पुकार
जागने
की—(प्रवचन—छठवां)
दिनांक
26 मई, 1979;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान!
कहते हैं कि
अस्तित्व
हमेशा
विकासमान है।
क्या यह नियम बुद्धपुरुषों
पर भी लागू है? जैसा
कि बुद्ध और
महावीर ने
चुपचाप लोगों
के पत्थर और
अन्यायों को
सहा। मुहम्मद
ने हाथ में
तलवार लेकर
उनका सामना
किया। आप तो हाथ
में कोई
अस्त्र नहीं
लेते, परंतु
अन्यायों का
सामना और भी
ठीक ढंग से
करने की
व्यवस्था की
है।
जैसे
ही मैं आप में
डूबता हूं
वैसे ही
प्रतीति होती
है कि मनुष्य
की चेतना को
ऊपर उठाने के
लिए जिस
व्यापकता से
आप प्रयत्नशील
हैं, वैसा
अतीत के किसी बुद्धपुरुष
ने नहीं किया
होगा!
2—भगवान!
क्या भाग्य को
मानना हर
स्थिति में
बुरा है?
3—भगवान!
जब भी यहां
आती हूं, संन्यास
के वस्त्र
पहनकर आने का
भाव होता है। कोशिश
करती हूं
लेकिन कोशिश
निष्फल जाती
है; घर के
लोग राजी नहीं
होते। इस बार
भी घर में
समझाया, तड़पी, किसी
ने न सुना तो
यहां चली आई।
मैं
जानती हूं, मैं
निर्बल हूं, मुझमें साहस
की कमी है।
मगर हमेशा
आपके पास आने
की अभीप्सा
दिल में रहती
है। संन्यास
तो ले लिया
लेकिन
संन्यास के
वस्त्र
परिवार के कारण
नहीं पहन पाती
हूं। मेरा
पूरा संन्यास
कब होगा ? किससे
जानूं—जो कर
रही हूं, वह
ठीक है या
नहीं? क्या
मैं आपको चूक
जाऊंगी? कृपया
कुछ बताएं।
अगर
मैं कुछ
छिपाती हूं तो
वह भी बताइए
तो मैं अपने
को जान सकूं।
4—भगवान!
लगता है कि
मैं आपके
प्रेम में पड़
गया हूं और
बड़ी उलझन में
भी। आपकी
बातें ठीक
लगती हैं; सुनते
ही आनंद-अश्रु
बहने लगते
हैं। लेकिन वे
मेरे सारे
संस्कारों के
विपरीत हैं, इसलिए मैं
उन्हें रोक
लेता हूं। अब
आपकी मानूं तो
मुश्किल, न
मानूं तो
मुश्किल !
5—भगवान!
क्या
साधारणजन कभी
आपको समझ
पाएंगे?
पहला
प्रश्न :
भगवान!
कहते हैं कि
अस्तित्व
हमेशा विकासमान
है। क्या यह
नियम बुद्धपुरुषों
पर भी लागू है? जैसा
कि बुद्ध और
महावीर ने
चुपचाप लोगों
के पत्थर और
अन्यायों को
सहा। मुहम्मद
ने हाथ में तलवार
लेकर उनका
सामना किया।
आप तो हाथ में
कोई अस्त्र
नहीं लेते, परंतु
अन्यायों का
सामना और भी
ठीक ढंग से
करने की व्यवस्था
की है।
जैसे
ही मैं आप में
डूबता हूं
वैसे ही
प्रतीति होती
है कि मनुष्य
की चेतना को
ऊपर उठाने के
लिए जिस
व्यापकता से
आप
प्रयत्नशील
हैं, वैसा
अतीत के किसी बुद्धपुरुष
ने नहीं किया
होगा!
सत्य
निरंजन!
अस्तित्व
विकास है
लेकिन बुद्धत्व
का कोई विकास
नहीं होता।
बुद्धत्व का
तो अर्थ ही है
कि विकास की
चरम अवस्था; उसके
पार फिर कुछ
और शेष नहीं।
बुद्धत्व
अर्थात्
मंजिल; पहुंचना
हो गया।
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण
मुहम्मद, जीसस,
नानक, कबीर,
भीखा इनमें
कोई आगे-पीछे
नहीं है, कोई
छोटा-बड़ा नहीं
है—ये सब समान
रूप से
बुद्धत्व को उपलब्ध
हैं।
बुद्धत्व
घटता है तो
खंडों में नहीं
घटता, अंशों
में नहीं घटता;
जब भी घटता
है तो
परिपूर्ण
होता है, पूरा
होता है—आधा
नहीं होता, कम-ज्यादा
नहीं होता।
लेकिन फिर भी
कृष्ण के वचनों,
महावीर के
वचनों, मुहम्मद
के वचनों और
नानक के वचनों
में भेद है।
भेद अभिव्यक्ति
का है, अनुभूति
का नहीं। उनके
आचरण, उनके
व्यवहार में
भेद है—उनकी
आत्मा में
नहीं। आचरण, व्यवहार, अभिव्यक्ति
समाज पर
निर्भर होते
हैं, और
समाज
विकासमान है।
मुहम्मद
को तलवार हाथ
में लेनी पड़ी
क्योंकि जिन
लोगों के बीच
मुहम्मद थे, वे
लोग जंगली थे,
खूंखार थे।
उनके बीच बिना
तलवार लिए
मुहम्मद अपना
संदेश पहुंचा
ही न सकते थे।
बिना तलवार की
छाया में
कुरान के गीत
गाए ही नहीं
जा सकते थे।
महावीर भी अरब
में पैदा होते
तो तलवार हाथ
में लेनी
पड़ती। लेकिन
अगर मुहम्मद
महावीर के समय
भारत में पैदा
हुए होते तो
उन्होंने भी
पत्थर चुपचाप
सह लिए होते—एक
और समाज था, एक और ढंग का
समाज था, और
तरह के लोग थे,
और तरह की
संस्कृति थी।
कल ही
मैं एक सूफी
कहानी पढ़ रहा
था। मुहम्मद के
जमाने की
कहानी है।
मुहम्मद का एक
भक्त, एक सूफी,
कुरान की
आयतें पढ़ रहा
है। कुरान में
आयत आती है—खाओ,
पियो, मौज
करो। पास में
ही खड़े एक
अरबी ने यह
सुना—खाओ, पियो,
मौज करो।
उसने उठाकर एक
डंडा सूफी के
सिर पर मार
दिया। लेकिन
सूफी ने इसकी
कोई चिंता न
की, वह
कुरान की आयत
को आगे पढ़ता
चला गया—खाओ, पियो, मौज
करो और फिर नर्को
में सड़ोगे।
डंडे मारने
वाले अरब ने
कहा : अब अकल आई,
अब समझ आई, डंडा खाकर
समझ आई! उसे
पता ही नहीं
कि वह तो कुरान
का ही आधा वचन
था। वह तो सोच
रहा है कि
मेरे डंडा
मारने के कारण
अब इनको थोड़ी
अकल आई, तो
कुछ मतलब की
बात कही, नहीं
तो कह रहा था—खाओ,
पियो, मौज
करो।
जिन
लोगों के बीच
मुहम्मद को
शिक्षा देनी
पड़ी,
उनके बीच न
तो पहले कृष्ण
हुए थे, न
राम हुए थे, न महावीर
हुए थे, न
बुद्ध हुए थे।
मुहम्मद को
पहली ही बार
जमीन तोड़नी
पड़ी थी। जैसे
कोई नई-नई
पहाड़ी की जमीन
को खेत में
बदलने की
चेष्टा करे तो
पत्थर
निकालकर फेंकने
पड़ते हैं, कुदाली
चलानी पड़ती है,
जमीन को साफ
करना पड़ता है—ऐसी
ही जमीन में
मुहम्मद को
काम करना पड़ा।
महावीर के
पीछे कोई पांच
हजार साल लंबा
इतिहास था। उस
पांच हजार साल
में जमीन खूब
तैयार की गई थी।
खेत तैयार था,
ज़रा-सा पानी
सींचने की बात
थी, ज़रा-से बीज
डालने की बात
थी।
इसलिए
अभिव्यक्ति
में भेद पड़ेगा, और
आचरण में भेद
पड़ेगा, और
व्यवहार
भिन्न होगा।
लेकिन इससे
तुम यह मत समझ
लेना कि
महावीर
मुहम्मद से
बड़े बुद्धपुरुष
हैं; बुद्धत्व
में बड़ा-छोटा
कुछ भी नहीं
होता। इससे
तुम यह मत समझ
लेना कि बुद्ध
जीसस से बड़े
और आगे पहुंचे
हुए हैं; बुद्धत्व
में कोई आगे
नहीं होता, कोई पीछे
नहीं होता।
बुद्धत्व का
अर्थ है, आ
गई मंजिल, उपलब्धि
हो गई; उसके
बाद कोई विकास
नहीं है।
पूर्णता का
क्या विकास? लेकिन फिर
भी जैसे समय
बदलेगा, लोग
बदलेंगे, भाषा
बदलेगी, लोगों
के सोचने के
ढंग बदलेंगे—वैसे-वैसे
बुद्धों की
अभिव्यक्ति
बदलती जाएगी।
जो मैं
कह रहा हूं, वह
आज ही कहा जा
सकता है, इसके
पहले नहीं कहा
जा सकता था।
आज यहां हिंदू
हैं, मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं, पारसी
हैं, सिक्ख
हैं, जैन, बौद्ध, यहूदी—आज
दुनिया के
सारे धर्मो
के लोग यहां
मेरे सामने
मौजूद हैं।
बुद्ध के सामने
ऐसा नहीं था, सिर्फ
हिंदुओं से
बोलना पड़ रहा
था, इसलिए
एक तरह की
अभिव्यक्ति
थी। महावीर
इतने धर्मो
के लोगों से
नहीं बोल रहे
थे, इसीलिए
अभिव्यक्ति
में एकस्वरता
है। मैं इतने
लोगों से बोल
रहा हूं कि
मुझे पूरा
सरगम उठाना
होगा, मुझे
सातों स्वर
उठाने
पड़ेंगे।
बुद्ध
छोटे-से
क्षेत्र
बिहार में
घूमते रहे, उससे
बाहर नहीं गए।
मुहम्मद अरब
में रहे। जीसस
का क्षेत्र तो
और भी छोटा था,
समय भी कम
मिला जीसस को,
केवल तीन
वर्ष काम करने
के लिए। मेरे
लिए सारी
दुनिया
क्षेत्र है, करीब तीस
देशों से लोग
यहां हैं।
मुझे तीस देशों
की संस्कृति,
सभ्यता, जीवन-पद्धति,
जीवन-संस्कार
इन सबको ध्यान
में रखकर
बोलना पड़ रहा
है।
इसलिए
जो बहुत उदार
हैं,
वे ही केवल
मेरी बात को
समझ सकेंगे।
जो उदार नहीं
हैं, अनुदार
हैं, मतांध
हैं, एक
संप्रदाय, एक
धारणा से बंधे
हैं वे तो
मुझसे नाराज
हो जाएंगे।
मैं किसी को
भी राजी नहीं
कर सकता क्योंकि
मुझे औरों को
भी ध्यान में
रखना है।
हिंदू
चाहेंगे कि
मैं सिर्फ वेद
की, उपनिषद
की, गीता
की बात करूं; कुरान और
बाइबिल को बीच
में न लाऊं तो
जरूर वे प्रसन्न
होंगे। लेकिन
यह समझौता मैं
नहीं कर सकता।
कुरान भी आएगी
और बाइबिल भी
आएगी और गुरु-ग्रंथ
भी आएगा और
धम्मपद भी
आएगा। ईसाई
चाहेंगे कि
मैं सिर्फ ईसा
पर ही बोलूं
और किसी पर न बोलूं
तो ईसाई राजी
हो जाएंगे।
लेकिन यह भी
मैं नहीं कर
सकता। जापान
में हुए झेन
फकीर मेरे लिए
उतने ही अपने
हैं जितने ईसा,
और चीन में
लाओत्सु और
च्वांगत्सु
और लीहत्सु
मेरे उतने ही
निकट हैं
जितने बुद्ध,
महावीर, कृष्ण,
कबीर।
यह
प्रयोग अनूठा
है। लेकिन यह
आज ही हो सकता
था,
इसके पहले
नहीं हो सकता
था। विज्ञान
ने, विज्ञान
से उत्पन्न टेक्नालाजी
ने पृथ्वी को
एक छोटा-सा
गांव बना दिया
है। पृथ्वी
बहुत छोटी-सी
हो गई है, लोग
बहुत करीब आ
गए। इतनी छोटी
पृथ्वी, और
लोगों का इतना
करीब आना पहले
नहीं हुआ था।
पता ही नहीं
था और लोगों
का, और लोग
भी हैं इससे
कोई संबंध न
था—अपना-अपना
कुआं था, अपनी-अपनी
भाषा थी।
इसलिए
मुझसे हिंदू
भी नाराज हो
जाएगा, ईसाई
भी नाराज हो
जाएगा, जैन
भी नाराज हो
जाएगा—अगर
नासमझ हुआ तो;
अगर समझदार
हुए तो तीनों
मुझसे राजी
होंगे, तीनों
मुझसे
प्रसन्न
होंगे। इस
बगिया में तो सारे
फूल खिलेंगे।
इस बगिया में
किसी का तिरस्कार
नहीं है।
लेकिन जहां
सारे फूल
खिलेंगे वहां
एक बात ख्याल
