प्रश्नसार:
1—प्रेरणा
और आदर्श में
क्या फर्क है?
क्या किसी
जिज्ञासु
के
लिए किसी से
प्रेरणा लेना
गलत है?
2—सामान्य
होना क्या है?
और आजकल इतनी
विकृति क्यों
है?
3—बोध को
उपलब्ध हुए
बिना उसे ‘अनुभव’ कैसे किया
जा सकता है?
जो अभी
घटा नहीं है
उसका भाव कैसे
संभव है?
पहला
प्रश्न :
कल
रात आपने कहा कि
कृष्ण,
क्राइष्ट और
बुद्ध मनुष्य
की संभवना और
विकास के
गौरीशंकर है, और फिर आपने
कहा कि योग और
तंत्र का
मनोविज्ञान
मनुष्य के
सामने कोई
आदर्श नहीं रखता
है और तंत्र
के अनुसार कोई
भी आदर्श रखना
एक भूल है। इस संदर्भ
में कृपया समझाएं
की प्रेरणा और
आदर्श में
क्या फर्क है।
किसी जिज्ञासु
के जीवन में
प्रेरणा का
क्या स्थान है?
और यह भी
समझाने की कृपा
करें कि क्या
किसी ध्यानी
के लिए किसी महापुरुष
से प्रेरणा लेना
भी एक भूल है।
बुद्ध
कृष्ण या
क्राइस्ट तुम्हारे
लिए आदर्श
नहीं हैं; तुम्हें
उनका अनुकरण
नहीं करना है।
अगर तुम उनका
अनुकरण करोगे
तो तुम उन्हें
चूक जाओगे और
तुम अपने
बुद्धत्व को
कभी उपलब्ध नहीं
होगे।
बुद्धत्व
आदर्श है; बुद्ध
आदर्श नहीं
हैं।
क्राइस्ट
आदर्श है; जीसस
आदर्श नहीं
हैं।
बुद्धत्व
गौतम बुद्ध से
भिन्न है।
क्राइस्ट
जीसस से भिन्न
है। जीसस अनेक
क्राइस्टों
में एक हैं।
तुम क्राइस्ट
हो सकते हो, लेकिन तुम
कभी जीसस नहीं
हो सकते। तुम
बुद्ध हो सकते
हो; लेकिन
तुम कभी गौतम
नहीं हो सकते।
एक दिन गौतम
बुद्ध हो गए
और तुम भी एक
दिन बुद्ध हो
सकते हो। बुद्धत्व
एक गुणवत्ता
है, एक
अनुभव है।
निश्चित
ही,
जब गौतम
बुद्ध हुए तो
उनका अपना ही
व्यक्तित्व
था। तुम्हारा
भी अपना ही
व्यक्तित्व
है। जब तुम
बुद्ध होगे तो
दोनों बुद्ध
एक जैसे नहीं
होंगे। आंतरिक
अनुभव तो एक
होगा; लेकिन
अभिव्यक्ति
भिन्न होगी—बिलकुल
भिन्न होगी।
उनमें कोई
तुलना संभव
नहीं है।
सिर्फ अंतरतम
केंद्र में
तुम समान होगे।
क्यों? क्योंकि
अंतरतम
केंद्र में
कोई
व्यक्तित्व नहीं
है। व्यक्ति
तो परिधि पर
है। तुम जितने
गहरे उतरते हो
उतना ही
व्यक्ति विलीन
हो जाता है।
अंतरतम
केंद्र में
तुम ऐसे हो
जैसे कि नहीं
हो; अंतरतम
केंद्र में
तुम एक गहन
शून्य भर हो।
और इस शून्यता
के कारण ही
वहां कोई भेद
नहीं है। दो
शून्य भिन्न
नहीं हो सकते;
लेकिन दो
गैर—शून्य
निश्चित ही
भिन्न होंगे।
दो गैर—शून्य
वस्तुत: कभी
एक जैसे नहीं
हो सकते। और
दो शून्य कभी
भिन्न नहीं हो
सकते।
जब
कोई परम शून्यता
ही हो जाता है, सिर्फ
एक शून्य
केंद्र रह
जाता है, तो
यह परम
शून्यता वह
तत्व है जो
जीसस, कृष्ण
और बुद्ध में
समान है। जब
तुम उस परम को
उपलब्ध होगे
तो तुम शून्य
हो जाओगे।
लेकिन
तुम्हारा
व्यक्तित्व, उस समाधि की
तुम्हारी
अभिव्यक्ति
निश्चित ही
भिन्न होने वाली
है।
मीरा
नाचेगी, बुद्ध
कभी नाच नहीं
सकते। नाचते
हुए बुद्ध की
कल्पना भी
संभव नहीं है।
वह बात ही
बेतुकी मालूम
पड़ेगी। लेकिन
बुद्ध की
भांति किसी
वृक्ष के नीचे
मीरा को बैठा दो
तो वह बात भी
उतनी ही
बेतुकी मालूम
पड़ेगी। वह
अपना सब कुछ
खो देगी; वह
मीरा बिलकुल नहीं
रहेगा। वह नकल
भी होगी।
सच्ची मीरा की
धारणा तो
प्रेम में
पागल, आनंदमग्न
नाचती हुई
मीरा की ही बन
सकती है। यह
उसका ढंग है।
बोधिवृक्ष
के नीचे बैठे
बुद्ध का और
आनंदमग्न
नाचती मीरा का, दोनों
का अंतरतम
समान होगा।
नाचती हुई
मीरा और
मूर्तिवत मौन
बैठे बुद्ध का
अंतरस्थ
केंद्र एक
होगा; लेकिन
उनकी परिधि
अलग—अलग होगी।
नृत्य और मौन
बैठना, दोनों
परिधि पर हैं।
अगर तुम मीरा
में प्रवेश
करोगे और गहरे
उतरोगे, नृत्य
खो जाएगा, मीरा
भी खो जाएगी।
वैसे ही यदि
तुम बुद्ध के
भीतर गहरे
जाओगे तो बैठना
खो जाएगा, व्यक्ति
की भांति
बुद्ध भी खो
जाएंगे।
इसका
अर्थ यह है कि
तुम बुद्ध तो
हो सकते हो, लेकिन
तुम कभी गौतम
बुद्ध नहीं हो
सकते। तुम
उन्हें अपना
आदर्श मत बनाओ;
अन्यथा तुम
उनका अनुकरण
करने लगोगे।
और यदि तुम
अनुकरण करोगे
तो क्या कर
सकते हो? तुम
कुछ चीजें
बाहर से
आरोपित करोगे;
लेकिन वह
आरोपण नकली
होगा, झूठा
होगा। तुम
झूठे हो जाओगे;
वह रंग—रोगन
भर होगा। तुम
बुद्ध जैसे
दिखोगे, बुद्ध
से भी बढ़कर
दिखोगे। तुम
दिख सकते हो; लेकिन वह
दिखावा भर
होगा, बाह्य
आडंबर भर होगा।
गहरे में तुम
वही के वही
रहोगे, जो
थे। और इससे
द्वैत पैदा
होगा, द्वंद्व
पैदा होगा, आंतरिक
संताप पैदा
होगा। और तुम
दुख में होगे।
तुम
आनंद में तभी
हो सकते हो जब
तुम
प्रामाणिक
रूप से स्वयं
होगे। जब तक
तुम किसी
दूसरे जैसे
होने का नाटक
करोगे, तुम्हें
कभी कोई सुख
की प्रतीति
नहीं हो सकती।
तो
तंत्र का यह
संदेश स्मरण
रहे : 'तुम स्वयं
आदर्श हो।
तुम्हें किसी
का अनुकरण
नहीं करना है,
तुम्हें
अपना
आविष्कार
करना है।’ किसी
बुद्ध को
देखकर
तुम्हें उनका
अनुकरण करने
की जरूरत नहीं
है। जब तुम
किसी बुद्ध को
देखते हो तो
तुम्हारे भीतर
यह संभावना
सजग हो जाती
है कि कुछ ऐसा
भी घटता है जो
इस जगत का नहीं
है।’बुद्ध'
तो एक
प्रतीक मात्र
है कि इस
व्यक्ति को
कुछ घटित हुआ
है। और यदि यह
इस व्यक्ति को
घटित हो सकता
है तो प्रत्येक
व्यक्ति को यह
घटित हो सकता
है। उनमें
मनुष्यता की
आत्यंतिक
संभावना
प्रकट हो जाती
है। जीसस, मीरा
या चैतन्य में
संभावना
प्रकट हुई है,
भविष्य
प्रकट हुआ है।
तुम्हें वही
बने रहने की
जरूरत नहीं है
जो तुम हो; उससे
बहुत अधिक
संभव है।
तो
बुद्ध केवल
भविष्य के एक
प्रतीक हैं; उनका
अनुकरण मत करो।
बल्कि उनका
जीवन, उनका
होना और
उन्हें घटित
हुई बुद्धत्व
की घटना, तुम्हारे
भीतर नई
अभीप्सा बन
जाए इतना
पर्याप्त है।
तुम्हें उससे
ही संतुष्ट
नहीं हो जाना
है जो तुम अभी
हो। बुद्ध को
अपने भीतर एक
असंतोष बन
जाने दो; पार
जाने की, अज्ञात
में जाने की
एक प्यास बन
जाने दो।
जब
तुम अपने
अस्तित्व के
शिखर पर
पहुंचोगे तो तुम
जान लोगे कि
बुद्ध को
बोधिवृक्ष के
नीचे क्या हुआ
था,
या जीसस को
सूली पर क्या
हुआ था, या
मीरा को सड़कों
पर नाचते हुए
क्या हुआ था।
तब तुम जान
लोगे। लेकिन
तुम्हारी
अभिव्यक्ति
तुम्हारी
अपनी होगी।
तुम मीरा या
बुद्ध या जीसस
नहीं होगे।
तुम स्वयं
होगे। तुम
पहले कभी नहीं
हुए; तुम
सर्वथा अनूठे
हो।
तो
कुछ कहा नहीं
जा सकता; तुम्हारे
बारे में कोई
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती। कोई
नहीं कह सकता
कि क्या होगा,
कि तुम उसे
कैसे प्रकट
करोगे। तुम
गाओगे, कि
नाचोगे, कि
चित्र बनाओगे
या कि मौन
रहोगे, कोई
नहीं कह सकता
है। और यह
अच्छा है कि
कुछ कहा नहीं जा
सकता, कोई भविष्यवाणी
नहीं की जा सकती।
यही इसका सौंदर्य
है। अगर तुम्हारे
संबंध में
भविष्यवाणी
की जा सके कि तुम
यह होंगे या
वह होगे तो
तुम एक
यांत्रिक चीज
हो जाओगे।
केवल
यांत्रिक
व्यवस्था के
संबंध में
भविष्यवाणी
संभव है।
मनुष्य की
चेतना के
संबंध में
भविष्यवाणी
असंभव है। वही
उसकी
स्वतंत्रता
है।
तो
जब तंत्र कहता
है कि आदर्शों
का अनुकरण मत करो
तो उसका
अभिप्राय
बुद्ध को
इनकार करना नहीं
है। नहीं, यह
बुद्ध का
इनकार नहीं है।
सच तो यह है कि
इसी भांति तुम
अपने
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
सकते हो।
दूसरों का
अनुकरण करने
से तो तुम उसे
चूक जाओगे।
अपने मार्ग पर
चलकर ही तुम
उसे प्राप्त
कर सकते हो, उपलब्ध हो
सकते हो।
एक
आदमी झेन
सदगुरु
बोकोजू के पास
आया। बोकोजू
के गुरु बहुत
प्रसिद्ध थे, जाने—माने
थे, महान
पुरुष थे। तो
उस आदमी ने
बोकोजू से
पूछा : 'क्या
आप सच में
अपने गुरु का
अनुसरण करते
हैं?' बोकोजू
ने कहा : 'ही,
मैं उनका
अनुसरण करता
हूं।’
लेकिन
प्रश्न पूछने
वाला बहुत
हैरान हुआ, क्योंकि
पूरे देश में
बात प्रसिद्ध
थी कि बोकोजू
अपने गुरु का
अनुसरण
बिलकुल नहीं
करता है। उसने
कहा 'क्या
आप मुझे धोखा
देने की
चेष्टा कर रहे
हैं? सब
लोग जानते हैं
और आप भी
जानते हैं कि
आप उनका
अनुसरण नहीं
करते हैं। तो
फिर आपका मतलब
क्या है?'
