दिनांक
25 मई, 1979;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना।
सूत्र:
जहां
तक समुंद
दरियाव जल कूप
है,
लहरि
अरु बूंद एक
पानी।
एक
सुबर्न
को भयो गहना
बहुत,
देखु बीचारकै
हेम खानी।
पिरथी
आदि घट रच्यो
रचना बहुत,
मिर्तिका
एक खुद भूमि
जानी।
भीखा
इक आतमा
रूप बहुतै
भयो,
बोलता
ब्रह्म चीन्है
सो ज्ञानी।
राखो
मोहि आपनी
छाया। लगैं
नहिं रावरी
माया।
कृपा
अब कीजिए
देवा। करौं
तुम चरन की
सेवा।
आसिक
तुझ खोजता
हारे। मिलहु
मासूक आ
प्यारे।
कहौं
का भाग मैं
अपना। देहु
जब अजप का
जपना।
अलख
तुम्हरो
न लख पाई। दया
करि देहु बतलाई।
वारि
वारि जावं
प्रभु तेरी। खबरि कछु
लीजिए मेरी।
सरन
में आय मैं गीरा।
जानो तुम सकल परपीरा।
अंतरजामी
सकल डेरो।
छिपो
नहिं कछु करम मेरो।
अजब
साहब तेरी
इच्छा। करो
कछु प्रेम की सिच्छा।
सकल
घट एक हौ आपै। दूसर
जो कहै मुख कापै।
निरगुन
तुम आप गुनधारी।
अचर चर सकल
नरनारी।
जानो
नहिं देव मैं
दूजा। भीखा इक
आतमा
पूजा।
आत्मा
किसी
फल की तरह
पक गई
है
देह
पुराने किसी
वृक्ष
की तरह
थक गई
है
पहले
वृक्ष
गिरेगा या फल
क्या
जाने
पल
गिरने का
दोनों
के
पास है
आसपास
मेरे
अंतिम
आनंदों का
महारास
है
और मैं
एक
घना
उजाला
हुआ जा
रहा हूं
अनजाने
तत्वों से
निरंतर
छुआ जा
रहा हूं
वृक्ष
थकी देह है
आत्मा
पका फल
गिरने
का पल
दोनों
का पास है
आसमान
जरूरत
से ज्यादा
पीला
हो गया है
और
प्रतिबिंबित
है
आत्मा
के पके फल का
रंग
ऊपर
उठकर उस
पीलेपन पर
मन पर
कुछ
इंद्रधनुष
जैसा
खिंच
गया है
अंतिम
आनंदों का
महारास
वर्षा
की एक
झड़ी
है मानो
जीवन
की संध्या की
यह
मनचीती
घड़ी है मानो
लेकिन
बहुत कम ऐसे
सौभाग्यशाली
लोग हैं जो जीवन
की अंतिम घड़ी
में ऐसा कह
सकें कि
जीवन
की संध्या की
यह मनचीती
घड़ी है मानो
अंतिम
आनंदों का
महारास वर्षा
की एक
झड़ी
है मानो
बहुत
कम सौभाग्यशाली
ऐसे लोग हैं
जो यह कह सकें
जब मृत्यु द्वार
पर दस्तक दे—
आसपास
मेरे
अंतिम
आनंद का
महारास
है
और मैं
एक
घना
उजाला
हुआ जा
रहा हूं
अनजाने
तत्त्वों
से
निरंतर
छुआ जा
रहा हूं
मरते
सभी हैं, लेकिन
कुछ ऐसे मरते
हैं कि मर कर
अमृत को पा लेते
हैं। जीते सभी
हैं, लेकिन
कुछ ऐसे जीते
हैं कि जीवन
को जान ही नहीं
पाते और कुछ
ऐसे जीते हैं
कि जीवन में
ही महाजीवन
की झलक पकड़ आ
जाती है। जीवन
को ऐसे जीना
कि जीवन का
सत्य पकड़ में
न आए—संसार है;
और जीवन को
ऐसे जीना कि
जीवन का आधार
पकड़ में आ जाए—संन्यास
है। संन्यास
और संसार जीवन
को जीने की
शैलियों के
नाम हैं।
और
संसारी अभागा
है क्योंकि
जिएगा तो जरूर
लेकिन पाएगा
कुछ भी नहीं; दौड़ेगा बहुत, पहुंचेगा
कहीं भी नहीं;
बड़ी
आपाधापी और
हाथ में अंततः
राख के सिवाय
कुछ भी नहीं; बहुत भाग—दौड़,
बड़ी चिंता,
बड़ा संघर्ष,
मिलती है
अंत में कब्र।
संन्यासी वह
है जो जीवन को जागकर
जीता है; जो
जीने में
जागने को जोड़
देता है; जो
जीवन के
अंधेरे में
ध्यान का दीया
जला लेता है।
फिर पहचान
होने लगती है
परमात्मा से,
फिर रोज—रोज
घनी होने लगती
है यह पहचान, आलिंगन रोज—रोज
गहरा होने
लगता है, यह
मिलन महामिलन
बन जाता है।
वह घड़ी फिर
दूर नहीं जब
छूटना नहीं हो
सकेगा। और तब
तुम्हारे
जीवन का
अंधेरा भी
उजाला हो
जाएगा और रात
भी दिन और
मृत्यु भी अमृत!
आसपास
मेरे
अंतिम
आनंदों का
महारास
है
और मैं
एक
घना
उजाला
हुआ जा
रहा हूं
अनजाने
तत्त्वों
से
निरंतर
छुआ जा
रहा हूं
मन पर
कुछ
इंद्रधनुष
जैसा
खिंच
गया है
अंतिम
आनंदों का
महारास
वर्षा
की एक
झड़ी
है मानो
जीवन
की संध्या की
यह
मनचीती
घड़ी है मानो
लेकिन
संध्या के
सौंदर्य को वे
ही जान पाएंगे
जिन्होंने
प्रभात का
सौंदर्य भी
जाना है और भरी—दोपहरी
का आनंद भी।
जो पल—पल घड़ी—घड़ी
उसके नृत्य को
पहचानते चले, वे संध्या
में उसका
महारास देख सकेंगे।
लेकिन
जिन्होंने
पूरा दिन ही
सोए—सोए बिता
दिया, संध्या
भी उनकी
व्यर्थ हो
जाएगी।
अधिक
लोगों की जीवन
की यात्रा तो
व्यर्थ है ही, मृत्यु की
मंजिल भी
व्यर्थ हो
जाती है। और
इसीलिए तो तुम
इतने डरे हुए
हो मृत्यु से।
तुम्हारा डर
मृत्यु का डर
नहीं है, तुम्हारा
डर इसी बात का
है कि अभी तो
जीवन जिया
नहीं, कहीं
मौत न आ जाए!
अभी तो फल पका
नहीं, कहीं
डाल से गिर न
जाए। अभी तो
वृक्ष फूला भी
नहीं, कहीं
सूख न जाए।
अभी वसंत तो
आया ही नहीं
और यह पतझड़
आने लगा और ये
पत्ते सूखने
और झरने लगे।
तुम्हारा भय
मृत्यु का भय
नहीं है, तुम्हारा
भय है कि आज तक
तो मैं व्यर्थ
ही रहा हूं और
कल का अब कुछ
भरोसा न रहा।
मौत तुमसे "कल"
छीन लेगी, और
क्या छीनेगी?
लेकिन जो आज
जिया है, उससे
क्या छीन सकती
है मौत? मौत
सिर्फ "कल"
छीन सकती है,
"आज" नहीं
छीन सकती। मौत
सिर्फ भविष्य
छीन सकती है, वर्तमान नहीं
छीन सकती। तुम
मौत की
नपुंसकता
देखते हो, सिर्फ
भविष्य छीन
सकती है; भविष्य—जोकि
है ही नहीं; वर्तमान को
नहीं छीन सकती;
वर्तमान—जोकि
है।
इसलिए
जो वर्तमान
में जीना सीख
ले वही संन्यासी
है। और जो
वर्तमान में
जी लेता है, वह परमात्मा
से परिचित हो
जाता है
क्योंकि
वर्तमान
परमात्मा की
अभिव्यक्ति
है। अनंत—अनंत
रूपों में, वह एक ही
प्रकट हो रहा
है—वही
पक्षियों के
गीत में, वही
रात के
सन्नाटे में,
वही झरनों
के संगीत में,
उसी की
टंकार है वीणा
में, वही
बादलों की
गड़गड़ाहट में।
लेकिन
कौन होगा
परिचित उससे? जो वर्तमान
के क्षण में
जागरूक होगा।
हम तो सोए
हैं। हम तो
ऐसे सोए हैं
कि अतीत के
सपने देखते
हैं: जो बीत
गया उसे
दोहराते हैं,
उसकी
जुगाली करते
हैं। हम तो
भैंसों की तरह
हैं। बैठे हैं,
जुगाली कर
रहे हैं। और
या फिर भविष्य
की कल्पनाएं
करते हैं। जो
नहीं है, उसमें
हमारा बड़ा रस
है—अतीत भी
नहीं है और
भविष्य भी
नहीं है। और
जो है, उसकी
तरफ पीठ किए
बैठे हैं। हम
जैसा
बुद्धिमान
खोजना बहुत
मुश्किल है!
है तो
यह क्षण, यह
क्षण महा क्षण
है क्योंकि
इसी क्षण से
शाश्वत का
द्वार खुलता
है। जो इस
क्षण में झांकता
है, वह
नास्तिक नहीं
रह सकता। इस
क्षण में झांकते
ही परमात्मा
की छवि इतने
रूपों में टूट
पड़ती है, इतनी
दिशाओं से, इतने आयामों
से, झड़ी लग जाती है, धुआं—धार झड़ी
लग जाती है।
फिर कैसे तुम रीते रह
जाओगे? फिर
कैसे तुम
अनछुए रह
जाओगे? फिर
कैसे तुम बिना
भीगे रह जाओगे?
आंखें ही
नहीं भीगेंगी,
तुम्हारी
आत्मा भी भीग
जाएगी। आनंद
तुम्हारे पोर—पोर
में समा
जाएगा।
और
परमात्मा, स्मरण रहे, मंदिरों और मस्जिदों
में छिपा हुआ
नहीं बैठा है।
परमात्मा
प्रगट है, निर्वस्त्र
है, चारों
तरफ मौजूद है।
झांको तो
तुम्हारे
भीतर मौजूद है
और ऐसे दौड़ते
रहो काबा और
काशी और कैलाश.....तुम्हारी
मर्जी! लोग
सस्ता पाना
चाहते हैं कि चले
तीर्थयात्रा
को चले हज—यात्रा
को। परमात्मा
इतना सस्ता
नहीं मिलता, नहीं तो सब
हाजियों को
मिल जाए—हाजी मस्तान को
भी मिल जाए।
परमात्मा
इतना सस्ता
नहीं मिलता, नहीं तो हर
तीर्थयात्री
को मिल जाए।
और कुछ लोग तो तीर्थो
में अड्डा
जमाकर ही बैठे
हैं, उनको
तो ऐसा मिले....।
लेकिन
काशी जाकर
देखा? भीखा
सबसे पहले
काशी गए थे, इसी आशा में
कि शायद काशी
में मिल जाएगा—भटके
बहुत, द्वार
खटखटाए
बहुत, अंततः
खाली लौटे।
कहा लौटकर कि
शास्त्र को जानने
वाले बहुत हैं
वहां लेकिन
सत्य को जानने
वाला कोई भी
नहीं। काशी के
लोग तो नाराज
होंगे। काशी
पुण्य नगरी और
कोई कह दे कि
सत्य को जानने
वाला कोई
नहीं। और यह
भीखा, यह
छोकरा इसको
जैसे सत्य का
पता हो! काशी
के महापंडितों
को खली होगी
बात। लेकिन
भीखा भी क्या
करे—जैसा है
वैसा न कहे तो
क्या करे !
