दिनांक, 21
मई, 1979;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र:
जग के
करम बहुत
कठिनाई, तातें भरमि भरमि
जहंड़ाई।।
ज्ञानवंत
अज्ञान होत है, बूढ़े
करत लरिकाई।
परमारथ
तजि स्वारथ सेवहि, यह
धौं कौनि
बड़ाई।।
बेद-बेदांत कौ अर्थ विचारहिं, बहुबिधि रुचि
उपजाई।
माया-मोह-ग्रसित
निसिबासर, कौन
बड़ो सुखदाई।।
लेहिं बिसाहिं
कांच को सौदा, सोना
नाम गंवाई।
अमृत
तजि विष अंचवन
लागे, यह
धौं कौनि
मिठाई।।
गुरु-परताप
साध की संगति, करहु न
काहे भाई।।
अंतसमय
जब काल गरसिहै, कौन
करौ
चतुराई।।
मानुष-जनम
बहुरि नहिं पैहौ, बादि
चला दिन जाई।
भीखा
कौ मन कपट
कुचाली, धरन
धरै मुरखाई।।
समुझि गहो
हरिनाम, मन
तुम समुझि
गहो
हरिनाम।
दिन
दस सुख यहि तन
के कारन, लपटि
रहो धन धाम।।
देखु बिचारि
जिया अपने, जत
गुनना गुनन
बेकाम।
जोग
जुक्ति
अरु ज्ञान
ध्यान तें, निकट
सुलभ नहिं
लाम।।
इत
उत की अब आसा तजिकै, मिलि रहु आतमराम।
भीखा
दीन कहां लगि बरनै, धन्य
धरी वह जाम।।
राम
सों करु
प्रीति हे मन, राम
सों करु
प्रीति।।
राम
बिना कोउ काम
न आवै, अंत
ढहो जिमि
भीति।
बूझि बिचारि
देखु जिय
अपनो, हरि
बिन नहीं कोउ हीति।
गुरु
गुलला के
चरणकमल-रज, धरु
भीखा उर चीति।।
गुरु-परताप
साध की संगति !
इन
थोड़े-से
शब्दों में
सदियों-सदियों
की खोज का निचोड़
है;
अनंत-अनंत
साधकों की
साधना की
सुवास है; अनेक-अनेक
सिद्धों के
खिले कमलों की
आभा है। इन
थोड़े-से
शब्दों को
जिसने समझा, उसने पूरब
की अंतरात्मा
को समझ लिया।
पश्चिम
ने विज्ञान
दिया है
मनुष्य को, पूरब
ने धर्म दिया
है। और धर्म
का सार-अर्थ
इन थोड़े-से
शब्दों में
है--गुरु-परताप
साध की संगति!
"गुरु"
शब्द बड़ा
महत्त्वपूर्ण
है। इसका अर्थ
शिक्षक नहीं
होता, न
अध्यापक, न
व्याख्याता।
दुनिया की
किसी भी भाषा
में इस शब्द
को रूपांतरित
करने का उपाय
नहीं है। दुनिया
की भाषा में
इसके समतुल
कोई शब्द नहीं
है; क्योंकि
इसके समतुल
कोई अनुभूति
ही जगत के किसी
और हिस्से में
खोजी नहीं जा
सकी है।
"गुरु"
बनता है दो
शब्दों से--गु
और रु। गु का अर्थ
होता है
अंधकार; रु का
अर्थ होता है
अंधकार को दूर
करने वाला। गुरु
का अर्थ है
जिसके अंतस का
दीया जल गया
है; जिसके
भीतर रोशनी हो
गई है; सूरज
हो गया है; जिसके
अंग-अंग से, द्वारों से,
झरोखों से,
संधों से रोशनी झर
रही है। और जो
भी उसके पास
बैठेंगे, नहा
जाएंगे उस
रोशनी में; उस
प्रभामंडल से
वे भी आंदोलित
होंगे। जो स्वर
गुरु के भीतर
बजा है, उसकी
चोट तुम्हारे
हृदय की वीणा
पर भी पड़ने लगेगी।
जो
गुरु ने जाना
है,
उसे गुरु
जना नहीं सकता;
जो जाना है
उसे बता नहीं
सकता। लेकिन
उसके पास बैठे
तो बिना कहे
कुछ कह दिया
जाता है और
बिना बताए कुछ
बता दिया जाता
है। उसकी
मौजूदगी, उसकी
उपस्थिति
तुम्हें
तरंगायित कर
देती है।
स्वभावतः, रोशनी
के पास बैठोगे,
अगर आंख बंद
कर के भी बैठे
तो भी रोशनी
में नहा
जाओगे। संगीत
चाहे सुनाई भी
न पड़े तो भी
तुम्हारे
रोएं-रोएं को
स्पर्श
करेगा। और
सुगंध, चाहे
तुम्हारे
नासापुट
सक्रिय न भी
हों, तो भी
तुम्हारे
नासापुटों तक
आएगी, तुम्हारे
फेफड़ों तक पहुंचेगी।
और सुगंध
तुम्हारे
फेफड़ों तक
पहुंच जाए तो
नासापुट
सक्रिय हो
जाएंगे। और
रोशनी
तुम्हारे
रोएं-रोएं को
नहला दे तो
आंखें खुल
जाएंगी।
सुबह
देखा नहीं, चादर
ओढ़े
बिस्तर पर पड़े
हो और सूरज
उगने लगा है!
दरवाजे बंद
हैं, परदे
पड़े हैं और
फिर भी परदों
की संधों
से रोशनी भीतर
आने लगी और
रोशनी
तुम्हारी बंद
आंखों पर पड़ने
लगी, तत्क्षण
कोई भीतर जाग
जाता है।
तत्क्षण कोई
भीतर कहने
लगता है : सुबह
हो गई, अब
उठो।
ठीक
ऐसी ही घटना
गुरु के
सत्संग में
घटती है। तुम
सोए पड़े हो, किसी
का सूरज उग
आया, उसकी
रोशनी
तुम्हारी बंद
आंखों से
थोड़ा-न-बहुत
प्रवेश कर
जाती है। और
उसकी चोट
तुम्हें आंखें
खोलने को
मजबूर कर देगी,
विवश कर
देगी। आंख
खोलनी ही
पड़ेगी।
क्योंकि
अंधेरा हमारा
स्वभाव नहीं
है। अंधेरे
में हम पड़े
हैं, यह
हमारी मजबूरी
है। अंधेरे
में हम पड़े
हैं क्योंकि
प्रकाश से
हमारी अभी
पहचान नहीं
हुई। अंधेरे
में हम पड़े
हैं क्योंकि
प्रकाश से
हमारा कोई
परिचय नहीं
हुआ। लेकिन
प्राणों के गहनतम में प्यास
तो प्रकाश की
है।
तमसो
मा ज्योतिर्गमय!
कोई भीतर
पुकार ही रहा
है कि ले चलो, प्रकाश
की तरफ ले चलो!
अंधकार नहीं,
आलोक।
क्योंकि
अंधकार अंधकार
ही नहीं है, अंधकार
मृत्यु भी है।
और आलोक आलोक
ही नहीं है, अमृत भी है।
असतो मा सद्गमय।
असत् से सत्
की ओर ले चलो, क्योंकि
अंधकार से बड़ा
असत् और जगत
में कोई भी नहीं
है। अंधकार की
कोई सत्ता
नहीं है।
अंधकार
बिल्कुल असत्
है। इसलिए तो
तुम अंधकार के
साथ सीधा कुछ
करना चाहो तो
नहीं कर सकते।
अंधकार को
धक्के देकर
निकाल नहीं
सकते। है ही
नहीं तो धक्का
किसको दोगे? अंधकार को
तलवारों से
नहीं काट सकते;
है ही नहीं,
काटोगे
किसको?
अंधकार
के साथ
प्रत्यक्ष
कुछ भी करने
का उपाय नहीं
है। अंधकार के
साथ कुछ करना
हो तो प्रकाश
के साथ कुछ
करना पड़ता है।
क्योंकि
प्रकाश है और
अंधकार केवल
प्रकाश का
अभाव है, अनुपस्थिति
है। अगर
अंधकार लाना
हो तो प्रकाश बुझाओ।
अगर अंधकार
हटाना हो तो
प्रकाश जलाओ।
करना तो
प्रकाश के साथ
पड़ेगा कुछ।
अंधकार
बहुत है और
फिर भी नाकुछ
है। अंधकार की
कोई सत्ता
नहीं है, कोई
अस्तित्व
नहीं है।
अंधकार में
कोई ठोसपन नहीं
है। अंधकार
सिर्फ
गैर-मौजूदगी
है, अभाव
है, रिक्तता
है; असत्
है। असतो
मा सद्गमय।
प्रकाश सत्
है।
इसलिए
सारे धर्मो
ने परमात्मा
को प्रकाश कहा
है। सारे धर्मो
ने जीवन की
परम अनुभूति
को प्रकाश की
अनुभूति कहा
है। और अंधकार
अपने में नहीं
है,
हमारे
अंधेपन में है;
हमारे
आंखें बंद
करने में है।
नहीं तो
प्रकाश से ही
भरा है सारा
अस्तित्व, क्योंकि
सारा
अस्तित्व परमात्ममय
है।
लेकिन
मनुष्य की यह
स्वतंत्रता
है कि चाहे तो आंख
खोले और देखे
रोशनी को। और
चाहे तो आंख
बंद रखे और न
देखे रोशनी
को। मनुष्य की
यह स्वतंत्रता
है कि फूल
खिले हों तो
उन्मुख होकर
खड़ा हो जाए या
विमुख होकर
खड़ा हो जाए, फूलों
को देखे या न
देखे, पीठ
कर ले। मनुष्य
की यह
स्वतंत्रता
उसका सौभाग्य
भी है और उसका
दुर्भाग्य
भी। सौभाग्य,
क्योंकि
ऐसी
स्वतंत्रता
किसी और
प्राणी की नहीं।
गरिमा है उस
मनुष्य की। और
दुर्भाग्य, क्योंकि सौ
में से
निन्यानबे इस
स्वतंत्रता का
उपयोग
आत्मघात के
लिए करते हैं।
ऋषि
प्रार्थना
करते हैं : ले
चलो अंधकार से
आलोक की तरफ।
ले चलो असत्
से सत् की
तरफ। मृत्योर्मा
अमृतं गमय। ले
चलो मृत्यु से
अमृत की तरफ।
अंधकार मृत्यु
भी है।
क्योंकि जो
अंधकार में
जिएगा, अंधकार
हो जाएगा।
जिसके साथ
रहोगे वैसे हो
जाओगे। यह
जीवन का
आधारभूत नियम
है : जिसके साथ
संबंध जोड़ोगे
वैसे हो
जाओगे।
अंधकार से
नाता जोड़ोगे,
अंधकार हो
जाओगे; प्रकाश
से नाता जोड़ोगे,
प्रकाश हो
जाओगे।
गुरु
वह है जो
अंधकार को अलग
करे। इसलिए
गुरु का अर्थ
शिक्षक नहीं
होता । इसलिए
गुरु का अर्थ
अध्यापक नहीं
होता, व्याख्याता
नहीं होता, आचार्य नहीं
होता।
गुरु
जैसा कोई और
दूसरा शब्द ही
नहीं; उसका
कोई
पर्यायवाची
नहीं। गुरु
शब्द अनूठा है।
गुरु
को केवल वे ही
खोज सकते हैं
जिनके भीतर प्रकाश
की खोज पैदा
हो गई और
जिनको जीवन
मृत्यु से
घिरा हुआ
दिखाई पड़ा है
और जो अमृत की
तलाश में निकल
पड़े हैं। और जिन्हें
यह दिखाई पड़ा
है कि यहां सब
सपना है, असत्
है। और जिनके
भीतर सत्य को
जानने की अदम्य
अभिलाषा जगी
है। जिनके
भीतर सत्य को
पीने की
अभीप्सा का
जन्म हुआ है, वे ही लोग
गुरु को खोज
पाते हैं। ऐसे
व्यक्ति का
नाम ही शिष्य
है।
फिर
याद दिला दें, शिष्य
का अर्थ विद्यार्थी
नहीं होता।
विद्यार्थी
हो तो शिक्षक
मिलेगा। इससे
ज्यादा
तुम्हारी
पात्रता नहीं।
अगर शिष्य हो
तो गुरु मिल
सकेगा। शिष्य
का अर्थ है जो
अपना शीश चढ़ा
देने को राजी
है--जो सब दांव
पर लगा देने
को राजी है।
विद्यार्थी
ज्ञान की तलाश
करता है, शिष्य
अनुभव की।
कुछ
चीजें हैं
जिनका केवल
अनुभव ही हो
सकता है और वे
ही चीजें
मूल्यवान हैं
। बहुत चीजें
हैं जिनका
ज्ञान हो सकता
है;
वे सब
बाजारू हैं।
उनका कोई
मूल्य नहीं
है। भूगोल है,
इतिहास है
और हजारों
शास्त्र हैं,
उनका ज्ञान
हो सकता है।
लेकिन प्रेम,
प्रार्थना,
परमात्मा, जीवन, मृत्यु--इनका
तो अनुभव ही
हो सकता है।
जार्ज
गुरजिएफ--इस
सदी का एक बड़ा
सद्गुरु--अनेक
बार एक
छोटी-सी कहानी
कहा करता था।
जब भी कोई नया
व्यक्ति उसके
पास आता था तो
वह कहता था :
विद्यार्थी
की तरह आए हो
कि शिष्य की
तरह?
