मेरा पथ तो मुक्त गगन—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक
30 मई, 1979;
ओशो
कम्युन
पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान!
मेरे मन में
बहुत
द्वन्द्व है
कि आपके पास
आकर मुझे
समाधान
मिलेगा या
नहीं! मैं
बहुत उलझन में
हूं। मेरा मन
ऐसी चीजों से
ग्रस्त है, जो
स्वीकार्य
नहीं हैं। जब
मैं अपने में
होती हूं, तो
उनके साथ
समायोजित हो
जाती हूं, लेकिन
आपके पास
पहुंचकर मेरे
उपद्रव बढ़
जाते हैं और
मैं घबड़ा जाती
हूं। मेरा
व्यक्तित्व ज्यादा
हठी और
संदेहशील हो
गया है; इस
कारण अभी
समर्पण कठिन
है। इसके
बावजूद मुझे
आश्रम आने का
जी बहुत होता
है।
2—भगवान!
झाबुआ के
निकट पच्चीस
सौ पच्चीस हवन—कुंड
बनाकर यज्ञ हो
रहा है। सुना
है, यह
पृथ्वी का
सबसे बड़ा यज्ञ
है, जिसकी
तथाकथित पंडे—पुरोहित
और
राजनीतिज्ञ
बड़ी तारीफ कर
रहे हैं।
और
दूसरी और आप
जिस मंदिर और जीवनत्तीर्थ
के निर्माण
में लगे हैं, उसमें ये ही
लोग बाधा डाला
रहे हैं। लगता
है, यह इन
तथाकथित पंडे—पुरोहितों
और
राजनीतिज्ञों
की सांठ—गांठ
है। ऐसा क्यों?
3—भगवान!
मैं कवि हूं, क्या सत्य
को पाने लिए
यह पर्याप्त
नहीं है?
पहला
प्रश्न:
भगवान!
मेरे मन में
बहुत द्वंद्व
है कि आपके पास
आकर मुझे
समाधान
मिलेगा या
नहीं! मैं
बहुत उलझन में
हूं। मेरा मन
ऐसी चीजों से
ग्रस्त है, जो
स्वीकार्य
नहीं हैं। जब
मैं अपने में
होती हूं, तो
उनके साथ
समायोजित हो
जाती हूं, लेकिन
आपके पास
पहुंचकर मेरे
उपद्रव बढ़
जाते हैं और
मैं घबड़ा जाती
हूं। मेरा
व्यक्तित्व ज्यादा
हठी और
संदेहशील हो
गया है; इस
कारण अभी
समर्पण कठिन
है। इसके
बावजूद मुझे
आश्रम आने का
जी बहुत होता है।
वीणा
पटेल! द्वंद्व
शुभ लक्षण है।
अभागे हैं वे जिन्हें
द्वंद्व का
अनुभव नहीं
होता, क्योंकि
जिन्हें
द्वंद्व का
अनुभव नहीं
होता वे निद्वंद्व
को कभी अनुभव
न कर पाएंगे।
उलझन की
प्रतीति सुलझने
का पहला चरण
है। असमाधान
से भरा चित्त
समाधान की
तलाश है।
सिर्फ जड़बुद्धि
सोचते हैं कि
उलझन नहीं है।
सिर्फ जड़बुद्धि
द्वंद्व में
नहीं होते।
जिनके पास
थोड़ी विचार की
क्षमता है, द्वंद्व तो
होगा ही, उलझन
तो होगी ही।
जीवन की समस्यायें
उन्हें दिखाई
पड़ेंगी और
उन्हें हल
करने की छटपटाहट
बढ़ेगी।
या तो उन
समस्याओं को
हल करो या फिर
उन समस्यों को
भुलाओ।
भुलाने से मिटेंगी
नहीं, फिर—फिर
लौट आएंगी, और सबल होकर
लौट आएंगी, फिर—फिर
उनका आघात
होगा, आक्रमण
होगा। जीवन
ऐसे ही व्वर्थ
के संघर्ष में
व्यतीत हो
जाएगा।
इसलिए
जब तू यहां
आती है, तो
उपद्रव बढ़ जाते
हैं क्योंकि समस्यायें
स्पष्ट दिखाई
पड़ने लगती हैं;
जब यहां
नहीं आती, तो
अपने मन को
समझा—बुझा
लेती होगी; समस्यायों के प्रति
आंख बंद कर
लेती होगी; समस्याओं के
प्रति पीठ कर
लेती होगी; सब ठीक है—ऐसी
मान्यता में
समायोजन कर
लेती होगी।
मगर यह
समायोजन झूठा
है। उस
समायोजन का
कोई भी मूल्य
नहीं; धोखा
है, वंचना
है। और पीछे
बहुत पछताएगी
क्योंकि जो
समय ऐसी वंचना
में गया, वह
समय समाधान
में लग सकता
था।
मेरे
पास आने वालों
का ऐसा
स्वाभाविक
अनुभव है।
तेरा ही नहीं, जो भी नया—नया
मेरे पास आएगा,
वह आता तो
समाधान की
तलाश में है
लेकिन पहले तो
समस्याओं से
सामना करना
होगा। जैसे
कोई चिकित्सक
के पास जाता
है, जब
जाता है तब तो
उसे पता नहीं
होता कि
बीमारी क्या
है, सिर्फ
एक आभास होता
है कि कुछ
गड़बड़ है, जैसा
होना चाहिए
वैसी देह नहीं
है। स्वास्थ्य
में कहीं कोई
कमी है। मगर
कुछ स्पष्ट
नहीं होता कि टी.बी. है
कि कैसर है, कि कौन—सी
मुसीबत भीतर
पक रही है? इसलिए
बहुत से लोग
तो चिकित्सक
के पास जाने
से भी डरते
हैं क्योंकि
जाएंगे तो वह
अंगुली रख देगा
बीमारी पर। वे
मानकर बैठे
रहते हैं घर
कि कुछ छोटी—मोटी
बात है, कोई
सर्दी—जुकाम
है, कोई
सिर में दर्द
है, ठीक हो
जाएगा—एस्प्रो
ले लो, एनासिन ले लो। अपने
को भुलाते
रहो, समझते
रहो। या वे
ऐसे लोगों के
पास जाते हैं
जहां कोई
ताबीज दे दे,
कोई राख दे दे, कोई
आशीर्वाद दे दे कि सब
ठीक हो जाएगा,
बिना इस बात
की फिक्र किये
कि बीमरी
क्या है। बिना
निदान के कोई
उपचार कर दे, ऐसे लोगों
के पास जाते
हैं।
चिकित्सक
के पास जाने
में बीमार
थोड़ा डरता है, उसके पैर
कंपते हैं। और
मैं समझता हूं
उसकी अड़चन। घबड़ाता है
कि कहीं सच
में कोई बड़ी
बीमारी न हो!
चिकित्सक के
पास जाएगा तो
समाधान तो मिल
सकता है लेकिन
समाधान के
पहले निदान है
और निदान तो
घबड़ाएगा। जब
पहली दफे
तुमसे कोई
कहेगा कि तुम्हें
टी.बी. है,
कि तुम्हें
कैसर है, तो
पैरों के नीचे
की जमीन खिसकी,
कि दिन में
तारे दिखाई
पड़ने लगेंग।
सब अस्त—व्यस्त
हो जाएगा। अब
तक की सब
शांति खंडित
हो जाएगी।
सारा समायोजन
तितर—बितर
जाएगा। सुलझे
हुए धागे उलझ जाएंगे।
एकनाथ
के जीवन में
ऐसा उल्लेख
है। एक युवक एकनाथ के
पास आता था।
जब भी आता था
तो वह बड़ी
ऊंची ज्ञान की
बातें करता
था। एकनाथ
को दिखाई पड़ता
था, वे ज्ञान
की बातें
सिर्फ अज्ञान
को छिपाने के लिए
हैं। एक दिन
उसने एकनाथ
को पूछा सुबह—सुबह
कि एक संदेह
मेरे मन में
सदा आपके
प्रति उठता
है। आपका जीवन
ऐसा ज्योतिर्मय,
ऐसा
निष्कलुष, ऐसी
कमल की
पंखडियों
जैसा निर्दोष क्वांरा, लेकिन कभी
तो आपके जीवन
में भी पाप
उठे होंगे? कभी तो
अंधेरे ने भी
आपको घेरा
होगा? कभी
आपकी जिंदगी
में भी कल्मष
घटा होगा? ऐसा
तो नहीं हो
सकता कि पाप से
आप बिलकुल
अपरिचित हों!
मैं यही पूछना
चाहता हूं। आज
यही सवाल लेकर
आया हूं, ओर
चूंकि और कोई
मौजूद नहीं है,
आज आपको
अकेला ही मिल
गया हूं, इसलिए
निस्संकोच
पूछता हूं कि
आपके मन में
पाप उठता है
कभी या नहीं; उठा है। कभी
या है नहीं?
एकनाथ
ने कहा; यह
तो मैं पीछे बताऊं; इससे
भी ज्यादा
जरूरी बात
पहले बतानी है
कि कहीं मैं
भूल न जाऊं, बातचीत में
कहीं अटक न
जाऊं, कहीं
भूल ही न जाऊं,
जरूरी बात
चूक न जाए! कल
अचानक जब तू
जा रहा था तेरे
हाथ पर मेरी
नजर पड़ी तो
मैं दंग रह
गया; तेरे
उम्र की रेखा
समाप्त हो गयी
है। सात दिन और
जिएगा तू। बस,
सातवें दिन
सूरज के डूबने
के साथ तेरा
डूब जाना है।
अब तू पूछ
क्या पूछता
था।
वह
युवक तो उठकर
खड़ा हो गया।
अब कोई पूछने
की बात, अब
कोई समस्या
समाधान, अब
कोई जिज्ञासा,
अब कोई
दार्शनिक
मीमांसा...वह
तो उठकर खड़ा
हो गया, उसने
कहा: मुझे कुछ
नहीं पूछना है।
मुझे घर जाने
दो।
एकनाथ
ने कहा: बैठो
भी, अभी आये,
अभी चले, इतनी जल्दी
क्या है?
सत्संग
होगा चर्चा
होगी, तत्व
विचार होगा, रोज की
ज्ञान की
बातें—ब्रह्म,
मोक्ष
कैवल्य...।
उसने
कहा कि छोड़ो
भी, आज उनमें
मुझे कुछ रस
नहीं। वह जवान
आदमी एकदम
जैसे बूढ़ा हो
गया। अभी आया
था मंदिर की सीढ़ियां चढ़कर तो
उसके पैरों
में बल था, लौटा
तो दीवाल का
सहारा लेकर
उतर रहा था, पैर उसके
कंप रहे थे।
घर जाकर घर के
लोगों को कहा;
रोना—धोना
शुरू हो गया।
पास—पड़ोस के के लोग
इकट्ठे हो
गये। उस दिन
तो घर में फिर
चूल्हा ही न
जला, पास—पड़ोस
के लोगों ने
लाकर भोजन
करवाया। उसने
तो भोजन ही
नहीं किया; अब क्या
भोजन! वह तो
बोला ही नहीं,
वह तो आंख
बंद करके
बिस्तर पर पड़ा
रहा। सात दिन
में उसकी हालत
मरणासन्न
जैसी हो गयी।
बार—बार
सातवें दिन
पूछता था—सूरज
के डूबने में
और कितनी देर
है? आवाज
भी मुश्किल से
निकलती थी। घर
में रोआ—गायी मची
थी। मेहमान
इकट्ठे हो गये
थे। दूर—दूर
से प्रियजन आ
गये थे अंतिम
विदा देने।
और
सूरज डूबने के
ठीक पहले एकनाथ
ने द्वार पर
दस्तक दी। एकनाथ
भीतर आये। एकनाथ
उसके पास गये।
वह तो आंख बंद
किये पड़ा था।
हाथ से उसकी
आंखें खोलीं
और कहा कि एक
बात तुझे
बताने आया
हूं। यह तू
क्या कर रहा
है, ऐसा
क्यों पड़ा है?
उसने
कहा: और क्या
करू? सूरज
डूबने में
कितनी देर है?
ये सात दिन
मैंने इतना
नर्क भोगा है
जितना कभी
नहीं। अब तो
ऐसा लगता है
मर ही जाऊं तो
झंझट कटे।
एकनाथ
ने कहा कि मैं
तुझे तेरे
प्रश्न का
उत्तर देने
आया हूं। वह
तूने मुझसे
पूछा था न कि
आपके मन में
पाप कभी उठता
है। मैं पूछने
आया हूं तुझसे
कि सात दिन
में तेरे मन
में कोई पाप
उठा? उस आदमी
ने कहा: कहां
की बातें कर
रहे हो! कैसा पाप,
कैसा पुण्य?
सात दिन तो
कोई विचार ही
नहीं उठा, बस
एक ही विचार
ही था—मौत,मौत,
मौत; एक
दिन गया, दो
दिन गये, तीन
दिन गये, चार
दिन गये, यह
घड़ी—घड़ी बीती
जा रही है, पल—पल
चूका जा रहा
है। सातवां
दिन दूर नहीं
है, सूरज
के डूबते ही
सब जाएगा। मौत
थी और भी न था। इन
सात दिनों में
अंधकार था
अमावस का और
कुछ भी न था।
कहां का पाप, कहां का
पुण्य?
एकनाथ
ने कहा: तो उठ, अभी तुझे
मरना नहीं है।
तेरी हाथ की
रेखा अभी काफी
लंबी है। यह
तो मैंने
सिर्फ तेरे
प्रश्न का
उत्तर दिया
था। ऐसे ही
जिस दिन से
मुझे मौत दिखाई
पड़ गयी है, पाप
नहीं उठा।
जिसको मौत
दिखाई पड़ जाती
है पाप नहीं
उठता, एकनाथ ने कहा।
ऐसा
उत्तर कोई सद्गुरु
ही दे सकता
है। मगर ऐसे
उत्तर महंगे तो
हैं। यह सौदा
सस्ता तो नहीं
है।
वीणा, यहां आएगी
तो उपद्रव तो
खड़े होंगे।
यहां आएगी तो
दबे—दबाये
प्रश्न
उभरेंगे। जिन
समस्यों की
छाती पर तू
बैठ गयी है, वे फिर
वापिस तड़फड़ाएंगी।
और जिन उलझनों
को तूने समझा
लिया है अपने
को कि सुलझ
गयीं, वे
फिर दिखाई पड़नी
शुरू होंगी।
जिंदगी
में समाधान की
तलाश के लिए
जो जाएगा, पहले तो
निदान होगा और
निदान दुखद
होता है, निदान
पीड़ा लाता है।
किसी मरीज को
कहना कि टी.बी.