उसने कहा :
देखा बहुत
शास्त्र—ज्ञान,
बड़े शब्दों
के धनी, व्याकरण
के जानकार; वेदों के
पंडित, जिन्हें
वेद कंठस्थ, ब्रह्मसूत्र
कंठस्थ, गीता
कंठस्थ; जिनकी
भाषा में बड़ा
माधुर्य; जिनके
तर्क—जाल बड़े सुगढ़, बड़े
गणित की कसौटी
पर कसे हुए; जिनसे विवाद
मुश्किल, जो
किसी का भी मुंह
बंद कर दें, जो बड़े शास्त्रार्थी—लेकिन
सत्य जिनके
पास नहीं, सत्य
का अनुभव
जिनके पास
नहीं। लौट आए
काशी से, खाली
हाथ लौट आए।
और
मिला सत्य, जरूर मिला; जिसकी तलाश
है उसे
मिलेगा। जो
प्यासा है, उसे मिलेगा।
प्यासे के लिए
सरोवर
निश्चित है।
प्यास बनाई
परमात्मा ने,
उसके पहले
सरोवर बनाया
है। भूख दी, उसके पहले
भोजन। तलाश दी,
उसके पहले
मंजिल।
यह जगत
एक अराजकता
नहीं है—यह
जगत एक बड़ा
सुसंगत, संगीतबद्ध,
लयबद्ध, अनुशासित,
अस्तित्व
है। यहां
प्रत्येक
घटना जो घट
रही है, यूं
ही नहीं, अनायास
नहीं—१३७ाृखला
है एक, सुसंगति
की व्यवस्था
है एक, भीतर
छिपे हाथ हैं
कोई जो सब
सम्हाले हैं।
इतना विराट
अस्तित्व
दुर्घटना
नहीं हो सकता।
वैज्ञानिक
कहते है : यह
सिर्फ एक
दुर्घटना है।
ऐसा कहकर
वैज्ञानिक
यही बताते हैं
कि विज्ञान भी
एक नया
अंधविश्वास
हो गया है। इस
विराट
अस्तित्व को
दुर्घटना
कहते हो! रोज
सुबह सूरज उग
आता है, रोज
सांझ सूरज डूब
जाता है; इतने
चांदत्तारे—यह
सब व्यवस्था
से चल रहा है।
इतनी
व्यवस्था, इतनी संगति,
अकारण नहीं
हो सकती, इसके
पीछे महाकारण
होना ही
चाहिए।
तुम्हें अगर
रेगिस्तान
में एक घड़ी
पड़ी मिल जाए
तो क्या तुम
कह सकोगे—यह
अनायास ही
पैदा हो गई
होगी, सदियों—सदियों
तक हवा के थपेड़े
खाते—खाते, रेत और
पत्थरों की
चोट और वर्षा
और धूप—धाप इस
सब चोट खाते—खाते
यह यंत्र बन
गया होगा, यह
घड़ी बन गई
होगी? नहीं
तुम ऐसा न कह
सकोगे, बड़े—से
बड़ा
वैज्ञानिक भी
ऐसा न कह
सकेगा; वह
भी कहेगा कि
कोई यात्री
आया होगा.....।
मैंने
सुना है, एक
भारतीय
कारागृह में
तीन कैदी बंद
थे। कोई कारागृह
को देखने आया
था। उसने पहले
कैदी से पूछा
कि तुम क्यों
बंद हो?
उसने
कहा : घड़ी के
कारण।
समझा
नहीं कुछ
पूछने वाला, उसने कहा :
घड़ी के कारण!
क्या घड़ी
चुराई थी?
उसने
कहा : नहीं—नहीं, समझे नहीं
आप। मेरी घड़ी
थोड़ी धीमी
चलती है, इसलिए
दफ्तर रोज देर
से पहुंचता था,
सो
उन्होंने जेलखाने
में डाल दिया।
दूसरे
से पूछा : तुम
क्यों बंद हो?
उसने
कहा : मैं भी
घड़ी के कारण।
उन्होंने
कहा : हद हो गई!
तुम्हारी घड़ी
भी क्या धीमे—धीमे
चलती थी?
उसने
कहा कि नहीं, मेरी घड़ी
रोज तेज चलती
थी, मैं
रोज दफ्तर
जल्दी पहुंच
जाता था तो शक
हो गया कि
जल्दी क्यों
आता हूं, कुछ
मतलब होगा, रोज जल्दी
क्यों आता हूं,
कोई फाइल चुरानी है,
कोई दफ्तर
में सेंध
लगानी है!
तीसरे
से पूछा : और
तुम क्यों बंद
हो ?
उसने
कहा : मैं भी
घड़ी के कारण।
उस
आदमी ने कहा :
हद हो गई! घड़ी
ही घड़ी के
कारण लोग बंद
हैं! तुम्हारी
घड़ी को क्या
हो गया था?
उसने
कहा : मेरी घड़ी
बिल्कुल ठीक
समय पर चलती
थी, मैं ठीक
समय पर दफ्तर
पहुंचता था।
तो उस
आदमी ने पूछा
कि चलो इसको
पकड़ा कि धीमे, देर से
पहुंचता था :
इसको पकड़ा कि
जल्दी
पहुंचता था।
तुमको क्यों
पकड़ा?
उन्होंने
कहा : मुझे
इसलिए पकड़ा कि
उन्हें शक हुआ
कि घड़ी इंपोर्टिड
है, बिना टेक्स
चुकाए भीतर
लाई गई है।
भारत में तो
नहीं बनी इतना
पक्का है।
घड़ी
तुम्हें पड़ी
मिल जाए, रेगिस्तान
में तो तुम
एकदम से न कह
सकोगे कि आकस्मिक
है। इतने
विराट
अस्तित्व को
आकस्मिक कहते
हो? तो
विज्ञान भी
फिर
अंधविश्वास
की बातें करने
लगा। बड़े
वैज्ञानिक
ऐसा नहीं
कहते।
प्रसिद्ध
वैज्ञानिक एडिंग्टन
ने अपने जीवन—संस्मरणों
में लिखा है
कि जब मैं
युवा था तो सोचता
था कि जगत एक
वस्तु है—वस्तु—मात्र,
कोई चैतन्य
नहीं। लेकिन
अब अपनी
वृद्धावस्था
में, जीवन—भर
के अनुभव के
बाद मैं यह कह
सकता हूं कि
जगत वस्तु
जैसा नहीं
मालूम होता, विचार जैसा
मालूम होता है
और विचार भी
एक सुसंगत
विचार। इसके
पीछे कुछ
रहस्य छिपा
मालूम होता
है। अल्बर्ट
आइंस्टीन ने
कहा है कि
आकाश और चांदत्तारों
को खोजते—खोजते
एक बात तय हो
गई कि
रहस्यवादी जो
कहते हैं ठीक
ही कहते
होंगे। इतना
रहस्य है कि
इसके पीछे कोई
अदृश्य हाथ
होने ही
चाहिए।
जो
व्यक्ति
वर्तमान के
क्षण में
डुबकी मारेगा, रहस्य में
डुबकी लग
जाएगी उसकी और
रहस्य परमात्मा
का दूसरा नाम
है। परमात्मा
शब्द का उपयोग
चाहे न भी करो
तो चलेगा क्योंकि
परमात्मा
शब्द बहुत
गंदा हो गया
है, गलत
हाथों में पड़ा
रहा—पंडित, पुजारी, पुरोहित,
मौलवी—उन्होंने
इस शब्द को
इतना घिसा है,
इतना पिसा
है; इस
शब्द के साथ
इतने खेल किए
हैं, इतना
शोषण किया है;
इस शब्द के
आसपास इतने
जाल रचे, मकड़ियों के जाल, जिनमें
न मालूम कितने
लोगों को फंसाया
है; यह
शब्द अश्लील
हो गया है, अब
इस शब्द का
उच्चारण करते
भी विचारशील
व्यक्ति थोड़ा
झिझकता है।
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े विचारक फुलर ने एक
प्रार्थना
लिखी है, प्रार्थना
बड़ी बेहूदी है,
प्रार्थना
जैसी ज़रा
भी नहीं। फुलर
जैसा समझदार
आदमी और ऐसी
प्रार्थना
लिखेगा, बड़ी
चौंकानेवाली
बात है। लेकिन
कारण साफ है
कि ऐसी
प्रार्थना क्यों
लिखी क्योंकि
हमारे शब्द, सारे
महत्त्वपूर्ण
शब्द गलत
हाथों में पड़कर
गलत हो गए
हैं। फुलर
की प्रार्थना
शुरू होती है—हे
परमात्मा! लेकिन
मैं साफ कर
दूं कि
परमात्मा से
मेरा क्या अर्थ
है। अब यह
प्रार्थना है
कि पहले मैं
साफ कर दूं कि
परमात्मा से
मेरा क्या
अर्थ है—मेरे
तीन अर्थ हैं।
इस तरह
प्रार्थना
चलती है! कि
मेरी आत्मा को
शांति दो।
पहले मैं यह
बता दूं कि
आत्मा से मेरा
क्या अर्थ है
और शांति से
मेरा क्या
अर्थ है। ऐसी
प्रार्थना
चलती है!
प्रार्थना
चलती कई पेजों
तक। उसमें
प्रार्थना
जैसा कुछ भी
नहीं लगता, ऐसा लगता है
कि जैसे कोई
बच्चा, प्रायमरी स्कूल का, शिक्षक को
उत्तर दे रहा
हो—भूगोल के
कि इतिहास के,
मगर
प्रार्थना
जैसा कुछ भी
नहीं है।
मगर फुलर का भय
मैं समझता हूं, परमात्मा
शब्द का उपयोग
करो, तत्क्षण
डर लगता है कि
लोग समझेंगे
कि तुम वही
परमात्मा की
बात कर रहे हो
जिसके आधार पर
पंडित—पुरोहित
आदमी की छाती
पर सवार रहे
हैं। आत्मा की
बात करो, तत्क्षण
डर लगता है कि
वही साधु—संन्यासी
जिन्होंने
आदमी की गर्दन
दबाई है, आत्मा
के नाम पर
आत्मा मारी है,
उन्हीं की
बात कर रहे
हो।
तो फुलर
को समझाना
पड़ता है कि
परमात्मा से
मेरा अर्थ क्या, आत्मा से
मेरा अर्थ
क्या। अर्थ
समझाने में ही
इतनी लंबी
प्रार्थना हो
जाती है कि
उसमें से प्रार्थना
का तत्त्व खो
जाता है।
प्रार्थना
में तो एक
निर्दोषता
होनी चाहिए, एक सरलता
होनी चाहिए, एक
भावोन्माद
होना चाहिए, एक मस्ती
होनी चाहिए।
मस्ती वगैरह
तो बची कहां, गणित का
हिसाब हो गया।
फुलर
वैज्ञानिक है
सो प्रार्थना
भी विज्ञान हो
गई।
मगर
जिन्होंने
वर्तमान के
क्षण में
डुबकी लगाई है, उन्होंने परमात्मा
को निश्चित
जाना है, वे
परमात्मा उसे
कहें या न
कहें। बुद्ध
ने नहीं कहा, पंडित—पुरोहितों
के कारण नहीं
कहा। लोग
सोचते हैं, बुद्ध ने
परमात्मा
शब्द का उपयोग
नहीं किया क्योंकि
वे नास्तिक
थे। लोग गलत
सोचते हैं। लोग
बुद्ध को नहीं
जानते। असल
में बिना
बुद्ध हुए
बुद्ध को
जानने का कोई
उपाय भी नहीं
है। सिर्फ
बुद्धों के
वचन के संबंध
में सार्थक हो
सकते हैं।
लेकिन बुद्धू
कहते हैं कि
बुद्ध ईश्वर
को नहीं
मानते।
बुद्ध
और ईश्वर को न
मानें तो कौन
मानेगा? हां,
मानते नहीं
हैं, जानते
हैं। लेकिन
शब्द का उपयोग
नहीं किया, सोचकर नहीं
किया क्योंकि
पंडित—पुरोहितों
का इतना जाल, इतना
व्यवसाय, इतना
उपद्रव, यज्ञ—हवन,
इतनी हिंसा,
कि बुद्ध ने
सोचा कि ईश्वर
शब्द का उपयोग
करना अर्थात्
इन्हीं पंडित—पुरोहितों
की जमात में
खड़े हो जाना
है। नहीं, वे
चुप रहे।
उन्होंने कहा :
जाओ भीतर और
जानो, मुझसे
मत पूछो। जो
है, वह है।
कहने से सिद्ध
नहीं होता, इनकार करने
से असिद्ध
नहीं होता है।
जो है, वह
है। मानो तो
हो नहीं जाता,
नहीं मानो
तो मिट नहीं
जाता। जागो
और देखो, सोए—सोए
मत पूछो। आंख खोलो और
देखो; सूरज
है तो दिखाई
पड़ेगा; रोशनी
है तो दिखाई
पड़ेगी; इंद्रधनुष
निकला है तो
दिखाई पड़ेगा;
नहीं है तो
मेरे कहने से
क्या होगा!
