प्रश्नसार:
1—मोक्ष
की आकांक्षा
कामना है या
मनुष्य की
मुलभूत अभीप्सा?
2—हिंसा
और क्रोध जैसे
कृत्यों में
समग्र रहकर
कोई
कैसे
रूपांतरित हो
सकता है?
3—क्या
आप
बुद्धपुरूषों
की नींद की
गुणवत्ता और
स्वभाव
पर कुछ कहेंगे?
पहला
प्रश्न :
समझ
और आपने कल
कहा कि मोक्ष
या समाधि की
कामना भी तनाव
और बाधा है।
लेकिन क्या यह
सही नहीं है
कि यह कामना न
होकर
आकांक्षा है,
मनुष्य की
मूलभूत अभीप्सा
है?
यह
समझना जरूरी
है कि कामना
क्या है, चाह
क्या है।
धर्मों ने इस
संबंध में
लोगों में
बहुत भ्रम पैदा
कर रखा है।
अगर तुम कोई
सांसारिक चीज
चाहते हो, तो
वे इसे कामना
कहते हैं, वासना
कहते हैं। और
अगर तुम कोई
परलोक की चीज
चाहते हो तो
वे उसे भिन्न
नाम से पुकारते
हैं। यह बहुत
बेतुका है, अनर्गल है।
कामना कामना है; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका विषय क्या है। विषय कुछ भी हो सकता है—चाहे इस लोक का हो, पार्थिव हो, या परलोक का हो, आध्यात्मिक हो—लेकिन कामना वही रहती है।
कामना कामना है; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका विषय क्या है। विषय कुछ भी हो सकता है—चाहे इस लोक का हो, पार्थिव हो, या परलोक का हो, आध्यात्मिक हो—लेकिन कामना वही रहती है।
और
प्रत्येक
कामना बंधन है, प्रत्येक
चाह बंधन है।
यदि तुम ईश्वर
को चाहते हो
तो वह भी बंधन
है। मोक्ष की
कामना भी बंधन
है। और जब तक
यह कामना पूरी
तरह विदा नहीं
होती तब तक
मोक्ष नहीं
घटित हो सकता।
स्मरण रहे, तुम मोक्ष
की कामना नहीं
कर सकते। यह
असंभव है; यह
विरोधाभासी
है। तुम
निष्काम हो
जाओ, और
मोक्ष घटित होगा।
लेकिन मोक्ष
तुम्हारी
कामना का फल
नहीं है, वह
निष्काम होने
का सहज परिणाम
है।
अत:
कामना को
समझने की
कोशिश करो।
कामना का अर्थ
है कि ठीक अभी, वर्तमान
में तुम
संतुष्ट नहीं
हो, तुम
तृप्त नहीं हो।
इस क्षण
तुम्हें अपने
साथ तृप्ति
नहीं मिल रही
है, और तुम
सोचते हो कि
भविष्य में
कोई चीज—यदि
वह फलीभूत हो—तुम्हें
शाति देने
वाली है, तृप्ति
देने वाली है।
तुम्हारी
तृप्ति सदा
भविष्य में
होती है; वह
कभी यहां और
अभी नहीं होती।
भविष्य के
प्रति मन का
यह खिंचाव, यह फैलाव, यह तनाव ही
कामना है।
कामना का अर्थ
है कि तुम
वर्तमान में
नहीं हो। और
जो कुछ है वह
वर्तमान में
है। और तुम
कहीं भविष्य
में हो जो कि
अभी नहीं है।
भविष्य न कभी
आया है, न
कभी आने वाला
है। और जो कुछ
भी है सब
वर्तमान है, यही क्षण है।
भविष्य
में कहीं
तृप्ति की
कल्पना ही
कामना है। वह
तृप्ति क्या
है,
इससे मतलब
नहीं है। वह
ईश्वर का
राज्य हो सकता
है, स्वर्ग
हो सकता है या
निर्वाण हो
सकता है, वह
कुछ भी हो
सकता है; लेकिन
अगर भविष्य
में है तो वह
कामना है। और
स्मरण रहे, तुम वर्तमान
में कामना
नहीं कर सकते;
वह संभव
नहीं है।
वर्तमान में
तुम सिर्फ हो
सकते हो; तुम
कामना नहीं कर
सकते।
वर्तमान में
कामना कैसे कर
सकते हो?