क्योंकि
फिर वैसा ही
व्यवहार हो।
क्योंकि फिर
वैसा ही
स्वागत हो।
विद्यार्थी
की तरह आए हो
तो कूड़ा-करकट
ज्ञान का
तुम्हें
सम्हाल दूं और
भागो, अपने
रास्ते लगो।
शिष्य की तरह
आए हो तो अपने प्राण
तुम्हें सौंप
दूं, अपनी
आत्मा
तुम्हें दे
दूं। तो उंडेल
दूं अपने को
तुम्हारे
पात्र में।
और वह
कहता था : एक
बार ऐसा हुआ
कि एक
विद्यार्थी
भूल से ईश्वर
के पास पहुंच
गया। ईश्वर ने
कहा : मांग ले, मांग
ले एक वरदान।
अब तू आ ही गया
तो खाली हाथ जाना
उचित नहीं।
विद्यार्थी
के भीतर
हजारों
प्रश्न उठे।
ईश्वर ने देखा
होगा उसकी
खोपड़ी
प्रश्नों से
भर गई।
झंझावात
प्रश्नों के!
ईश्वर ने उसे
सलाह दी कि
देख,
ऐसी बात
पूछना जिसका
उत्तर होता
हो। ऐसी बात मत
पूछना जिसका
उत्तर न होता
हो और केवल
अनुभव होता
हो।
उसने
बहुत खोजा और
फिर उसने पूछा
कि एक ही प्रश्न
पूछ सकता हूं, तो
मैं यह पूछना
चाहता हूं :
मृत्यु क्या
है? उसने
इतना ही पूछा
था कि ईश्वर
ने उठाई तलवार
और उसकी गर्दन
काट दी, क्योंकि
मृत्यु का तो
सिर्फ अनुभव
ही हो सकता है।
उसका कोई
उत्तर नहीं हो
सकता।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
से कहता था :
सोच लेना। अगर
गर्दन कटाने
की तैयारी हो
तो ही शिष्य
हो सकते हो।
यह कहानी याद
रखना। क्योंकि
कुछ चीजें हैं
जिनका अनुभव, बस
अनुभव ही होता
है।
शिष्य
वह है जो
अनुभव की तलाश
कर रहा है। जो
ईश्वर के
संबंध में
नहीं जानना
चाहता
है--ईश्वर को
जानना चाहता
है! जो प्रेम
के संबंध में
नहीं जानना
चाहता
है--प्रेम को
जानना चाहता
है! जो प्रार्थना
सीखने नहीं
आया है--प्रार्थनामय
होने आया है !
शिष्य
की अंतरात्मा
अस्तित्वगत
खोज कर रही है।
विद्यार्थी
बौद्धिक
कुतूहल से भरा
है। विद्यार्थी
कुछ जानकारियां
इकट्ठी करेगा
और अपने
रास्ते पर चला
जाएगा। विद्यार्थी
ज्यादा-से-ज्यादा
पंडित होगा।
शिष्य
प्रज्ञा को
उपलब्ध होगा।
शिष्य ही
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो सकते
हैं,
विद्यार्थी
नहीं। और जो
शिष्य है आज, कभी गुरु हो
सकता है।
विद्यार्थी
कभी गुरु नहीं
हो सकता।
और
ध्यान रहे, जानकारियां ज्ञान जैसी
ही मालूम होती
हैं--बस जैसी
ही! ज्ञान
नहीं हो सकतीं,
बस ज्ञान
जैसी मालूम
होती हैं।
झूठे सिक्के हैं,
जो असली
सिक्कों जैसे
मालूम होते
हैं।
गुरु
को खोजो; लेकिन
तभी खोज सकोगे
जब तुम्हारे
भीतर प्रकाश
को खोजने की
आकांक्षा
उमगने लगी हो।
सत्य को पाने
की प्यास
तुम्हारे कंठ
में अनुभव
होने लगी हो।
अमृत को जानने
के लिए ऐसा
अदम्य वेग, ऐसी त्वरा
पैदा हो रही
हो कि अगर
गर्दन भी चढ़ानी
पड़े तो तुम
तैयार हो जाओ।
गुरु-परताप
साध की संगति!
गुरु महिमा है
एक--एक रोशनी, एक
प्रताप, एक
प्रकाश, एक
चमत्कार! उसका
होना इस जगत
में एक अपूर्व
घटना
है--अद्वितीय।
वैसे फूल
रोज-रोज नहीं
खिलते।
सदियां बीत
जाती हैं तब
कभी कोई
सद्गुरु होता
है। इसलिए सद्गरुओं
को पहचानना ही
हम भूल जाते
हैं, क्योंकि
सदियों तक
पहचान नहीं
होती। सदियों तक
पंडित-पुरोहितों
से हमारा
संबंध होता है
और फिर जब
सद्गुरु आता
है तो हम
पहचान ही नहीं
पाते।
पहचानना तो
दूर हम नाराज
होते हैं, नाखुश
होते हैं। हम
दुश्मन हो
जाते हैं।
क्योंकि
हमारी तो सारी
जानकारी
पंडित-पुरोहित
की होती है।
और
सद्गुरु
पंडित-पुरोहित
से बिल्कुल
उल्टा होता है,
बिल्कुल
भिन्न होता
है।
धन्यभागी
हैं वे जो
गुरु-परताप की
छाया में आ
जाएं! भीखा का
यह वचन बड़ा
प्यारा है :
गुरु-परताप
साध की संगति !
गुरु की आभा
से मंडित हो
जाओ,
और गुरु की
आभा से जो
मंडित हुए
साधु हों
उनमें डूब जाओ,
एकलीन हो जाओ।
किसी बुद्ध को
पकड़ लो और
किसी बुद्ध के
क्षेत्र में
डुबकी मार जाओ;
फिर शेष सब
अपने से हो
जाता है।
परमात्मा
को खोजने कोई
सात-समंदर पार
नहीं जाना है।
परमात्मा को
खोजने कोई
कैलाश, काशी
और काबा नहीं
जाना है।
परमात्मा
वहां है जहां
कोई सद्गुरु
है; जहां
साधुओं की
संगति है।
परमात्मा
वहां है जहां
दीवाने बैठकर
उसके रस को पी
रहे हैं। जहां
भंवरे
इकट्ठे हुए
हैं और
परमात्मा को
पीकर गीत गा रहे
हैं, गुंजार
कर रहे हैं।
जहां किसी एक
जले हुए दीए के
पास और-और दीए
सरक-सरककर जलने
शुरू हो गए
हैं। जहां एक
दीए के आसपास
और बहुत दीए
जल उठे हैं।
जहां दीपावली
हो गई है।
गुरु-परताप
साध की संगति!. . .
.ण वहां
प्रवेश कर
जाना। ऐसा
द्वार मिल जाए
तो छोड़ना ही
मत। कीमत जो
भी चुकानी हो
चुका देना।
क्योंकि
हमारे पास
चुकाने को भी
क्या है? खाली
हैं, नंगे
हैं। हमारी
गर्दन भी ले
ली जाए तो
हमारा खोता
क्या है? गर्दन
तो आज नहीं कल
मौत ले ही
लेगी और बदले
में कुछ भी न
देगी। गर्दन
की कीमत ही
क्या है!
एक
सूफी फकीर को
कुछ लोगों ने
पकड़ लिया, कुछ
लुटेरों ने
पकड़ लिया।
मस्त फकीर था!
पुष्ट उसकी
देह थी।
बलिष्ठ उसकी
देह थी। उन
लुटेरों ने पकड़कर
सोचा कि चलो
बेच देंगे। उन
दिनों गुलाम
होते थे
दुनिया में।
ऐसे तो अब भी
होते हैं, सिर्फ
नाम बदल गए
हैं।
जब तक
दुनिया में
राजनीति है तब
तक गुलाम होते
रहेंगे, क्योंकि
राजनीति
गुलामों पर
जीती है। नाम
बदलते जाते
हैं गुलामी
के। पुराना
लेबल अखरने
लगता है, नया
लेबल लगा देते
हैं। लाल रंग
की गुलामी पीले
रंग की गुलामी
हो जाती है।
पीले रंग की
गुलामी हरे
रंग की गुलामी
हो जाती है।
मंदिर का गुलाम
मस्जिद चला
जाता है, मस्जिद
का गुलाम चर्च
चला जाता है।
बस गुलामी चलती
रहती है; एक
कारागृह से दूसरे
कारागृह में
लोग उतरते
जाते हैं और
इसको सोचते
हैं--स्वतंत्रता,
क्रांति !