बोकोजू
ने कहा : 'मैं
अपने गुरु का
ही अनुसरण कर
रहा हूं—क्योंकि
मेरे गुरु ने
कभी अपने गुरु
का अनुसरण
नहीं किया।
मैंने उनसे
सही सीखा है।
वे जैसे थे
वैसे थे।’
इसी
भांति बुद्ध
या जीसस का
अनुसरण किया
जाना चाहिए।
इसी भांति! वे
अनूठे हैं। और
अगर तुम उनका
सच में अनुसरण
करते हो तो
तुम्हें भी
अनूठा होना
चाहिए।
बुद्ध
ने कभी किसी
का अनुकरण
नहीं किया; और
वे बुद्धत्व
को तभी उपलब्ध
हुए जब
उन्होंने सब
अनुकरण
सर्वथा बंद कर
दिया। जब वे
स्वयं हो गए, जब उन्होंने
सब मार्ग, सब
सिद्धांत छोड़
दिए तब वे
पहुंच गए। अगर
तुम उनका
अनुकरण करते
हो तो
यथार्थत: तुम उनका
अनुसरण नहीं
करते हो। यह
बात
विरोधाभासी
नहीं है; विरोधाभासी
दिखाई भर पड़ती
है। अगर तुम
उनका अंधे की
तरह अनुकरण
करते हो तो तुम
उनका अनुसरण
नहीं कर रहे
हो। उन्होंने
कभी किसी का अनुकरण
नहीं किया और
तो ही वे शिखर
बन सके।
उन्हें समझो;
उनका
अनुकरण मत करो।
और तब एक
सूक्ष्म
अनुसरण घटित
होगा जो आंतरिक
होगा। वह
अनुकरण नहीं
होगा।
नीत्शे
के महान ग्रंथ
'दस स्पेक
जरथुस्त्र' में अपने
शिष्यों के
प्रति
जरथुस्त्र का
अंतिम संदेश
यह है : 'मुझसे
सावधान रहो।
मैंने
तुम्हें वह सब
कह दिया जो
कहा जाने योग्य
था। अब मुझसे
सावधान रहो।
मेरा अनुकरण
मत करो; मुझे
भूल जाओ। मुझे
छोड़ो और दूर
चले जाओ।’
सभी
महान
सदगुरुओं का
यही अंतिम
संदेश है। कोई
महान गुरु
तुम्हें अपने
हाथ की
कठपुतली बनाना
नहीं चाहेगा।
क्योंकि तब वह
तुम्हारी
हत्या कर रहा
है। तब वह
गुरु नहीं, हत्यारा
है। सदगुरु तो
तुम्हें
स्वयं होने
में सहयोग करेगा।
और अगर तुम
अपने सदगुरु
की अंतरंग
सन्निधि और
सत्संग में
रहकर भी स्वयं
नहीं हो सकते,
तो फिर तुम
कहां स्वयं
होंगे?
सदगुरु
तुम्हें स्वयं
होने के लिए
एक अवसर है।
सिर्फ
क्षुद्र
चित्त के लोग, संकीर्ण
चित्त के लोग, जो गुरु होने
का दिखावा करते
है लेकिन है नहीं,
केवल वे ही
तुम पर अपने
को आरोपित
करने की
चेष्टा
करेंगे। महान
गुरु तो
तुम्हें
तुम्हारे
मार्ग पर ही बढ़ने
में सहायता
करेंगे।
सदगुरु सब
संभव उपाय
करेंगे कि तुम
अनुकरण के
शिकार न होओ।
उससे तुम्हें
बचाने के लिए
वे सब तरह की
बाधाएं
निर्मित
करेंगे; वे
तुम्हें
अनुकरण नहीं
करने देंगे।
तुम
तो अनुकरण
करना चाहोगे, क्योंकि
वह आसान है।
अनुकरण आसान
है; प्रामाणिक
होना कठिन है।
और जब तुम
अनुकरण करते
हो तो तुम
उसके लिए अपने
को जिम्मेवार
नहीं समझते।
तब गुरु
जिम्मेवार हो
जाता है। किसी
बड़े सदगुरु ने
कभी किसी को
अनुकरण करने की
इजाजत नहीं दी।
वह हरेक बाधा
निर्मित
करेगा, ताकि
तुम उसका
अनुकरण न कर
सको। वह हरेक
उपाय से
तुम्हें
स्वयं पर फेंक
देगा।
मुझे
स्मरण आता है
एक चीनी संत
का,
जो अपने
सदगुरु के
संबोधि दिवस
का उत्सव मना
रहा था। उसके
अनेक शिष्य
वहां इकट्ठे
थे। उन्होंने
कहा : 'हमने
तो कभी नहीं
सुना कि यह
व्यक्ति आपका
गुरु है; हमें
नहीं मालूम था
कि आप उसके
शिष्य हो।’
वह
का गुरु मर
चुका था।
उन्होंने कहा
: 'आज ही हमें
पता चला कि आप
अपने गुरु का
संबोधि—दिवस
मना रहे हो।
यह व्यक्ति
आपका गुरु था?
लेकिन कैसे?
हमने तो
आपको कभी उसके
साथ नहीं देखा।’
उस
संत ने कहा : 'मैं
तो उनका
अनुयायी बनना
चाहता था; लेकिन
उन्होंने
इनकार कर दिया।
उन्होंने
मेरा गुरु
बनने से इनकार
कर दिया। और
उनके इस इनकार
के कारण ही मैं
स्वयं हो सका।
अभी मैं जो
कुछ हूं वह
उनके इनकार के
कारण हूं। मैं
उनका शिष्य
हूं। वे मुझे
स्वीकार भी कर
सकते थे, तब
मैं सारी
जिम्मेवारी
उनके कंधों पर
डाल देता।
लेकिन
उन्होंने
इनकार कर दिया।
और वे
सर्वश्रेष्ठ
गुरु थे; वे
अप्रतिम थे, उनका कोई
जोड़ नहीं था।
जब उन्होंने
मुझे इनकार कर
दिया तो फिर
मैं और किसी
के पास नहीं
जा सका; क्योंकि
वे ही एकमात्र
शरण थे।
उन्होंने जब
इनकार कर दिया
तो फिर किसी
और के पास
जाने में कोई
अर्थ नहीं था,
कोई मतलब
नहीं था। मैं
किसी के पास
नहीं गया। वे
अंतिम थे। अगर
वे मुझे
स्वीकार कर लेते
तो मैं अपने
को भूल जाता।
लेकिन
उन्होंने
इनकार कर दिया,
और बहुत
कठोर ढंग से
इनकार कर दिया।
वह इनकार मेरे
लिए बड़ा आघात
बन गया, भारी
चुनौती बन गया।
और मैंने तय
कर लिया कि अब
मैं किसी के
भी पास नहीं
जाऊंगा। जब इस
व्यक्ति ने
इनकार कर दिया
तो कोई अन्य व्यक्ति
इस योग्य नहीं
था कि उसके
पास जाता। तब
मैंने खुद ही
अपने ऊपर काम
शुरू किया। और
तब मुझे धीरे—
धीरे बोध हुआ
कि उन्होंने
क्यों इनकार
किया था।
उन्होंने
मुझे मुझ पर
ही फेंक दिया
था। और तब
मुझे यह बोध
भी हुआ कि असल
में उन्होंने मुझे
स्वीकार कर
लिया था।
अन्यथा वे
इनकार क्यों
करते?'
