प्यारे
ओशो।
उपनिषाद
का प्रसिद्ध
रूपक है, जिसका
उल्लेख आपके
वचनों
में भी आया
है। दो पक्षी
साथ रहने वाले
है,
और दोनों
मित्र है।
वे
एक ही वक्ष को
आलिंगन किए
हुए है। उनमें
से एक स्वादवाले
फल को
खाता
है और दूसरा
फल न खाता हुआ
केवल
साक्षीरूप से
रहता है।
उस
वृक्ष पर एक
पक्षी (जीव)
आसक्त होकर,
असमर्थता से
धोखा
खाता हुआ शोक
करता है, किंतु जब
अपने दूसरे
साथी (ईश)
और
उनकी महिमा को
देखता है, तब शोक के
पार हो जाता
है।
कृपा
पूर्वक इस
रूपक के महत्व
को बतांए।
इस छोटे—से
रूपक में जीवन
की सारी व्यथा, जीवन का
सारा संताप और
उस वरदान की
भी पूरी संभावना
छिपी है, जो
समाधिस्थ व्यक्ति
को उपलब्ध
होता है।
व्यथा और समाधि, 'एगनी' और 'एक्यूटेसी' दोनों इस छोटे से रूपक में छिपे हैं। पहले हम जीवन की व्यथा को समझ लें, फिर जीवन के परम आनंद को, और फिर इस रूपक का अर्थ सहज ही स्पष्ट हो जाएगा।
व्यथा और समाधि, 'एगनी' और 'एक्यूटेसी' दोनों इस छोटे से रूपक में छिपे हैं। पहले हम जीवन की व्यथा को समझ लें, फिर जीवन के परम आनंद को, और फिर इस रूपक का अर्थ सहज ही स्पष्ट हो जाएगा।
रात आप
एक सपना देखते
हैं. भटक गए
हैं घने वन में, खोजते
हैं, मार्ग
नहीं मिलता; पूछते हैं, कोई
बतानेवाला
नहीं; प्यासे
हैं, जल का
कोई झरना नहीं
दिखाई पड़ता; भूखे हैं, दूर—दूर तक
कोई फल दृष्टि
में नहीं आता।
रोते हैं, चीखते
हैं, चिल्लाते
हैं, बड़े
व्यथित होते
हैं फिर नींद
खुल जाती है।
एक क्षण में
सब बदल जाता
है, जहां
व्यथा थी वहा
हंसी आ जाती
है। आप
मुस्कुराने
लगते हैं, यह
सोचकर कि यह
व्यथा एक
स्वप्न थी।
लेकिन
स्वप्न इतना
निकट कैसे आ
गया? स्वप्न
इतना सत्य
क्यों मालूम
हुआ? स्वप्न
में आप इतने
क्यों खो गए? याद क्यों न
कर पाए स्वप्न
में कि यह
स्वप्न है? क्यों यह
बोध न जगा कि
जो मैं देख
रहा हूं वह
वास्तविक
नहीं, मेरी
ही कल्पना है।
नहीं
जगा बोध, क्योंकि
जागते भी
साक्षी होना
मुश्किल है और
निद्रित, स्वप्न
में तो साक्षी
कैसे हुआ जा
सकता है? जागते
भी हम कर्त्ता
हो जाते हैं, तो नींद में
तो कर्ता हो
ही जायेंगे।
और
कर्ता हो जाना
जीवन की व्यथा
है, वही
जीवन की पीडा
है।
कर्त्ता
का अर्थ है, जो अपने—आप
हो रहा है, उसमें
हम मान लेते
हैं कि मैं कर
रहा हूं। जो
इंद्रियों
में घटित हो
रहा है, मान
लेते हैं
मुझमें घट रहा
है। जो मुझसे
बाहर हो रहा
है, समझ
लेते हैं कि
भीतर हो रहा
है। कर्त्ता
होने का अर्थ
है, जिसके
होने में मैं
केवल
साक्षीमात्र
हूं जहां मेरी
उपस्थिति एक
देखनेवाले की
है, वहा
भ्रांति से
मैंने अपने
कों नाटक का
पात्र समझ रखा
है, दर्शक
नहीं।
स्वप्न
में वह जो
भटका है, वह आप नहीं
हैं, क्योंकि
आप तो
भलीभांति
अपने बिस्तर
पर विश्राम कर
रहे हैं। वह
जो जंगल में
भटक गया है, वह मन का ही
एक रूप है।
मैंने
सुना है, ऐसा हुआ कि
एक आदमी की
पत्नी मरी।
पत्नी जब
जिंदा थी, तब
भी पति को सब
तरह से बांधे
हुई थी। जरा
भी हिलने—डुलने
का उपाय न था।
पति ऐसे ही दब्बू
था, डरता
था; कोई
ज्यादा
उत्पात खड़ा न
हो, तो पत्नी
जो कहती, मानता
था। पत्नी मरी,
तो मरने के
पहले उससे कह
गई कि ध्यान
रखना, कभी
दूसरी स्त्री
पर विचार भी
मत लाना, अन्यथा
मैं भूत बनकर
तुम्हें
सताऊंगी।
डरा
हुआ आदमी था।
और डरा हुआ
खुद ही भूत को
पैदा करने में
समर्थ हो जाता
है, भय
भूत बन जाता
है। पत्नी मर
गई, कुछ
दिन तक तो
उसने संयम रखा,
भय के करण।
और
ध्यान रखें, जो संयम
भय के कारण है,
वह क्या
संयम हो सकता
है? तुम्हारे
अधिक साधु—संन्यासी
भय के कारण
संयम रखे हैं।
वैसे
ही उस पति की
दशा थी। भय कि
कहीं नर्क न
जाना पडे, भय कि
कहीं दंड न
मिले, भय
कि कहीं
परमात्मा पकड़
न ले, कुछ
गलत—गलत करते
हुए और पीड़ा न
भोगनी पड़े—इससे
संयम साधा हुआ
है।
भय पर
खड़ा हुआ संयम
न केवल असत्य
है बल्कि बड़ी प्रवंचना
है और जो भय से
संयम को साधता
है, वह
वास्तविक
संयम को कभी
उपलब्ध नहीं
होता। कुछ दिन
चल सकता है।
कुछ
दिन आदमी ने
संभाला अपने
को, लेकिन
कब तक
संभालता! फिर
मन की वासनाएं
कहने लगीं, तू भी क्या
पागल है, जीते
जी उससे डरा, अब मरकर भी
उससे डरता है!
और क्या पता, वह प्रेत
हुई हो, न
हुई हो! और
उसके बस में
थोड़े ही है
प्रेत हो जाना?
तो उसने एक
स्त्री से
प्रेम का खेल
शुरू किया।
उस रात
घर लौटा कि पत्नी
मौजूद थी। वह
बिस्तर पर
बैठी थी। हाथ—पैर
कैप गए, घबड़ाकर वहीं
गिर पडा।
पत्नी
ने कहां, कहां से आ
रहे हो, मुझे
पता है। यह है
नाम उस स्त्री
का, ऐसा है
उसका घर, क्या—क्या
तुमने उससे कहां,
यह—यह तुमने
उससे कहां, और अभी भी
सावधान हो जाओ,
पहला कदम ही
तुमने उठाया
है।
अब तो
पक्का था, न केवल
पत्नी प्रेत
हो गई है, बल्कि
एक—एक शब्द जो
उसने उस दूसरी
स्त्री से कहां
था, वह जो
प्रेम की
बातें और
कविताएं कही
थीं वे भी
उसने दोहराई।
मकान का सब
नक्यग़ बताया,
स्त्री का
ढंग, रूप—रंग
सब बताया। बात
साफ थी कि
पत्नी वहां भी
मौजूद थी।
बहुत
परेशान हो गया
और पत्नी रोज
सताने लगी। वह
एक झेन फकीर
के पास गया।
नानिन उस फकीर
का नाम था।
नानिन सुनकर
खूब हंसने लगा, उसने कहां
कि तू जिस
पत्नी से
परेशान है, वह तो है ही
नहीं। जिनकी
पत्नियां
नहीं मरी हैं,
वे भी
परेशान हैं, उन पत्नियों
से, जो
नहीं हैं। सभी
पत्नियां
प्रेत हैं, और सभी पति
प्रेत हैं।
वास्तविकता
तो मन देता है।
इस जगत में
जिस चीज को भी
हम मन दे देते
हैं, वही
वास्तविक हो
जाता है; मन
हटा लेते हैं,
वास्तविकता
तिरोहित हो
जाती है।
लेकिन उस आदमी
ने कहां, ज्ञान
की बातें न
करो। तुम्हें
पता नहीं कि किस
मुसीबत में
हूं घर नहीं
लौट सकता, दरवाजे
पर खडी मिलती
है और ऐसे हाथ—पैर
कंप जाते हैं,
जिंदा थी तो
इतना डर नहीं
लगता था कि
जिंदा है। और
वह मर चुकी है।
कुछ तरकीब
बताओ। और उसे
सब पता है, जाते
ही से वह
कहेगी, नानिन
के पास गये थे?
पूछने
तरकीब गये थे?