गुलामी
तो सदा रही, पर
उस दिन बहुत
प्रगट थी, उन
दिनों बहुत
प्रगट थी। लोग
बाजारों में
बिकते थे जैसे
सामान बिकता
है। बिकते तो
अब भी हैं
लेकिन जरा
परोक्ष। आदमी
जरा होशियार
हो गया है।
सीधे-सीधे
नहीं खरीदता।
बाजार में
टिकटी पर खड़े
होकर दाम नहीं
लगाए जाते।
दाम तो अब भी
हैं आदमियों
के। और छोटों
के ही नहीं, बड़ों-बड़ों
के भी दाम हैं,
कोई हजार
में बिकता है,
कोई कोई
दस हजार में
बिकता है, कोई
लाख में बिकता
है, कोई दस
लाख में बिकता
है। बिक्री तो
हो ही रही है
लेकिन अब
बिक्री बाजार
में नहीं होती।
नीलामी बहुत
जाहिर नहीं
होती। इसका विज्ञापन
नहीं होता ।
यह सब चुपचाप
होता है। गणित
अब जरा घूम-फिरकर
बैठता है, सीधा
नहीं।
उन
दिनों
सीधी-सीधी
गुलामी थी।
सोचा, बेच
लेंगे फकीर
को। मस्त आदमी
है, दाम भी
ज्यादा मिल
जाएंगे। चले
लेकर उसे।
उसके हाथों
में जंजीरें
बांध दीं, तो
उसने कहा :
नाहक मेहनत
करते हो! मैं
अपनी मर्जी से
चल रहा हूं।
तुम क्यों
जंजीरें बांधते
हो? जंजीरें
बांधने की कोई
जरूरत नहीं।
जहां कहो वहां
चलूं।
क्योंकि
मैंने तो अपने
को उस पर छोड़
दिया है, वह
जहां ले जाए।
अब तुम्हारे
हाथ में डाल
दिया है तो उसकी
मर्जी होगी।
थोड़े
लुटेरे झेंपे
तो। संकोच भी
खाए। आखिर
आदमी थे। आखिर
बुरा-से-बुरा
आदमी भी तो
आदमी ही होता
है। आदमियत बिल्कुल
तो किसी में
नहीं मर जाती।
कहीं-न-कहीं तो
बीज दबा पड़ा
ही होता है।
और इस आदमी ने
कहा : इत्ता तो
भरोसा करो।
भाग नहीं जाऊंगा।
मैं तो उस पर
छोड़ चुका हूं, अब
तो उसकी
मर्जी।
चल पड़ा
साथ। रास्ते
में एक धनपति
गुजरता था। उसने
अपनी डोली रुकवाई
और कहा कि
मामला क्या है? क्या
इस आदमी को
बेचना है? लाख
रुपए देने को
मैं तैयार
हूं।
लार
टपक गई उन
लुटेरों के मुंह
से तो! लाख की
तो सोची भी न
थी। सोचते थे
दस-पांच हजार
मिल गए तो
बहुत। एकदम
बेचने को
तैयार हो गए, लालायित
हो गए। उस
फकीर ने कहा :
ठहरो, तुम्हें
मेरी कीमत का
पता नहीं है!
जरा रुको, जल्दी
मत करो। अभी
और भी ग्राहक
आएंगे। जब ठीक-ठीक
कीमत लगेगी तब
मैं तुम्हें
कह दूंगा कि
यह रही ठीक
कीमत, अब
बेच दो।
मान ली
फकीर की बात
क्योंकि बात
में उसके बल था।
लाख रुपए जब
कोई दे रहा है, पता
नहीं कोई दो
लाख देने वाला
मिल जाए। आगे
बढ़े। आगे एक
वजीर अपने
घोड़े पर सवार
शिकार को निकला
था, उसने
कहा : रुको, बेचना
तो नहीं है? आदमी मस्त
और शानदार
दिखाई पड़ता
है। दो लाख
रुपए दूंगा।
फकीर
ने कहा : सुना, मगर
बेच मत देना :
जल्दी ही वह
आदमी
मिलनेवाला है
जो तुम्हें ठीक-ठीक
दाम चुका
देगा।
तो अब
तो मान ही
लेना पड़ा, क्योंकि
एक लाख से दो
लाख हो गई
बात। अब पता
नहीं कितना हो
जाए, दस
लाख हो जाए!
खूब हीरा हाथ
लगा है! और तभी
एक घसियारा
मिला रास्ते में।
उसने कहा :
क्या इस आदमी
को बेचना है? उन लुटेरों
ने कहा : जा-जा, तू क्या खरीदेगा!
बड़े धनपति और
बड़े वजीर भी
नहीं खरीद
सके। रास्ता
लग!
फकीर
ने कहा : पहले
पूछ तो लो
कितनी कीमत
चुकाता है। उस
घसियारे ने
कहा कि कीमत!
यह घास का
गट्ठा ले लो
और आदमी दे
दो।
हंसने
लगे लुटेरे।
लेकिन फकीर ने
कहा : हंसो
मत,
यही ठीक
कीमत है। इससे
ज्यादा मेरी
खोपड़ी की और
क्या कीमत हो
सकती है? आज
नहीं कल
मरूंगा, इतनी
भी कीमत कोई
देगा नहीं, ले ही लो।
तब तो
लुटेरों ने
सिर पीट लिया
कि हम भी किस पागल
की बातों में
पड़े हैं!
पछताने लगे
बहुत। लेकिन
फकीर ठीक कह
रहा था। मर
जाओगे तो
कितनी कीमत
होगी इस सिर
की?
कोई दो कौड़ी
की इसकी कीमत
नहीं होगी! और
मौत तो आने ही
वाली है।
शिष्य
वह है जो यह
देखकर कि मेरी
अपने में तो कोई
कीमत वैसे भी
नहीं है, किन्हीं
चरणों में रख
दूं सब, शायद
ऐसे पारस का
परस हो जाए और
लोहा सोना हो
जाए! लोहा
सोना होता
है--गुरु-परताप
साध की संगति!
भीखा के ये
सारे वचन बस
इन्हीं पांच
शब्दों के
आसपास घूमेंगे,
क्योंकि
भीखा का पूरा
जीवन ही इन
पांच शब्दों से
बना था।
इसके
पहले कि हम
सूत्रों में
चलें, भीखा के
संबंध में
थोड़ी बातें
समझ लेनी
जरूरी हैं।
भीखा बचपन से
ही साधु-संग
में दीवाना
था। पूत के
लक्षण पालने
में। जब बहुत
छोटी उम्र का
था तब भी
साधुओं के पास
जाता था। तब
भी गांव में
कोई साधु आए
तो भीखा चूकता
नहीं था।
मां-बाप हंसते
थे। पास-पड़ोस
के लोग हंसते थे
कि भीखा, तुझे
कुछ समझ में
आता है? क्योंकि
लोगों का
ख्याल है कि
समझने के लिए
बड़ी
बुद्धिमत्ता
चाहिए। समझने
के लिए
बुद्धिमत्ता
चाहिए ही
नहीं। समझने
के लिए
हार्दिकता चाहिए।
लोग सोचते हैं
समझने के लिए
पहले बहुत जानकारी
चाहिए
शास्त्रों
की।
शास्त्रों की जानकारी
बाधा बन जाती
है, सहयोगी
नहीं। समझने
के लिए
निर्दोषता
चाहिए।
जीसस
एक गांव में
गए। एक भीड़ ने
उन्हें घेर लिया
और जीसस ने
अपनी बातें
कहीं उस भीड़
से। और वे
निरंतर कहते
थे प्रभु का
राज्य बहुत
निकट है; प्रभु
का राज्य अति
निकट है, देर
न करो! जागो
! बहुत समय बीत चुका।
घड़ी आ गई।
प्रभु का
राज्य बहुत
निकट है! ऐसा
जीसस बार-बार
कहते थे। यह
उनकी टेक
थी--प्रभु का
राज्य बहुत
निकट है! एक
आदमी ने पूछा
कि तुम्हारे
प्रभु के
राज्य में
प्रवेश का
अधिकारी कौन
होगा, पात्र
कौन होगा? तो
जीसस ने चारों
तरफ नजर दौड़ाई
और एक छोटा-सा
बच्चा जो भीड़
में खड़ा था
उसे कंधे पर
उठा लिया और
कहा कि जो इस
बच्चे की
भांति सरल
होंगे। नहीं
किसी पंडित की
तरफ इशारा
किया। नहीं
किसी दानी की
तरफ इशारा
किया। नहीं
किसी त्यागी
की तरफ इशारा
किया। वे सब अहंमन्यताएं
हैं--ज्ञान की,
धन की, त्याग
की। वे अहंकार
के ही अलग-अलग
नाम हैं।
उठाया एक
छोटे-से अबोध
बच्चे को और
कंधे पर रख
लिया और कहा :
जो इस बच्चे
की भांति
सरलचित्त
होंगे वे मेरे
प्रभु के
राज्य के
अधिकारी हैं।
भीखा
छोटा बच्चा
था। लोग हंसते
थे कि तू
समझता क्या।
शायद साधुओं
के विचित्र
रंग-ढंग को
देखकर चला
जाता है। शायद
उनके गैरिक
वस्त्र, दाढ़ियां,
उनके
बड़े-बड़े बाल, उनकी धूनी, उनके चीमटे,
उनकी मृदंग,
उनकी खंजड़ी,
यह सब देखकर
तू जाता होगा
भीखा। लेकिन
किसको पता था
कि भीखा यह सब
देखकर नहीं
जाता! उसका
सरल हृदय, उसका
अभी कोरा कागज
जैसा हृदय
पीने लगा है, आत्मसात
करने लगा है।
वह जो परम
अनुभव प्रकाश
का साधुओं के पास
है, उससे
वह आंदोलित
होने लगा है।
वह जो साधुओं
की मस्ती है
उसे छूने लगी
है, उसे
दीवाना करने
लगी है। वह भी पियक्कड़
होने लगा है।
बारह
वर्ष की उम्र
में भीखा ने
घर छोड़ दिया।
बारह वर्ष की
उम्र! लोग तो
सत्तर-अस्सी
साल के भी हो
जाते हैं तब
भी ऐसे पकड़कर
बैठे रहते हैं
जैसे यह घर
सदा रहने को
है! जैसे यह धन
सदा रहने को
है,
यह पद सदा
रहने को है!
तुम्हें
भरोसा न हो तो
दिल्ली में
जाकर देख लो।
कोई साठ का है,
कोई पैंसठ
का, कोई
सत्तर का, कोई
पचहत्तर का, कोई अस्सी
का, कोई
चौरासी का।
लेकिन पकड़
जाती नहीं--पद
की, प्रतिष्ठा
की, अहंकार
की। बारह वर्ष
की उम्र में
भीखा ने सब छोड़-छाड़ दिया!
बड़ी
बुद्धिमत्ता
चाहिए!
बुद्धिमत्ता--निर्दोषता
के अर्थो
में।
बुद्धिमत्ता--
विचार के अर्थ
में नहीं, निर्विचार
के अर्थ में।
बुद्धिमत्ता
बोध के अर्थ
में, ज्ञान
के अर्थ में
नहीं। बड़ी
प्रखर क्षमता
रही होगी, प्रतिभा
रही होगी, मेधा
रही होगी; नहीं
तो बारह वर्ष
में कौन देख
पाता है!
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक नुमाइश में
गया था। लखनऊ
की नुमाइश।
रंग-बिरंगे
लोग। बड़ी
शान-शौकत में सजकर लोग
आए थे। एक
महिला, सुंदर
महिला को
देखकर मुल्ला
से न रहा गया।
उसके पीछे हो
लिया। जब मौका
मिले, धक्का
मारे। भारतीय
संस्कृति!
जहां मौका मिले,
च्यूंटी ले दे। आखिर
उस महिला से न
रहा गया। वह
भी कब तक चुप
रहे! उसने
मुल्ला को कहा
कि बुढ़ऊ, शरम नहीं
आती? बाल
सफेद हो गए, शर्म नहीं
आती
स्त्रियों को
धक्का देते?
मुल्ला
ने कहा : बाई, अब
तूने पूछ ही
ली बात तो
तुझसे क्या
छिपाना! बाल
सफेद भला हो
गए हों, दिल
तो अभी भी
मेरा काला है।
बालों के सफेद
होने से क्या
होता है जब तक
दिल सफेद न हो
जाए?
