलांग
लगाकर उसको
बचाने जाएगा;
जो माला जप
रहा है, वह
तो और आंख बंद
करके जोर—जोर
से हरे—राम, हरे—राम, हरे—राम
करने लगेगा कि
अब यह और कहां
की झंझट बीच में
आ गयी! वह अपनी
माला जपे
कि आदमी को
बचाए? अगर
कहीं आग लग
गयी हो तो
शायद शराबी
चला जाए आग
में जलते हुए
किसी बच्चे को
बचाने, होशियार
तो अपने घर का
रास्ता लेगा।
दुर्जन
के भीतर सज्जन
छिपा होता है
और सज्जन के
भीतर दुर्जन
छिपा होता है।
सज्जन को कुरेदो
ज़रा और
तुम दुर्जन को
पाओगे। अभी
देखा नहीं
मुनि शांतिनाथ
को ज़रा
कुरेदा, खुरेचता ही गया वह
आदमी और भीतर
की असलियत
बाहर आ गयी। सज्जन
और दुर्जन में
बहुत फर्क
नहीं है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने दिल्ली
प्रधानमंत्री
को फोन लगाया।
पूछा : आप कौन
सज्जन बोल रहे
हैं?
दूसरी
तरफ से आवाज
आयी——मैं
मंत्री जी का
चपरासी बोल
रहा हूं, रुकिए,
लीजिए सेक्रेटरी
साहब से बात
कीजिए।
मुल्ला
ने पूछा : आप
कौन सज्जन बोल
रहे हैं?
जवाब
मिला——मैं
मंत्री जी का सेक्रेटरी
हूं। कहिए
क्या काम है?
मुल्ला
ने कहाः
मुझे तो
प्रधानमंत्री
जी से ही
मिलना है।
कुछ
क्षण बाद पुनः
फोन पर किसी
की आवाज
सुनायी दी।
मुल्ला ने
अपना प्रश्न
फिर पूछाः
आप कौन सज्जन
बोल रहे हैं?
इस बार
एक रोबीली
आवाज आयी——अरे, मैं
कोई सज्जन—वज्जन
नहीं, खुद
प्रधानमंत्री
बोल रहा हूं।
कभी—कभी
तो बिना कुरेदे
भी सत्य प्रगट
हो जाते हैं।
कुरेदना भी
सदा आवश्यक
नहीं होता।
आनंद
मैत्रेय, मानस्विद
ठीक कहते हैं——आदमी
जैसा सोचता है
वैसा हो जाता
है। मगर बस ऊपर—ऊपर
क्योंकि
सोचने की
क्षमता ही
कितनी है? आदमी
अगर सोचने से
ही वैसा हो
जाता हो, सच
में ही वैसा
हो जाता हो तब
तो दुनिया बड़ी
सस्ती होती है,
तब तो जीवन
बड़ा आसान होता
है। तुम बैठकर
सोच लेते कि
मैं ईश्वर हूं,
मैं ईश्वर
हूं, मैं
ईश्वर हूं. . .
सोचते ही रहते
रोज बैठकर, कई लोग
सोचते हैं, इससे कुछ
ईश्वर नहीं हो
जाओगे। असल
में तो जितना
सोचोगे उतना
ही पक्का होता
जाएगा कि नहीं
हो। अगर थे ही,
अगर हो ही
तो फिर सोच
क्या खाक रहे
हो! अगर कोई पुरुष
रास्ते पर
चलता हुआ, कहता
हुआ जाए——मैं
पुरुष हूं, मैं पुरुष
हूं, मैं
पुरुष हूं मैं
पक्का कहता
हूं कि मैं
पुरुष हूं, मैं दृढ़
निश्चय से
कहता हूं कि
मैं पुरुष
हूं... तो सारे
गांव को शक हो
जाएगा कि
मामला कुछ गड़बड़
है। अगर पुरुष
हो तो कहने की
जरूरत क्या ?
एक
मुसलमान
खलीफा उमर ने
एक आदमी को पकड़वाया, क्योंकि
वह आदमी घोषणा
करता था कि
मुहम्मद के बाद
मैं ही दूसरा
पैगंबर हूं, मुहम्मद जो
नहीं कर पाए
अब मैं
करूंगा।
निश्चित ही
कोई और देश हो
तो लोग
बर्दाश्त कर
लें, मुसलमान
तो बर्दाश्त
नहीं कर सकते।
उनकी तो बर्दाश्त
की कोई सीमा
है ही नहीं।
उनके पास तो धैर्य
है ही नहीं।
फौरन पकड़ लिया
गया, लोगों
ने मारा—पीटा
और खलीफा के
पास ले चले।
खलीफा भी बहुत
नाराज हुआ।
उसने कहा कि
एक ही ईश्वर है
और उस ईश्वर
का एक ही
पैगंबर है और
उस पैगंबर का
नाम है——हजरत
मुहम्मद; और
कोई न पैगंबर
है और न कोई
ईश्वर है।
यह पकड़
तो मुसलमानों
की ऐसी है कि
मैंने सुना है
कि मुल्ला नसरुद्दीन
नास्तिक हो
गया था तो
किसी ने पूछा
कि नसरुद्दीन, अब
तो तुम
नास्तिक हो गए,
तुम्हारा
सिद्धांत
क्या है?
उसने
कहा कि मेरा
सिद्धांत हैः
कोई ईश्वर नहीं
है और उसका एक
ही पैगंबर है——हजरत
मुहम्मद!
ऐसी
पकड़ है कि
ईश्वर नहीं है
तो भी... मगर
हजरत मुहम्मद
तो पैगंबर हैं
ही। खलीफा
बहुत नाराज हुआ।
उसने कहा कि
सात दिन के
लिए इस आदमी
को जेलखाने
में डाल दो जंजीरों
में। सात दिन
का मौका देते
हैं तुझे
सोचने का, समझ
ले, सोच ले,
तय कर ले; अगर होश में
आ गया तो ठीक, नहीं तो
गर्दन काट दी
जाएगी। सात
दिन का अवसर देते
हैं अगर तू
क्षमा मांग
लेगा, छुटकारा
हो जाएगा
तेरा। उस आदमी
को खंभे से
बांध दिया गया,
कोड़े मारे गए, सात
दिन सब तरह से
सताया गया।
सात
दिन बाद उमर
गया जेलखाने
में,
वह आदमी
बंधा था खंभे
से, लहुलुहान था। पूछा कि
कहो अब क्या
विचार है?
उसने
कहाः ईश्वर एक
और उसका नया
पैगंबर मैं।
उमर ने कहाः तुझे
होश नहीं आया, इतना
पिटा—कुटा, खून जगह—जगह
जम गया है, जमीन
पर खून जमा है,
खंभे पर खून
जमा है, चमड़ी
जगह—जगह कट
गयी—— तुझे होश
नहीं आया?
उसने
कहा : होश! मुझे
पक्का भरोसा
हो गया है कि
मैं पैगंबर
हूं क्योंकि
जब मैं चलने
लगा तो ईश्वर
ने खुद ही कहा
था कि मेरे
पैगंबर सदा
बहुत सताए
जाते हैं। अब
तो मुझे पक्का
ही भरोसा आ
गया।
तभी एक
दूसरा आदमी जो
किसी दूसरे
खंभे से बंधा
था,
खिलखिला कर
हंसने लगा।
उमर ने पूछा
कि तू क्यों
हंस रहा है?
उस
आदमी ने कहा :
मैं इसलिए हंस
रहा हूं कि
मैं स्वयं
परमात्मा हूं
और मैं तुमसे
कहता हूं कि
यह आदमी झूठ
बोल रहा है, इसको
मैंने कभी
भेजा ही नहीं;
मुहम्मद के
बाद मैंने
किसी को भेजा
ही नहीं । वे
इसलिए पकड़े
गए थे सज्जन
कि वे अपने
ईश्वर होने की
घोषणा कर रहे
थे।
घोषणा
तो तुम कर
सकते हो आसानी
से। क्या
कठिनाई है, रोज
सुबह से उठकर
मंत्र जपो——
अहं
ब्रह्मास्मि...
जपते ही रहो, जपते ही रहो,
जपते ही
रहो... छाप पड़ती
जाए, पड़ती
जाए, संस्कार
गहरा होता जाए,
तो एक दिन
नींद में भी
तुम गुर्राने
लगोगे——अहं
ब्रह्मास्मि!
मगर यह तो
विचार—मात्र
है। नहीं, ऐसे
कोई नहीं
जानता ब्रह्म
होने को ।
ब्रह्म होने
को जानने का
उपाय दूसरा है,
बिल्कुल
उल्टा है, निर्विचार
हो जाओ—— अहं
ब्रह्मास्मि
दोहराना नहीं
है, एक ऐसी
शांत, मौन,
शून्य
अवस्था जहां
कोई विचार की
तरंग नहीं रह जाती,
वहां अनुभव
होता है कि
मैं परमात्मा
हूं। लेकिन उस
अनुभव में
"मैं" का कोई
अनुभव नहीं
होता, यह
तो भाषा में
कहना पड़ता है
इसलिए । उस
अनुभव में
सिर्फ
परमात्मा है——ऐसा
अनुभव होता
है। उस "मैं"
में और सब भी
समाहित होते
हैं । उस "मैं"
में सब मैं
समाहित होते हैं।
इसलिए
जिन्होंने
जाना है
उन्होंने ऐसा
नहीं कहा है
कि मैं
परमात्मा हूं
और तुम नहीं; जिन्होंने
जाना है
उन्होंने कहा
है कि मैं परमात्मा
हूं और तुम
भी। बुद्ध ने
कहा है : जिस
क्षण मैं
बुद्ध हुआ उस
दिन सारा
अस्तित्व
मेरे साथ
बुद्ध हो गया——आदमी
ही नहीं पशु—पक्षी
भी, पशु—पक्षी
ही नहीं पौधे—पत्थर
भी। बुद्ध ठीक
कहते हैं : जिस
क्षण मैं
बुद्ध हुआ उस
क्षण मैंने
जाना——अरे, मैं
तो हूं ही
नहीं, सिर्फ
बुद्धत्व है;
सिर्फ
भगवत्ता है; कण—कण में
वही व्याप्त
है। जो मुझमें
है वही बाहर
है; जो
भीतर, वही
बाहर। मगर यह
विचार से नहीं
होगा।
और
दोनों बातों
में एक—सा——बाहर
से कम—से—कम ——तालमेल
मालूम हो सकता
है,
यही खतरा
है। जो आदमी
जानकर कह रहा
है अहं ब्रह्मास्मि,
कि मैं ब्रह्म
हूं, निर्विचार
के अनुभव से
जिसे यह
उपलब्धि हुई वह,
और जो विचार
को दोहरा—दोहराकर
कह रहा है अहं
ब्रह्मास्मि,
बाहर से तो
तुमको दोनों
एक जैसे ही
मालूम पड़ेंगे।
यही मुश्किल
है, यही अड़चन
है। बाहर से
तौलने का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन भीतर तो
तुम तौल ही
सकते हो।
सूफी
फकीर बायजीद
मक्का की
यात्रा को
चला। उसके
शिष्यों ने, उसके
मित्रों ने
तीन सौ दीनार
इकट्ठे कर दिए
थे यात्रा के
लिए। वह तीन
सौ दीनार लेकर
गांव से बाहर
ही निकला कि
एक फकीर झाड़
के नीचे बैठा
था, उसने
कहा : रुक
बायजीद, कहां
जा रहा है?