यह
बात
विरोधाभासी
मालूम पड़ती है; लेकिन
चेतना का परम
गणित इसी तरह
काम करता है।
सदगुरु बड़े
रहस्यपूर्ण
होते हैं। तुम
उनके संबंध
में कोई
निर्णय नहीं
ले सकते; तुम
तय नहीं कर
सकते कि वे
क्या कर रहे
हैं। यह तो
तुम तभी
समझोगे जब
पूरी चीज घटित
हो जाएगी। तब पीछे
लौटकर देखने
पर ही तुम समझ
सकोगे कि वे
क्या कर रहे थे।
अभी तो यह असंभव
है। बीच
रास्ते में
तुम नहीं समझ
सकते कि क्या
हो रहा है, क्या
किया जा रहा
है। लेकिन एक
बात पक्की है :
नकल बिलकुल
स्वीकृत नहीं
है।
प्ररेणा
भिन्न चीज है।
प्रेरणा से तुम
यात्रा पर निकलते
हो; लेकिन यह
यात्रा किसी की
नकल में पड़
जाना नहीं है।
तुम चलते तो
अपने ही पथ पर
हो। प्रेरणा
चुनौती मात्र
है; एक
प्यास उठती है
और तुम चल
पड़ते हो।
तंत्र
कहता है कि
प्रेरणा तो लो, मगर
नकलची मत बनो।
सदा स्मरण रखो
कि तुम अपने
गंतव्य स्वयं
हो; कोई
दूसरा
तुम्हारा
गंतव्य नहीं
हो सकता। और
जब तक तुम उस
जगह नहीं
पहुंच जाते
जहां तुम कह
सको कि मैं
अपनी नियति को
उपलब्ध हो गया,
मैं
आप्तकाम हो
गया, तब तक
मत रुकना। तब
तक आगे बढ़ते
जाओ; तब तक
असंतुष्ट रहो;
तब तक बढ़ते
चलो। चरैवेति—चरैवेति।
और
यदि तुम अपना
कोई आदर्श
नहीं निर्मित
करते हो तो हर
कोई तुम्हें
कुछ न कुछ
सिखा सकता है।
जैसे ही तुम
किसी आदर्श से
बंध जाते हो, तुम
बंद हो जाते
हो। अगर तुम
बुद्ध से बंधे
हो तो फिर
जीसस तुम्हारे
काम के न रहे, फिर मोहम्मद
तुम्हारे लिए
न रहे। तब तुम
एक आदर्श से
बंधे हो और
उसकी नकल करने
में संलग्न हो।
तब और सब
भिन्न दिखने
वाले लोग
तुम्हारे मन
को शत्रु
मालूम पड़ने
लगते हैं।
महावीर
का अनुयायी
मोहम्मद के
प्रति खुले होने
की सोच भी
नहीं सकता; यह
असंभव है।
मोहम्मद
महावीर से
बिलकुल भिन्न
हैं, भिन्न
ही नहीं, विपरीत
हैं। वे दोनों
विपरीत
ध्रुवों जैसे
मालूम पड़ते हैं।
अगर तुम दोनों
को अपने चित्त
में एक साथ
रखोगे तो तुम
भारी द्वंद्व
में पड़ोगे।
तुम ऐसा नहीं
कर सकते हो।
यही
कारण है कि एक
के अनुयायी
दूसरों के
अनुयायियों
के दुश्मन बन
जाते हैं। वे
ही संसार में
शत्रुता के
बीज बीते हैं।
एक हिंदू नहीं
सोच सकता कि
मोहम्मद
ज्ञानी हो
सकते हैं। एक
मुसलमान नहीं
सोच सकता कि
महावीर
ज्ञानी हो
सकते हैं।
वैसे ही कृष्ण
का अनुयायी
नहीं सोच सकता
कि महावीर
ज्ञानी हो
सकते हैं, कि
जीसस ज्ञानी
हो सकते हैं।
जीसस कितने
उदास दिखते
हैं और कृष्ण
कितने आनंदित
हैं! कृष्ण का
आनंद और जीसस
की उदासी दोनों
बिलकुल
विपरीत ध्रुव
हैं। जीसस के
अनुयायी सोच
भी नहीं सकते
कि कृष्ण ज्ञान
को उपलब्ध हैं।
संसार में
इतना दुख है
और यह आदमी
बांसुरी बजा
रहा है! यह तो
हद दर्जे की
स्वार्थ की
बात मालूम
पड़ती है। सारी
दुनिया पीड़ा
में है और यह
अपनी गोपियों
के साथ नाच
रहा है! जीसस
के अनुयायी
इसे अधार्मिक
कहेंगे, सांसारिक
कहेंगे।
लेकिन
मैं यहां
अनुयायियों
की बात कर रहा
हूं। जीसस, बुद्ध
और कृष्ण बिना
किसी कठिनाई
के, बिना
किसी संघर्ष
के साथ—साथ रह
सकते हैं।
बल्कि वे एक—दूसरे
के साथ अति
आनंदित होंगे।
लेकिन उनके
अनुयायी ऐसा
नहीं कर सकते।
क्यों? ऐसा
क्यों है?
इसका
बहुत गहरा
मनोवैज्ञानिक
कारण है।
अनुयायी को
मोहम्मद या
महावीर से
मतलब नहीं है; उसे
अपनी चिंता है।
अगर दोनों ठीक
हैं तो वह
कठिनाई में
पड़ेगा। तब उसे
प्रश्न उठेगा
कि किसके पीछे
चला जाए, क्या
किया जाए।
मोहम्मद अपनी
तलवार हाथ में
लिए खड़े हैं
और महावीर
कहते हैं कि
कीड़े—मकोड़े को
मारना भी
जन्मों—जन्मों
का भटकाव हो
सकता है।
मोहम्मद तो
अपनी तलवार
लिए हैं; फिर
क्या किया जाए?
मोहम्मद
युद्ध करते
हैं और महावीर
जीवन से सर्वथा
पलायन कर जाते
हैं। वे इतना
पलायन
कर जाते हैं
कि श्वास लेने
से भी डरते
हैं। क्योंकि
जब तुम श्वास
लेते हो तो
उससे अनगिनत जीवन
नष्ट हो जाते
है। महावीर श्वास
लेने से भी डरते
है और मोहम्मद
युद्ध करते हैं।
कैसे उनमें से
किसी का भी
अनुयायी
विपरीत को भी
ठीक स्वीकार
करेगा? उसका
हृदय बंट
जाएगा और वह
सतत द्वंद्व
में फंसा
रहेगा। इससे
बचने के लिए
वह कहता है कि
अन्य सारे लोग
गलत हैं, सिर्फ
यही ठीक है।
लेकिन
यह समस्या उसी
ने पैदा की है।
यह समस्या
इसीलिए खड़ी
होती है
क्योंकि वह
अनुकरण करने
में लगा है।
उसकी कोई
जरूरत नहीं है।
अगर तुम किसी
से बंधे नहीं
हो तो तुम
अनेक नदियों
और अनेक कुओं
के पानी का
स्वाद ले सकते
हो। और यह कोई
समस्या नहीं
है अगर उनका
स्वाद भिन्न—भिन्न
है। यह तो
सुंदर बात है।
तुम उनसे
समृद्ध होते
हो। तब तुम
मोहम्मद और
महावीर और
क्राइस्ट और
जरथुस्त्र, सबके
प्रति खुले
होते हो। वे
सब तुम्हें
स्वयं होने के
लिए प्रेरणा
बन जाते हैं।
वे आदर्श नहीं
हैं; वे सब
स्वयं होने
में तुम्हारी
मदद करते हैं।
वे अपनी ओर
इशारा नहीं कर
रहे हैं; वे
तो अलग—अलग
उपायों से, अलग—अलग
ढंगों से
तुम्हें
तुम्हारी ओर
ही उगख कर रहे
हैं। वे एक ही
मंजिल की ओर
इशारा कर रहे
हैं; और वह
मंजिल तुम हो।
लारा
हक्सले ने एक
किताब लिखी है।
किताब का नाम
है : 'यू आर नाट दि
टारगेट', तुम
लक्ष्य नहीं
हो। लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम ही
लक्ष्य हो; तुम ही
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण और
क्राइस्ट के
लक्ष्य हो। वे
सबके सब
तुम्हारी तरफ
इशारा कर रहे
हैं। तुम ही
लक्ष्य हो, तुम ही
मंजिल हो।
तुम्हारे
द्वारा जीवन एक
अनूठे शिखर पर
पहुंचने की
चेष्टा में
लगा है। इससे
प्रसन्न होओ।
इसके लिए
कृतज्ञ होओ।
जीवन
तुम्हारे
द्वारा एक
अनूठी मंजिल
को प्राप्त
करने की कोशिश
कर रहा है। और
वह मंजिल
तुम्हारे
द्वारा ही
प्राप्त की जा
सकती है, कोई
दूसरा उसे
नहीं प्राप्त
कर सकता है।
तुम उसके लिए
बने हो; वही
तुम्हारी
नियति है।
तो
दूसरों के
अनुकरण में
समय मत गंवाओ।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं है
कि किसी से
प्रेरणा नहीं
लेनी है। सच
तो यह है कि
अगर तुम किसी
का अनुकरण
नहीं कर रहे
हो तो तुम
आसानी से
प्रेरणा ले
सकते हो। अगर
तुम अनुकरण कर
रहे हो तो तुम
मुर्दा हो; तब
तुम प्रेरणा
नहीं ले सकते।
प्रेरणा
खुलापन है; अनुकरण बंद
होना है।
दूसरा
प्रश्न:
आपने
कहा कि पश्चिम
का मनोविज्ञान
फ्रायड की
मानसिक रुग्णता
की धारणा पर
आधारित
है और पूर्वीय
मनोविज्ञान
मनुष्य के
मूल्यांकन के लिए
अधिसामान्य
को आधार की
तरह उपयोग
करता है। लेकिन
जब मैं आधुनिक
जगत में अपने
चारों ओर
देखता हूं तो पाता
हूं कि सर्वाधिक
लोग फ्रायड की
रुग्णता की कौटी
मैं आते है; लाखों
में एक व्यक्ति
अधिसामान्य की
कोटी में है।
और बहुत थोड़े
से लोग समाज
के सामान्य के
आदर्श के अनुकूल
पड़ते हैं। आजकल
इतनी ज्यादा रूग्णता
क्यों है? और
आप सामान्य की
क्या परिभाषा
करेंगे?