है, कि
कैसर है... चिकिसत्सक
को भी बहुत
सोचना पड़ता है—कहे
कि न कहे!
चिकित्सक को
भी बहुत सोचना
पड़ता है कि
कैसे कहे? कैसे
धीरे—धीरे कहे?
कैसे
आहिस्ता—आहिस्ता
कि ज्यादा चोट
न हो जाए।
लेकिन कहना तो
पड़ेगा और मैं
जिन समस्याओं
के संबंध में
बात कर रहा
हूं, वे
छिपाई नहीं जा
सकतीं।
तेरा
अनुभव ठीक है
कि पास
पहुंचकर मेरे
उपद्रव बढ़
जाते हैं और
मैं घबड़ा जाती
हूं। लेकिन यह
शुभ लक्षण है।
इसका अर्थ है
कि तूने मुझे
सुना। इसका
अर्थ है कि तू
सोयी नहीं थी।
इसका अर्थ है
कि मैं तेरे
हृदय तक पहूंचा।
इसका अर्थ है
कि तेरी
सांसों में
मैं समाया।
इसका अर्थ है
कि मैंने तुझे
बिचलित
किया। और जो
मुझसे विचलित
हो जाता है
उसने अच्छी
खबर दी, सुसमाचार
है। क्योंकि
जो मुझसे
विचलित हो जाता
है, जैसे
मेरी बात चोट
करती है, उसे
मेरी बात जगाएगी
भी।
चोट तो
करनी पड़ेगी
सोयों को
जगाना हो तो।
हिलाना तो
पड़ेगा। उनके
सपने तो तोड़ने
पड़ेंगे। उनकी
बंद आंखों पर
ठंडा पानी तो
फेंकना
पड़ेगा। और वे
नाराज भी
होंगे। और
तुझे नाराजगी
भी होती होगी।
और तुझे संदेह
उठते होंगे
स्वभावतः कि
इससे तो मैं
अपने में ही
होती हूं तभी
ज्यादा
समायोजित
होती हूं, यहां आती
हूं तो और
उलझन बढ़ जाती
है। मैं तेरी उलझन
नहीं बढ़ा रहा,
मैं सिर्फ
तेरी दबायी
गयी उलझनों को
प्रगट कर रहा
हूं।
और
मुझे तेरा तो
पता भी नहीं
है, ये तो मनुष्यमात्र
की दबायी गयी
उलझनें हैं
जिनकी मैं
चर्चा कर रहा
हूं। मैं तो
तुझे पहचानता
भी नहीं हूं, तुझे देखा
भी नहीं। मगर
मनुष्य मनुष्य
में भेद कहां
है! जो अ की
मुसीबत है, वही ब की
मुसीबत है।
थोड़े—बहुत
मात्रा के
अंतर होंगे, थोड़े रंग—ढंग
के भेद होंगे
मगर मुसीबतें
वही—मौत वही, जीवन वही, जीवन का
मौलिक प्रश्न
वही कि मैं
कौन हूं? कि
जीवन की
सार्थकता
क्या है, कि
प्रयोजन क्या
है? कि
क्यों है यह
अस्तित्व?
और
तूने कहा कि
मेरा मन ऐसी
चीजों से
ग्रस्त है जो
स्वीकार्य नहीं
हैं। जब तक तू
उन्हें
स्वीकार न
करेगी तब तक
मन ग्रस्त ही
रहेगा।
अस्वीकार
करके कोई विजय
नहीं होती
क्योंकि जो—जो
हम अस्वीकार
करते हैं अपने
भीतर, वही
दबा पड़ा रह
जाता है। और
जो दबा पड़ा रह
जाता है वह
अपने अभरने
ने का अवसर
खोजेगा। मेरे
पास आती है, वही उभर आता होगा
क्योंकि मैं
दमन के विपरीत
हूं। जैसे किसी
आदमी ने
कामवासना को
दबा लिया हो
और ब्रह्मचर्य
का लबादा ओढ़कर
बैठ गया हो—यहां
मेरे पास आएगा,
लबादा
सरकने लगेगा।
क्योंकि मैं
कहता हूं: कामवासना
को दबाना नहीं
है, जानना
है। जानने से
जीत है, दबाने
में हार है।
कामवासना
को जिसने
दबाया वह और
भी ज्यादा
कामवासना से
ग्रस्त होता
चला जाएगा।
उसके रोएं—रोएं में
मवाद फैल
जाएगी वसाना
की।
ब्रह्मचर्य
जरूर घटता है
लेकिन उनको
कभी नहीं घटता
जो वासना को
दबा लेते हैं; उनको घटता
है जो वासना
में साक्षीभाव
को जोड़ देते
हैं—दबाते
नहीं, उभारकर वासना को
पूरा का पूरा
देख लेते हैं,
आंख भरकर
देख लेते हैं।
जिन्होंने भी
अपनी वासना को
आंख भरकर देख
लिया है
उन्हीं की
वासना प्रार्थना
में
रूपान्तरित
हो जाती है।
वही वासना जो
भटकाती थी, मार्ग बन
जाती है। वही
सीढ़ी जो नीचे
ले जाती है, वही सीढ़ी
ऊपर ले जाएगी।
और वही रास्ता
जो तुम्हें
यहां तक ले
आया है, वापिस
तुम्हें घर ले
जाएगा। वासना
संसार में ले
आयी है, वासना
ही परमात्मा
में ले जाएगी।
फर्क इतना ही
होगा कि संसार
में आते वक्त
पीठ परमात्मा
की तरफ थी, मुंह
संसार की तरफ
था; लौटते
वक्त पीठ
संसार की तरफ
होगा, मुंह
परमात्मा की
तरफ होगा।
लेकिन वासना
वही, ऊर्जा
वही, शक्ति
वही। उसी
शक्ति के
सहारे तो तुम
पानी में
डुबकी लगाते
हो और उसी
शक्ति के
सहारे तुम पानी
के बाहर निकल
आते हो।
जिसने
तुम्हें
भटकाया है, उसी में
सुलझाव छिपा
है। जहर में
अमृत दबा पड़ा
है, खोजी
चाहिए। बोधपूर्वक
खोज करनी है।
इसलिए मेरे
पास अगर किसी
ने थोप—थापकर
ब्रह्मचर्य
बिठा लिया हो—और
ऐसे काफी लोग
हैं इस देश
में, ऐसे
ही लोग हैं, ऐसे ही
लोगों से यह
देश भरा है—तो
जरूर मेरी बात
सुनेंगे तो
उनकी वासना
में नये अंकुर
आने लगेंगे।
वह जो
अस्वीकार्य
है, सिर
उठाने लगेगा।
वे घबड़ाएंगे।
जिन्होंने
क्रोध को दबा
लिया है, वे
घबड़ाएंगे।
जिन्होंने
लोभ को दबा
लिया है, वे
घबड़ाएंगे।
जिन्होंने
दबाया है वह
तो मेरे पास
आकर थोड़ी घबड़ाहट
से भरेंगे।
यह स्वाभाविक
है।
मगर
इसका अर्थ यह
नहीं है कि
मेरे पास आने
से डर जाओ; तब तो तुम
चूक गये एक
अवसर। गुरु—परताप
साध की संगति!
यह कोई सस्ता
सौदा नहीं है,
यह महंगी
यात्रा है। यह
जोखम है।
यह जुआ है।
इसलिए तेरा मन
द्वंद्व से भर
जाता है और
तुझे लगता है
कि मुझे
समाधान
मिलेगा या
नहीं।
जो मन
द्वंद्व से
भरता है वह
इसीलिए तो
द्वंद्व से
भरता है कि
निर्द्वद्व
होना उसकी
क्षमता है। इस
बात को ठीक से
समझ लो। जो
आदमी बीमार हो
सकता है, वह
स्वस्थ हो
सकता है।
मुर्दे बीमार
नहीं होते।
तुमने कभी
किसी मुर्दे
को बीमार, देखा?
मुर्दे
बीमार नहीं
होते, मुर्दे
स्वस्थ भी
नहीं हो सकते।
मूढ़
द्वंद्व से
नहीं भरते, मूढ़ बुद्धता
को भी उपलब्ध
नहीं होते।
द्वंद्व से
भरना, चिंतातूर होना, इस
बात का लक्षण
है कि भीतर
विवेक है, भीतर
बोध है, चैतन्य
है, भीतर
समझ है।
लेकिन
अब तक उसका
सम्यक उपयोग
नहीं हुआ है।
उसका सम्यक
उपयोग हो जाए
तो बस कांटों
को फूल बना
लेने की कला
ही तो मैं
सिखाता हूं।
काम को राम
बना लेना है।
और कंकड़—पत्थर
हीरे—जवाहरातों
में बदल जाते
हैं। और तब
तुम जीवन की
समस्याओं के
प्रति
अनुग्रह
अनुभव करोगी।
क्योंकि
उन्हीं
समस्याओं ने
सोपान का काम
किया है, वे
तुम्हें
समाधान तक ले आयीं।
लेकिन
जो स्वीकार्य
नहीं है उसे
स्वीकार करना
होगा; तुम्हारे
स्वीकार करने
न करने से न तो
कुछ फर्क पड़ता
है, न कुछ
मिटता है, न
कुछ बनता है।
जीवन को उसकी
समग्रता में
स्वीकार करो
अगर
रूपान्तरण
चाहिए
क्योंकि
स्वीकार से ही
रूपान्तरण
है। अस्वीकार
से संघर्ष है।
अस्वीकार से
खंडित हो
जाओगे और कुछ
नहीं हो सकता,
टुकड़े—टुकड़ों
में बंट
जाओगे। जो
आदमी अपनी
कामवासना से
लड़ेगा वह दो
हिस्सों में
हो गया। एक
तरफ कामवासना हो
गयी उसकी, एक
तरफ वह हो
गया। और ध्यान
रखना
कामवासना कोई
छोटी बात नहीं
है, रोएं—रोएं
में समायी
है, तुम
उसी से पैदा
हुए हो, तुम
उसी से
निर्मित हो।
तुम्हारी देह
का कण—कण कामवासना
से भरा है, उससे
लड़ोगे तो
अपने से ही लड़ोगे।
इस खुद से
चलने वाली
कुश्ती में
कभी विजय नहीं
हो सकती, बुरी
तरह हारोगे, बुरी तरह टूटोगे
और खंड—खंड
होकर छितर
जाओगे। जैसे
पारा छितर जाए
ऐसे छितर
जाओगे। जैसे
कांच को कोई
पत्थर पर पटक
दे और चकनाचूर
हो जाए ऐसे
चकनाचूर हो
जाओगे।
जीवन
को बदलना है।
जीवन को
ऊंचाइयों पर
ले जाना है।
जीवन को पंख
देना है। तो
जीवन में
द्वंद्व नहीं
होना चाहिए।
अपने भीतर
द्वैत नहीं होना
चाहिए, अद्वैत
होना चाहिए।
मैं तुम्हें
अद्वैत का पहला
पाठ सिखाता
हूं—तुम जैसे
हो वैसे ही
अपने को
स्वीकार करो।
बुरे—भले के
निर्णय बड़ी
मुसीबत में
डाले हुए हैं।
क्या बुरा है,
क्या भला है—तुम्हें
कुछ पता नहीं
है। क्या शुभ,
क्या अशुभ—तुम्हें
कुछ पता नहीं
है। मगर
दूसरों ने जो
सिखा दिया है
वही पकड़ बैठा
है, उसने
ही तुम्हारे
प्राण ले लिए
हैं।
अगर
तुम सारी
दुनिया की अलग—अलग
जातियों की
जीवन
व्यवस्था को
समझो तो यह बात
तुम्हें समझ
में आ जाएगी।
चीन में लोग
सांप का भोजन
करते हैं।
सांप का भी
भोजन करते हैं, यह तुम सोच
भी न सकोगे।
चीन में सांप
का भोजन स्वादिष्टतम
भोजनों में एक
समझा जाता है।
बच्चे बचपन से
ही यह बात
देखते हैं, किसी को
अड़चन नहीं
पैदा होती।
लेकिन
तुम्हारे
सामने कोई
नाश्ते में
सांप को
उबालकर रख दे तो
तुम तो महीने
पन्द्रह दिन
भोजन न कर
सकोगे, ऐसी
ग्लानि पैदा
हो जाएगी। जो
तुमने सुना है
तुम्हें ठीक
लगता है। जो
तुमने सुन रखा
है बचपन से, वह तुम्हारे
भीतर ठीक होकर
बैठ गया है।
उसको तुमने
पकड़ लिया है।
उस पर पुनर्विचार
नहीं किया। उस
पर आत्म—निरीक्षण
नहीं किया।
तुमको कहा गया
है, क्रोध
बुरा है।
लेकिन
तुम्हें यह
नहीं कहा गया
कि इस क्रोध
के भीतर ही
छिपी करुणा का
स्रोत है।
क्रोध जरूर
बुरा है अगर
क्रोध ही रह
जाए, लेकिन
अगर क्रोध
करुणा बन जाए
तो क्रोध भी
सौभाग्य है।
तुमने
कभी यह बात
सुनी है कि
कोई नपुंसक
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ हो
आज तक? न
पूरब में, न
पश्चिम में, कोई नपुंसक
बुद्धत्व को
क्यों उपलब्ध
नहीं हुआ? क्योंकि
काम—ऊर्जा ही
न हो तो
ब्रह्मचर्य
कैसे फले! अगर
ब्रह्मचर्य
के ही कारण
लोग बुद्धत्व
को उपलब्ध
होते होते
तो सब नपुंसक
बुद्ध की तरह
ही हो जाते।
अभाव
किसी काम नहीं
आता। ऊर्जा ही
नहीं है कामवासना
की तो
ब्रह्मचर्य
का फूल कैसे
खिलेगा! तुमने
यह बात देखी
कि जैनों के
चौबीस
तीर्थकर क्षत्रिय
हैं, बुद्ध भी
क्षत्रिय
हैं। और इन दो
धर्मों ने—जैनों
और बौद्धों ने—अहिंसा
का पाठ दिया
दुनिया को।
क्षत्रियों ने
और अहिंसा का
पाठ दिया! यह
थोड़ी बात
चौंकाती नहीं?