कामना भविष्य
में, कल्पना
में और स्वप्न
में ले जाती
है।
इसीलिए
बुद्ध
निर्वासना पर
इतना जोर देते
हैं।
निर्वासना से
ही तुम सत्य
में प्रवेश पा
सकते हो।
वासना स्वप्न
में ले जाती
है,
भविष्य
स्वप्न है। और
जब तुम भविष्य
में सपने
देखने लगते हो
तो तुम्हें
निराशा ही हाथ
लगेगी। तुम
भविष्य के स्वप्नों
के लिए
वर्तमान
वास्तविकता
के प्रति आंखें
बंद कर रहे हो।
और मन की यह
तुम्हारी आदत
रोज—रोज
बलशाली होती
जाएगी; और
यह आदत
तुम्हारे साथ
रहेगी। तो जब
भविष्य आएगा
वह वर्तमान के
रूप में ही
आएगा, और
तुम्हारा मन
किसी और
भविष्य में
गति कर जाएगा।
अगर तुम्हें
ईश्वर भी मिल
जाए तो भी तुम
संतुष्ट नहीं
होगे। तुम
जैसे हो उसमें
संतुष्ट होना
असंभव है।
परमात्मा की
उपस्थिति में
भी तुम किसी
भविष्य में
सरक जाओगे।
तुम्हारा
मन सदा भविष्य
में गति करता
रहता है। और
मन की भविष्य
में यह यात्रा
ही कामना है, इच्छा
है, चाह है।
कामना का विषय
से कोई लेना—देना
नहीं है; तुम
धन चाहते हो
या ध्यान, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। चाहना
असली बात है; असली बात है
कि तुम कुछ
चाहते हो।
उसका अर्थ है
कि तुम यहां
नहीं हो। उसका
अर्थ है कि
तुम वर्तमान
क्षण में नहीं
हो। और
वर्तमान क्षण
ही अस्तित्व
का एकमात्र
द्वार है।
अतीत और
भविष्य द्वार
नहीं, दीवारें
हैं। तो मैं
किसी कामना को
आध्यात्मिक
कामना नहीं कह
सकता; कामना
मात्र
सांसारिक है।
कामना ही
संसार है।
आध्यात्मिक
कामना जैसी
कोई चीज नहीं
होती; हो
नहीं सकती। यह
मन की चालाकी
है, यह
प्रवंचना है।
क्योंकि तुम
कामना नहीं
छोड़ सकते
इसलिए तुम उसके
विषय बदल लेते
हो।
पहले
तुम धन चाहते
थे,
पद—प्रतिष्ठा
चाहते थे, अब
तुम कहते हो
कि तुम्हें
उनकी कामना
नहीं रही, वे
सांसारिक
चीजें हैं। अब
तुम उनकी
निंदा करते हो
और तुम्हारी
नजर में वे
लोग निंदित
हैं जो धन या
पद चाहते हैं।
अब तुम ईश्वर
को चाहते हो, अब तुम
ईश्वर के
राज्य की, मोक्ष
और निर्वाण की,
शाश्वत और
सच्चिदानंद
की, ब्रह्म
की कामना करते
हो। अब तुम
इन्हें चाहते
हो और सोचते
हो कि बड़ी बात
हो गई, कि
मैं रूपांतरित
हो गया।
लेकिन
सच तो यह है कि
तुम्हें कुछ
नहीं हुआ है, तुम
वही के वही हो।
तुम अपने साथ
भी चाल चल रहे
हो। और अब तुम
ज्यादा
उपद्रव में हो,
क्योंकि
तुम सोचते हो
कि यह कामना
नहीं है। तुम
वही रहते हो; मन वही रहता
है, मन का
सारा व्यापार
वही रहता है।
तुम अभी भी वर्तमान
में नहीं हो।
कामना के विषय
बदल गए हैं; लेकिन दौड़
जारी है, सपने
कायम हैं। और
सपने देखना ही
कामना है, विषय
से मतलब नहीं
है।
तो
मुझे समझने की
कोशिश करो।
मैं कहता हूं
कि हरेक चाह
सांसारिक है, क्योंकि
चाह ही संसार
है। सवाल यह
नहीं है कि
कामना को बदला
जाए या उसके
विषयों को
बदला जाए; सवाल
रूपांतरण का
है। सवाल चाह
से अचाह में
छलांग का है, क्रांति का
है। पुरानी
चाह से नई चाह
में, लौकिक
चाह से
पारलौकिक चाह
में, पार्थिव
चाह से
आध्यात्मिक
चाह में गति
करने की बात
नहीं है; बात
है चाह से
अचाह में
छलांग लेने की।
चाह से अचाह
में छलांग ही क्रांति
है।
लेकिन
चाह से अचाह
में गति कैसे
हो?