रखनी जरूरी है
कि किसी एक ही फूल
की मानकर नहीं
चला जा सकता।
सारे फूलों के
ढंग अलग हैं—चंपा
का अपना रंग
है अपना ढंग
है और गुलाब
का अपना रंग
अपना ढंग।
गुलाब को
आरोपित नहीं
किया जा सकता
चंपा पर और
चंपा को
आरोपित नहीं
किया जा सकता
गुलाब पर।
यहां किसी पर
किसी का आरोपण
नहीं होगा। यहां
प्रत्येक को
सुविधा
मिलेगी उसके आत्मविकास
की। इसलिए मैं
सारी
पद्धतियों पर
बोल रहा हूं।
निश्चित
ही सत्य
निरंजन, ऐसा
प्रयोग पहले
कभी नहीं हुआ
था लेकिन इसका
कारण यह नहीं
है कि बुद्धों
ने पहले ऐसा
प्रयोग न करना
चाहा होगा; करना भी
चाहा हो तो भी
करने का उपाय
नहीं था। प्रत्येक
चीज की श्रृंखला
होती है। जैसे
समझो, क्या
तुम सोचते हो
हवाई जहाज बन
सकता है ऐसे
देश में जहां बैलगाड़ी
भी न बनी हो? असंभव। बैलगाड़ी
हो, मोटरगाड़ी हो, रेलगाड़ी
हो, तभी
हवाई जहाज बन
सकता है। क्या
तुम सोचते हो जिस
देश में हवाई
जहाज भी न हो
उसमें
अंतरिक्ष-यान
बन सकते हैं? यह असंभव
है। हवाई जहाज
का तकनीक अब
अपनी परिपूर्णता
पर पहुंचेगा
तो
अंतरिक्ष-यान
बनेगा। जिस
देश में रेलगाड़ियां
न हों उस देश
के लोग चांद
पर नहीं पहुंच
सकते। हालांकि
रेलगाड़ियों
से चांद पर
नहीं जाया
जाता लेकिन
रेलगाड़ी उस श्रृंखला
की कड़ी है
जिसमें आगे
चलकर हवाई
जहाज बनेगा, अंतरिक्ष-यान
बनेगा और आदमी
चांद पर पहुंच
सकेगा।
चांद
पर तो आदमी
हमेशा से
पहुंचना
चाहता था। शायद
ही कोई समय
ऐसा रहा हो जब
आदमी चांद में
उत्सुक नहीं
था। चांद इतना
प्यारा लगा
है। चांद का
आकर्षण गहरा
है। सदियों से
कवियों ने
उसके गीत गाए
हैं। और
छोटे-छोटे
बच्चों ने भी
चांद को पकड़ने
के लिए हाथ बढ़ाए
हैं। लेकिन
चांद पर
पहुंचना आज
संभव हो सका, इसके
पहले संभव
नहीं हो सका
था। अब चांद
पर पहुंचना
संभव हुआ है
तो आज नहीं कल
हम दूसरे सौर परिवारों
में भी प्रवेश
कर जाएंगे। आज
नहीं कल हम
तारों पर भी
पहुंच
जाएंगे।
मगर यह
एक क्रम है, सीढ़ी
के सोपान होते
हैं। बुद्ध भी
चाहते थे कि
सारी दुनिया
उनकी बात समझ
ले। जो वे कर
सकते थे
उन्होंने
किया—गांव-गांव
घूमे, बयालीस
वर्ष सतत श्रम
किया। मगर
गांव-गांव घूमकर
कितने गांव
घूम सकते हो? गांव-गांव
घूमकर कितने
लोगों तक खबर
पहुंचा सकते
हो? रेडियो
नहीं था, टेलीविजन
नहीं था, अखबार
नहीं थे, छापेखाने नहीं थे, तो
गांव-गांव
घूमना पड़ा।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि आप
गांव-गांव
क्यों नहीं
घूमते? अगर
मैं गांव-गांव
घूमूं तो
मैं पागल हूं।
बुद्ध को
घूमना पड़ा
क्योंकि और
कोई उपाय न
था। मैं तो
यहां एक जगह
बैठकर सारी
दुनिया से
लोगों को बुला
ले सकता हूं, जरूरत नहीं
है गांव-गांव
घूमने की। और
गांव-गांव मैं
घूमूं तो
जो काम मैं एक
जगह बैठकर कर
सकता हूं, वह
नहीं हो
सकेगा।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि प्रचार
की क्या आवश्यकता
है?
बुद्ध ने तो
नहीं किया। तो
बुद्ध बयालीस
साल क्या करते
रहे, मक्खियां मारते रहे? हां, अखबार
में नहीं
प्रचार किया
क्योंकि
अखबार नहीं
थे। रेडियो और
टेलीविजन और
फिल्म नहीं
बनाई क्योंकि
नहीं बन सकती
थी। बन सकती
होती तो तुम
जैसे बुद्धू
नहीं थे कि
नहीं बनाते।
जो भी साधन
उपलब्ध हो
सकते थे सत्य
को पहुंचाने
के लिए
उन्होंने उनका
उपयोग किया।
अपने शिष्यों
को भेजा दूर-दूर
तक।
आज
विज्ञान ने
बहुत साधन
उपलब्ध कर दिए
हैं। उन सारे
साधनों का
उपयोग किया
जाना जरूरी
है। और मनुष्य
को एक बहुत
बड़ी संपदा आज
मिली है जो कभी
नहीं मिल सकती
थी पहले।
यहूदी और ईसाई
और जैन और
बौद्ध इन सबने
अलग-अलग, अपने-अपने
देशों में, अपनी-अपनी
धाराओं में,
अपने-अपने
ढंग से, जीवन-सत्य
को पाने के
लिए विधियां
खोजी थीं। आज
हम सारी
विधियों को
साथ अनुभव कर
सकते हैं, साथ
समझ सकते हैं।
आज सारी
विधियों का निचोड़
निकाल सकते
हैं। वही महत्
कार्य यहां हो
रहा है। यहां
सूफियों का
नृत्य हो रहा
है, बौद्ध
भिक्षु आता है
तो वह हैरान
होता है
क्योंकि
बौद्ध भिक्षु
तो सिर्फ
बैठकर ही
ध्यान करना
जानता है। उसे
यह पता ही
नहीं है कि
ध्यान नृत्य
करके भी हो
सकता है। और
जब सूफी फकीर
आता है तो वह
भी हैरान होता
है क्योंकि वह
सोचता है
सिर्फ नाचकर
ही ध्यान हो
सकता है।
लेकिन यहां
विपस्सना का प्रयोग
भी हो रहा है, लोग आंख बंद
किए घंटों
बैठे हुए हैं।
सूफी
समझ नहीं पाता
विपस्सना को, बौद्ध
समझ नहीं पाता
सूफी के दरवेश
नृत्य को। उदारता
चाहिए, बड़ा
दिल चाहिए, बड़ी छाती
चाहिए। इस
प्रयोग को
समझने के लिए
बड़ी गहरी समझ,
बड़ी शुद्ध
समझ चाहिए।
इसलिए यह
प्रयोग बहुत
थोड़े-से लोग
ही कर पाएंगे,
लेकिन वे धन्यभागी
होंगे जो इस
प्रयोग को कर
पाएंगे।
क्योंकि यही
प्रयोग
भविष्य की
आधारशिला
बनेगा, यही
प्रयोग
भविष्य के
मंदिर की पहली
ईंट है। जब
मंदिर की
आधारशिला रखी
जाती है तो
तुम्हें मंदिर
के शिखर तो
दिखाई नहीं
पड़ते; अभी
तो शिखर आए ही
नहीं, दिखाई
भी कैसे
पड़ेंगे। यह तो
बहुत
स्वप्नद्रष्टा
जो होते हैं, भविष्यद्रष्टा जो होते हैं—कवि
और मनीषी, वे
केवल देख
पाएंगे कि जो
आज ईंट रखी जा
रही है बुनियाद
की वह केवल
ईंट नहीं है, जल्दी ही उस
पर
स्वर्ण-शिखर चढ़ेंगे।
लेकिन
स्वर्ण-शिखरों
की बुनियाद
में ईंट होती
हैं।
और
ध्यान रखें कि
मंदिर सिर्फ
ईंट ही नहीं
होता, ईंटों
के जोड़ से कुछ
ज्यादा होता
है। कोई काव्य
सिर्फ शब्दों
का ही जोड़
नहीं होता, शब्दों के
जोड़ से ज्यादा
होता है। कोई
संगीत सिर्फ
स्वरों का जोड़
नहीं होता, स्वरों का
अतिक्रमण
होता है? जो
लोग बाहर-बाहर
से देखेंगे
उनको तो दिखाई
पड़ेगा कि क्या
हो रहा है? सिर्फ
ईंटें
रखी जा रही
हैं। अभी तो ईंटें रखी
जा रही हैं
लेकिन जल्दी
यह मंदिर
बनेगा, इस
पर
स्वर्ण-शिखर चढ़ेंगे।
और तब जिन
लोगों ने ईंट
रखी हैं उनके
आनंद का पारावार
न रहेगा; उनके
भी हाथ उपयोग
में आए इस
महत् मंदिर के
बनने की
प्रक्रिया
में।
बुद्ध
भी यही चाहते
थे,
महावीर भी
यही चाहते थे,
कृष्ण भी
यही चाहते थे;
लेकिन जो उस
समय हो सकता
था उन्होंने
किया, जो
आज हो सकता है
वह आज किया
जाएगा। लेकिन
इतने पर ही
अंत नहीं हो
जाता, मनुष्य
तो विकासमान
है, रोज
विकसित होता
रहेगा; भविष्य
में बुद्ध आते
रहेंगे और इस
मंदिर के नए-नए
रूप प्रगट
होते रहेंगे।
इस मंदिर पर
ही कोई यात्रा
समाप्त नहीं
हो जाने वाली
है। इसलिए
सच्चा
धार्मिक आदमी
नए मंदिरों को
अंगीकार करने
की क्षमता
रखता है। ये
तो झूठे
धार्मिक आदमी
हैं जो नए
मंदिर को इनकार
करते हैं, जो
पुराने की ही
पूजा करते हैं,
जो मुर्दा
की ही पूजा
करते हैं।
स्मरण
है,
कल भीखा ने
कहा : धन्यभागी
हैं जो जीवित
ब्रह्म की
वाणी को समझ
लें। बहुत
आसान है
सदियों के बाद
सद्गुरुओं
को समझना
क्योंकि तब तक
उनके पीछे
परंपरा, इतिहास,
पुराण की
लंबी धारा खड़ी
हो जाती है।
लेकिन जब कोई
सद्गुरु पहली
बार खड़ा होता
है तो उसके
पीछे कोई
परंपरा नहीं होती,
वह
अपरिभाष्य
होता है। उसे
किस कोटि में
रखें, किस
गणना में रखें
यह भी समझ में
नहीं आता। उसे
क्या कहें यह
भी समझ में
नहीं आता।
उसके लिए अभी
भाषा भी नहीं
है, शब्द
भी नहीं है; परिभाषा भी
नहीं है, व्याख्या
भी नहीं है।
धीरे-धीरे
व्याख्या खोजी
जाएगी, परिभाषा
खोजी जाएगी।
लेकिन समय
लगेगा। और तब तक
सद्गुरु विदा
हो जाता है।
तब तक पिंजड़ा
पड़ा रह जाता
है, हंसा
उड़ जाता है।
जिनके
पास आंखें हैं
वे इन छोटी
बातों में नहीं
पड़ते कि व्याख्या, परिभाषा,
कोटि। वे तो
सीधे आंख में
आंख डालकर
देखने की चेष्टा
करते हैं, वे
तो सीधे
प्रयोग में
सम्मिलित हो
जाते हैं। वैसा
प्रयोग ही
संन्यास है।
संन्यास का
अर्थ है : तुम
बिना चिंता
किए मेरे साथ
अज्ञात में
उतरने को
तैयार हो। तुम
जोखिम उठा रहे
हो, तुम
मेरे साथ एक
नाव में उतर
रहे हो जो
अज्ञात सागर
में जाएगी।
दूसरे किनारे
का कोई पता
नहीं है और दूसरे
किनारे का कोई
आश्वासन भी
नहीं दिया जा सकता।
यह यात्रा ऐसी
है कि इसमें
आश्वासन होते
ही नहीं।
इसमें
आश्वासन दिए
कि यात्रा
खराब हुई
क्योंकि
आश्वासन से
अपेक्षा पैदा होती
है। और जहां
अपेक्षा है
वहां वासना
है। और जहां
वासना है वहां
प्रार्थना
नहीं।
सत्य
निरंजन, एक
अनूठा यज्ञ हो
रहा है यह, इसमें
जितने
भागीदार बन
सको, जितनों
को भागीदार
बना सको बनाओ—प्रीति
से पुकारो,
प्रार्थना
से निमंत्रण
दो। पीछे तो
लोग बहुत पछताते
हैं मगर पीछे
पछताने से कुछ
भी नहीं होता—जब
फूल खिला हो
तब उसके साथ
नाच लो, और
जब दीया जला
हो तब अपना
दीया भी जला
लो। तुमने तो
जोड़ दिया है
स्वयं को
मुझसे, इतने
से ही तृप्त
नहीं हो जाना
है—और भी हैं
प्यासे बहुत,
और भी हैं
अभीप्सु बहुत,
मुमुक्षु
बहुत, उन
तक भी खबर पहुंचानी
है।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान!