बायजीद
ने कहा कि मैं
हज—यात्रा को
जा रहा हूं, मक्का
की यात्रा को
जा रहा हूं; काबा के
पत्थर के सात
चक्कर मुझे
लगाने हैं।
उस
फकीर ने कहा :
मेरे पास तीन
सौ दीनार हैं, मेरे
शिष्यों, भक्तों
ने इकट्ठे किए
हैं।
उस
आदमी ने कहा :
तू मेरे सात
चक्कर लगा और
तीन सौ दीनार
मुझे दे, तेरा
हज पूरा हो
गया। और
बायजीद ने यह
किया——उसने
तीन सौ दीनार
उस फकीर को दे
दिए, उसके
सात चक्कर
लगाए, चरण
छूकर नमस्कार
किया, हाथ
चूमा, घर
वापिस लौट
आया।
लोगों
ने कहा : अरे, बड़े
जल्दी लौट आए!
अभी गए, अभी
लौट आए! अभी
लोग गांव के
बाहर विदा
करके घर लौट
भी न पाए थे कि बायजीद
को आते देखा
कि मामला क्या
है! इतने जल्दी!
बायजीद ने कहा
: हज की यात्रा
हो गयी।
क्योंकि वह
आदमी मुझे मिल
गया है, अब
कहीं जाने की
कोई जरूरत न
थी, उसकी
आंख में मैंने
झांका और
मैंने पहचाना,
थोड़ी—थोड़ी
झलक मुझे भी
मिली है। जो
मेरे भीतर दीए
की तरह जला है,
उसके भीतर
सूरज की तरह
मौजूद था।
जिसको मैंने अभी
खिड़की से झांका
है, दूर से झांका है, वह वहां
विराजमान था।
वह अद्भुत
आदमी था ।
लोगों
ने कहा : और तीन
सौ दीनार क्या
हुए?
उसने
कहा : तीन सौ
दीनार! वे तो
उस फकीर को
भेंट कर आया।
जब हज की
यात्रा हो गयी, यात्रा
के लिए ही दिए
थे तुमने!
बायजीद
खुद भी थोड़े—से
अनुभव में डूब
रहा है तो वह
अनुभव दूसरे
में भी देखने
की क्षमता
देगा। पहले तो
उनमें देखने
की क्षमता
देगा जिनको
अनुभव हुआ है, जो
जाग गए हैं; फिर उनमें
भी देखने की
क्षमता देगा
जो अभी नहीं
जागे हैं, जिनको
अनुभव नहीं
हुआ है, जो
सो रहे हैं।
आखिर सोया हुआ
आदमी है तो
बुद्ध , सोया
है, तो जाग
उठेगा। आखिर
बीज भी है तो
फूल, अभी
सोया है, कल
जाग उठेगा और
खिल जाएगा।
लेकिन
यह सिर्फ
विचार करने से
नहीं हो सकता।
पश्चिम में
मनोविज्ञान
के इस विचार
का बड़ा परिणाम
हुआ,
ऐसा परिणाम
हुआ कि ईसाइयों
में एक
संप्रदाय ही
खड़ा हो गया——क्रिश्चियन
साइंटिस्ट
कहलाने लगे वे
लोग——उनका मूल
आधार यही है
कि तुम जो
सोचते हो वही
हो जाते हो।
मैंने
एक कहानी सुनी
है। एक युवक
रास्ते से जा
रहा था और
वहां से एक
क्रिश्चियन
साइंटिस्ट आ
रहा था। उस
युवक से उसने, क्रिश्चियन
साइंटिस्ट ने
पूछा कि अब
तुम्हारे
पिता के संबंध
में क्या खबर
है?
पिता
का मित्र था
वह,
युवक भी
जानता था।
उसने कहा :
उनकी हालत
खराब है। आज
तीन महीने से
बीमार हैं।
बिस्तर से
उठते भी नहीं।
उस
आदमी ने कहा :
यह सब बकवास
है। ये सब
विचार हैं। यह
बीमारी विचार
है। अगर तुम विचारोगे
कि मैं बीमार
हूं तो बीमार
हो जाओगे। अगर
विचारोगे
कि मैं स्वस्थ
हूं,
स्वस्थ हो
जाओगे। यह सब
विचार है और
कुछ भी नहीं, मैं तुझसे
कहता हूं।
कुछ
दिन बाद फिर
रास्ते पर उस
युवक से मिलना
हुआ तो
क्रिश्चियन
साइंटिस्ट ने
पूछा कि अब तेरे
पिता के क्या
हाल हैं?
उसने
कहा कि अब वे
सोचते हैं कि
वे मर गए! और
क्या कहो अब!
अगर बीमारी
विचार है तो
मरना भी विचार
है! अब सोचते
हैं कि मर गए
चूंकि वे
सोचते हैं मर
गए,
इसलिए हमने
दफना दिया, अब और करते
भी क्या!
सब
विचार हैं? तो
फिर तुम्हारे
भीतर कुछ भी
थिर न रह
जाएगा क्योंकि
विचार तो क्षण—भर
भी ठहरता नहीं——अभी
सुख, अभी
दुख; अभी
प्रसन्न हो, अभी न
प्रसन्न हो गए;
अभी खुश थे,
अभी नाच रहे
थे, अभी
चित्त एकदम
विषाद से भर
गया। तब तो
तुम्हारी
जिंदगी एक
क्षणभंगुर
धारा होगी, पानी के
बबूले होंगे
और अगर तुम
जोर से पकड़कर
किसी विचार को
सम्हाल भी
लोगे तो विचार
ही है, भूल
मत जाना।
मेरे
पास एक सूफी
फकीर को लाया
गया जो तीस
साल से सिद्ध
समझा जाता था।
उसके अनेक
शिष्य थे। जब
वह मेरे पास
लाया गया तो
दो सौ उसके
शिष्य साथ आए
थे। और
उन्होंने कहा
कि यह पहुंचा
हुआ सिद्ध है।
इसे हर चीज
में परमात्मा
दिखाई पड़ता है——फूल
में,
पत्ते में,
पत्थर में।
इसकी आंखों
में सिवाय
परमात्मा के
कोई दिखाई ही
नहीं पड़ता। यह
तो मंसूर की
हैसियत का
आदमी है——अनहलक
इसका उद्घोष
है। मैंने
उनसे कहा कि
तुम जाओ और
फकीर को मेरे
पास तीन दिन
के लिए छोड़
दो।
तीन
दिन वह फकीर
मेरे पास रहा।
खाना इत्यादि
खिलाने के बाद
जब हम पास
बैठे तो मैंने
उनसे कहा कि
यह अभ्यास
कितने दिन से
किया है?
उन्होंने
कहा : कोई तीस
साल हो गए सतत
अभ्यास किया——ईश्वर
है,
बस ईश्वर है,
सब तरफ
ईश्वर है। अब
मुझे सब तरफ
ईश्वर दिखाई पड़ने
लगा।
मैंने
कहा : अब तो
तुम्हें
पक्का दिखाई
पड़ने लगा है?
उसने
कहा : हां, पक्का
दिखाई पड़ने
लगा है, कच्चा
क्यों?
तो
मैंने कहा :
तीन दिन के
लिए तुम
अभ्यास बंद कर
दो। अब तीन दिन
के लिए यह बात
छोड़ दो कि सब
में ईश्वर है।
उसने
कहा : उससे
क्या होगा?
मैंने
कहा कि तीन
दिन के बाद
विचार
करेंगे। डरा
हुआ लगा वह
थोड़ा। मैंने
कहा : डरते
क्यों हो? अगर
ईश्वर का
अनुभव हो गया
है तो विचार
के छोड़ने से
अनुभव चला
नहीं जाएगा।
उसने
कहा : हां, यह
बात तो ठीक है
अगर ईश्वर है
ही, अगर
अनुभव होने ही
लगा है, तो
तीन दिन के
अभ्यास नहीं
करने से क्या
फर्क पड़ता है!
तीसरे
दिन वह आदमी मुझ
पर नाराज हो
गया। उसने कहा
: आपने मेरी
तीस साल की
मेहनत खराब कर
दी। अब मुझे
झाड़ फिर झाड़
दिखाई देने
लगे और पत्थर
फिर पत्थर
दिखाई देने
लगे,
वह ईश्वर खो
गया।
मैंने कहाः वह
ईश्वर कभी था
ही नहीं
इसीलिए खो
गया। वह सिर्फ
अभ्यास था, आत्मसम्मोहन था। तीस साल
का आत्मसम्मोहन
तीन दिन में
टूट सकता है, तीन क्षण
में टूट सकता
है, उसका
कोई मूल्य
नहीं है; वह
धोखा है, वह
आत्मवंचना
है।
मैं
ऐसी आत्मवंचना
की शिक्षा
नहीं देता
हूं। मैं
तुमसे नहीं
कहता हूं कि
तुम सोचो। मैं
तुमसे नहीं
कहता हूं कि
तुम विचारां।
मैं तुमसे
कहता हूं तुम
निर्विचार
में चलो, तुम
सोच छोड़ो,
तुम उस दशा
में आ जाओ
जहां सोच—विचार
होते ही नहीं;
फिर देखो, फिर जो
दिखाई पड़े वह
है और उसे फिर
तुमसे कोई भी
न छीन सकेगा।
मैं
मनोविज्ञान
नहीं सिखा रहा
हूं, मैं
तुम्हें
अध्यात्म
सिखा रहा हूं।
दुनिया के
अधिकतर धर्म
मनोविज्ञान
पर समाप्त हो
जाते हैं; दुनिया
का बहुत थोड़ा—सा
हिस्सा
अध्यात्म को
छू पाता है, छू पाया है।
बहुत थोड़े—से बुद्धपुरुष
अध्यात्म को
छू पाए हैं।
अध्यात्म की
मौलिक आवश्यकता
है निर्विचार—चैतन्य!