मुझसे छुटकारा
चाहते हो? मैं
जो कहूंगा, वह भी सुन
रही है वह, आप
जो कहेंगे, वह भी सुन
रही है। आप जो
तरकीब
बतायेंगे, मुसीबत
तो यह है कि वह
सुन रही होगी,
वह तरकीब
काम नहीं
करेगी। नानिन
ने कहां, तरकीब
ऐसी बताता हूं
कि वह काम
करेगी।
वहा
पास ही कोई
फूलों के बीज
नानिन को भेंट
कर गया था, उसने एक
मुट्ठी भरकर
उस आदमी को दे
दिये और कहां
कि मुट्ठी
बांध लो बीजों
पर, घर चले
जाओ। और सब
बातें जो
पत्नी
बतायेगी, तुम
सुनते रहना और
उससे पूछना कि
कितने बीज हैं,
इनकी
संख्या बताओ।
और अगर संख्या
ठीक न बता
पाये तो समझ
लेना कि सब
झूठ है।
आदमी
भागा बीज लेकर, तरकीब
काम कर गयी, पत्नी ने सब
बताया कि
नानिन क्या
बोला, तूने
क्या कहां।
नानिन ने कहां
कि बीज उठा ले,
मुट्ठी में
बांध ले और
जाकर पूछ
पत्नी से कि कितनी
संख्या है और
अब तू पूछने
की तैयारी कर
रहा है। डरा
तो आदमी, यह
बीज की संख्या
बता देगी, यह
काम होनेवाला
नहीं।’लेकिन
फिर भी उसने कहां,
एक आखिरी
कोशिश—पूछा!
पत्नी
तिरोहित हो
गयी। हैरान
हुआ, लौटकर
नानिन से कहां
कि तरकीब क्या
थी इसमें?
नानिन
ने कहां कि
तेरा मन जो
जानता है, वही वह
प्रेत बता
सकता है। जो
तेरा मन नहीं
जानता, तेरा
प्रेत नहीं
बता सकता, क्योंकि
तेरा प्रेत
तेरा मन का
विस्तार है।
अगर तूने गिन
लिये होते बीज,
तो वह भी
प्रेत बता
देता।
क्योंकि वह
तेरा ही 'प्रोजेक्शन'
है, वह तेरी
ही छाया है।
लेकिन
हम प्रेत से
डर सकते हैं, हम
प्रेतों से ही
डरे हुए हैं।
शंकर इस जगत
को माया कहते
हैं, उसका
अर्थ है, यह
सारा जगत
प्रेत है। यह
है नहीं और
दिखायी पड़ता
है। यह है
नहीं और है।
और इसमें
जितना 'है—पन'
है, वह
तुमने डाला है।
पहले तुम
इसमें 'है—पन'
डालते हो, फिर फँस
जाते हो, फिर
बंध जाते हो।
सपने को सच
करने की
सामर्थ्य
तुम्हारी है।
तुम खो जाते
हो, तुम
भूल जाते हो कि
तुम हो। भूख
लगती है और
तुम्हें लगता
है कि मुझे
भूख लगी, वहीं
भ्रांति हो
जाती है। भूख
शरीर को लगती
है, तुम्हें
कभी लगी नहीं।
और कभी लग भी
नहीं सकती।
तुम बहुत करीब
हो, यह सच
है। तुम्हारे
और शरीर के
बीच जरा—सा भी
फासला नहीं है;
लेकिन तुम
अलग हो। बहुत
निकट खडे हो।
पुराने
शास्त्र कहते
हैं, जैसे
नीलमणि के पास
अगर कोई कांच
के टुकडे को रख
दे, तो वह
काच का टुकड़ा
भी नीला दिखाई
पड़ने लगता है।
वह नीला हुआ
नहीं है, लेकिन
नीलमणि की
छाया उस पर
पड़ने लगती है।
ऐसे ही तुम
पास हो शरीर
के, शरीर
तुम नहीं हो।
शरीर में जो
भी घटता है, वह इतने पास
घटता है कि
तुम्हारे ऊपर
उसकी छाया
पड़ने लगती है।
तुम कहते हो, मुझे भूख
लगी और वही
भ्रांति हो
रही है, वहीं
संसार खड़ा हो
गया।
भूख
लगी शरीर को, और तुमने कहां
मुझे भूख लगी।
चोट लगी शरीर
को और तुमने कहां
मुझे चोट लगी।
शरीर का हुआ, और तुमने कहां
मैं बूढ़ा हुआ।
शरीर मरने लगा
और तुमने कहां
मैं मरा। बस
वहीं भ्रांति
हो गई।
काश!
तुम देख पाओ
कि शरीर को
भूख लगी और
मैं देख रहा
हूं जान रहा
हूं। काश! तुम
समझ पाओ कि
शरीर बीमार
हुआ, शरीर
का हुआ, शरीर
मरने के करीब
आया, मैं
जान रहा हूं
मैं देख रहा
हूं मैं
द्रष्टा हूं।
सारा नाटक
शरीर पर हो
रहा है, शरीर
जैसे एक विराट
मंच है और उस
सारे नाटक के पात्र
तुम्हारे मन
के ही
प्रक्षेप हैं।
और तुम खड़े
दूरदर्शक—दीर्घा
में देख रहे
हो।
एक
तुम्हारा
कर्त्ता—पन है
जिससे संसार
पैदा होता है, एक
तुम्हारा
साक्षी—पन है
जिससे ब्रह्म
के दर्शन होते
हैं। निद्रा
में तो याद रह
ही नहीं जाता,
जागते में
भी तुम भूल—
भूल जाते हो।
शरीर को चोट
लगती है, तत्क्षण
तुम भूल ही
जाते हो कि
शरीर को चोट
लगी, मैंने
जाना है।
बस
इतना ही साधना
का सूत्र है
कि कर्त्ता
निर्मित जब
होता हो, तब तुम होश
से भर जाओ, कर्त्ता
को निर्मित मत
होने दो। सब
कर्म शरीर पर 'छोड़ दो, सब
वासनाएं, सब
क्षुधाएं, सब
अकाक्षाएं
शरीर पर छोड़
दो, अपने
पास सिर्फ
जानने की
क्षमता बचाओ,
सिर्फ होश,
सिर्फ
देखने की कला
बचाओ।
इसलिए
हमने इस मुल्क
में दर्शन
(फिलॉसफी) को दर्शन
का नाम दिया
है।
देखने
की क्षमता तुम
बचा लो। बस
जैसे ही तुम
देखने में
समर्थ हो
जाओगे, उसी क्षण
तुम पाओगे
सारे स्वप्न
खो गये, सारे
भूत—प्रेत
तिरोहित हो
गये, संसार
नहीं है।
स्वप्न लीन हो
गया। तुम जाग
गये।
इस परम
जागरण को हम
बुद्धत्व
कहते हैं।
बुद्ध का अर्थ
है, जागा
हुआ। और यह
परम जागा हुआ
परम आनन्द को
उपलब्ध होता
है। हम सोये
हुए पीड़ा और
व्यथा और दुख
को उपलब्ध होते
हैं।
एक ही
दुख है : स्वयं
की
वास्तविकता
को भूल जाना
और एक ही
आनन्द है.
स्वयं की
वास्तविकता
को पुन:
उपलब्ध कर
लेना—आत्म—साक्षात्कार
कहें, ब्रह्म—साक्षात्कार
कहें, समाधि
कहें, जो भी
नाम रुचिकर
लगे, वह
नाम दें, पर
एक ही बात है।
उपनिषद्
की यह छोटी
कथा, यह
छोटा —सा रूपक!
एक वृक्ष है, जिस पर दो
पक्षियों का
वास है। वृक्ष
बहुत पुराने
दिनों से जीवन
का प्रतीक है।
जैसे बीज से
वृक्ष फैलता
है, खुले
आकाश में उसकी
शाखाएं दूर—दूर
तक जाती हैं, बड़ी आकांक्षाएं
लेकर वृक्ष
आकाश को छूने
चलता है, ऐसे
ही जीवन फैलता
है, एक
छोटे—से बीज
से, एक
वीर्य—क्या से।
फिर बड़ी आकांक्षाएं
हैं, बडा
फैलाव, बड़ी
महत्वाकांक्षाएं,
सारे आकाश
को ढंक लेने
का मन है, दूर—दिगत
तक पहुंच जाने
की वासना है।
जीवन
का वृक्ष है।
इस जीवन के
वृक्ष पर दो
पक्षी बैठे
हैं। एक पक्षी
है, जो
स्वाद लेता है,
फलों को
चखता है और एक
पक्षी है जो सिर्फ
देखता है, जो
न फलों को
चखता है, जो
न स्वाद लेता
है, जो
किसी भी कर्म
में नीचे नहीं
उतरता। तो वह
जो भोगी पक्षी
है, वह
नीचे की शाखा
पर बैठा है।
वह जो साक्षी
पक्षी है, वह
ऊपर की शाखा
पर बैठा है।
वह जो
भोग है, उसका अंतिम
परिणाम व्यथा
है। सुख तो
मिलते हैं
लेकिन सुख सदा
दुख मिश्रित मिलते
हैं। और हर
सुख अपने साथ
अपने ढंग का
दुख लाता है।
और सुख तो
ठहरता है
क्षणभर, दुख
पीछे लंबी
धूमिल रेखा की
भाँति छूट
जाता है। एक
सुख के लिए
हमें न मालूम
कितने दुख
उठाने पड़ते हैं।
और सुख को भी
थोड़ा गौर से
देखें, तो
बहुत भ्रांत
सिद्ध होता है।
गौर से देखें,
तो मिला भी
या नहीं मिला,
यह भी
संदिग्ध हो
जाता है। गौर
से न देखें, तो लगता है
मिला, पीछे
लौटकर देखें,
पचास साल
गुजर गए, चालीस
साल गुजर गए
साठ साल गुजर
गए, इन साठ
वर्षों में सच
में कोई क्षण
याद आता है, जिसकी आप
ठीक से कसौटी
करें और जो
सुख का सिद्ध
हो?