बुद्ध
के पास मौलुंकपुत्त
नाम का एक
दार्शनिक
आया। उसने कहा
: ईश्वर है?
बुद्ध
ने कहा : सच में
ही तू जानना
चाहता है या
यूं ही एक
बौद्धिक
खुजलाहट?
मौलुंकपुत्त
को चोट लगी।
उसने कहा : सच
में ही जानना
चाहता हूं। यह
भी आपने क्या
बात कही!
हजारों मील से
यात्रा करके
कोई बौद्धिक
खुजलाहट के लिए
आता है?
तो फिर
बुद्ध ने कहा :
तो फिर दांव
पर लगाने की
तैयारी है
कुछ।
मौलुंकपुत्त
को और चोट लगी, क्षत्रिय
था। उसने कहा :
सब लगाऊंगा
दांव पर।
हालांकि यह
सोचकर नहीं आया
था। पूछा उसने
बहुतों से था
कि ईश्वर है
और बड़े वाद—विवाद
में पड़ गया
था। मगर यह
आदमी कुछ अजीब
है, यह
ईश्वर की तो
बात ही नहीं
कर रहा है, ये
दूसरी ही
बातें छेड़
दीं कि दांव
पर लगाने की
कुछ हिम्मत
है। मौलुंकपुत्त
ने कहा : सब
लगाऊंगा दांव
पर, जैसे
आप क्षत्रिय
पुत्र हैं, मैं भी
क्षत्रिय
पुत्र हूं, मुझे चुनौती
न दें।
बुद्ध
ने कहा :
चुनौती देना
ही मेरा काम
है। तो फिर तू
इतना कर—दो
साल चुप मेरे
पास बैठ। दो
साल बोलना ही
मत—कोई प्रश्न
इत्यादि नहीं, कोई
जिज्ञासा
वगैरह नहीं।
दो साल जब
पूरे हो जाएं
तेरी चुप्पी
के तो मैं खुद
ही तुझसे पूछूंगा
कि मौलुंकपुत्त,
पूछ ले जो
पूछना है। फिर
पूछना, फिर
मैं तुझे जवाब
दूंगा। यह
शर्त पूरी
करने को तैयार
है?
मौलुंकपुत्त
थोड़ा तो डरा
क्योंकि
क्षत्रिय जान
दे दे यह
तो आसान मगर
दो साल चुप
बैठा रहे.....! कई
बार जान देना
बड़ा आसान होता
है, छोटी—छोटी
चीजें असली
कठिनाई की हो
जाती हैं। जान
देना हो तो
क्षण में
मामला निपट
जाता है, कि
कूद गए पानी
में पहाड़ी से,
कि चले गए
समुद्र में एक
दफा हिम्मत
करके, कि
पी गए जहर की
पुड़िया—यह
क्षण में हो
जाता है। इतने
तेज जहर हैं
कि तीन सैकंड
में आदमी मर
जाए, बस
जीभ पर रखा कि
गए, एक
क्षण की
हिम्मत
चाहिए। लेकिन
दो साल चुप बैठे
रहना बिना
जिज्ञासा, बिना
प्रश्न, बोलना
ही नहीं, शब्द
का उपयोग ही
नहीं करना—यह ज़रा लंबी
बात थी मगर
फंस गया था।
कह चुका था कि
सब लगा दूंगा
तो अब मुकर
नहीं सकता था,
भाग नहीं
सकता था।
स्वीकार कर लिया,
दो साल
बुद्ध के पास
चुप बैठा रहा।
जैसे
ही राजी हुआ
वैसे ही दूसरे
वृक्ष के नीचे
बैठा हुआ एक
भिक्षु जोर से
हंसने लगा। मौलुंकपुत्त
ने पूछा : आप
क्यों हंसते
हैं?
उसने
कहा : मैं
इसलिए हंसता
हूं कि तू भी
फंसा, ऐसे
ही मैं फंसा
था। मैं भी
ऐसा ही प्रश्न
पूछने आया था
कि ईश्वर है
और इन सज्जन
ने कहा कि दो
साल चुप। दो
साल चुप रहा, फिर पूछने
को कुछ न बचा।
तो तुझे पूछना
हो तो अभी पूछ
ले। देख, तुझे
चेतावनी देता
हूं, पूछना
हो अभी पूछ ले,
दो साल बाद
नहीं पूछ
सकेगा।
बुद्ध
ने कहा : मैं
अपने वायदे पर
तय रहूंगा, पूछेगा तो
जवाब दूंगा।
अपनी तरफ से
भी पूछ लूंगा
तुझसे कि बोल
पूछना है? तू
ही न पूछे, तू
ही मुकर जाए
अपने प्रश्न
से तो मैं
उत्तर किसको
दूंगा?
दो साल
बीते और बुद्ध
नहीं भूले। दो
साल बीतने पर
बुद्ध ने पूछा
कि मौलुंकपुत्त
अब खड़ा हो जा, पूछ ले।
मौलुंकपुत्त
हंसने लगा।
उसने कहा : उस
भिक्षु ने ठीक
ही कहा था। दो
साल चुप रहते—रहते
चुप्पी में
ऐसी गहराई आई; चुप रहते—रहते
ऐसा बोध जमा, चुप रहते—रहते
ऐसा ध्यान
उमगा; चुप
रहते—रहते
विचार धीरे—धीरे
खो गए, खो
गए, दूर—दूर
की आवाज मालूम
होने लगे; फिर
सुनाई ही नहीं
पड़ते थे, फिर
वर्तमान में डुबकी
लग गई और जो
जाना.....बस आपके
चरण धन्यवाद
में छूना
चाहता हूं।
उत्तर मिल गया
है, प्रश्न
पूछना नहीं
है।
परम
ज्ञानियों ने
ऐसे उत्तर दिए
हैं—प्रश्न
नहीं पूछे गए
उत्तर मिल गए
हैं। प्रश्नों
से उत्तर
मिलते ही नहीं—शून्य
से मिलता है
उत्तर। और जो
उत्तर मिलता
है वही
परमात्मा है।
और तब तुम्हें
चारों तरफ वही
एक दिखाई पड़ता
है। अभी कहीं
नहीं दिखाई पड़ता
फिर ऐसी जगह
नहीं दिखाई
पड़ती जहां न
हो। अभी तुम
पूछते हो
परमात्मा
कहां है; फिर
पूछोगे
परमात्मा
कहां नहीं है!
तुमने
सुना न, नानक
जब यात्रा
करते हुए
मक्का पहुंचे
तो पैर करके
मक्का की तरफ
सो गए।
निश्चित
पंडित—पुरोहित
नाराज हुए।
मक्का के
ठेकेदार
नाराज हुए।
खबर मिली उनको
तो भागे आए और
कहा कि देखने
से साधु—पुरुष
मालूम होते हो,
शर्म नहीं
आती कि काबा
के पवित्र
पत्थर की तरफ
पैर करके सो
रहे हो?
तो पता
है नानक ने
क्या कहा ? नानक ने कहा
कि मेरी भी
मुश्किल है, तुम अच्छे आ
गए। मेरी थोड़ी
सहायता करो।
मेरे पैर उस
तरफ कर दो जिस
तरफ परमात्मा
न हो।
कहां
करोगे ये पैर? कहानी तो और
आगे जाती है
मगर मैं मानता
हूं, कहानी
यहीं पूरी हो
गई, असली
बात यहीं पूरी
हो गई, बाकी
तो जोड़ी हुई
बात है, प्रीतिकर
है बाकी बात।
कहानी तो और
आगे जाती है
कि पंडित—पुजारियों
ने क्रोध में
नानक के पैर पकड़कर
दूसरी दिशाओं
में मोड़े
लेकिन जिन
दिशाओं में
पैर मोड़े,
उसी दिशा
में काबा का
पत्थर मुड़
गया।
यह तो
प्रतीक है।
मैं इसको
ऐतिहासिक
घटना नहीं
मानता; काबा
के पत्थर इतनी
आसानी से नहीं
मुड़ते।
और काबा का
पत्थर अकेला
नहीं मुड़ सकता,
उसके साथ
पूरी काबा की
बस्ती को मुड़ना
पड़ेगा। काबा
की बस्ती
अकेली नहीं है,
उसके साथ
पूरा अरब मुड़ेगा।
अरब अकेला
नहीं है, उसके
साथ पुरी
दुनिया को मुड़ना
पड़ेगा।
दुनिया अकेली
नहीं है, सब
चांदत्तारे.....बहुत
झंझट हो
जाएगी। यहां
चीजें जुड़ी
हैं। यहां एक का
हटना, सबका
अस्त—व्यस्त
होना हो
जाएगा।
नहीं, इतना उपद्रव
नानक पसंद भी
न करेंगे। यह
कहानी पीछे
जोड़ दी गई मगर
कहानी फिर भी
महत्त्वपूर्ण
है, जितना
जोड़ा गया वह
भी
महत्त्वपूर्ण
है, वह भी
इशारा है। वह
भी यह कह रहा
है कि जिस तरफ
पैर करोगे, उसी तरफ
काबा का पत्थर
है। मोड़ने की
जरूरत नहीं है
क्योंकि हर
पत्थर काबा का
पत्थर है। अगर
काबा का पत्थर
पवित्र है तो
ऐसा कोई पत्थर
नहीं है जो
पवित्र न हो।
नासमझ हैं जो
काबा जाते हैं
पत्थर चूमने।
जिनमें
समझदारी है वे
अपने घर के
सामने जो मील
का पत्थर लगा
है उसको चूम
लेंगे, सात
चक्कर लगाकर
घर वापिस लौट
आएंगे, काबा
की यात्रा
पूरी हो गई।
जिस
पत्थर को चूमोगे, उसी को
पाओगे। जीसस
ने कहा है :
तोड़ो हर पत्थर
को और मुझे
पाओगे, उठाओ
पत्थर को और
मुझे छिपा
पाओगे। वही है,
उसके
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं है।
जहां
तक समुंद
दरियाव जल कूप
है.....भीखा कहते
हैं : समुद्र
हो, कि नदी हो,
कि सरोवर हो,
कि कुआं हो
इससे भेद नहीं
पड़ता सबके
भीतर जल एक
है।
लहरि
अरु बूंद एक
पानी.....फिर लहर
हो कि बूंद हो
इससे भी कुछ
फर्क नहीं पड़ता
सभी के भीतर
जल एक है।
लेकिन हम
आकारों में
उलझ जाते हैं।
सागर का आकार
बड़ा है छोटी—सी
तलैया गांव की.....कैसे
मानें कि
दोनों एक हैं? आकार को देख
रहे हैं—सागर
का आकार बड़ा
है, तलैया
का आकार छोटा
है। कहां सागर
और कहां तुम्हारे
घर में आंगन
का कुआ!
सागर इतना बड़ा,
कुआं इतना
छोटा।
तुम
आकार को देखकर
उलझोगे
तो भ्रांति हो
जाएगी। आकार
में जरूर भेद
है मगर दोनों
आकारों में जो
विराजमान है, वह निराकार
है। वह जल जो
कुएं में है
और जो सागर
में है, अलग—अलग
नहीं है। बूंद
में जो है, बड़ी
लहर में जो है,
एक ही है।
परमात्मा
बूंद में कम
नहीं है और सागर
में ज्यादा
नहीं है।
इस
गणित को थोड़ा
समझो। साधारण
गणित नहीं है
यह, यह
आध्यात्मिक
गणित है।
साधारण गणित
में बूंद सागर
के बराबर नहीं
हो सकती।
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े गणितज्ञ
पीत्र्!छ०केत्र्!छ०
त्र्!छआस्पेंस्की
ने एक अद्भुत
किताब लिखी है
: टर्शियम आर्गानम—सत्य
का तीसरा
सिद्धांत।
अपनी उस
अद्भुत गणित
की किताब में
उसने कुछ वक्तव्य
दिए हैं जो
बड़े
महत्त्वपूर्ण
हैं। उसमें एक
वक्तव्य यह है
कि साधारण
गणित कहता है कि
बूंद और सागर
एक नहीं—बूंद
छोटी है, सागर
बड़ा है।
असाधारण गणित
भी है एक, अलौकिक
गणित भी है एक
जो कहता है :
बूंद और सागर
बराबर हैं।
ईशावास्य
का वचन
तुम्हें याद
है—उस पूर्ण
से हम पूर्ण
को भी निकाल
लें तो भी पीछे
पूर्ण ही शेष
रह जाता है।
यह असाधारण
गणित है। यह आध्यामिक
गणित है। नहीं
तो बैंक से
जाओ, अपने सब
रुपए निकाल
लाओ, इस
आशा में मत
बैठे रहना कि
पीछे सब रुपए
बाकी रहे।
निकाल लिए तो
गए फिर तुम
लाख ईशावास्य
को ले जाकर
दिखाओ बैंक के
मैनेजर को कि
भाई, ईशावास्य भी तो देखो—पूर्ण
से पूर्ण को
भी निकाल लें
फिर भी पीछे पूर्ण
ही शेष रहता
है.....तो मेरे
हजार रुपए मैं
निकाल ले गया
इससे क्या
होता है? हजार
रुपए तो शेष
रहने ही
चाहिए।
साधारण
दुनिया में वह
गणित काम नहीं
आएगा। वह इस
जगत का गणित
नहीं है, वह
किसी और जगत
का गणित है—पारलौकिक
है, इस जगत
का अतिक्रमण
करता है।
पूर्ण से
पूर्ण को
निकाल लें तो
भी पीछे पूर्ण
ही शेष रह
जाता है!