क्या भाग्य को
मानना हर
स्थिति में
बुरा है?
हर
स्थिति में न
तो कोई चीज
अच्छी होती है
और न कोई चीज
बुरी होती है।
स्थितियां
होती हैं जब
जहर भी अच्छा
होता है
क्योंकि ऐसी
बीमारियां
हैं जिनमें
जहर औषधि है।
और स्थितियां
है जब शायद
अमृत भी घातक
हो क्योंकि
ऐसी
बीमारियां हो
सकती हैं जब
कुछ भी शरीर
में ले जाना
महंगा सौदा हो
जाए—अमृत भी।
ऐसी
बीमारियां
हैं जबकि
उपवास ही स्वास्थ्य
का द्वार
बनेगा, उस
समय अमृत भी
मत पीना।
जीवन
में कोई चीज
इस तरह जड़ रूप
से थिर नहीं
है और हम
अक्सर यही करते
हैं । हम
चाहते हैं
लेबल—फलां चीज
बुरी है, जैसे
भाग्य। मुझसे
लोग पूछते हैं,
ठीक-ठीक कह
दें, भाग्य
को मानना ठीक
है या गलत?
भाग्य
को ठीक ढंग से
भी माना जा
सकता है तब
उसका बड़ा
उपयोग है, और
भाग्य को गलत
ढंग से भी
माना जा सकता
है तब उसका
बड़ा दुरुपयोग
है। सौ में से
निन्यानबे
गलत ढंग से ही
मानते हैं
क्योंकि सौ
में से
निन्यानबे जो
भी करते हैं
वे गलत करते
हैं। भाग्य का
ही सवाल नहीं
है। सौ में से
निन्यानबे की
भाग्य की
धारणा क्या है?
उनकी धारणा
यह है कि सब टालों
परमात्मा पर।
इस टालने के
पीछे आलस्य है,
सुस्ती है,
अकर्मण्यता
है—हम क्या
करें, भाग्य
में ही नहीं
है। इसलिए
बैठे रहेंगे।
इस
धारणा ने ही
पूरब के देशों
को दरिद्र
बनाया, दीन
बनाया, भिखमंगा
बनाया। हम
क्या करें, भगवान ने जो
लिखा है माथे
पर वही होकर
रहेगा। उसके
बिना इशारे के
पत्ता नहीं
हिलता तो हमारे
किए क्या होना
है? और
उसने तो हर
दाने-दाने पर
खाने वाले का
नाम लिख दिया
है, तो हम
कुछ करें या न
करें, जिस
दाने पर हमारा
नाम है वह तो
मिलेगा ही। यह
तो बड़ी गलत
धारणा है।
पश्चिम
के देश समृद्ध
होते चले गए
क्योंकि उन्होंने
भाग्य की ऐसी
धारणा नहीं
मानी—उन्होंने
धन भी पैदा
किया, भोजन भी
पैदा किया, सुविधाएं भी
पैदा कीं। आज
पश्चिम ने उन
सारी सुविधाओं
को उत्पन्न कर
लिया है जिनकी
हमने स्वर्ग
में कल्पना की
है। हम सिर्फ
स्वर्ग में ही
कल्पना कर
सकते हैं।
यहां तो हम
किसी तरह सह रहे
हैं। यह तो
थोड़ा समय है
जो व्यतीत कर
देना है। यह
जगत तो धर्मशाला
है, रात-भर
रुकना है, कौन
फिक्र करे, कौन चिंता
ले! यह तो
रेलवे स्टेशन
का प्लेटफार्म
है, यहां
केले के छिलके
भी फेंको, मूंगफली
के छिलके भी
फेंको, पान
को भी यहीं
थूक दो। अपना
लेना-देना
क्या है? अपनी
गाड़ी आई, हम
तो गए फिर जो
पीछे आएंगे वे
जानें, वे
समझें। जो
पीछे आते हैं
उनको भी क्या
पड़ी है।
देश
गंदा होता चला
गया,
दीन होता
गया, दुर्बल
होता गया, गुलाम
होता गया।
हमने गुलामी
को स्वीकार कर
लिया भाग्य के
कारण। दुनिया
का कोई देश
इतने लंबे समय
तक गुलाम नहीं
रहा, इतना
बड़ा देश!
क्यों
छोटी-छोटी कौमें
आयीं और
इसे गुलाम बना
सकीं? बड़ी-छोटी
कौमें—हूण,
मुगल, तातार—छोटी-छोटी
कौमें
जिनकी कोई
हैसियत न थी, जिनको यह
देश मुट्ठी
में ले सकता
था; इस बड़े
देश को ये
छोटी-छोटी कौमें
आती रहीं और
इस पर कब्जा
करती रहीं।
मगर हमारी
धारणा थी कि
यही इरादा
होगा भगवान का,
यही हमारे
भाग्य में लिखा
होगा। गुलामी
बदी है तो
गुलामी
भोगेंगे।
यह तो
भाग्य की गलत
धारणा है।
लेकिन भाग्य
की एक ठीक
धारणा भी है।
जिन्होंने दी
थी,
ज्ञानियों
ने, उन्होंने
ठीक धारणा दी
थी। मगर
मुश्किल यही है
कि ज्ञानी कुछ
देते हैं, अज्ञानी
कुछ समझते
हैं। ज्ञानी
की भाग्य की धारणा
क्या है? अकर्मण्यता
नहीं—परिपूर्ण
कर्मण्यता
लेकिन
फलाकांक्षा
से मुक्ति।
ज़रा
भेद समझ लो, अज्ञानी
की भाग्य की
धारणा है, कर्म
से मुक्ति, ज्ञानी की
भाग्य की
धारणा है
फलाकांक्षा
से मुक्ति।
कर्म तो
करेंगे लेकिन
फल उस पर. . .!
अज्ञानी कहता
है : कर्म ही
क्यों करें? जब फल ही उस
पर है तो कर्म
भी उस फर। बोएं
ही क्यों बीज?
जब फल ही उस
पर है तो
वृक्ष भी उसी
पर, बीज भी
उसी पर, खेती-बाड़ी
भी उसी पर
ज्ञानी कहता
है : बीज तो बोओ,
खेती-बाड़ी
भी करो, वृक्ष
णको बड़ा
करो, हरा-भरा
करो, खाद
दो, रक्षा
करो, फिर
भी इतना ध्यान
रखो अगर फल न
आएं तो
विषादग्रस्त
मत होना। फल आ
जाएं तो अहंकारग्रस्त
मत होना। फल आ
जाएं तो
चिल्लाते मत
फिरना कि मैंने
देखो कैसे फल उगाए।
तुम
उगाने वाले
नहीं हो, उगाने
वाला तो वही
है। अगर तुम
उगाने वाले
होते तो फिर
नीम में भी
तुम आम लगा
लेते। तुम
उगाने वाले
नहीं हो, उगाने
वाला तो वही
है। और अगर फल
न आएं तो रोते
मत फिरना ।
तुमने अपना
श्रम पूरा
किया, तुमने
कोई कोर-कसर न
रखी, फिर
अगर फल न आएं, उसकी मर्जी।
तो शायद इस फल
के न आने में
भीत तुम्हारे
लिए कोई
शिक्षण है। इस
फल के न आने
में भी शायद
संतोष की कोई
शिक्षा है।
अगर
कर्म तो बचे
और
फलाकांक्षा
चली जाए तो
यही संन्यास है।
कृष्ण ने
अर्जुन को
इतनी ही बात
कही कि कर्म
तो तू कर
लेकिन
फलाकांक्षा न
कर,
फल उस पर
छोड़। तू फल की
चिंता मत कर—जीतेगा
या हारेगा, यह वह जाने; मगर लड़ेगा, यह तू जान।
उठा गांडीव, युद्ध में
जूझ। तू
क्षत्रिय है,
तेरा
स्वभाव
क्षत्रिय है,
तू अपने
स्वभाव को
अभिव्यक्त कर,
फिर जो
परिणाम हो।
परिणाम हमारे
हाथ में नहीं है।
क्यों
परिणाम हमारे
हाथ में नहीं
है?
क्योंकि
परिणाम विराट
के हाथ में
है। यह अस्तित्व
बहुत विराट
है। यहां सब
चीजें
संयुक्त हैं।
तुमने बीज बोए
यह ठीक, तुमने
खेती-बाड़ी की
यह ठीक, मगर
हो सकता है
बाढ़ आ जाए, खेत
बह जाए, हो
सकता है वर्षा
ही न हो, पौधे
सूख जाएं, हो
सकता है कीड़े
लग जाएं, हजार-हजार
संभावनाएं
हैं। और यह
विराट जगत है,
इस विराट
जगत की सारी
संभावनाओं से
हम अपने को
बचा नहीं
सकते। हम सारी
बचाने की
चेष्टा करें
तो भी बहुत-सी
संभावनाएं
शेष रह जाती
हैं जिनका
हमें अंदाज भी
नहीं होगा, जिनका हमें
ख्याल भी नहीं
होगा।
जैसे
पश्चिम में
बड़ी कर्मठता
है मगर
फलाकांक्षा
की पकड़ भी है
उतनी ही। तो
अगर कोई आदमी
हार जाता है
तो तीसवीं
मंजिल से
कूदकर
आत्महत्या कर
लेता है। अगर
धंधे में
नुकसान लग गया, गोली
मार ली। सब
अपने सिर ले
लिया है। अगर
किसी स्त्री
से प्रेम हुआ
और उसने विवाह
न किया, फांसी
लगा ली, जहर
खा लिया।
फलाकांक्षा
पर पकड़ है।
पश्चिम में
कर्मठता तो
अच्छी है
लेकिन
फलाकांक्षा
पर जो पकड़ है
उसके कारण
बहुत विषाद, बहुत
विक्षिप्तता,
बहुत चिंता....पूरब
में
फलाकांक्षा
भी उस पर हमने
छोड़ दी है, कर्म
भी उसी पर छोड़
दिया है। कर्म
छोड़ देने के कारण
बड़ी दीनता, बड़ी
दरिद्रता, बड़ी
गरीबी, बड़ी
बीमारी। पूरब
भी सड़ रहा
है, पश्चिम
भी सड़ रहा
है। दोनों ने
ही एक अर्थ
में गलत
व्याख्या कर
ली है।
मैं
चाहता हूं कि
तुम कर्म के
संबंध में तो
पश्चिम की बात
को ठीक समझो
और पकड़ो; और फल
के संबंध में
पूरब की बात
को ठीक से
समझो और पकड़ो,
तो
तुम्हारे
भीतर एक नए
मनुष्य का
जन्म होगा, जो न तो पूरब
का होगा, न
पश्चिम का
होगा, जो
सिर्फ बोध से
भरा होगा। जो
पूरब का भी
लाभ ले लेगा
और पश्चिम का
भी लाभ ले
लेगा।
यदि
धर्म निज
निभते चलें,
यदि
कर्म निज
निभते चलें,
यदि
मर्म निज
निभते चलें,
फल
के निए
फिर भाग्य पर
संतोष बहुत
बुरा नहीं!
यह
दोष बहुत बुरा
नहीं!
अन्याय
जग का देखकर,
हो
जाए कंपित
स्वर-प्रखर,
जो
क्रांति कर दे
विश्व में, वह
रोष बहुत बुरा
नहीं!
यह
दोष बहुत बुरा
नहीं!
मिटता
मिटाता जो बढ़े,
जग
से लड़े, मन
से लड़े,
आदर्श
पर दृढ़ हो अड़े,
सच
पर पतिंगे-सा
जले, मदहोश
बहुत बुरा
नहीं!
यह
दोष बहुत बुरा
नहीं!
जो
समझदार हैं वे
दोषों से भी
अलंकृत हो
जाते हैं।
जैसे जीसस ने
मंदिर में कोड़ा
उठा लिया और
मंदिर के भीतर
जो ब्याजखोरों
ने दुकानें
खोल रखी थीं, उनके
तख्ते उलट दिए;
एक ऐसा कोड़ा
चलाया कि
ब्याजखोर
मंदिर से
भागकर बाहर हो
गए। एक अकेले
आदमी ने
बहुत-से ब्याजखोरों
को मंदिर के
बाहर कर दिया।
इस तरह की
प्रज्वलित
चेतना....चाहो
तो तुम यह भी
कह सकते हो : यह
तो क्रोध है, यह तो रोष है,
यह तो बुद्धपुरुष
को शोभा नहीं
देता। लेकिन
तुम कौन हो बुद्धपुरुष
की परिभाषा
करने वाले? बुद्धपुरुष को क्या
शोभा देगा और
क्या शोभा
नहीं देगा, यह तो
प्रतिपल
निर्णीत होता
है, इसकी
कोई
पूर्व-धारणा
नहीं होती।अन्याय
जग का देखकर, वर्षो रहे
गुमसुम अधर,
हो
जाए कंपित
स्वर-प्रखर,
जो
क्रांति कर दे
विश्व में, वह
रोष बहुत बुरा
नहीं!
यह
दोष बहुत बुरा
नहीं!