सुकरात
का एक बहुत
प्रसिद्ध वचन
है, जिसमें
उसने कहां, 'अनएक्वामिन्ड
लाइफ इज नॉट
वर्थ लिविंग',
अपरीक्षित
जीवन जीने
योग्य नहीं।
लेकिन अगर तुम
जीवन की
परीक्षा
करोगे, तो
तुम हैरान हो
जाओगे कि वहा
परीक्षा करने
पर कुछ बचता
ही नहीं।
लौटो
और देखो, कब मिला सुख?
शायद थोड़े
से खयाल
आयेंगे, पहली
दफा प्रेम में
किसी के पड़े
थे, तब सुख
मिला था।
लेकिन अब
याददाश्त बड़ी
धूमिल हो गयी।
और बडी धूल जम
गई, उस धूल
को निखारो और
फिर से खोजो, हाथ—पैर
भीतर कैपने
लगेंगे।
क्योंकि खोज
करने से पता
चलेगा कि तब
भी आभास हुआ
था, मिला
नहीं था। और
जितना ही
खोजेंगे, उतना
ही खो जाएगा।
बहुत
विचार जो
करेगा, उसे लगेगा, जीवन रिक्त
है। इसलिए
विचारक हमेशा
जीवन में 'एम्पटीनेस',
रिक्तता
अनुभव करेगा।
सिर्फ मूढ़ हैं,
जिनका जीवन
भरा हुआ मालूम
पड़ता है। चाहे
वे रास्ते के
किनारे कंकड़—पत्थर
इकट्ठे करके
जीवन की झोली
भर रहे हों, लेकिन
उन्हें यह
खयाल होता है
कि वे हीरे—जवाहरात
इकट्ठे कर रहे
हैं। झोली
खोलकर
देखेंगे, कंकड़—पत्थर
पायेंगे, झोली
गिर जाएगी और
जीवन बड़ा
रिक्त मालूम
पड़ेगा।
जिसको
अपने जीवन की
रिक्तता नहीं
दिखाई पड़ी, उसके
जीवन में अभी
धर्म का द्वार
खुल नहीं सकता।
क्योंकि जब
भोग व्यर्थ
दिखाई पड़ता
है, तभी
योग का जन्म
होता है। एक
भी क्षण सुख
का नहीं और
इतना दुख हम
झेलते हैं, उसे पाने के
लिए।
एक
आदमी एक भवन
बनाता है, बड़े कष्ट
लेता है, दौड़ता
है, धूपता
है, मुश्किल
से धन इकट्ठा
करता है, फिर
भवन में आकर
खड़ा हो जाता
है और सोचता
है, कहां
सुख? लेकिन
पुरानी आदत के
कारण कुछ और
बनाने में लग
जाता है। दस
रुपये पास हैं,
दस हजार कर
लेता है, दस
हजार रखकर बैठ
जाता है, सोचता
है कहां सुख? लेकिन इतनी
भी फुर्सत हम
मन को देते
नहीं क्योंकि
इतनी फुर्सत
खतरनाक है। दस
हजार हो भी
नहीं पाते कि
दस लाख की हम
चिंता में पड़
जाते हैं और
सोचते हैं, दस लाख जब
मिलेंगे, तब
सुख होगा।
यह मन
का ढांचा हो
जाएगा। दस लाख
मिलकर भी सुख
नहीं होगा
क्योंकि तब दस
करोड़ की वासना
पैदा हो
जायेगी। और हम
कभी खाली जगह
न छोड़ेंगे, जिसमें
हम विचार कर
लें, लौटकर
देख लें, पुनर्विचार
कर लें, फिर
से खयाल में
ले लें कि
इतने दिन तक
मेहनत करके दस
लाख इकट्ठे
किये; सुख,
जो सोचा था
वह मिला या
नहीं?
अगर आप
अपना श्रम और
अपनी उपलब्धि
को सामने रखकर
सोचेंगे, तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ जायेंगे।
उपलब्धि
बिलकुल भी
नहीं है, श्रम
बहुत है, मेहनत
में आपके कोई
कमी नहीं, मेहनत
इतनी ज्यादा
है कि अपने को
उसमें गंवाये
ही दे रहे हैं।
लेकिन डर लगता
है, जांचने
में डर लगता
है। और डर इस
बात का लगता
है कि अगर
जांचने से पता
चला कि मुझे
कुछ भी नहीं
मिला, तो
मैं असफल हो
गया। असफलता
का भय भारी है।
मैंने
सुना है कि दो
भिखारी एक सड़क
के किनारे बैठकर
बात कर रहे थे।
एक भिखारी
रोना रो रहा
था, जैसे
कि सभी भिखारी
रोते हैं, फिर
चाहे वे धनी
भिखारी हों, और चाहे
निर्धन। वह
रोना रो रहा
था अपने धंधे
के संबंध में
कि सब धंधा
बिगड गया है।
काम ही नहीं
चलता, कोई
देने को
उत्सुक ही
नहीं है।
लोगों की नजर
ही खराब हो गई
है। जिसके
सामने हाथ
फैलाओ, वही
और कहीं देखने
लगता है। किसी
से मांगो, तो
पच्चीस उपदेश
देता है, एक
धेला देने की
तैयारी नहीं
है। संसार
बिलकुल बिगड़ा
जा रहा है, कलयुग
आ गया है।
लोगो में न
दया है, न
दान है, न
ममता रही, न
मनुष्यता का
कोई प्रेम रहा।
बस पैसे पर
लोगों की पकड़
हो गयी, एक
पैसा कोई देने
को तैयार नहीं।
और मैं बहुत
थक गया इस
आवारागर्दी
से, एक गांव
से दूसरा गांव,
न कोई इज्जत,
न कोई
प्रतिष्ठा।
ट्रेनों में
धक्के खाओ, बिना टिकट
सफर करो, जबर्दस्ती
जगह—जगह उतारे
जाओ, पुलिस
है कि पीछे
पड़ी रहती है, जैसे इसी के
लिए नियुक्त
किया है। जीवन
बड़ा बदतर है।
तो
दूसरे ने कहां
कि फिर तू
भिखारी का
धंधा छोड़ ही
क्यों नहीं
देता? उस
पहले आदमी ने
सर ऊंचा करके,
रीढ़ ऊंची
करके कहां कि
क्या तुम
समझते हो, मैं
अपनी असफलता
स्वीकार कर
लूं?
भिखारी
भी अपनी
असफलता
स्वीकार करने
को राजी नहीं
तो आप तो कैसे
राजी होंगे!
और चूंकि अहंकार
असफलता
स्वीकार करने
को राजी नहीं
होता, इसलिए
अहंकार जीवन
पर विचार करने
को राजी नहीं
होता।
क्योंकि
विचार की
निष्पत्ति
असफलता होगी।
सब दिखाई पड़जायेगा
कि सब असफल
हुआ है, सब
असफल गया है।
सुख जरा भी
नहीं। दुख की
बड़ी भीड़ है।
यह
पहले पक्षी का
जीवन—ढंग और
ढांचा है। यह
उसके जीवन की
शैली है। बड़ी
व्यथा उसे
होती है, बड़े दुख में
वह भरता है।
और तब किसी
क्षण में वह
ऊपर सिर उठाकर
देखता है।
उसका
ही साथी, ठीक उसके ही
जैसा, कहें
कि दोनों जैसे
साथ—साथ जन्मे;
कहें, जैसे
एक दूसरे के
प्रतिरूप, एक
दूसरे की
छाया! वह
दूसरा शात और
आनन्द में बैठा
है, वहां
कोई कंपन नहीं,
वहा दुख की
कोई कालिमा
नहीं, वहा
आनन्द का सूरज
सदा ही उगा
हुआ है, कभी
डूबता नहीं।
उस
दूसरे के
आनन्द का राज
क्या है? उसका राज यह
है कि वह
भोक्ता नहीं
है, कर्त्ता
नहीं है, वह
मात्र नीचे जो
उछल—कूद चल
रही है, उसे
देखता है।
और जब
आप कर्त्ता
नहीं होते, भोक्ता
नहीं होते, तो सुख तो
आपका हो ही
नहीं सकता, दुख कैसे
होगा? जिसने
सुख को अपना
बनाना चाहा, दुख उसका
हुआ। जिसने
सुख को भी कह
दिया, मेरा
नहीं, सिर्फ
देखनेवाला
हूं दुख उससे
सदा कई लिए
दूर हो गया।
दूरी तो हम भी
चाहते हैं, लेकिन दुख
से चाहते हैं।
सुख से निकटता
चाहते हैं।
चाहते हैं सुख
तो मेरा हो, मैं भोगता
रहूं और दुख
मेरा न हो, दुख
में बहुत लोग
साक्षी होने
का उपाय करते
हैं।
दुखी
लोग मेरे पास
आते हैं। वे
कहते हैं कि
बहुत उपाय
करते हैं
साक्षी होने
का, कुछ
हो नहीं रहा।
मैं उनसे कहता
हूं दुख में
उपाय मत करो, सुख में
उपाय करो
साक्षी होने
का। और अगर
तुम सुख में
सफल हुए, तो
ही दुख में
सफल हो पाओगे।
दुख से दूर
होने की आकांक्षा
तो सभी की है, वह कोई
साधना नहीं है।
सुख से दूर
होने की आकांक्षा
सभी की नहीं
है, वही
साधना है। तो
जब तुम्हारे
जीवन में सुख
का क्षण हो, तब तुम
बैठकर अपने को
दूर करना। तो
जब तुम्हारे
जीवन में शाति
का क्षण हो, तब तुम
बैठकर अपने को
शांति से भी
दूर कर लेना।
यदि
तुम ध्यान के
मार्ग पर हो
और किसी दिन
ध्यान में परम
शाति उतरने
लगे, तत्क्षण
अपने को दूर
कर लेना। बड़ा
कठिन होगा।
क्योंकि लोग
सोचते हैं
शरीर को भोग
से दूर करना
है।
ध्यान
का भोग भी भोग
है।
किसी
दिन
प्रार्थना
में लीन हो
गये हो और
तुम्हारे
चारों तरफ एक
नयी सुगंध आ
गयी, जैसे
अंधेरे में
अचानक घी के
दिये जल गए, या भीतर
जहां कभी कुछ
नहीं खिला था,
कोई कमल खिल
गया और तुम
बड़े आनंदित हो,
तत्क्षण
दूर कर लेना।
स्त्री
से जो सुख
मिलता है, पुरुष से
जो सुख मिलता
है, भोजन
से जो सुख
मिलता है, सुंदर
वस्त्र पहन
लेने से जो
सुख मिलता है, स्वास्थ्य
से जो सुख
मिलता है, उससे
तो अलग करना
ही है, ध्यान
से जो सुख
मिलता है उससे
भी अलग कर
लेना है।’जहां
भी सुख मिलता
है वहां तुम
साक्षी होना _
भोक्ता मत
होना।
बस
तुमने नींव रख
दी जीवन को
बदलने की।
अचानक तुम
पाओगे कि दुख
अब तुम्हें
नहीं छूता।
दुख उसी को
छूता है, जो सुख को
पकड़ना चाहता
है। सुख को
पकड़ना, दुख
के लिए
निमंत्रण है।
और तुम सभी
सुख को पकडने
को आतुर हो, हालांकि पकड़
में हमेशा दुख
आता है। फिर
भी तुमने कभी
सोचा नहीं कि
पकड़ना सदा चाहा
सुख, पकड़
में सदा आया
दुख। तुमने यह
हिसाब भी कभी
नहीं लगाया।
इतनी तेजी में
हो, इतनी
जल्दी में हो
और नये सुख को
पकड़ने के लिए इतनी
भाग—दौड़ है, इतनी आपा—
धापी है कि
पीछे का हिसाब
कौन लगाये?