ब्राह्मणों
को देना चाहिए
था, सो
ब्राह्मणों
ने तो परशुराम
दिये दुनिया
को। कि कहते
हैं उन्होंने
अनेक बार
पृथ्वी को क्षत्रियों
से खाली कर दिया,
उठकर फरसा
और सफाई कर
दी।
ब्राह्मणों
ने परशुराम
दिये और
क्षत्रियों
ने—महावीर, पार्श्व, नेमी, बुद्ध—अहिंसा
के तीर्थकर
दिये। यह जरा
सोचने जैसी बात
है कि ऐसा
कैसे हुआ? अगर
जैनों के सब
तीर्थकर
ब्राह्मण
होते, बात
में बिलकुल
तर्क होता, गणित होता।
लेकिन जैनों
का कोई
ब्राह्मण
तीर्थकर नहीं
है। क्या कारण
है? क्षत्रियों
के पास ही
इतना क्रोध था,
इतना
प्रज्वलित
क्रोध था कि
करुणा पैदा हो
सकी। करुणा
पैदा होने के
लिए
प्रज्वलित
क्रोध की
क्षमता
चाहिए। यह
चमकती हुई धार
थी तलवार की
जो करुणा बन
सकी।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है अंगुलीमाल
का। एक आदमी
जो नाराज हो
गया सम्राट से
और उसने घोषणा
कर दी कि वह एक
हजार आदमियों
की गर्दन काटकर
उनकी
अंगुलियों की
माला बनाकर
पहनेगा। उसका
नाम ही अंगुलमाल
हो गया। उसका
असली नाम ही
भूल गया। उसने
लोगों को
मारना शुरू कर
दिया। वह बड़ा
मजबूत आदमी था, खूंखार आदमी
था। वह
राजधानी के
बाहर ही एक
पहाड़ी पर
अड्डा जमाकर
बैठ गया। जो
वहां से
गुजरता उसको
काट देता, उसकी
अंगुलियों की
माला बना
लेता। वह
रास्ता चलना
बंद हो गया।
औरों की तो
बात छोड़ो
राजा के सैनिक
और सिपाही भी
उस रास्ते से
जाने को राजी
नहीं थे। राजा
खुद थर—थर
कांपता था।
नौ सौ
निन्यानबे
आदमी उसने मार
डाले, वह हजारवें
की तलाश कर
रहा था। उसकी
मां भर उसको
मिलने जाती थी,
अब तो वह भी
डरने लगी।
लोगों ने उससे
पूछा कि अब तू
नहीं जाती अंगुलीमाल
को मिलने? उसने
कहा: अब खतरा
है; अब
उसको एक की ही
कमी है। अब वह
किसी को भी
मार सकता है।
वह मुझे भी
मार सकता है।
वह बिलकुल
अंधा है। उसको
हजार पूरे
करने ही हैं।
पिछली बार
उसकी आंखों
में मैंने जो
देखा तो मुझे
लगा अब यहां
आना खतरे से
खाली नहीं है।
पिछली बार
मैंने उसकी
आंखों में
शुद्ध पशुता
देखी। अब मेरी
जाने की
हिम्मत नहीं
पड़ती।
और तभी
बुद्ध का आगमन
हुआ उस
राजधानी में
और वे उसी
रास्ते से
गुजरने वाले
थे, लोगों ने
रोका कि वहां
न जाएं
क्योंकि वहां अंगुलीमाल
है। आपने सुना
होगा, वह
हजार आदमियों
की गर्दन
काटने की कसम
खा चुका है।
नौ सौ
निन्यानबे
मार डाले उसने,
एक की ही
कमी है। उसकी
मां तक डरती
है। तो वह
आपको भी
छोड़ेगा नहीं।
उसको क्या
लेना बुद्ध से
और गैर—बुद्ध
से।
बुद्ध
ने कहा: अगर
मुझे पता न
होता तो शायद
मैं दूसरे
रास्ते से भी
चला गया होता
लेकिन अब जब तुमने
मुझे कह ही
दिया कि वह ही
आदमी की प्रतीक्षा
में बैठा है...
उसका भी तो
कुछ ख्याल करना
पड़ेगा। कितना
परेशान होगा।
जब उसकी मां
भी नहीं जा
रही और रास्ता
बंद हो गया है
तो उसकी प्रतिज्ञा
का क्या होगा? मुझे जाना
ही होगा। और
फिर इस आदमी
की सम्भावना
अनंत है।
जिसमें इतना
क्रोध है, इतनी
प्रज्वलित
अग्नि है; जिसमें
इतना साहस है,
इतना अदम्य
साहस है कि
सम्राट के
सामने, राजधानी
के किनारे
बैठकर नौ सौ
निन्यानबे आदमी
मार चुका है
और सम्राट बाल
बांका नहीं कर
सके। वह आदमी
साधारण नहीं
है, उसके
भीतर अपूर्व
ऊर्जा है, उसके
भीतर बुद्ध
होने की
सम्भावना है।
बुद्ध
के शिष्य भी
उस दिन बहुत घबड़ाये
हुए थे। रोज
तो साथ चलते
थे, साथ ही
क्यों चलते थे
प्रत्येक में होड़ होती
थी कि कौन
बिलकुल करीब
चले, कौन
बिलकुल बायें—दायें
चले। मगर उस
दिन हालत और
हो गयी, लोग
पीछे—पीछे
सरकने लगे। और
जैसे—जैसे अंगुलीमाल
की पहाड़ी
दिखाई शुरू
हुई कि
शिष्यों और
बुद्ध के बीच
फलाँगों का
फासला हो गया।
शिष्य ऐसे घसटने
लगे जैसे उनके
प्राणों में
प्राण ही नहीं
रहे, श्वासों
में श्वास
नहीं रही, पैरों
में जाने नहीं
रही।
बुद्ध
अकेले ही
पहुंचे। अंगुलीमाल
तो बहुत
प्रसन्न हुआ
कि कोई आ रहा
है। लेकिन जैसे—जैसे
बुद्ध करीब
आये, बुद्ध की
आभा करीब
आयी...गुरु—परताप
साध की संगति...वह
सद्गुरु की
आभा करीब आयी
वैसे—वैसे अंगुलीमाल
के मन में एक
चमत्कृत कर
देने वाला भाव
उठने लगा कि
नहीं इस आदमी
को नहीं
मारना। अंगुलीमाल
चौंका; ऐसा
उसे कभी नहीं
हुआ था। उसने
गौर से देखा, देखा भिक्षु
है, पीत
वस्त्रों
में। सुंदर है,
अद्वितीय
है। उसके चलने
में भी एक
प्रसाद है।
नहीं—नहीं, इसको नहीं
मारना। मगर अंगुलीमाल
का पशु भी बल
मारा। उसने
कहा: ऐसे
छोड़ते चलोगे तो
हजार कैसे
पूरे होंगे? द्वंद्व उठा
भारी, चिंता
उठी भारी—क्या
करूं, क्या
न करूं? मगर
जैसे बुद्ध
करीब आने लगे,
वैसे अंगुलीमाल
की अंतरात्मा
से एक आवाज
उठने लगी कि
नहीं—नहीं, यह आदमी
मारने योग्य
नहीं है। यह
आदमी सत्संग करने
योग्य है। यह
आदमी पास
बैठने योग्य
है।
तुम अंगुलीमाल
की मुसीबत समझ
सकते हो। एक
तो उसका व्रत, उसकी
प्रतिज्ञा, और एक इस
आदमी का आना
जिसको देखकर
उसके भीतर अपूर्व
प्रेम उठने
लगा, प्रीति
उठने लगी।
द्वंद्व तो
हुआ होगा वीणा,
बहुत
द्वंद्व हुआ
होगा, महाद्वंद्व हुआ होगा, तुमुलनाद छिड़ गया
होगा, महाभारत
छिड़ गया
होगा उसके
भीतर। एक उसके
जीवन—भर की
आदत, संस्कार
और यह एक
बिलकुल नयी
बात, एक
नयी किरण, एक
नया फूल खिला,
जहां कभी
फूल नहीं खिले
थे।
जैसे
बुद्ध करीब
आने लगे कि वह
चिल्लाया कि
बस रुक जाओ, भिक्षु वहीं
रुक जाओ। शायद
तुम्हें पता
नहीं कि मैं अंगुलीमाल
हूं, मैं
सचेत कर दूं।
मैं आदमी
खतरनाक हूं, देखते हो
मेरे गले में
यह माला, यह
नौ सौ
निन्यानबे
आदमियों की
अंगुलियों की माला
है! देखते हो
मेरा वृक्ष
जिसमें मैंने
नौ सौ
निन्यानबे
आदमियों की खोपड़ियां
टांग रखी हैं?
सिर्फ एक की
कमी है, मेरी
मां ने भी आना
बंद कर दिया
है। मैं अपनी
मां को भी
नहीं छोड़ूंगा,
अगर वह आएगी
तो उसकी गर्दन
काट लूंगा मगर
मेरी हजार की
प्रतिज्ञा
मुझे पूरी
करनी है, मैं
क्षत्रियों
हूं।
बुद्ध
ने कहा:
क्षत्रिय मैं
भी हूं। और
तुम अगर मार
सकते हो तो
मैं मर सकता
हूं। देखें
कौन जीतता है!
ऐसा
आदमी अंगुलीमाल
ने नहीं देखा
था। उसने दो
तरह के आदमी
देखे थे। एक—जो
उसे देखते ही
भाग खड़े होते
थे, पूंछ
दबाकर और एकदम
निकल भागते थे;
दूसरे—जो
उसे देखते ही तलावार
तलवार निकाल
लेते थे। यह
एक तीसरे ही
तरह का आदमी
था। न इसके
पास तलवार है,
न यह भाग
रहा है। करीब
आने लगा। अंगुलीमाल
का दिल
थरथराने लगा।
उसने कहा कि
देखो भिक्षु,
मैं फिर से
कहता हूं रुक
जाओ, एक
कदम और आगे
बढ़े कि मेरा
यह फरसा
तुम्हें दो टुकड़े
कर देगा।
बुद्ध
ने कहा: अंगुलीमाल, मुझे रुके
तो वर्षों हो
गये, अब तू
रुक।
अंगुलीमाल
ने तो अपना
हाथ सिर से
मार लिया।
उसने कहा: तुम पागल
भी मालूम होते
हो। मुझ बैठे
हुए को कहते हो
तू रुक, और
अपने को, खुद
चलते हुए को, कहते हो
मुझे वर्षों
हो गये रुके
हुए!
बुद्ध
ने कहा: शरीर
का चलना कोई
चलना नहीं, मन का चलना चलना है।
मेरा मन चलता
नहीं। मन की
गति खो गयी
है। वासना खो
गयी है। मांग
खो गयी है।
कोई ईच्छा
नहीं बची। कोई
विचार नहीं
रहा है। मन के
भीतर कोई
तरंगें नहीं उठतीं।
इसलिए मैं
कहता हूं कि अंगुलीमाल
मुझे रुके
वर्षों हो गये,
अब तू भी
रुक।
और कोई
बात चोट कर
गयी तीर की
तरह अंगुलीमाल
के भीतर।
बुद्ध करीब
आये, अंगुलीमाल बड़ी दुविधा
में पड़ा करे
क्या! मारे
बुद्ध को कि न
मारे बुद्ध को?
बुद्ध
ने कहा: तू
चिंता में न
पड़, संदेह
में न पड़
दुविधा में न
पड़; मैं
तुझे परेशानी
में डालने
नहीं आया। तू मुझे
मार, तू
अपनी हजार की
प्रतिज्ञा
पूरी कर ले।
मुझे तो मरना
ही होगा—आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों।
आज तू मार
लेगा तो तेरी
प्रतिज्ञा
पूरी हो जाएगी,
तेरे काम आ जाऊंगा।
और फिर कल तो
मरूंगा ही।
मरना तो है
ही। किसी की
प्रतिज्ञा
पूरी नहीं
होगी, किसी
के काम नहीं आऊंगा।
जिंदगी काम आ
गयी, मौत
भी काम आ गयी; इससे ज्यादा
शुभ और क्या
हो सकता है! तू
उठा अपना फरसा,
मगर सिर्फ
एक शर्त।
अंगुलीमाल
ने कहा: वह
क्या शर्त?