जीसस
जैसा व्यक्ति
अगर रोष में आ
जाए तो यह बुरी
बात नहीं; अगर
जीसस जैसा
व्यक्ति
प्रज्वलित हो
जाए तो यह
बुरी बात नहीं—यह
बात भली है, यह शुभ है।
सब तुम्हारे
चैतन्य पर
निर्भर है।
तुम
पूछते हो, क्या
भाग्य को
मानना हर
स्थिति में
बुरा है? ज्ञान
चैतन्य, हर
स्थिति में
कोई चीज बुरी
नहीं है, कोई
चीज भली नहीं
है।
स्थिति-स्थिति
में निर्णय
होता है।
कल ही
किसी ने पूछा
था,
सिक्ख
गुरुओं ने
तलवार उठाई, क्या यह
उचित है? उस
स्थिति में
उचित था, बिल्कुल
उचित था। और
हमारी तकलीफ
यह है कि हम स्थिति
तो भूल जाते
हैं, सिर्फ
घटना याद रह
जाती है। और
हम घटना को ही
सीधी
सोचने लगते
हैं,
स्थिति की
पृष्ठभूमि को
छोड़कर।
मुहम्मद ने तलवार
उठाई, यह
बिल्कुल ठीक
था। और बुद्ध
ने तलवार नहीं
उठाई, यह
बिल्कुल ठीक
था। और महावीर
पत्थरों को
चुपचाप खा गए,
पी गए, यह
भी बिल्कुल
ठीक था। उन सब
की स्थितियां
अलग थीं। और स्थितियां
रोज बदल जाती
हैं और बुद्धपुरुष
स्थिति के
अनुकूल, स्थिति
की चुनौती को
देखकर
व्यवहार करता
है।
जरूर
बुद्धों ने
कहा है : सब
उसके हाथ में
छोड़ दो। लेकिन
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
उन्होंने कहा, तुम
कुछ भी न करो।
उन्होंने कहा
है : तुम जो कुछ
कर सकते हो
करो, फिर
भी सब उसके
हाथ में छोड़
दो। करो तो
जरूर लेकिन
कर्ता न बनो—यह
भाग्य की
मौलिक धारणा
है। कर्ता न
बनो, कर्ता
बनोगे तो
चिंता पकड़ेगी—हारोगे
तो मुश्किल, जीतोगे तो
मुश्किल। जीतोगे
तो अहंकार
बढ़ेगा। और
अहंकार भयंकर
बोझ है, रोग
है, उपाधि
है। और अगर
हारे तो हीनता
बढ़ेगी, मन में
ग्लानि पैदा
होगी। पराजित
चित्त बहुत तरह
की
परेशानियों
से भर जाएगा, टूट जाएगा, फूट जाएगा, खंडित हो
जाएगा, बस
मरने का ही
उपाय सूझेगा,
आत्महत्या
सूझेगी।
पश्चिम
में लोग बहुत आत्महत्याएं
करते हैं।
पश्चिम में
बहुत लोग
विक्षिप्त होते
हैं।
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं
कि कम-से-कम
चार आदमियों
में तीन
आदमियों के
मस्तिष्क डावांडोल
हैं। यह तो
छोटी संख्या न
हुई। चार
आदमियों में
तीन आदमियों
के मस्तिष्क
अगर संदिग्ध हैं
तो चौथे का भी
बहुत ज्यादा
भरोसा नहीं।
कितनी देर
भरोसा रखोगे
चौथे का? ये
तीन मिलकर
चौथे को भी
पगला देंगे।
ये तीन काफी
हैं चौथे को
पागल करने के
लिए। पश्चिम
में क्यों
विक्षिप्तता
है? इसीलिए
कि कर्ता का
भाव और फलाकांक्षा।
और पूरब में
कैसी भी
स्थिति हो—सड़ते
रहो नालियों
में, तो भी
आदमी जी रहा
है; गलते
रहो, तो भी
जी रहा है।
क्या कर सकते
हैं, भाग्य
में जो लिखा
है!
पूरब
में एक तरह की
मृत्यु छा गई
है और पश्चिम में
एक तरह की
विक्षिप्तता।
दोनों ही
रुग्ण अवस्थाएं
हैं। दोनों के
पार उठना है।
कोई संतुलित
मार्ग खोजना
है,
कोई मज्झिम
निकाय, कोई
मध्य का
मार्ग। जैसे
कि रस्सी पर
नट चलता है, कभी बाएं
झुकता थोड़ा, कभी दाएं
झुकता; मगर
बाएं-दाएं
झुकने के लिए
नहीं झुकता, बाएं-दाएं
झुकता है ताकि
बीच में बना
रहे।
ठीक नट
की तरह जीवन
की कला है।
कर्म को तो
तुम पूरा करो
और कर्म के फल
को तुम परमात्मा
पर छोड़ दो।
फिर देखो
तुम्हारे
जीवन में कैसे
आनंद के फूल
खिलते हैं।
फिर तुम देखोगे
कि तुम्हारे
जीवन में एक
विनम्रता है, एक
अहोभाव है। जो
भी मिलता है, वह प्रसाद
है; तुम्हारे
अहंकार की
पुष्टि नहीं,
परमात्मा
की भेंट है।
और जो भी नहीं
मिलता, वह
भी प्रसाद है
क्योंकि
जरूरत हो सकती
है इस समय, यही
जरूरत हो सकती
है तुम्हारी
कि तुम्हें न
मिले।
एक
सूफी फकीर रोज
संध्या
परमात्मा को
धन्यवाद देता
था कि हे
प्रभु! तेरी
कृपा का कोई
पारावार नहीं, तेरी
अनुकंपा अपार
है! मेरी जो भी
जरूरत होती है
तू सदा पूरी
कर देता है। उसके
शिष्यों को यह
बात जंचती
नहीं थी
क्योंकि कई
बार जरूरतें
दिन-भर पूरी नहीं
होती थीं, और
फिर भी
धन्यवाद वह
यही देता था।
मगर एक बार तो
बात बहुत बढ़
गयी, शिष्यों
से रहा न गया।
वे हज-यात्रा
को गए थे गुरु
के साथ। तीन
दिन तक
रास्तों में
ऐसे गांव मिले
जिन्होंने न
तो उन्हें
भीतर घुसने
दिया, न
ठहरने दिया।
सूफी फकीरों को
मुसलमान
बर्दाश्त
नहीं करते, असल
में सच्चे
फकीर कहीं भी
बर्दाश्त
नहीं किए
जाते।
क्योंकि
सच्चे फकीरों
की सच्चाई
लोगों को
काटती है।
उनकी सच्चाई
से लोगों के झूठ
नंगे हो जाते
हैं। उनकी
सच्चाई से
लोगों के
मुखौटे गिर
जाते हैं। तो
तीन गांव, तीन
दिन तक रास्ते
में पड़े, उन्होंने
ठहरने नहीं
दिया, रात
रुकने नहीं
दिया।
भोजन-पानी तो
दूर गांव के
भीतर प्रवेश
भी नहीं दिया।
और रेगिस्तान
की यात्रा, तीन दिन न
भोजन मिला, न पानी, हालत
बड़ी खराब। और
रोज संध्या वह
धन्यवाद जारी
रहा।
तीसरे
दिन शिष्यों
ने कहा कि अब
बहुत हो गया। जैसे
ही फकीर ने
कहा : "हे
प्रभु! तेरी
कृपा अपार है, तेरी
अनुकंपा महान
है; तू
मेरी जरूरतें
हमेशा पूरी कर
देता है।" तो शिष्यों
ने कहा : "अब ज़रा
जरूरत से
ज्यादा बात हो
गई। हम दो दिन
से बर्दाश्त
कर रहे हैं
लेकिन अब हम
बर्दाश्त
नहीं कर सकते।
न पानी, न
रोटी, न
सोने की जगह—क्या
खाक धन्यवाद
दे रहे हो!
कौन-सी जरूरत
पूरी की? हमने
तो नहीं देखी,
कोई जरूरत
पूरी हुई हो।"
उस
फकीर ने आंखें
खोलीं, उसकी
आंखों से आनंद
अश्रु बह रहे
हैं, वह
हंसने लगा।
उसने कहा : तुम
समझे नहीं।
तीन दिन हमारी
यही जरूरत थी
कि न हमको
भोजन मिले, न पानी मिले,
न ठहरने का
स्थान मिले।
क्योंकि वह जो
करता है, वह
निश्चित ही
हमारी जरूरत
होगी, कसौटी
ले रहा है, परीक्षा
ले रहा है।
धन्यवाद में
कमी नहीं पड़ सकती।
उस फकीर ने
कहा : वह
धन्यवाद क्या—जिस
दिन रोटी मिली
उस दिन
धन्यवाद दिया
और जिस दिन
नहीं मिली
रोटी उस दिन
धन्यवाद न
दिया—वह
धन्यवाद क्या?
जिसके
हाथों से हमने
प्यारे फल खाए,
उसके हाथों
से कड़वे
फल भी स्वीकार
होने चाहिए।
अगर कड़वे
फल दे रहा है
तो जरूर कुछ
इरादा होगा।
जो
व्यक्ति
परमात्मा पर
सारे फल छोड़
देता है उसके
जीवन में
चिंता नहीं हो
सकती। यह सूफी
फकीर कभी पागल
नहीं हो सकता।
असंभव, इसे
कैसे पागल
करोगे? यह
चिंतित नहीं
हो सकता, इसे
कैसे चिंतित
करोगे? इसके
भीतर सदा ही
गहन शांति बनी
रहेगी, अखंड
ज्योति जलती
रहेगी। लेकिन
उपक्रम जारी
है। दूसरे दिन
सुबह फिर
दूसरे द्वार
पर गांव के
दस्तक दी....उपक्रम
जारी है—फि१३२र
शरण मांगी
जाएगी, फिर
भोजन मांगा
जाएगा, फिर
पानी मांगा
जाएगा।
उपक्रम जारी
है। क्रम जारी
रहे, श्रम
जारी रहे और
फलाकांक्षा
परमात्मा के
हाथ में हो; तो तुम्हारे
जीवन में अद्भुत
समन्वय पैदा
हो जाता है।
यदि
धर्म निज
निभते चलें,
यदि
कर्म निज
निभते चलें, यदि
मर्म निज
निभते चलें,
फल
के लिए फिर
भाग्य पर, संतोष
बहुत बुरा
नहीं!
यह
दोष बहुत बुरा
नहीं!
मिटता
मिटाता जो बढ़े,
जग
से लड़े, मन
से लड़े,
आदर्श
पर दृढ़ हो अड़े,
सच
पर पतिंगे-सा
जले, मदहोश
बहुत बुरा
नहीं!
यह
दोष बहुत बुरा
नहीं!
अगर
तुम सत्य के
लिए पतंगे
की तरह भी जल
जाओ तो यह
मदहोशी भी
बुरी नहीं, यह
बेहोशी भी
बुरी नहीं, यह पागलपन
भी बुरा नहीं।
अगर तुम पतंगे
की तरह दीवाने
हो जाओ और
सत्य की
ज्योति पर अपने
को न्योछावर
कर दो तो यह
न्योछावर हो
जाना भी बुरा
नहीं, यह
सौदा भी बुरा
नहीं।
परिस्थिति और
उस परिस्थिति
में जागरूकतापूर्वक
व्यवहार, फिर
सब ठीक है। और
यह तय करके
कभी न चलना कि
क्या ठीक है
और क्या गलत
है। अगर तुमने
पहले से ही तय
कर लिया तो
तुम कभी भी
परिस्थिति के
अनुकूल
व्यवहार न कर
सकोगे। और जब
भी तुम
परिस्थिति के
अनुकूल
व्यवहार न
करोगे, तभी
तुम्हारी
जिंदगी में
विकास
अवरुद्ध हो जाएगा।
और यही हो रहा
है। लोगों के
पास बंधे-बंधाए,
रेडिमेड उत्तर हैं।
जिंदगी रोज नई
है और उनके
उत्तर पुराने
हैं। इसलिए न
उनके उत्तरों
से जिंदगी का
मेल होता, न
जिंदगी से
उनके उत्तरों
का मेल होता।
वे हमेशा
ट्रेन चूकते
ही चले जाते—वे
जब तक
भागे-भागे
पहुंचते हैं
प्लेटफार्म पर,
ट्रेन छूट
जाती है।
उन्हें
जिंदगी में
कभी कुछ नहीं
मिलता। मिल ही
नहीं सकता।
झेन
कहानी है। दो
मंदिर एक गांव
में। दोनों मंदिरों
में विरोध है
जैसा कि
मंदिरों में
आमतौर पर होता
है। झगड़ा
है पुराना। झगड़ा ऐसा
है कि दोनों
मंदिरों के
पंडित-पुरोहित
एक-दूसरे से
बोलते भी नहीं; बोलना
तो दूर
एक-दूसरे की
छाया से भी
दूर रहते हैं।
रास्ते पर
एक-दूसरे को
काटते भी नहीं,
बचकर खड़े हो
जाते हैं।
दोनों
पुरोहितों के
पास दो
छोटे-छोटे
लड़के हैं जो
उनका छोटा-मोटा
काम करते हैं—बाजार
से सब्जी ले
आना, कि
कुएं से पानी
ले आना, कि
बुहारी लगा
देना। बच्चे
तो आखिर बच्चे
हैं, अभी
इतने बूढ़े
नहीं हुए हैं
कि झगड़े-झांसे
में पड़ें।
कभी-कभी
रास्ते पर मिल
जाते हैं तो गपशप
भी हो जाती
है। लेकिन
उनके
पुरोहितों को
यह पसंद नहीं।
तो पहले मंदिर
के पुरोहित ने
अपने बच्चे को
कहा कि देख, ख्याल रख, अगर दूसरे
मंदिर का
बच्चा रास्ते
पर मिले तो आंख
बचाकर निकल
आना, मुंह
मोड़ लेना।
उनसे हमारी
पुश्तैनी
दुश्मनी है, सदियों से
दुश्मनी चल
रही है।
दूसरे
ने भी कह दिया
था कि दूसरे
मंदिर के बच्चे
से बातचीत मत
करना। लेकिन
बच्चे आखिर
बच्चे हैं! एक
सुबह दोनों
रास्ते पर मिल
गए। पहले मंदिर
के बच्चे ने
दूसरे मंदिर
के बच्चे से
पूछा : कहां जा
रहे हो?