जब भी
सुख का कोई
क्षण तुम पर
उतरने लगे, सुख का
कोई घूंघर
तुम्हारे
भीतर बजने लगे,
तत्क्षण
होश संभाल
लेना। यही
वास्तविक
ध्यान है।
यह होश
का संभालना
सुख मैं, यही
वास्तविक
ध्यान है।
मुश्किल
होगा, क्योंकि
कभी तो ऐसी
शाति मिली और
उससे भी अलग होने
की बात की जा
रही है। कभी
तो झलक आई
प्रकाश की एक।
तो जब भी मैं
अपने साधकों
को कहता हूं
कि ध्यान में
जो मिले, उसके
साथ एक मत हो
जाना तो वे
मेरी तरफ ऐसे
देखते हैं कि
बा—मुश्किल तो
थोड़ी—सी झलक
मिली, उसको
भी मैं नष्ट
करवाने की
तैयारी कर रहा
हूं। उनकी आंखों
को देखकर मुझे
लगता है, वे
कहते हैं कि
इतनी जल्दी
नहीं, थोड़ा
इस सुख को ले
लेने दें, थोडा
इसमें डूबने
दें और हम तो
पूछने आये थे
कि यह सुख
कैसे बढ़े, और
हम तो पूछने
आये थे, जो
सुख आज मिला, वह कल भी
कैसे मिले? और जो सुख
अभी क्षण— भर
देखा, वह
शाश्वत कैसे
हो जाए और आप
कहते हैं इसे
दूर कर देना!
यह जो
मैं कह रहा
हूं इसे दूर
कर लेना, यही इसके
शाश्वत होने
का उपाय है।
अगर तुम दूर न
कर पाये, तो
जो मिला है, वह भी खो
जाएगा। कल तुम
फिर खाली हाथ
हो जाओगे और
दुख पैदा होगा।
ध्यान
करनेवालों को
अगर सुख मिल
जाये थोड़ा, तो दूसरे
दिन दुख मिलता
है, क्योंकि
फिर वह जो सुख
मिला था वह
नहीं आ रहा।
फिर वे पूछते
हैं कि कैसे
वह फिर वापस
आए। वह जो
झरोखा खुला था,
वह फिर कैसे
खुले? और
कुछ ऐसी तरकीब
कि वह झरोखा
बंद हो ही न, खुला ही रहे।
बस, दुख का
उपाय शुरू हो
गया। जिसने भी
सुख को पकड़ना
चाहा, उसने
दुख को पकड़ लिया।
जिसने सुख की
पुनरुक्ति
चाही, वह
जो मिला था, वह भी खो गया।
जीसस
का एक वचन है, 'जिनके
पास है, उनसे
छीन लिया
जायेगा। और
जिनके पास
नहीं है, उन्हें
दे दिया
जायेगा। इसे
तुम सुख के
संबंध में याद
रखना। किसी भी
भांति का सुख
है, वह
छिनेगा। अगर
तुम खुद ही
उसे फेंक दोगे,
तब तुमसे
उसे
छीननेवाला
कोई भी नहीं।
और जिनके पास
नहीं है, उन्हें
अनंतगुना
मिलता रहेगा।
और जब भी मिले,
तब तुम उसे
फेंकते जाना,
तुम हर बार
अनंत को अनंत
गुना करते जाओ।
और एक
ऐसी घड़ी आती
है, जब
तुम समझ जाओगे
कि सुख फेंकने
की कला है, और
दुख पकड़ने की
कला है।
जितना
पकड़ोगे, उतने दुखी।
नर्क में जो
लोग हैं, उनका
दुख और कुछ
नहीं, उन्होंने
बड़े सुख पकड़
रखे हैं।
स्वर्ग में जो
लोग हैं, उनका
सुख और कुछ भी
नहीं, उन्होंने
सब सुख छोड़
रखे हैं।
अगर यह
समझ में
तुम्हें आ
जाये, तो
सुख का अर्थ
हुआ
स्वतंत्रता, और दुख का
अर्थ हुआ
परतंत्रता।
इसलिए
हमने परम
आनन्द को
मोक्ष कहां है।
मोक्ष का अर्थ
है परम—स्वतंत्रय, जहां सब
छोड़ दिया गया
है।
वह जो
ऊपर बैठा
पक्षी है, वह
तुम्हारे
भीतर भी बैठा
है, वह
तुम्हारे
वृक्ष पर भी
बैठा है। कभी—कभी
उसकी तुम्हें
झलक भी मिलती
है। जब तुम
देखनेवाले हो
जाते हो, तब
तुम्हारी
चेतना, नीचे
के पक्षी से
हट जाती है और
ऊपर के पक्षी
में लीन हो
जाती है।
कभी—कभी
तुम्हें भी
झलक मिली है।
और उस झलक में
जैसे बादल हट
गये हों और
नीला आकाश
पीछे दिखाई
पड़ा हो, तुम्हें भी
दिखाई पड़ा है।
चाहे तुम
पहचान पाये, न पहचान
पाये! चाहे
तुम समझ पाये
इस घटना को, न समझ पाये!
लेकिन ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जिसे कभी न
कभी, साक्षी
होने की क्षण—
भर को प्रतीति
न हुई हो।
और जब
भी ऐसी
प्रतीति हुई
है, तभी
आनंद बरस गया
है। तभी एक
झोंका आया है
और तुम्हारे
चारों तरफ सब
जीवित हो गया
है।
कर्त्ता
होने की
प्रतीति तो
हमको चौबीस
घंटे है।
चौबीस घंटे हम—नीचे
के पक्षी के
साथ
तादात्म्य
साधे हुए हैँ।
दुख भोग रहे
हैं। अब समय
आया है कि आंख
उठाओ और ऊपर
के पक्षी को
देखो। और वह
तुम्हारे ही
वृक्ष पर बैठा
हुआ है और अनंतकाल
से प्रतीक्षा
कर रहा है कि
कब तक तुम दुख भोगते
रहोगे? और दुख
भोगकर भी तुम आंख
नहीं उठाते?