लेकिन
चारों तरफ
तुम्हें
विचार ही
सिखाया जाता
है——मां—बाप भी
कहते हैं, अच्छे
विचार करो; स्कूल में
शिक्षक कहते
हैं, अच्छे
विचार करो; पंडित—पुरोहित
कहते हैं, अच्छे
विचार करो तो
अच्छे हो
जाओगे। जैसा
विचार करोगे
वैसे हो
जाओगे। और ठीक
कहते हैं मगर ठीक
अधूरा है। और
जब तुम यही
सुनते हो, यही
बार—बार गुनते
हो, और यही
तुम्हारे
जीवन का अनुभव
बन जाता है, तो तुम
दूसरों के
संबंध में भी
इसी तरह सोचने
लगते हो, देखने
लगते हो। तुम
खुद तो अंधे
हो ही जाते हो अपने
प्रति, तुम
दूसरों के
प्रति भी अंधे
हो जाते हो।
स्वभावतः तुम
दूसरों के
संबंध में उसी
ढंग से सोचते
हो जिस ढंग से
तुम अपने
संबंध में
सोचते हो। और
तो कोई उपाय
भी नहीं है
सोचने का।
मनुष्य अपना
ही प्रक्षेपण
करता है।
सत्यप्रिय
ने एक छोटी—सी
कहानी मुझे
भेजी है।
एक डी.
आई. जी. थे। वे
जब नौकरी से
मुक्त हुए तो
उन्हें पचास
हजार रुपया
मिला।
उन्होंने
सोचा ये पैसे
बैंक में जमा
करवा दें तो
ब्याज मिलता रहेगा।
वे रुपया लेकर
बैंक में जमा
करवाने जा रहे
थे कि उनके एक
मित्र जो कृषि
अधिकारी थे, उनको
रास्ते में
मिल गए।
उन्होंने कहा :
"आप भूलकर भी
रुपये बैंक
में जमा मत
करवाएं। बैंक
में हड़ताल हो
जाती है, जरूरत
होने पर रुपया
निकाल नहीं
सकते, कभी
बैंकों का
दिवाला भी
निकल जाता
है।"
डी. आई.
जी. बोले, "हमें
व्यापार करना
आता नहीं।"
इस पर
कृषि अधिकारी
ने कहा : "मेरी
मानें तो जमीन
खरीद कर खेती
करवाएं। व्यापार
की झंझट में पड़ना उचित
भी नहीं।"
उन्होंने एक
पेंसिल और
कागज मंगवाया
और कहा कि "मान
लीजिए हमने एक
मक्का का दाना
जमीन में बोया, उसमें
से तीन भुट्टे
निकले।" फिर
कागज पर हिसाब
लगाकर बताया
कि "यदि एक
भुट्टे में दो
सौ दाने लगे
तो कुल मुनाफा
होगा छः सौ
प्रतिशत! कुल चार
महीने की बात
है, फिर आप
बंगला खरीदें,
कार खरीदें,
चुनाव लड़ें——जो
दिल में आए सो
करें, माला—माल
हो जाएंगे।"
डी. आई.
जी. को बात जंच
गयी।
उन्होंने एक
जमीन खरीद ली।
फिर बैंक से
कर्ज लेकर एक
ट्रेक्टर भी
खरीद लिया।
उन्होंने फसल बोयी।
परंतु उस साल
खूब
अतिवृष्टि
हुई। सारी फसल
बह गयी। दूसरे
साल उन्होंने
ज्यादा
मुनाफे के लोभ
में कृषि
अधिकारी के
बताए अनुसार
कर्ज लेकर खूब
खाद दी। परंतु
उनके भाग्य ने
साथ नहीं दिया
और उस वर्ष
सूखा पड़ गया।
कर्जा चुकाने
में घर का सारा
सामान नीलाम
हो गया। अकेले
आदमी थे। दो
लंगोटी बची
थीं। सोचा
काली—कमली
वाले के आश्रम
में चला जाऊंगा, वहां
एक कंबल और एक
टाइम भोजन मिल
जाएगा, बैठकर
राम का नाम
लेंगे। वे जब
जा रहे थे तो
रास्ते में
कुंभ के मेले
में एक नागाओं
की जमात जा
रही थी। वे
खूब सारे नंगे
साधु । उन्हें
देखकर डी. आई.
जी. ने उनके
गुरु को
साष्टांग
प्रणाम कर
निवेदन किया
कि "एक प्रश्न
का उत्तर
दें।"
नागा
महात्मा बोले :
"बच्चे, क्या
शंका है?"
डी. आई.
जी. बोले : "महात्माजी, मैंने
खेती का धंधा
किया तो मात्र
दो लंगोटी बचीं।
आप सबने क्या
धंधा किया जो
लंगोटी तक नहीं
बचीं?"
आदमी
सोचता तो अपने
ही हिसाब से
है। हम दूसरों
के संबंध में
जो सोचते हैं, हम
दूसरों के
संबंध में जो
कहते हैं, वह
वस्तुतः अपने
ही संबंध में
कहा गया होता
है। तुमने अगर
विचार को ही
जीवन की आधारशिला
बनाया तो तुम
खुद तो धोखे
में रहोगे ही,
तुम औरों के
संबंध में भी
धोखे खाओगे।
क्योंकि तुम
उनके विचार ही
देखोगे; उनके अंतस्
तक देखने वाली
पैनी आंखें
तुम्हारे पास
न होंगी। और
अंतस् का
रूपांतरण ही
एकमात्र रूपांतरण
है और सब
क्रांतियां
झूठी हैं।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि विश्वास
सतही है और
गलत है।
परमात्मा को
मानना नहीं है, क्योंकि
जानना ही असली
चीज है, मानना
कैसे असली हो
सकता है? मानने
का तो अर्थ ही
हुआ कि शुरू
से ही बेईमानी,
शुरू से ही
धोखा; पता
नहीं था और
मान लिया ।
असत्य से
शुरूआत करके
सत्य तक कैसे
पहुंचोगे? पहला
कदम असत्य है
तो अंतिम
मंजिल कैसे
सत्य हो सकेगी?
यह तो सीधा—सा
गणित है। यह
रोशनी तो इतनी
सीधी—साफ है
कि अंधे को भी
दिखाई पड़ जाए।
यह गणित इतना
स्पष्ट है कि
इसके लिए कोई
बहुत
बुद्धिमत्ता
नहीं चाहिए।
जो आदमी ईश्वर
को मानता है, वह क्या कर
रहा है? वह
भीतर तो जानता
है कि मुझे
कुछ पता नहीं ——
पता नहीं, हो;
पता नहीं, नहीं हो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
मरने लगा।
मौलवी ने कहा
कि नसरुद्दीन
जिंदगी—भर तो
मस्जिद में
दिखाई नहीं
पड़े लेकिन अब
आखिरी समय तो
परमात्मा को
याद कर लो, नहीं
तो पीछे
पछताओगे।
मुल्ला
हाथ टेककर
उठा,
बैठा, हाथ
जोड़े आकाश की
तरफ, पहले
बोला : हे
परमात्मा! दीन—दरिद्र
हूं, पतित
हूं, पापी
हूं; तुम
तो पतित—पावन
हो, जिंदगीभर तो याद नहीं
किया मगर
क्षमा करना; मैं तो बालक
हूं, तुम
पिता हो। इसके
बाद...यह बात
पूरी की, थोड़ी
देर चुप रहा, फिर से हाथ
जोड़े और आकाश
की तरफ देखकर
बोला कि हे महाशैतान!
हे परम पिता!
मुझ पर ख्याल
करना। मैं तो
नासमझ, अज्ञानी,
मुझ पर दया
करना।
मौलवी
तो बहुत हैरान
हुआ। ईश्वर से
तो प्रार्थना
उसने सुनी थी, लेकिन
शैतान से!
उसने बीच में
ही मुल्ला को
हिलाया और कहा
कि होश में हो
कि सान्निपात
में आ गए?
मुल्ला
ने कहा : रोको—टोको मत।
क्या पता
किसके हाथ में
पड़ें। समझदार
आदमी सबको मनाकर
रखता है। अगर
हो ईश्वर तो
ठीक,
कहने को
रहेगा। न हो
ईश्वर, शैतान
हो तो भी ठीक, कहने को
रहेगा। दोनों
न हों, अपना
क्या बिगड़ता
है! कहने में
क्या जा रहा
है? हल्दी
लगे न फिटकरी
रंग चोखा हो
जाए...अपना बिगड़ता
क्या है, दो
शब्द बोले
लेते हैं
शैतान से भी।
जो
आदमी मानता है
उसकी मान्यता
कितनी गहरी हो
सकती है? कैसे
गहरी हो सकती
है? भीतर
तो जानता ही
है कि मुझे
पता नहीं——हो, न हो। थोप
रहा है
मान्यता को; जबरदस्ती
लाद रहा है
मान्यता को——भय
के कारण, लोभ
के कारण, सामाजिक
दबाव के कारण।
ऐसी मान्यता
से क्रांति
होगी? ऐसी
मान्यता से
तुम्हारे
जीवन में
मोक्ष फलेगा?
यह मान्यता
तो बंधन है; यह तो
कारागृह है; इससे तो और
जंजीरें कस
जाएंगी; इससे
तो तुम्हारा
अज्ञान और सघन
हो जाएगा और
जिसने मान
लिया वह फिर
जानने की
यात्रा पर
नहीं निकलता।
क्या निकले!
जब मान ही
लिया तो अब
जानना क्या
है!
इसीलिए
तो दुनिया में
इतने आस्तिक
हैं मगर धार्मिक
कहां!