तुम तभी गति
कर सकते हो जब
कोई चाह हो।
अगर कोई लाभ
की प्रेरणा हो,
कुछ लोभ हो,
कुछ
प्रयोजन हो, कुछ
प्राप्ति की
बात हो, तो
ही तुम चाह से
अचार में जा
सकते हो। लेकिन
तब तुम कहीं नहीं
जा रहे हो। मैं
कहता हूं, कि
कामना छोड़ने
से परम आनंद मिलता
है। और यह बात
सही है कि
कामना के विदा
होने से परम आनंद
घटित होता है।
लेकिन अगर मैं
कहूं कि तुम
निष्काम होकर
परम आनंद को
उपलब्ध होंगे
तो तुम इसको
भी अपनी कामना
का विषय बना
लोगे। और तब
तुम पूरी बात
ही चूक गए। यह
फल नहीं है; यह गहन बोध
का परिणाम है।
तो
समझने की
चेष्टा करो कि
कामना दुख
लाती है। और
ऐसा मत सोचो
कि मैं यह
पहले से जानता
हूं। तुम नहीं
जानते हो।
अन्यथा तुम
कामना में
क्यों पड़ते? तुम्हें
अभी यह बोध
नहीं हुआ है
कि कामना दुख है,
कामना नरक
है। इसे जानो;
जब तुम कोई
कामना करो तो
उसके प्रति
सावचेत रहो, और फिर पूरे
होशपूर्वक
कामना में
उतरो, और
तुम नरक में
पहुंच जाओगे।
प्रत्येक
कामना दुख में
ले जाती है, चाहे
वह पूरी हो या
न हो। अगर
कामना पूरी हो
जाए तो वह
जल्दी दुख में
ले जाती है, अतृप्त
कामना समय
लेती है।
लेकिन हर
कामना दुख में
पहुंचा देती
है। उसकी पूरी
प्रक्रिया के
प्रति सावधान
रहो, और तब
उसमें उतरी।
जल्दी क्या है?
जल्दी में
कुछ भी संभव
नहीं है।
आध्यात्मिक
विकास जल्दी
में संभव नहीं
है। धीरे—
धीरे चलो, धैर्य
के साथ चलो।
अपनी
प्रत्येक आकांक्षा
का निरीक्षण
करो और देखो
कि कैसे हर आकांक्षा
नरक का द्वार
बन जाती है।
अगर
तुम सावचेत
रहे तो देर—
अबेर तुम्हें
यह बात समझ
में आ जाएगी
कि कामना नरक
है। और जिस
घड़ी यह बोध
घटित होगा, कामना
समाप्त हो
जाएगी। अचानक
कामना विलीन
हो जाएगी, और
तुम अपने को
अकाम अवस्था
में पाओगे।
मैं उसे कामना—रहितता
नहीं कहता, मैं उसे
सीधा अकाम कहता
हूं।
और
स्मरण रहे, तुम
इसका अभ्यास
नहीं कर सकते।
अभ्यास तो
केवल कामना का
हो सकता है।
तुम अकाम का
अभ्यास कैसे
कर सकते हो? तुम
निष्कामना को
नहीं साध सकते;
केवल कामना
साधी जा सकती
है। लेकिन यदि
तुम सचेत हो
तो तुम जान
जाओगे कि कामना
नरक में
पहुंचा देती
है। और जब यह
तुम्हारी
अपनी अनुभूति
होगी—कोई सिद्धांत
या मान्यता
नहीं, बल्कि
स्वानुभूत
तथ्य कि
प्रत्येक
कामना नरक में
ले जाती है—तो
कामना विलीन
हो जाएगी, असंभव
हो जाएगी। तुम
अपने को दुख
में कैसे ले
जाओगे?
तुम
सोचते तो सदा
यही हो कि मैं
अपने को सुख
में ले जा रहा
हूं और रू सदा
दुख में पहुंच
जाते हो। यही
जन्मों—जन्मों
से हो .रहा है।
तुम सदा सोचते
हो कि यह रहा
स्वर्ग का
द्वार, और
उसमें प्रवेश
करने पर
तुम्हें सदा
पता चला है कि
यह तो नरक है।
और ऐसा
निरपवाद रूप
से होता आया
है, सदा—सदा
से होता आया
है।
अब
तुम प्रत्येक
कामना में
स्मरणपूर्वक, होश
के साथ प्रवेश
करो, और
प्रत्येक
कामना को
तुम्हें दुख
में ले जाने
दो। तब किसी
दिन अचानक