बात तो
उसने पते की
कही। दिल काले
रह जाते हैं।
लोग
नब्बे-नब्बे
साल के हो
जाते हैं और दिल
काले रह जाते
हैं। और दिल
के काले होने
का अर्थ होता
है धन की पकड़, पद
की पकड़, यश
की पकड़।
बहुत
प्रतिभा
चाहिए! लोग तो
अपने जीवन के
अनुभव से भी
नहीं जागते।
जो दूसरों के
जीवन को देखकर
जाग जाए उसके
लिए बड़ी
प्रतिभा
चाहिए। वैसी ही
प्रतिभा भीखा
में रही होगी।
बारह वर्ष की
उम्र में छोड़-छाड़ दिया
घर।
कहावत
है रूस में :
चतुर आदमी वह
है जो उलझन
में पड़ जाए तो
निकलने का
रास्ता खोज ले
और बुद्धिमान
आदमी वह है जो उलझन
में पड़े ही न।
यह कहावत मुझे
प्रीतिकर लगी।
चतुर आदमी वह
है जो उलझन
में तो पड़ेगा
ही नहीं।
भीखा
उलझन में पड़ा
ही नहीं।
चारों तरफ
देखा होगा।
इतने उलझे लोग, इतने
दुखी लोग, इतने
पीड़ित
लोग--इतना
काफी था देख
लेना। दूसरों
को देखकर ही
समझ गया कि
यहां कुछ सार
नहीं है।
सद्गुरु
की खोज शुरू
हुई।
स्वभावतः, और
कहां जाता
सद्गुरु को
खोजने--काशी
गया। थोड़ा इस
चित्र को अपनी
आंखों में
उभरने दोः
बारह वर्ष का
भोला-भाला
बच्चा, काशी
में तलाश कर
रहा है
सद्गुरु की।
अगर ज्यादा
उम्र का होता
तो शायद किसी
जाल में पड़
जाता, किसी
पंडित की
बकवास में पड़
जाता। लेकिन
एकदम भोला-भाला
था। यह बड़े
रहस्य की बात
है, लोग
कहते हैं कि
भोले-भाले
आदमी को धोखा
देना आसान है।
अनुभव कुछ और
कहता है। अगर
भोला-भाला
आदमी सच में
भोला-भाला हो
तो धोखा देना
असंभव है। बुद्धुओं
को भोले-भाले
कहते हो, यह
बात और है; उनको
धोखा देना
आसान है। मगर
उनको बुद्धू
मत कहो, भोले-भाले
मत कहो।
लेकिन
अक्सर लोकमानस
में यह बात हो
गई है कि
बुद्धू और
भोले-भाले एक
ही जैसे लोग
होते हैं।
भोले-भालों को
बुद्धू कहते
हैं लोग और बुद्धुओं
को भोला-भाला
कहते हैं। ये
बातें ठीक
नहीं हैं। ये
दोनों बड़ी
अलग-अलग बातें
हैं।
भोला-भाला
आदमी तो दर्पण
की भांति
स्वच्छ होता
है। उसे तुम
धोखा दे ही
नहीं सकते।
असंभव है।
चालाक आदमी को
धोखा दिया जा
सकता है, अगर
तुम ज्यादा
चालाक हो।
बेईमान आदमी
को भी धोखा
दिया जा सकता
है, अगर
तुम ज्यादा
बेईमान हो।
लेकिन
भोले-भाले आदमी
को धोखा नहीं
दिया जा सकता,
क्योंकि
भोला-भाला
आदमी बिल्कुल
दर्पण की तरह
है। तुम्हारी
तसवीर जो
तुम्हें भी
नहीं दिखाई
पड़ती, उसको
दिखाई पड़
जाएगी।
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
रोग जो
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ते, उसके
सामने ऐसे
प्रगट हो
जाएंगे जैसे
एक्स-रे के
सामने
तुम्हारे
भीतर तक के सब
रोग प्रगट हो
गए हों।
भोले-भाले
आदमी के पास
एक्स-रे वाली
आंख होती है
और दर्पण का
चित्त होता
है।
भीखा
घूमता रहा
काशी में और
खाली हाथ
लौटना पड़ा
उसे। काशी और
काबा, गिरनार
और शिखरजी,
सब खाली पड़े
हैं। हां, कभी
सदियों पूर्व
कोई दीए वहां
जले थे। उन
दीयों के कारण
तीर्थ बन गए।
लेकिन दीए तो
कब के बुझ गए।
बुझ ही नहीं
गए, दीयों
का तो
नाम-निशान न
रहा। लेकिन
दीयों के
आसपास
पंडितों की
भीड़ इकट्ठी हो
गई, चालबाजों की भीड़
इकट्ठी हो गई,
शोषकों की
भीड़ इकट्ठी हो
गई और वे
शोरगुल मचाए
रखते हैं। और
वे लोगों को
डरवाते रहते
हैं और प्रलोभित
करते रहते
हैं। और लोग
चलते जाते हैं,
लोग आते
जाते हैं। लोग
सोचते हैं कि
काशी पहुंच गए
तो सब ठीक हो
जाएगा।
काशी-करवट !
काशी में जाकर
मर गए, सब
ठीक हो गया!
हालांकि अब
हालत बदल गई
है, अब लोग
दिल्ली-करवट
लेते हैं।
दिल्ली में मर
गए तो स्वर्ग
पक्का है! राजघाट
पर जगह मिल गई
तो स्वर्ग
पक्का है!
जिंदगी-भर करो
पाप, अंत
में काशी-करवट
ले लेना! मरते
वक्त लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं!
कहते
हैं काशी में
तीन तरह के
लोगों की भीड़
है--भांड, रांड़ और सांड।
सांड शंकर जी
के प्रभाव से
मस्त होकर घूम
रहे हैं! रांडें
इकट्ठी हो गई
हैं, क्योंकि
आखिरी करवट
लेने के लिए
और कोई अच्छी जगह
नहीं है। और
भांड हैं।
दिखाई पड़ गया
होगा। ये तीनों
लोग पहचान में
आ गए होंगे
भीखा को, कि
कुछ रांडें
हैं, कुछ
सांड हैं, कुछ
भांड हैं। कुछ
काशी में है
नहीं। लौट पड़े
खाली हाथ, बहुत
उदास। आंखें
गीली थीं। अब
कहां जाएं? सोचा था
काशी में मिलन
हो जाएगा। अब
काशी में नहीं
मिला सद्गुरु
तो कहां
मिलेगा? लेकिन
जिसकी खोज है
उसे मिलना ही
है। खोज गुरु
को खोज ही लेगी।
पुरानी
मिस्री कहावत
है कि जब
शिष्य तैयार
होता है तो
गुरु स्वयं
प्रगट हो जाता
है। रास्तें
में किसी ने
एक पद कहा।
किसी अजनबी ने, ऐसे
ही राहगीर ने,
चलते साथ हो
लिया। एक पद
कहा, जिसके
अंत में
"गुलाल" की
छाप पड़ती थी।
गुलाल का पद
था। नाम का ही
जादू छा गया।
उस पद में तो
कुछ ज्यादा
नहीं था।
लेकिन गुलाल. . . .
कोई तार मिल
गए, कोई
तालमेल बैठ
गया।
बड़ा
अद्भुत है यह
जगत! कहां तार
मिल जाएंगे, कहां
तालमेल बैठ
जाएगा, कोई
जानता नहीं।
किस
रहस्यपूर्ण
ढंग से गुरु से
मिलन हो जाएगा,
कोई जानता
नहीं। उसकी
कोई
विधि-व्यवस्था
नहीं है। कोई
प्रक्रिया
नहीं है। अब
यह अजनबी आदमी,
कह दिया पद
आकस्मिक। और
उसमें गुलाल
का नाम आता था
अंत में।
गुलाल का पद
था। पद तो कुछ
महत्त्वपूर्ण
था ऐसा मालूम
नहीं पड़ता, क्योंकि पद
का कोई उल्लेख
नहीं किया गया
है कहीं भी।
सिर्फ इतना ही
उल्लेख किया
गया है कि
गुलाल की जो
छाप आती थी
पीछे। जैसे
कबीर में आता
है न "कहै
कबीरा", ऐसे
कुछ छाप पड़ती
होगी "कहै
गुलाल"।
गुलाल शब्द ने
जैसे कोई सोई
स्मृतियां
जगा दीं।
अगर
मुझसे पूछो तो
मैं यही
कहूंगा कि यह
नाता जन्मों-जन्मों
का रहा होगा, अन्यथा
सोई
स्मृतियां
जागती कैसे? और अक्सर
ऐसा होता है
कि गुरुओं और
शिष्यों का
नाता
जन्मों-जन्मों
का होता है।
ये नाते एकाध
जन्म में नहीं
बनते हैं।
एकाध जन्म
बहुत छोटा-सा
समय
है--क्षणभंगुर।
ये कोई मौसमी
फूल नहीं हैं।
ये तो चिनार
के आकाश को
छूते दरख्त
हैं, इनको
सदियां लगती
हैं।
पति-पत्नी का
संबंध क्षण
में हो जाता
है। जगत की
मित्रताएं
क्षण में बन
जाती हैं, मिट
जाती हैं।
जितनी जल्दी
बनती हैं उतनी
जल्दी मिट
जाती हैं।
लेकिन
सद्गुरु का
संबंध सदियों
में निर्मित
होता है।
धीरे-धीरे
निर्मित होता
है। आहिस्ता-आहिस्ता
निर्मित होता
है।
जरूर
भीखा किन्हीं
पिछले जन्मों
में गुलाल से
जुड़ा रहा
होगा। एक ही
पथ के पथिक
रहे होंगे। एक
ही मधुशाला
में दोनों ने
पी होगी। एक
ही प्याले से
दोनों ने पी
होगी। इसीलिए
तो आज अचानक
जरा-सी चोट . . . .।
"गुलाल" शब्द
से क्या होता
है,
तुमने भी
सुना। मैं
कितनी दफे
दोहरा
चुका--गुलाल, गुलाल, गुलाल!
तुम्हें शायद
ज्यादा-से
ज्यादा याद भी
आए तो याद आए
फाग की गुलाल
की। लेकिन
भीखा के भीतर
कोई तार छिड़
गया, कोई
संगीत बज गया।
कोई द्वार खुल
गया। पूछा :
गुलाल कहां
मिलेंगे? उस
आदमी ने कहा :
मुझे कुछ पता
नहीं है। यह
पद तो मैंने
किसी से सुना
है। उसके भीतर
कुछ नहीं बजा
था। बस पूछने
लगे भीखा कि
गुलाल कहां, गुलाल कहां
मिलेंगे?
गुलाल
कोई बहुत ख्यातिनाम
व्यक्ति न थे।
ख्यातिनाम
व्यक्ति तो
काशी में थे।
उनके पास तो
जाकर देख आया
था भीखा, कुछ
पाया नहीं था!
खोजते-खोजते
एक छोटे-से
गांव में, जिसका
नाम भी तुमने
न सुना होगा ।
नाम था गांव का
भुरकुड़ा।
एक छोटा-सा
गांव, होंगे
दस-पांच झोपड़े।
नाम ही बता
रहा है--भुरकुड़ा।
वहां गुलाल
मिले। और गुलाल
को देखा, कि
न भीखा ने ही
केवल पहचाना,
गुलाल ने भी
पहचाना। इस
बारह वर्ष के
बच्चे को एकदम
उठाकर अपने
पास बिठाया, अपनी गद्दी
पर बिठाया!
पुराने
शिष्यों में तोर्
ईष्या फैल गई।
लोग तो
चौकन्ने हो गए
कि बात क्या
है, किसी
को कभी अपने
पास गद्दी पर
नहीं बिठाया।
बड़ी आवभगत
की--बारह वर्ष
के बच्चे की!