नास्तिकों और
आस्तिकों में
तुम कोई फर्क
देखते हो? जो
आस्तिक कर रहा
है, वही
नास्तिक कर
रहा है; जो
नास्तिक कर
रहा है, वही
आस्तिक कर रहा
है। अंतर कहां
है? हां
आस्तिक मंदिर
नहीं जाता।
नास्तिक लाइंस
क्लब चला जाता
होगा, कि
रोटरी क्लब
चला जाता होगा,
कि फिल्म
में जाकर बैठ
जाता होगा।
उनके छोटे—मोटे
व्यवहारों
में भेद होंगे
मगर उनके जीवन
में क्या अंतर
है? अगर
नास्तिक
तुम्हें बताए
न कि नास्तिक
है, क्या
तुम पहचान
सकोगे उसके
व्यवहार से कि
नास्तिक है? नहीं पहचान
सकोगे।
तुम्हारे
आस्तिक और
नास्तिक
दोनों झूठे
हैं क्योंकि
दोनों ने खोज
नहीं की और
बिना खोज किए
मान लिया है।
मेरा आग्रह, मेरा
जोर खोज पर
है। मैं तुम्हें
जिज्ञासु
बनाना चाहता
हूं। मैं तुम्हें
मुमुक्षु
बनाना चाहता
हूं। मैं नहीं
चाहता कि तुम
कुछ मानकर
चलो। मैं
चाहता हूं कि
तुम सिर्फ एक
प्रश्न लेकर
उठो, एक
गहन जिज्ञासा,
एक अभीप्सा
जानने की——क्या
है? निश्चित
ही कुछ है, इसे
मानने की
जरूरत नहीं
है। तुम हो, यह अस्तित्व
है, ये चांदत्तारे
हैं; ये चांदत्तारों
के बीच बंधा
हुआ संगीत है,
एक
लयबद्धता है,
यह विराट
अस्तित्व
बिखर नहीं
जाता, यह
सधा है; कोई
अदृश्य ऊर्जा
इसे बांधे है,
जरूर कुछ
है। लेकिन उस
कुछ को मानो
क्यों, खोजो
क्यों नहीं? वह कुछ
हमारे भीतर भी
मौजूद है। उसी
धागे में हम
भी पिरोए हुए
हैं, उसी
माला के हम भी
मनके हैं, तो
अपने भीतर उस
धागे को
तलाशें, खोजें।
अपने भीतर वह
धागा दिखाई पड़
जाएगा तो सबके
भीतर वह धागा
दिखाई पड़
जाएगा। और जब
दिखाई पड़
जाएगा तो
दर्शन मुक्तिदायी
है——फिर कोई
संदेह नहीं उठ
सकता; फिर
कोई तुम्हें
डिगा नहीं
सकता। सारी
दुनिया भी कहे
कि ईश्वर नहीं
है तो भी तुम
हंसोगे।
रामकृष्ण
के पास
विवेकानंद जब
गए और उन्होंने
पूछा कि क्या
ईश्वर है? यह
प्रश्न
उन्होंने
बहुतों से
पूछा था। रवींद्रनाथ
के दादा से भी
पूछा था। उनकी
बड़ी ख्याति थी——महर्षि
देवेंद्रनाथ।
उनका दूर—दूर
तक नाम था। वे बजरे पर
रहते थे। नदी
के भीतर एक
बजरा बना लिया
था बस उसी पर
रहते थे।
विवेकानंद
तैर कर आधी
रात में बजरे
पर चढ़ गए, बजरा
हिल गया, दरवाजा
धक्का देकर
खोल दिया।
ध्यान करते थे
देवेंद्रनाथ,
जाकर उनको
झकझोर दिया।
आधी रात, पानी
में तरावोर
यह युवक...पागल
मालूम होता
है। और पूछा, ईश्वर है? यह
शिष्टाचार है!?
ये कोई ढंग
हैं पूछने के,
यह कोई
जिज्ञासा
करने का
शिष्टाचार है!?
झिझक गए देवेंद्रनाथ
कि आदमी कुछ
खतरनाक मालूम
होता है। पता
नहीं गर्दन
दबा दे या
क्या करे, अकेले
बजरे पर!
थोड़े झिझके।
बस झिझके थे
कि विवेकानंद
वापिस कूद गए।
उन्होंने
कहा।: युवक
वापिस लौट चले, क्यों?
उन्होंने
कहा : आपकी
झिझक ने सब कह
दिया। झिझक सब
बता गयी। कहते
हैं देवेंद्रनाथ
को ऐसी चोट
कभी किसी ने न
दी थी। बात तो
सच थी, घाव कर
गयी। झिझक सब
बता गयी!
फिर
इसी
विवेकानंद ने
जाकर एक दिन रामकृष्ण
को पकड़ लिया।
सोचा था
रामकृष्ण को भी
ऐसे ही झकझोर
दूंगा। लेकिन
भ्रांति हो
गयी वहां, रामकृष्ण
और ही तरह के
व्यक्ति थे।
कोई मान्यता
नहीं थी उनकी,
बोध था, ज्ञान
था, अनुभव
था। रामकृष्ण
से पूछा :
ईश्वर है?
रामकृष्ण
ने विवेकानंद
को पकड़कर
झकझोरा और कहा
: अभी जानना
चाहते हो? इसी
वक्त? तैयारी
है?
यह
विवेकानंद
सोचकर न आए थे
कि कोई ऐसा
पूछेगा। एक
क्षण को
झिझके।
रामकृष्ण
ने कहा : अभी
तैयारी नहीं
है,
झिझक सब
कहती है। सब
तैयारी हो, आ जाना, दिखा
दूंगा। सोच—समझकर
आना था जब
पूछने आए थे, यहां बात—चीत
नहीं होती। और
इसके पहले कि
विवेकानंद
कुछ कहें, रामकृष्ण
झपटे, लात
मार दी
विवेकानंद की
छाती में! यह
तो सोचा ही
नहीं था, विवेकानंद
सोचते थे कि
मैं एक मजबूत
युवक और रामकृष्ण
ऐसा व्यवहार
मेरे साथ
करेंगे! और भी
शिष्य बैठे थे,
सत्संग चल
रहा था, वे
भी नहीं समझे
कि यह क्या हो
रहा है!
रामकृष्ण ने
ऐसा किसी और
के साथ कभी
किया भी नहीं
था। इतना
बलशाली कोई और
कभी आया भी न था।
लात का लगना
था और
विवेकानंद
बेहोश हो गए। घंटों
बाद होश में
आए। होश में
आते ही आंखों
से आंसू बहने
लगे, चरण
पकड़ लिए
रामकृष्ण के
और कहा कि जो
अनुभव हुआ , ऐसा कभी न हुआ
था। जो अपूर्व
शांति देखी, ऐसी कभी न
देखी थी। फिर
सदा के लिए
रामकृष्ण के
हो गए।
रामकृष्ण ने
विवेकानंद को
लात मारकर सदा
के लिए अपना
बना लिया। गए
थे रामकृष्ण
को हराने, पराजित
करने——मिट कर
लौटे।
ईश्वर
को जानना एक
बात है, मानना
दूसरी बात है।
मानते रहो, मानने से
कुछ भी न होगा,
जिंदगी गंवाओगे।
इतना समय
जानने में लगा
दो तो
परमात्मा दूर नहीं
है। भीखा ने
कहा न, बहुत
पास है। बस
खोजने की
त्वरा चाहिए,
तीव्रता
चाहिए——मगर
खोजने की।
मानते हैं
कायर, खोजते
हैं वीर।
मानते हैं जो
नहीं जानना
चाहते हैं।
मानना टालने
का एक उपाय है
कि हां—हां
भाई ईश्वर है,
अब सिर तो न
खाओ। मानना
टालने का एक
उपाय है कि अच्छा—अच्छा,
ऐसा ही होगा,
कि ज्यादा
झंझट न करो; चलो, रविवार
को चर्च हो
आएंगे; कि
कभी मंदिर की
घंटी बजा
देंगे; कौन
झंझट करे, कौन
विवाद करे।
तुमने
ईश्वर को माना
है एक सामाजिक
शिष्टाचार की
तरह लेकिन यह
तुम्हारी कोई
जीवंत आकांक्षा
नहीं, अभीप्सा
नहीं: यह
तुम्हारे
प्राणों की
प्यास नहीं।
तुम पानी को
मानने से
तृप्त
नहीं
होते, पानी को पिओगे तब
तृप्त होओगे।
तुम और चीजें
इस तरह नहीं
मान लेते। अगर
कोई तुमसे कहे
कि मान लो कि
तुम लखपति हो,
तो तुम
कहोगे ऐसे
कैसे मान लूं?
पहले लाख
होने तो चाहिए,
हैं कहां? मानने से
क्या होगा, और हंसी—मजाक
होगी दुनिया
में। नहीं, तुम ऐसे
नहीं मानते।
कोई तुमसे कहे
कि मान लो कि
तुम बड़े पद पर
हो——राष्ट्रपति
हो, प्रधानमंत्री
हो। मगर तुम
ऐसे नहीं
मानते, तुम
कहते हो ऐसे
मानने से क्या
होगा और
पुलिसवाले पकड़कर ले
जाएंगे।
मैंने
सुना है——मुल्ला
नसरुद्दीन
कहा करता था
कि वह किसी भी
आदमी को बड़ी
आसानी से
लखपति बना
सकता है।
लखपति बनने के
नेक इरादे से
कई लोग उसके
पास आने लगे।
मुल्ला ने कहा
: लखपति बनना
तो अत्यंत सरल
है लेकिन उसके
लिए तीन शर्ते
पूरी करनी
जरूरी हैं।
पहली शर्त यह
है कि तुम्हें
पंद्रह दिनों
तक मेरे साथ
रहना होगा।
यह कोई
आसान बात नहीं, मुल्ला
नसरुद्दीन
के साथ पंद्रह
दिन साथ रहना।
तुम्हें पहले
समझा दूं तो
तुम्हें अर्थ
समझ में आएगा।
एक आदमी के
पास एक सड़ी
हुई भेड़
थी, जिसकी
बदबू सारे
मोहल्ले में
घूमती थी।
उसको मजाक सूझा,
उसने गांव
में डुंडी
पिटवा दी
कि जो आदमी भी
घंटे—भर इस भेड़
के साथ कमरे
में रह जाएगा,
उसको मैं
हजार रुपया
इनाम दूंगा।
बड़े—बड़े
हिप्पी, बड़े—बड़े
पहुंचे हुए
महात्मा आए, तपस्वी, त्यागी...मगर
घंटा—भर कौन
कहे, भीतर
जाएं और मिनट
भी न बीते और
बाहर आ जाएं
कि नहीं भाई, प्राण घुटते
हैं।
आखिर
में मुल्ला नसरुद्दीन
आया। और
तुम्हें पता
है क्या हुआ?आधा
घंटे बाद भेड़
बाहर आ गयी। भेड़ से
लोगों ने पूछा
क्या हुआ?तो
भेड़ ने
कहा : यह आदमी
मेरी जान ले
लेगा, मेरी
सांस घुटती है,
मेरी दम
घुटती है। तो
मुल्ला नसरुद्दीन
कहता था कि
पहली शर्त यह
कि तुम्हें
पंद्रह दिन तक
मेरे साथ रहना
होगा। दूसरी
शर्त यह है कि
मैं जो कहूं
वह करना होगा।
वह भी
बड़ी झंझट की
बात थी
क्योंकि वह
बातें उल्टी—सीधी
लोगों से करने
को कहता। किसी
को कह देता यह
बेपेंदी का
बर्तन ले जाओ, कुएं
से पानी भरो।
अब भरते रहो
दिन—रात पानी,
पानी कभी
भरेगा नहीं
आखिर पच
जाओगे। उल्टे—सीधे
काम करवाता।
पंद्रह दिन
में जान ले
लेगा।
और
तीसरी तथा
आखिरी शर्त यह
है कि जो
लखपति बनना
चाहता है उस
आदमी को पहले
से करोड़पति
होना चाहिए।
स्वभावतः जो करोड़पति
है उसको लखपति
बनाना आसान
मामला है।
तुम से
कोई कहे कि
मान लो कि
लखपति हो तो
तुम मानने को
राजी नहीं
होओगे। तुम
कहोगे कि
महाराज कुछ
खनखनाहट, कुछ
आवाज करवाकर
बताइए; कुछ
नोटों में से
नोट निकाल कर
बताइए, ऐसे
मानने से क्या
होगा? लेकिन
जब कोई तुमसे
कहता है ईश्वर
को मान लो, तो
तुम मान लेते
हो। असल में
तुम जानना ही
नहीं चाहते
हो। तुम कहते
हो कौन हुज्जत
में पड़े——हो, तो ठीक; न
हो, तो ठीक——किसको
लेना—देना है!