तुम्हें यह
समझ आएगी, तुम्हें
यह परिपक्वता
घटित होगी, और तुम
समझोगे कि
प्रत्येक
कामना दुख है।
और जिस क्षण
तुम्हें यह
बोध होता है, कामना गिर जाती
है। तब कुछ
करना नहीं
पड़ता है; कामना
अपने आप ही तिरोहित
हो जाती है, सूखे पत्ते
की भांति गिर
जाती है। तब
तुम अकाम की
अवस्था में
होते
हो।
और उसी अकाम अवस्था
में निर्वाण है, परम
आनंद है। तुम उसे
परमात्मा कह सकते
हो,
परमात्मा
का राज्य कह
सकते हो, या जो
भी नाम देना
चाहो दे सकते
हो। लेकिन ठीक
से स्मरण रखो
कि यह
तुम्हारी
कामना का फल
नहीं है, यह
अकाम का सहज
परिणाम है।
और
ध्यान रहे, अकाम
का अभ्यास
नहीं किया जा
सकता है। जो
अकाम का
अभ्यास करते
हैं वे अपने
को ही धोखा दे
रहे हैं। सारी
दुनिया में
ऐसे अनेक लोग
हैं, भिक्षु
हैं, संन्यासी
हैं, जो
निष्काम होने
का अभ्यास कर
रहे हैं।
लेकिन तुम निष्काम
होने का
अभ्यास नहीं
कर सकते; किसी
भी नकारात्मक
चीज का अभ्यास
नहीं हो सकता
है। जो
निष्काम की
साधना करते
हैं वे भीतर—
भीतर कामना ही
कर रहे हैं।
वे परमात्मा
की कामना कर
रहे हैं; वे
उस शाति की
प्रतीक्षा कर
रहे हैं जो
उन्हें साधना से
प्राप्त होने
वाली है, वे
उस आनंद की
राह देख रहे
हैं जो मृत्यु
के बाद कहीं
भविष्य में
उन्हें
उपलब्ध होने
वाला है।
वे
कामना ही कर
रहे हैं, और वे
अपनी कामना को
आध्यात्मिक
कामना कह रहे हैं।
तुम अपने को
बहुत आसानी से
धोखा दे सकते
हो। शब्द बहुत
धोखेबाज होते
हैं। तुम
चीजों को
तर्कसंगत बना
सकते हो, उन्हें
बुद्धि का
समर्थन दे
सकते हो। तुम
जहर को अमृत
कह सकते हो, और जब तुम
उसे अमृत कहते
हो तो वह अमृत
प्रतीत होने
लगता है। तो
शब्द
सम्मोहित
करते हैं, यह
एक बात हुई।
लेकिन यह भाव,
यह अनुभूति
कि कामना दुख
है, तुम्हारी
अपनी होनी
चाहिए।
मेरी
स्टीवेंस ने
कहीं लिखा है
कि वह अपने एक मित्र
को मिलने उसके
घर गई थी।
मित्र की बेटी
अंधी थी।
लेकिन मेरी
स्टीवेंस को
यह देखकर बहुत
हैरानी हुई कि
वह अंधी लड़की
अक्सर कह
बैठती थी 'वह
आदमी कुरूप है,
मैं उसे
पसंद नहीं
करती,' या
कि 'इस
पोशाक का रंग
बहुत सुंदर है।’
चूकि वह
अंधी थी, स्टीवेंस
ने उससे पूछा
कि तुम कैसे
समझती हो कि
कोई व्यक्ति
कुरूप है या
कोई रंग सुंदर
है? लड़की
ने जवाब दिया
कि मेरी
बहिनें ये
बातें बताती
रहती हैं।
यह
ज्ञान है।
बुद्ध ने कहा
कि तृष्णा दुख
है,
और तुम उसे
दोहरा रहे हो।
यह ज्ञान है।
तुम कामना कर
रहे हो, और
तुमने कभी
स्वयं नहीं
जाना कि कामना
दुख है। तुमने
बस बुद्ध को
सुना है। उससे
काम नहीं
चलेगा। तुम
सिर्फ अपना
जीवन और अवसर
गंवा रहे हो।
तुम्हारा
अपना अनुभव ही
तुम्हें बदल
सकता है; कोई
दूसरी चीज
तुम्हें नहीं
बदल सकती।
ज्ञान उधार
नहीं लिया जा
सकता; उधार
ज्ञान धोखा है।
वह ज्ञान जैसा
दिखाई पड़ता है;
लेकिन वह
शान नहीं है।
लेकिन
क्यों हम किसी
बुद्ध या किसी
जीसस का अनुगमन
करते हैं? क्यों?