बहुत
सी बातें
समझने जैसी
हैं। ऐसा नहीं
है कि बहुत
थोड़े लोग अपने
शिखर को उपलब्ध
होते हैं; अनेक
होते हैं; लेकिन
उन्हें देखने
वाली आंखें
तुम्हारे पास
नहीं हैं। जब
तुम अपने चारों
और देखते हो तो
तुम वही देखते
हो जो देख सकते
हो। तुम उसे कैसे
देख सकते हो
जिसे तुम नहीं
देख सकते? तुम्हारी
देखने की
क्षमता से
बहुत सी बातें
तय होती हैं।
तुम वही सुनते
हो जो सुन
सकते हो, वह
नहीं जो है।
अगर
कोई बुद्ध
पुरुष
तुम्हारे पास
से गुजरे तो
तुम उसे नहीं
पहचान पाओगे।
और तुम मौजूद
थे जब बुद्ध गुजरे
थे;
लेकिन तुम
उन्हें चूक गए।
तुम मौजूद थे
जब जीसस जीवित
थे; लेकिन
तुमने उन्हें
सूली पर चढ़ा
दिया। देखना
कठिन है, क्योंकि
तुम अपने ही
ढंग से देखते
हो। तुम्हारी
अपनी धारणाएं
हैं; तुम्हारी
अपनी
मान्यताएं
हैं; तुम्हारे
अपने रुझान
हैं। उनके
द्वारा तुम
बुद्ध या जीसस
को देखते हो।
जीसस
तुम्हें
अपराधी दिखाई
पड़े। जब जीसस
को सूली दी गई
तो उन्हें दो
अन्य अपराधियों
के साथ सूली
पर चढ़ाया गया।
उनके दोनों
तरफ एक—एक चोर
था। तीन
व्यक्तियों
को सूली पर
चढ़ाया गया और
जीसस ठीक दो
चोरों के बीच
में थे। क्यों? उन्हें
अनैतिक अपराधी
माना गया। और
तुम निर्णायक
थे। अगर जीसस
अभी फिर आ
जाएं तो तुम
फिर उन्हें उसी
तरह अपराधी
ठहराओगे, क्योंकि
तुम्हारे
निर्णय के ढंग,
तुम्हारे
मापदंड नहीं
बदले हैं।
जीसस
किसी के भी
साथ रह लेते
थे,
किसी के भी
घर ठहर जाते
थे। वे एक बार
एक वेश्या के
घर में ठहरे, और सारा
गांव उनके
विरोध में हो
गया। लेकिन
उनके मूल्य
भिन्न थे। वह
वेश्या आई और
उसने आंसुओ से
जीसस के पांव
धोए। उसने
उनसे कहा : 'मैं
दोषी हूं; मैं
पापी हूं। और
आप मेरी
एकमात्र आशा
हैं। अगर आप
मेरे घर आएंगे
तो मैं पाप से
मुक्त हो जाऊंगी;
मुझे नया
जीवन मिल जाएगा।
अगर जीसस मेरे
घर आ सकते हैं
तो मैं
स्वीकृत हूं।’
तो जीसस गए
और उस वेश्या
के मेहमान हुए।
लेकिन सारा
गाव उनके
खिलाफ हो गया।
लोग कहने लगे
कि यह किस ढंग
का आदमी है जो
वेश्या के घर
टिकता है!
लेकिन जीसस के
लिए प्रेम मूल्य
है। और किसी
ने भी उन्हें
ऐसा प्रेमपूर्ण
निमंत्रण
नहीं दिया था।
वे इनकार नहीं
कर सकते थे।
और यदि जीसस
इनकार करते तो
वे प्रबुद्ध
नहीं थे। तब
वे भी सामाजिक
सम्मान के
पीछे दौड़ने
वालों में से
एक होते।
लेकिन वे
सामाजिक
सम्मान की खोज
में नहीं थे।
एक
दूसरे गांव
में गाव के
लोग एक स्त्री
को लेकर जीसस
के पास आए। उस
स्त्री ने
व्यभिचार
किया था।
पुरानी
बाइबिल में
लिखा है कि
यदि कोई
स्त्री
व्यभिचार करे
तो उसे पत्थर
फेंक कर मार
डालना चाहिए।
यह नहीं लिखा
है कि
व्यभिचार के
भागी पुरुष को
मार डालना
चाहिए; लिखा
है कि स्त्री
को मार डालना
चाहिए।
क्योंकि
स्त्री व्यभिचार
करती है, पुरुष
कभी व्यभिचार
नहीं करता।
कारण यह है कि
सभी
धर्मशास्त्र
पुरुषों ने लिखे
हैं। और यह एक
कठिन सवाल था;
तो
उन्होंने
जीसस से पूछा
कि क्या करना
चाहिए।
वे
लोग जीसस के
साथ चाल चल
रहे थे। अगर
जीसस कहते कि
इस स्त्री को
मत मारो, किसी
के निर्णायक मत
बनो, तो वे
कहते कि आप
शास्त्र के
खिलाफ हैं। और
अगर जीसस कहते
कि इस स्त्री
को मार डालो, पत्थर
फेंककर मार
डालो, तो
वे कहते कि
आपके इस उपदेश
का क्या हुआ
कि अपने
शत्रुओं को
प्रेम करो' और आपका वह
उपदेश कहां
गया कि 'किसी
के निर्णायक मत
बनी, ताकि
तुम पर भी कोई
निर्णय न ले।'
ऐसे वे चाल
चल रहे थे। वे जीसस
के लिए एक धर्म—संकट पैदा
कर रहे थे, एक
तार्किक झंझट
पैदा कर रहे
थे। जीसस कुछ
भी कहते, वे
उसमें ही पकड़े
जाते।
लेकिन
तुम बुद्ध
पुरुष को नहीं
पकड़ सकते; यह
असंभव है। यह
बिलकुल असंभव
है। और तुम
जितनी ही
उन्हें फांसने
की कोशिश
करोगे, उतने
ही तुम उनके
फंदे में पड़
जाओगे। जीसस
ने कहा : 'शास्त्र
बिलकुल सही
हैं। लेकिन वे
ही लोग आगे
आएं
जिन्होंने
कभी व्यभिचार
न किया हो। और
ये पत्थर उठाओ
और इस स्त्री
की हत्या कर
दो, लेकिन
वे ही पत्थर
उठाएं
जिन्होंने
कभी व्यभिचार
न किया हो।’
इतना
सुनते ही भीड़
छंटने लगी। जो
लोग आगे खड़े
थे वे पीछे
सरकने लगे।
कौन इस स्त्री
को पत्थर मारे? लेकिन
वे लोग जीसस
के शत्रु बन
गए।
और
जब मैं कहता
हूं 'वे' तो
मेरा मतलब
तुमसे है। तुम
सदा यहां रहे
हो। तुम नहीं
पहचान सकते; तुम नहीं
देख सकते; तुम
अंधे हो। यही
कारण है कि
तुम्हें सदा
लगता है कि
जगत बुरा है
और यहां कोई
बुद्ध नहीं है;
यहां सब
रुग्ण लोग हैं।
ऐसा नहीं है।
लेकिन
तुम्हें
सिर्फ
रुग्णता
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
तुम रुग्ण हो।
तुम्हें
बीमारी समझ
में आती है, क्योंकि तुम
बीमार हो। तुम
कभी
स्वास्थ्य को
नहीं समझ सकते,
क्योंकि
तुम कभी
स्वस्थ नहीं
रहे।
स्वास्थ्य की
भाषा
तुम्हारी समझ
के बाहर है।
मैंने
एक यहूदी संत
बालशेम के
संबंध में
सुना है। कोई
आदमी आया और
उसने बालशेम
से पूछा. 'क्या
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है, क्या
ज्यादा
मूल्यवान है—धन
या विवेक?' वह
आदमी यह
प्रश्न किसी
कारण से पूछ
रहा था। तो
बालशेम हंसा
और उसने कहा. 'निश्चित ही
विवेक ज्यादा
महत्वपूर्ण
है, ज्यादा
मूल्यवान है।’
तब उस आदमी
ने कहा : 'फिर,
बालशेम, दूसरा
सवाल यह है कि
मैं हमेशा
देखता हूं कि
विवेकपूर्ण
होकर भी तुम
ही धनियों के
पास जाते हो।
तुम ही सदा
धनी लोगों के
घर जाते हो; मैंने कभी
किसी धनवान को
तुम्हारे पास,
विवेक वाले
के पास, आते
नहीं देखा। और
तुम कहते हो
कि धन से
विवेक ज्यादा
मूल्यवान है।
तो यह बात
मुझे समझाओ।’
बालशेम
हंसा और उसने
कहा. 'विवेक वाले
धनवान के पास
जाते हैं, क्योंकि
उनमें विवेक
है और वे धन का
मूल्य जानते
हैं। और धनवान
सिर्फ धनवान
हैं—उनके पास
केवल धन है, और कुछ भी
नहीं है—वे
विवेक का
मूल्य नहीं
समझ सकते।
निश्चित ही
मैं जाता हूं
क्योंकि मैं
धन का मूल्य
समझता हूं। और
वे गरीब
मूढ़जन! वे
सिर्फ धनवान
हैं—और कुछ भी
नहीं। वे
विवेक का
मूल्य नहीं समझ
सकते, इसलिए
वे कभी मेरे
पास नहीं आते
हैं।’
अगर
तुम किसी संत
को राजमहल की
ओर जाते
देखोगे तो तुम
कहोगे कि यह
आदमी संत नहीं
है;
बात ही खत्म
हो गई।
क्योंकि तुम
अपनी ही आंखों
से देखते हो।
धन तुम्हारे
लिए
महत्वपूर्ण
है। तुम उसी
संत के पीछे
चलोगे जो धन
का त्याग कर
देता है, क्योंकि
तुम धन—लोलुप
हो। तुम अपने
को गौर से
देखो; तुम
जो भी कहते हो
वह दूसरों की
बजाय
तुम्हारे
संबंध में
ज्यादा खबर
देता है। वह
सदा तुम्हारे
संबंध में है;
तुम संदर्भ
हों। जब तुम कहते
हो कि बुद्ध
ज्ञान को
उपलब्ध नहीं है।
तो तुम्हारा
मतलब कुछ और है।
तुम्हारा
मतलब इतना ही
है कि तुम्हें
वे ज्ञान को
उपलब्ध दिखाई
नहीं पड़ते हैं।
लेकिन
तुम कौन हो? और
क्या उनका
बुद्धत्व
किसी भी तरह
से तुम्हारे
रुझान, तुम्हारे
मत, तुम्हारे
दृष्टिकोण पर
निर्भर है?