तुम इस योग्य
भी नहीं मानते
परमात्मा को
कि विवाद करो।
बर्ट्रेड
रसल ने लिखा
है कि एक
जमाना था कि
लोग विवाद करते
थे कि ईश्वर
है या नहीं।
कुछ लोग, थोड़े—से
लोग, कहते
थे कि नहीं
है। मगर अब
जमाना बदल गया,
अब हालत यह
है कि कोई
विवाद ही नहीं
करता कि ईश्वर
है या नहीं।
अब लोगों को
इतनी भी
उत्सुकता
नहीं है कि
कोई कहे कि
नहीं है। अगर
तुम किसी सभा—समाज
में विवाद छेड़ने
लगो तो लोग
कहेंगे कहां
की बकवास, अरे
किसी फिल्म की
बात करो जो
फिल्म बस्ती
में चल रही हो——कैसी
है, अच्छी
है, बुरी
है! कुछ
दिल्ली की बात
करो——कि कौन ने
किसको पछाड़ा!
कुछ मतलब की
बात करो, कुछ
रसपूर्ण बात
करो; यह
कहां की ईश्वर
की बात छेड़
दी! ईश्वर की
लोग बात नहीं
करना चाहते और
मजा यह है कि
सब ईश्वर को माननेवाले
लोग हैं, और
बात करने—योग्य
भी नहीं मानते
ईश्वर को!
विचार
से यही हो
सकता है——एक
थोथा आडंबर।
मैं चाहता हूं
कि तुम्हारे
जीवन में
ईश्वर की किरण
उतरे; तुम्हें
ईश्वर का
स्वाद मिले; तुम उसे
अमृत—घट से पिओ;
तुम उसके
साथ लवलीन हो
जाओ, तल्लीन
हो जाओ; तुम
उसके साथ उठो,
बैठो, सोओ,
नाचो, गाओ।
इसलिए मैं यह
नहीं कह सकता
तुमसे कि सिर्फ
विचार करने से
काम हो जाएगा;
मैं तो
कहूंगा, निरंतर
कहूंगा, बार—बार
कहूंगा——निर्विचार
होना होगा।
ईश्वर की बात
ही छोड़ दो——है
या नहीं, यह
तुम कैसे
निर्णय कर
सकते हो? अंधा
आदमी कैसे
निर्णय करेगा
कि प्रकाश है
या नहीं? बहरा
आदमी कैसे
निर्णय करेगा
कि ध्वनि है
या नहीं? आंख
की तलाश करो।
कान की तलाश
करो। जिस दिन
आंख होगी तुम
जानोगे
प्रकाश है; जिस दिन कान
होगा तुम
जानोगे ध्वनि
है। वही जानना
रूपांतरकारी
है, वही
जानना सार्थक
है।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान!
मेरी पत्नी
मुझे संन्यास
लेने से रोक रही
है,
मैं क्या
करूं?
भैयालाल!
भैया, पत्नी
की ही मानो; नाहक की
झंझट न लो।
पत्नी पर तुम
अगर अपना बल सिद्ध
कर पाते तो यह
प्रश्न पूछते
ही नहीं। पत्नी
पर तुम्हारा
बल तो है
नहीं। अगर
पत्नी कह रही
है संन्यास मत
लो, तो
भूलकर मत
लेना। इस झंझट
में पड़ना
ही मत, नहीं
तो पत्नी बहुत
उपद्रव खड़ा
करेगी। और रहना
पत्नी के साथ
है। और मेरे
संन्यास में
पत्नी को
छोड़कर जाना
नहीं है, यही
झंझट है।
पुराना
संन्यास बड़ा
सरल था। लोग
सोचते हैं कठिन
था,
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं बड़ा सरल
था। सबसे बड़ी
सरलता यह थी
कि भाग गए
पत्नी को
छोड़कर। आमतौर
से लोग समझते
हैं कि मैंने
संन्यास को
सरल बना दिया
है, वे
बिल्कुल गलत
समझते हैं, उन्हें जीवन
का कोई अनुभव
ही नहीं है।
मैंने पहली
बार संन्यास
को कठिन बनाया
है क्योंकि पत्नी
के साथ ही
रहना है और
संन्यास। आग
में ही खड़े
रहना है और
जलना नहीं है।
पानी में चलना
है और पानी को
छूने नहीं
देना है।
पुराना
संन्यास तो
सस्ता है, भाग
ही गए अब
पत्नी कहां
खोजती फिरेगी
तुम्हें! सिर
इत्यादि घुटा
लिया, नाम
बदल गया, भभूत
रमा ली, तरहत्तरह के टीका—तिलक
लगा लिए——पत्नी
मिल जाए तो भी
पहचान न पाए।
और भाग गए; इतना
बड़ा देश, बैठ
गए किसी गुफा
में, किसी
जमात में
सम्मिलित हो
गए, पत्नी
कहां खोजती फिरेगी?
पुराना
संन्यास सरल
था क्योंकि भगोड़ापन
था,
पलायनवाद
था, कायरता
थी। नया
संन्यास
निश्चित ही
कठिन है क्योंकि
चुनौतियों से
हटना नहीं है।
तुम्हारी
पत्नी के
संबंध में
मुझे पता नहीं, मगर
तुम्हारा
प्रश्न बताता
है भैयालाल,
कि भैया, ऐसी झंझट
में न पड़ो
तो अच्छा। ऐसे
नाम वाले
लोगों की पत्नियां
खतरनाक होती
हैं। तुम सीधे—साधे
आदमी होओगे।
मैंने
सुना है——एक बस
में एक महिला
ने झल्लाते
हुए अपने पास
बैठे व्यक्ति
मुल्ला नसरुद्दीन
से कहा : आप बड़े
बदतमीज हैं
जी! आप क्यों
बार—बार मेरे
मुंह पर
सिगरेट का
धुआं छोड़ रहे
हैं?
आपको शर्म
नहीं आती?
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा : शर्म
तो आपको आनी
चाहिए देवीजी!
आप मुझसे इतने
सटकर क्यों
बैठी हैं? और
सटकर ही नहीं
बैठी हैं बार—बार
अपने हाथ से हुद्दे दे
रही हैं।
महिला
ने कहा : आप बड़े बेशुऊर
हैं। मैं हुद्दे
नहीं दे रही, देखते
नहीं कि मैं
मोटी हूं, सांस
ले रही हूं!
आपको महिलाओं
से बात करने
का ढंग भी पता
नहीं?