उस
गणित के जगत
में बूंद और
सागर बराबर
हैं। क्यों? क्योंकि जो
बूंद का राज़
है, वही
सागर का राज़
है।
वैज्ञानिक
कहता है : बूंद
का राज़
क्या है ? एच
टू ओ, कि
बूंद उद्जन
और अक्षजन दो वायुओं से
मिलकर बनी है।
दो हिस्से उद्जन
के, एक
हिस्सा
अक्षजन का—एच
टू ओ। यह बूंद
का राज़ है
मगर यही तो
सागर का राज़
भी है। जो
बूंद की कुंजी
है वही सागर
की कुंजी है।
सागर आखिर है
क्या? बहुत—सी
बूंदों की भीड़
है। जैसे तुम
यहां इतने लोग
बैठे हो तो एक
समाज, एक
संगति बैठी है,
मगर आखिर यह
समाज है क्या?
व्यक्तियों
का जोड़ है।
अगर हम समाज
को खोजने जाएंगे
तो कहीं भी
मिलेगा नहीं,
जब भी
मिलेगा
व्यक्ति
मिलेगा।
व्यक्ति
सत्य है, समाज
तो केवल
संज्ञा है।
बूंद सत्य है,
सागर तो
केवल संज्ञा
है। अगर ठीक
से देखोगे
तो भीखा के ये
सीधे—सादे
शब्द
उपनिषदों
जैसे गहरे
हैं।
जहां
तक समुंद
दरियाव जल कूप
है,
लहरि
अरु बूंद एक
पानी।
सीधी—सादी
गांव की भाषा
में कह दिया।
दो और दो चार, ऐसे कह
दिया। कि हो
सागर, कि
सरोवर, कि
सरिता, कि
कुआं, कि
तुम्हारे घर
की मटकी, कि
चुल्लू—भर
पानी कोई फर्क
नहीं पड़ता; बड़ी—से बड़ी
लहर हो जिसमें
जहाज डूब जाएं
कि छोटी—सी
बूंद हो, आंसू
की बूंद हो, तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता क्योंकि
सबका स्वभाव
एक है।
परमात्मा इस
अस्तित्व के
स्वभाव का नाम
है। परमात्मा
इस अस्तित्व
के रहस्य का
नाम है।
परमात्मा इस
अस्तित्व का
ही दूसरा नाम
है।
लेकिन
न तो हम
वर्तमान में झांकते, न हम अपने
में झांकते।
हम अभी हारे
नहीं, हम
अभी आशा रखे
हुए हैं, हम
अभी हताश नहीं
हुए हैं।
बुद्ध ने कहा
है : जब तक तुम
पूर्ण हताश न
हो जाओ तब तक
मंदिर के द्वार
तुम्हारे लिए
नहीं
खुलेंगे।
हताश! हा, जब
तक तुम पूरे
निराश न हो
जाओ, तब तक
सारी आशा न
टूट जाए संसार
से तब तक तुम
अटके ही
रहोगे।
तुम्हारे मन
में कोई कहे
ही जाता है कि
थोड़ा और खोजो,
थोड़ा और
खोजो, थोड़ा
और.....कौन जाने
मिल ही जाए ! दो
कदम और चल लो, कौन जाने
मंजिल आती ही
हो! ज़रा और,
दिल्ली दूर
नहीं है। ज़रा
और कि अब
पहुंचे तब
पहुंचे। और
लोगों की धक्कम—धुक्की है,
सब जाना चाह
रहे हैं। आशा
लगती है, जब
इतने लोग जा
रहे हैं तो
लोग पहुंच भी
रहे होंगे।
आखिर जो आगे
हैं वे पहुंच
गए होंगे। तो
थोड़ी यात्रा
और कर लूं और
अभी तो जीवन
शेष है, अभी
तो मैं जवान
हूं.....।
जब तक
तुम जगत से
पूरी तरह
निराश न हो
जाओ, जब तक यह
बात तुम्हारे
सामने स्पष्ट
न हो जाए कि
तुम मृग—मरीचिकाओं
के पीछे दौड़
रहे हो, तुम
भ्रांतियों
के पीछे दौड़
रहे हो, तुमने
सपनों को
खोजने की
कोशिश की है, और तुम्हारे
हाथ सदा खाली
रहेंगे, तब
तक तुम स्वयं
में न मुड़ोगे,
तब तक तुम
क्षण में न
डूबोगे। कल
तुम्हें पकड़े
रहेगा तो आज
में तुम कैसे
उतर सकोगे?
मेरी नाकामियां
जब मेरे दिल
को तोड़ देती
हैं
मेरी
दिल सोज
उम्मीदें मुझे
जब छोड़ देती
हैं
मेरी बरबादियां
जब आस मेरी
तोड़ देती हैं
दिले—गमगीं को
कुछ भूले फसाने
याद आते हैं
बिसाते—आस्मां पर माहे—रोशन
जब दमकता है
सितारों
का मुनव्वर
अक्स पानी पर
चमकता है
तमन्नाओं
का शुअला
मेरे सीने में
भड़कता है
दिले—गमगीं को
कुछ भूले फसाने
याद आते हैं
कभी
महशर बपा
करती हैं
मौजें आबशारों
में
कभी
मेरा गुजर
होता है ऊंचे कोहसारों
में
कभी जब
कूकती कोयल है
दिलकश शाखसारों
में
दिले—गमगीं को
कुछ भूले फसाने
याद आते हैं
सबा के
छेड़ने से
फूल जिस दम
मुसकराते हैं
तयूरे—खुशनवा जब गुलसितां
में गीत गाते
हैं
खयालाते—परेशां
मुझको अश्के—खूं
रुलाते हैं
दिले—गमगीं को
कुछ भूले फसाने
याद आते हैं
गुजिस्तः राहतों की
दास्तानें
मुझसे मत पूछो
मेरी मुबहम खलिश
की काविशों
को मुझसे मत
पूछो
तसव्वुर
किसका है
"अख्तर"! बस
इसको मुझसे मत
पूछो
दिले—गमगीं को
कुछ भूले फसाने
याद आते हैं
जब तुम
हारोगे, जब
तुम पूरी तरह
हारोगे तब
तुम्हें कुछ
याद आनी शुरू
होगी—आत्मस्मरण;
तब तुम्हें
अपने भूले घर
की स्मृति पकड़नी
शुरू होगी। उस
भूले घर का ही
दूसरा नाम
परमात्मा है।
परमात्मा को
हम पीछे छोड़
आए हैं। वह
हमारा मूलस्रोत
है, गंगोत्री
है; हमारी
गंगा उसी से
चली है। अब हम
दौड़े जा रहे हैं
भविष्य की तरफ,
न तो लौटकर
पीछे देखते
अपने उद्गम को,
न अपने भीतर
देखते अपने
अस्तित्व को,
न वर्तमान
के क्षण में
जागते कि
परमात्मा जो
चारों तरफ मौजूद
है, उससे
हमारा कुछ
संबंध जुड़
सके। भागे
जाते हैं—कल्पनाओं
में, आकांक्षाओं
में, आशाओं
में—इस भाग—दौड़
का नाम संसार
है; इस भाग—दौड़
की व्यर्थता
को जान लेने
का नाम
संन्यास है।
एक सुबर्न को
भयो गहना बहुत,
देखु बीचारकै
हेम खानी।
भीखा
कहते हैं : ज़रा
जाओ, सोने की
खदान में देखो,
सोना एक ही
है लेकिन एक
सोने से कितने
गहने बन गए, कितने—कितने
आकार, कितने—कितने
रूप! मगर सोने
की खदान में
तो ज़रा झांककर
देखो सोना एक
है। ज़रा
अपने प्राणों
की खदान में
तो झांककर
देखो और पाओगे
चेतना एक है।
और चेतना ने
कितने रूप लिए—कोई
पुरुष है, कोई
स्त्री है; कोई गोरा है,
कोई काला है;
कोई आदमी है,
कोई जानवर
है; कोई
पशु है, कोई
पक्षी है, कोई
पौधा है; कोई
पत्थर है। ज़रा
अपने भीतर
सोने की खदान
में तो झांककर
देखो, एक
ही सोना है और
बहुत गहने हो
गए हैं। जो
गहनों को ही
देखता है, वह
सोने से वंचित
रह जाता है, जो सोने को
देख लेता है, उसकी गहनों
से आसक्ति छूट
जाती है।
पिरथी
आदि घट रच्यो
रचना बहुत,
मिर्तिका
एक खुद भूमि
जानी।
जरा
जाओ, कुम्हार
को देखो, कितने
घड़े रच
रहा है—घड़े
और सुराहियां
और प्यालियां
और बर्तन और न
मालूम क्या—क्या
रच रहा है, कितने
रंग भर रहा है,
कितने ढंग
दे रहा है।
किसी में
गंगाजल भरा
जाएगा, किसी
में शराब भरी
जाएगी, मगर
पृथ्वी से तो
पूछो—मिर्तिका
एक खुद भूमि
जानी।
जमीन
तो सिर्फ
मिट्टी को
जानती है।
शराब भरी सुराही
भी एक दिन फिर
मिट्टी में
मिल जाएगी। न
गंगाजल से
मिट्टी में
फर्क पड़ता है
और न शराब से
मिट्टी में
फर्क पड़ता है।
दोनों मिट्टी
के ही बने हैं
और दोनों
मिट्टी में ही
लीन हो
जाएंगे।
ऐसा ही
यह अस्तित्व
है। परमात्मा बहुरंगों
में प्रगट
होता है। और
शुभ है कि बहुरंगों
में प्रगट
होता है, इससे
रौनक है, इससे
जिंदगी रंगीन
है, इससे
जिंदगी में तरहत्तरह
के फूल हैं। ज़रा एक
बगिया तो सोचो
जिसमें सिर्फ
गुलाब—ही—गुलाब
हैं। मेरे एक
मित्र हैं, उनको गुलाब
से प्रेम है।
उन्होंने एक
बड़ी जमीन
खरीदी, बड़ी
सुंदर जमीन
खरीदी और
गुलाब—ही—गुलाब
लगा दिए। मुझे
दिखाने ले गए।
मैंने उनसे
कहा : ठीक है
लेकिन यह
बगीचा न रहा, गुलाब की
खेती हो गयी।
उन्होंने
कहा : आप क्या
कहते हैं, यही तो और
लोग भी कहते
हैं मुझसे कि
क्या गुलाब की
खेती कर रहे
हो? कोई भी
नहीं मानता कि
यह बगीचा है, लोग इसको
गुलाब की खेती
ही मानते हैं।
मैंने
कहा : गुलाब
सुंदर हैं
लेकिन इतने
गुलाब! एकड़ों
गुलाब—ही—गुलाब!