तुम्हारी धारणाओं
के बंधे—बंधाए
ढांचे है और तुम
निरंतर उन्हीं
के माध्यम से
निर्णय लेते
रहते हो।
तुम्हें
रुग्णता
पहचान आती है,
बुद्धत्व
नहीं।
और
स्मरण रहे, तुम
उसे नहीं समझ
सकते जो तुमसे
ऊंचा है। तुम
उसे ही समझ
सकते हो जो
तुमसे छोटा है
या ज्यादा से
ज्यादा
तुम्हारे
बराबर है।
उच्चतर को तुम
नहीं समझ सकते;
वह असंभव है।
उच्चतर को
समझने के लिए
तुम्हें ऊंचा
उठना होगा।
तुम निम्नतर
को ही समझ
सकते हो।
इसे
इस तरह देखो।
एक पागल आदमी
तुम्हें नहीं
समझ सकता, पागल
के लिए
तुम्हें
समझना असंभव
है। वह अपने
पागलपन की आंखों
से देखता है।
लेकिन तुम
पागल आदमी को
समझ सकते हो।
वह तुमसे नीचे
है। सामान्य
व्यक्ति
असामान्य को
समझ सकता है
जो सामान्य से
नीचे गिर गया
है, रुग्ण
है। लेकिन वह
अपने से ऊंचे
को नहीं समझ
सकता है।
फ्रायड
भी भयभीत है।
दा ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि एक बार ऐसा
हुआ कि वह
फ्रायड के
सपनों का
विश्लेषण करना
चाहता था। दा
फ्रायड के
प्रधान
शिष्यों में
से एक था। वे जहाज
से अमेरिका जा
रहे थे; तो कई
दिनों का साथ
था। एक दिन दा
ने हिम्मत की;
वह उन दिनों
फ्रायड का
सबसे अंतरंग
शिष्य था।
उसने फ्रायड
से कहा : 'मैं
आपके स्वप्नों
का विश्लेषण
करना चाहता
हूं आप कृपया
अपने कुछ
स्वप्न बताएं।
बहुत दिन हम
लोग साथ
रहेंगे; मैं
इस बीच आपके स्वप्नों
का विश्लेषण
करूंगा।’ पता
है, फ्रायड
ने क्या कहा? फ्रायड ने
कहा : 'क्या
इरादा है
तुम्हारा? यदि
तुम मेरे स्वप्नों
का विश्लेषण
करने लगोगे तो
मेरा प्रभाव
ही खत्म हो
जाएगा। मैं
तुम्हें अपने
स्वप्न नहीं
बता सकता।’
फ्रायड
इतना भयभीत था; क्योंकि
उसके स्वप्नों
में वे ही रोग,
वे ही
विकृतियां
प्रकट होंगी
जो रोग और
विकृतियां
उसे दूसरों के
स्वप्नों
में मिलती रही
हैं। उसने कहा
: 'मैं अपना
प्रभुत्व
नहीं खो सकता,
मैं
तुम्हें अपने
सपने नहीं
बताऊंगा।’
फ्रायड, इस
युग का सबसे
बड़ा मनसविद भी
उन सारे रोगों
का शिकार है
जिनके शिकार
दूसरे लोग हैं।
और जब दा ने
कहा कि मैं अब
तुमसे अलग हो
जाऊंगा तो यह
सुनकर फ्रायड
कुर्सी से गिर
पड़ा और बेहोश
हो गया। वह गश
खाकर गिर पड़ा
और घंटों
मूर्च्छित
रहा। एक शिष्य
द्वारा
त्यागे जाने
का विचार ही
इतना भारी
आघात कर गया
कि उसकी चेतना
जाती रही।
अगर
तुम बुद्ध से
कहो कि मैं
आपको छोड़
दूंगा तो क्या
तुम सोचते हो
कि वे गिर
पड़ेंगे और
बेहोश हो
जाएंगे? अगर
सारे के सारे
दस हजार शिष्य
भी उन्हें छोड्कर
चले जाएं तो
बुद्ध
प्रसन्न ही
होंगे, बहुत
प्रसन्न
होंगे कि
अच्छा हुआ कि
तुम चले गए।
क्यों
ऐसा होता है? क्योंकि
तुम्हारे
मनसविद भी
तुम्हारे
जैसे ही हैं।
वे ऊपर से
नहीं आए हैं।
उनकी
समस्याएं भी
वही हैं जो
तुम्हारी हैं।
एक मनसविद
दूसरे मनसविद
के पास अपना
मनोविश्लेषण
कराने जाता है।
यह ऐसा नहीं
है कि एक
डाक्टर दूसरे
डाक्टर के पास
इलाज कराने
जाए। डाक्टरों
के लिए यह ठीक
है, उन्हें
क्षमा किया जा
सकता है।
लेकिन यह बहुत
बेतुका मालूम
पड़ता है कि एक
मनसविद दूसरे
मनसविद के पास
अपना
विश्लेषण कराने
जाए। इसका
क्या अर्थ है?
इसका
यही अर्थ है
कि वह भी
साधारण आदमी
है।
मनोविज्ञान
एक धंधा भर है।
बुद्ध किसी
धंधे में नहीं
है; वे कोई
साधारण जन
नहीं हैं। वे
एक नए सत्य को
उपलब्ध हैं; वे चेतना की
एक नई अवस्था
में हैं। अब
वे शिखर पर
खड़े होकर
देखते हैं। वे
तुम्हें समझ
सकते हैं; लेकिन
तुम उन्हें
नहीं समझ सकते
हो। और वे
चाहे जितनी भी
चेष्टा करें,
तुम्हारे
लिए उन्हें
समझना असंभव
है। तब तक तुम
उन्हें गलत
समझते रहोगे
जब तक तुम उनके
व्यक्तित्व
से न जुड़कर
शब्दों से
बंधे रहोगे; जब तक तुम
शब्दों की
बजाय उनकी
चुंबकीय
शक्ति से नहीं
बंधते हो। जब
तक तुम एक
लोहे के टुकड़े
की भांति उनके
चुंबकत्व के
प्रभाव में
नहीं पड जाते
हो, तब तक
तुम उन्हें
नहीं समझ
सकोगे। तुम
गलत ही समझोगे।
यही
कारण है कि
तुम नहीं देख
पाते हो।
लेकिन बुद्ध
पुरुष सदा ही
पृथ्वी पर हैं।
रुग्णता
पहचान में आती
है,
क्योंकि हम
रुग्ण लोग हैं।
हम रुग्णता को
देख सकते हैं,
समझ सकते
हैं।
दूसरी
बात,
यदि ऐसा भी
हो कि पूरे
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
एक ही व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ हो—एक
ही व्यक्ति
बुद्ध हुआ हो—वह
भी तुम्हारी
संभावना
दिखाने के लिए
पर्याप्त है।
यदि एक मनुष्य
को भी
बुद्धत्व
घटित हो सकता
है तो तुम्हें
क्यों नहीं
घटित हो सकता?