क्योंकि
एक और दुनिया
है जहां उम्र
से कुछ भी नहीं
नापा
जाता--जहां
हृदय तौले
जाते हैं; जहां
आत्माएं परखी
जाती हैं।
इसको ऐसा
सम्मान दिया
जैसे कोई
सम्राट हो।
भीखा
गुलाल के हो
गए,
गुलाल भीखा
के हो गए। फिर
भीखा ने छोड़ा
ही नहीं। भुरकुड़ा
गांव को फिर
छोड़ा ही नहीं,
वहीं मरे, वहीं
गुरु-चरणों
में ही मरे।
वहीं रहे। एक
दिन को नहीं
छोड़ा। एक रात
को नहीं छोड़ा।
एक क्षण को
नहीं छोड़ा।
वही द्वार
मंदिर हो गया,
वही द्वार
तीर्थ हो गया।
भीखा
ने स्वयं इस
अनुभूति को
अपने शब्दों
में बांधा है--
बीते
बारह बरस उपजी
रामनाम सों
प्रीति।
निपट
लागी चटपटी
माने चारिउ
पन गए बीति।।
और फिर
ऐसी आग जली. . . .वह
जो राम से
प्रीति लगी तो
ऐसी आग जली कि
लगा बारह साल
में ही चारों
पन बीत गए!
जैसे मैं बूढ़ा
हो गया। जैसे
बीत गईं चारों
अवस्थाएं--चारों
आश्रम, एक
साथ बारह साल
में! निपट
लागी चटपटी!
और ऐसी लगी आग
और ऐसी जली
अभीप्सा, मानो
चारिउ पन
गए बीति! मैं
अचानक बारह
वर्ष में
वृद्ध हो गया :
देख लिया
देखने-योग्य।
देख लिया सब
असार है। मौत
सामने खड़ी हो
गई। बारह वर्ष
की उम्र में मौत
सामने खड़ी हो
गई। जबकि लोग
सपने संजोते
हैं, जो टूटेंगे
आज नहीं कल!
जबकि लोग बड़ी
योजनाएं और
कल्पनाएं
बनाते हैं, जोकि सब
धूल-धूसरित हो
जाएंगी!
लेकिन
अगर रामनाम की
धुन बज जाए, शाश्वत
की धुन बज जाए
तो सब समय
व्यतीत हो गया।
मौत सामने खड़ी
हो जाती है।
नहीं
खान-पान सुहात
तेंहि
छिन।. . . .छिन भर
को भी अब न कुछ
खाना सुहाता, न
पीना सुहाता।.
. . . बहुत तन
दुर्बल हुआ।
घर
ग्राम लाग्यो
बिषम, धन
मनु सकल हारयो
है जुआ।
ऐसी
हालत हो गई है, जैसे
जुए में कोई
सब कुछ हार
गया हो, कुछ
बचा नहीं।
बारह साल के
बच्चे से ये
शब्द!. . . .निकल
सकते हैं।
शंकराचार्य
नौ वर्ष की
उम्र में संन्यस्त
हो गए।. . . .धन मनु
सकल हारयो
है जुआ। सब
हार हो गई। यह
संसार तो
व्यर्थ हो गया!
ज्यों मृगा जूथ
से फूटि परु, चितचकित ह्वै बहुतै
डरो।
ढुंढ़त
व्याकुल
वस्तु जनु कै
हाथ सों कछु
गिरि परो।।
और
मेरी हालत ऐसी
हो गई है जैसे
कि कोई मृग
अपनी मंडली से
छूट जाए।
ज्यों मृगा
जूथ से फूटि
परु, चितचकित ह्वै बहुतै
डरौ! और
अकेले में
बहुत डरने लगे,
ऐसे ही मैं
समाज से टूट
गया हूं, बिल्कुल
अकेला हो गया
हूं। मेरा कोई
भी नहीं है इस
जगत में, ऐसा
अकेला हो गया
हूं।
बहुत
डर लगता है. . .
.बारह साल का
बच्चा !
ढुंढ़त
व्याकुल
वस्तु जनु कै
हाथ सों कछु
गिरि परो।।
मेरी
दशा वैसी है
जैसे हाथ से
किसी के कोई
बहुमूल्य
वस्तु गिर पड़ी
हो और वह ढूंढ़ता
हो पागल की
तरह और मिलती
न हो।
सत्संग
खोजो चित्त
सों जहं
बसत अलख अलेख।
खोजता हूं
सत्संग को। उस
सत्संग को
जहां अलख और
अलेख का वास
हो। जिसे मापा
न जा सके।
जिसे कहा न जा
सके। और फिर
भी,
जिसे लुटाया
जा सके। ऐसे
सत्संग की
तलाश कर रहा
हूं।
कृपा
करि कब मिलहिंगे
दहुं
कहां कौने
भेख।
पूछता
हूं
द्वार-द्वार
कि गुरु कहां
मिलेगा, कृपा
करके कहां
मिलेगा? और
किस वेश में
मिलेगा?
अगर
जरा भी कोई
पक्षपात होता
तो सद्गुरु
नहीं मिलता।
अगर भीखा के
मन में यह भाव
होता कि कृष्ण
जैसा गुरु
होना चाहिए, कि
बांसुरी लिए,
मोर-मुकुट
बांधे, तो
फिर नहीं
मिलता। या
मिलता भी कोई
तो कोई रासलीला
करता हुआ कोई
अभिनेता
मिलता। या अगर
यह भाव होता
कि राम जैसा
गुरु हो
धनुष-बाण लिए,
सीता मइया
पास खड़ी, तो
भी नहीं
मिलता। या
महावीर या
बुद्ध. . . .। नहीं,
लेकिन
बिल्कुल
निष्पक्ष
चित्त था।
दहुं
कहां कौने
भेख! मुझे
कुछ पता नहीं
कि किस वेश
में तुम मिलोगे, तो
तुम्हें
खोजूं कैसे? तुम किस वेष
में मिल जाओगे
पता नहीं।
तुम्हीं खोजो
तो शायद. . . .तुम्हीं
अगर पुकार लो
तो शायद यह
घटना घट जाए।
कोई कहेउ
साधु बहु
बनारस
भक्ति-बीज सदा
रह्यौ।
किसी
ने कहा कि
बनारस जा पागल, यहां
क्या करेगा? वहां साधु
बहुत हैं।
साधु निश्चित
वहां बहुत हैं,
मगर संत
नहीं। साधु
वहां बहुत हैं,
भीड़-भाड़ है।
मगर
भीड़-भाड़ में
तुम्हें कोई बुद्धपुरुष
मिलेगा?
कोई कहेउ
साधु बहु
बनारस
भक्ति-बीज सदा
रह्यौ।. . .
.कि वहां
भक्ति का बीज
तो सदा रहा
है। तू जा, वहां
मिल जाएगा कोई
भक्त, कोई
भगवान का
प्यारा, कोई
हरिजन।
तहं सास्त्र
मत को ज्ञान
है. . . .। तो मैं
गया,
भीखा कहते
हैं और मैंने
वहां देखा कि
शास्त्र का, मत का, दर्शन
का खूब ज्ञान
है।. . . .गुरु भेद
काहू नहीं कह्यौ।
लेकिन ऐसी बात
किसी ने भी
नहीं कही, जिससे
गुरु होने का
भेद मिलता।
जिससे पता चलता
कि हां, आ
गया गुरु का
द्वार, बस
अब यहां से
कहीं और जाना
नहीं है। आ गई
मंजिल!
दिन दोए-चारि विचारि देख्यौं भरम
करम अपार है।
कुछ
दिन रुका, भटका,
सोचा, देखा.
. . .भरम करम अपार
है! बहुत क्रियाकांड
चल रहा है।
बहुत
भ्रम-अंधविश्वास
चल रहे हैं।
लेकिन कहीं
कोई जलती हुई
ज्योति नहीं।
बहु
सेव पूजा कीरतन
मन माया-रस व्योहार
है।
और
देखा लोग पूजन
भी कर रहे हैं, सेवा
कर रहे हैं
भगवान की, कीर्तन
कर रहे हैं।
और मन में? माया
है, मोह
है। वही धन, पद-प्रतिष्ठा
की पकड़ है।
लेकिन गुलाल
को देखते ही
आंखें भर गईं,
आत्मा भर
गई। गुलाल को
देखकर ही तो
भीखा ने कहा :
गुरु-परताप
साध की संगति!
भीखा
के वचन--
जग
के करम बहुत
कठिनाई, तातें भरमि-भरमि जहंड़ाई।
ज्ञानवंत
अज्ञान होत है, बूढ़े
करत
लरिकाई।।
जग के
करम बहुत
कठिनाई!
परमात्मा को
पाना कठिन
नहीं है, लेकिन
जगत ऐसे
संस्कार
डालता है
लोगों के चित्त
पर कि वे
संस्कार बाधा
बन जाते हैं।
जगत ऐसे क्रियाकांड
सिखा देता है
कि उन क्रियाकांडों
के कारण ही
दीवालें खड़ी
हो जाती हैं।
जगत ऐसी शिक्षाएं
देता है कि उन
शिक्षाओं के
कारण आदमी
अंधा हो जाता
है।
परमात्मा
को न देख पाने
में हिंदुओं
का हाथ है, मुसलमानों
का हाथ है, ईसाइयों
का, जैनों
का, बौद्धों
का, शास्त्रों
का, पंडितों
का , संप्रदायों
का। ईश्वर को
तो वही देख
सकता है जो
संप्रदाय-मुक्त
हो; जो
पक्षपात-मुक्त
हो; जिसने
शास्त्र को
अलग हटाकर रख
दिया हो। जिसकी
आंख पर
शास्त्रों के
चश्मे चढ़े हैं
वह परमात्मा
को नहीं देख
सकता।
परमात्मा को
देखने के लिए
निर्विचार
आंख चाहिए--और
शास्त्र तो
विचार और
विचार और
विचार.. . .इसके
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है।
शास्त्रों
में विचार हैं
और क्रियाकांड
हैं--ऐसा करो
तो परमात्मा
मिलेगा, ऐसा
सोचो तो
परमात्मा
मिलेगा। और
मजा यह है कि
परमात्मा
मिला ही हुआ
है। कुछ न
सोचो, कुछ
न करो--अभी मिल
जाए! घड़ी-भर को
भी शून्य होकर
बैठ जाओ, कुछ
न सोचो, कुछ
न करो--अभी मिल
जाए।
झेन
फकीर कहते हैं
: गुपचुप बैठे, बिना
कुछ करते, वसंत
आता है और घास
अपने-आप उगने
लगती है। गुपचुप
बैठे..."सिटिंग
सायलेंटली"।
न कुछ करते..."डूइंग नथिंग"।
वसंत आता
है..."द
स्प्रिंग कम्स"।
और घास अपने
से बढ़ने लगती
है..."एंड द
ग्रास ग्रोस
बाय इटसेल्फ"।
परमात्मा तो
अभी मिले, अभी
मिले, यहीं
मिले! क्षण-भर
भी रुकने की
कोई जरूर नहीं
है; लेकिन
नहीं मिलता तो
हम सोचते हैं
बहुत कठिन है
परमात्मा को
पाना।
परमात्मा
को पाना कठिन
नहीं है। समाज
ने जो जाल
तुम्हारे
चारों तरफ बुन
दिया उसको पार
पाना कठिन है।
उस जाल को
काटना कठिन
है। हिंदू
होना नहीं
छूटता, मुसलमान
होना नहीं
छूटता। छूटता
ही नहीं है; खून, हड्डी-मांस-मज्जा
में समा गया
है।
परमात्मा
कैसे मिले? काश,
तुम सिर्फ
मनुष्य होओ तो
परमात्मा अभी
मिले। काश, तुम्हारे
ऊपर कोई
परंपराओं का
बोझ न हो तो
तुम्हारी आंख
अभी खुल जाए।
तुम्हारी
आंखों पर
चट्टानों का
बोझ है।
जग के
करम बहुत
कठिनाई! भीखा
कहते हैं : जग
के कारण
कठिनाई हो रही
है,
परमात्मा
के कारण
नहीं।...तातें
भरमि-भरमि
जहंड़ाई।
समाज की
शिक्षाओं के
कारण बार-बार
हम भ्रम के
जाल में पड़
जाते हैं।
ज्ञानवंत
अज्ञान होत
है!...और यहां
हालत बड़ी अजीब
है। जिनको तुम
समझते हो बड़े
ज्ञानी हैं, उनसे
बड़े अज्ञानी
नहीं हैं।
पंडितों से
ज्यादा बड़े मूढ़ खोजने
असंभव हैं।
क्योंकि
पंडित के पास
मात्र शब्द
होते हैं, कोई
अनुभव नहीं
होता। शब्दों
से न तो भूख
मिटती है और न
प्यास बुझती
है। शब्दों को
न तो ओढ़ सकते हो
न बिछा सकते
हो। वर्षा
होगी तो
"छप्पर" शब्द काम
में नहीं
आएगा--छप्पर
चाहिए; "छाता"
शब्द काम में
नहीं
आएगा--छाता
चाहिए! आग लगेगी
तो "जल" शब्द
से तुम उसे न
बुझा
सकोगे--जल
चाहिए!