इसका कारण
हमारा लोभ है।
हम बुद्ध की आंखों
को देखते हैं;
वे इतनी शात
हैं कि हममें
लोभ पैदा होता
है, कामना
पैदा होती है
कि कैसे हमें
वह शाति प्राप्त
हो जाए। बुद्ध
इतने आनंदित
हैं; उनका
प्रत्येक
क्षण समाधि
में है। यह
देखकर हमें
लगता है कि हम
कैसे बुद्ध
जैसे हों। हम
भी अपने लिए
उस अवस्था की
आकांक्षा
करने लगते हैं।
और
तब हम पूछने
लगते हैं कि
बुद्ध को यह
अवस्था कैसे
प्राप्त हुई? और
यही 'कैसे'
अनेक
समस्याएं खड़ी
करता है।
बुद्ध कहेंगे
कि यह शाति, यह आनंद
निष्काम में
घटित होता है।
और बुद्ध ठीक
कहते हैं; यह
उन्हें
निष्काम में
ही घटित हुआ
है। लेकिन जब
हम सुनते हैं
कि निष्काम
में यह घटित
हुआ तो हम
निष्काम होने
का अभ्यास
करने लगते हैं,
हम कामनाओं
को छोड़ने का
प्रयत्न करने
लगते हैं।
लेकिन
बुद्ध जैसे
होने का यह
सारा प्रयत्न
कामना ही तो
है। बुद्ध
किसी दूसरे
जैसे होने की
चेष्टा नहीं कर
रहे थे। वे
किसी से बुद्ध
होने के लिए
नहीं पूछ रहे
थे। वे केवल
अपने दुख को
समझने की
चेष्टा कर रहे
थे। और जैसे—जैसे
उनकी समझ बढ़ती
गई,
वैसे—वैसे
उनका दुख
विलीन होता
गया। और एक
दिन वे समझ गए
कि कामना विष
है।
अगर
तुम्हें कोई
भी चाह है तो
तुम पकड़े गए; अब
कभी तुम्हारे
सुखी होने की
संभावना न रही।
अब तुम सिर्फ
आशा कर सकते
हो; आशा
करो और निराशा
हाथ लगेगी।
फिर और आशा और
निराशा, यह
चक्र चलता
रहेगा। जब तुम
और निराश होते
हो तो तुम और
आशा करने लगते
हो, क्योंकि
वही एकमात्र
सांत्वना है।
तुम भविष्य
में भागने
लगते हो, क्योंकि
वर्तमान में
तो सदा निराशा
ही मिलती है।
और
यह निराशा
तुम्हारे
अतीत के कारण
आ रही है। जो
अभी वर्तमान
है वह अतीत
में तुम्हारा
भविष्य था, और
तुमने आशा की
थी। अब यह
निराशा है। अब
तुम फिर
भविष्य के लिए
आशा करने
लगोगे। और जब
वह वर्तमान
बनेगा तो तुम
फिर निराश होओगे।
तब तुम फिर
आशा करोगे।
फिर और निराशा
होगी तो और
आशा करोगे; जितनी अधिक
आशा करोगे, उतनी अधिक
निराशा आती
रहेगी। यह
दुष्टचक्र है;
यही संसार
चक्र है।
लेकिन
कोई बुद्ध
तुम्हें अपनी आंखें
नहीं दे सकते
हैं। और यह
शुभ है कि वे
तुम्हें अपनी आंखें
नहीं दे सकते; अन्यथा
तुम हमेशा
नकली बने
रहोगे, झूठे
बने रहोगे। तब
तुम कभी
प्रामाणिक
नहीं हो सकोगे।
दुख से गुजरना
अच्छा है, क्योंकि
दुख से गुजर
कर ही तुम
प्रामाणिक हो
सकते हो, सच्चे
हो सकते हो।
तो
पहली बात कि
अपनी कामनाओं
को जीओ, ताकि
तुम समझ सको
कि वे
यथार्थत: क्या
हैं। उनमें जो
भी दुख छिपा
है, उससे
गुजरो, उसे
अनुभव करो, उसे प्रकट
होने दो। वही
तपश्चर्या है—एकमात्र
तपश्चर्या।
नरोपा
ने कहा है कि
अगर तुम
सावचेत, होशपूर्ण
रह सको तो
प्रत्येक
कामना
निर्वाण में
पहुंचा देती
है।
इसका
यही अर्थ है; वह
निर्वाण में
इसीलिए
पहुंचा देती
है क्योंकि
तुम सावचेत
होकर जान लेते
हो कि
प्रत्येक
कामना दुख है।
और जब तुम
कामना को
अच्छी तरह देख
लेते हो, समझ
लेते हो तो
तुम अचानक ठहर
जाते हो। और
उसी ठहरने में
घटना घटती है।
वह घटना तो
सदा मौजूद है,
और वह सदा
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रही है, वर्तमान
में तुमसे
मिलने की राह
देख रही है।
लेकिन तुम कभी
वर्तमान में
नहीं होते; तुम सदा
सपने देखते
रहते हो।
सत्य
ही तुम्हें
सम्हाले हुए
है। सत्य के
कारण तुम
जीवित हो; सत्य
के कारण ही
तुम हो। लेकिन
तुम सदा असत्य
में सरकते
रहते हो।
असत्य बहुत
सम्मोहक है।
मैने
एक यहूदी मजाक
सुना है। अनेक
वर्षों के बाद
दो मित्र मिले।
एक ने दूसरे
से पूछा : 'मैं
पच्चीस
वर्षों बाद
तुमसे मिल रहा
हूं तुम्हारा
बेटा कैसा है?