बुद्ध
ने कहा: पहले
तू यह वृक्ष
से एक शाखा
तोड़ कर मुझे
दे दे। अंगुलीमाल
ने फरसा उठाकर
वृक्ष से एक
शाखा काट दी।
बुद्ध ने कहा:
बस, आधी शर्त
पूरी हो गयी, आधी और पूरी
कर दे—इसे
वापिस जोड़ दे।
अंगुलीमाल
ने कहा: तुम
निश्चित पागल
हो। तुम
अद्भुत पागल
हो। तुम
परमहंस हो मगर
पागल हो। टूटी
शाखा को कैसे
मैं जोड़ सकता
हूं
तो
बुद्ध ने कहा:
तोड़ना तो
बच्चे भी कर
सकते हैं, जोड़ने में कुछ कला
है। अब तू
मेरी गर्दन
काट मगर गर्दन
जोड़ सकेगा
एकाध की? नौ
सौ निन्यानबे
गर्दनें काटीं,
एकाध जोड़
सका? काटने
में क्या रखा
है अंगुलीमाल,
यह तो कोई
भी कर दे, कोई
भी पागल कर
दे। मेरे साथ
आ, मैं
तुझे जोड़ना सिखाऊं।
मौत में क्या
रखा है, मैं
तुझे जिंदगी सिखाऊं।
देह में क्या
रखा है, मैं
तुझे आत्मा सिखाऊं।
ये छोटी—मोटी प्रतिज्ञाओं
में, अहंकारों
में क्या रखा
है, मैं
तुझे महा
प्रतिज्ञा का
पूरा होना सिखाऊं।
मैं तुझे
बनाऊं। मैं
आया ही इसलिए
हूं कि या तो
तू मुझे
मारेगा या मैं
तुझे मारूंगा।
निर्णय होना
है, या तो
तू मुझे मार
या मैं तुझे मारूं।
वीणा, यही मैं
तुझसे कहता
हूं। मेरे पास
जो आये हैं, निर्णय होना
है: या तो मैं
उन्हें
समाप्त करूंगा
या वे मुझे
समाप्त
करेंगे। इस से
कम में कुछ हल
होने वाला
नहीं है। और
मुझे समाप्त
वे नहीं कर
सकेंगे, क्योंकि
समाप्त हुए को
क्या समाप्त
करोगे!
अंगुलीमाल
बुद्ध पर हाथ
नहीं उठा सका।
उसका फरसा गिर
गया। वह बुद्ध
के चरणों में
गिर गया। उसने
कहा: मुझे
दीक्षा दें।
आदमी मैंने
बहुत देखे मगर
तुम जैसा आदमी
नहीं देखा।
मुझे दीक्षा
दें। बुद्ध ने
उसे तत्क्षण
दीक्षा दी। और
कहा आज से तेरा
व्रत हुआ—करुणा।
उसने कहा: आप
भी मजाक करते
हैं, मुझ
क्रोधी को
करुणा! बुद्ध
ने कहा: तुझ
जैसा क्रोधी
जितना बड़ा करुणावान
हो सकता है
उतना कोई और
नहीं।
गांव
भर में खबर
फैल गयी, दूर—दूर
तक खबरें उड़
गयीं कि अंगुलीमाल
भिक्षु हो गया
है। खुद
सम्राट
प्रसेनजित, बुद्ध के
दर्शन को तो नहीं
आया था लेकिन
यह देखने आया
कि अंगुलीमाल
भिक्षु हो गया
है तो बुद्ध
के दर्शन भी
कर आऊं और अंगुलीमाल
को भी देख आऊं
कि यह आदमी है
कैसा, जिसने
थर्रा रखा था
राज्य को!
उसने बुद्ध के
चरण छुए और
उसने फिर
बुद्ध को पूछा
कि मैंने सुना
है भन्ते
कि वह दुष्ट अंगुलीमाल,
वह महाहत्यारा
अंगुलीमाल,
आपका
भिक्षु हो गया,
मुझे भरोसा
नहीं आता। वह
आदमी और
संन्यासी हो जाए,
मुझे भरोसा
नहीं आता।
बुद्ध
ने कहा: भरोसा, नहीं भरोसे
का सवाल नहीं।
यह मेरे दायें
हाथ जो
व्यक्ति बैठा
है जानते हो
यह कौन है? अंगुलीमाल है। अंगुलीमाल
पीत वस्त्रों
में बुद्ध के
दायें हाथ पर
बैठा था। जैसे
ही बुद्ध ने
यह कहा कि अंगुलीमाल
है, प्रसेनजित
ने अपनी तलवार
निकाल ली घबड़ाहट
के कारण।
बुद्ध
ने कहा: अब
तलवार भीतर रखों; यह
वह अंगुलीमाल
नहीं जिससे
तुम परिचित हो,
तलवार की
कोई जरूरत
नहीं है। तुम घबड़ाओ मत, कंपो मत, डरो
मत; अब यह
चींटी भी नहीं
मारेगा; इसने
करुणा का व्रत
लिया है।
और जब
पहले दिन अंगुलीमाल
भिक्षा
मांगने गया
गांव में तो
जैसे लोग सदा से
रहे हैं—छोटे, ओछे, निम्न;
जैसी भीड़
सदा से रही है—मूढ़, जो अंगुलीमाल
से थर—थर
कांपते थे उन
सबने अपने
द्वार बंद कर
लिए, उसे कोई
भिक्षा देने
को तैयार
नहीं। नहीं
इतना, लोगों
ने अपनी छतों
पर, छप्परों
पर पत्थरों पर
पत्थरों के
ढेर लगा लिए
और वहां से
पत्थर मारे अंगुलीमाल
को। इतने
पत्थर मारे कि
यह राजपथ पर
लहूलुहान
होकर गिर पड़ा
लेकिन उसके
मुंह से एक बद्दुआ
न निकली।
बुद्ध
पहुंचे, लहूलुहान
अंगुलीमाल
के माथे पर
उन्होंने हाथ
रखा। अंगुलीमाल
ने आंख खोली
और बुद्ध ने
कहा: अंगुलीमाल
लोग तुझे
पत्थर मारते
थे, तेरे
सिर से खून
बहता था, तेरे
हाथ—पैर में
चोट लगती थी, तेरे मन को
क्या हुआ?
अंगुलीमाल
ने कहा: आपके
पास जाकर मन
नहीं बचा। मैं
देखता रहा साक्षीभाव
से। जैसा आपने
कहा था हर चीज साक्षीभाव
से देखना, मैं देखता
रहा साक्षीभाव
से।
बुद्ध
ने उसे गले
लगाया और कहा:
ब्राह्मण अंगुलीमाल, अब से तू
क्षत्रिय न
रहा, ब्राह्मण
हुआ। ऐसों को
ही मैं
ब्राह्मण
कहता हूं। अब
तेरा ब्रह्म—कुल
में जन्म हुआ।
अब तूने
ब्रह्म को
जाना।
मेरे
पास तुम आओगे
तो पहले तो
समस्याएं उठेंगी, दुविधाएं उठेंगी,
चिंताएं उठेंगी, द्वंद्व
उठेंगे। और यह
द्वंद्व
बिलकुल स्वाभाविक
है कि आपके
पास आकर मुझे
समाधान
मिलेगा या
नहीं! यह तो जल
पीओ तो ही पता
चले। जल बिना
पिये कैसे पता
चलेगा कि
प्यास बुझेगी
या नहीं! और
दीया जलाये
बिना कैसे पता
चलेगा कि अंधेरा
मिटेगा या
नहीं! कोई
उपाय नहीं है।
एक ही उपाय है
अनुभव।
वीणा, अपने को
स्वीकार करो।
मेरा संन्यास
स्वीकार का
संन्यास है—इसमें
त्याग नहीं है,
इसमें
पलायन नहीं है,
इसमें भगोड़ापन
नहीं है, इसमें
जीवन को
अंगीकार करना
है क्योंकि
जीवन
परमात्मा की
देन है, इसमें
से कुछ भी
निषेध नहीं
करना है। हां,
रूपान्तरित
करना है बहुत,
मगर काटना
कुछ भी नहीं
है, एक
पत्ता भी नहीं
काटकर गिराना
है। इसके पत्ते—पत्ते
पर राम लिखा
है। इसके
पत्ते—पत्ते
पर उसके
हस्ताक्षर
हैं। इस पूरे
के पूरे जीवन
को ही उसके
चरणों के
योग्य बनाना
है। न कहीं
भागना, न
कहीं जाना है—यहीं,
जहां हो
वहीं, जैसे
हो वैसे ही
तुम्हें
परमात्मा के
योग्य बनाने
की कला मैं
सिखाऊंगा।
समाधान
मिलेगा, निश्चित
मिलेगा। अगर
असमाधान है तो
समाधान मिलेगा
ही। अगर
बीमारी है तो
चिकित्सा हो
सकती है। साक्षीभाव
सीखना होगा।
यह दमन, अस्वीकार,
यह सिखायी
गयी बकवास छोड़नी
होगी। और तूने
पूछा: "मेरा
व्यक्तित्व
ज्यादा हठी और
संदेहशील हो
गया है।' अच्छे
लक्षण हैं।
"इस कारण अभी
समर्पण कठिन है।'
वह बात गलत
है। समर्पण
करने के लिए
संकल्प चाहिए।
सिर्फ संकल्पवान
ही समर्पण कर
सकते हैं। महासंकल्पवान
ही समर्पण कर
सकते हैं।
समर्पण कोई कमजोरों
की बात नहीं
है। इस दुनिया
में जो सबसे
बड़ा कार्य है
वह समर्पण है।
इसलिए
विरोधाभास तो
लगेगा मेरी
बात में। जब
मैं कहता हूं
कि समर्पण वे
ही कर सकते
हैं जो महासंकल्पवान
हैं, तो
तुझे उल्टा तो
लगेगा
क्योंकि
आमतौर से हम
सोचते हैं—संकल्प
छोड़ना होगा तो
समर्पण होगा।
लेकिन संकल्प
छोड़ने के लिए महासंकल्प
चाहिए। कांटे
से कांटा
निकालना होता
है। संकल्प को
निकालना हो तो
महासंकल्प
चाहिए। और एक
बार संकल्प महासंकल्प
से निकाल दिया
गया तब जो शेष
रह जाता है
वही समर्पण
है।
समर्पण
संकल्प के
विपरीत नहीं
है, संकल्प
का अभाव है।
तो जो मेरे
पास आएंगे
पहले संकल्पवान
होते चले
जाएंगे; उसको
ही तू हठ कह
रही है।
और तू
कहती है कि "मन
संदेहशील हो
गया है।' वह
भी शुभ है।
मैं सिखाता ही
हूं संदेह।
मैं आस्था
नहीं सिखाता,
आस्था आनी
चाहिए। संदेह
की सीढ़ियों से
चढ़कर
श्रद्धा के
मंदिर तक
पहुंचना
चाहिए। संदेह
को दबाकर
श्रद्धा कर ली,
दो कौड़ी
की है, उसका
कोई मूल्य
नहीं। संदेह
कर करके
श्रद्धा आये,
इतना संदेह
करो कि संदेह
करने को न
बचे। इतना संदेह
करो कि संदेह संदेह पर
भी लागू हो
जाए। इतना
संदेह करो कि
संदेह करते—करते
ही गिर जाए और
मर जाए।
समग्रता से
संदेह करो
ताकि संदेह के
प्राण—पखेरू
उड़ जाएं। और
तब जो रह जाता
है खुला आकाश—वही
श्रद्धा है, वही समर्पण
है।
एक तो
विश्वास है जो
दुनिया में
सिखाया जा रहा
है—हिन्दु, मुसलमान, ईसाई, जैन।
ये सब
विश्वासी हैं,
इनको
श्रद्धा नहीं
है। इन्होंने
संदेह को दबा
लिया है, छिपा
लिया है, अपने
अचेतन मन की
काल—कोठारी
में डाल दिया
है। वह वहां
पड़ा है भलीभांति
जिंदा, कभी
भी निकल आएगा।
जरा खुरेचो
और बाहर आ
जाएगा। जरा
किसी की
श्रद्धा पर
प्रश्न उठाओ
और वह नाराज
होने लगेगा।
क्यों? क्योंकि
उसे डर लगता
है कि कहीं
भीतर के संदेह
फिर जाग न
जाएं। किसी
तरह सुला पाया
है, किसी
तरह छिपा पाया
है, फिर
कहीं नग्नता
प्रगट न हो
जाए। जैसे तुम
कपड़ों के भीतर
नंगे हो, ऐसे
ही तुम
संदेहों से
भरे हो, श्रद्धा
सिर्फ
तुम्हारे
कपड़े हैं। इन
कपड़ों का कोई
मूल्य नहीं
है।
मैं
कोई और ही
श्रद्धा
सिखाता हूं जो
संदेह के
विपरीत नहीं
है, बल्कि
संदेह का
उपयोग करती
है। संदेह करो,
जी भरकर
संदेह करो।
पूछो, प्रश्न
उठाओ। एक ऐसी
घड़ी आती है।
प्रश्न पूछने
की जब सब
प्रश्न गिर
जाते हैं। और
एक ऐसी घड़ी आती
है संदेह की महाघड़ी, जब संदेह
निष्प्राण हो
जाता है।
पश्चिम
में एक बहुत
बड़ा विचारक
हुआ—देकात।
उसने अपने
जीवन की खोज
संदेह से शुरू
की। ठीक
रास्ता वही है
खोज का। उसने
कहा: मैं हर
चीज पर संदेह
करूंगा, जब
तक ऐसी चीज न
पा जाऊं जिस
पर संदेह न कर
सकूं। मैं तो
कोशिश करूंगा
उस पर भी
संदेह करने की
लेकिन संदेह
कर ही न सकूं; लाख करूं
उपाय और लाख पटकूं सिर
लेकिन संदेह न
कर सकूं—जब तक
ऐसे किसी
स्थान पर न आ जाऊंगा, तब तक संदेह
करूंगा।
श्रद्धा तो
तभी जब संदेह असंभव
हो जाएगा।
और वह
घड़ी आयी। एक
दिन आयी। जरूर
आयी। आती है।
मैंने
भी अपनी यात्रा
संदेह से शुरू
की वीणा।
मैंने अपनी
यात्रा
नास्तिकता से
शुरू की वीणा!