जीवन
तो "जो है"
उसको स्वीकार
करता है। और
पंडित उसके
संबंध में जानकारियां
करता है।
अक्सर पंडित
के पास
तुम्हें बड़े
सुंदर, लच्छेदार,
तर्कयुक्त
शास्त्र-सम्मत
विचार
मिलेंगे। बस
विचार। उसके
जीवन में तलाशोगे
तो कुछ भी न
पाओगे।
ज्ञानवंत
अज्ञान होत
है! यहां हालत
बड़ी अजीब है।
यहां जिनको
ज्ञानी कहो वे
महाअज्ञानी
हैं!...बूढ़े करत
लरिकाई। और
यहां बूढ़े हैं
जिनका
व्यवहार देखो
तो ऐसा लगता
है कि लड़के भी
ऐसा व्यवहार
करें तो भी
असम्मानजनक है।
लेकिन बूढ़े भी
वही व्यवहार
कर रहे हैं।
बूढ़े भी वृद्ध
नहीं हो पाते।
उम्र तो बढ़
जाती है, परिपक्वता
नहीं आती।
और यह
बारह साल के
लड़के ने जाना, पहचाना।
खूब प्रतिभा
रही होगी!
तलवार की धार
रही होगी!
जन्मों-जन्मों
का निखार
होगा।
सदियों-सदियों
में किए गए
सत्संग की
गरिमा के कारण
ही यह संभव हो
पाया होगा।
परमारथ
तजि स्वारथ सेवहि, यह
धौं कौनि
बड़ाई।
और
परमेश्वर को
तो छोड़ दिया
है,
परम अर्थ को
तो छोड़ दिया
है, स्वार्थ
में लगे हैं।
छोटे-छोटे
क्षुद्र
स्वार्थ, दो
कौड़ी के
स्वार्थ! उनके
लिए आदमी
क्या-क्या
करने को तैयार
है! कितना अफमानित
होने को तैयार
है। कितना
निंदित होने
को तैयार है। कौड़ियों
के पीछे दौड़
रहा है और
हीरे पड़े हैं
जिन पर उसकी
नजर नहीं जाती,
क्योंकि
दौड़ उसकी कौड़ियों
के पीछे लगी
है।
परमारथ
तजि स्वारथ सेवहि...।
जिनमें थोड़ा
बोध है वे तो
जीवन के परम
अर्थ को खोजते
हैं,
क्योंकि यह
जो जीवन है यह
तो मौत आएगी
और पोंछ देगी।
इसके पहले ही
उस परम अर्थ
को खोज लेना है,
जिसकी कोई
मौत नहीं है, जिसका कोई
अंत नहीं है।
फिर
स्वार्थ की
बात मौलिक रूप
से भ्रांति पर
खड़ी है, क्योंकि
मैं हूं ही
नहीं। और इस
मैं के ही कारण
मेरे का
विस्तार कर
रहा हूं। और
यह प्रथम चरण
ही भ्रांत है।
मैं हूं ही
नहीं, परमात्मा
ही है। हम तो
सिर्फ उसके
सागर की लहरें
हैं। लहरों का
क्या कोई
अस्तित्व है?
अभी
हैं--अभी
गयीं। सागर
सदा है। जो
सदा है वही
सत्य है।
बेद-बेदांत कौ अर्थ विचारहिं, बहुबिधि रुचि
उपजाई।
और खूब
उलझे हैं। खूब
कुतूहल से भरे
हैं। वेद-वेदांत
का अर्थ विचार
रहे हैं।
विवाद कर रहे
हैं। सिद्ध कर
रहे हैं कि
ऐसा अर्थ है
कि वैसा अर्थ
है। और किसी
को चिंता नहीं
पड़ी कि अनुभव
में उतरे।
किसी को चिंता
नहीं पड़ी।
बुद्ध
की मृत्यु हुई
और बुद्ध के
शिष्य छत्तीस
संप्रदायों
में बंट गए, तत्क्षण!
कोई कुछ अर्थ
करने लगा, कोई
कुछ अर्थ करने
लगा, कोई
कुछ अर्थ करने
लगा। महा
विवाद छिड़
गया। बुद्ध ने
क्या कहा था, इ२५५उसका
क्या अर्थ
है--इस पर
छत्तीस संप्रदाय
हो गए।
थोड़े-से ही थे
ऐसे लोग जो इस
विवाद में
नहीं पड़े; जो
अपने वृक्षों
के नीचे मौन
होकर चुप बैठ
गए।
किसी
ने ऐसे मौन
होकर चुप बैठे
मंजुश्री से
पूछा--बुद्ध
का एक अद्भुत
शिष्य--कि न तो
तुम रो रहे हो, न
तुम दुखी
दिखाई पड़ रहे
हो, न ही
तुम विवाद में
पड़े हो। क्योंकि
सारे शिष्य
विवाद में पड़े
हैं कि अब बुद्ध
के वचनों का
ठीक-ठीक अर्थ
क्या है? मंजुश्री
ने कहा : बुद्ध
चले गए, मैं
भी चला जाऊंगा।
बुद्ध तक चले
गए तो मेरी
क्या हस्ती, मेरी क्या
बिसात? जहां
जीवन इतना
क्षणभंगुर है
कि बुद्ध जैसे
व्यक्ति की भी
लहर मिट जाती है,
रोऊं किसलिए?
रोने में
समय क्यों गंवाऊं?
बुद्ध ने जो
जाना है वही
जानकर मैं भी
जाऊं, कि
लहर मिटे तो
मैं जानता हुआ
जाऊं कि मैं
सागर हूं, लहर
नहीं हूं। जिस
मौज से बुद्ध
गए हैं, जो
मुस्कराहट
बुद्ध पीछे
छोड़ गए हैं
वही मैं भी
छोड़ जाऊं। और
विवाद से क्या
होगा? शब्दों
के अर्थ करने
से क्या होगा?
बुद्ध ने जो
कहा था, उसका
अनुभव करने के
लिए बैठा हूं।
जिन्हें विवाद
करना है वे
विवाद करें।
और मजा
यह है कि ये जो
अनुभव करने
वाले लोग थे, ये
तो खो जाते
हैं और विवाद
करने वाले लोग
अड्डे जमा
लेते हैं। वे
संप्रदाय अब
भी जिंदा हैं।
मंजुश्री के
पीछे चलने
वाला कोई
नहीं। लेकिन
उन विवादियों
के पीछे अब भी
संप्रदाय खड़े
हैं। लोगों की
शब्दों पर बड़ी
श्रद्धा है।
यह दुनिया में
आश्चर्यजनक
घटना है कि
लोग शब्दों पर
कितना भरोसा करते
हैं! लोग सत्य
की तलाश नहीं
करते, शब्द
से ही राजी हो
जाते हैं।
बेद-बेदांत
कौ अर्थ विचारहिं, बहुबिधि रुचि
उपजाई।
माया-मोह
ग्रसित निसिबासर, कौन
बड़ो सुखदाई।।
भीखा
कहते हैं :
करते रहो वेद
और वेदांत की
चर्चा, माया
भी नहीं मिटती,
मोह भी नहीं
मिटता।
रात-दिन
माया-मोह में
लगे हो, और
बातें बड़े
ज्ञान की कर
रहे हो। करते
रहो ये बातें
। इन प्रकाश
की बातों से
प्रकाश नहीं होगा,
अंधेरा
नहीं मिटेगा ।
इनसे जीवन में
सुख की वर्षा
होने वाली
नहीं है।
लेहिं
बिसाहिं
कांच को सौदा, सोना
नाम गंवाई।
शब्दों
में उलझे हो, कांच
को पकड़कर
बैठ गए। कांच
का सौदा कर
लिया है शब्द
तो कांच जैसे
हैं। सोना नाम
गंवाई! और
हरिनाम, प्रभु
का स्मरण--जो
सोना
है--उसमें
डुबकी नहीं मार
रहे हो।
अमृत
तजि विष अंचवन
लागे...।
अमृत मौजूद है
और तुम विष पी
रहे हो! मगर
विष की बोतलों
पर लोगों ने
अमृत के लेबल
लगा दिए हैं।
और लोग लेबलों
पर बड़ा भरोसा
करते हैं। कोई
भीतर तो झांककर
देखता ही नहीं
कि भीतर क्या
है,
बस लेबल पर
बड़ा भरोसा
करते हैं। लोग
जहर पी सकते
हैं, अमृत
लिखा होना
चाहिए। शब्द
का ऐसा
सम्मोहन है!
अगर
तुम्हें कोई
बता दे लिखा
हुआ कि यह
देखो, यह
किताब में
लिखा है--बस, फिर ठीक
होना ही
चाहिए! लिखा
हुआ हो तो ठीक
होना ही
चाहिए। बोले
हुए पर भरोसा
नहीं होता, लिखे हुए पर
एकदम भरोसा हो
जाता है। क्या
पागलपन है!
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी ने
पार्टी दी हुई
थी। नमक की
कमी पड़ गयी।
तो मुल्ला
भागा; उसने
कहा कि मैं ले
आता हूं नमक।
चौके में बड़ी देर
हो गयी, बड़ी
आवाजें, डब्बों
को खोलना-बंद
करना, उठाना
रखना!...पत्नी
ने कहा : क्या
जिंदगी लगा
दोगे! नमक कब
तक ला पाओगे? उसने कहा कि
मिल ही नहीं
रहा है नमक।
पत्नी
ने कहा : आंख के
अंधे हो!
तुम्हारे
सामने ही जिस
डिब्बे पर
"मिर्च" लिखा
है,
उसी में नमक
है। लेकिन
लेबल के भरोसे
वाला आदमी तो
मिर्च लिखा
सोचकर छोड़ ही
दिया था।
मगर
स्त्रियों की
बुद्धि अपने
ढंग की होती
है : जिस पर
मिर्च लिखा है, उसमें
नमक रखा है।
प्राइवेट कोड
उनका अपना निजी
है। खुद का
चौका है तो
ठीक है, चलता
है; लेकिन
दूसरा कैसे
खोजेगा? और
शब्दों पर
लोगों के ऐसे
भरोसे हैं कि
जब मिर्च लिखा
है तो बात खत्म
हो गयी। अब
चाहे बोतल में
भीतर नमक भी
क्यों न दिखाई
पड़ रहा हो, मगर
अगर मिर्च ऊपर
लिखा है तो
बात खत्म हो
गयी। लोग
चीजें नहीं
देखते, लोग
सिर्फ शब्द
देखते हैं।
अमृत
तजि बिष अंचवन लागे, यह
धौं कौनि
मिठाई।
यह
क्या कर रहे
हो?