अगर एक बीज
फूल बन सकता
है तो प्रत्येक
बीज में फूल
बनने की
क्षमता है। हो
सकता है कि
तुम केवल बीज
हो, लेकिन
अब तुम अपने
भविष्य को
जानते हो कि
बहुत कुछ संभव
है।
लेकिन
मनुष्य के मन
के साथ विपरीत
ही घटित हो रहा
है। और यह सदा
से घटित हो
रहा है। तुमने
ककून या कोया
देखा होगा; कोया
टूटता है और
उससे तितली
निकलकर बाहर
उड़ती है।
मनुष्य की
प्रक्रिया
उलटी है।
मनुष्य तितली
की भांति जन्म
लेता है और
फिर वह कोया
में प्रवेश कर
जाता है।
प्रत्येक
बच्चा बुद्ध
जैसा पैदा
होता है और फिर
उससे दूर हटता
जाता है।
बच्चे
को देखो; उसकी आंखों
को देखो। किसी
भी बडे व्यक्ति
की आंख से
उसकी आंख
ज्यादा बुद्ध
जैसी है। उसके
बैठने का ढंग,
चलने का ढंग,
उसका
सौंदर्य, उसका
प्रसाद, उसका
क्षण— क्षण
जीना, उसका
क्रोध तक, सब
कितना सुंदर
है! वह इतना
समग्र है। और
जब भी कोई चीज
समग्र होती है,
वह सुंदर
होती है।
किसी
बच्चे को
क्रोध में
उछलते—कूदते, चीखते—चिल्लाते
देखो। सिर्फ
देखो! अपनी
फिक्र छोड़ो कि
वह तुम्हारी शांति
भंग कर रहा है।
इस घटना को
मात्र देखो।
वह क्रोध
सुंदर है; क्योंकि
बच्चा उसमें
इतनी समग्रता
से है कि कुछ
भी पीछे नहीं
बचा है। वह
क्रोध ही हो
गया है; और
वह इतना
प्रामाणिक है
कि कुछ भी
दमित नहीं हो
रहा है। वह
अपने को जरा
भी नहीं रोक
रहा है; वह
क्रोध में डूब
गया है, क्रोध
ही हो गया है।
बच्चे को देखो
जब वह प्रेम
करता है, जब
वह तुम्हारा
स्वागत करता
है, जब वह
तुम्हारे पास
आता है। वह
बुद्ध जैसा है।
लेकिन शीघ्र
ही समाज आएगा,
उसे कोया
में प्रवेश
करने में मदद
देगा। और
बच्चा कोया
में बंद होकर
मर जाता है।
हम पालने से
सीधे कब में
प्रवेश कर
जाते हैं। यही
कारण है। कि
यहां इतनी
रुग्णता है; किसी को भी
सहज और
स्वाभाविक
नहीं रहने
दिया जाता है।
रुग्णता तुम
पर लाद दी
जाती है। तुम
एक मुर्दा
ढांचे में कैद
हो जाते हो; और तब
तुम्हारे सहज प्राण
दुखी—पीड़ित
होते हैं।
यहां इतनी
रुग्णता है, इसका यही
कारण है।
यह
रुग्णता
मनुष्य—निर्मित
है;
मनुष्य जितना
सभ्य होता जाता
है, उतना ही
रुग्ण होता जाता
है। यह कसौटी
है : अगर
तुम्हारे देश
में कम पागल
हैं तो समझ लो
कि तुम्हारा
देश कम सभ्य
है। और अगर
तुम्हारे देश
में पागलों की
संख्या बढती
जाती है, अगर
हर कोई
विक्षिप्त हो
रहा है और
मनोचिकित्सक
के पास जा रहा
है तो
भलीभांति समझ
लो कि तुम्हारा
देश संसार में
सबसे ज्यादा
सभ्य है। और
जब कोई देश
सभ्यता के
शिखर को छू
लेगा तो उसका
एक—एक नागरिक
पागल होगा।
सभ्यता
तुम्हें पागल
कर देती है, क्योंकि
वह तुम्हें
स्वयं और सहज
नहीं होने देती।
सब कुछ दमित
है; और दमन
के साथ हर चीज
विकृत हो जाती
है। तुम सहजता
से श्वास भी
नहीं ले सकते
हो—और चीजों
की तो बात ही
मत पूछो।
तुम्हारी
श्वास भी असहज
हो जाती है।
तुम गहरी श्वास
नहीं ले सकते;
क्योंकि
समाज गहरी
श्वास नहीं
लेने देता है।
गहरी
श्वास लो। अगर
तुम गहरी
श्वास लोगे तो
तुम अपनी
वृत्तियों का
दमन नहीं कर
सकोगे। अगर
तुम किसी चीज
का दमन करना
चाहते हो तो
तुम देखोगे कि
तुम्हारी
श्वास—क्रिया
में बदलाहट
होने लगी।
तुम्हें क्रोध
आया है और तुम
उसे दबाना
चाहते हो तो
तुम क्या
करोगे? तुम
तुरंत श्वास
लेना बंद कर
दोगे।
क्रोध
में श्वास
गहरी जाती है, क्योंकि
क्रोध के लिए
जरूरी है कि
तुम्हारे भीतर
खून का गर्म
प्रवाह हो; क्रोध के
लिए ज्यादा
आक्सीजन
जरूरी है।
क्रोध के लिए
जरूरी है कि
तुम्हारे
भीतर कुछ
रासायनिक
परिवर्तन हों।
और वे
परिवर्तन
गहरी श्वास
लेने से घटित
होते हैं। तो
जब तुम्हें
क्रोध आएगा और
तुम उस क्रोध
को दबाना
चाहोगे तो तुम
स्वाभाविक
ढंग से श्वास न
ले सकोगे। तुम
उथली श्वास
लोगे।
किसी
बच्चे को कहो
कि अमुक काम
मत करो, और
तुम देखोगे कि
तुरंत उसकी
श्वास उथली हो
गई। अब वह
गहरी श्वास न
ले सकेगा, क्योंकि
यदि वह गहरी
श्वास लेगा तो
वह तुम्हारी
आज्ञा का पालन
नहीं कर पाएगा।
तब वह वही
करेगा जो वह
करना चाहता है।
आदमी गहरी
श्वास भी नहीं
ले रहा है।
अगर तुम गहरी
श्वास लोगे तो
तुम्हारे
भीतर काम—केंद्र
पर चोट पड़ेगी।
और समाज इसके
विरुद्ध है।
धीमी श्वास लो;
उथली श्वास
लो। गहरे मत
जाओ; और तब
काम—केंद्र पर
चोट नहीं
पड़ेगी।
सच
तो यह है कि
सभ्य मनुष्य
प्रगाढ़ काम—संभोग
में असमर्थ हो
गया है, क्योंकि
वह गहरी श्वास
नहीं ले सकता।
काम—कृत्य में
तुम्हारी
श्वास इतनी
गहरी होनी
चाहिए कि
तुम्हारा
सारा शरीर उसमें
संलग्न हो।
अन्यथा
तुम्हें
आर्गाज्य
नहीं होगा, शिखर अनुभव
नहीं होगा और
तुम्हें
सिर्फ निराशा
हाथ लगेगी।
अनेक
लोग मेरे पास
आते हैं और
कहते हैं कि
हमें काम—कृत्य
में कोई सुख
नहीं मिलता है।
हम उसे
यंत्रवत करते
हैं,
जिसमें
सिर्फ ऊर्जा
ही खोती है।
और बाद में हम
निराश होते
हैं, विषाद
महसूस करते
हैं।
इसका
कारण काम नहीं
है;
कारण यह है
कि वे इसमें
समग्रता से
नहीं उतरते
हैं। उनका काम—कृत्य
स्थानीय होकर
रह जाता है, जिसमें
सिर्फ
वीर्यपात
होता है। तब
वे निर्बल महसूस
करते हैं और
कुछ उससे
मिलता भी नहीं।
अगर पशुओं की
तरह तुम्हारा
सारा शरीर संभोग
में संलग्न हो,
अगर शरीर का
रोआं—रोआं
उत्तेजित
होकर कांपने
लगे, अगर
तुम्हारा
सारा शरीर जैसे
विधुत—शक्ति से
भावाविष्ट हो
जाए, अगर
तुम अहंकाररहित,
मस्तिष्करहित
हो जाओ, अगर
विचारणा न रहे,
अगर
तुम्हारा
शरीर एक
लयबद्ध गति
में डूब जाए, तब तुम्हें
एक प्रगाढ़ सुख
की अनुभूति
होगी। तब तुम
एक गहन
विश्राम
अनुभव करोगे
और किसी अर्थ
में परितृप्त
भी।
लेकिन
यह नहीं हो
सकता; क्योंकि
तुम गहरी
श्वास नहीं ले
सकते हो। तुम
इतने भयभीत हो।
शरीर
को देखो। उसके
दो छोर हैं।
एक छोर, ऊपरी
छोर चीजों को
भीतर ले जाने
के लिए है, तुम्हारा
सिर चीजों .को
भीतर ले जाने
के लिए है। वह
सब कुछ भीतर
ले जाता है।
भोजन, वायु,
प्रभाव, विचार,
कोई भी चीज
वह ग्रहण करता
है; उससे
तुम चीजों को
भीतर ले जाते
हो। यह एक छोर
है। दूसरा छोर
नीचे का शरीर
है; वह
त्यागने के
लिए है, ग्रहण
के लिए नहीं।
निचले शरीर से
तुम कोई चीज
भीतर नहीं ले
जा सकते, वह
छोर त्यागने
के लिए है, छोड़ने
के लिए है, बाहर
निकालने के
लिए है। ऊपरी
शरीर से तुम
लेते हो और
निचले शरीर से
त्यागते हो, छोड़ते हो।
लेकिन
सभ्य मनुष्य केवल
भीतर लेता है, कभी
छोड़ता नहीं।
उससे ही
रुग्णता पैदा
होती है; तुम
विक्षिप्त हो
जाते हो। यह
ऐसे ही है
जैसे कि तुम
भोजन तो लो, उसे भीतर
जमा करते जाओ
और कभी मल
त्याग न करो।
तुम पागल हो
जाओगे। दूसरे
छोर को काम
में लाना है।
अगर कोई आदमी
कंजूस है तो
वह जरूर कब्जियत
का शिकार होगा।