हैरी कैसा
है?' दूसरे
ने कहा : 'वह
बेटा कवि हो
गया है; वह
बड़ा कवि है।
पूरे देश में
उसकी आवाज
सुनी जाती है,
उसके
गीत गाए जाते
हैं। और जो
लोग कविता
समझते हैं वे
कहते हैं कि
देर—अबेर वह
नोबल पुरस्कार
छ वाला।’
मित्र
ने कहा : 'बहुत
खूब! और अपने
दूसरे बेटे
बेन्नी के
बारे में बताओ,
वह कैसा है?'
उस मित्र ने
कहा : 'मैं
अपने दूसरे
बेटे से अति
प्रसन्न हूं।
वह नेता है, महान राजनेता;
और हजारों
उसके अनुयायी
हैं। और मुझे
विश्वास है कि
देर—अबेर वह
इस देश का
प्रधान
मंत्री होने
वाला है।’ मित्र
ने कहा : 'क्या
कहने हैं! तुम
तो बड़े
भाग्यशाली हो।
और तुम्हारे
तीसरे बेटे
इजी का क्या
हाल है?' यह
प्रश्न सुनकर
पिता बहुत
उदास हो गया
और बोला : 'इजी?
इजी अभी इजी
ही है। वह
दर्जी है।
लेकिन मैं
तुमसे कहूं कि
अगर इजी नहीं
होता तो हम
लोग भूखे मरते
होते।’
लेकिन
बाप दुखी था
कि इजी मामूली
दर्जी था। और
जो कवि और
महान राजनेता
थे,
वे सपने थे।
इजी सत्य है—दर्जी।
लेकिन बाप ने
कहा कि उसके
बिना हम लोग
भूखे मरते।
तुम
भी नहीं होते
अगर यह क्षण
नहीं होता; यह
क्षण सत्य है।
लेकिन तुम कभी
उससे प्रसन्न
नहीं होते; तुम अपने
भविष्य के स्वप्नों
से, नोबल
पुरस्कार
विजेताओं और
प्रधानमंत्रियों
से प्रसन्न
रहते हो। अभी
इजी महज दर्जी
है।
तुम्हारा
सत्य वहां है
जहां तुम खड़े
हो,
जहां तुम्हारी
जड़ें हैं।
जहां के तुम
सपने देख रहे
हो, वहां
तुम हो नहीं; वे सपने
झूठे हैं।
मौजूदा क्षण
में जो
तुम्हारी
वास्तविकता
है उसे सीधे—सीधे
देखो। वह जो
भी है उसका
साक्षात करो,
सामना करो,
और मन को
भविष्य में मत
सरकने दो।
भविष्य कामना
है, चाह है।
और अगर तुम
यहीं और अभी
हो सको तो तुम
बुद्ध हो। और
अगर तुम यहीं
और अभी नहीं
हो सकते तो सब
कुछ सपना है।
और तुम्हें
वापस आना होगा,
क्योंकि
सपने कहीं
नहीं पहुंचा
सकते। वे
तुम्हें आशा
और निराशा में
ही पहुंचा
सकते हैं; लेकिन
उनसे कुछ
वास्तविक हाथ
नहीं आता है।
लेकिन
मेरी यह बात
स्मरण रहे कि
नकल करने से, अनुकरण
करने से कुछ
नहीं होगा।
तुम्हें दुख
से गुजरना ही
होगा। दुख ही
मार्ग है। दुख
तुम्हें
निखारता है, शुद्ध करता
है। दुख
तुम्हें सजग
बनाता है; तुम्हें
होशपूर्ण
बनाता है। और
तुम जितने
बोधपूर्ण
होगे उतने ही
कम कामना से
भरे होगे। अगर
तुम परिपूर्ण
बोध से भरे हो
तो कोई कामना
नहीं पैदा
होती है। और
परिपूर्ण बोध
के अतिरिक्त
ध्यान का और
कुछ अर्थ नहीं
है।
दूसरा
प्रश्न:
कृपया
समझाने की कृपा
करें कि कोई व्यक्ति
क्रोध, घृणा
और हिंसा के
कृत्यों में
समग्र होकर
आध्यात्मिक
रूपांतरण को
कैसे उपल्बध हो
सकता है।
हां, तुम
क्रोध, घृणा
और हिंसा के
द्वारा भी
समग्रत:
रूपांतरित हो
सकते हो। और
दूसरा कोई
मार्ग भी नहीं
है; क्योंकि
तुम हिंसा में,
क्रोध में,
लोभ में, वासना में
ही हो। तुम
जहां हो वहीं
से मार्ग आरंभ
हो सकता है।
तो
मैं तुम्हें
नहीं कहूंगा
कि अपने लोभ
के विपरीत
अलोभ पैदा करो।
मैं कहूंगा कि
पूरी तरह लोभी
हो जाओ, लेकिन