ऐसे कैसे
जीवन में
मिठास होगी? ऐसे कैसे
जीवन में आनंद
होगा?
गुर-परताप
साध की संगति, करहु न
काहे भाई।
शास्त्रों
में ही खोए
रहोगे? किसी
जीवंत
सद्गुरु के
चरणों को न पकड़ोगे?
गुरु-परताप
साध की संगति!
अगर कुछ करना
हो तो कुछ ऐसा
करो कि किसी
गुरु की आभा
में मंडित हो
जाओ। किसी
गुरु के संगीत
में डूब जाओ, लयबद्ध हो
जाओ। जहां
गुरु के पास
साधुओं की जमात
इकट्ठी हुई हो,
जहां
परमात्मा के
प्रेमी और
दीवाने नाच
रहे हों, मस्त
हो रहे हों, आनंदमग्न हो
रहे हों--वहां
तुम भी पहुंच
जाओ। शायद
उनकी मग्नता
तुम्हारे रोओं
को भी कंपा
दे। शायद उनका
नाच तुम्हारे
पैरों को भी
नाच दे दे।
और
अक्सर ऐसा हो
जाता है।
तुमने देखा, कोई
तबला बजा रहा
है और तुम भी
थाप देने लगते
हो! क्या हुआ? तबला बजाने
वाले ने तुमसे
कहा नहीं था
कि थाप दो, लेकिन
अपनी कुर्सी
पर ही थाप
देने लगे। कोई
नाच रहा है और
तुम्हारे
पैरों में नाच
समा जाता है।
ठीक ऐसे ही
सत्संग है।
वहां भीतरी
नृत्य हो रहा
है; भीतरी
मृदंग बज रही
है; भीतर
थाप पड़ रही
है। जो भी
खुला हृदय
लेकर मौजूद हो
जाते हैं उनके
भीतर रस की
धार बह उठती
है।
और कोई
उपाय नहीं, एक
ही उपाय
है--गुरु-परताप
साध की संगति!
अंत
समय जब काल गरसिहै, कौन
करौ
चतुराई।
यह सब
चतुराई काम न
आएगी। ये वेद
और वेदांत सब पड़े
रह जाएंगे। ये
उपनिषद और
गीता और कुरान
और बाइबिल सब
पड़े रह
जाएंगे। जब
मौत द्वार पर
दस्तक देगी, सब
होश भूल
जाओगे।
मानुष-जनम
बहुरि नहिं पैहो, बादि
चला दिन जाई।
और याद
रखो,
बहुत
मुश्किल से यह
मनुष्य की गरिमा
मिली है; खो
मत देना; अवसर
खो मत देना।
अवसर ऐसे ही न
चला जाए, नहीं
तो बाद में
बहुत
पछताओगे।
भीखा कौ मन कपट
कुचाली...! भीखा
कहता है कि
मैं तुमसे कहता
हूं : समझ लो, मन
बहुत कपटी है
और बड़ा कुचाली
है।...धरन धरै
मुरखाई।
न मालूम
किस-किस
प्रकार की
धारणाएं रखकर,
न मालूम
किस-किस तरह
की तरकीबों से
तुम्हें उलझाए
रखेगा। जागना
चाहोगे तो ही
जाग सकोगे।
अगर जरा भी
सोने की वासना
बनायी रखी तो
मन तुम्हें लपटाए
रखेगा, मन
तुम्हें उलझाए
रखेगा। मन बड़ा
कुशल है।
समुझि गहो
हरिनाम, मन
तुम समुझि
गहो हरिनाम।इस
बात को ठीक से
समझ लो कि यह
जीवन जा रहा
है। यह जिंदगी
गयी ही गयी।
यह मुट्ठी से
समय सरका जा
रहा है। इसे
ठीक से समझ लो
और हरि के नाम
को गहो।
क्योंकि वही
है जो सदा
रहेगा और सदा
के साथ सुख
है।
क्षणभंगुर के
साथ दुख है।
समुझि गहो
हरिनाम, मन
तुम समुझि
गहो
हरिनाम।
दिन दस
सुख यहि तन के कारन, लपटि
रहो धन धाम।।
धन से, पद
से, प्रतिष्ठा
से लिपट कर
पड़े हो! यह चार
दिन की चांदनी
है, फिर
अंधेरी रात।
यह छोटा-सा
धोखा है। इस
धोखे में
सिर्फ मूढ़
ही पड़ते हैं, लेकिन अधिक
लोग इस धोखे
में पड़े हैं।
निश्चित ही
अधिक लोग मूढ़
हैं। मगर
चूंकि मूढ़ों
की भीड़ है, इसलिए
तुम्हें पता
भी नहीं चलता।
भीड़ में तुम भी
हो तो तुम्हें
भी पता नहीं
चलता कि इतनी मूढ़ों की
भीड़ हो सकती
है। जब सभी
लोग यही कर
रहे हैं तो
ठीक ही कर रहे
होंगे।
हमारे
भीतर एक तर्क
है कि भीड़ जो
करती है, ठीक
ही करती होगी।
इतने लोग कहीं
गलत हो सकते हैं?
और यही
दूसरे सोच रहे
हैं कि इतने
लोग कहीं गलत
हो सकते हैं? तुम भी यही
सोच रहे, तुम्हारा
पड़ोसी भी यही
सोच रहा।
पड़ोसी
सोच रहा है कि
तुम गलत नहीं
हो सकते, तुम
सोच रहे हो
पड़ोसी गलत
नहीं हो सकता।
इस तरह एक बड़ी भ्रमना, एक बड़ा
भ्रमजाल खड़ा
है।
देखु बिचारि
जिया अपने...।
अपने हृदय में
जरा सोचो! अगर
आनंद मिल रहा
हो तो ठीक।
अगर जीवन में
उत्सव हो तो
ठीक। अगर जीवन
में अमृत की
वर्षा हो रही
हो तो ठीक।
भीड़ को देखकर
नहीं, अपने
भीतर अनुभव से
निर्णय करो।
देखु
बिचारि
जिया अपने, जत
गुनना गुनन
बेकाम।
इसके
अतिरिक्त
जितना भी तुम
चिंतन-मनन कर
रहे हो, वह सब
बेकार है। एक
बात तो तुम
ठीक से समझ लो
कि तुम्हारी
जिंदगी ने
तुम्हें क्या
दिया? आनंद
दिया? अमृत
दिया? सत्य
दिया? अगर
नहीं दिया तो
कोई और भी
जीवन है, उसकी
तलाश में लग
जाओ। और देर न
करो। स्थगित न
करो। कल पर न
टालो।
क्योंकि कल
कभी आता नहीं।
और जिसने कल
पर टाला उसने
सदा को टाला।
जोग
जुक्ति
अरु ज्ञान
ध्यान तें, निकट
सुलभ नहीं
लाम।
और
स्मरण रखो, परमात्मा
को पाना किसी
विधि की बात
नहीं है। जोग जुक्ति...कि
कोई सिर के बल
खड़ा हो गया, कि किसी ने
योगासन साध
लिए और
परमात्मा को
पा लिया। काश,
इतना आसान
होता कि शरीर
के व्यायाम से
और परमात्मा
मिल जाता! हां,
शरीर के
व्यायाम के
अपने लाभ हैं।
तुम ज्यादा स्वस्थ
रहोगे, थोड़े
ज्यादा दिन जियोगे।
मगर ज्यादा
स्वस्थ रहकर
ज्यादा दिन जी
कर करोगे भी
क्या? करोगे
तो वही
उपद्रव!
कहते
हैं तैमूरलंग
ने एक
ज्योतिषी को पूछा
कि मैंने सुना
है कि शुभ है
ब्रह्ममुहूर्त
में उठ आना; जल्दी
उठ आना। मैं
तो कभी नहीं
उठता। मैं तो
दस बजे के
पहले नहीं
उठता।
तुम्हारा
क्या ख्याल है?
तैमूर को
लोग जानते थे, वह
आदमी खतरनाक
है। मगर
ज्योतिषी भी
बड़ी हिम्मत का
था। उसने कहा :
वे लोग गलत
कहते हैं। तुम
चौबीस घंटे
सोओ।
तैमूर ने
कहा : चौबीस
घंटे! होश की
बातें कर रहे
हो?
इससे क्या
लाभ?
उस
ज्योतिषी ने
कहा : इससे लाभ
ही लाभ है, क्योंकि
तुम जितनी देर
जगते हो उतनी
देर उपद्रव
है। उतने
लोगों को
मारोगे, काटोगे,
सताओगे,
परेशान
करोगे। तुम
जैसे लोग तो
चौबीस घंटे
सोए रहें, इसमें
ही लाभ है।
दूसरों का तो
लाभ है ही, तुम्हारा
भी लाभ है।
दूसरों का लाभ
है कि वे परेशानी
से बच जाएंगे;
और
तुम्हारा लाभ
यह है कि तुम
किसी को
परेशान न
करोगे तो आगे
परेशान न किए
जाओगे। लाभ ही
लाभ है।
तुम
थोड़े दिन
ज्यादा जी
लोगे तो क्या
करोगे? वही
करोगे न जो
थोड़े कम दिन
जी कर करते।
शरीर स्वस्थ
होगा बीमारी
कम होगी। जरूर
योगासन के उपयोग
हैं, लेकिन
परमात्मा के
मिलने से इसका
कोई संबंध नहीं
है। और अक्सर
ऐसे लोग हैं
जो इसी में
उलझे हैं
जिंदगी में और
सोच रहे हैं
कि परमात्मा
के करीब पहुंच
रहे हैं, क्योंकि
सिर के बल खड़े
होना
उन्होंने अब
घंटे भर साध
लिया, दो
घंटे साध
लिया। तुम
चौबीस घंटे भी
सिर के बल खड़े
रहो...हां, कुछ
फायदे हैं, किसी को
नुकसान न
पहुंचेगा
तुमसे। और जब
तुमसे किसी को
नुकसान नहीं
पहुंचेगा तो
अगले जन्म में
तुमको भी
कुछ-न-कुछ लाभ
मिलेगा। सिर के
बल किसी को
खड़ा कर देना
बड़ा सुगम उपाय
है दूसरों को
बचाने का। मगर
और कोई लाभ
नहीं है।
जोग जुक्ति......।
और लोग कुछ
सोच रहे हैं
कि कोई युक्ति
है,
कोई तरकीब
है, कोई
कुंजी है--जो
कोई तुम्हें
पकड़ा देगा और
तुम दरवाजा
खोल लोगे। कोई
युक्ति भी
नहीं है। परमात्मा
किसी युक्ति
से नहीं
मिलता।
परमात्मा तो
मिलता है प्रेम
से और प्रेम
कोई युक्ति
नहीं है।
परमात्मा तो
मिलता है
सर्वस्व
समर्पण से। और
समर्पण कोई
युक्ति नहीं
है, कोई
चालबाजी नहीं
है, कोई
होशियारी
नहीं है।
कुछ
लोग सोच रहे
हैं ज्ञान से
मिल जाएगा, कि
खूब शास्त्रज्ञान
संगृहीत कर
लें। कुछ लोग
सोच रहे हैं
कि जपत्तप...जिसको
वे ध्यान कहते
हैं; जोकि
ध्यान नहीं
है। कुछ लोग
सोच रहे हैं
माला फेरते
रहेंगे। तो
कितनी बार
माला
फेरी...कितनी
बार, उसका
हिसाब रखेंगे!