ज्ञान
की बातें
सुनता था, मंदिर
में बड़ी-बड़ी
बातें होती
थीं, बड़ी
ऊंची। उसने
कहा : कहां जा
रहा हूं! जहां हवाएं ले
जाएं; आदमी
के वश में
क्या है? सुनी
होगी ज्ञान की
चर्चा कोई, याद आ गई कि
आदमी के वश
में क्या है, जहां हवाएं
ले जाएं। अरे
आदमी तो सूखा
पत्ता है, जहां
हवाएं ले
जाएं।
पहला
बच्चा सकते
में आ गया।
उसने यह आशा
नहीं की थी कि
इतने ऊंचे
ज्ञान की बात
कही जाएगी। उसकी
कुछ समझ में
ही नहीं आया
कि अब क्या
कहे। सोचा कि
मैंने भी कहां
सवाल पूछ
लिया। मेरे गुरु
ने ठीक ही कहा
था कि उस
बच्चे से बात
मत करना। ये
हैं दुष्ट, ये
हैं ही बुरे
आदमी। बोलो
मैं पूछ रहा
हूं कहां जा
रहे हो, और
यह दर्शन झाड़
रहा है!
लौटकर
उसने अपने
गुरु को कहा
कि क्षमा करना, आपने
मना किया फिर
भी मैंने भूल
की और उससे पूछ
लिया। मगर
उसको जवाब
देकर ठीक करना
जरूरी है।
विवाद में मैं
हार जाऊं यह
ठीक भी नहीं, मंदिर की
प्रतिष्ठा का
सवाल है।
मैंने तो सीधा-सा
सवाल पूछा था—कहां
जा रहे हो? वह
एकदम
दर्शनशास्त्र
झाड़ने
लगा। वह कहने
लगा कि आदमी
तो सूखा पत्ता
है, हवाएं जहां ले
जाएं। मेरी
कुछ समझ में न
आया कि मैं क्या
उत्तर दूं।
उसके
गुरु ने कहा :
कल फिर उसी
जगह जाकर खड़े
हो जाना। फिर
उससे पूछना कि
कहां जा रहे
हो और जब वह
कहे कि सूखा
पत्ता है
मनुष्य, हवाएं जहां ले
जाएं। तो कहना,
और अगर हवाएं
बंद हों, अभी
न चल रही हों
फिर क्या होगा?
बस उसकी
जबान बंद हो
जाएगी।
तैयार
होकर बिल्कुल
याद करके, कई
बार दोहराकर
कि अगर हवाएं
न चल रही हों
फिर बच्चू,
फिर क्या
करेगा? फिर
कहां जाओगे? जाकर खड़ा हो
गया झाड़ के
नीचे , दोहराता
रहा, दोहराता
रहा जब तक
दूसरा न आ जाए
। पास आता दिखा
तो उसने फिर दोहराकर
अपने को ताजा
कर लिया। जैसा
कि पंडित
आमतौर से करते
हैं। बच्चा
पास आया, उसने
अकड़ से पूछा
कि कहां जा
रहे हो?
उस
बच्चे ने कहा :
जहां पैर ले
जाएं। अब बड़ी
मुश्किल खड़ी हो
गयी। अब यह
उत्तर देना कि
अगर हवाएं
न चल रही हों
फिर क्या
करोगे? अब
बिल्कुल
बेकार हो गया।
उसने कहा : ये
तो बेईमान
पक्के हैं, ये मंदिर के
लोग सच में
बेईमान हैं।
इतने जल्दी
बदल गया! कोई
निष्ठा होनी
चाहिए, कोई
श्रद्धा, कोई
आस्था। अरे जब
एक दफा कह
दिया तो कह
दिया, फिर
उस पर दृढ़
रहना चाहिए।
लौटकर
अपने गुरु से
कहा कि आप ठीक
कहते हैं, उस
मंदिर के
लोगों से बात
करना ठीक नहीं
लेकिन एक दफा
तो जवाब उसे
देना जरूरी
है। आज वह तो
बदल ही गया।
वह कहने लगा
जहां पैर ले
जाएं।
गुरु
ने कहा कि तू
उससे कहना कल
खड़े होकर कि
कई लोग लंगड़े
भी होते हैं।
और भगवान न
करे कि कभी तू लंगड़ा हो
जाए। अगर लंगड़ा
हो गया फिर
क्या करेगा? अगर
पैर न चले फिर
कहां जाएगा?
लड़के
ने कहा : हां, यह
बात ठीक। मुझे
वक्त पर सूझी
नहीं। फिर
तैयार होकर
खड़ा हो गया।
फिर पूछा :
कहां जा रहे
हो? उस
लड़के ने कहा :
बाजार सब्जी
लेने जा रहा
हूं।
बंधे-बंधाए
उत्तर काम
नहीं आते; जिंदगी
रोज बदल जाती
है। और तुम सब
बंधे-बंधाए
उत्तर लिए
बैठे हो।
तुम्हारे
उत्तर इतने
ज्यादा जड़ हो
गए हैं कि तुम
देखते ही नहीं
कि जीवन रोज
बदला जा रहा
है और तुम
अपने बंधे-बंधाए
उत्तर दोहराए
जा रहे हो।
तुमसे कुछ
जिंदगी पूछ
रही है, तुम
कुछ उत्तर दे
रहे हो।
नहीं, कोई
चीज न तो सही
है सदा, न
कोई चीज गलत
है सदा।
महावीर ने इसे
स्याद्वाद
कहा था, और
अल्बर्ट आंइस्टीन
ने इसे
सापेक्षवाद
कहा है।
महावीर ने
ध्यान से
स्याद्वाद को
उपलब्ध किया
था और अल्बर्ट
आइंस्स्टीन
ने वैज्ञानिक
प्रयोगों से
सापेक्षवाद
को उपलब्ध किया
है। लेकिन यह
मनुष्यजाति
की बड़ी संपदा
है। कोई चीज
तय नहीं है।
हर परिस्थिति
में संदर्भ , अर्थ बदल
जाते हैं। हर
संदर्भ में
नयी चुनौती होती
है और तुम्हें
तैयार होना
चाहिए। तुम्हें
दर्पण की
भांति होना
चाहिए, कैमरे
के भीतर भरी
हुई फिल्म की
तरह नहीं, कि
एक बार रोशनी
पड़ गयी, एक
चित्र पकड़
लिया, बात
खतम हो गयी।
यह बुद्धू, मूढ़
आदमी का लक्षण
है, उसकी
खोपड़ी फिल्म
की तरह काम
करती है— जो
पकड़ लिया सो
पकड़ लिया, फिर
जिंदगी बदलती
जाती है, मगर
तस्वीर पकड़ी
रहती है।
बुद्धिमान
व्यक्ति दर्पण
की भांति होता
है—कुछ पकड़ता
नहीं, किसी
से जकड़ता
नहीं, कोई
जंजीरें पैर
में नहीं
डालता, कोई
फांसी गले में
नहीं लगाता।
दर्पण की तरह
खाली—जो सामने
आ जाए उसको
प्रतिबिंबित
कर देता है और
जो विदा हो
गया उसको विदा
कर देता है, फिर खाली हो
जाता है।
दर्पण
की ताजगी
चाहिए। उस
ताजगी को ही
मैं ध्यान
कहता हूं, उस
ताजगी की
परिपूर्णता
का नाम समाधि
है। न तो
भाग्य, न
कर्म इत्यादि
की बातों में पड़ो, जालों
में पड़ो, एक बात साधो—दर्पण
बनो, ध्यान
बनो, समाधि
बनो। फिर
समाधि
तुम्हें बताएगी
कि क्या ठीक
है और क्या
गलत है। और तब
तुम चकित
होओगे, बहुत-बहुत
चकित होओगे कि
जो कल ठीक था, आज ठीक नहीं;
जो आज ठीक
नहीं है कल
ठीक हो जाए।
क्षण-भर पहले जो
बात बिल्कुल
ठीक थी, क्षण-भर
बाद ठीक न हो।
प्रतिपल
जगत
प्रवाहमान है; तुम्हारी
चैतन्य की
धारा भी
प्रवाहमान
होनी चाहिए, तब तुम्हारे
और जगत के बीच
एक तालमेल
होगा। उस
तालमेल में ही
जो रस बहता है,
उसे आनंद
कहते हैं। जब
तुम जगत के
साथ तालमेल में
नहीं होते तब
जो विरस
अवस्था पैदा
हो जाती है, वही सुख है।
और जब तालमेल
में होते हो
तो जो सरस
अवस्था पैदा
हो जाती है, उसी का नाम
रस, आनंद, रसौ
वै सः, सच्चिदानंद।
जब तुम जगत के
साथ पूर्ण
तालमेल में
होते हो तो मुक्ति,
निर्वाण।
सिद्धांतों
की चिंता न
करो, सिद्धावस्था की चिंता
करो।
सिद्धांतों
में जो उलझा, सिद्ध नहीं
हो पाता; और
जो सिद्ध हो
गया, उसे
सिद्धांतों
से क्या
लेना-देना है!
तीसरा
प्रश्न :
भगवान!
जब भी यहां
आती हूं, संन्यास
के वस्त्र
पहनकर आने का
भाव होता है। कोशिश
करती हूं
लेकिन कोशिश
निष्फल जाती
है; घर के
लोग राजी नहीं
होते। इस बार
भी घर में समझाया,
तड़पी, किसी ने न
सुना तो यहां
चली आयी।
मैं
जानती हूं, मैं
निर्बल हूं, साहस की कमी
है। मगर हमेशा
आपके पास आने
की अभीप्सा
दिल में रहती
है। संन्यास
तो ले लिया
लेकिन
संन्यास के
वस्त्र
परिवार के
कारण नहीं पहन
पाती हूं।
मेरा पूरा
संन्यास कब
होगा? किससे
जानूं—जो कर
रही हूं, वह
ठीक है या
नहीं? क्या
मैं आपको चूक
जाऊंगी? कृपया
कुछ बताएं।
अगर
मैं कुछ
छिपाती हूं तो
वह भी बताइए
तो मैं अपने
को जान सकूं।
दुलारी!