इसलिए मैं
जानता हूं उस
रास्ते को।
वही रास्ता
मेरा जाना—माना
रास्ता है। उस
रास्ते पर जो
आने को तैयार
हैं उनके साथ
तो मेरा संबंध
बहुत गहरा बन
जाता है। मैं
नास्तिकों के
लिए हूं। और
यह सदी
नास्तिकों की
है, इसलिए
मेरा धर्म इस
सदी का धर्म
है। आने वाला भविष्य
नास्तिकों का
है, इसलिए
मेरा धर्म
भविष्य का
धर्म है। आने
वाले बच्चे
जबरदस्ती
नहीं मनवाये
जा सकेंगे।
तुम उनसे लाख
कहो कि ईश्वर
है, वे मान
नहीं लेंगे।
रोज—रोज
बुद्धि प्रखर
हो रही है, प्रगाढ़
हो रही है। हर पीढ़ी
पुरानी पीढ़ी
से ज्यादा
जागरूक होती
जा रही है, ज्यादा
होशपूर्ण
होती जा रही
है, ज्यादा
प्रश्न उठाती
है। इतना आसान
नहीं है अब कि
तुम लोगों को
समझा—बुझा
दोगे और लोग
मान लेंगे। अब
तो संदेह का जगत
है। अब तो वही
धर्म जी सकता
है जो संदेह
का उपयोग करना
जानता हो।
मैं जो
धर्म की
प्रक्रिया
तुम्हें दे
रहा हूं उसमें
संदेह दुश्मन
नहीं है, मित्र
है। संदेह पर
घार रखनी है।
देकार्त
ने संदेह से
शुरू किया।
ईश्वर पर
संदेह किया, स्वर्ग पर
संदेह किया, नर्क पर
संदेह किया, शैतान पर
संदेह किया, यहां तक कि
जगत पर संदेह,
किया, क्योंकि
क्या पता हो, न हो! रात
सपने में भी
तो मालूम होता
है कि बाहर चीजें
हैं, और
सुबह जागकर
पता चलता है
कि नहीं हैं।
तो हो सकता है
अभी हम सपना
देख रहे हों।
तुम सपना देख
रहे होओ कि मुझे
सुन रहे हो।
जो मुझे रोज
सुनते हैं कभी—कभी
सपना देखते
हैं कि मुझे
सुन रहे हैं।
कौन जाने तुम
सपने में हो कि
जागे हो। बहुत
संभावना तो
सपने में होने
की है, जागने
की संभावना तो
बहुत कम है।
क्योंकि जो जाग
गया वह तो
बुद्ध हो गया।
क्या
पक्का है कि
जो बाहर है वह
है? उसका
क्या प्रमाण
है? उसका
कोई भी प्रमाण
नहीं है। उस
पर भी संदेह
किया देकार्त
ने। ऐसे संदेह
करता ही गया, करता ही गया,
और एक दिन
वह महाघड़ी
आ गयी, वह
महत क्षण आ
गया जब संदेह
अटक गया।
संदेह अटका
अपने
अस्तित्व पर।
"मैं हूं' इस
पर संदेह नहीं
किया जा सकता
क्योंकि इस पर
संदेह करने के
लिए भी
तुम्हारा
होना जरूरी है।
तुम अगर कहो
कि "मैं नहीं
हूं', तो
कौन कह रहा है?
तुम अगर कहो
कि "मुझे अपने
पर संदेह है', तो किसको
संदेह है? यह
जो मेरा
अस्तित्व है,
यह जो आत्मा
है, यह
संदेह के परे
है; इस पर
संदेह नहीं हो
सकता।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपने
मित्रों को
होटल में...गपसड़ाका
मारता था, बात में बात
निकल गयी, कह
गया—डींग मार
रहा था, कह
गया—कि मुझ
जैसा दानी इस
गांव में कोई
भी नहीं।
एक
मित्र ने कहा:
मुल्ला, यह
बात जंचती
नहीं। और तुम
बहुत झूठ
बोलते हो, हम
मान भी लेते
हैं कि जंगल
गया था पांच
शेर इकट्ठे
मार डाले। कि
एक तीर से सात
पक्षी गिरा दिये।
वह हम सब मान
लेते हैं
लेकिन इसको तो
हम न मानेंगे।
क्योंकि हम
इसी गांव में
रहते हैं, तुम्हारा
दान कभी देखा
नहीं। दान तो
दूर कभी तुमने
एक दिन हमें
चाय—नाश्ते पर
घर बुलाया भी
नहीं है।
तो
मुल्ला ने
कहा: आओ, इसी
वक्त आओ, भोज
का निमंत्रण
देता हूं।
तीस—पैंतीस
आदमी—होटल का
मैनेजर और
बैरा सब साथ
हो लिए। अकड़
में कह तो गया
लेकिन जैसे—जैसे
घर करीब आने
लगा और जैसे—जैसे
पत्नी की शकल
याद आयी, वैसे—वैसे
घबड़ाने
लगा कि अब एक
मुसीबत हुई।
दरवाजे पर
पहुंचकर फुसफुसा
कर बोला कि भाइयो,
आप भी पति
हो, मैं
में भी पति
हूं। हम सब एक
दूसरे की
स्थिति जानते
हैं। तुम जरा
यहीं रुको, पहले जाकर
मुझे पत्नी को
राजी कर लेने
दो। दिन—भर से
घर से नदारद
हूं, असल
में गया था
सुबह सब्जी
लेने। सब्जी
तो लाया ही
नहीं हूं और
पैंतीस
आदमियों को
भोज पर ले आया
हूं। और दिन—भर
की पत्नी खिसियायी
बैठी होगी। तो
जरा थोड़ा—सा
मुझे मौका दो,
तुम जरा
रुको, मैं
भीतर जाकर जरा
पत्नी को समझा—बुझा
लूं, जरा
राजी कर लूं।
मित्रों
ने कहा: यह बात जंचती है।
सबको अपना—अपना
अनुभव है, सभी को बात
जंची।
मुल्ला
नसरुद्दीन
भीतर गया। आधा
घंटा बीत गया, लौटा ही
नहीं, घंटा
बीतने लगा।
लोगों ने कहा:
अब रात भी
होने लगी और
देर भी होने
लगी, और डेढ़
घंटा बीतने
लगा।
उन्होंने कहा
हद हो गयी, सो
गया या क्या
हुआ! कितनी
देर लग गयी
पत्नी को समझाने
में? और
कोई आवाज भी
नहीं आ रही है
कि समझा रहा
हो, कि
पत्नी चिल्ला
रही हो, कि
बर्तन फेंके
जा रहे हों, कि प्लेटें
तोड़ी जा रही
हों, कुछ
भी नहीं हो
रहा, सन्नाटा
है घर में।
आखिर
उन्होंने
दस्तक दी।
मुल्ला
ने अपनी पत्नी
से कहा कि कुछ
नालायक मेरे
साथ आ गये
हैं। अब उनसे
बचने का एक ही
उपाय है, तू
ही मुझे बचा
सकती है। तू
जा और उनसे कह
दे कि मुल्ला नसरुद्दीन
घर में नहीं है।
पत्नी
गयी। दरवाजा
खोला।
मित्रों ने
पूछा कि मुल्ला
कहां है? पत्नी
ने बिलकुल कहा
कि मुल्ला! वे
सुबह से घर से
गये हैं सब्जी
लेने, अभी
तक लौटे नहीं।
वे घर पर नहीं
है।
उन्होंने
कहा: अरे, यह
तो हद हो गयी।
हमारे साथ ही
आये हैं, हमने
अपनी आंखों से
उन्हें घर के भीतर
जाते देखा। और
एक आदमी का
सवाल नहीं कि
धोखा खा जाए, पैंतीस आदमी
मौजूद हैं।
मित्र विवाद
करने लगे कि
नहीं वह जरूर
घर में है।
मुल्ला
भी सुन रहा है
ऊपर की खिड़की
से। अखिर
उसके
बर्दाश्त के
बाहर हो गया
कि विवाद ही
किये जा रहे
हैं। उसने
खिड़की खोली और
कहा: सुनो जी, यह भी तो हो
सकता है
तुम्हारे साथ
आये हों और पीछे
के दरवाजे से
चले गये हों।
यह तुम
नहीं कह सकते।
तुम यह नहीं
कह सकते कि मैं
घर में नहीं
हूं; क्योंकि
तुम्हारा यह
कहना तो इतना
ही सिद्ध करेगा
कि मैं घर में
नहीं हूं; आत्मा
एक—मात्र तत्व
है जिस पर
संदेह नहीं उठ
सकता। इसलिए
मैं तुम्हें
परमात्मा
नहीं सिखाता,
आत्मा
सिखाता हूं।
आत्मा में
डुबकी मारकर
परमात्मा का
अनुभव होता
है। वह अनुभव
है। वह श्रद्धा
की बात नहीं
है, अनुभव
की बात है।
आत्मा में
डुबकी मारने
का नाम ध्यान
और जब डुबकी
लग गयी तो
उसका नाम
समाधि।
अभ्यास का नाम
ध्यान, अभ्यास
की
पूर्णाहुति
समाधि। आत्मा
में डुबकी लग
गयी तो पता
चलता है कि
"मैं हूं', और
जिसको पता
चलता है "मैं
हूं', उसे
पता चलता है
यही "मैं' सबके
भीतर व्याप्त
है। यही
अस्तित्व
सबके भीतर
व्याप्त है।
वही परमात्मा
है।
वीणा, चिंता न कर।
अगर हिम्मत है,
अगर साहस है,
तो तेरे
संदेह का
उपयोग कर
लेंगे, तेरी
हठ का उपयोग
कर लेंगे।
तेरी जितनी
बीमारियां
हों सब ला, हम
सबका उपयोग कर
लेंगे, हम
सबकी सीढ़ियां
बना लेंगे।
कला भी यही है—अनगढ़ से अनगढ़
पत्थर का भी
उपयोग किया जा
सके। और अब तू
भाग भी नहीं
सकती।
तू
कहती है: "इसके
बावजूद मुझे
आश्रम आने का
जी बहुत होता है।' एक बार जो
यहां आया है, अगर सच में
ही आया है; अगर
एक बार भी
किसी ने मेरी
तरंग को अनुभव
किया है; एक
बार भी किसी
ने मुझे अपने
हृदय को छूने
दिया है; एक
बार भी
स्वतंत्रता
की—जिसके मैं
रोज गीत गा
रहा हूं—किसी
को थोड़ी—सी
झलक मिली है; इस आकाश की
जिसकी तरफ मैं
तुम्हें
पुकार रहा हूं
कि छोड़ो
अपने पींजड़े,
कि छोड़ो
अपने पींजड़े,
चाहे वे
सोने के ही
क्यों न हों, उड़ों आकाश में, मुक्त गगन
में, जिसको
एक बार पंख फड़फड़ाने
का मजा आ गया
है—वह फिर लाख
उपाय करे तो
भी रुक नहीं
सकता, फिर
उसे कोई रोक
नहीं सकता।
वीणा, तेरा रुकना
संभव नहीं है;
रोकने में
व्यर्थ समय
खराब न कर।
तुम
रखो स्वर्णपिंजर
अपना,
अब
मेरा पथ तो मुक्त्त
गगन।
गत
युग की याद
दिलाते हो—
था
दुर्ग
तुम्हारा वह
उन्नत;
प्रासाद
दुर्ग में
बृहत् और
उसमें
वह पिंजर स्वर्णावृत!
पर, वे प्रतीक
थे बंधन के,
आडंबर, गर्व, प्रलोभन
के;
मैंने
तो लक्ष्य
बनाए थे
कुछ
और दूसरे जीवन
के!
अरमान
विकल थे यौवन
के,
तन
बंदी था, मन था उन्मन!
तुम
रखो स्वर्णपिंजर
अपना,
अब
मेरा पथ तो
मुक्त गगन!
बंधन
में फंसने
के पहले
यह
सत्य जान मैं
था पाया—
नभ
छाया है इस
धरती की,
धरती
है इस नभ की
छाया;
दोनों
की गोद खुली, चाहे
मैं
नभ में मुक्त उड़ान भरूं,
चाहे
धरती पर उतर, तृणों,
रजकणों
आदि को प्यार
करूं;
दानों
के बीच नहीं
बंधन,
अवरोध, दुराव, परायापन!
तुम
रखो स्वर्णपिंजर
अपना,
अब
मेरा पथ तो
मुक्त गगन!
अपना
विभ्रम, अपना प्रमाद!
बंध
गया एक दिन
बंधन में!
वे
दिन भी काट
लिए मैंने,
छल
को पहचाना
जीवन में!
अब
तोड़ चुका हूं
मैं बंधन,
कैसे
विश्वास करूं
तुम पर?
तुम
मुझे बुलाते
हो भीतर,
मैं
तुम्हें
बुलाता हूं
बाहर!
देखो
तो—स्वाद
मुक्ति का
क्या,
कैसा
लगता है स्वैर
पवन!
तुम
रखो स्वर्णपिंजर
अपना,
अब
मेरा पथ तो
मुक्त गगन!
नभ—भू
से दुर्ग दूर
मुझको,
प्रासाद
दुर्ग से दूर
मुझे,
पिंजर
ले गया दूर
उससे
भी, बनकर
निष्ठुर, कूर,
मुझे।
फिर
सबके पास लौट
आया,
अब
धरती मेरी, नभ मेरा।
रजकण
मेरे, द्रुम,
तृण मेरे,
पर्वत
मेरे, सौरभ
मेरा!
वह
सब मेरा, जो मुक्ति
मधुर,
वह
रहा तुम्हारा, जो बंधन!
तुम
रखो स्वर्णपिंजर
अपना,
अब
मेरा पथ तो
मुक्त गगन!
रोकेंगे
लोग तुम्हें—प्रियजन, परिवार के, मित्र। जो न
कभी मित्र थे,
न कभी
प्रियजन थे न
कभी परिवार के
थे—वे सब
अचानक रोकने
के लिए परिवार
के हो जाएंगे,
प्रियजन हो
जाएंगे, मित्र
हो जाएंगे। जो
किसी दुख में
कभी काम नहीं
आये, वे सब
बाधाएं खड़ी
करेंगे। मगर
उनसे कह दो—
तुम
रखो स्वर्णपिंजर
अपना,
अब
मेरा पथ तो
मुक्त गगत!