कुछ
ऐसा लगता है
कि दुख में भी
तुम्हें रस आ
रहा है। अगर
विरोधाभास न
दीखे, तो
कुछ ऐसा लगता
है कि दुख में
तुम कुछ सुख
अनुभव कर रहे
हो। दुख में
भी हमारा 'इन्वेस्टमेंट'
है। इसलिए
तुम कहते जरूर
हो कि हम दुख
छोड़ना चाहते
हैं लेकिन तुम
छोड़ना नहीं
चाहते। तुम
आते भी ऐसे
लोगों के पास
हो, जहां
दुख छूट जाये,
लेकिन तुम
पूरी तरह नहीं
आते। शायद तुम
अपनी आत्मा को
घर ही छोड़ आते
हो। आधे— आधे
आते हो, अंश—अंश
में आते हो।
दुख में
तुम्हारा कुछ
न्यस्त स्वार्थ
है।
एक
महिला को मैं
जानता था। वह
जब भी आती तो
उसका एक ही
रोना था कि
पति शराबी, जुआरी, सब पाप जो हो
सकते हैं पति
में, शिकायत
और शिकायत और
मैं ही घर को
चलाती हूं न पति
काम करता, न
नौकरी पर जाता—और
निश्चित ही वह
चलाती थी घर
को, खुद
काम भी करती
थी, कुछ
छोटे—मोटे
व्यवसाय भी
संभालती। पति
की चिंता भी
रखती। और एक लड़की
घर में, वह
पंगु, उसको
लकवा लग गया
है। उसका भी
बोझ उसके ऊपर,
वह उठ भी न
सके बिस्तर से।
उठाना हो तो
भी सहायता की
जरूरत, भोजन
भी करवाना हो
तो उसी को
करवाना पड़े, उसका जीवन
एक शहीद का जीवन
था।
वह जब
भी आती, यही दुख
सुनाती लेकिन
उसकी आंखों और
चेहरे में मैं
गौर करता तो
मुझे लगता उसे
इसमें रस है।
क्योंकि इस
पति के शराबी
और जुआरी होने
के कारण उसके
अहंकार को बड़ी
तृप्ति मिल
रही है। पति
दो कौड़ी का है,
तो वह लाख
का हीरा हो
गयी है। जीते
हम तुलना में
हैं। अगर पति
श्रेष्ठ हो, तो पत्नी
साधारण हो
जायेगी। वह जो
पत्नी की
असाधारणता है,
और गांवभर
उसकी प्रशंसा
करता है कि
स्त्री हो तो
ऐसी हो, वह
पति के शराबी
और जुआरी होने
पर निर्भर है।
तो वह कहती है
कि मैं बड़ी
दुखी ही हूं।
लेकिन सच में
ही वह उस दुख
से छुटकारा
चाहेगी नहीं,
क्योंकि उस
दुख का
छुटकारा, उसके
सम्मान और
गौरव—गरिमा का
भी अंत होगा।
वह लड़की दुखी
है, बीमार
है, परेशान
है, और
उसके लिए वह
दुखी है, रोती
है, इलाज
का इंतजाम
करती है, लेकिन
वह भी उसकी
शहीदगी का
हिस्सा है।
लोग दुख में
रस लेते हैं, क्योंकि दुख
तुम्हें शहीद
बनाता है। .और
इसलिए शिकायत
नहीं कर रही
है वह असल में,
प्रचार कर
रही है। उसकी आंखों
में देखो तो
शिकायत का भाव
नहीं दिखता, प्रचार का
भाव दिखायी
देता है।
फिर
दुर्भाग्य से
ऐसा हुआ कि
लड़की मर गयी।
जिस दिन लड़की
मरी, उसी
दिन से उसके
जीवन में आधा
सुख चला गया।
होना तो उसे
प्रसन्न
चाहिए था, चलो,
लड़की दुख से
छूटी और मैं
भी दुख से
छूटी। और भी
दुर्भाग्य की
बात कि आखिर
में परेशान होकर
पति भाग गया।
इस सबको मैं
निरंतर
अध्ययन करता
रहा, क्योंकि
वह अकसर आती
थी। जिस दिन
उसका पति भाग
गया, उस
दिन सब दुख का
अंत हो जाना चाहिए
था, क्योंकि
यही वह कहती
थी कि कैसे मर
भी जाये तो भी
ठीक है, यह
चला जाये, इसका
चेहरा मुझे
नहीं देखना।
आखिर वह चला
भी गया, फिर
लौटा भी नहीं,
लेकिन उसी
दिन से उसके
चेहरे पर जो
चमक थी, पत्नी
के, वह खो
गयी। उसी दिन
से वह उदास हो
गयी, उसके
जीवन का सारा
सार ही खो गया।
उस जुआरी और
शराबी पति में
ही सार था।
उसके कारण ही,
उसके जीवन
में व्यस्तता
थी, उसके
कारण ही अर्थ
था, अभिप्राय
था। सब
अभिप्राय खो
गया, सब
अर्थ खो गया।
आखिरी
बार जब उस
स्त्री को
मैंने देखा, तो वह
साधारण
स्त्री हो गई
थी, अब न
कोई उसकी
प्रशंसा करता है,
न कोई उसके
गीत गाता है।
वह स्त्री
जल्दी मर
जायेगी, क्योंकि—जीवन
में जो भी
धारा थी, गति
थी, वह सब
खो गयी।
आप
अपने दुखों की
बात करते हैं।
थोड़ा सोचना, उन दुखों
के कारण कहीं
आप शहीद तो
नहीं? थोड़ा
सोचना, उन
दुखों में
कहीं आपका कोई
सुख तो नहीं
छिपा? आदमी
बड़ा जालसाज है।
वह अपने दुख
को भी लीप—पोत
लेता है, अपने
दुख को भी साज—संवार
लेता है, वह
अपने दुख को
भी शृंगार बना
लेता है। और
तब मुश्किल हो
जाती है, क्योंकि
वह शृंगार को
कैसे फेंके? दुख तुम कभी
का फेंक देते,
अगर शृंगार
तुमने न बनाया
होता।
कारागृह के
तुम कभी के
बाहर आ गये
होते, लेकिन
कारागृह को
तुमने निवास
समझा है।
जंजीरें
तुम्हारी, तुम्हारे
सिवाय कोई
नहीं पकडे हुए
है, लेकिन
जंजीरों को
तुम आभूषण
माने हुए हो।
इसलिए
ऊपर का पक्षी
बैठा
प्रतीक्षा
करता है और
तुम नीचे बड़ा
दुख भोग रहे
हौ, बड़ा
प्रचार कर रहे
हो दुख का। और
ऊपर का पक्षी
हंसता होगा।
वह तुम्हारे
ही भीतर बैठा
हंस रहा है, तुम जानते
हो भलीभांति।
कभी—कभी
तुम्हें उसकी
झलक भी मिली
है क्योंकि
वही तुम्हारा
वास्तविक
स्वरूप है, तुम कितना
ही उसे भूलो, कैसे भूल
पाओगे? कभी—न—कभी
उसकी याद आ ही
जायेगी। कभी—न—कभी
तुम्हारी
शांति के क्षण
में उसका स्वर
तुम्हें
सुनाई पड़
जायेगा। कभी—न—कभी
खाली बैठे वह
तुम्हें भर
देगा। लेकिन
तुम उससे बच
रहे हो।
कर्त्ता
होने में
तुम्हें इतना
मजा आ रहा है कि
तुम साक्षी
होने से बच
रहे हो। मजे
के कारण तुम
काफी दुख उठा
रहे हो, दुखों का
प्रचार भी कर
रहे हो। लेकिन
शायद दुख अभी
उस वाष्पीकरण
के बिंदु तक
नहीं पहुंचे।
उस जगह दुख
नहीं आ गए हैं,
जहां
तुम्हारी
गर्दन बिलकुल
घुट जाए, तुम
सिर उठाकर ऊपर
देखो।
एक बार
भी तुम सिर
उठाकर ऊपर देख
लो, तो
तुम हैरान
होओगे कि अब
तक तुमने
जन्मों—जन्मों
में जो भोगा, वह एक लंबे
दुखद स्वप्न
से ज्यादा
नहीं था।
तुम्हारा
वास्तविक
स्वरूप सदा
उसके बाहर रहा
है। इसलिए
हिंदू कहते
हैं कि तुम
नित्य, सच्चिदानंद
ब्रह्म हो, तुमने कभी
कोई पाप नहीं
किया, तुमसे
कोई, कभी
कोई बुराई
नहीं हुई। हो
ही नहीं सकती
क्योंकि करना
तुम्हारा
स्वभाव नहीं
है।
जब
पहली बार
पश्चिम में
उपनिषदों का
अनुवाद हुआ, तो
पश्चिम के
विचारक राजी न
हो सके। और
पश्चिम के
विचारकी को
लगा कि ये
कैसे धर्म—शास्त्र
हैं? क्योंकि
पश्चिम तो एक
ही धर्म को
जानता था, ईसाइयत
को। और ईसाइयत
का सारा आधार
अपराध और पाप
के भाव पर है, कि तुम पापी
हो, पुण्य
की चेष्टा करो।
कि तुम भटक गए
हो, मार्ग
पर आओ। कि तुम
निष्कासित
किए गए हो
परमात्मा के
राज्य से, तो
वापस लौटने के
लिए परमात्मा
को प्रसन्न करो,
कि तुमने
अपराध किया है,
उसका
पश्चात्ताप
करो।
ईसाइयत
का तो पूरा
आधार ही
पश्चात्ताप
है, 'रिपेन्टेन्स'
है। और यह
उपनिषद् कहते
हैं कि तुमने
कभी कोई पाप नहीं
किया। किया ही
नहीं, तुम
करना भी चाहो,
तो कर नहीं
सकते, क्योंकि
कर्त्ता
तुम्हारा
स्वभाव नहीं
है। तुम सिर्फ
सपना देख सकते
हो कि तुमने
पाप किया, या
कर रहे हो, लेकिन
कर नहीं सकते
हो। तुम चाहो
तो भी
परमात्मा के
राज्य से बाहर
जाने का उपाय
नहीं क्योंकि
उसके बाहर कुछ
है ही नहीं।
इस बगीचे के
बाहर तुम्हें
फेंका जा सकता
है लेकिन
परमात्मा के
बगीचे से बाहर
तुम्हें नहीं
फेंका जा सकता,
क्योंकि
जहां भी है, जो भी है, उसका
ही बगीचा है।
ईसाइयों
का इदन का
बगीचा छोटा
रहा होगा।
हिंदुओं का
इदन का बगीचा
विराट है। वे
कहते हैं, उसके
बाहर कोई जगह
नहीं, जहां
तुम्हें भेज
दें।
परमात्मा
तुम्हें
भगाना भी चाहे,
तो कहां
भगायेगा? निकालना
भी चाहे, तो
कहां भेजेगा?