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा : देवीजी, मुझे
नहीं पता कि
महिलाओं से कैसी
बात करनी
चाहिए, मगर
आपको तो पता
होगा कि एक
भारतीय
स्त्री के क्या
आदर्श हैं। कम—से—कम
आपको तो उसका
पालन करना
चाहिए।
उस
महिला ने कहा :
आप पहले दर्जे
के बेवकूफ
हैं। यदि आप
मेरे पति होते
तो मैं जरूर
आपको जहर दे
देती।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा : क्षमा
करिए देवीजी, यदि
आप मेरी पत्नी
होतीं तो यह
कष्ट आपको न
करना पड़ता, मैं खुद ही
जहर पी लेता।
अब पता
नहीं भैयालाल, आपकी
पत्नी किस ढंग—ढोर
की हैं, क्या
व्यवहार—सद्व्यवहार
आपके साथ
करेंगी
संन्यास लेने
पर! मगर जहां
तक सौ में
निन्यानबे
मौके तो यही हैं
कि यह झंझट आप
न लो तो
अच्छा। आप
पत्नी को यहां
लाने लगो।
पहले मुझे उसे
संन्यासी बना
लेने दो। मैं
इसी ढंग से
काम करता हूं।
इससे पुरुषों
की इज्जत बच
जाती है। पहले
पत्नियों को
संन्यासी बना
लेता हूं फिर
उनको बनना ही
पड़ता है। फिर
ऐसा पति कहां
जो पत्नी की
आज्ञा टाले।
और मेरा स्त्रियों
से गणित
बिल्कुल जम
जाता है।
इसलिए
तुम सिर्फ
इतना ही करो, अगर
इतना ही कर
पाओ तो बहुत
कि किसी तरह
पत्नी को यहां
लाने लगो——उसे
सुनने दो, उसे
गुनने दो,
उसे नाचने
दो, उसे
ध्यान करने दो——आज
नहीं कल वह
संन्यासी
होना चाहेगी।
जिस दिन वह
होना चाहेगी
उस दिन तुम्हारे
लिए भी रास्ता
खुल जाएगा।
उसके पहले तुम
व्यर्थ की
चिंताओं में,
बेचैनियों में पड़
जाओगे। वह
तुम्हारा
जीना हराम कर
देगी, चौबीस
घंटे तुम्हें
सताएगी। और
भागने मैं नहीं
दूंगा।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
: अब संन्यास
ले लिया, अब
हमको यहीं
रहना है, घर
नहीं जाना है।
असल में यहां
रहना है, इससे
प्रयोजन
सिर्फ इतना ही
है कि घर नहीं
जाना है। घर
क्यों नहीं
जाना है? "कि
नहीं अब यहीं
रहने का मन
होता है।" यहीं
रहने का मन
नहीं है असली
बात, मैं
उनसे कहता हूं:
असली बात कहो।
वे कहते हैं
: "अब आप तो
जानते ही
हैं।"
एक मित्र
बनारस के
संन्यास लेकर
गए,
बमुश्किल
भेजा
उन्हें...उनको
समझाकर कि जाओ
भई! कोई पांच—सात
दिन बाद ही
उनकी चिट्ठी
आयी कि पत्नी
ने अस्पताल
में भरती करवा
दिया है
क्योंकि
पत्नी कहती है
कि तुम पागल
हो गए। मैं
जितना मना करता
हूं उतना ही
कोई मेरी
मानता नहीं।
सब मेरी पत्नी
की मानते हैं।
डाक्टरों को
भी समझाता हूं,
डाक्टर
कहते हैं :"चुप
रहो भाई" सभी
पागल यही कहते
हैं कि पागल नहीं
हैं। तुम
बकवास न करो, तुम शांत
रहो, तुम
लेटे रहो, दवा
लो, इलाज करवाओ।"
पागल
क्यों पत्नी
ने समझ लिया? क्योंकि
वे घर हंसते
हुए पहुंचे, प्रसन्न
पहुंचे। और
पत्नी ने कहा
कि हंसते हुए
और प्रसन्न
कभी देखा नहीं
था उनको। और
भजन—कीर्तन
करने लगे...।
उन्होंने
सोचा होगा
पहले से ही
छाप मार दूं।
पहले से ही, नहीं तो
पीछे फिर
मुश्किल हो
जाएगा। मगर
पत्नी ने भी
उन्हें पकड़ा
उसी वक्त, मोहल्ले
के लोगों को
इकट्ठा कर
लिया कि इनका
दिमाग खराब हो
गया है, भले—चंगे घर से
गए थे।
उन्होंने
मुझे लिखा है
कि मैं...मुझे
बहुत हंसी आती
है कि हद हो
गयी, मैं
बिल्कुल ठीक
हूं, लोग
मुझे पागल समझ
रहे हैं।
चूंकि मुझे
हंसी आती है, वे मुझे और
पागल समझते
हैं। और सबकी
सहानुभूति
पत्नी के साथ
है। मैंने
उनको खबर भेजी
कि बेहतर यही
है कि तुम
वैसे ही हो
जाओ उदास जैसे
पहले थे——न भजन—कीर्तन
करो, न हंसो,
न गाओ।
पत्नी की
मानकर चलो, नहीं तो वह
तुम्हें
मुसीबतों में
डाल देगी।
एक बात
ख्याल में
रखना, पुरुष
ने स्त्री पर
कब्जा करने की
कोशिश की है
सदियों में और
एक तरह से
पुरुष ने बहुत
कब्जा स्त्री
पर कर भी लिया
है। उसके हाथ
से सारी
आर्थिक स्वतंत्रता
छीन ली, सामाजिक
स्वतंत्रता
छीन ली, जीवन
में गति करने
की दृष्टि से
उसे बिल्कुल पंगु
कर दिया, उसके
पैरों में
जंजीरें डाल
दीं——नाम उनको
अच्छे—अच्छे
दिए, आभूषणों
के नाम दिए।
उसके जीवन को
बिल्कुल घर
में बंद कर दिया
और
स्वतंत्रता
मनुष्य के
जीवन की बड़ी
अनिवार्यता
है।
पुरुष
ने स्त्री को
सब तरह से
परतंत्र कर
दिया, इसका
बदला स्त्री न
ले यह असंभव
है। तुमने सब तरह
से उसे
परतंत्र कर
दिया, इसका
इकट्ठा बदला
वह तुमसे लेती
है। बाहर के
जगत में तो
उसकी कोई गति
नहीं है लेकिन
घर के जगत में
वह तुम्हें
पूरी तरह दबा
देती है। इस
तरह का पुरुष
खोजना ही
मुश्किल है जो
अपनी पत्नी से
न डरता हो।
डरना ही पड़ेगा
क्योंकि तुमने
उसे बहुत
डराया है।
ख्याल रखो
जीवन का नियम,
जब तुम किसी
को डराओगे,
तुम्हें डरना
पड़ेगा और जब
तुम किसी को
गुलाम बनाओगे
तो तुम्हें
गुलाम बनना
पड़ेगा। अगर
स्वतंत्र रहना
है तो दूसरे
को स्वतंत्र
करो। अगर तुम
चाहते हो कि
तुम मुक्त रहो
तो किसी को
बंधन में मत बांधो।
बीरबल ने
एक दिन कहते
हैं अकबर को
कहा——ऐसे ही
बातचीत में
बात निकल आयी
होगी——कि
तुम्हारे
दरबार में सब
दब्बू हैं, सब
पत्नियों से
डरते हैं।
अकबर ने दूसरे
दिन ही अपने दरबारियों
से कहा :
ईमानदारी से,
जो लोग अपनी
पत्नियों से
डरते हों, वे
बाएं तरफ खड़े
हो जाएं और जो
पत्नियों से न
डरते हों, वे
दाएं तरफ खड़े
हो जाएं। मगर
ईमानदारी से,
कोई धोखा न
दे क्योंकि
जिसने धोखा
दिया या धोखा
देते हुए पकड़ा
गया...उसकी
जांच—पड़ताल की
जाएगी पीछे तो
फांसी की सजा
होगी। एकदम बायीं तरफ
कतार लग गयी, सारे दरबारी
बड़ी—बड़ी
तलवारें
लटकाए खड़े
बाएं तरफ।
सिर्फ एक दुबला—पतला
आदमी, जिसकी
कोई हैसियत ही
न थी दरबार
में, जो
आखिरी समझा
जाए, वह भर दायीं तरफ
आकर खड़ा हो
गया।
अकबर
ने भी कहा कि
हद हो गयी, बड़े—बड़े
बहादुर, सूरमा,
युद्धों के
विजेता बड़े तमगे
जिन्होंने
जीते, सोने
के तमगे
लटकाए हुए और
तलवारें...खड़े
हैं बायीं
तरफ सिर झुकाए
और यह बिल्कुल
सूखा—रूखा
आदमी, एक
तमगा कभी जीता
नहीं, कभी
एक युद्ध में लड़ा नहीं, तलवार पकड़ने
का शऊर नहीं——यह
खड़ा है दायीं
तरफ! मगर फिर
भी कहा कोई
बात नहीं, कम—से—कम
एक आदमी तो है
दरबार में जो
अपनी पत्नी से
नहीं डरता।
उस
आदमी ने कहा :
क्षमा करें
महाराज! आप
गलत न समझें।
जब मैं घर से
चलने लगा तो
मेरी पत्नी ने
कहा——भीड़—भाड़
से जरा दूर ही
खड़े होना।
इसलिए मैं इस
तरफ खड़ा हूं, और
कोई कारण नहीं
है। कहीं उस
दुष्ट को पता
चल जाए कि भीड़—भाड़
में खड़ा हुआ
तो रात ही
मुसीबत...।
मैंने
एक और कहानी
सुनी है। किसी
और सम्राट के
दरबार में यही
बात चली।
सदियों
पुरानी है यह बात
क्योंकि आदमी
और स्त्री का
संबंध सदियों—सदियों
में विचारा
गया है और अब
तक रुग्ण है, अब
तक भी स्वस्थ
नहीं हो पाया
है। पूछने पर
पता चला कि
सारे दरबारी
अपनी
पत्नियों से
डरते हैं। तो
उसने अपने बड़े
मंत्री को कहा
कि तू दो घोड़े
लेकर जा——एक
काला और एक
सफेद, हमारे
जो श्रेष्ठतम
घोड़े हैं और
सारे राज्य
में घूम और जो
व्यक्ति भी
पत्नी से न
डरता हो, वह
जो भी घोड़ा
पसंद करे, उसको
दे देना भेंट
मेरी तरफ से।
उन
दिनों घोड़ा
बड़ी शानदार
चीज थी और
सम्राट के पास
सचमुच ही
कीमती घोड़े
थे। वह आदमी
लेकर चला, हजारों
लोगों से पूछा
लेकिन
उन्होंने कहा
कि भाई, घोड़ा
लेने का तो
बहुत दिल होता
है मगर झूठ
बोलना ठीक
नहीं है। और
सम्राट से झूठ
बोलना क्या उचित,
फिर बात पकड़
गयी पीछे तो
झंझट होगी, हम तो डरते
हैं। थका जाता
था वजीर कि एक
दिन एक ठेठ
जंगली स्थान
में जहां दो—चार
झोपड़े थे,
एक आदमी
बैठा हुआ अपने
शरीर पर मालिश
कर रहा है, बड़ी—बड़ी
उसकी मसल हैं,
बड़े पंजे
हैं उसके, होगा
कम—से—कम सात
फीट ऊंचा कि
अगर शेर से भी
जूझ जाए तो शेर
को भी पछाड़
दे ऐसा उसका
बल है। वजीर
को ढाढ़स
बंधा। उसने
कहा कि कम—से—कम
यह आदमी घोड़ा
जीत लेगा।
घोड़े को सामने
बांधकर वजीर
ने उससे पूछा
कि भई पूछता
हूं तुमसे, अपनी पत्नी
से तो नहीं
डरते?
उस
आदमी ने अपना
पंजा वजीर को
दिखलाया और
पंजा बंद करके
दिखलाया और
कहा कि देखते
हो यह पंजा, जिसकी
गर्दन पर कस
जाए वह खत्म।
उसने अपनी मसलें
उठाकर बतायीं।
उसने कहा, देखते
हो ये मसल, ये
चट्टान पर हाथ
मार दूं तो
चट्टान टूट
जाए।
वजीर
ने कहा : तो फिर
ठीक,
तेरी पत्नी
कहां है?