वस्त्रों की
चिंता न करो, भाव
की बात है।
यदि घर के लोग
राजी नहीं हैं,
अगर घर के
लोग समझदार
नहीं हैं, अगर
घर के लोग
जिद्दी हैं, अगर घर के
लोग किसी खास
धारणा में
बंधे हैं, तो
सिर्फ
वस्त्रों के
कारण उन्हें
भी दुख न दो, स्वयं भी दुख
न लो।
वस्त्रों का
उपयोग है
निश्चित, मगर
इतना नहीं। और
फिर मैं तेरे
हृदय को जानता
हूं। तेरा
हृदय रंगा है
इसलिए वस्त्र
न भी रंगे तो
चलेगा। तेरा
हृदय गैरिक है,
इसका प्रमाणपत्र
मैं तुझे देता
हूं, तू
फिक्र छोड़।
घर के
लोगों को नाहक
कष्ट मत दो ।
उनकी भी क्या गलती—न
मुझे सुनते
हैं,
न मुझे
समझते हैं। न
उसका साहस है
यहां आने का।
डरते होंगे
समाज से और
भयभीत होते
होंगे कि तू
अगर
संन्यासिनी
की तरह
घूमे-फिरे तो
लोग उनसे
पूछते होंगे,
लोग उनको
परेशान करते
होंगे। उनकी
भी तकलीफ समझ।
व्यर्थ तड़पने
से भी कुछ सार
नहीं है। रोने-धोने
का भी कोई
प्रयोजन नहीं
है। तू जैसी
है, भली
है। ध्यान में
डूब, वही
संन्यास है।
वस्त्र भी
एक-न-एक दिन
रंग जाएंगे।
घबड़ा मत, वह
घड़ी भी जल्दी
आ जाएगी।
और ऐसे
भी मत सोच कि
तू निर्बल है।
निर्बल होती
तो तेरे घर के
लोगों ने तुझे
कभी का मुझसे
तोड़ लिया होता, नहीं
तोड़ पाए, वर्षो
से उनकी कोशिश
चल रही है
तोड़ने की। अगर
कपड़े नहीं
पहनने देते
हैं तो इससे
कुछ तोड़ना थोड़े
ही हो जाएगा।
सच तो यह है कि
जितने उन्होंने
कपड़े पहनने
में तुझे बाधा
दी है, उतनी
ही तू ज्यादा
मुझसे जुड़ गयी
है। जितना उन्होंने
चाहा है कि
बीच में दीवार
खड़ी हो जाए, उतने ही तू
करीब आ गयी है,
उतना ही
तेरा प्रेम और
प्रगाढ़
हुआ है। तेरी
जो जरूरत है, वही तेरे घर
के लोग कर रहे
हैं, घबड़ा
मत—तेरे प्रेम
को बढ़ा रहे
हैं, तेरी
प्रार्थना को
बढ़ा रहे हैं, तेरी
अभीप्सा को
बढ़ा रहे हैं।
निर्बल
तू नहीं है, साहस
की भी तुझमें
कमी नहीं है।
यह भी मैं
जानता हूं कि
जिस दिन तुझे
कह दूंगा, तू
घर-द्वार सब
छोड़कर चली
आएगी, इसीलिए
तुझसे कह भी
नहीं रहा हूं।
चूंकि मुझे पक्का
भरोसा है कि
मैंने कहा, फिर तू एक
क्षण न रुक
सकेगी, फिर
कोई शक्ति
तुझे न रोक
सकेगी। और मैं
नहीं चाहता कि
तेरे परिवार में
कष्ट हो। मैं
किसी के
परिवार में
कष्ट नहीं
चाहता—तेरे
बच्चे मुसीबत
में पड़ें, कि
तेरे पति, कि
तेरे परिवार
के और लोग...।
मेरा
संन्यास किसी
के भी परिवार
में दुःख के बीज
बोए,
यह मैं न
चाहूंगा।
मेरा संन्यास
तुम्हारे जीवन
में तो आनंद
लाए ही लाए; तुम्हारे
पास जो है, तुम्हारे
प्रियजन जो
हैं, उनके
जीवन में भी
आनंद की सुवास
लाए। तू ध्यान
में लग । तू
चिंता छोड़।
शेष जब जरूरत
होगी मैं कर
लूंगा। जिस
दिन मुझे ऐसा
लगेगा कि अब
मुझे छोड़ ही
देना चाहिए, उस दिन तुझे
कह दूंगा। अभी
छोड़ने की कोई
जरूरत नहीं
है। अभी तेरे
रहने से तेरे
घर के लोग भी
कम-से-कम मेरी
याद तो करते
हैं। चलो मुझे
गाली ही देने
के लिए सही, मगर इस
बहाने भी याद
आ जाती है, इस
बहाने भी मेरी
चिंता, मेरा
विचार करते
हैं। इस बहाने
ही सही, कौन
जाने, वे
भी आज नहीं कल
करीब आ जाएं।
और
उन्हें करीब
लाने का सबसे
सुगम उपाय एक
होगा कि तू न
तो रो, न तू तड़प;
तू आनंदित
हो, नाच, तू गीत गा, तू सितार
बजा, तू
भजन कर, तू
मस्त हो, तू
मीरा बन । घर
के लोगों को
मेरी मस्ती
बदलेगी। तू तड़पेगी और
रोएगी, तू
दीन-हीन होकर
उनसे भीख मांगेगी
कि मुझे कपड़े
बदल लेने दो, कि मुझे ऐसा
करने दो, मुझे
वैसा करने दो—
तू उन्हें
ताकत दे रही
है, तू
उन्हें
शक्तिशाली
बना रही है।
तू जितना गिड़गिड़ाएगी
उतना ही वे
तुझे सताएंगे।
तू फिक्र छोड़
उनकी। इतनी
ताकत नाचने
में लगा, गाने
में लगा। तेरा
नाच और तेरा
गीत उन्हें जीतेगा।
इस
दुनिया को अगर
जीतना हो तो
गाकर जीतना
चाहिए, नाचकर
जीतना चाहिए—रोकर
नहीं। तेरी
मस्ती ऐसी हो
जाए कि उन्हें
मानना ही पड़े
कि तेरे जीवन
में कुछ हुआ
है, जो
उनके जीवन में
नहीं हुआ।
तेरी मस्ती
ऐसी हो जाए कि
एक दिन उन्हें
कहना पड़े कि
हमें क्षमा कर
दो। तेरी
मस्ती से ही
वे झुकेंगे।
और
जल्दी ही मैं
तुझे अलग न
करूंगा । जब
तक मैं उनको
भी न खींच लूं
तब तक अकेला
तुझे क्या
खींचना। तू तो
खिंची ही है।
तू तो मेरे
साथ जुड़ी ही
है। लेकिन
उनको भी ले
आना है—तेरे
बच्चों को भी
ले आना है, तेरे
पति को भी ले
आना है। मगर
लाने का एक ही
उपाय है कि
तेरे पति को
तेरे आनंद सेर्
ईष्या होने लगे।
वही सबूत होगा
कि मैं जो कह
रहा हूं, वह
ठीक है। इसके
अतिरिक्त और
क्या प्रमाण
हो सकता है
ठीक का? सत्य
के लिए कोई
तर्क नहीं दिए
जाते, सत्य
के लिए कोई
तर्क सिद्ध
नहीं कर सकता
लेकिन नृत्य
से जरूर सिद्ध
कर सकता है।
तो न तो तू निर्बल
है, न तुझमें
साहस की कमी है;
सिर्फ
मैंने तुझे
आज्ञा नहीं दी
है।
तू
कहती है : मगर
हमेशा आपके
पास आने की
अभीप्सा दिल
में रहती है।
वही मूल्यवान
बात है। मेरे
पास आ पाए कि न
आ पाए, उसका
उतना मूल्य
नहीं है— आने
की अभीप्सा
बनी रहती है, उसका मूल्य
है। अनेक हैं
जो आते हैं और
फिर भी नहीं आ पाते।
यहां आ जाने
से ही क्या
होगा? यहां
आकर बैठ भी गए
तो क्या होगा?
उल्टे घड़े
की तरह बैठे
रहे तो वर्षा
भी होती रहेगी
और तुम भरोगे
भी नहीं। कोई
तो यहां ऐसे
ही आ जाता है
देखने, द्रष्टा
की तरह, एक
दर्शक की तरह,
पर्यटक की
तरह—उनका कोई
मूल्य नहीं है,
दो कौड़ी
मूल्य नहीं
है।
लेकिन
तू अगर घर में
ही है, दूर है
और तेरे आने
में हजार-हजार
बाधाएं हैं मगर
तेरे प्राण तड़पते हैं—
उसी तड़पन
का नाम
प्रार्थना है,
वही
अभीप्सा तेरी
प्रार्थना
बनती जा रही
है। तू
सौभाग्यशाली
है। मेरे
हिसाब में
तेरा कोई नुकसान
नहीं हो रहा
है। तेरे घर
के लोग तुझे
मेरे पास
भेजने के लिए
आधार बन रहे
हैं, कारण
बन रहे हैं।
जिंदगी को जब
ऐसे देखेगी तो
इस देखने को
ही मैं
आस्तिकता
कहता हूं। तब
हम कांटों में
भी फूलों को
छिपा देखते
हैं।
तू
पूछती है :
पूरा संन्यास
कब होगा?
पागल, पूरा
संन्यास हो
चुका। कपड़े ही
बदलने को बचे
हैं, कपड़े
बदलने में
क्या दिक्कत
है, वे तो
कभी भी रंगे
जा सकते हैं।
असली कठिनाई तो
हृदय को रंगने
की होती है और
वह तेरा रंगा
हुआ है।
और तू
पूछती है :
किससे जानूं—
जो कर रही हूं, वह
ठीक है या
नहीं ?
तू
वहीं से, अपने
घर बैठे-बैठे
मुझसे पूछ
लिया कर। रहा
आश्वासन कि
मैं उत्तर
दूंगा। नाचे,
गाए, गुनगुनाए,
शांत होकर
बैठ गए, पूछ
लिया। ऐसे मैं
तुझसे कहे
देता हूं कि
तू जो कर रही
है, ठीक कर
रही है। तेरा
विकास ठीक
दिशा में चल
रहा है। तेरी
चेतना उठ रही
है, जग रही
है। तेरी
अभीप्सा
प्रबल हो रही
है। तेरी
प्रार्थना गहरी
हो रही है।
और
तूने पूछा
दुलारी, क्या
मैं आपको चूक
जाऊंगी?
असंभव, कोई
उपाय नहीं
चूकने का। तू
चाहे तो भी
नहीं चूक
सकती। मुझसे
जो जुड़े हैं
उनके चूकने का
उपाय नहीं है।
असली सवाल जुड़ना
है और जुड़न
आंतरिक घटना
है। बहुत हैं
ऐसे जो
संन्यास नहीं
ले पाए मगर
मुझसे जुड़े
हैं। बहुत हैं
ऐसे जो यहां
नहीं आ पाएंगे
लेकिन मुझसे
जुड़े हैं। वे चूकेंगे
नहीं। जोड़
आंतरिक होते
हैं, जोड़ों का संबंध
स्थानों से
नहीं होता, न समय से
होता है; आत्मा
के जोड़ समय और
काल, स्थान
और क्षेत्र
सबके पार होते
हैं।
और
तूने पूछा कि
अगर मैं कुछ
छिपाती हूं तो
वह भी बताइए
तो मैं अपने
आप को जान
सकूं।
नहीं , तू
कुछ भी नहीं
छिपा रही है।
मेरे सामने
तेरा हृदय
खुली किताब
है। तू
निश्चित मन
मगन होकर, मस्त
होकर, मदमस्त
होकर, जीती
चल। जिस दिन
मुझे लगेगा कि
अब जरूरत है कि
तुझे आज्ञा दे
दूं कि सब छोड़-छाड़ दे, उस
दिन आज्ञा दे
दूंगा, उस
दिन की
प्रतीक्षा
कर। और तू
निर्बल नहीं
है, तुझमें साहस की कमी
नहीं है। तू
कर पाएगी, तू
पतंगे-सी दीपशिखा
पर जल पाएगी, इतना मुझे
भरोसा है।
चौथा
प्रश्न :
भगवान!
लगता है कि
मैं आपके
प्रेम में पड़
गया हूं और
बड़ी उलझन में
भी। आपकी
बातें ठीक लगती
हैं; सुनते
ही आनंद-अश्रु
बहने लगते
हैं। लेकिन वे
मेरे सारे
संस्कारों के
विपरीत हैं, इसलिए मैं
उन्हें रोक
लेता हूं। अब
आपकी मानूं तो
मुश्किल, न
मानूं तो
मुश्किल!
रहीम!
प्रेम में पड़
गए तो अब
तुम्हारा कोई
वश न चलेगा।
प्रेम में पड़
जाने का अर्थ
ही होता है :
अवश हो जाना।
प्रेम कोई
कृत्य नहीं है
कि तुम चाहो
तो करो और
चाहो तो न
करो। प्रेम तो
प्रसाद है जो
ऊपर से उतरता
है और तुम्हें
अभिभूत कर लेता
है और
तुम्हारे
हृदय को डुबा
लेता है। यह
तुम्हारे हाथ
के बाहर की
बात है, अब
तुम कुछ कर न
सकोगे। अब तो
इस प्रेम में
गहरे जाने के
अतिरिक्त और
कोई उपाय नहीं
है। हां, इतना
ही कर सकते हो
कि जोर से
किनारे को पकड़
लो और वह जो
प्रेम की धारा
आ रही है, उसमें
न बहो, तो
व्यर्थ ही
कष्ट पाओगे, दुख पाओगे, पीड़ा पाओगे।
क्योंकि धारा
का निमंत्रण आ
गया; पुकार
आ गयी; किनारे
को छोड़ने का
क्षण आ गया।
जिनको
तुम अपने
संस्कार कहते
हो,
उनका मूल्य
ही क्या है? कोई हिंदू
है, कोई
मुसलमान है, कोई ईसाई, कोई जैन— सब सीखे हुए
हैं, सिखाए
हुए हैं; सब
दूसरों ने दिए
हैं। और जो
दूसरों से
मिला है, वह
सत्य नहीं
होता। सत्य तो
स्वयं के
अनुभव से ही
प्रगट होता
है। सत्य स्वानुभव
है।
संस्कारों का
क्या मूल्य ? राम
तुम्हारा नाम
हो तो हिंदू
संस्कार, रहीम
हो तो मुसलमान
संस्कार।
लेकिन
संस्कार का
अर्थ क्या
होता है? संस्कार
का अर्थ होता
है : दूसरों ने
छाप डाली तुम
पर; दूसरों
ने ज्यादती की
तुम पर; दूसरों
ने सम्मोहित
किया
तुम्हें। तुम
बालक थे, छोटे
थे, कच्चे
थे, कोमल
थे—तुम पर
किसी भी चीज
की छाप डाल दी
गयी। बचपन में
ही तुम्हें
उठाकर अगर
हिंदू घर में
रख दिया गया
होता, तो
तुम रहीम न
होते, राम
होते। और
तुम्हें कभी
भूलकर याद भी
न आती कि तुम
जन्मे
मुसलमान थे।
क्योंकि खून
मुसलमान नहीं
होता और न
हिंदू होता
है। हड्डी
मुसलमान नहीं
होती, न
हिंदू होती
है।
तुम जब
डाक्टर के पास
जाते हो और
डाक्टर कहता है
कि तुम्हें
टी०बी० की
बीमारी है, तो
तुम यह नहीं फुछते कि
हिंदू कि
मुसलमान, कौन-सी
टी.बी.? टी.
बी. बस टी. बी.
है।
तुम जब
पैदा होते हो
तो सिर्फ मनुष्य
की तरह पैदा
होते हो और
जल्दी ही
तुम्हारे ऊपर
जाल कस दिए
जाते हैं। उन
जालों को ही
फिर जीवन-भर
ढोते हो और
बड़े गौरव से
ढोते हो।
क्योंकि तुम
सोचते हो वे
जाल नहीं हैं, शायद
मोर-मुकुट; जाल नहीं
हैं, शायद
आभूषण!