वही है। तुम
जहां भी रहोगे
उसी में रहोगे।
और वह सब जगह
एक ही मात्रा
में है, कहीं
कम और कहीं
ज्यादा भी
नहीं हो सकता।
क्योंकि
अस्तित्व..
इसे थोड़ा समझ
लें, सब
चीजों में
मात्रा में
भेद हो सकते
हैं—अस्तित्व
की मात्रा में
भेद नहीं होते।
यह वृक्ष है, इसका रंग
हरा है; दूसरा
वृक्ष है, उसका
रंग पीला है, रंग का भेद
है। एक पक्षी
है, छोटा
है, एक
पक्षी बड़ा है,
वजन का भेद
है। एक आदमी
में थोड़ी
बुद्धि है, एक आदमी में
बड़ी बुद्धि है,
बुद्धि का
भेद है। लेकिन
अस्तित्व है
वृक्ष का, अस्तित्व
है पक्षी का, अस्तित्व
है पत्थर का, अस्तित्व है
आदमी का, उसमें
जरा भी भेद
नहीं।
अस्तित्व कम—ज्यादा
नहीं है, अस्तित्व
छोटा—बड़ा नहीं
है। अस्तित्व
एक मात्र चीज
है जो बराबर
और सम है।
पत्थर भी उतना
ही
अस्तित्ववान
है, जितने
तुम। उसके
होने का ढंग
अलग, तुम्हारे
होने का ढंग
अलग, लेकिन
दोनों का होना
बराबर है, होने
में कोई भेद
नहीं।
हम उस
होने को ही
ब्रह्म कहते
हैं।
जब
उपनिषद् पहली
दफा गये, तो बड़ा
मुश्किल हुआ
पश्चिम के
लोगों को
समझना, यह
कैसा धर्म है?
यह तो बडा
खतरनाक है!
अगर लोग ऐसा
समझ लें कि पाप
न हमसे हुआ, न हो सकता है,
तो फिर
पश्चात्ताप
वे क्यों
करेंगे और बिना
पश्चात्ताप
के प्रभु के
मंदिर में
प्रवेश कैसे
होगा? और
अगर पापी यह
समझ लें कि हम
स्वयं ब्रह्म
हैं, तो
फिर पुरोहित
की क्या जरूरत?
फिर
पुरोहित क्या
समझाएगा? किसको
सुधारेगा? किसको
ठीक करेगा? चर्च खो
जायेगा।
इसलिए
जानकर आपको
हैरानी होगी
कि हिन्दू धर्म
अकेला धर्म है, जिसके
पास कोई चर्च
नहीं है, जिसके
पास
पुरोहितों का
कोई संगठित
समाज नहीं है,
जिसके
मंदिर में
पादरी जैसा
कोई व्यक्ति
नहीं है और
जिसका धर्म
निजी और
व्यक्तिगत
सूझबूझ से
चलता है, किसी
व्यवस्था से
नहीं। कोई
व्यवस्थापक
नहीं है ऊपर।
धर्म निजी, अन्तर्भूत,
स्वयं की
प्रतीति से
संचालित होता
है।
हिंदू
धर्म बहती हुई
नदियों की
भांति है।
ईसाइयत
पटरियों पर
चलती हुई
रेलगाड़ियों
की भांति है, सब
आयोजित है, सब
व्यवस्थित है।
हिंदू धर्म एक
अराजकता है, एक 'अनार्की'।
और
धर्म अराजक ही
हो सकता है।
क्योंकि धर्म
कोई राज्य
नहीं है। धर्म
परम
स्वतंत्रता
है। तो परम
स्वतंत्रता
तो अराजकता के
माध्यम से ही
उपलब्ध होगी।
और यह सबसे
बड़ा अराजक
सूत्र है कि
तुमने न कभी कुछ
किया है, न तुम चाहो, तो भी कुछ कर
सकते हो, न
तुम कुछ कभी
कर सकोगे!
तुम्हारा
होना परम शुद्धता
है, तुम्हें
शुद्ध नहीं
होना है, क्योंकि
तुम अशुद्ध
हुए नहीं, तुम्हें
सिर्फ यह
पहचान, यह 'प्रत्यभिज्ञा
', यह 'रेकगनिशन'
लाना है कि
मैं शुद्ध हूं।
इसलिए
हिंदुस्तान
में हम ब्रह्म
को खोज नहीं रहे
हैं, सिर्फ
ब्रह्म को
पुन: स्मरण कर
रहे हैं। सत
इसलिए अपने
साधना के
सूत्र को
स्मृति कहते
हैं। कबीर
सुरति कहते
हैं, वह
स्मृति का ही
बिगड़ा हुआ नाम
है। बस, एक
याद आनी है।
जैसे कोई
सम्राट का
पुत्र हो और
भीख मांग रहा हो
और उसे याद आ
जाए कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं मैं
सम्राट का
पुत्र हूं बात
खत्म हो गयी।
इस याद के साथ
ही उसकी चेतना
का गुण— धर्म
बदल जायेगा।
जिस
दिन तुम्हारा
दुःख काफी हो
जाये और जिस
दिन तुम अपने
दुःखों में रस
लेना बंद कर
दो, क्योंकि
जब तक तुम्हें
रस आता हो, तब
तक रोकनेवाला
मैं भी कौन
हूं? और जब
तक तुम्हें रस
आता हो, रस
लेना ही चाहिए।
और जल्दी से
कुछ भी न होगा,
फल पकेंगे,
तो ही
गिरेंगे। और कच्चे
फल तोड़ना उचित
भी नहीं। अगर
तुम्हें अभी
भी दुःखों में
रस आ रहा हो तो वही
तुम्हारी
नियति है, खूब
रस लेना। और
जल्दी मत करना,
किसी की
सुनकर बीच
रास्ते से मत
मुड़ आना, नहीं
तो वह रास्ता
फिर पूरा करना
पड़ेगा, उससे
बचने का कोई
उपाय नहीं है।
इस जगत
में कोई भी विकास, कोई भी 'ग्रोथ' उधार
नहीं हो सकती।
अगर
तुम्हें अभी
दुःख में रस आ
रहा है, तो तुम ठीक
से रस लेना
ताकि पूरा रस
ले लो और दुःख
अपनी
परिपूर्णता
पर पहुंच
जायें, उनकी
निष्पत्ति आ
जाए। अगर जहर
ही पीना है, तो आकंठ पी
लेना ताकि तुम
उसमें डूबो, तो उबर सको।
तुम्हारी
तकलीफ क्या है
कि न तुम अमृत
की तरफ जाते, न तुम जहर
को पूरी तरह
पीते, इसलिए
तुम उलझ गये
हो, तुम
बीच में अटक
गये हो। जहर
तुम पीना
चाहते हो, उसमें
रस तुम्हें है
लेकिन उससे जो
दुख आता है, वह भी तुम
नहीं झेलना
चाहते। तुम एक
असंभव की
कोशिश कर रहे
हो कि जहर तो
पीऊं, और
आनंद अमृत
जैसा आये। यह
नहीं होगा। यह
नहीं होगा
क्योंकि यह
वस्तुओं का
स्वभाव नहीं।
अमृत पीओगे, तो आनंद
आयेगा, जहर
पीओगे तो दुःख
आयेगा। और जहर
में रस है, तो
पूरी तरह पीओ
ताकि पूरा दो
पक्षी.