तो
पत्नी पास ही
बैठी हुई अनाज
बीन रही थी, एक
दुबली—पतली
औरत, बिल्कुल
दुबली—पतली
औरत कि यह
आदमी तो उसको मरोड़ कर
फेंक दे तो
उसका कहीं पता
ही न चले। कहा :
वह है मेरी
पत्नी।
तो
वजीर ने कहा
कि ठीक है तो तुम
घोड़ा चुन लो।
सम्राट ने कहा
है कि जो भी अपनी
पत्नी से न
डरता हो, वह
घोड़ा चुन ले, सफेद या
काला, कौन—सा
घोड़ा?
उस
आदमी ने कहा :
लल्लू की मां, कौन—सा
घोड़ा चुनूं——सफेद
कि काला?
वजीर
ने कहा : कोई भी
नहीं मिलेगा।
गए काम से।
अगर यह भी लल्लू
की मां से ही
पूछना है तो
मालकियत
खत्म।
पुरुष
ने स्त्री की
सारी
स्वतंत्रता
छीन ली है और
इसलिए स्त्री
के पास अब कुछ
नहीं बचा है स्वतंत्रता
के नाम पर। और
उसका
प्रतिशोध
स्त्री लेती
है इसलिए
पुरुष को सब
तरह से सता
सकती है। उसके
सताने के
ढंग स्त्रैण
हैं। पुरुष
गुस्से में आ
जाएगा तो
स्त्री को
मारेगा, स्त्री
गुस्से में आ
जाएगी तो अपना
सिर पीटेगी।
मगर तुम
स्त्री को
मारो तो अपना
बचाव कर सकती
है और जब
स्त्री अपना
सिर पीट ले तो
क्या बचाव
करोगे तुम? उसके
तुम्हें सताने
के ढंग भी
बहुत भिन्न
हैं——वह रोएगी,
दुखी होगी,
पीड़ित होगी,
और तुम्हें
इस हालत में
पैदा कर देगी
कि तुम्हें
लगने लगे कि
तुम अपराधी
हो। मगर इसके
भीतर सदियों
पुरानी एक
भ्रांत धारणा
काम कर रही है
कि स्त्री—पुरुष
मित्र नहीं हो
सकते। अब तक
हमने स्त्री को
स्वतंत्रता
नहीं दी है और
जब तक
स्वतंत्रता
नहीं है
स्त्री को, तब तक पुरुष
भी स्वतंत्र
नहीं हो सकता।
संन्यास
तुम लेना
चाहते हो, शुभ
भाव तुम्हारे
मन में उठा, लेकिन जल्दी
न करो, जल्दी
की कोई जरूरत
नहीं है। मेरा
अपना अनुभव यह
है कि अगर
पत्नी और पति
दोनों साथ—साथ
संन्यास
लें तो गहराई
बहुत बढ?ती
है। क्योंकि
दोनों एक—दूसरे
के सहयोगी हो
जाते हैं; दोनों
का तालमेल गहन
बैठ जाता है; दोनों बाधा
नहीं बनते, एक—दूसरे के
लिए सीढ़ी बन
जाते हैं, एक—दूसरे
को हाथ का
सहारा देते
हैं। अगर दो
में से एक भी
संन्यास ले ले तो
दूसरा बाधा
डालने की
कोशिश करता है,
दूसरा हर
तरह से अड़चन
खड़ी करता है।
और संन्यास तो
वैसे ही कठिन
साधना है।
संसार में
रहकर फिर अगर
बाधाएं पैदा
की जाएं और घर
में ही बाधाएं
पैदा की जाएं
तो मुश्किल हो
जाएगा ध्यान
में उतरना, मुश्किल हो
जाएगा चैतन्य
को जगाना——छोटी—छोटी
बातें, छोटा—छोटा
उपद्रव चौबीस
घंटे घेरे
रहेगा।
इसलिए
मेरी सलाह है——पत्नी
को भी लाओ, उसे
भी मुझे सुनने
दो, उसे भी
सत्संग में
डूबने दो।
संन्यास की
बात ही अभी मत
उठाओ, ज़रा ठहरो। हर
चीज अपने समय
पर शुभ है।
संन्यास होगा
अगर अभीप्सा
जगी है तो
होगा, कोई
भी रोक नहीं
सकता——न पत्नी
रोक सकती है, न कोई और रोक
सकता है। अगर
तुम्हारे
प्राणों में
गीत बज गया है
तो घटना
घटेगी। जो
भीतर है वह
बाहर भी घटेगा,
लेकिन बाहर
की बहुत जल्दी
मत करना।
इन
हीरे ऐसे अश्कों
को आरिज पर लुटाकर
मत रोको
याकूत
के ऐसे होठों
को दांतों से
चबाकर मत रोको
इक बात
है जो रह
जाएगी, यह
वक्त कहां फिर
पाऊंगा
उस पार
मुझे जाने भी
दो,
रोको न मुझे
मैं जाऊंगा
खूंखार
निगाहों के डर
से लब तक न
हिलें यह क्या
मानी
तकदीर
की भोली बातों
को हम सुनते
रहें यह क्या
मानी
सदियों
के भयानक माजी
की इन कंदीलों
को बुझाऊंगा
उस पार
मुझे जाने भी
दो,
रोको न मुझे
मैं जाऊंगा
कब तक
यह अमामा
कु१७९ाोदीन
के ढोंग रचाए
जाएगा
कब तक
यह पुजारी
दुनिया को
उंगली पै नचाए
जाएगा
इन झगड़ों
से जो पाक रहे
वह बस्ती एक बसाऊंगा
उस पार मुझे
जाने भी दो, रोको
न मुझे मैं जाऊंगा
ऐसा भी
जमाना आएगा, जब
हम दोनों मिल
जाएंगे
हर
मंजर कैफ—आगी
होगा, हर कैफ
पै हम लहराएंगे
दुनिया
ही निराली पाओगी, जिस
वक्त मैं
वापिस आऊंगा
जाना
है उस पार——उस
पार यानी भीतर, उस
पार यानी
अंतर्तम में।
जाना है उस
पार और कोई
रुकावट से
रुकना नहीं
है। मगर एक
कुशलता चाहिए,
एक कला
चाहिए।
संन्यास
बड़ी—से—बड़ी
कला है। और जब
तुम परिवार
में हो——पत्नी
है,
बच्चे हैं,
मां है, पिता
है——धीरे—धीरे
सबको राजी करो;
उनके राजीपन
से जाओ। भीतर
तो जाना शुरू
कर दो, ध्यान
में तो उतरने
लगो लेकिन
बाहर का जो
रूपांतरण है
वह सबके राजीपन
से।
महावीर
के जीवन में
प्यारा
उल्लेख है।
महावीर
संन्यस्त
होना चाहते
थे। महावीर की
मां ने कहा :
"मेरे रहते
नहीं, मैं जब
मर जाऊं तब, मैं न सह
पाऊंगी और अगर
तुमने
संन्यास लिया
तो तुम्हारा
संन्यास मेरी
मौत बनेगी।"
महावीर तो यह
सोच भी नहीं
सकते थे कि
कोई मौत उनके
कारण हो।
चींटी को भी
मारने की उनकी
इच्छा न थी, तो अपनी मां
को मारते! परोक्षरूपेण
सही मगर जुम्मेवारी
तो होती, तो
रुक गए। दो
साल बाद मां
की मृत्यु हो
गयी। दफना कर
लौट रहे हैं।
रास्ते में
अपने बड़े भाई
से कहा कि अब
मुझे आज्ञा दे
दें, मां
की वजह से
रुका था।
बड़े
भाई ने कहा :"हद
हो गयी, एक
पहाड़ हमारी
छाती पर टूटकर
गिरा कि मां
चल बसी और
तुम्हें शर्म
नहीं आती? मुझे
छोड़कर जाते
हो। यह वक्त
जाने का है? मुझे सहारा
दो। अभी नहीं,
जब तक मैं
आज्ञा न दूं
संन्यास
नहीं।"
और
महावीर फिर
रुक गए। लेकिन
दो वर्ष में
ही भाई को
आज्ञा देनी
पड़ी;
आज्ञा ही
नहीं देनी पड़ी,
प्रार्थना
करनी पड़ी।
क्योंकि दो
वर्ष में महावीर
ध्यान में
उतरते गए, उतरते
गए, उतरते
गए। ऐसे ध्यान
में उतर गए कि
घर में उनकी
मौजूदगी भी
पता चलनी बंद
हो गयी। ऐसे
शून्य हो गए
कि हैं या
नहीं बराबर हो
गया। लोग गुजर
जाते उन्हें
पता न चलता, वे स्वयं
गुजरते तो
लोगों को उनका
पता न चलता; न किसी के
काम में अड़चन
न किसी के काम
में बाधा, न
हस्तक्षेप, न अवरोध।
होना न होने
के बराबर कर
दिया, बिल्कुल
बराबर कर
दिया। आखिर एक
दिन घर के लोगों
को ही यह
अनुभव में आना
शुरू हुआ कि
अब हम व्यर्थ
रोक रहे हैं।
किसको रोक रहे
हैं? अब
सिर्फ शरीर
रुका है, पिंजड़ा
पड़ा है; हंसा
तो जा चुका, हंसा तो उड़
गया। घर के
सारे लोगों ने
जुड़कर
प्रार्थना की
महावीर से कि
अब हम न
रोकेंगे; अब
ज्यादती हो
जाएगी, अब
तुम्हें जो
शुभ लगता हो
वैसा करो
क्योंकि वैसे
ही तुम जा
चुके हो, सिर्फ
देह रुकी है।
यही
मैं तुमसे भी
कहूंगा। हवा
बनाओ घर की, एक
वातावरण बनाओ
घर का।
तुम्हारा
ध्यान बढ़े, तुम्हारा प्रेम
बढ़े, तुम्हारी
शांति बढ़े, तो पत्नी
क्यों अड़चन
देगी? तो
बच्चे क्यों
बाधा डालेंगे?