बेरौनक
है तुम्हारी
बगिया। और
चूंकि इतने
गुलाब हैं इसलिए
एक गुलाब भी
अपनी शान में
प्रगट नहीं हो
पा रहा है।
मैंने
उनसे एक कहानी
कही। जापान
में एक सम्राट
हुआ। जापान
में फूलों का
बड़ा आदर है, फूलों को
प्रेम
करनेवाली कौम
है। सम्राट को
किसी ने खबर
दी कि गांव का जो
झेन फकीर है, उसकी बगिया
में नरगिस के
इतने बड़े फूल
लगे हैं...नरगिस—ही—नरगिस,
ऐसा कभी
देखा नहीं गया
है, ऐसी
सुगंध, ऐसी
महक। रात गुजर
जाओ आधा मील पासले से
तो भी घेर
लेती है, बरस
जाती है
सुगंध।
सम्राट
भी फूलों का
प्रेमी था।
उसने खबर भेजी
फकीर को कि कल
सुबह मैं आ
रहा हूं; मुझे
भी तुम्हारी
बगिया देखनी
है। फकीर को
खबर मिली।
उसने अपने
सारे शिष्यों
से कहा कि सिर्फ
एक फूल को
छोड़कर सारे
पौधे उखाड़
डालो।
नरगिस का बस
एक फूल छोड़ा
और सारे पौधे उखाड़
डाले। जब
बादशाह
पहुंचा वह तो
बड़ा हैरान
हुआ। उसने कहा
: "मैंने तो
सुना था कि
हजारों पौधे
हैं नरगिस के।"
फकीर ने कहा :
"थे लेकिन
तुम्हें कोई
खेती थोड़े ही
दिखानी थी। जो
शानदार था, वह बचा लिया
है और अब तुम
देखो इसकी
रौनक। इस पूरे
बगीचे मे
जहां और फूल
हैं, और हरियालियां
हैं, यह एक
नरगिस का फूल
किस शान से
खड़ा है! इसे
देखने के लिए
उन सबका हट
जाना जरूरी
था। अगर वे
सारे फूल यहां
होते तो यह
अद्भुत फूल
तुम्हें
दिखाई ही न
पड़ता, यह
खो जाता भीड़
में, बाजार
में, यह
फूल मैं
तुम्हें
दिखाना चाहता
था इसलिए सारे
फूल हटा दिए।"
अगर
तुम गुलाब—ही—गुलाब
की खेती करोगे—बेरौनक
होगी, उदास
होगी। नहीं, और भी फूल
हैं—चंपा भी
है, चमेली
भी है और
रजनीगंधा भी
है। हजार—हजार
फूल हैं, हजार—हजार
पक्षी हैं, हजार—हजार
गीत हैं! . . .
परमात्मा
पुनरुक्ति
नहीं करता—नए—नए
को निर्माण
करता है और
इसलिए जगत
इतना समृद्ध
है, इतनी
महिमा है।
जीवन ऊब जाए, उदास हो जाए . .
.।
बर्ट्रेड
रसल ने लिखा
है कि मैं
मरकर...मुझे तो
पक्का भरोसा
है कि जब मैं
मरूंगा तो
बिल्कुल मर जाऊंगा।
उसे आत्मा पर
श्रद्धा नहीं
थी और न
परमात्मा पर
श्रद्धा थी, न वह स्वर्ग—नर्क
को मानता था।
उसने लिखा है
कि मुझे तो पक्का
भरोसा है कि
जब मैं मरूंगा
तो बिल्कुल मर
जाऊंगा, मगर अगर भूल—चूक
से हो सकता है
मेरी धारणा
सही न हो और
मुझे बचना ही
पड़े, तो
मैं कम—से—कम
भारतीयों के
मोक्ष नहीं
जाना चाहता।
और कहीं भी
चला जाऊं।
क्यों?
उसने
जो कारण दिया
है वह मुझे भी
पसंद है। उसके
जीवन—चिंतन से
मैं राजी नहीं
हूं मगर उसका
कारण तो सुंदर
है। उसने कहा :
भारतीयों का
मोक्ष तो बड़ा
ऊब पैदा करने
वाला होगा—लोग
बैठे अपनी—अपनी
सिद्ध—शिला पर
नंग—धड़ंग...।
क्योंकि वहां
कोई वस्त्र
वगैरह तो
मिलेंगे नहीं
और चरखा वगैरह
भी नहीं ले जा
सकते साथ में
कि बैठे कम—से—कम
चरखा ही चला
रहे हैं, खादी
ही बुन रहे
हैं। बैठे नंग—धड़ंग। न
कुछ काम करने
को क्योंकि
काम का वहां
कोई सवाल ही
नहीं है, कर्म
के तो पार हो
गए। कोई चर्चा—मशवरा
भी नहीं
क्योंकि लोग
शून्य समाधि
को उपलब्ध हो
गए, तभी तो
पहुंचेंगे
मोक्ष, निर्विकल्प
समाधि में
पहुंचकर। न
कोई अखबार, न कोई
अफवाहें, न
कोई नाटकगृह,
न कोई सिनेमागृह,
न कोई होटल,
न कोई रेस्तरां...!
चाय—काफी तक
के लाले पड़
जाएंगे। एक कप
प्याली के लिए
तरसोगे।
मोक्ष
में कुछ काम
ही नहीं है। ज़रा सोचो
मोक्ष को, ज़रा विचारो
अपने को खुद
बैठे सिद्ध—शिला
पर। बस बैठे
ही हैं और
अनंत काल तक!
एकाध दिन हो
तो आदमी किसी
तरह काबू रख
ले, घड़ी—दो—घड़ी
की बात हो तो
किसी तरह पी
जाए जहर के
घूंट की तरह
और कहे कि अब
थोड़ी देर की
बात है, गुजरा
जाता है, घड़ी
देख—देखकर
गुजार दे। मगर
अनंत काल तक! बर्ट्रेड
रसल की बात
अर्थपूर्ण
मालूम पड़ती
है।
नहीं, लेकिन मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं, यह जो मोक्ष
की कल्पना की
है लोगों ने, परमात्मा को
बिना समझे की
है। ज़रा
उसकी दुनिया
तो देखो, इससे
कुछ हिसाब
लगाओ। जब उसकी
इस दुनिया में,
इस न—कुछ
दुनिया में
इतने फूल हैं,
इस न—कुछ
दुनिया में
इतनी रंगीनी
है, इतनी
होली, दीवाली...इस
न—कुछ दुनिया
में, इस
झूठी दुनिया
में इतनी
समृद्धि है तो
सत्य के उस
लोक में तो महासमृद्धि
होगी।
मेरे
मोक्ष की
धारणा
बिल्कुल अलग
है। जैनों के, हिंदुओं के
मोक्ष से मैं
राजी नहीं।
उनका मोक्ष
अगर है तो मैं बर्ट्रेड
रसल से राजी
हूं। रसल ठीक
कहता है। तो
मैं भी बर्ट्रेड
रसल के साथ
नरक जाना पसंद
करूंगा, कम—से—कम
कुछ रौनक तो
रहेगी।
लेकिन
मेरी मान्यता
है कि हमने जो
मोक्ष की कल्पना
की है, वह
कल्पना संसार
के विपरीत कर
ली है। हम
संसार से इतने
घबड़ा गए हैं
कि जो—जो
संसार में है
उसके विपरीत
हमने मोक्ष
बना लिया है।
यहां रंग हैं,
यहां गीत
हैं, यहां
चंग बजती है, यहां बीन है,
यहां वाद्य
हैं, यहां
नृत्य होता है,
यहां प्रेम
है, यहां
उल्लास है, उमंग है—सब
काट दिया हमने;
जो—जो संसार
में है, वह
मोक्ष तो होना
ही नहीं
चाहिए। और
संसार में सब
है—जो होने
योग्य है—वह
सब काट दिया, तो मोक्ष
हमारा नकार हो
गया, एक
शून्य हो गया,
आकर्षक न
रही धारणा।
मेरा
मोक्ष संसार
के विपरीत
नहीं है।
संसार में
परमात्मा
आंशिक रूप से
प्रगट है; मोक्ष में पूर्ण
रूफ से प्रगट
है; संसार
में बूंद की
तरह प्रगट है,
मोक्ष में
सागर की तरह
प्रगट है; संसार
में ज़रा—ज़रा उसकी
किरण उतरी है,
मोक्ष में
वह पूरे सूरज
की तरह निकला
है; संसार
में उसका एक
दीया जला है, मोक्ष में
दीपमालिका है,
दीए ही दीए
हैं।
नहीं, हमें मोक्ष
की धारणा
बदलनी चाहिए।
हमारे मोक्ष
की धारणा
आकर्षक नहीं
है। हमारे
मोक्ष की धारणा
को जो ठीक से
समझेगा, वह
तो कहेगा : हे
प्रभु! मुझे
संसार में ही
रहने दो।
रवींद्रनाथ
ने मरते वक्त
यही कहा, परमात्मा
से कहा कि हे
प्रभु! मुझे
तो संसार में
बार—बार वापिस
भेज देना, मैं
प्रार्थना
नहीं करता कि
मुझे आवागमन
से छुटकारा
दो। तेरी
दुनिया बड़ी
प्यारी थी, मैं फिर—फिर
यहां आना चाहूंगा।
अगर मोक्ष की
तुम्हारी
धारणा ऐसी है तो
रवींद्रनाथ
जैसा सुधी
व्यक्ति भी
वापिस लौट आना
चाहता है।
लेकिन
मैं
रवींद्रनाथ
को भरोसा
दिलाता हूं कि
कोई चिंता न
करो। मोक्ष की
हमारी धारणा
गलत है, मोक्ष
और भी रंगीन
है। यहां तो
सात ही रंग
हैं, वहां
अनंत रंग हैं।
यहां तो सात
ही स्वर हैं, वहां अनंत
स्वर हैं।
यहां तो प्रेम
क्षण—भंगुर है,
वहां
शाश्वत है।
यहां तो वसंत
कभी—कभी आता
है, वहां
वसंत सदा है, वहां
सदाबहार है।
देखु बीचाराकै
हेम खानी।
पिरथी
आदि घट रच्यो
रचना बहुत,
मिर्तिका
एक खुद भूमि
जानी।
भीखा
इक आतमा
रूप बहुतै
भयो,
बोलता
ब्रह्म चीन्है
सो ज्ञानी।
यह
सूत्र तो बहुत
अद्भुत है—
भीखा
इक आतमा
रूप बहुतै
भयो,
बोलता
बह्म चीन्है
सो ज्ञानी।
तुम
कृष्ण को भज
सकते हो, राम
को भज सकते हो,
बुद्ध को, महावीर को, लेकिन जब
महावीर जिंदा
थे तो तुमने
पत्थर मारे और
जब बुद्ध
जिंदा थे तो
तुमने उनकी
हत्या की
कोशिश की! अब
तुम मीरा के
गुणगान गाते
हो और जब मीरा
जिंदा थी तो
जहर के प्याले
भेजे! तुम बड़े
अजीब लोग हो।
तुम्हारा
हिसाब कैसा है?
अब जितने
मंदिर जीसस के
लिए समर्पित
हैं, उतने
किसी के लिए
भी नहीं।
और जब
जीसस जिंदा थे
तो तुमने क्या
व्यवहार किया? जरा सोचो!
जीसस को सूली
खुद अपने
कंधों पर ढोनी
पड़ी। जैसे
जीसस कोई चोर
हों, हत्यारे
हों। जीसस गिर
पड़े रास्ते
में क्योंकि
सूली वजनी थी
और चढ़ाई
पहाड़ की तो कोड़े
मारे गए कि
उठो और उठाओ
अपनी सूली!
लहूलुहान जीसस
को अपनी सूली
पहाड़ के ऊपर
तक ले जानी
पड़ी। और जब
जीसस को सूली
पर लटकाया गया
और उनके हाथों
में कीले ठोंक
दिए गए...।
वह बड़ा
बेहूदा ढंग
था। गर्दन
नहीं, जैसे
फांसी दी जाती
है, वह
फांसी नहीं
थी। यहूदियों
का बड़ा अपना
ढंग था सूली
देने का—वे
गले को तो कुछ
नहीं करते थे,
हाथ में
ठोंक देते
कीले, पैर
में ठोंक देते
कीले और फिर
आदमी को छोड़
देते मरने को,
खून बहता...