कारागृह को
अपने चारों
तरफ ढोए फिरते
हो और सोचते
हो वह
तुम्हारी
स्वतंत्रता
है, तुम्हारा
धर्म है।
धर्म
इतना सस्ता
नहीं मिलता।
धर्म मां-बाप
से नहीं मिलता; न
पंडित-मौलवियों
से मिलता है, न वेद-कुरान
से मिलता है—धर्म
तो मिलता है
भीतर डुबकी
लगाने से। और
अगर मेरा
प्रेम कुछ भी
करवा सकता है
तो इतना ही कि तुम्हें
भीतर डुबकी
लगाने का साहस
दे। मैं
तुम्हें धक्का
दूंगा
तुम्हारे ही
भीतर। मेरी और
कोई शिक्षा
नहीं है। मैं
यहां कोई
सिद्धांत
नहीं सिखा रहा
हूं। मैं यहां
कोई बंधी हुई
विचार की श्रृंखला
तुम्हें नहीं
दे रहा हूं।
उल्टा ही काम
है—सारे विचार
तुमसे छीन
लेना है। तुम हिंदू-विचार
लाए तो
हिंदू-विचार
छीन लेना है और
तुम जैन-विचार
लाए तो
जैन-विचार छीन
लेना है, क्योंकि
विचार छीन
लेना है।
तुम्हें
निर्विचार
में छोड़ देना
है। फिर
निर्विचार
में जो घटेगा,
वही सत्य
है। फिर
निर्विचार
में जिसके
दर्शन होंगे,
वही
परमात्मा है।
फिर निर्विचार
में तुम जो
अनुभव करोगे,
वही आनंद, वही मोक्ष।
तुम
कहते हो कि
लगता है "कि
मैं आपके
प्रेम में पड़
गया हूं।"
लगता नहीं है
रहीम, पड़ ही
गए। अब अपने
को समझाओ मत
कि लगता है, अपने को
सांत्वना मत
दो। और तुम
कहते हो : "मैं
बड़ी उलझन में
भी हूं।" उलझन
में तो होओगे ही
क्योंकि
प्रेम का अर्थ
क्रांति होता
है। प्रेम का
अर्थ होता है :
एक स्थान से
दूसरे स्थान
पर रूपांतरण;
एक तल से
दूसरे तल पर
रूपांतरण; एक
दिशा से दूसरी
दिशा में
यात्रा। जाते
थे पूरब, अब
जाना हो
पश्चिम। कल तक
कुछ माना था, आज उससे
बिल्कुल
भिन्न जानना
होगा।
उलझन
तो होगी बहुत।
उलझन अच्छा
लक्षण है।
सिर्फ बुद्धुओं
को उलझन नहीं
होती, बुद्धिमानों को तो बहुत
उलझन होती है।
जो जितना
सोचेगा, उतनी
ही उलझन में
पड़ता है।
सिर्फ जड़बुद्धि
कभी उलझन में
नहीं पड़ते; उलझन का कोई
सवाल ही नहीं।
इतना
सोच-विचार ही नहीं
है। जो पकड़ा
दिया है लोगों
ने पकड़े
रखते हैं। कभी
उस पर विचार
ही नहीं करते
कि जो हाथ में
है, वह
मूल्य का भी
है या नहीं; हीरा है या
पत्थर? और
मैं तुमसे जो
कह रहा हूं, वह यह कि तुम
जो हाथ में पकड़े
हो वह पत्थर
है, हीरा
नहीं है।
लेकिन इतने
दिन से पकड़े
रहे हो, पकड़ने की आदत, छोड़ने
में मन कंपता
है। और अब दिखई
भी पड़ने लगा
है कि पत्थर
है, उलझन
होगी।
उलझन
हो गयी है, तो
मेरा काम शुरू
हो गया। उलझन
हो गयी है, तो
अब बच न सकोगे,
अब भाग न
सकोगे। अब
जहां भी भाग
जाओगे, उलझन
पीछा करेगी।
एक बार शक आ
जाए कि जो हाथ
में है वह
पत्थर है, तो
फिर तुम्हें
असली हीरे को
तलाशना ही
होगा।
कहते
हो : "आपकी
बातें ठीक
लगती हैं।"
इसीलिए तो
उलझन पैदा हो
रही है
क्योंकि अगर
मेरी बातें
ठीक लगती हैं
तो तुमने जो
अब तक बातें
मान रखी थीं, उनका
क्या होगा? और उनके साथ
तुमने बहुत-से
स्वार्थ बांध
रखे थे, उनके
साथ तुमने
जिंदगी बितायी
है, वे
तुम्हारी
आदतें बन गयी
हैं। और ध्यान
रखना, बुरी
आदतें तो
छूटती ही नहीं,
अच्छी
आदतें भी नहीं
छूटतीं।
आदत के साथ
झंझट वही है, अच्छी हो कि
बुरी हो। किसी
को सिगरेट
पीने की आदत
है, नहीं
छूटती; और
किसी को माला
जपने की आदत
है, वह
नहीं छूटती!
दोनों आदतें
एक-सी हैं।
हालांकि माला जपनेवाला
अपने को समझा
सकता है कि यह
तो अच्छी आदत
है, नहीं
छूटती तो कोई
हर्ज नहीं।
मगर
आदत गुलामी
है। आदत कोई
भी नहीं होनी
चाहिए। आदमी
बोध से जीना
चाहिए, आदत
से नहीं। फिर
चाहे तुम धुएं
को भीतर ले जाओ
और बाहर निकालो;
वह भी एक तरह
की माला जपना
है—धूम्रपान
एक तरह का
माला-जाप है।
और उसको भी अगर
तुम्हें
धार्मिक
बनाना हो तो
जब धुआं भीतर ले
जाओ तो कहना
राम और जब
धुआं बाहर ले
जाओ तो कहना
राम, राम, राम, राम,
राम... मंत्र
बन जाएगा!
धूम्रपान में
भी मंत्र बनाया
जा सकता है।
आखिर योगी
करते यही है।
श्वास बाहर ले
गए—मंत्र का
एक हिस्सा; श्वास भीतर
ले गए—मंत्र
का दूसरा
हिस्सा।
तुम्हारी
श्वास ज़रा
धुआं भरी है
कोई खास, ऐसा
और तो कुछ बड़ा
भारी पाप नहीं
कर ले रहे हो।
मगर
कोई आदमी
धूम्रपान से
नहीं छूटता; वह
उसकी आदत है।
और कोई आदमी
माला जपने से
नहीं छूटता।
मेरे पास लोग
आते हैं, वे
कहते हैं : हम
तीस साल से
माला जप रहे
हैं। अब आपकी
बात सुनते हैं
तो बड़ी अड़चन
होती है कि
माला जपने से
कुछ सार नहीं
है, नियम, व्रत, उपवास
कुछ सार नहीं,
और हमें तीस
साल हो गए
करते। अब कैसे
छोड़ें? अब
छोड़ने में डर
लगता है, भय
लगता है कि
कहीं कोई भूल
तो नहीं हो
रही है छोड़ने
में? तीस
साल जो किया, वह गलत है।
और फिर यह भी
विचार उठता है
मन में कि तीस
साल जो किया, वह गलत था, तो मैं तीस
साल मूढ़
रहा! वह भी
अहंकार को चोट
लगती है।
मगर
अगर मेरी
बातें
तुम्हें ठीक
लगने लगीं, तो
जितनी जल्दी
छोड़ दो उतना
अच्छा है, नहीं
तो उतने ही पशोपेश
में पड़ोगे। और
कहते हो :
"सुनते ही
आनंद-अश्रु
बहने लगते
हैं।" अच्छे लक्षण
हैं। वसंत के
लक्षण हैं।
जी
बहुत चाहता है
रोने को
है
कोई बात आज
होने को
अगर जी
ऐसा चाहे आनंद
से भरकर रोने
को तो रोकना
मत;
कुछ बात
होने को है, कुछ गहरी
बात होने को
है। और प्रेम
में अगर आनंद
के अश्रु न बहेंगे
तो फिर कहां बहेंगे?
हम
से पहले भी
मुहब्बत का
यही अंजाम था
क़ैस भी
नाशाद था, फ़रहाद
भी नाकाम था
मुहब्बत
बहुत अंधेरी
रातें भी लाती
है लेकिन अंधेरी
रातों के बाद
ही प्रकाशित
सुबह का जन्म
होता है। प्रेम
में आंसू भी
आएंगे और
आंसुओं में ही
छिपी मुस्कराहट
भी आएगी।
प्रेम उदासी
भी लाएगा और उल्लास
भी लाएगा।
प्रेम बहुत-से
रंग दिखाएगा।
मगर अगर तुमने
आंसू ही रोक
लिए. . .। तुम
कहते हो :
"अश्रु तो
बहने लगते हैं, लेकिन
मेरे सारे
संस्कारों के
विपरीत हैं, इसलिए मैं
उन्हें रोक
लेता हूं।"
अगर आंसुओं को
तुम रोक लोगे
तो तुम होने
वाली क्रांति
को रोक रहे हो;
तुम होने
वाले महान
परिवर्तन को
रोक रहे हो। और
अब यह रोकने
से रुकने वाली
बात नहीं है।
ये आंसू
भीतर-भीतर तड़फेंगे,
ये हृदय की धड़कनों
में समा
जाएंगे।
"जिगर"
मैंने छुपाया लाख
अपना दर्दे-गम
लेकिन
ब्यां कर
दीं मेरी सूरत
ने सब कौफ़यतें
दिल की
और
तुम्हारी
सूरत बताने
लगेगी, तुम्हारी
आंखें बताने
लगेंगी; तुम्हारा
चलना, बैठना,
उठना बताने
लगेगा। प्रेम
में जब कोई पड़
जाता है तो
उसकी हर बात
बताने लगती है
कि प्रेम में
पड़ गया।
कठिनाई
तो निश्चित है
रहीम। मुझे
सहानुभूति है
तुम्हारी
कठिनाई से।
मगर अब कोई
उपाय नहीं है, देर
हो गयी। अब
बीमारी हाथ के
बाहर है।
ऐ
"दाग" क्या
बताएं
मुहब्बत में
क्या हुआ
बैठे
बिठाए जान को आज़ार हो
गया
बड़ी
मुसीबत हो
जाती है, बैठे-बिठाए
झंझट हो जाती
है। तुम आए
होओगे यहां कि
चार बातें चुन
लोगे ज्ञान की
और अपनी ज्ञान
की संपदा को
थोड़ा बढ़ा
लोगे। तुम यह
सोचकर न आए
होओगे कि यहां
उलझन हो
जाएगी। तुम
सोचकर आए
होओगे कि सुलझाकर
लौटेंगे।
लेकिन ध्यान
रखो, सुलझ
सकते हो तभी
जब उलझने की
तैयारी हो।
तुम्हारे
पुराने
समाधान तो सब
अस्त-व्यस्त
होंगे और तब
बीच में एक
घड़ी तो ऐसी
आएगी जब सब
उलझ जाएगा।
मगर उतना साहस
हो, तो ही
सुलझने की घड़ी
भी आ सकती है।
जो
पूछता है कोई, सुर्ख
क्यों हैं आज
आंखें?
तो
आंखें मल के
मैं कहता हूं, रात
सो न सका
हजार
चाहूं मगर यह
न कह सकूंगा
कभी
कि
रात रोने की
ख्वाहिश थी और
रो न सका
ऐसा न
करो। आंसुओं
को रोको मत, बह
जाने दो; वे
हल्का
करेंगे।
आंसुओं को बह
जाने दो, उनके
साथ आंखों की
बहुत धूल बह
जाएगी।
आंसुओं को बह
जाने दो, उनकी
बाढ़ में हृदय
का बहुत-सा
कचरा बह
जाएगा। आंसुओं
को बह जाने दो
निःसंकोच।
उन्हें सहयोग
दो। उनके साथ
ही तुम्हारा
मुसलमान होना,
हिंदू होना,
ईसाई होना,
बह जाएगा।
आंसू तुम्हें
नहला देंगे।
और मैं तुमसे
कहूं, आंसुओं
में नहा
लेना असली
गंगा में नहा
लेना है। गंगा
में नहाने
वाले पवित्र
नहीं होते
लेकिन आंसुओं
में नहाने
वाले लोग जरूर
पवित्र हो
जाते हैं।
क्या
बुरी चीज है
मुहब्बत भी
बात
करने में आंख
भर आई
और
प्रेम का
रास्ता तो पतंगे
का रास्ता है।
अभी से घबड़ाओगे? अभी
तो शुरूआत है—आगे-आगे
देखिए, होता
है क्या-क्या!
अभी से घबड़ाओगे
तो आगे क्या
करोगे?
उलफत
का नशा जब कोई
मर जाए तो जाए
ये दर्दे-सर
ऐसा है कि सर
जाए तो जाए
यह तो
एक बड़ी
दीवानगी है, मदहोशी
है। उलफत का
नशा जब कोई मर
जाए तो जाए। यह
नशा चढ़ता
तो है, मगर
फिर उतरता
नहीं। मौत
पहले आती है
फिर नशा उतरता
है। ये दर्दे-सर
ऐसा है कि सर
जाए तो जाए।
अभी तुम आंसू
रोक रहे हो।
फिर सर कटाने
की बात आएगी
तब क्या करोगे?
अभी तो उलझन
बौद्धिक है; अभी तो उलझन बढ़ेगी—हार्दिक
होगी, आत्मिक
होगी। फिर
क्या करोगे?