और पत्नी
अगर अड़चन दे
रही है तो
उसका कारण है——सदियों—सदियों
से संन्यास के
नाम पर जो हुआ
है, वह।
सदियों—सदियों
में पत्नियां
सतायी
गयी हैं, बच्चे
अनाथ हो गए
हैं——बाप
जिंदा है और
बच्चे अनाथ हो
गए हैं
क्योंकि बाप
संन्यासी हो
गया; पति
जिंदा है और
पत्नी विधवा
हो गयी
क्योंकि पति
संन्यासी हो
गया।
पांच
हजार साल भारत
में
स्त्रियों ने
जो सहा है
संन्यास के
नाम पर, वह
इतना ज्यादा
है कि कोई भी
पत्नी भयभीत
हो जाएगी।
संन्यास शब्द
ही दूषित हो
गया। फिर तुम
चाहे मेरे
संन्यासी
होना क्यों न
चाहो, संन्यास
शब्द से ही घबड़ाहट
पैदा हो जाती
है। ज़रा
पत्नी को आने
दो सत्संग में,
उसे समझने
दो कि यह
संन्यास एक
नया ही अवतरण
है, एक नयी
धारणा है——यह न
तो स्त्री के
खिलाफ है, न
बच्चों के
खिलाफ है, न
परिवार के, न प्रेम के; यह तो पक्ष
में है। मेरा
संन्यास
संसार के विपरीत
है, संसार
के अतिक्रमण
में है। संसार
को छोड़ना नहीं
है, संसार
में जागना है।
लेकिन
भीतर तो तुम
ध्यान में
उतरता शुरू हो
जाओ;
उसमें तो
कोई बाधा नहीं
डालेगा, उसमें
तो पत्नी की
आज्ञा लेने की
जरूरत नहीं है,
पत्नी को
पता ही क्यों
चले। रात के
आधे, आधी
रात जब पत्नी
भी सोयी हुई
हो तब उस
बिस्तर पर बैठ
जाओ। किसी को
पता ही क्यों
चले, कानों—कान
खबर क्यों हो!
लेकिन ध्यान
में डूबने
लगो। ध्यान ही
असली संन्यास
है। फिर बाहर
के कपड़े तो
कभी भी रंग
देंगे, बाहर
के कपड़ों के
रंगने की इतनी
चिंता नहीं
है। और बाहर
के कपड़ों को रंगकर
झंझट इतनी खड़ी
हो जाए कि
भीतर का ध्यान
मुश्किल में
पड़ जाए, ऐसी
सलाह मैं नहीं
दे सकता हूं।
आखिरी
सवाल :
भगवान!
मैं अपने मन
के शैतान से
संघर्ष का सतत
अभ्यास कर रहा
हूं फिर भी
सफलता क्यों
नहीं मिलती?
रामानंद!
संघर्ष में ही
विफलता है।
संघर्ष में
सफलता संभव
नहीं है।
संघर्ष गलत
प्रारंभ है।
समझ चाहिए, संघर्ष
नहीं। जिससे
तुम लड़ोगे,
उसको तुम बल
दोगे क्योंकि
जिससे तुम लड़
रहे हो वह
तुम्हारा ही
अंग है। मन से
लड़ रहे हो, किससे
लड़ रहे हो? मन
तुम्हारी
ऊर्जा है। क्रोध
है, लोभ है,
मोह है, काम
है——ये
तुम्हारी ही ऊर्जाएं
हैं; इनसे
तुम लड़ोगे
तो अपने बाएं
हाथ को दाएं
हाथ से लड़ा
रहे हो। पागल
हो! कौन
जीतेगा, कौन
हारेगा? न
कभी जीत होगी,
न कभी हार
होगी। शक्ति गंवाओगे
और टूटोगे,
खंडित
होओगे, नष्ट
होओगे; विक्षिप्त
हो जाओगे, विमुक्त
नहीं।
संघर्ष
नहीं चाहिए, समझ
चाहिए। मन को
समझो। मन की
प्रत्येक
अभिव्यक्ति
को समझो।
क्रोध क्या है,
समझो।
क्रोध की
गहराई में
उतरो। क्रोध
की आधारशिला
में उतरो।
क्रोध की जड़
को पकड़ो। काम
क्या है, समझो।
तुम्हें लड़ना
सिखाया गया है,
समझना नहीं
सिखाया गया।
और जितना तुम
लड़ोगे उतना
ही तुम
मुश्किल में
पड़ोगे।
क्योंकि जितना
तुम लड़ोगे,
उतना ही
तुम्हारा मन
भी लड़ने में
कुशल हो जाएगा।
जब दो आदमी
लड़ते हैं तो
दोनों की
कुशलता बढ़ती
है। अखाड़ों
में देखते हो
न, लोग
अभ्यास के लिए
कुश्ती करते
रहते हैं——दोनों
की कुशलता
बढ़ती रहती है।
तुम अगर मन से लड़ोगे, तुम्हारी
भी लड़ने की
क्षमता बढ़ेगी——दोनों
बलशाली होते
जाओगे। और
जितने बलशाली
होओगे, उतना
ही संघर्ष
ज्यादा, उतना
ही शक्ति का
अपव्यय
ज्यादा।
ऐसे
नहीं चलेगा।
मैं संघर्ष
नहीं सिखाता।
मेरा तो सारा
सूत्र समझ का
है। ध्यान करो
मन पर लड़ना क्या
है! मन बुरा है, ऐसा
मानकर क्यों
बैठ गए? समझाया
है पंडित—पुरोहितों
ने तो मान
लिया है।
इसीलिए तो
चाहता हूं कि
पंडित—पुरोहितों
से मुक्त हो
जाओ; उनके
कारण ही
तुम्हारी
जिंदगी झंझट
बनी है। उनके
कारण ही
तुम्हारी
जिंदगी लंबी
कहानी है व्यथा
की, जिसमें
आनंद का कोई
गीत न फूटा है,
न फूट सकता
है। जिसमें
विषाद ही
विषाद आएगा और
मौत आएगी——महा
जीवन नहीं, अमृत का
तुम्हें काई
अनुभव न हो
सकेगा।
लड़ने
का मतलब होता
है——दबाना।
किसी तरह
दबाकर बैठ भी
गए तो आज नहीं
कल,
कभी तो
छुट्टी
लोगे...इसलिए
तुम्हारे
साधु—संत
छुट्टी नहीं
ले सकते, चौबीस
घंटे छाती पर
चढ़े बैठे
रहेंगे, अपनी
ही छाती पर
खुद ही चढ़े
बैठे हैं।
थोड़ी देर को
भी फुर्सत
नहीं है। हंस
भी नहीं सकते
क्योंकि उतनी
छुट्टी लेने
में भी खतरा
है, उतनी
देर में ही वह
जो दबाया है, वह उभरकर
बाहर आ जाए!
तुम्हारे
साधु—संत आंख
नीचे झुकाकर
चलते हैं——कोई
सुंदर स्त्री
रास्ते पर
दिखाई न पड़
जाए! यह
मुक्ति हुई या
बंधन हुआ? अगर
सुंदर स्त्री
के दिखाई पड़ने
में इतनी घबड़ाहट
है, यह कौन—सी
जीत है? इस
जीत की कितनी
कीमत है? दो
कौड़ी भी
मूल्य नहीं।
अगर ऐसे आंख
चुरा—चुराकर
चले तो सबूत
दे रहे हो तुम
कि तुम्हारे
भीतर सब रोग
मौजूद हैं।
हां, पर्दे
की ओट कर दिए
हैं। और रोग
पर्दे की ओट
में बलशाली हो
जाते हैं, ख्याल
रखना, क्योंकि
वे भी अभ्यास
कर रहे हैं, वे भी डंड—बैठक
लगा रहे हैं
वे भी तैयारी
कर रहे हैं, कि अब की बार
हमला हो तो
तुम्हें
चारों खाने चित
कर देना है।
मैंने
सुना है——एक
बार एक शिकारी
जोकि नया—नया
शिकारी हुआ था, शिकार
के लिए जंगल
गया। जैसा कि
शिकार में होता
है; वृक्ष
पर मचान बंधवाया
गया। कुछ समय
पश्चात् शेर
आया। शिकारी
ने शेर को
देखा और शेर
ने शिकारी को।
शिकारी नया था,
शेर भी नया
था। इसलिए
स्वभावतः
शिकारी का निशाना
चूक गया और
गोली शेर के
ऊपर से निकल
गयी। इधर शेर
ने भी शिकारी
की तरफ छलांग
मारी, मगर
वह भी मचान से
करीब चार—छः
इंच नीचे रह
गया। शिकारी
ने उसकी गर्म
सांसें और लाल—लाल
आंखें अपने
बहुत निकट
महसूस कीं।
छलांग में
असफल हो जाने
पर शेर भाग
गया।
शिकारी
अपनी असफलता
पर बहुत दुखी
था,
अतः वह
दूसरे दिन
निशानेबाजी
की प्रैक्टिस
के लिए जंगल
पहुंचा। वह
जिस जगह
प्रैक्टिस कर
रहा था, उसने
देखा : पास की
झाड़ियों से
बार—बार किसी
चीज के गिरने
की आवाजें आ
रही हैं। उसने
सोचा : आखिर
बात क्या है, देखना
चाहिए।
देखा, तो
आश्चर्य का ठिकाना
न रहा—— कल वाला
शेर झाड़ियों
में ऊंची कूद
की प्रैक्टिस
कर रहा था।
तुम
अभ्यास करोगे
मन से लड़ने का, मन
भी अभ्यास
करेगा तुमसे
लड़ने का, जीत
कभी होने वाली
नहीं। संघर्ष
से कभी कोई सफलता
हाथ नहीं
लगती। संघर्ष
ही तुम्हारी
असफलता का
आधार है। समझ
को पकड़ो, बोध
को पकड़ो।
ज्ञान का, ध्यान
का दीया जलाओ!
मन के साथ
पहले से ही
पक्षपात मत कर
लो कि बुरा
है। परमात्मा
ने जो भी दिया
है शुभ ही है, हमें उसका
उपयोग करना
आना चाहिए।
क्रोध का अगर
कोई ठीक—ठीक
राज खोल ले तो
करुणा प्रगट
होती है। और
कामवासना की
ग्रंथि को जो
खोलने में
समर्थ हो जाता
है, उसके
जीवन में
ब्रह्मचर्य
का फूल लगता
है। कामवासना
ब्रह्मचर्य
को छिपाए है।
कामवासना बीज
है, ब्रह्मचर्य
फूल है। और
क्रोध करुणा
की खोल है।
खोल गिर जाए, करुणा प्रगट
हो।
बीज को
फेंक मत देना
और बीज से
लड़ना नहीं है, बीज
को जमीन में
बोना है। समझ
की भूमि में
बीज को बोओ, ध्यान की
वर्षा होने दो,
ज्ञान की
धूप पड़ने दो, प्रेम को
रखवाली करने
दो और जल्दी
ही वह घड़ी आएगी
कि तुम जिन हो
सकोगे, तुम
विजेता हो
सकोगे। मैं
तुम्हें जो
सिखा रहा हूं
वह बिना लड़े
जीत की कला
हैः बिना लड़े
विजय का
शास्त्र है।
आज
इतना ही।
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