इसमें कम—से—कम
छः घंटे लगते
मरने में और
ज्यादा—से—ज्यादा
तीन दिन लगते।
एक आदमी की
गर्दन काट दो,
चलो झंझट
मिटे, एक
क्षण में बात
निपट जाए।
लेकिन घंटों,
दिनों आदमी
लटका रहेगा, चीलें उसका
मांस नोचेंगी,
गिद्ध उसके
सिर पर
बैठेंगे, खून
उसके हाथ—पैर
से बहेगा, कुत्ते
उसका चमड़ा खीचेंगे,
उसको नोचेंगे।
यह
बहुत बेहूदा
ढंग था सूली
देने का मगर
जीसस को ऐसे
सूली दी। और
जब जीसस को
प्यास लगी—पहाड़
पर चढ़ना, सूली को
ढोना, भरी
दोपहरी और फिर
सूली पर
लटकाया जाना—उन्हें
प्यास लगी और
उन्होंने कहा :
मुझे प्यास
लगी है।
तो पता
है तुमने क्या
किया? मैं
कहता हूं
तुमने क्या
किया क्योंकि
तुम्हीं हो, जो भी थे
वहां तुम्हीं
जैसे थे, तुम्हीं
हो। तो लोगों
ने गंदे तेल
में एक मशाल
को डुबाकर—ऐसे
तेल में कि
जिनकी
दुर्गंध से
आदमी के प्राण
कंप जाएं, और
ऐसे तेल में
कि जिसे मुंह
में ले ले
तो चक्कर खा
जाए—ऐसा तेल
मशाल में
लगाकर जीसस की
तरफ ऊपर किया और
कहा कि लो इसे
चूस लो।
यह
व्यवहार एक
मरते हुए
प्यासे आदमी
के साथ! शायद
इसीलिए फिर
तुमने इतने
चर्च बनाए
अपराध—भाव के
कारण। शायद
फिर इसीलिए
जीसस की इतनी—इतनी
पूजा चली। आज
दुनिया में
जितने ईसाई
हैं उतने कोई
और धर्म के
मानने वाले
नहीं। और कारण?—तुमने जीसस
के साथ जो
दुष्टता की थी
उसकी ग्लानि
को पोंछने का
उपाय कर रहे
हो तो तुम
जीसस की पूजा
कर रहे हो।
मगर जिंदा
जीसस के साथ
तुमने क्या
किया?
बोलता
ब्रह्म चीन्है
सो ज्ञानी।
भीखा
कहते हैं कि
जिंदा
सद्गुरु को जो
पहचान ले वही
ज्ञानी है, बाकी तो
मुर्दो को तो
अज्ञानी
पूजते रहते
हैं। मगर
जिंदा ब्रह्म
को पहचानना
बहुत मुश्किल है।
क्या अड़चन है?
कृष्ण को
पूजना बहुत
आसान है
क्योंकि
कृष्ण से
तुम्हारा अब
लेना—देना
क्या, एक
कहानी मात्र,
फिर कृष्ण
को तुम जैसा
चाहो वैसा मान
लो—कोई रोकने
वाला नहीं, कोई टोकने
वाला नहीं।
कृष्ण
तुम्हारी
मुट्ठी में
हैं। जिंदा
कृष्ण में
तुम्हें हजार
भूलें दिखाई पड़तीं और
अगर कृष्ण में
न दिखाई पड़तीं
तो किसमें
दिखाई पड़तीं?
कृष्ण
की सोलह हजार
रानियां थीं। न
रही हों सोलह
हजार, सोलह
भी रही हों तो
भी काफी हैं।
मगर सोलह हजार
ही थीं, यह
ऐतिहासिक है
बात। इसमें
कुछ चिंता
करने जैसी बात
नहीं है। अभी—अभी,
इस सदी के
प्रारंभ में,
निजाम
हैदराबाद की
पांच सौ पत्नियां
थीं। अगर पांच
हजार साल बाद
एक आदमी की
पांच सौ पत्नियां
हो सकती हैं
तो सोलह हजार
में क्या अड़चन
है—बत्तीस
गुना, कोई
बहुत ज्यादा
नहीं।
और
निजाम
हैदराबाद की
हैसियत क्या
थी? एक छोटा—मोटा
राजा। कृष्ण
की हैसियत तो
बड़ी थी। उन
दिनों तो राजा
की हैसियत इसी
से समझी जाती
थी कि उसकी
रानियां
कितनी हैं।
स्त्रियां एक
तरह के सिक्के
थीं जिनसे
आदमी की कीमत
तौली जाती थी।
गरीब आदमी वह
जो एक स्त्री
से ही...एक
स्त्री को भी
न पाल सके, एक
स्त्री को भी
न सम्हाल सके—वह
गरीब आदमी।
सोलह हजार
होनी ही
चाहिए। इनमें
कई दूसरों की पत्नियां
थीं जिनको
कृष्ण...कहना
तो नहीं चाहिए
लेकिन भगा लाए
थे, कहना
ही पड़ेगा। वचन
दिया था युद्ध
में कि नहीं
उठाएंगे
शस्त्र और फिर
उठा लिया
शस्त्र—वचन
तोड़ दिया। बड़े
बहादुर थे, बड़े वीर थे
लेकिन उनका एक
नाम तुमने
सुना—रणछोड़
दास! एक दफा
भाग खड़े हुए, पीठ दिखा
दी। अब तो रणछोड़
दास जी के
मंदिर भी हैं।
रणछोड़
दास जी का
मतलब समझे तुम—रणछोड़
भागे।
तुम्हें
हजार भूलें
मिल जातीं
कृष्ण में—तुम्हें
भूलें ही
भूलें मिलतीं।
ये कोई ढंग है
कि बजा रहे
हैं बांसुरी, स्त्रियां
नाच रही हैं!
अब तुम
रासलीला कहते
हो मगर उस समय?
उस समय तुम
पुलिस में
रिपोर्ट
करवाते। और
फिर आज दूसरों
की स्त्रियां
नाच रही हैं, कल तुम्हारी
नाचने लगतीं
तो इस झंझट को
बर्दाश्त कौन
करता!
कृष्ण
को तुम पूज
नहीं सकते
जीवित, हां
मर जाने पर
कोई अड़चन नहीं
है। मर जाने
पर हम लीपा—पोती
कर देते हैं।
हम हर चीज की
लीपा—पोती कर
देते हैं।
सोलह हजार
रानियां, रानियां
नहीं रह जातीं,
हमारे
बुद्धिमान
पंडित कहते
हैं कि ये
सोलह हजार नाड़ियां
हैं मनुष्य के
भीतर—नारियां
नहीं, नाड़ियां। बड़े
होशियार लोग।
कि ये कृष्ण
जो वस्त्र लेकर
बैठ गए थे
वृक्ष पर गंगा
में नहाती
स्त्रियों को
नग्न छोड़कर, यह प्रतीक
है—स्त्रियां
तो इंद्रियां
हैं और कृष्ण
इंद्रियों के
वस्त्र उतार
लिए हैं ताकि
इंद्रियों का
सत्य—साक्षात्
हो सके। अब
तुम...प्रतीक
तुम्हारे हाथ
में हैं, अब
कृष्ण बीच में
बोल भी नहीं
सकते कि भाई, कुछ मेरी भी
सुनो। अब
कृष्ण तो बाहर
हैं, अब
तुम्हारे हाथ
में है तुम जो
चाहो, जैसी
चाहो
व्याख्या
करो।
मुर्दा
गुरु को पूजना
सदा आसान है
क्योंकि
मुर्दा गुरु
तुम्हारा
कल्पित गुरु
होता है।
बुद्ध को
पूजना कठिन है
क्योंकि
बुद्ध को
पूजने के लिए
भी हिम्मत
चाहिए थी।
बुद्ध विरोध
में थे सारे
पाखंड के, सारे
पांडित्य के,
सारे
ब्राह्मणवाद
के। बुद्ध
विरोध में थे
यज्ञ, हवन,
पूजन, क्रियाकांड के। और वही
तो सारे देश
पर छाया हुआ
था—अभी भी ढाई
हजार साल बीत
गए हैं, अभी
भी कहां मिट
गया है। अभी
भी छाया हुआ
है तो उस समय
की तो तुम
कल्पना करो।
जब बुद्ध ने
विरोध किया इन
सारी चीजों का
तो कौन बुद्ध
को ब्रह्म
माने?
इनकार
किया, हर
तरह से इनकार
किया, बुद्ध
को हर तरह से
सताया। और
महावीर तो और
भी अड़चन करने
वाले थे, वस्त्र
छोड़कर नग्न
खड़े हो गए थे।
उनको तो गांव—गांव
से भगाया गया।
उनके पीछे
कुत्ते लगाए
गए, जंगली
कुत्ते कि
उनको टिकने ही
न दें कहीं।
उनके कानों
में सींखचे
ठोंक दिए
क्योंकि वे
बोलते नहीं थे,
मौन थे, उनको
बुलवाने
की कोशिश में
कि यह सब
पाखंड है—बोलना,
नहीं बोलना,
हम बुलवाकर
देखेंगे।
कानों में
सींखचे ठोंक दिए,
कान फोड़
दिए उनके।
अब? अब पूजा
चलती है। अब
मंदिर बने
हैं। यह सदा
से होता रहा
है। तुमने
मुहम्मद के
साथ क्या किया?
पूरी
जिंदगी
मुहम्मद को एक
गांव में न
टिकने दिया, जहां गए
वहां से
हटाया। और अब?
अब कितने
मुसलमान हैं
दुनिया में, कितना
मुहम्मद का
गुणगान चल रहा
है।
भीखा
ठीक कहते हैं :
बोलता ब्रह्म चीन्है सो
ज्ञानी।...अज्ञानी
पूजते मुर्दा सद्गुरुओं
को, ज्ञानी
खोजते हैं
जीवित सद्गुरुओं
को। मुर्दा
गुरु को पूजने
में सबसे बड़ी
सुविधा है—तुम्हारे
अहंकार को कोई
चोट नहीं
लगती। जिंदा
गुरु को पूजने
में सबसे बड़ी
असुविधा है—तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगती है। अपने
ही जैसे आदमी
के समक्ष
झुकना? हां,
पत्थर की
मूर्ति के
सामने झुकना
आसान है लेकिन
जिंदा आदमी के
सामने झुकना?
अपने ही
जैसे आदमी के
सामने—जो
बीमार भी पड़ता
है, जिसे
भूख भी लगती
है, जिसे
पसीना भी आता
है, जो थक
भी जाता है, जो रात सोता
भी है, जो
जवान है, बूढ़ा
भी होगा, जो
मरेगा भी—तुम्हीं
जैसा जो है, उसको भगवान
की तरह पूजना?