और मैं
तुम्हारी
कठिनाई समझता
हूं। कुछ मुसलमान
मित्रों ने
संन्यास लिया
है,
उनकी
मुसीबतें
बहुत बढ़ गयी
हैं, लौटकर
अपने गांव गए
हैं तो बड़ी
झंझट में पड़े
हैं। मगर उतना
ही लाभ भी है।
जितनी झंझट, उतना लाभ।
जितनी चुनौती,
उतनी कसौटी
। जितना लोग
उनके लिए झंझटें
खड़ी कर रहे
हैं और जितना
वे उन झंझटों
का सामना कर
रहे हैं, उतना
ही उनके भीतर
कुछ सघन होता
जा रहा है, मजबूत
होता जा रहा
है; आत्मा
का जन्म हो
रहा है।
खमोशी से
मुसीबत और
संगीन होती
है।
तड़प ऐ
दिल, तड़पने से ज़रा तिस्कीन
होती है।
तो
पियो मत आंसू, रोको
मत आंसू। डरो
मत। यह तो
दीवानों की
महफिल है। यह
तो पियक्कड़ों
का स्थान है।
यहां तुम
रोओगे, तो
कोई ऐसा नहीं
सोचेगा कि तुम
गलत कर रहे
हो। यहां तुम
रोओगे तो लोग
समझेंगे। कोई
तुम्हारे
प्रति ऐसा
नहीं समझेगा
कि तुम कोई
पागल हो; रो
क्यों रहे हो?
यहां तो सभी
रोए हैं—कोई
आज, कोई
परसों; कोई
रो चुका है, कोई रोएगा, कोई रो रहा
है।
और फिर
रोओगे तो राहत, हल्कापन
आ जाएगा। और
उस हल्केपन
में समझ की
संभावना है।
उस हल्केपन
में पंख लग
जाते हैं। उस हल्केपन
में तुम उड़ सकोगे
आकाश की तरफ, चांदत्तारों की तरफ।
इतना मैं
तुमसे जरूर कह
दूं कि मेरी बात
अगर ठीक से
समझी, तो
तुम मुहम्मद
के उतने करीब
हो जाओगे, जितने
तुम कभी भी न
थे। और कुरान
तुम्हें पहली
दफा समझ में
आएगी, जैसी
कि तुम्हें
कभी समझ में न
आयी थी। और
यही गीत के
संबंध में सही
है, यही
बाइबिल के
संबंध में सही
है।
मेरा
संदेश किसी एक
शास्त्र में
आबद्ध नहीं है
और किसी एक
संप्रदाय में
सीमित नहीं
है। मेरा
संदेश किसी
फूल की भांति
नहीं है; हजारों
फूल का निचोड़
है, इत्र
है।
पांचवां
प्रश्न :
भगवान!
क्या
साधारणजन कभी
आपको समझ
पाएंगे?
नरोत्तम!
कोई साधारण
नहीं है, सभी
असाधारण हैं।
साधारण बने
बैठे हैं, यह
बात और।
क्योंकि सभी
के भीतर
परमात्मा है,
साधारण कोई
हो कैसे सकता
है! सभी के
भीतर परमात्मा
है, सोया
हो भला, मगर
सोया
परमात्मा भी
साधारण तो
नहीं होता, रहेगा तो
असाधारण ही।
प्रत्येक व्यक्ति
अद्वितीय है।
नहीं, ऐसे
शब्दों का
उपयोग न करो।
साधारणजन
कहने में
अवमानना है, अपमान है।
कोई साधारण
नहीं है, सभी
असाधारण हैं।
सभी के भीतर
एक ही
परमात्मा विराजमान
है—जैसा मेरे
भीतर, वैसा
तुम्हारे
भीतर, वैसा
औरों के भीतर।
और मनुष्यों
में ही नहीं—पशु-पक्षियों
में, पौधों
में, पत्थरों
में—सबमें वही
विराजमान है।
यह भाव
छोड़ दो। कोई
साधारणजन
नहीं है। हां, मुझे
समझने में
कठिनाइयां
हैं। कठिनाई
का कारण यह
नहीं है कि
लोग साधारण
हैं, कठिनाई
का कारण यह है
कि लोग सोए
हैं। कठिनाई का
कारण यह है कि
लोगों ने पहले
से ही बहुत-सी
बातें समझ रखी
हैं, बिना
समझे समझ रखी
हैं। उनकी अंतस्चेतना
तो परमात्मा
से भरी है, लेकिन
अंतस्चेतना
के चारों तरफ
समाज के
द्वारा दिए गए
संस्कारों का
बड़ा गहन जाल
है—चीन की
दीवाल है!
मुझे सुनते
हैं, मैं
कुछ कहता हूं,
वे कुछ
समझते हैं।
क्योंकि मुझे
सुन ही नहीं
पाते। वह बीच
की जो दीवाल
है, वह ऐसी प्रतिध्वनियां
पैदा करती है,
वह ऐसी
विकृतियां
पैदा करती है
कि मैं कहता
हूं अ, उन
तक
पहुंचते-पहुंचते
ब हो जाता है।
पार्टी
में आयी हुई
एक औरत ने
अपनी लंबाई
छोटी होने के
कारण सिर के
बालों का जूड़ा
बहुत ऊंचा
बांध रखा था
और पांव में
भी
ऊंची-से-ऊंची एड़ी की सैंडिल
पहन रखी थीं।
मुल्ला नसरुद्दीन
ने उसे देखकर
कहा : बहन जी, अपने
कद के लिए तो
आपने एड़ी-चोटी
का जोर लगा
रखा है!
"ऐड़ी-चोटी
का जोर" इस
कहावत का ऐसा
कभी प्रयोग
सुना था? मगर
बड़ा सार्थक
प्रयोग!
तलाक
की अर्जी का
फैसला हो रहा
था कि जज ने
पूछा : आपके
तीन बच्चे हैं, इनका
बंटवारा
आसानी से होना
संभव नहीं है।
समझ में नहीं
आता कि क्या
करूं?
इस पर
पत्नी ने पति
को दरवाजे की
ओर ढकेलते हुए
कहा : चलो जी, अगले
साल तलाक
लेंगे।
लोगों
की अपनी समझ
है।
कविवर के
पुत्र ने कहाः
पापा!
हमें, निरीह
और निर्दय के
दो-दो
पर्यायवाची
बता
दीजिए।
कविवर ने कहाः
लिख
लीजिए,
निरीह
के
पति
और दास,
और
निर्दय के
पत्नी
और सास।
शब्द
भी अपने-आप
में तो कोई
अर्थ रखते
नहीं। मैं जब
बोलूंगा एक
शब्द तो मेरा
अर्थ होता है
उसमें; तुम
तक
पहुंचते-पहुंचते
तुम्हारा
अर्थ उसे मिल
जाता है।
दो पड़ोसिनें
गप-शप कर रही
थीं। पहली ने
कहा : क्यों, पप्पू
की मम्मी, मुझे
लगता है कि
अपने हाथ से
अपना खाना
बनाने में
काफी बचत होती
है।
दूसरी
ने तपाक से
जवाब दिया :
बेशक !
क्योंकि
पप्पू के पापा
पहले जितना
खाते थे, अब
उसका आधा भी
नहीं खाते।
यह
स्वाभाविक है
जब साधारण
जीवन की बातें
भी एक-दूसरे तक
पहुंचनी कठिन
हो जाती हैं, तो
मैं तो सत्यों
की बात कर रहा
हूं, वे
बहुत
पारलौकिक
हैं।
"क्यों
भाई साहब, सुना
है आपका मकान
किराए के लिए
खाली है"— एक
व्यक्ति ने
मकान-मालिक से
पूछा।
"जी
हां, है तो,
पर मकान
फैमिली के साथ
ही मिल सकता
है आपको"—शर्त
रखते हुए
मकान-मालिक ने
अपनी सहमति
व्यक्त की।"
"क्षमा
कीजिए भाई
साहब, मुझे
तो केवल मकान
ही किराए पर
चाहिए, फैमिली
तो मेरी अपनी
ही है "—उसने
अपनी विवशता
रखी।
शब्दों
के कारण बड़ी
भ्रांतियां
खड़ी होती हैं।
और शब्दों के
अतिरिक्त
संवाद का कोई
उपाय नहीं है
और शब्द विवाद
खड़ा करवा देते
हैं,
संवाद होने
नहीं देते।
जिनको
तुम साधारणजन
कहते हो, वे
साधारण नहीं
हैं; असाधारण
ज्योति उनके
भीतर है; जिस
दिन जागेगी,
उनके भीतर
भी बुद्धत्व
प्रगट होगा; हजार-हजार
सूरज उगेंगे
और हजार-हजार
कमल खिलेंगे।
मगर सोए हैं।
और अगर तुम
उन्हें हिलाओ
भी तो भी वे
इतनी नींद में
हैं, कि
तुम्हारे
हिलाने का
अर्थ नहीं समझ
पाते। कोई बड़बड़ाएगा
और गाली देगा
कि कौन जगा
रहा है? कौन
वक्त खराब कर
रहा है
सुबह-सुबह? कोई करवट
लेकर, कंबल
खींच कर फिर
सो जाएगा।
तुमने
कभी देखा? तुम्हारा
अनुभव भी
होगा। सुबह
जल्दी उठना है;
पांच बजे की
गाड़ी पकड़नी
है तो चार बजे
का तुमने
अलार्म भर
दिया । चार बजे
घड़ी का अलार्म
बजता है और
तुम एक सपना
देखते हो भीतर
कि मंदिर की घंटियां
बज रही हैं।
मंदिर की घंटियां
बज रही है, ऐसा
तुम सपना
देखकर घड़ी के
अलार्म को
झुठला देते
हो। मजे से सो
गए। मंदिर की
घंटियों से कोई
जगने का कारण
है? बाहर
अलार्म बज रहा
है, तुमने
भीतर अपनी
नींद के कारण
एक सपना पैदा
कर लिया, एक
नया अर्थ दे
दिया घंटियों
को कि मंदिर
की घंटियां
बज रही हैं।
बस, छुटकारा
हो गया अलार्म
से।
मैं
तुम्हें
जगाने के लिए
पुकार दे रहा
हूं,
लेकिन
तुम्हारी
नींद में
पहुंचते-पहुंचते
पुकार का क्या
अर्थ होगा, यह तुम पर
निर्भर है, तुम्हारी
नींद पर
निर्भर है। जो
जागना चाहते हैं,
वे ही केवल
पुकार सुन
पाएंगे। जो
नहीं जागना चाहते
, वे पुकार
नहीं सुन
पाएंगे।
जिन्होंने तय
ही कर रखा है
कि सोना ही
उनकी नियति है,
जिन्होंने
तय ही कर रखा
है कि सोने के
पार और कोई
चैतन्य की
अवस्था होती
ही नहीं है, उनको तो
मेरी बात कैसे
समझ में आ
सकती है? यद्यपि
फिर भी मैं
नहीं कहूंगा
कि वे साधारणजन
हैं, उनकी
असाधारणता तो
असाधारण ही
रहेगी। और उनके
भीतर के परमात्मा
के प्रति मेरा
सम्मान उतना
का उतना रहेगा।
कोई मेरी समझे
या न समझे; कोई
ठीक समझे कि
गलत समझे; मगर
प्रत्येक के
भीतर बैठे हुए
परमात्मा को मेरा
समादर ज़रा
भी क्षीण नहीं
होने वाला है।
मैं
किसी को भी
साधारणजन
नहीं कह सकता
हूं। सभी
असाधारण हैं।
सभी उस प्रभु
के मंदिर हैं।
कोई आज जागा
है,
कोई कल जागेगा,
कोई परसों जागेगा, कोई इस जन्म
में, कोई
अगले जन्म
में। हर्ज भी
क्या है, अनंत
काल है। लोग
जागते रहेंगे,
जगाने वाले
पुकारते
रहेंगे, कोई-न-कोई
सोते में से
उठता रहेगा।
जो उठ आया वह
सौभाग्यशाली
है; जितने
जल्दी उठ आया,
उतना
ज्यादा
सौभाग्यशाली
है।
मगर जो
सोया है, उसके
प्रति किसी
तरह का अपमान
मन में न हो।
इस तरह के
अपमान के कारण
अतीत में बहुत
उपद्रव हुआ
है। ईसाई
समझते हैं कि
जो ईसाई है
वही स्वर्ग
पहुंचेगा।
इसलिए बनाओ
लोगों को ईसाई;
चाहे
जबर्दस्ती
बनाना पड़े तो
जबर्दस्ती
बनाओ।
मुसलमान
सोचते हैं कि
जो मुसलमान है
वही पहुंचेगा।
तो चाहे तलवार
के बल बनाना
पड़े तो भी कोई
फिक्र नहीं, दयावश तलवार के बल
ही बनाओ, गर्दन
पर रख दो
तलवार कि होना
पड़ेगा
मुसलमान। तुम्हारे
हित में ही है,
नहीं तो तुम
पहुंचोगे
नहीं; भटक
जाओगे; दोजख में पड़ोगे।
और यही सारे धर्मो की
धारणा है कि
जो हमारी
मानकर चलेगा
वही पहुंचेगा,
और जो हमारी
नहीं मानता—अज्ञानी
है, पापी
है, शैतान
का शिष्य है।
ऐसी धारणा तुम
अपने मन में
मत लाना।
जो
हमारी मानता
है,
वह भी
परमात्मा है;
जो हमारी
नहीं मानता, वह भी
परमात्मा है।
जो साथ हो
लिया है, वह
भी परमात्मा
है; जो
विरोध में है,
वह भी
परमात्मा है।
यह स्मरण एक
क्षण को भी न भूले,
तो ही तुम
सच्चे
संन्यासी हो,
तो ही तुमने
मुझे समझा है।
आज
इतना ही।
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