किसी कंजूस को
देखो; वह
कब्जियत से
पीड़ित होगा।
कंजूसी एक तरह
की
आध्यात्मिक
कब्जियत है।
इकट्ठा किए
जाओ; कुछ
छोड़ो मत।
जो
लोग सेक्स के, काम
के विरोधी हैं,
वे बस कृपण
लोग हैं। वे
भोजन तो भीतर
लिए जाते हैं,
लेकिन वे
काम—ऊर्जा का
त्याग नहीं करेंगे।
तब वे
विक्षिप्त हो
जाएंगे। और
उसे काम—केंद्र
से ही बाहर
निकालना
जरूरी नहीं है।
एक और संभावना
भी है, उसे
सहस्रार से भी,
सिर में
स्थित
तुम्हारे
सर्वोच्च
केंद्र से भी
मुक्त किया जा
सकता है।
तंत्र यही
सिखाता है।
लेकिन उसे
छोड़ना ही होगा;
तुम उसे सदा
जमा नहीं कर
सकते। संसार
में कुछ भी
जमा नहीं रखा
जा सकता; संसार
एक बहाव है, एक नदी है।
ग्रहण करो और
त्यागो। अगर
तुम ग्रहण ही
करते रहोगे और
त्याग कभी न करोगे
तो तुम पागल
हो जाओगे।
वही
हो रहा है।
प्रत्येक
व्यक्ति लेने
में लगा है; कोई
देने को राजी
नहीं है। जब
देने का समय
आता है, तुम
भयभीत हो जाते
हो। तुम सिर्फ
लेना चाहते हो—प्रेम
भी। तुम चाहते
हो कि कोई
तुम्हें
प्रेम दे।
बुनियादी
जरूरत यह है
कि तुम किसी
को प्रेम दो।
तब तुम मुक्त
होगे, हलके
होगे। कोई
तुम्हें
प्रेम करे, इससे काम
नहीं चलेगा; क्योंकि तब
तुम ले भर रहे
हो। दोनों
छोरों को
संतुलित होना
चाहिए; तब
स्वास्थ्य
घटित होता है।
और मैं उसे ही
सामान्य आदमी
कहता हूं। वही
सामान्य है
जिसके ग्रहण
और त्याग
बराबर हैं, संतुलित हैं।
वही आदमी
सामान्य है।
और
उस आदमी को
मैं असामान्य
कहता हूं जो
लेता तो बहुत
है,
लेकिन देना
नहीं जानता।
वह कुछ देता
ही नहीं है।
यदि वह कुछ
देता भी है तो
मजबूरी में
देता है। यह
उसकी अपनी
मर्जी नहीं है।
तुम उससे कुछ
छीन सकते हो; तुम उसे
देने के लिए
मजबूर कर सकते
हो। वह अपनी मर्जी
से नहीं देगा; उसका देना एनिमा
जैसा है। तुम मजबुर
करते हो तो वह
मल त्याग करता
है। वह अपनी
मर्जी से मल
त्याग नहीं
करता है; वह
राजी नहीं है।
हर चीज को
इकट्ठा किए
जाना
विक्षिप्तता
है। और तब वह
विक्षिप्त हो
जाएगा, क्योंकि
पूरी
व्यवस्था
गड़बड़ हो जाती
है। वह
असामान्य है।
और
अधिसामान्य
वह है जो देता
ही है, कभी
ग्रहण नहीं
करता। ये तीन
कोटियां हैं।
असामान्य
लेता ही लेता
है, कभी
देता नहीं।
सामान्य का
लेना और देना
संतुलित है।
और
अधिसामान्य
कभी लेता नहीं
है, देता
ही देता है।
बुद्ध दाता
हैं, दानी
हैं; विक्षिप्त
आदमी
परिग्रही है।
वह बुद्ध के
विपरीत छोर पर
है। यदि दोनों
छोर संतुलित
हों तो तुम
सामान्य व्यक्ति
हो। कम से कम
सामान्य बनो;
क्योंकि
अगर तुम
सामान्य न रह
सके तो तुम
नीचे गिर
जाओगे और
असामान्य हो
जाओगे।
इसीलिए
सभी धर्मों
में दान पर
इतना जोर दिया
जाता है। दो!
जो भी है दो।
और कभी लेने
की भाषा में
मत सोचो। तब
तुम
अधिसामान्य
बनोगे। लेकिन
वह तो अभी दूर
की बात है।
पहले सामान्य
बनो,
संतुलित
बनो। तुम जो
भी भीतर लो
उसे वापस
संसार को लौटा
दो। तुम बस
मार्ग बन जाओ।
ग्रहण मत करो।
तब तुम कभी
पागल और
विक्षिप्त
नहीं होगे। तब
तुम पागलपन से,
खंडित
मानसिकता से,
स्कीजोफ्रेनिया
से, विक्षिप्तता
से, किसी
भी तरह की
मानसिक
रुग्णता से
कभी पीड़ित
नहीं होगे।
सामान्य
आदमी की मेरी
परिभाषा यह है
कि वह संतुलित
है—बिलकुल
संतुलित। वह
कुछ बचाकर
नहीं रखता है।
वह श्वास भीतर
ले जाता है और
फिर उसे बाहर
निकाल देता है।
उसकी आती 'श्वास
और जाती श्वास
समान हैं, संतुलित
हैं। तो
संतुलित होने
की चेष्टा करो।
और सदा स्मरण
रखो कि तुम जो
कुछ लो उसे
जरूर लौटा दो।
तब तुम जीवंत,
स्वस्थ, मौन,
शांत और
सुखी होगे।
तुममें एक गहन
लयबद्धता का
उदय होगा। यह
लयबद्धता
लेने और देने
के संतुलन से
घटित होती है।
लेकिन
हम तो सदा और—और
लेने की ही
सोचते हैं। और
तुम जो भी
लेते हो और उसे
फिर लौटाते
नहीं, वह
तुम्हें तनाव,
उपद्रव और
दुख से भर
देगा। तुम एक
नरक बन जाओगे।
इसलिए भीतर
लेने के पूर्व
बाहर जरूर
निकालो। क्या
तुमने ध्यान
दिया है कि
तुम सदा भीतर
आती श्वास पर
जोर देते हो? तुम बाहर
जाती श्वास की
फिक्र ही नहीं
करते। तुम
श्वास को भीतर
ले जाते हो और
उसे बाहर
फेंकने का काम
शरीर पर छोड़
देते हो। इस
प्रक्रिया को
उलट दो; तब
तुम ज्यादा
सामान्य होगे।
बाहर जाने
वाली श्वास पर
जोर दो। पूरी
ताकत से श्वास
को बाहर फेंको,
और श्वास को
भीतर लेने का
काम शरीर पर
छोड़ दो।
जब
तुम श्वास
भीतर लें जाते
हो और फिर उसे
छोड़ते नहीं तो
तुम्हारे
फेफड़े कार्बन
डायआक्साइड
से भर जाते
हैं। और यह
क्रम चलता
रहता है।
तुम्हारा
पूरा फेफड़ा
कभी खाली नहीं
होता; तुम उसे
कार्बन
डायआक्साइड
से भरते जाते
हो। तब
तुम्हारी
श्वास—प्रक्रिया
उथली हो जाती
है और
तुम्हारे
फेफड़े कार्बन
डायआक्साइड से
भरते जाते हैं।
पहले श्वास को
बाहर फेंको और
लेने की बात
भूल जाओ। शरीर
खुद उसकी
चिंता कर लेगा।
शरीर के पास
अपना विवेक है
और वह तुमसे
ज्यादा
बुद्धिमान है।
श्वास को बाहर
फेंको और लेने
की बात भूल जाओ।
और डरो मत, तुम
मरोगे नहीं।
शरीर उतनी
श्वास भीतर ले
लेगा जितनी
जरूरी है। जितनी
श्वास तुम
बाहर निकालोगे,
शरीर उतनी
श्वास अंदर ले
लेगा; और संतुलन
कायम रहेगा।
अगर तुम आती
श्वास पर जोर
दोगे तो
संतुलन बिगड़
जाएगा, क्योंकि
तुम्हारे मन
की प्रवृत्ति
इकट्ठा करने
की है।
मैं
अनेक घरों में
मेहमान हुआ
हूं। और मैं
देखता हूं कि
लोग इतनी
चीजें इकट्ठा
कर लेते हैं
कि घर में
रहने की जगह
ही नहीं रह
जाती। घर में
रहने की जगह
नहीं है और वे
इकट्ठा करने में
लगे हैं! वे
चीजें जमा
करते रहते हैं
और सोचते हैं
कि किसी दिन
उनकी जरूरत पड़
सकती है।
जिस
चीज की जरूरत
नहीं है, उसे
इकट्ठा मत करो।
और यदि किसी
को किसी चीज
की जरूरत
तुमसे अधिक हो
तो बेहतर है
कि वह चीज उसे
दे दो। देने
वाले बनो, और
तुम कभी रुग्ण
नहीं होगे।
सभी प्राचीन
सभ्यताएं दान
पर आधारित थीं;
और यह
आधुनिक
सभ्यता
परिग्रह पर, इकट्ठा करने
पर खड़ी है।
यही कारण है
कि ज्यादा लोग
पागल हो रहे
हैं, विक्षिप्त
हो रहे हैं।
हर कोई पूछ
रहा है कि
कहां से
मिलेगा, कोई
नहीं पूछता कि
कहां जाऊं और
दूं किसको दूं।
अंतिम
प्रश्न :
रोज
आप अपने हरेक
प्रवचन में
बोध की? समग्र
बोध की, अबाधित
की चर्चा करते
हैं। आप यह भी
कहते हैं की मन
से, किसी विचार
के दोहराने से
इसे नहीं प्राप्त
किया जा सकता है; इसे तो
अनुभव करना है।
लेकिन
प्राप्त किए बिना
कोई इसे अनुभव
कैसे कर सकता
है? और वह कौन
सा भाव है जो
प्राप्ति के पहले
आता है? जो
अभी घटित नहीं
हुआ है उसका
भाव या उसकी
कल्पना कैसे
की जाए? क्या
यह भी मन को
हटाने से घटित
होता है? इसकी
पूरी प्रक्रिया
क्या है? और
इसे संभव कैसे
बनाया जाए?