कर्त्ता और
साक्षी हो जाए
तुम दुःख के
द्वारा पक जाओ।
व्यथा
पकाती है। और
दुःख तुम्हें
तैयार करता है
आत्यंतिक छलांग
के लिए। एक—न —एक
दिन तुम लौटकर
पीछे देखोगे
और उस दूसरे
पक्षी को बैठा
हुआ पाओगे।
और
ध्यान रहे, दूसरे
पक्षी के
संबंध में
सुनी हुई
बातों से कुछ
भी न होगा, तुम्हें
स्वयं ही
देखना पड़ेगा।
यह उपनिषद्
कितना ही कहें,
उपनिषदों
के द्वारा जो कहां
गया है, वह
ऐसा ही है
जैसा किसी ने
हिमालय को
चित्रों में
देखा हो।
हिमालय के
उतुंग शिखरों
पर छायी हुई
सफेद बर्फ
देखी हो, लेकिन
उससे शीतलता
नहीं मिलेगी।
जो हिमालय के
उस उड़ा शिखर
पर गया है, उसने
जो जाना है, वह तुम न
जानोगे। कागज
पर खींची हुई
लकीरें
हिमालय कैसे
हो सकती हैं? उसको छाती
से लगाकर तुम
बैठ जाओ और यह
मान लो कि तुम
पहुंच गये
हिमालय और पा
लिया तुमने वह
शाति और सुख
का साम्राज्य,
तो
तुम्हारी
यात्रा ही
समाप्त हो गयी,
तुम उठोगे
और चलोगे भी
नहीं।
मैंने
सुना है, ऐसा हुआ एक
बार।
दुर्भाग्य से
काशी का एक
गधा पढ़—लिख
गया।
दुर्भाग्य
इसलिए कि एक
तो वैसा ही
गधा और फिर पढ़ा—लिखा।
वह जैसे कोई
नीम के झाडू
पर करेला को
चढ़ा दे। वैसा
ही कडुवा, फिर
नीम का सत्संग।
काशी का गधा
था, चारों
तरफ पांडित्य
की हवा थी, जल्दी
ही पंडित हो
गया। शास्त्र
उसे कंठस्थ हो
गये। गधों की
स्मृति अकसर
अच्छी होती है।
बुद्धि
जितनी कम होती
है, स्मृति
उसको पूरा
करती है। बहुत
बुद्धिमान
लोग अकसर
भुलक्कड़ हो
जाते हैं।
बुद्ध बुद्धि
पर तो टिक
नहीं सकते, तो उन्हें
याददाश्त से
ही अपने जीवन
को चलाना पड़ता
है।
इस गधे
की याददाश्त बड़ी
अच्छी थी, जो भी
पड़ता, बिलकुल
कंठस्थ हो
जाता।
पंडितों के आस—पास
जहां चर्चाएं
चलती, सत्संग
होते, वह
भी खडा सुनता
था। अकसर उसे
सुनाई पड़ता था,
काशी की हवा,
वहा भंग और
भंग का पीना
और भंग का
आनन्द और भंग का
घुटना और 'जय
भवानी', वह
सब सुनता था।
भंग के संबंध
में उसने इतनी
बातें सुनीं
और काशी की
सड्कों पर
चलते हुए
कोड़ियों को
ऐसे आनन्द से
डोलते देखा कि
उसके मन में
भी वासना जगी
कि यह भंग तो
ब्रह्म का
द्वार है और
इसके बिना कोई
प्रवेश हो नहीं
सकता, इस
भंग को खोजो।
शास्त्रों
में बड़ी महिमा
पढ़ी, महिमा
कंठस्थ भी हो
गई। फिर एक
दिन एक कबाड़ी
की दुकान पर
उसे 'एनसायक्लोपीडिया
ब्रिटानिका' दिखाई पड़
गया। तो उसमें
उसने उलटकर
देखा तो भंग
के पौधे की तस्वीर
बनी थी। तो
उसने तस्वीर
को बिलकुल आंखों
में बसा लिया।
अब
उसके पास पूरी
साधना के
सूत्र थे। भंग
की पूरी महिमा
उसे पता थी।
कोड़ियों के
कृत्य भी उसने
देखे थे, उनका आनंद
भी देखा था, उनकी आंखों
की मस्ती, उसकी
भी उसे खबर थी।
भगेडियो के
सत्संग में
खड़े होकर उनकी
चर्चा भी सुनी
थी, किस
अलौकिक लोक की
वे बातें कर
रहे थे! किसी
अज्ञात का
हल्का स्पर्श
उसे इनकी
चर्चाओं में हुआ
था। शब्दों से
उसे खबर मिल
गई थी। और अब
उसके पास
चित्र भी था।
अब वह जल्दी
ही तलाश कर
लेगा।
गंगा
के किनारे
चरते उसने एक
दिन देखा कि
एक पौधा ठीक
वैसा, जैसा
'ब्रिटानिका'
में चित्र
बना था, वैसा
ही है। लेकिन
पक्का कैसा हो
कि वह भंग ही
है, मिलता—जुलता
कोई पौधा हो
सकता है। उचित
यही है कि उस
पौधे से ही
पूछ लिया जाये।
वह
पौधा साधारण
घास—पात था, अकसर उग
आता है, तो
बगीचे के लोग
उसे उखाड़कर
फेंक देते हैं
क्योंकि उसकी
कोई उपयोगिता
नहीं।
इस गधे
ने जाकर पूछा
कि क्या मेरे
भाई, तुम
भंग के पौधे
हो? वही
जिसकी महिमा
शास्त्रों
में है? और 'ब्रिटानिका'
में
तुम्हारा
चित्र देखा, हूबहू वही
हो, जहां
तक मेरी समझ
जाती है और
स्मृति, तुम
हो ही वह, जिसकी
मैं तलाश में
हूं। वह पौधा
साधारण घास—पात
का था, कभी
किसी ने इतनी
महिमा उसे न
दी थी कि कहे
कि 'जय भंग—
भवानी' या
ऐसा धार्मिक
पद और ऐसी
ऊंचाई की
प्रतिष्ठा कभी
किसी ने न दी
थी। माना कि
यह गधा है, फिर
भी गधे भी
प्रशंसा करें,
तो अहंकार
को अच्छी लगती
है।
अहंकार
यह नहीं देखता
कौन कर रहा है, अन्यथा
दुनिया में
खुशामद बंद हो
जाये।
पौधा
थोड़ा तो
सकुचाया कि ना
कर दूं लेकिन
यह मौका
दुबारा जीवन
में आयेगा, इसकी आशा
नहीं। यह
सम्मान का
क्षण खोने
जैसा नहीं है।
तो उस पौधे ने कहां
'कि ही, मैं
ही हूं वह, जिसकी
तुम तलाश कर
रहे हो। झटपट
गधे ने जो भी
सीखा था
भगेडियो से, जो भी
क्रियाकलाप, कर्म—काण्ड
करना था, वह
किया। पौधे को
चर गया। चरकर
उसने देखा, लेकिन कोई मस्ती
आती नहीं
मालूम पड़ रही।
शायद अभ्यास न
होने से ऐसा
हो। तो पैर
डावाडोल किये,
झूला, भगेडियों
को देखा था, वैसा चलने
भी लगा, अनर्गल
बकने भी लगा, लेकिन भीतर
उसे शक तो बना
ही हुआ है। यह
सब हो रहा है
ठीक, लेकिन
यह हो रहा है
ऊपर—ऊपर। या
तो 'ब्रिटानिका'
में कहीं
कोई भूल हो गई,
या बाकी
भंगेड़ी भी ऐसा
ही कर रहे हैं।
और या यह पौधा
धोखा दे गया।
समझाने की सब
तरफ कोशिश
करता है कि
ठीक हो ही रहा
है—लेकिन भीतर
तो कोई देख ही
रहा है कि यह
सब ठीक हो
नहीं रहा, यह
सब मैं कर रहा
हूं यह मैं
करता हूं।
शास्त्र
से तुम ब्रह्म
ज्ञान सुन लो, उपनिषद्
तुम्हें बता
दें ऊपर के
पक्षी की बात,
तुम्हें
कंठस्थ भी हो
जाये, तुम
ऐसे ही जीने
भी लगो, ऐसे
ही चलने भी
लगो, जैसा
कि संन्यासी
को उठना—बैठना,
चलना चाहिए—बाकी
तुम्हें भीतर
लगता ही रहेगा
कि कहीं कुछ गड़बड़
है।
स्वानुभाव
के बिना, स्वयं को
जाने बिना, कोई और
जानना, किसी
भी अर्थ का
नहीं है।
उपनिषद् की
कथा समझ में
आने से कुछ भी
समझ में न
आयेगा। जब
तुम्हारे
भीतर की कथा
खुलेगी, और
तुम्हारे
जीवन के वृक्ष
पर तुम दूसरे
पक्षी को बैठा
देख पाओगे, तब तुम्हें
उपनिषद् भी
समझ में आयेगा,
उसके पहले
उपनिषद् भी
समझ में आ
नहीं सकता।
तो
मेरी तकलीफ
तुम्हें खयाल
में ले लेनी
चाहिए। यह
रूपक मैंने
तुम्हें
समझाया, यह भलीभांति
जानते हुए कि
तुम इसे कैसे
समझोगे? भलीभांति
जानते हुए कि
मेरे शब्दों
को अगर तुमने
समझ लिया कि
समझ गये, तो
नुकसान हुआ।
लेकिन फिर भी
यह रूपक
समझाया, यह
भी तुम्हारे
खयाल में आ
जाये कि ऐसी
संभावना है।
अभी तुम इसे
मान मत लेना
कि तुम्हारे
पीछे एक साक्षी
बैठा ही हुआ
है, कौन
जाने उपनिषद्
गलत कहते हों,
'ब्रिटानिका'
में गलत
तस्वीर छपी हो,
पौधा धोखा
दे रहा हो, कोई
नहीं जानता।
तुम जल्दी मत
कर लेना, मानने
की जल्दी करना
ही मत।
क्योंकि जो
जल्दी—जल्दी
मान लेता है, वह जानने से
वंचित रह जाता
है। सिर्फ एक
संभावना—मेरी
सारी कोशिश
इतनी ही है कि
तुम्हारे
जीवन में एक
संभावना की
प्रतीति हो
जाये। इतना भर
हो कि तुम जो