कहेंगे
परमात्मा से,
एक करोड़
बार माला फेरी,
अब तो मिल
जाओ!
परमात्मा
कोई मूढ़
है?
जिसने एक करोड़ बार
माला फेरी, इतना पक्का
समझो इसको तो
मिलेगा ही
नहीं, क्योंकि
इन सज्जन का
सत्संग वह
करना चाहेगा?
इन्होंने
तो सिद्ध कर
दिया कि ये
बिल्कुल बुद्धिहीन
हैं, माला
के गुरिये
फेर रहे हैं।
इनसे तो
बचेगा।
मैंने
सुना है, एक
आदमी मरा जो
चौबीस घंटे
प्रार्थना
करता रहता था।
जैसा मौका मिले,
जब मौका
मिले, प्रार्थना
में लगा रहता
था। तराजू भी तौलता
रहता तो हरेराम
हरेकृष्ण,
हरेराम हरेकृष्ण
करता रहता।
पैसे गिनता तो
हरेराम
हरे-कृष्ण, हरेराम हरेकृष्ण।
वह उसने
यांत्रिक कर
लिया था। बाकी
सब काम चलता
था, कोई
बाधा नहीं आती
थी। कुत्ते को
भगाता--हरेराम
हरेकृष्ण,
हरेराम हरेकृष्ण!
भिखमंगे
को इशारा करता
आगे बढ़ो--हरेराम हरेकृष्ण,
हरेराम हरेकृष्ण...।
ग्राहकों की
जेब काटता
रहता और हरेराम
हरेकृष्ण।
सब चलता जैसा
था, मगर हरेराम
हरेकृष्ण,
हरेराम हरेकृष्ण
कहता रहता।
मरा, उसे
देवदूत नरक ले
जाने लगे।
बहुत नाराज
हुआ, उसने
कहा, यह
क्या कर रहे
हो? हरेराम हरेकृष्ण!
यह क्या कर
रहे हो...हरेराम
हरेकृष्ण।
नरक मुझे ले
जा रहे हो...हरेराम
हरेकृष्ण!
जिंदगी-भर हरेराम
हरेकृष्ण
किया और मुझे
नरक ले जा रहे
हो! मुझे पहले
परमात्मा के
सामने ले चलो।
दो-दो बातें
हो जाएं।
परमात्मा
के सामने जाकर
उसने कहा कि
यह क्या बदतमीजी
है! हरेराम
हरेकृष्ण...।
यह क्या
अन्याय हो रहा
है?
मुझे नरक ले
जाया जा रहा
है! जीवन-भर
मैंने हरेराम
हरेकृष्ण
किया...।
और तभी
उसने देखा कि
उसी के सामने
रहने वाला एक
आदमी जिसने
कभी हरेराम
हरेकृष्ण
नहीं किया, न
कभी मंदिर गया,
न सत्यनारायण
की कथा की, उसको
बैंड-बाजे
बजाकर स्वर्ग
में लाया जा
रहा है। उसने
कहा : और हद हो
गयी! यह मैं
क्या देख रहा
हूं...हरेराम
हरेकृष्ण!
ईश्वर
ने कहा कि इसे
ले जाओ, यह
मेरा दिमाग
खराब कर देगा...हरेराम हरेकृष्ण!
तूने
जिंदगी-भर भी
मुझे सताया, न सोने दिया,
न बैठने
दिया। तूने
ऐसा अभ्यास
किया हरेराम
कृष्ण का कि
नींद में भी
तू चिल्लाता
था हरेराम
हरेकृष्ण।
और चिल्लाए तो
मेरी नींद
टूटे। तुझे तो
मैं यहां नहीं
रहने दूंगा।
अगर तुझे
स्वर्ग में रहना
है तो मैं नरक
चला। तू रह।
हम दोनों एक साथ
नहीं रह सकते।
तुम्हारे
जपत्तप
तुम्हें कहीं
न ले जाएंगे।
फिर क्या ले
जाएगा
तुम्हें? गुरु
परताप साध की
संगति! वही
ध्यान है। वही
वस्तुतः
ध्यान है।
सत्संग ध्यान
है और ध्यान की
सारी विधियां
तो सत्संग के
लिए तैयार
करने की
विधियां हैं,
तुम्हें निखारने
की विधियां
हैं। जैसे तुम
नहाकर
आते हो सत्संग
करने, स्वच्छ
कपड़े पहन कर
आते हो सत्संग
करने -- ऐसे ही
अगर ध्यान
करके आए तो
सत्संग के लिए
तुम भीतर भी नहाकर आए
बस। सत्संग के
लिए ध्यान एक
स्नान है। मगर
परम उपलब्धि
तो सत्संग से
होगी।
इत उत की
अब आसा तजिकै, मिली
रहु आतमराम।
अब
यहां-वहां की
व्यर्थ की
आशाएं छोड़ो।
जिसे तुम खोज
रहे हो वह
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
तुम कहां दौड़े
जा रहे हो? आंख
बंद करो, अपने
में डुबकी
लगाओ!
भीखा
दीन कहां लगि बरनै, धन्य
घरी वह जाम।
भीखा
कहते है : कहां
तक मैं वर्णन
करूं उस धन्य
घड़ी का, उस
धन्य क्षण का,
जब कोई अपने
में डुबकी
मारता है! और
जिसे जन्मों-जन्मों
बाहर खोजकर
नहीं पाया था,
उसे अपने
भीतर
विराजमान
पाता है। धन्य
घड़ी वह जाम!...वह
क्षण धन्य है,
वह घड़ी धन्य
है, क्योंकि
उसी क्षण जीवन
का सारा विषाद
मिट जाता है, सारा संताप
मिट जाता है।
जीवन का सारा
अंधकार कट
जाता है।
अमावस एकदम से
अचानक
पूर्णिमा हो जाती
है।
राम
सों करु
प्रीति हे मन!
इसलिए
इतना ही कहते
हैं भीखा कि
अगर प्रेम करना
है,
राम से
प्रेम करो।
राम सों करु
प्रीति!
राम
बिना कोउ काम
न आवै, अंत
ढहो जिमि
भीति। और राम
के बिना कोई
काम आने को
नहीं है।
आखिरी समय में
ऐसे गिर जाओगे
जैसे वर्षा
में कोई कच्ची
दीवाल गिर
जाती है।
बूझि बिचारि देखु जिय
अपनो।
...खूब सोच लो, खूब
विचार लो; मगर
हृदय से, बुद्धि
से नहीं।
बूझि
बिचारि देखु जिय
अपनो, हरि
बिन नहीं कोउ हीति।
उसके
बिना उस
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कोई हितैषी
नहीं है, कोई
मित्र नहीं
है।
गुरु
गुलला के
चरणकमल-रज, धरु
भीखा उर चीति।
भीखा
कहते हैं :
मुझे तो ऐसे
हो गया, मुझे
तो ऐसे मिल
गया कि मैं ने
तो गुरु गुलाल
के चरणों में
सिर रख दिया।
उनकी चरण-रज
मेरे लिए
स्वर्ण हो
गयी। बस वही
घटना मुझे
परमात्मा से
जोड़ दी।
गुरु
के चरणों में
सिर रखना और
परमात्मा से
प्रेम एक ही
घटना के दो
पहलू हैं।
गुरु गुलला के
चरणकमल-रज धरु
भीखा उर चीति।
मैं तो
ऐसे पा
गया--कहते
हैं--ऐसे ही
तुम भी पा जाओ।
तुम भी पा
सकते हो।
शिष्य जब पहली
बार गुरु के
पास आता है और
जब पहली बार
झुकने की
अपूर्व घड़ी
घटती है, तो इस
जगत में सबसे
बड़ी क्रांति
होती है। और सब
क्रांतियां
छोटी हैं, नाकुछ
हैं।
तुम तो
मेरी आंखों की
पुतली
तुम
मेरे हिय का
चिर कंपन;
मम
चेतनता का तुम
स्पंदन
तुम इन
प्राणों का
मदिर व्यजन;
तुम मम
जीवन अमर साध,
मेरे
सपनों कार्
मूत्त
रूप,
मम
आराधना-केंद्र
तुम हो,
तुम
मेरी ममता चिर
अनूफ;
तुम अफरिमेय, तुम
अनुफमेय,
तुम मम
निशि के शशि
भासमान,
तुम मम
ऊषा की अरुण
छटा,
मेरे
विहान की मधुर
तान!
मेरे
वियोग की वह
निशीथ,
जिसका
अंबर था
अनवलंब,
जिसमें
लहराया तिमिर
रूप--
घन
विप्रलंभ का
उपालंभ;
शशि
किरणों से, तारागण
से,
था
शून्य गगन
मेरा नितांत,
कब
सोचा था कि
कभी होगा
मेरे
विछोह का भी
निशांत?
नभ में
ऊषा मुसकाएगी,
छिटकेगा
जीवन में
विहान,
कब सोचा
था,
तुम गाओगे--
इस नवल
मिलन के मदिर
गान?
खिल
उठा आज मेरा
शतदल,
उन्मुक्त
हुए मेरे अलिगण,
लहराया
मधुर-मधुर
परिमल,
गुन-गुन-गुन-गुन
गूंजा
गुंजन;
पद नख
का कोमल
किरण-जाल
छाया
मेरे गगनांगन
में;
वे ललित-ललित-लघु-लाल-लाल
पद-चिह्न
अंके मम
प्रांगण में,
मम नयन, उनींदे,
नमित, अरुण
विस्फारित
ही रह गए, प्राण,
वे
निर्निमेष, वे
करुण-करुण,
जिनमें
छाए तुम, हे
सुजान।
क्या
कहूं कि मैं
क्या हुआ आज?
कृतकृत्य
कहूं? चिर
धन्य कहूं?
जब तुम
आए,
मम हृदय राज,
तब निज
को क्यों न
अनन्य कहूं?
मेरे
सुहाग का
सूर्य उदित,
छायी
सिंदूर की यह
लाली,
मेरे सनेह का
शशि प्रमुदित
मेरी
निशि-दिशि-दिशि
उजियाली;
मेरे चंदा, मेरे
सूरज,
यों ही
चमका करना
निशि-दिन,
मेरे
रहस्य, मेरे
अचरज,
जीवन
होगा दूभर तुम
बिन!
क्या
कहूं कि मैं
क्या हुआ आज?
कृतकृत्य
कहूं? चिर
धन्य कहूं?
जब तुम
आए,
मम हृदय राज,
तब निज
को क्यों न
अनन्य कहूं?
जिस
क्षण शिष्य
गुरु को पा
जाता है, उसी
क्षण अनन्य हो
जाता है, अद्वितीय
हो जाता है।
जिस क्षण
शिष्य गुरु को
पा जाता है, उसने
परमात्मा का
द्वार पा
लिया। गुरु को
पा लिया तो
परमात्मा को
पा लिया। अब
दूरी न रही। अब
फासला न रहा।
पहुंच ही गए।
एक कदम और, बस
एक कदम और...।
इसीलिए
गुरु को
सदियों-सदियों
से हमने भगवान
कहा है। कारण
है उसका।
क्योंकि गुरु
आखिरी पड़ाव
है,
उसके बाद बस
परमात्मा है।
भीखा
ने पाया, तुम
भी पा सकते
हो। भीखा ने
अपनी झोली
फैलायी, इसलिए
"भीखा"
कहलाया। तुम
भी अपनी झोली
फैलाओ। भीखा
की झोली भरी
और सम्राट हो
गया।
तुम्हारी भी
झोली भर सकती
है। तुम भी
सम्राट हो
सकते हो। गुरु
परताप साध की
संगति!
आज
इतना ही।
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