होगा
तुम्हारा पिंजड़ा
स्वर्ण का, मुक्ता, हीरे—जवाहरातों
से जड़ा, सम्हालो उसे
तुम; मेरा
तो आकाश है
अब। और जो—जो
तुम्हें
अस्वीकार्य
है, उसे
स्वीकार करो।
धरती को
स्वीकार करो।
धरती और आकाश
दुश्मन नहीं
हैं। मृण्मय
और चिन्मय संगी
हैं, साथी
हैं। देह और
आत्मा अलग—अलग
नहीं हैं।
परमात्मा और
उसका यह विराट
विश्व एक साथ
लीन है, तल्लीन
है—एक ही स्वर
में आबद्ध।
दानों
की गोद खुली, चाहे
मैं
नभ में मुक्त उड़ान भरूं
चाहे
धरती पर उतर, तृणों,
रजकणों
आदि को प्यार
करूं;
दोनों
के बीच नहीं
बंधन,
अवरोध, दुराव, परायापन!
तुम
रखो स्वर्णपिंजर
अपना,
अब
मेरा पथ तो
मुक्त गगन!
और
जिन्होंने भी
तुम्हें दमन
सिखाया है, विरोध
सिखाया है, निंदा
सिखायी है, शरीर की
दुश्मनी
सिखायी है, पदार्थ को
पतन और पाप
कहा है, उन
सबके विदा ले
लो। न तो
पदार्थ पाप है
और न देह पाप
है। पदार्थ
में भी
परमात्मा ही
सोया है और
देह में भी
उसने ही रूप
धरा है।
फिर
सबके पास लौट
आया,
अब
धरती मेरी, नभ मेरा।
रजकण
मेरे, द्रुम,
तृण मेरे,
पर्वत
मेरे, सौरभ
मेरा।
वह
सब मेरा, जो मुक्ति
मधुर,
वह
रहा तुम्हारा, जो बंधन!
तुम
रखो स्वर्णपिंजर
अपना,
अब
मेरा पथ तो मुक्त्त
गगन!
मैं तो
तुम्हें खुले
आकाश का
निमंत्रण
देता हूं
वीणा। और इस
खुले आकाश में
ही बच सकोगी, इस खुले
आकाश में ही
वीणा बन सकोगी।
दुसरा
प्रश्न:
भगवान!
झाबुआ के
निकट पच्चीस
सौ पच्चीस हवन—कुंड
बनाकर यज्ञ हो
रहा है। सुना
है, यह
पृथ्वी का
सबसे बड़ा यज्ञ
है, जिसकी
तथा—कथित पण्डित—पुरोहित
और
राजनीतिज्ञ
बड़ी तारीफ कर
रहे हैं।
और
दूसरी और आप
जिस मंदिर और जीवनत्तीथ्र
के निर्माण
में लगे हैं, उसमें ये ही
लोग बाधा—डाल
रहे हैं। इन
तथाकथित पण्डित—पुरोहितों
और
राजनीतिज्ञों
की साठ—गांठ
है। ऐसा क्यों?
कृष्ण
वेदान्त! सांठ—गांठ
कोई नयी नहीं, बहुत पुरानी,
अति
प्राचीन, सनातन
है।
मनुष्यजाति
के इतिहास के
प्रथम क्षणों
में ही एक बात
समझ में आ गयी
राजनीतिज्ञ को
कि पण्डित
और पुरोहित को
साथ लिए बिना
मनुष्य की
आत्मा को
गुलाम करना
असंभव है। और
अगर मनुष्य की
आत्मा मुक्त
हो, तो
उसकी देह भी
गुलाम नहीं हो
सकती। अगर
मनुष्य की देह
को गुलाम
बनाना है तो
पहले उसकी
आत्मा को
गुलाम बनाना
होगा।
राजनीतिज्ञ
की इच्छा आदमी
की देह गुलाम
बनाने की है
और पंडित—पुरोहित
की कला उसकी
आत्मा को
गुलाम बनाने
की है। उन
दोनों ने
मिलकर एक
षडयंत्र रचा
है। उन दोनों
ने एक साथ
मनुष्य की
छाती पर बैठे
रहने का आयोजन
किया है।
सच्चा
धार्मिक
व्यक्ति न तो
पंडित—पुरोहितों
से प्रभावित
होता है, न
राजनीतिज्ञों
से प्रभावित होता
है। प्रभावित
होने जैसे
वहां कुछ है
भी नहीं।
पंडित—पुरोहित
सिर्फ तोते
हैं। शब्द
होंगे उनके पास
सुंदर, व्याकरण
होगी, भाषा
होगी, शास्त्रों
के उद्धरण
होंगे, लेकिन
आत्मा का कोई
अनुभव नहीं
है। और राजनीतिज्ञ
तो इस पृथ्वी
पर सर्वाधिक
क्षुद्र, सर्वाधिक
बुद्धिहीन, सर्वाधिक
हीनता—ग्रस्त
व्यक्ति है।
लेकिन अपनी
हीनता को छिपाने
को वह हर तरह
की चालबाजियां
विकसित करता
है।
बुद्धिमान
आदमी चालबाज
नहीं होता। यह
जानकर तुम
हैरान होओगे—जितनी
प्रतिभा होती
है, उतना
आदमी साफ—सुथरा
होता है।
प्रतिभा
को चालबाजी की
जरूरत नहीं।
चालबाजी की
जरूरत होती है
प्रतिभाहीन
को क्योंकि वह
चालबाजी से
प्रतिभा की
कमी पूरी करता
है। जिसके पास
असली सिक्के
हैं, वह क्यों
नकली सिक्के
ढोये? लेकिन
जिसके पास
असली सिक्के
नहीं हैं, वह
तो नकली
सिक्के ढोयेगा।
जिसके पास
सुंदर चेहरा
है, वह
क्यों मुखौटे ओढ़े? लेकिन
जिसके पास
कुरूप चेहरा
है, उसे तो
मुखौटे लगाने
ही होंगे।
जिसके पास सुंदर
देह है, वह
क्यों
आभूषणों की
चिंता करे? लेकिन जिसके
पास कुरूप देह
है, उसे तो
सोने में, चांदी
में ढांकना
होगा।
तुमने
देखा यह? स्त्रियां
कितनी बेहूदी,
बेढंगी, बौढ़म मालूम होती
हैं जब चेहरे
पर रंग—रोगन
पोत लेती हैं,
ओंठों पर लिप्स्टिक
लगा लेती हैं।
सिर्फ फूहड़पन
जाहिर होता
है। सिर्फ
इतना ही जाहिर
होता है कि इस
स्त्री में बुद्धिमत्ता
भी नहीं है।
सौन्दर्य तो
है ही नहीं, सुबुद्धि भी
नहीं है, प्रसाद
भी नहीं है।
तुमने
स्त्रियां
देखी हैं, लदी हैं सोने—चांदी
से। जैसे सोने—चांदी
की चमक में वे
अपनी गैर—चमकती
आत्मा को छिपा
लेने की
चेष्टा कर रही
हैं। वैसा ही
:राजनीतिज्ञ
है उसके पास
बुद्धि तो
नाममात्र को
नहीं। बुद्धि
होती तो
वैज्ञानिक
होता। बुद्धि
होती तो कवि
होता। बुद्धि
होती
संगीतज्ञ
होता। बुद्धि
होती तो
आविष्कार
करता कुछ।
बुद्धि होती
तो सृजन करता
कुछ। बुद्धि
होती तो संत
होता, रहस्यवादी
होता।
राजनीतिज्ञ
के लिए किसी
भी तरह की
योग्यता की
कोई जरूरत
नहीं है।
राजनीति
अयोग्यों का
धंधा है।
लेकिन एक बात
में राजनेता
कुशल होता है,
वह है
बेईमानी, वह
है चार सौ
बीसी। उतनी ही
उसकी कला है।
एक
राजनेता की
पत्नी मर गयी
थी। कफन का कपड़ा
लेने के लिए
राजनेता ने
अपने एक चमचे
को बाजार
भेजा। कुछ समय
पश्चात चमचा
खाली हाथ लौट
आया। चमचा और
खाली हाथ लौट
आये, ऐसा कभी
हुआ न था।
चमचा तो जहां
भी डालो
वहीं से भरकर
लौटता है, चमचे
का मतलब ही
यही होता है।
इसलिए
राजनीतिज्ञों
के पास चमचे
इकट्ठे होते
हैं क्योंकि
राजनीतिज्ञों
के पास शक्ति
है, सत्ता
है, धन है, पद है, प्रतिष्ठा
है—चमचे भी
थोड़ा—बहुत
उसमें से
खींचते रहते
हैं।
चमचे
को खाली हाथ
लौटा देखकर
राजनेता ने
कहा: अरे, तू
और खाली हाथ
लौट आया! मामला
क्या है?
चमचे
ने कहा: मालिक, कफन का कपड़ा
तो बड़ा महंगा
है। दुकानदार
एक कफन के
कपड़े के पांच
रुपये बात रहा
है।
नेताजी
ने कहा: कया, पांच रुपयें!
क्या अंधेर
मचा रखा है? एक कफन के
पांच रुपये!
तुम यहीं ठहरो,
मैं जाता
हूं कफन लेने
के लिए। कुछ
समय पश्चात
नेताजी
प्रसन्न
मुद्रा में घर
लौटे और उनके
हाथ में एक के
बजाय तीन कफन
के कपड़े थे।
चमचा
चौंका, नेता
ने तो बाजी
मार ली। चमचे
ने पूछा: तीनत्तीन
कफन, क्या
हुआ?
नेताजी
ने कहा: देखते
हो, तुम तो
कहते थे पांच
रुपये में एक
कफन का कपड़ा
मिल रहा है।
ये देखो पांच
रुपये में तीन
कफन खरीद
लाया। मैंने
दुकान पर जाकर
बड़ा तूफान मचा
दिया। ऐसा हुल्लड़
किया, घिराव
की अवस्था
पैदा कर दी।
रास्ते पर ट्रेफिक
जाम हो गया।
ऐसा धूम—धड़ाका
मचा कि
दुकानदार डरा
कि लूट—पाट न
हो जाए। बहुत
भीड़ इकट्ठी हो
गयी। फिर बदनामी
के डर से बचने
के लिए
दुकानदार ने
मुझसे कहा ऐसा
करो अब आप
मानते नहीं तो
पांच रुपये
में मैं दो
कफन दे देता
हूं।
दुकानदार
ने सोचा था कि
दो कफन कोई
लेकर क्या करेगा, पत्नी तो एक
मरी है।
दुकानदारी भी कांईयां, उसने कहा:
चलो दो ले लो।
उसने एक कफन
के ढाई रुपये
नहीं कहे, उसने
कहा चलो दो
कफन ले लो पांच
रुपये में, झंझट खत्म
करो। सोचा कि
दो कोई लेकर
क्या करेगा, कफन दो, मरी
पत्नी एक।
मगर
राजनेता ने
कहा: वह छटा कांईयां
था लेकिन मैं
भी कोई दुह—मुंहा
बच्चा नहीं
हूं। मैंने
कहा ला दे दो।
और जब मैंने
दो ले लिए
पांच रुपये
में तो मैंने
कहा कि यह तो
नियम है बाजार
का कि जो
ज्यादा चीज
खरीदे, एकाध
चीज उसको
मुफ्त भी देनी
चाहिए। दो कफन
कभी किसी ने
लिए थे तुझसे?
उसने
कहा: आज तक तो
नहीं लिए।
मैंने
कहा कि यह
पहली घटना है, तीसरा कफन
मुफ्त दे। सो
तीन कफन ले
आया हूं।
चमचा
बोला: लेकिन
मालिक, तीन
कफन का करोगे
क्या?
नेता
ने कहा: धबड़ा
मत, आखिर एक
दिन हमें भी
मरना ही तो है
तब एक कफन काम
आ जाएगा। और
फिर छोटा
बच्चा अपना, वह भी तो
किसी दिन
मरेगा, एक
कफन उसके काम
आ जाएगा।
राजनेता
बड़ी दूर की
सोचते हैं।
अंधे को अंधेरे
में दूर की
सूझी! बड़े दूर—दूर
के हिसाब
बैठाते रहते
हैं। और
उन्होंने पंडितों
और पुरोहितों
के साथ जो
षडयंत्र किया
उसमें बड़े दूर
की सोची है।
एक बात
तय है कि
मनुष्य के
भीतर धर्म की
कोई प्रगाढ़
आकांक्षा है।
राजनेता उसकी
तो तृप्ति
नहीं कर सकता।
और जो उसकी
तृप्ति कर
सकता है, वह
मनुष्य का
मालिक रहेगा।
राजनेता
बुद्धों के
खिलाफ हैं, महावीर के
खिलाफ हैं, जीसस के
खिलाफ हैं.