होश पूरा रहे।
वैसे ही मैं
कहूंगा कि
हिंसक होओ, क्रोधी होओ; लेकिन
समग्रतापूर्वक
हिंसा और
क्रोध में उतरो।
तो ही तुम
उनकी पीड़ा को
अनुभव कर सकोगे;
तो ही तुम
उनके पूरे जहर
को अनुभव कर
सकोगे। इस आग
से तुम्हें
गुजरना ही होगा।
कोई दूसरा तुम्हारे
लिए यह काम नहीं
कर सकता; इसमें
एजेंट की, दलाल
की गुंजाइश नहीं
है।
ईसाई
सोचते हैं कि
जीसस मुक्ति
लाएंगे; लेकिन
अब तक मुक्ति
नहीं? आई।
संसार वैसे का
वैसा है। जीसस
को सूली लगे
दो हजार साल
बीत गए; लेकिन
हम आशा किए जा
रहे हैं कि
कोई दूसरा हमारे
लिए दुख
भोगेगा और हम
आनंद को
उपलब्ध हो जाएंगे।
नहीं, प्रत्येक
व्यक्ति को
अपनी सूली आप
ही ढोना है।
जीसस को सूली
लगी; वे
पहुंच गए। तुम
नहीं पहुंच
सकते, तुम्हें
स्वयं सूली से
गुजरना होगा।
और यही सूली
हैं—क्रोध, कामना, हिंसा,
लोभ, ईर्ष्या—यही
सूली हैं। तुम
उनके साथ क्या
कर रहे हो?
समाज
सिखाता है कि
उनके विपरीत
ध्रुव निर्मित
करो। लोभ है
तो लोभ का दमन
करो और अलोभ
साधो। क्रोध
है तो क्रोध
का दमन करो और
अक्रोध साधो।
उस ऊर्जा को
नीचे ढकेल दो
और मुस्कुराओ।
इससे क्या
होता है? क्रोध
भीतर इकट्ठा
होता जाता है,
और तुम
ज्यादा से
ज्यादा
क्रोधी होते
जाते हो।
क्योंकि दमित
क्रोध की और—और
ऊर्जा भीतर
इकट्ठी होती
रहती है। यह
तुम्हारा
अचेतन भंडार
बन जाता है; और इसके
विपरीत तुम
मुस्कुराते
रहते हो। वह
मुस्कुराहट
झूठी है, क्योंकि
जब भीतर क्रोध
बल मार रहा है
तो तुम बाहर
हंस कैसे सकते
हो? अगर
तुम हंसोगे तो
वह हंसी झूठी
होगी।
अब
तुम दो में
बंट गए; बाहर
झूठी हंसी है
और भीतर सच्चा
क्रोध। झूठी
हंसी
तुम्हारा
व्यक्तित्व, तुम्हारा
वस्त्र बन
जाती है और
सच्चा क्रोध तुम्हारी
आत्मा बना
रहता है। और
तुम अपने
विरुद्ध ही
बंटे रहते हो,
एक सतत
संघर्ष चलता
रहता है। और
झूठी हंसी के
साथ तुम सुखी
नहीं हो सकते;
उससे कोई
धोखे में नहीं
आ सकता है।
वैसे ही तुम
भीतर छिपे
सच्चे क्रोध
के रहते भी
सुखी नहीं हो
सकते; वह
निरंतर प्रकट
होने की
चेष्टा कर रहा
है।
झूठी
हंसी और सच्चा
क्रोध—यही
असलियत है।
तुम्हारा जो
भी अच्छा है
वह झूठ है; और
जो भी बुरा है
वह सत्य है।
और सत्य को
तुम भीतर
छिपाए हो, झूठ
को बाहर
दिखाने में
लगे हो। यही
स्कीजोफ्रेनिया
है; यही
विखंडित
मानसिकता है।
और प्रत्येक
व्यक्ति इसी
तरह खंड—खंड
टूट गया है; न केवल टूट
गया है बल्कि
स्वयं के साथ
सतत संघर्ष
में है। और इस
संघर्ष में
सारा जीवन, सारी ऊर्जा
नष्ट हो जाती
है। और यह
संघर्ष
मूढ़तापूर्ण
है, लेकिन
यही हो रहा है।
मेरा
सुझाव यह है
कि अपने चारों
ओर कोई झूठ मत निर्मित
करो। झूठ
तुम्हें कभी
सत्य की ओर
नहीं ले जा
सकता। झूठ
तुम्हें और
बड़े झूठ में
ले जाएगा। कुछ
भी झूठ मत करो, और
सत्य को पूरी—पूरी
अभिव्यक्ति
दो। जब मैं यह
कहता हूं तो
तुम्हें
घबराहट हो सकती
है, क्योंकि
तुम्हारे
भीतर हिंसा है
और तुम किसी की
हत्या करना
चाहोगे। तो
क्या मेरा
मतलब यह है कि
तुम जाओ और
उसकी हत्या कर
दो?