असंभव! हां,
जब वह मर
जाएगा तब हम
ऐसी कहानियां गढ़ लेंगे
जिनसे पूजना
संभव हो
जाएगा।
जैन
कहते हैं :
महावीर को
पसीना नहीं
निकलता था।
देह थी कि प्लास्टिक
था? पसीना न
निकले, आदमी
मर जाए—तुम्हें
पता है? कुछ
वैज्ञानिकों
से भी पूछो, कुछ शरीर
शास्त्रियों
से भी पूछो।
और अगर न मानता
हो दिल किसी
की बात मानने
का, तो खुद
ही छोटा—सा
प्रयोग करके
देखो। तुम
सोचते हो कि
सांस से ही
तुम जिंदा हो
तो तुम गलती
में हो—तुम्हारा
रोआं—रोआं
सांस ले रहा
है।
एक
छोटा—सा
प्रयोग करो—ले
आओ बाजार से
कोलतार और
सारे शरीर पर
पोत लो, सब रोएं बंद
कर दो और सांस—भर
खुली रहने दो,
नाक खुली
रहने दो।
जितना दिल हो
नाक से सांस
लेना लेकिन
बाकी सारे
शरीर को
कोलतार से पोत
दो—तीन घंटे
में मर जाओगे।
फिर मुझसे मत
कहना कि पहले
मैंने बता
नहीं दिया था।
तीन घंटे से
ज्यादा जिंदा
नहीं रह सकोगे
क्योंकि रोआं—रोआं
सांस ले रहा
है।
ये रोएं
श्वास लेने के
लिए हैं। ये
छोटे—छोटे
श्वास लेने के
द्वार हैं। और
पसीना इन छिद्रों
से निकलता है
एक उपयोगिता
के लिए, उपयोगिता
बड़ी है उसकी।
शरीर का
तापमान समतुल बना
रहे यह
उपयोगिता है
पसीने की। तुम
तो पसीने से
इतना ही समझते
हो—अरे बास
आयी, पसीना
निकला, कपड़े
भीग गए मगर
तुम उसका गणित
नहीं समझते कि
पसीना
तुम्हारी
जिंदगी को बचा
रहा है, नहीं
तो तुम मर
जाओगे।
शरीर
का तापमान तुम
देखते हो, गर्मी हो कि
सर्दी, बराबर
एक—सा रहता
है। अठानबे
डिग्री समझ लो
तो अठानबे
डिग्री रहता—सर्दी
हो तो भी और
गर्मी हो तो
भी। यह कैसे
होता है? जब
गर्मी होती है
तो पसीना बाहर
निकलता है।
पसीना बाहर
निकलता है, पसीना शरीर
की गर्मी को
लेकर भाप बनकर
उड़ जाता है—शरीर
को ठंडा रखता
है, शरीर
को ठीक अनुपात
में रहने देता
है। यह शरीर
के तापक्रम को
समतुल रखने का
उपाय है।
इसलिए जब
तुम्हें ठंड
लगती है तो
तुम्हारे
दांत किड़किड़ाते
हैं, हाथ—पैर
हिलते हैं, कंपते हैं।
तुम क्या
सोचते हो कि
ठंड के कारण कंप
रहे हैं? ये
कंप रहे हैं
इसलिए ताकि
कंपने के कारण
गर्मी पैदा हो
नहीं तो तुम
मर जाओगे।
जब ठंड
होती है तो
शरीर कंपता है, दांत किड़किड़ाते
हैं, हाथ—पैर
हिलते हैं; इस कंपन से
गर्मी पैदा होती
है, तापमान
बराबर बना
रहता है।
गर्मी हो
पसीना निकलता
है, पसीना
शरीर की गर्मी
को लेकर भाप
बनकर उड़ जाता
है, शरीर
का एक ही
तापमान बना
रहता है। एयर कंडिशनिंग
तो अब खोजी
गयी है लेकिन
शरीर सदा से
एयर कंडिशनिंग
के ढंग से जी
रहा है। असल
में एयर कंडिशनिंग
खोजी ही
इसीलिए जा सकी—शरीर
को समझने के
कारण—शरीर की
व्यवस्था को
समझकर यह बात
ख्याल में आ
गयी कि तापमान
को समान रखा
जा सकता है।
अब जैन
कहते हैं कि
महावीर को
पसीना ही न
निकलता था।
उनकी भी अड़चन
मैं समझता हूं
क्योंकि पसीना
निकले तो वे
तुम्हारे
जैसे ही आदमी
हो गए, तो
कुछ तो तरकीब
करनी पड़ेगी
जिससे तुम
जैसे न मालूम
पड़ें। पसीना
नहीं निकलता,
मल—मूत्र भी
नहीं क्योंकि
मल—मूत्र और
महावीर
से...जरा बात जंचती
नहीं। ज़रा
सोचो कि
महावीर
स्वामी बैठे
हैं और जीवन—जल
निकाल रहे हैं—जंचता
नहीं। ज़रा
कल्पना ही करो
तो ऐसा लगेगा—
अरे, कैसे
पाप की बात
विचार कर रहे
हैं। भगवान
महावीर और मल—त्याग
कर रहे हैं!
कभी नहीं, कभी
नहीं। चित्त
ग्लानि से भर
जाएगा, ये
साधारण कृत्य
कहीं महावीर
करते हैं!
लेकिन
जब भोजन लेंगे
तो मल—त्याग
भी करना होगा।
यद्यपि भोजन
कम लेते थे इसलिए
कम मल—त्याग
करते होंगे।
मगर बिल्कुल
मल—त्याग नहीं, तो तो
हालत खराब हो
जाती।
मैं
दुनिया के अलग—अलग
कामों में जिन
लोगों ने
रिकार्ड तोड़
दिए हैं, उनकी
किताब देख रहा
था। उसमें एक
आदमी ने, एक
अमरीकन ने
कब्जियत का
रिकार्ड तोड़
दिया है—एक सौ
बाईस दिन। दिल
तो मेरा हुआ
कि उसको लिखूं
कि तू क्या है
रे, किस
खेत की मूली, भगवान
महावीर की याद
कर। चालीस साल—कहां
एक सौ बाईस
दिन की गिनती!
रिकार्ड तोड़ा
तो महावीर ने
तोड़ा, तू
क्या रिकार्ड तोड़ेगा!
इस
आदमी ने भी
रिकार्ड तोड़ा
इसलिए कि
बिल्कुल थोड़ा—थोड़ा
भोजन लिया।
भोजन नहीं
लिया, लिक्विड लिया तो मल
इकट्ठा नहीं
हो पाया। मगर
पश्चिम में इस
तरह की
दीवानगी चलती
है कि रिकार्ड
तोड़ने हैं, किसी भी चीज
में रिकार्ड
तोड़ने हैं। अब
कब्जियत में
ही रिकार्ड
तोड़ना है।
इसका कोई
मूल्य है? मगर
इसका भी तोड़
दो तो तुम
प्रसिद्ध हो
जाते हो कि
इसने कब्जियत
में रिकार्ड
तोड़ दिया। नालायकी
की भी कोई
सीमा होती है।
फिर हम
ऐसी कहानियां गढ़ते हैं
और इस तरह की
कहानियां गढ़कर
हम पूजा के
योग्य बना
लेते हैं। हम
अपने से इतना
दूर कर देते
हैं, हम उनको
अमानवीय कर
देते हैं। बस
अमानवीय वे हो
गए कि फिर
हमें पूजा
करने में अड़चन
नहीं होती।
मनुष्य जब तक
वे हैं तब तक
हमारे भीतर
अहंकार को चोट
लगती है। अपने
ही जैसे
मनुष्य के
सामने झुकना?
अपने ही
जैसे मनुष्य
के सामने
समर्पण करना?
लेकिन
जो वैसा कर
सके वही
ज्ञानी है।
भीखा ठीक कहते
हैं। भीखा का
सूत्र बहुत
मूल्यवान है—बोलता
ब्रह्म चीन्है
सो ज्ञानी...! जब
सद्गुरु बोल
रहा हो, जीवित
हो , श्वास
ले रहा हो, चल
रहा हो, उठ
रहा हो—तब
पहचान लेना।
लेकिन तब तो
तुम गालियां
दोगे, तब
तो तुम हर तरह
से निंदा
करोगे, तब
तो तुम हर तरह
से आलोचना
करोगे। ये भी
तुम्हारे
बचाव के उपाय
हैं। इस तरकीब
से तुम अपने को
सद्गुरु के
पास जाने से
रोक रहे हो।
निंदा, गाली,
विरोध, इतना
कर लोगे कि अब
कैसे जाएं और
ऐसे बुरे आदमी
के पास जाने
से फायदा क्या
है? तुम
अपने को भरोसा
दिला रहे हो, तुम्हें डर
है कि तुम
कहीं आकर्षित
न हो जाओ।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि सद्गुरुओं
को इतनी
गालियां
क्यों पड़ती
हैं? उसका
कारण है। लोग
डरते हैं कि
अगर गालियां न
देंगे तो पास
जाना पड़ेगा
क्योंकि फिर
आकर्षण...।
गालियां
दे—देकर
आकर्षण से
बचाव कर सकते
हैं—ये
सुरक्षा के
उपाय हैं, यह कवच हैं।
लोग गालियां
देंगे ही। वही
उन्होंने
अतीत में किया
है, वही आज
कर रहे हैं, वही कल भी
करेंगे।
मगर
यही उपाय
तुम्हें
अज्ञानी का
अज्ञानी रखता
है। तुम किसी
जले हुए दीए
के पास जाओगे
तो ही जल सकते
हो। जो दीए
बुझ चुके हैं, अब जो जा
चुके, उड़
चुके हैं, जो
पिंजड़े
ही पड़े रह गए
हैं अब शब्दों
के—उनमें
बोलता हुआ
प्राण तो कभी
का उड़ गया, तुम
उन्हीं की फूजा
करते रहना। और
लोग करते रहते
हैं।
लंका
में कैंडी के
मंदिर में
बुद्ध का एक
दांत रखा है, उसकी पूजा
चलती है। और
मजा यह है कि
वह बुद्ध का
दांत है ही
नहीं। बुद्ध
की तो तुम बात
ही छोड़ दो, वह
आदमी का दांत
भी नहीं है।
वैज्ञानिकों
ने खोजबीन की
तो पाया कि वह
किसी जानवर का
दांत है। मगर
इस खोजबीन को
दबाया गया
क्योंकि यह
खोजबीन ठीक
नहीं है, उसी
कैंडी के
मंदिर के दांत
पर तो
प्रतिष्ठा है
श्रीलंका की।
सारे बौद्ध
देशों से
हजारों—लाखों
यात्री कैंडी
के मंदिर जाते
हैं। सबको दिखाई
पड़ता है कि
दांत इतना बड़ा
है कि बुद्ध का
नहीं हो सकता।
और अगर बुद्ध
का था तो
बुद्ध का
चेहरा देखने
में बड़ा भयंकर
रहा होगा—दांत
बाहर निकला
रहा होगा, इतना
बड़ा है। और
अगर इतने बड़े—बड़े
दांत थे तो
बुद्ध राक्षस
मालूम होते
होंगे, आदमी
नहीं। मगर
उसकी पूजा
चलती है।
कश्मीर
में हजरत बाल
मस्जिद है, मुहम्मद का
एक बाल रखा
हुआ है। अब कौन
पक्का करे कि
यह मुहम्मद का
बाल है? कैसे
तय हो कि यह
मुहम्मद का
बाल है? मगर
बाल भी हजरत
हो गया—हजरत
बाल, साधारण
बाल तो नहीं
है कोई।
तुम्हें पता
है कुछ सालों
पहले दंगा—फसाद
हो गया था
क्योंकि कोई
हजरत बाल को
चुराकर ले गया,
और फिर हजरत
बाल मिल भी गए!
अब यह पक्का
पता नहीं है, कि यह कैसे
चुराया गया, किसने
चुराया? फिर
जो मिला वह
वही है कि
सिर्फ
मुसलमानों को संतुष्ट
करने के लिए
कोई दूसरा बाल—बाल
तो बाल ही है—उसकी
जगह रख दिया
गया।
मगर
लोग अजीब हैं।
मुहम्मद को
जीने न दिया
शांति से, मुहम्मद
जैसे आदमी को
हाथ में तलवार
लेनी पड़ी! बड़े
कष्ट से ली
होगी मुहम्मद
ने तलवार हाथ
में क्योंकि
वे आदमी शांति
के थे, शांतिप्रिय
थे। बड़ी
दुविधा में ली
होगी तलवार।
सबूत है इस
बात का
क्योंकि
तलवार पर
मुहम्मद ने
लिख छोड़ा था
कि मैं यह
तलवार शांति
के लिए उठा
रहा हूं।
"शांति मेरा
संदेश है" यह
तलवार पर लिखा
हुआ था। शांति
के लिए तलवार उठानी
पड़ी होगी! बड़े
खूंखार लोगों
के बीच मुहम्मद
को जीना पड़ा, बिना तलवार
के जीना असंभव
था। और जिंदगी—भर
भागते रहे, जिंदगी—भर
व्यर्थ के
झगड़े में समय
गंवाते रहे—गंवाना
पड़ा,
लोग
व्यर्थ के झगड़ों
में उलझाए
रखे।
जो समय
सत्संग में
बीत सकता था, वह लड़ाइयों
में बीता। जिस
समय मुहम्मद
के पास बैठकर
पी लेते
परमात्मा को,
उस मसय
मुहम्मद को घोड़ों पर चढ़कर और
युद्ध के
मैदान में
तलवारें
चलानी पड़ीं, एक गांव से
दूसरे गांव
भागते रहना
पड़ा। जो समय
मुहम्मद के
जले दीए से
अपना बुझा
दीया जलाने के
काम आ सकता था,
उसको
गंवाया। और अब?
अब हजरत बाल
की पूजा हो
रही है!