मुहम्मद के
खिलाफ हैं, कबीर के, भीखा
के, खिलाफ
हैं। राजनेता
उनके खिलाफ
हैं जो सच में ही
मनुष्य की
आत्मा को
स्वतंत्र
करने का सूत्र
देते हैं। जो
उसे आकाश का
निमंत्रण
देते हैं उनके
खिलाफ हैं।
क्योंकि वे तो
मनुष्य की आत्मा
को इतनी
स्वतंत्रता
दे देते हैं
कि वे राजनेता
को दो कौड़ी
का समझेंगे।
राजनेता की वे
सुनेंगे क्या
खाक! राजनेता
उन्हें न लूट
सकेगा।
राजनेता
जीसस को तो
सूली चढ़ा देते
हैं, मंसूर को
मार डालते हैं,
सुकरात को
जहर पिला देते
हैं। और पंडित—पुरोहितों
को, शंकराचार्यों को, पोपों
को? उनके
जाकर चरण छूते
हैं। उनके पैर
धोते हैं। उनके
पैर धोवन का
जल पीते हैं।
क्यों? क्योंकि
एक बात पक्की
है कि इनका
कमजोर आदमियों
की आत्माओं पर
बड़ा प्रभाव
है।
अभी भी
अगर हिन्दुओं
के वोट चाहिए
हों तो शंकराचार्य
के चरण पहले
छुओ। अगर
मुसलमानों के
वोट चाहिए हों
तो जामा
मस्जिद के
शाही इमाम की खुशामद
करो। अगर वोट
चाहिए हों तो
जहां इतना बड़ा
यज्ञ हो रहा
है वेदान्त, लाखों लोग
इकट्ठे होंगे,
इस मौके को
राजनेता नहीं
चूक सकता। इन
लाखों लोगों
के सामने तिलक
इत्यादि
लगाकर, यज्ञोपवीत
इत्यादि
पहनकर वह खड़ा
हो जाएगा। वह
यह अवसर नहीं
चूक सकता
विज्ञापन का।
वह दिखाएगा
लोगों कि मैं
बिलकुल
धार्मिक। मैं हिन्दु।
मेरी यज्ञ में
आस्था। मेरी
वेद में
आस्था। सनातन
धर्म की विजय
होनी चाहिए।
यह देखते हुए
कि ये करोड़
रुपये पानी
में खराब जा
रहे हैं, ये
करोड़
रुपये आग में
जलाये जा रहे
हैं। यह जानते
हुए कि यह
गरीब देश और
गरीब होता जाता
है धर्म के
नाम पर।
लेकिन
राजनेता को
इससे चिंता
नहीं है। वे
जो लाखों लोग
इकट्ठे होंगे
गांव के भोले—भाले, और भोले—भाले
ही लोग इकट्ठे
होंगे। कोई
यज्ञ देखने बुद्धिमान
जाएगा? भोले—भाले
लोग इकट्ठे
होंगे। उन
भोले—भाले
लोगों पर
राजनेता
को...यह अवसर
नहीं चूक सकता
वह। जहां भीड़
है वहां
राजनेता
हमेशा खड़ा हो
जाएगा, भीड़
चाहे किसी भी
लिए क्यों न
हो। और
राजनेता बिलकुल
बर्दाश्त
नहीं करता कि
लोगों के मन
में उनकी बंधी
हुई धारणाओं
पर कोई संदेह
उठाये। राजनेता
बर्दाश्त
नहीं करता कि
संदेह कोई जगाये
क्योंकि अगर
संदेह धर्म के
प्रति जगेगा
तो राजनीति
ज्यादा देर बच
नहीं सकती। जो
संदेह धर्म पर
उठेगा वह राज
नीति पर भी छा
जाएगा।
इसलिए
राजनेता
चाहता है लोग
अफीम के नशे
में पड़े रहें।
पंडित—पुरोहित
अफीम उनको
खिलाते रहें—यज्ञ, हवन, सत्यनारायण की कथा, चलती
रहे अफीम। लोग
अफीम में पड़े
रहें, राजनेता
लूट करता रहे।
उस आदमी को तो
राजनेता बर्दाश्त
ही नहीं करेगा
जो कहेगा कि
यह शोषण है।
एक
नेताजी ने
घोषणा की—कुछ
जोश में आ गये
बोलते हुए—कि
देश की गरीबी
मिटाने का एक
उपाय है।
हमारे देश में
गधे बहुत हैं—आदमियों
से तीन गुने
ज्यादा। और
अगर आदमियों
की भी गिनती
उनमें कर लो
तो फिर गधे ही
गधे हैं।
हमारे देश में
गधे बहुत हैं
नेता ने कहा, अगर गधे के
सींग को हम
निर्यात कर
सकें, बाहर
के देशों को
भेज सकें या
गधे के सींग
से कुछ सुंदर
चीजें बनाकर
बाहर भेज सकें,
तो इतनी विदेशी
मुद्रा
मिलेगी कि धन
ही धन हो
जाएगा।
बात
लोगों को जंच
ही रही थी कि
एक युवक खड़ा
हो गया। उसने
कहा कि महाराज, गधे के सींग
होते ही नहीं।
युवक
के विरोध को
गंभीरता से
लिया गया। और
इस बात की
जांच के लिए
एक जांच आयोग
नियुक्त किया
गया कि गधे के
सींग होते हैं
या नहीं। ऐसी, राजनीति तो
ऐसी ही चलती
है, उसकी
चाल तो बड़ी
अद्भुत है।
किसी भी गधे
को पूछ लेते
या सिर्फ देख
लेते तो भी
काम चल जाता
लेकिन जांच
आयोग बिठाया
गया। कोई
रिटायर्ड चीफ जस्टिस
सुप्रीम
कोर्ट के
बनाये गये
होंगे। शाह
आयोग नहीं, बादशाह आयोग
बिठाया गया
होगा क्योंकि
वह मामला बड़ा
गंभीर है।
जांच
आयोग नियुक्त्त
गया कि गधे के
सींग होते हैं
या नहीं। आयोग
ने अपनी रिपार्ट
तीन साल में
प्रस्तुत की।
आयोग ने अपनी
रिपोर्ट में
कहा: प्रश्न
यह नहीं है कि
गधे के सींग होते
हैं या नहीं, बल्कि
प्रश्न यह है
कि नेताजी को
जनता ने चुना
है और वे जो
कहते हैं वह
जनता की आवाज
है, अतः
उसका विरोध
करने वाला
असामाजिक
तत्व है, और
उसे सजा मिलनी
ही चाहिए।
तो कौन
विरोध करे; नेता तो
जनता की आवाज
है! और कभी—कभी
तो नेता जब
जोर से अपने
अहंकार में आ
जाते हैं, तो
अपनी आवाज को
आत्मा की आवाज
और परमात्मा
की आवाज तक
कहने लगते हैं,
जनता—वनता
को तो पीछे
छोड़ देते हैं।
जैसे यह विनोबाजी
को आत्मा की
आवाज आ गयी कि
गऊ को बचाओ।
अद्भुत लोकतंत्र
है यह। यहां
एक आदमी अपनी
इच्छा साठ करोड़
लोगों पर थोप
सकता है—यह
लोकतंत्र है!
कल कोई दूसरे
बाबा अनशन कर
दें कि मानना
पड़ेगा कि गधे
के सींग होते
हैं। कांस्टीटयूशन
में लिखो कि
गधे के सींग
होते हैं, नहीं
तो मैं अनशन
करता हूं, मैं
मर जाऊंगा।
तो मानना
पड़ेगा, क्योंकि
बाबा कहीं मर
न जाएं। ये
हत्या की धर्मकियां
हैं और इसको
लोकतंत्र
समझा जाता है।
और
विनोबा की
तकलीफ क्या थी? तकलीफ कुल
एक थी—जसलोक
अस्पताल! धीरे—धीरे
लोकसभा तो
मिटी जा रही, जसलोक सभा बनी जा
रही है। सारी
लोकसभा जसलोक
सभा हो गयी
है। वह विनोबा
को कष्टपूर्ण
हो गया। सारे
नेता जसलोक
में, परमधाम
पवनार
कोई भी नहीं
आता। तो
उन्होंने गऊ
माता की पूंछ पकड़ी
क्योंकि गऊ
माता तो
भवसागर पार
करवा देती
हैं। चले नेता,
जसलोक से पवनार
चले। गऊ माता
ने बड़ी रक्षा
की विनोबा की।
विनोबा कर
पाएंगे गऊ
माता की रक्षा
यह तो संदिग्ध
है लेकिन गऊ
माता ने
विनोबा की
रक्षा कर ली।
इस देश
में कुछ भी
चलता है, और
चलता रहेगा जब
तक तुम चलने
दोगे।
राजनीति अपने
थोथे हथकंडे
चलाती रहेगी,
पंडित—पुरोहित
राजनेता के
साथ सांठ—गांठ
करते रहेंगे।
दोनों का लाभ
है। क्योंकि पंडित—पुरोहित
चाहता है कि
राजनेता आएं,
प्रधानमंत्री
आएं, मंत्री
आएं, मुख्यमंत्री
आएं, तो
जनता बढ़ती है।
यह बड़ी
पारस्परिक
लेन—देन की
बात है। पंडित—पुरोहित
चाहते हैं कि
राजनेता आएं
तो जनता आती
है; राजनेता
चाहते हैं कि
जहां जनता आती
है, वहां
हम हों। ऐसा
कोई स्थान
नहीं होना
चाहिए जहां
भीड़—भाड़ हो और
हम न हों।
तुम्हारे देश
के राजनेता करते
ही क्या हैं? कुल काम
शिलान्यास
करेंगे, कहीं
उद्घाटन
करेंगे। सारे
देश के
राजनेता इसी
काम में लगे
रहते हैं जैसे
और कोई काम ही
नहीं है। पुल
का उद्घाटन, होटल का उद्धाटन,
अस्पताल का
उद्घाटन, कुछ
भी, जहां
चार आदमी हों
वहां राजनेता
को होना चाहिए।
जहां
फोटोग्राफर
हों जहां अखबारनवीस
हों, वहां
राजनेता को
होना चाहिए।
फिर वहां कुछ
भी हो रहा हो
हर तमाशे में
उसे होना
चाहिए।
दिल्ली
जाओ तो
राजनेता का
पता ही नहीं
चलता कि वह
कहां है। वह
भागा हुआ है
सारे देश में।
काम करने की
तो किसी को फूरसत
नहीं है, समय
भी नहीं है।
उद्घाटन से
समय मिले तब।
मैं तो चाहता
हूं कि वे
उद्घाटन—मंत्री
एक तय ही कर
दें। उसका काम
ही उद्घाटन, बाकी सब को
और कुछ करने
दें। वह जहां
जरूरत हो वहां
उद्घाटन करता
रहे। मगर यह
वे नहीं कर
सकते क्योंकि
बिना उद्घाटन
के अखबारों
में तस्वीर
नहीं होती।
फिर उद्घाटन
चाहे किसी सड़ी—गली
होटल का ही
क्यों न हो, इससे क्या
फर्क पड़ता है!
जब बड़े नेता
ने उद्घाटन किया
तो अखबार में
फोटो होती है।
दुनिया
में इस तरह की मढ़ता कहीं
भी नहीं है
जैसी इस देश
में है।
दुनिया के
अखबारों में
इस तरह के
राजनेता नहीं छाये हुए
हैं जैसे इस
देश में छाये
हुए हैं और न
पंडितों का
ऐसा प्रभाव है
दुनिया में
जैसा इस देश
में है। ये
दोनों मिलकर हमारा
दुर्भाग्य
हैं। इन दोनों
से छूुटकारा
चाहिए। धीरे—धीरे
जागो और
जगाओ लोगों
को। पंडित से
भी छूटना है, राजनेता से
भी छूटना है।
प्रत्येक
व्यक्ति को
आत्मवान होना
चाहिए, अपनी
सूझ—बूझ से
जीना चाहिए...अप्प दीपो
भव...अपने दीये
स्वयं बनना
चाहिए। मंदिर
तुम्हारे भीतर
है। यज्ञ अगर
होना है तो
तुम्हारे
भीतर होना है,
जीवन अग्नि
जलानी है।
उसी
महत चेष्टा
में मैं
संलग्न हूं।
निश्चित उस
में हजार तरह
की बाधाएं, जितनी
बाधाएं वे खड़ी
कर सकते हैं
करते हैं। करेंगे
ही क्योंकि
यहां न तो कोई
राजनेता कभी
बुलाया जाएगा
उद्घाटन के
लिए, न
शिलान्यास के
लिए। वे खबरें
भेजते हैं
यहां, यहां
उनके चमचे आते
हैं, वे
कहते हैं कि
अगर उद्घाटन
करवाएं तो
फलां मंत्री
आना चाहते हैं,
मगर बिना
उद्घाटन के
नहीं आएंगे।
कोई समारोह हो,
उसकी
अध्यक्षता
करवाएं तो फलाने
नेता आना
चाहते हैं।
खबरें लेकर
आते हैं लोग उनके।
मैं उनको कहता
हूं: यहां न
कोई उद्घाटन
है, न कोई
शिलान्यास
है। और
उद्घाटन और
शिलान्यास
करना होगा तो
संन्यासी
करेंगे। यह
संन्यासियों
का जगत है।
यहां दो कौड़ी
के राजनेताओं
का क्या मूल्य,
क्या कीमत?
यहां उनकी
कोई आवश्यकता
नहीं है।
इसलिए
स्वभावतः वे
बाधाएं डालें, यह भी समझ
में आता है।
मगर उनकी
बाधाएं काम नहीं
आएंगी; कभी
काम नहीं आयी
हैं। सत्यमेव
जयते!
सत्य है तो
उसकी विजय
सुनिश्चित
है। और सत्य नहीं
है तो उसकी
हार होनी ही
चाहिए, फिर
उसकी विजय
होनी भी नहीं
चाहिए। मैं जो
कह रहा हूं
अगर सत्य है
तो जीतेगा; अगर सत्य
नहीं है तो
जीतना ही नहीं
चाहिए, जीतने
का कोई सवाल
ही नहीं है; असत्य को तो
हारना ही
चाहिए।
सुनो
मेरी बात, गुनो मेरी बात, थोड़ा डूबो
इस रंग में और
तुम पहचान
सकोगे कि जो
मैं कह रहा
हूं, वह
वही है जो
वेदों ने कहा,
उपनिषदों
ने कहा, कुरान
ने कहा, बुद्धों
ने कहा, महावीरों
ने कहा। भाषा
बदल गयी
क्योंकि भाषा मैं
बसीवीं
सदी की
बोलूंगा।
मेरी
अभिव्यक्ति
और है—होनी ही
चाहिए। सुनने
वाले लोग और
हैं। इस जगत
की ढाई हजार
सालों में बड़ी
गति हुई है—बैलगाड़ी
से हम चांद पर
पहुंच गये
हैं। ठीक वैसी
ही धर्म की
भाषा भी बैलगाड़ी
से चांद तक पहुंचेगी।
धर्म की
अभिव्यक्ति
और होगी, और
धर्म को
पहुंचने के
नये द्वार
खोलने होंगे।
उन नये
द्वारों को
खोलने का
आयोजन चल रहा
है। बाधाएं
आएंगी जैसे
सदा आयी हैं
लेकिन बाधाएं कभी
भी जीती नहीं।
जीसस को मारने
से जीसस मारे
नहीं जा सके।
उनके मारे
जाने से ही वे
अमर हो गये।
बुद्ध को मारे
गये पत्थर ही
बुद्ध के
मंदिरों की आधारशिलाएं
बने। सुकरात
को जहर दिया, वही अमृत
सिद्ध हुआ।
फिर वही होगा।
आदमी सीखता ही
नहीं, वह
फिर वही भूलें
करता है। वही
भूल वह मेरे
साथ भी कर रहा
है। मगर उस
भूल से कोई
हानि होने वाली
नहीं है, लाभ
ही होने वाला
है। सत्य को
हानि होती ही
नहीं।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान!