हो, उतना
ही तुम्हारा
पूरा होना
नहीं, कुछ
बाकी है। इतना
ही कि जहां तुम
खड़े हो, वहा
से थोड़ा आगे
जाया जा सकता
है। यात्रा
समाप्त नहीं
हो गई है।
इतना ही कि
तुमने जो पाया
है, वही
पाने को नहीं
था, और भी
कुछ पाने को
है। बहुत
धुंधला—
धुंधला खयाल
हो, कोई
हर्जा नहीं, धुंधला ही
होगा, खयाल
ही होगा।
इस
खयाल के पैदा
करने के लिए
तो तुम्हें
समझा रहा हूं।
उस खयाल के
पैदा होने पर
दो रास्ते
निकलते हैं—एक
कि तुम उस
खयाल को ही
कंठस्थ करते
चले जाओ तो
बिना भंग पीये
तुम्हारे पैर
थोड़े ही दिनों
में डगमगाने
लगेंगे, बिना भंग
पीये थोड़े दिन
में तुम मस्ती
में आ जाओगे।
वह मस्ती झूठी
होगी, वह
डगमगाहट झूठी होगी,
तब तुम भटक
गये।
दूसरा
एक उपाय है कि
वह जो खयाल
तुम्हारे मन में
पैदा हो जाये
कि कुछ और
संभव है, मैं चुक
नहीं गया हूं
अभी और भी
अस्तित्व
मेरा बाकी है
जो खुल सकता
है, यह
किताब पूरी
नहीं हो गई, इसमें कुछ
बंधे हुए
अध्याय शेष रह
गये हैं, यह
घर मैंने पूरा
नहीं छान लिया,
अभी कुछ
तलघरे बाकी
हैं, जिनमें
खजाना हो सकता
है, ऐसा
आभास! लेकिन
यह आभास
तुम्हारा
बौद्धिक शान न
बने, बल्कि
तुम्हारे
जीवन की साधना
बन जाए। इसे
तुम मानकर न
बैठ जाओ, बुद्धि
में प्रत्यय न
बना लो बल्कि
ध्यान और समाधि
की दिशा में
तुम कुछ करना
शुरू कर दो।
वह जो
दूसरा पक्षी
है, उसे
देखने के लिए
कुछ बातें
सूत्र की तरह
खयाल ले लेनी
चाहिए। पहला,
तुम .अभी
पहले पक्षी हो,
जो नीचे
बैठा है। इस
पक्षी से ठीक
से परिचित हो
जाओ। इसका दुख
पूरा भोगो, इसकी जलन, इसका दंश
पूरा अनुभव
करो, इसके
जो काटे सब
तरफ से चुभ
रहे हैं, उन्हें
चुभ जाने दो
ताकि उनकी
पूरी पीड़ा
तुम्हारे
हृदय को घेर
ले। इसमें तुम
झूठे, मादकता
के, भुलावे
के उपाय मत
करो। तुम कई
तरकीबें
निकालते हो।
तुम कहते हो
पिछले जन्मों
के कर्मों के
कारण मैं दुख
भोग रहा हूं
इस जन्म के
कर्मों के
कारण नहीं, पिछले
जन्मों के
कर्मों के
कारण।
इससे
तुम्हें क्या
आश्वासन
मिलता होगा? एक
आश्वासन
मिलता है कि
पिछले जन्मों
के कर्मों के
संबंध में अब
कुछ किया नहीं
जा सकता। जो
हो गया, सो
हो गया, भोगना
पड़ेगा। अगर
मैं कहूं इस
जन्मों के
कर्मों के
कारण, तो
थोड़ी निकट बात,
कुछ किया जा
सकता है। और
अगर मैं कहूं
कि इसी क्षण
कर्त्ता होने
के कारण, तब
तुम मुश्किल
में पड़ जाओगे।
क्योंकि
कर्मों के
कारण भी दूर
की बात हुई।
कर्म का अर्थ,
जो हो चुका।
तुम
कर्मों के
कारण दुख नहीं
भोग रहे हो, तुम
कर्त्ता होने
के कारण दुख
भोग रहे हो।
कर्त्ता तुम
पिछले जन्मों
में थे, उसका
भी भोग रहे हो;
कर्त्ता
तुम अभी भी हो,
उसका भी भोग
रहे हो। लेकिन
भोग का कारण
तुमने क्या
किया, वह
नहीं है, तुम
करने के साथ
एक हो जाते हो,
वह है। इसे
तुम इसी क्षण
छोड़ सकते हो।
तो
धीरे— धीरे
कर्त्ता होना
कम करो। बजाय
उस दूसरे की
खोज के, तुम जहां हो,
वहा थोड़ा
रूपांतरण करो,
कर्त्ता
होना कम करो।
और देखने की
प्रक्रिया पर
ज्यादा जोर दो।
जहां भी
तुम्हें मौका
मिले, ये
दो उपाय हैं—या
तो कर्त्ता हो
जाओ या
द्रष्टा। तुम
कोशिश करो
द्रष्टा होने
की। यहां मैं
बोल रहा हूं
तुम सुन रहे
हो, अगर
तुम सुन ही
रहे हो, तब
तो तुम कर्ता
हो गये
क्योंकि
सुनना तुम्हारी
क्रिया हो गयी।
अगर तुम
द्रष्टा होने
की कोशिश
करोगे, तो यहां
फिर मैं बोल
रहा हूं तुम
सुन रहे हो और
तुम देख भी
रहे हो। अगर
मेरा द्रष्टा
भी जागा हुआ
है और
तुम्हारा
द्रष्टा भी
जागा हुआ है, तो जहां दो
व्यक्ति हैं,
वहा चार हो
गये। एक
बोलनेवाला, एक
देखनेवाला और
एक सुननेवाला
और एक देखनेवाला।
सुनो भी और
देखो भी कि
तुम सुन रहे
हो। यह इसी
क्षण तुम कर
सकते हो। इसके
करने के लिए
कुछ उपाय
आयोजन नहीं।
तुम सुन रहे
हो, सुनने
की घटना शरीर
और मन में घट
रही है, तुम
इस सुनने की
घटना को भी
पीछे खड़े देख
रहे हो कि यह
सुनना हो रहा
है। जरा—सी भी
झलक तुम्हें
मिलेगी, तत्क्षण
तुम पाओगे कि'
उसी क्षण
में दुख खो
जाता है, अशांति
खो जाती है, तनाव खो
जाता है। तो जहां—जहां
द्रष्टा और
कर्ता का मौका
हो, वहा—वहां
तुम द्रष्टा
की तरफ ढलो
झुको।
कर्त्ता की
पुरानी पकड़ है
लंबी, संस्कार
गहरे हैं, जरा
सी भूल हो गई
कि कर्त्ता
तुम्हें खींच
लेगा। लेकिन
कोई हर्जा
नहीं।
कर्त्ता के
संस्कार
कितने ही गहरे
हों, वह
झूठ है, झूठ
के संस्कार
कितने ही गहरे
हों, तो भी
उनका कोई बड़ा
वजन, कोई
बड़ा मूल्य
नहीं है।
साक्षित्व
कितना ही भूल
गया हो, वह स्वभाव
है; कितनी
ही विस्तृति
हो गई हो, उसे
पाना कठिन
नहीं है, उसे
पुन: जगाया जा
सकता है। भोजन
करते, रास्ते
पर चलते, स्नान
करते रहने पर
भाव कम, देखने
पर भाव ज्यादा।
अपने बाथरूम
में खड़े हो, स्नान कर
रहे हो 'शॉवर'
के नीचे, स्नान भी
करो और देखो
भी कि शरीर
स्नान कर रहा है।
भोजन कर रहे
हो, करो भी
और देखो भी कि
शरीर भोजन कर
रहा है।
जल्दी
ही दूसरा
पक्षी
फडूफडाता हुआ
तुम्हें मालूम
पड़ने लगेगा।
दूसरा पक्षी
जल्दी ही पर
फड़फड़ायेगा, जल्दी ही
तुम सचेत हो
जाओगे कि कोई
और भी वृक्ष
पर मौजूद है, तुम कर्त्ता
की तरह अकेले
नहीं हो। और
जैसे—जैसे
दूसरे की
प्रतीति सघन
होगी, पहले
की प्रतीति
विरल होती
जायेगी। जैसे—जैसे
दूसरा दिखाई
पड़ेगा, पहला
खोता जायेगा।
और कथा
में जो नहीं कहां
है, वह
मैं तुमसे
कहता हूं जिस
दिन तुम्हारी
प्रतीति पूरी
हो जाएगी
साक्षी की, उस दिन
दूसरा खो
जायेगा, तुम
वृक्ष पर
पाओगे कि एक
ही पक्षी है।
अज्ञानी
भी पाता है कि
एक ही पक्षी
है, कर्त्ता
दूसरा उसे
दिखाई नहीं
पड़ता। ज्ञानी
भी पाता है कि
एक ही पक्षी
है, साक्षी,
दूसरा उसे
दिखाई नहीं
पड़ता।
यह
उपनिषद् ने दो
पक्षी कहे हैं, अज्ञानी
और ज्ञानी, दोनों की
समझ को एक साथ
समाहित करने
के लिए। दो
पक्षी वहा हैं
नहीं।
अज्ञानी के
लिए भी एक है, वह कर्ता है!
ज्ञानी के लिए
भी एक है, साक्षी।
चूंकि ज्ञानी
अज्ञानियों
से बोल रहा है
उपनिषद् में,
इसलिए दो
पक्षियों की
बात है।
ज्ञानी अपने
अनुभव को भी
रख रहा है और
अज्ञानी के
अनुभव को भी
रख रहा है
क्योंकि
तुम्हारे अनुभव
को भी स्वीकार
करना पड़े, तभी
तुम यात्रा
करोगे। एक घड़ी
आयेगी, जब
तुम्हें खुद
ही दिखायी पड़
जायेगा कि
पक्षी एक है।
और जिस दिन एक
ही पक्षी रह
जाता है, 'उस
दिन अद्वैत का
अनुभव हुआ। उस
एक का नाम ही
अद्वैत है।
आज इतना
ही।
'नहिं राम
बिन ठाव' प्रवचनमाला
से
दिनांक
2 जून 1974; श्री रजनीश
आश्रम,
पूना।
Thank you Guruji
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