जब
मैं कहता हूं
कि मन से बोध
को नहीं
उपलब्ध हुआ जा
सकता तो मेरा
मतलब है कि
तुम उसके बारे
में सोच—विचार
करके उसे नहीं
पा सकते। तुम
उसके बारे में
खूब सोच—विचार
करते रहो; लेकिन
तुम वर्तुल
में घूमते
रहोगे। जब मैं
कहता हूं कि
उसे मन से
नहीं पाया जा
सकता तो मेरा
मतलब है कि
उसे सोच—विचार
से नहीं पाया
जा सकता।
तुम्हें कुछ
साधना होगा, कुछ करना
होगा। उसे
करके ही पाया
जा सकता है, सोचकर नहीं।
यह पहली बात
है।
तो
इस पर विचार
ही मत करते
रहो कि बोध
क्या है, उसे
कैसे पाया
जाता है, उसका
फल क्या होगा।
सोचते ही मत
रहो, कुछ
करो। रास्ते
पर चलते हुए
बोध से चलो।
यह कठिन है और
तुम बार—बार
भूल जाओगे।
लेकिन घबड़ाओ
मत। जब भी
स्मरण आए सजग
हो जाओ।
प्रत्येक कदम
पूरी सजगता से
उठाओ—जानते
हुए, बोध
के साथ। मन को
और कहीं मत
जाने दो। भोजन
करते समय भोजन
ही करो; होश
के साथ चबाओ।
तुम जो भी करो,
उसे यंत्रवत
मत करो। और यह
बिलकुल अलग
बात है।
और
जब मैं कहता
हूं कि इसे
सिर्फ महसूस
किया जा सकता
है तो उसका यह
अर्थ है
कि, उदाहरण
के लिए मैं
अपना हाथ
यंत्रवत उठा
सकता हूं और
मैं उसे पूरे
होश के साथ भी उठा
सकता हूं। होश
के साथ उठाने से
मेरा मन सजग है
कि हाथ उठाया
जा रहा।
इसे
करके देखो, इसे
प्रयोग में
लाओ। पहले हाथ
को यंत्रवत
उठाओ और फिर
होशपूर्वक उठाओ।
तुम बदलाहट
अनुभव करोगे;
तुरंत ही
गुणवत्ता बदल
जाती है।
सजगता से चलो,
और
तुम्हारा
चलना भिन्न
होगा। तब
तुम्हारी चाल
में एक गरिमा
होती है। तुम
धीमे— धीमे
चलते हो, सुंदर
ढंग से चलते
हो। जब तुम
यंत्रवत चलते
हो—इसलिए चलते
हो क्योंकि
तुम्हें चलना
आता है और सजग
होने की जरूरत
नहीं है—तब
चलना कुरूप
होता है। उस
चाल में गरिमा
नहीं होती है।
तो
तुम जो भी करो, सजगता
के साथ करो।
और फिर देखो
कि क्या फर्क
है। जब मैं
कहता हूं कि
महसूस करो तो
उसका मतलब है निरीक्षण
करो। पहले
यांत्रिक ढंग
से करो और फिर
उसे सजगता के
साथ करो; और
फर्क को समझो।
और फर्क
तुम्हें
अनुभव में
आएगा। उदाहरण
के लिए अगर
तुम सजग होकर
भोजन करते हो तो
तुम शरीर की
जरूरत से
ज्यादा भोजन
नहीं कर सकते।
लोग मेरे पास
आते हैं और
कहते हैं : 'हमारा
वजन बढ़ रहा है;
शरीर में
चर्बी इकट्ठी
होती जा रही
है; कुछ
डाइटिंग
बताइए।’
मैं
उनसे कहता हूं
: 'डाइटिंग की
फिक्र छोड़ो; चेतना की
चिंता करो।
डाइटिंग से
कुछ नहीं होगा;
तुम कर भी
नहीं सकोगे।
एक दिन तुम
डाइटिंग कर
लोगे और दूसरे
दिन वह छूट
जाएगी; तुम
उसे जारी नहीं
रख सकते।
बेहतर है कि
बोधपूर्वक
भोजन करो।’
बोध
से गुणधर्म
बदल जाता है।
अगर तुम
बोधपूर्वक
भोजन करोगे तो
तुम ज्यादा चबाकर
खाओगे।
मूर्च्छा में, यंत्रवत
भोजन करने में
तुम बिलकुल
नहीं चबाते हो;
बस पेट को
भर लेते हो।
इस तरह तुम
भोजन के सुख
से वंचित रह
जाते हो। और
क्योंकि भोजन
का सुख नहीं
मिलता, तुम
सुख के लिए और—और
भोजन की मांग
करते हो। जब
स्वाद नहीं
मिलता है तो
तुम्हें
ज्यादा भोजन
चाहिए।
सिर्फ
सजग होओ और
देखो कि क्या
होता है। अगर
तुम सजग हो तो
तुम ज्यादा
चबाओगे, ज्यादा
स्वाद लोगे; तुम भोजन का
सुख लोगे। तब
तुम्हें भोजन
में ज्यादा
समय लगेगा।
अगर तुम्हें
भोजन लेने में
आधा घंटा लगता
है तो उसी
भोजन को पूरे
बोध के साथ
लेने में डेढ़
घंटा लगेगा—तीन
गुना समय
लगेगा। आधे
घंटे में तो
एक तिहाई भोजन
ही ले पाओगे, लेकिन तुम
ज्यादा तृप्त
अनुभव करोगे,
तुम भोजन का
ज्यादा सुख
लोगे।
और
जब शरीर सुख
लेता है तो वह
तुम्हें बता
देता है कि कब
रुकना है। जब
शरीर इस सुख
से सर्वथा
वंचित रहता है
तो वह रुकने
को नहीं कहता
और तुम भोजन
डाले चले जाते
हो। और तब शरीर
जड़ हो जाता है।
शरीर क्या कह
रहा है, तुम
नहीं सुनते।
तुम भोजन करते
रहते हो और
होते कहीं और
हो। उससे ही
समस्या पैदा
होती है।
भोजन
के समय वहीं
रहो;
और पूरी
प्रक्रिया
धीमी हो जाएगी।
तब शरीर खुद
कहेगा कि बस
करो। और शरीर
जब रुकने को
कहे तो समझना
चाहिए कि यही
ठीक समय है।
अगर तुम
सावचेत हो तो
तुम शरीर के
साथ जबरदस्ती
नहीं करोगे; तुम रुक
जाओगे। तो
शरीर की सुनो।
वह तो हरेक
क्षण कह रहा
है; लेकिन
तुम उसे सुनने
के लिए वहां
मौजूद नहीं होते।
सजग होओ और तुम
सुनोगे।
और
जब मैं कहता
हूं कि इसे
अनुभव करो तो
मैं जानता हूं
कि यह कठिन है।
तुम बोधपूर्ण हुए
बिना बोध को कैसे
अनुभव कर सकते
हो? मैं यह नहीं कह
रहा हूं कि तुम
बुद्ध के
बुद्धत्व को
अभी इसी क्षण
अनुभव कर सकते
हो; लेकिन
कहीं तो आरंभ
करना होगा।
तुस पूरे सागर
को नहीं पा
सकते, लेकिन
एक बूंद—एक
छोटी सी बूंद
भी—स्वाद दे
देगी। और वह
स्वाद एक ही
है। यदि तुम
क्षण भर को भी
बोधपूर्ण हुए
तो तुमने बुद्धत्व
का स्वाद पा
लिया। यह
क्षणिक है, यह एक झलक भर
है; लेकिन
अब तुम ज्यादा
जानते हो।
और
यह झलक
तुम्हें कभी
सोच—विचार से
नहीं घटित
होगी, यह
सिर्फ भाव से
घटित होगी।
भाव पर जोर
इसलिए है, क्योंकि
स्वयं के
अनुभव पर जोर
है। विचारणा
झूठ है। तुम
प्रेम के
संबंध में
निरंतर सोच—विचार
कर सकते हो, प्रेम के सिद्धांत
गढ़ सकते हो।
तुम प्रेम में
उतरे बिना
प्रेम पर शोध—ग्रंथ
लिखकर
डाक्टरेट भी
प्राप्त कर
सकते हो। तुम
सब बता सकते
हो कि प्रेम
क्या है। और
हो सकता है
तुमने प्रेम
का कण भी न
जाना हो, तुम्हें
प्रेम का जरा
भी अनुभव न हो।
तुम
अपनी आत्मा का
विकास किए
बिना ही अपना
ज्ञान बढ़ा ले
सकते हो। और
ज्ञान और
आत्मा दोनों
भिन्न आयाम
हैं। तुम
ज्ञान का
विस्तार कर
सकते हो; तुम्हारा
मस्तिष्क बड़े
से बड़ा होता
जाएगा। लेकिन
तुम्हारी
आत्मा छोटी की
छोटी रहेगी।
यह कोई विकास
नहीं है; तुम्हारा
परिग्रह भर
बड़ा होता जाता
है। जब तुम
चीजों को
अनुभव करते हो
तो तुम बढ़ते
हो, तुम्हारी
आत्मा बढ़ती है,
बड़ी होती है।
और
कहीं तो आरंभ
करना होगा; तो
आरंभ करो।
भूलें होंगी,
होंगी ही।
तुम भूल— भूल
जाओगे; यह
स्वाभाविक है।
लेकिन हताश मत
होओ और यह कह
कर प्रयत्न
करना मत छोड़
दो कि यह
मुझसे नहीं
होने वाला है।
तुमसे होने
वाला है; तुम
यह कर सकते हो।
तुम्हारे
भीतर वही
संभावना छिपी
है जो जीसस या
बुद्ध में
छिपी थी। तुम
बीज हो, तुम
में कोई कमी
नहीं है। बस
थोड़ी अराजकता
है, सब
चीजें बिखरी—बिखरी
हैं। कमी कुछ
भी नहीं है; तुममें सब
कुछ है, तुम
बुद्ध हो सकते
हो, बस
चीजों को थोड़ी
व्यवस्था
देने की जरूरत
है।
अभी
तो तुम एक
अराजकता हो, क्योंकि
व्यवस्था
नहीं है।
व्यवस्था तब
आती है जब तुम
सजग होते हो, सावचेत होते
हो। तुम्हारे
बोधपूर्ण
होने से ही
चीजें अपनी—अपनी
जगह ले लेती
हैं; और तब
यही अराजकता,
जो तुम हो, एक व्यवस्था
बन जाती है, एक संगीत बन
जाती है।
आज
इतना ही।
(तीसरा
भाग समाप्त)
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