मैं कवि हूं, क्या सत्य
को पाने के
लिए यह
पर्याप्त
नहीं है?
दिनेश!
कवि होना
सुंदर है, जरूरी भी, मगर
पर्याप्त
नहीं। ऋषि भी
होना होगा।
कवि के ऊपर की
सीढ़ी ऋषि है।
भाषा में तो
कवि और ऋषि का एक
ही अर्थ होता
है। लेकिन
अस्तित्वगत
रूप से कवि और
ऋषि में बड़ा
भेद होता है।
कवि ऐसे देखता
है जैसे
स्वप्न में
देखा, ऋषि
देखता है आंख
खोले हुए, जागे
हुए। ऋषि
द्रष्टा है, कवि
कल्पनाशील
है।
कवि की
कल्पना में
कभी—कभी सत्य
के
प्रतिबिम्ब
बनते हैं, जैसे आकाश
में पूरा चांद
हो और झील में
प्रतिबिम्ब
बने। कवि ऐसा
है जैसे झील
में बना चांद
का
प्रतिबिम्ब
और ऋषि ऐसा है
कि उसने आंख
उठाकर आकाश
में चांद को
देखा। कवि
प्रतिबिम्ब
के ही गीत
गाता रहता है,
प्रतिबिम्ब
में ही उलझ
जाता है।
प्रतिबिम्ब का
भी अपना
सौंदर्य है
लेकिन
प्रतिबिम्ब
फिर भी
प्रतिबिम्ब
है, मूल
कहां! ऋषि मूल
की तरफ आंख
उठाता है।
कवियों
ने गीत गाये
हैं लेकिन
उनके गीत गाने
में कल्पना
आधार है; ऋषियों
ने भी गीत गुनगुनाये
हैं लेकिन
उनके गीत
गुनगुनाने
में सत्य की
उद्घोषणा है। उपनिषद्
ऋषियों के गीत
हैं, कवियों
के नहीं। उपनिषद्
जो कहते हैं
वह देखकर कहा
गया है, अनुभव
करके कहा गया
है। ये भीखा
जिसका हम विचार
कर रहे हैं, यह ऋषि है।
यह गीत गाने
को नहीं गा
रहा है। यह कोई
तुकबंद
नहीं है, यह
कोई मात्रा और
भाषा का गणित
नहीं बिठा रहा
है। यह कोई
तकनीशियन
नहीं है, इसके
भीतर एक
अनुभूति जगी
है, आत्मा
उभरी है, यह
उस आत्मा को
उंडेल रहा है।
इसका सत्य का
साक्षात्कार
ही इसका संगीत
है, इसका
गीत है। यह भी
हो सकता है कि
इसके गीत में तुम
बहुत काव्य न
पाओ क्योंकि
काव्य इसकी
दृष्टि नहीं
है। अगर काव्य
है तो अनायास
है, उसका
कोई आयास नहीं
है, उसका
कोई प्रयोजन
नहीं है, उसको
कोई लाने की
चेष्टा नहीं
है। भीखा की
दृष्टि से और
बहुत बड़े—बड़े...कबीर,
नानक, ये
सब द्रष्टा
हैं। इन सबकी
वाणी अटपटी
है।
अगर
तुम कवियों से
तौलो—कालिदास, शेक्सपियर,
निराला, पंत,
महादेवी, तो तुम
पाओगे भेद।
कवियों की
वाणी—खूब सुसयोजित,खूब निखरी
हुई, खूब
साफ—सूथरी,
खूब चमकदार,
परिमार्जित,
सुसंस्कृत;
और ऋषियों
की वाणी—अटपटी,
सधुक्कड़ी। अमृत तो
ऋषियों की
वाणी में है, मगर जिस
पात्र में भरा
है अमृत वह अनगढ़
है; कवियों
की वाणी में
अमृत तो नहीं
है, मगर
पात्र सोने का
है; भीतर
सब खाली है, मगर पात्र
सोने का है।
और लोग तो
पात्र ही
देखते हैं, भीतर देखने
वाले बहुत कम
हैं।
भीखा
का पात्र तो
मिट्टी का है, मगर अमृत
भरा है। और
जिसके पास
अमृत है वह
पात्र की
फिक्र करता है?
जिसके पास
अमृत नहीं है,
वही पात्र
को सजाता है, संवारता है क्योंकि
वही पात्र में
अपने को उलझाता
है। वह पात्र
को ही सब कुछ
मान लेता है।
तुम
कहते हो: मैं
कवि हूं, क्या
सत्य को पाने
के लिए यह
पर्याप्त
नहीं?
जरूरी
है। सत्य को
पाने के लिए
प्रत्येक को
कवि होना ही
चाहिए। जब मैं
कहता हूं
प्रत्येक को
कवि होना
चाहिए तो मेरा
मतलब यह नहीं
है कि तुम सब
गीत रचो, कि तुम सब
काव्य रचो,
कि तुम
मात्रा और छंद
सीखो। नहीं—नहीं,
जब मैं कहता
हूं प्रत्येक
को कवि होना
चाहिए तो मेरा
अर्थ है तुम
सौंदर्य के
प्रति
संवेदनशील
होओ, तुम
सुबह उगते
सूरज के आनंद
को लो, तुम
पक्षियों के
गीत सुनो, तुम
वृक्षों की
हरियाली को पिओ, तुम
फूलों के पास
नाचो, मस्ती
सीखो, मदमाते बनो, अलमस्त
हो जाओ तो तुम
कवि हो। फिर
तुम गीत रचोगे
कि नहीं यह
सवाल नहीं है,
तुम्हारा
जीवन गीत
होगा। तुम
कविता बनाओगे
या नहीं यह
सवाल नहीं है,
तुम्हारा
जीवन काव्य
होगा।
जब मैं
कहता हूं कवि
बनो, सत्य को
पाने के लिए
कवि होना
जरूरी है, तो
मैं कह रहा
हूं हृदय बनो।
खोपड़ी से उतरो,
हृदय की तरफ
चलो। विचार को
हटाओ, भाव
में जियो, भक्ति
में डूबकी
मारो। सत्य की
तरफ जाने के
लिए यह बड़ा
अनिवार्य चरण
है, क्योंकि
अति
संवेदनशील
हृदय ही सत्य
तक पहुंच पाते
हैं।
पहले
विचार से उतरो
भाव में डूबो—तो
तुम कवि हो
जाओगे। और अगर
भाव से भी
गहरे उतर जाओ
और आत्मा में
डूब जाओ तो
तुम ऋषि हो
जाओगे।
विचार
सबसे ज्यादा
दूर है आत्मा
से, भाव करीब
है, मध्य
में है विचार
और आत्मा के।
लेकिन भाव भी दूर
है थोड़ा, भाव
की तरंग भी
जानी चाहिए, निस्तरंग होना है, निर्बीज
होना है, निर्विकल्प
होना है, तब
आत्मा का
अनुभव है।
कवि से
भी ऊपर जाना
है, ऋषि होना
है।
कंठ
से तुम गीत
गाते,
प्राण
से मैं गीत
गाता।
दो
किनारे हैं
कला के, दो दिशाएं
वेदना की,
मैं
पथिक हूं एक
पथ का, दूसरे
के तुम पथिक
हो;
भिन्न
जग में भावधारा
और रसधारा
हमारी,
एक
का मैं हूं
उपासक, दूसरी
के तुम रसिक
हो;
भिन्नता
यह स्वस्थ है, कुछ भी नहीं
है द्वेष
इसमें,
प्राकृतिक
है यह कि
तुमसे जुड़ सका
मेरा न नाता।
कंठ
से तुम गीत
गाते,
प्राण
से मैं गीत
गाता।
कवि
तो कंठ में रह
जाता है, ऋषि प्राण
में उतरता है।
तुम
खिलो, फूलों कि
तुमने कंठ का
वरदान पाया,
रूप, आकर्षण, विभव
में प्रेम का
भगवान पाया;
मैं
नहीं लज्जित
कि मेरे हृदय
ने निज प्रेमपथ
में
मौन, संयम, साधना,
चिर वेदना,
बलिदान
पाया।
कंठ
के संगीत से
कुछ प्राण की
भाषा पृथक है,
तुम
इसे भूलो
भले ही, मैं न इसको
भूल पाता।
कंठ
से तुम गीत गाते,
प्राण
से मैं गीत
गाता।
कंठ
पर ही मत रुक
जाना; कंठ
पड़ाव है, मंजिल तो
प्राण है।
कंठ—स्वर
पर रीझकर
जो सिर हिलाते, धन लुटाते,
वे श्रवणवाले
सुलभ हैं प्रतिचरण
इस विश्वपथ
पर,
इसलिए, निश्चिंतता
है झूमती स्वर
में तुम्हारे,
वेदना
गंभीरता में
मग्न मेरे
प्राण का स्वर;
प्राण
जिसके पास, जिसके प्राण
में समवेदना
है,
प्राण
का संगीत
सुनने को वही
इस ओर आता।
कंठ
से तुम गीत
गाते,
प्राण
से मैं गीत
गाता।
मैं भी
गा रहा हूं।
मैं भी
गुनगुना रहा
हूं। यह जो
मैं कह रहा
हूं गद्य नहीं
है, पद्य है।
ये शब्द नहीं
हैं, स्वर
हैं। मेरे हाथ
में तुम्हें
वीणा चाहे
दिखाई पड़े और
चाहे न दिखाई
पड़े, वीणा
है। मेरे
पैरों में
तुम्हें
चाहें घूंघर
बंधे हुए
दिखाई पड़ें या
न दिखाई पड़ें,
घूंघर हैं।
छंद छिड़ा
है। मगर छंद
अदृश्य का है।
प्राण
जिसके पास, जिसके प्राण
में समवेदना
है,
प्राण
का संगीत
सुनने को वही
इस ओर आता।
कंठ
से तुम गीत
गाते,
प्राण
से मैं गीत
गाता।
दिनेश, कवि हो, सुंदर
है। कंठ तक आ
गये यह भी
क्या कम; बहुत
तो खोपड़ी में
ही उलझे हैं।
आधी यात्रा हो
गयी, आधी
और करो। थोड़ो
और नीचे थोड़े
और गहरे, थोड़ी
और डुबकी
मारो।
उनको
उद्यान चाहिए
वह,
जिसमें
रंगीन सुमन अगणित;
दो
मुझे जुही की
लधु कलिका
तुम
श्वेत एक निज स्नेहांकित;
उसमें
पाऊं मैं
नंदनवन।
उनको
वे गंगा
कालिंदी
चाहिए, करें जो जग
निर्मल;
दो
मुझे एक लधु
निर्झर, जो
चिर—प्रवहमान
हो विमल, सरल;
मैं
उसमें पाऊं
सिंधु गहन!
उनको
वे कर्ण चाहिए, जो
सुनते
हुंकार शिखर
की हों;
दो
मुझे कान वे, जो पुकार
सुनते
तल के अंतर की
हों;
उनसे
कर पाऊं
सत्य—श्रवण!
उनको
वे नैन चाहिए
जो
देखें
जग का मोहक
वैभव;
वे
लोचन दो मुझको
जिनमें,
अंतर
का रूप बसे
अभिनव;
उनसे
पाऊं मैं
शिव—दर्शन!
मिथ्या
को मधुर बनाने
का
चाहिए
उन्हें रंजित
कौशल;
दो
मुझे सत्य—शिव—उन्मुखता,
साधन
बने जिसका
संबल;
उससे
हो सुंदर—आवाहन!
कवि की
मांग है
सौंदर्य की।
कवि की मांग
है मोहक की, आकर्षक की।
कवि अभी भी
रूप पर उलझा
है, अरूप
ने अभी उसे
नहीं पुकार।
कवि अभी भी
गुण में उलझा
है, निर्गुण
ने उसके द्वार
पर दस्तक नहीं
दी। और परमात्मा
निर्गुण है।
और परमात्मा
अरूप है, अव्याख्य
है। कवि अभी
भी भाषा में
उलझा है, मौन
अभी उसके भीतर
सघन नहीं हुआ।
और परमात्मा मौन
की ही भाषा
समझता है।
दिनेश, सुंदर है कि
तुम कवि हो।
अब एक कदम और।
इतनी हिम्मत
की, थोड़ी
हिम्मत और, जरा साहस
और। अब ऋषि
बनो। अब डूबो
संन्यास में।
संन्यास
द्वार है ऋषि
होने का। संन्यास
द्वार है
आत्मा को
जानने का।
संन्यास द्वार
है सत्य को
जानने का। और धन्यभागी
हैं वे जो
सत्य को न
केवल जानते
हैं बल्कि औरों
को भी जनाते
हैं। तुम कवि
हो, जिस
दिन सत्य जान
सकोगे, तुम्हारे
गीतों में
सत्य की धारा
बहेगी। जिस
दिन परमात्मा
से तुम्हारा
मिलन होगा, उसकी प्रीति
तुम्हारे कंठ
का उपयोग कर
लेगी; उसकी
प्रीति
तुम्हारी
बांसुरी में
स्वर बन जाएगी।
कवि हो, सुंदर है, पर इतने पर
ही रुक मत
जाना। इतने पर
ही तृप्त मत
हो जाना। इतने
जल्दी ठहर मत
जाना। यहां और
भी सम्पदाएं
हैं। यहां बड़ी—से—बड़ी
सम्पदा तो
तुम्हारी
आत्मा की है।
और ये तीन तल
हैं—विचार का
तल सबसे ऊपर, सबसे सतही; भाव का तल
मध्य में, विचार
से गहरा, लेकिन
आत्मा से उथला;
और फिर
आत्मा का तल, चैतन्य का
तल, सबसे
गहरा। उस
गहराई में ही
परमात्मा से
सगाई है।
आज
इतना ही।
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