मनुष्य की इस मूढ़ता को
पहचानो
क्योंकि यह मूढ़ता
तुम्हारे
भीतर भी रोएं
रोएं में,
रग—रग में, रक्त के कण—कण
में समायी
हुई है।
क्योंकि यही
हमारा अतीत है,
इसी अतीत से
हम जन्मे हैं,
और यही हम आज
भी कर रहे
हैं।
राखो
मोहि आपनी
छाया।
और मिल
जाए अगर कोई
बोलता ब्रह्म
तो भीखा कहते
हैं फिर यही
प्रार्थना है—राखो मोहि आपनी
छाया। अपनी
छाया में मुझे
रख लो, बस
तुम्हारी
छाया में भी
काफी रोशनी
है। अपने पास
मुझे बिठा लो,
तुम्हारे
पास बैठ जाऊं
तो बस
परमात्मा के
पास बैठ गया।
लगैं
नहिं रावरी
माया...तुम्हारी
छाया में बैठ
जाऊं, फिर
संसार मुझे
नहीं छू सकता।
फिर कितनी ही
माया हो
दुनिया में, रही आए; तुम्हारी
छाया बचा लेगी,
तुम्हारी
आभा बचा लेगी,
तुम्हारा
सत्संग बचा
लेगा।
कृपा
अब कीजिए
देवा। करौं
तुम चरन की
सेवा।
और इतनी
ही कृपा चाहता
हूं कि
तुम्हारे
चरणों की सेवा
करने दो। और
कोई बात नहीं
मांगी—धन नहीं
मांगा, पद
नहीं मांगा; स्वर्ग नहीं,
मोक्ष नहीं;
कुछ नहीं—इतना
कि तुम्हारे
चरणों की सेवा
करने दो। शिष्यत्व
यही है—इतना
ही मांगना कि
बस तुम्हारे
चरणों की सेवा
करने दो बस, काफी है।
तुम्हारे
चरणों में मिल
जाएगा वैकुंठ,
तुम्हारे
चरणों में मिल
जाएंगे सारे
तीर्थ, तुम्हारे
चरणों में छूट
जाएगा सब कलुष—कल्मष।
कृपा
अब कीजिए
देवा। करौं
तुम चरन की
सेवा।
आसिक
तुझ खोजता
हारे। मिलहु
मासूक आ
प्यारे।
भीखा
कहते हैं : आसिक
तो हार गए खोज—खोजकर, हम भी बहुत
खोज लिए और
हार गए, खोजने
से तुम नहीं
मिलते, अब
तो इतनी ही
प्रार्थना है—तुम
ही आ जाओ।
मिलहु मासूक आ
प्यारे ...अब तो
तुम ही आओ, तुम आओ तो ही
बात बने, तो
ही बिगड़ी
बने। मेरे खोजे
से तो कुछ
नहीं होता
क्योंकि मैं
गलत, मेरी
खोज गलत; मैं
गलत, मेरी
दिशा गलत; मेरा
सोच—समझ गलत; मेरी पकड़
गलत; मेरी
धारणा गलत; मैं जहां
जाता हूं, गलती
ही कर लेता
हूं। गलती
आदमी के भीतर
है तो वह जो भी
करेगा वह भी
गलत हो जाएगा,
उससे तुम
ठीक की आशा कर
ही नहीं सकते।
लेकिन
शिष्य अगर
इतनी
प्रार्थना भी
कर सके तो
सद्गुरु
स्वयं आता है
या कि सद्गुरु
शिष्य को खींच
लेता है।
मिस्र की
पुरानी कहावत
है—जब शिष्य
राजी होता है, सद्गुरु
प्रगट होता
है।
आसिक
तुझ खोजता
हारे। मिलहु
मासूक आ
प्यारे।
कहौं
का भाग मैं
अपना। देहु
जब अजप का
जपना।
बस उस
घड़ी की
प्रतीक्षा है, उस महा—घड़ी
की, उस
क्षण में मैं
अपने भाग्य को
नाप भी न
सकूंगा, माप
भी न सकूंगा, अमाप होगा
मेरा भाग्य, असीम होगा
मेरा भाग्य—देहु जब अजप का
जपना—जब तुम
मुझे ऐसा जफ
सिखा दोगे
जिसे जफना
नहीं फड़ता।
"अजफा जफ" नानक
ने कहा उसे—जिसे
जफना
नहीं फड़ता।चार
संभावनाएं
हैं। एकतो
जोर—जोर से—राम—राम,
राम—राम, ओम्—ओम् —जपो,
यह सबसे
क्षुद्र मंत्रपाठ
है। फिर दूसरी
संभावना—ओंठ
बंद रखो, भीतर
राम—राम, ओम्—ओम्
जपो, जबान
से। यह पहले
से बेहतर मगर
बहुत बेहतर
नहीं क्योंकि
बात तो वही हो
रही है, अब
ओंठ से न होकर
जबान से हो
रही है। फिर
तीसरी संभावना
है—जबान भी न
हिले, कंठ
में ही राम—राम,
ओम्—ओम्...।
यह बात और भी
बेहतर है मगर
आखिरी अब भी
नहीं क्योंकि
अभी भी कंठ
में अटकी है।
फिर चौथी है—हृदय
में भाव ही रह
जाए, राम—राम,
कोई जप नहीं,
कोई
उच्चारण नहीं,
बस मात्र
भाव, बोध, स्मरण, सुरति।
उसको अजपा जाप
कहा है; बस
वही असली जाप
है, बाकी
तो उसकी तैयारियां
हैं।
अलख तुम्हरो न
लख पाई...मेरे
तो वश के बाहर
है कि तुम्हें
लख पाऊं
कि तुम्हें
देख पाऊं।
मेरी आंखों की
सामर्थ्य
क्या, मेरे
हाथों की
सामर्थ्य
क्या कि
तुम्हें छू पाऊं!
दया
करि देहु बतलाई...वह
तो तुम बतलाओ, कृपा करो, तुम्हारा
प्रसाद हो तो
अपूर्व घटना
घटे।
वारि
वारि जावं
प्रभु तेरी। खबरि कछु
लीजिए मेरी।
बलिहारी
हो जाऊंगा
तुम पर। लुटा
दूंगा अपने को, न्यौछावर कर
दूंगा
तुम्हारे
चरणों में, बस एक बार
मेरी खबर ले
लो।
सरन
में आय मैं गीरा...मैं
तो गिर गया
तुम्हारी शरण
में। जानो तुम
सकल परपीरा...और
तुम्हें तो सब
पता है, कहूं
क्या? तुम्हें
तो मेरे हृदय
की पीड़ा पता
है और मेरी प्यास
पता है, मांगू क्या? बोलूं
क्या? चुपचाप
पड़ा रहूंगा
तुम्हारे चरण
में। मौन पड़ा
रहूंगा
तुम्हारे चरण
में। मौन ही
होगी मेरी प्रार्थना,
शून्य ही
होगा मेरा
निवेदन। अंतरजामी
सकल डेरो...तुम्हारा
डेरा तो सबके
भीतर है सो
मेरे भीतर भी
है, तो
तुम्हें फता
ही है, कि
मैं क्या
चाहूं, कि
क्या मेरे
भाग्य की
नियति है।
छिपो
नहिं कछु करम मेरो...अपने
पापों का बखान
भी क्या करूं, वे भी तो
तुमसे छिपे
नहीं हैं। जो
तुमने करवाया
है वह किया
है। जहां
तुमने भेजा है
वहां गया हूं।
सब तुम्हारा
है—पाप भी
तुम्हारे, पुण्य
भी तुम्हारे,
और कुछ भी
तुमसे छिपा
नहीं है।
इसलिए न तो
पापों का
वर्णन करूंगा
कि मैंने क्या—क्या
पाप किए, मुझे
क्षमा करो।
क्षमा भी नहीं
मागूंगा।
और न पुण्यों
की चर्चा
करूंगा और
तुमसे पुण्यों
का कोई फल भी
नहीं मागूंगा।
तुम सब जानते
हो—यही समर्पण
का भाव है।
अजब
साहब तेरी
इच्छा। करो
कछु प्रेम की सिच्छा।
और
तुमने भी खूब
अजब काम किया !
अजब साहब तेरी
इच्छा...कि
संसार में
भेजा, कि
अंधेरे में
भटकाया, कि
गड्ढों में
गिराया। मगर होगा
जरूर कोई राज़,
जब तेरी
इच्छा है, जब
साहब की इच्छा
है। अगर पाप
भी करवाए हैं
तो उसके भीतर
कुछ रहस्य
होगा। अगर
भटकाया है तो
भटकाने में भी
कुछ राज़
होगा। शायद भटककर ही
कोई पहुंचता
है इसलिए
भटकाया है।
शायद पाप करके
ही पुण्य की
आकांक्षा
जगती है। शायद
दूर किया मुझे
अपने से ताकि
पास आने की
आकांक्षा, अभीप्सा,
प्यास जगे।
अजब
साहब तेरी
इच्छा...मेरी
समझ में तो
नहीं आती है, भीखा कहते
हैं; मेरी
समझ ही कितनी?
बड़ी अजब है
तेरी शिक्षा,
बड़ी अजब है
तेरी इच्छा, संसार में
भटका रहा है, अंधेरे में
भटका रहा है।
मगर जरूर राज़
होगा। शायद
अंधेरी रात के
बाद ही सुबह
होती है, इसलिए
तूने अंधेरी
रात दी कि
सुबह हो सके।
अज्ञान के बाद
ही ज्ञान का
उदय है, इसलिए
अज्ञान दिया।
और पाप में ही
तो पुण्य का
फूल खिलेगा।
कीचड़ में ही
तो कमल खिलेगा,
इसलिए कीचड़
दी।
अजब
साहब तेरी
इच्छा। करो
कुछ प्रेम की सिच्छा।
लेकिन
अब बहुत हो
गया। अब काफी
हो गया। अब
थोड़ी प्रेम की
शिक्षा दो। अब
थोड़े प्रेम के
पाठ सिखाओ।
बहुत हो गया, जनम—जनम से
अंधेरे में
भटकता—भटकता,
अब प्रभात
होने दो।
प्रेम प्रभात
है। प्रेम पुण्य
है। प्रेम
प्रार्थना
है। अब प्रेम सिखाओ।
घृणा बहुत की,र्
ईष्या बहुत की,
वैमनस्य
बहुत किया, क्रोध बहुत
किया, हिंसा
बहुत की—अब
प्रेम सिखाओ।
सकल घट
एक हौ आपै...ऐसा
प्रेम सिखाओ
कि सब में एक
ही दिखाई पड़ने
लगे। दूसर जो
कहै मुख कापै...दूसरा
कह ही न सकूं—मुंह
कंप जाए, जबान
टूट जाए, सिर
गिर जाए—बस एक
ही, एक ही
उद्घोष उठे।
निरगुन
तुम आप गुनधारी...मुझे
पता है कि तुम
ही छिपे हो इन
गुणों में। इस
द्वैत में भी
तुम्हारा
अद्वैत ही
छिपा है। इस
अनेक में भी
तुम एक ही हो।
अनेक फूलों के
भीतर तुम एक
धागे की तरह अनस्यूत
हो।
निरगुन
तुम आप गुनधारी...मुझे
पता है, ये
सब गुण भी
तुम्हारे
हैं। यह सब
लीला भी
तुम्हारी है।
यह सब खेल भी
तुम्हारा है।
यह अभिनय भी
तुम्हारा है।
अचर चर
सकल
नरनारी...यह भी
मुझे मालूम है
कि तुम चलते
नहीं फिर भी
चल रहे हो।
सारे नर—नारियों
में और कौन चल
रहा है? तुम्हीं
चल रहे हो।
मुझे पता है
तुम हिलते भी नहीं
लेकिन
तुम्हीं चंचल
हुए हो। मुझे
पता है कि तुम
अडिग हो लेकिन
तुम्हीं
कंपायमान हुए
हो।
सब
विरोधाभास
परमात्मा में
समर्पित हैं।
सब विरोधाभास
परमात्मा में
एक हो जाते
हैं।
जानो
नहिं देव मैं
दूजा...लेकिन
मुझे दूसरे कोई
खबर नहीं है, न मैं दूसरे
को जानता हूं,
न दूसरा
मुझे कोई दिखाई
पड़ता है; बस
एक तुम मिल
गए।
जानो
नहिं देव मैं
दूजा। भीखा इक
आतमा
पूजा।
और
मेरे पास कोई
और पूजा नहीं, अर्चन नहीं,
पूजा का थाल
नहीं, दीया
नहीं, धूप
नहीं, बस
एक मेरी आत्मा
है—यही मेरी
पूजा है।
काश, तुम्हें अगर
कहीं कोई
बोलता ब्रह्म
मिल जाए तो
ऐसे अपने को
समर्पित कर
देना। बोलता
ब्रह्म चीन्है
सो ज्ञानी।
और जो
बोलते ब्रह्म
के साथ जुड़
जाए वह पहुंच
गया; बिना चले
पहुंच गया; बिना एक कदम
उठाए पहुंच
गया। ऐसे तो
दौड़—दौड़कर
भी कोई नहीं
पहुंचता
लेकिन
सद्गुरु के
साथ बिना कदम
उठाए पहुंचना
हो जाता है।
आज
इतना ही।
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