नहीं, तुम
इस हिंसा पर
ध्यान करो।
अपने कमरे को
बंद कर लो और
अपनी हिंसा को
प्रकट होने दो।
तुम उसे किसी
तकिए पर, किसी
चित्र पर या
किसी चीज पर
भी प्रकट कर सकते
हो। जाकर किसी
की हत्या करने
की जरूरत नहीं
है; क्योंकि
उससे कुछ लाभ
नहीं होगा।
उससे तो नई
समस्याएं खड़ी
हो जाएंगी, और एक
श्रृंखला
निर्मित हो
जाएगी। तकिए पर
अपने शत्रु या
मित्र का नाम लिख
दो। याद रहे, हम शत्रु से ज्यादा
अपने मित्र से
नाराज रहते
हैं। तो तुम
तकिए पर अपनी
पत्नी या पति
का चित्र रख दो
और उस पर अपनी
हिंसा को
उतरने दो।
तकिए को पीटो,
तकिए की
हत्या कर दो, जो जी में आए
सो उसके साथ
करो।
और
यह मत समझो कि
तुम कोई मूढ़ता
का काम कर रहे
हो। यही तो
तुम असली
व्यक्ति के
साथ करना
चाहते थे; लेकिन
वह ज्यादा
मूढ़तापूर्ण
होता। यह मत
सोचो कि यह
बेवकूफी है; तुम यही तो
हो, तुम
बेवकूफ ही तो
हो। और तुम
सिर्फ दमन
करके इस मूढ़ता
को नहीं मिटा सकते
हो। अपनी इस
मूढ़ता को देखो;
देखो कि तुम
कितने मूढ़ हो।
अपने को पूरा—पूरा
अभिव्यक्त
होने दो; पूरा—पूरा
प्रकट होने दो।
अगर तुमने
ईमानदारी से
अपने को प्रकट
होने दिया तो
तुम पहली बार
समझोगे कि
तुम्हारे
भीतर कैसा
क्रोध, कैसी
हिंसा छिपी है।
तुम एक
ज्वालामुखी
हो। और यह
ज्वालामुखी
किसी भी क्षण
फूट सकता है; किसी भी
स्थिति में यह
ज्वालामुखी
फूट सकता है।
प्रतिदिन फूट
रहा है। कोई
किसी की हत्या
कर देता है।
यह आदमी एक
दिन पहले तक
तुम्हारे
जैसा ही सामान्य
था; कोई
संदेह भी नहीं
कर सकता था कि
वह हत्या करने
वाला है।
तुम्हारे
विषय में भी
किसी को ऐसा
संदेह नहीं है,
और
तुम्हारे मन
में हत्या के
कितने विचार
नहीं भरे हैं!
अनेक बार
तुमने हत्या
करने की सोची है,
योजना बनाई
है। किसी
दूसरे को या
स्वयं को ही
खत्म करने का
विचार बार—बार
उठा है। अगर
तुम बिलकुल
मूढ़ नहीं हो
तो जरूर यह
विचार उठता
होगा।
मनसविद
कहते हैं कि
बुद्धिमान
आदमी जीवन में
कम से कम दस
बार
आत्महत्या
करने की सोचता
है—कम से कम दस
बार! और दूसरे
की हत्या का
विचार तो दस
हजार बार उठता
है। यह और बात
है कि तुम इसे
अमल में नहीं
लाते हो।
लेकिन तुम कर
सकते हो, इसकी
संभावना तो
सदा है।
ध्यान
में अपने क्रोध
को समग्र
कृत्य बना लो, और
फिर देखो कि
क्या होता है।
तुम उसे अपने
पूरे शरीर से
निकलता हुआ
महसूस करोगे।
अगर तुम मौका
दोगे तो
तुम्हारे
शरीर की एक—एक
कोशिका उसमें
भाग लेगी।
तुम्हारे
शरीर का रोआं—रोआं
हिंसक हो
उठेगा।
तुम्हारा
समूचा शरीर एक
विक्षिप्त
अवस्था में
होगा। वह पागल
हो जाएगा।
उसे
पागल होने दो।
उसे मत रोको, तुम
भी नदी के साथ
बहो। और जब
तूफान शांत
होगा तो
तुम्हें पहली
दफा अपने भीतर
किसी गहरे
केंद्र की
अनुभूति होगी;
एक सूक्ष्म
शांति का
आविर्भाव
होगा। और जब
क्रोध विदा
होगा तो उसके
पीछे कोई पश्चात्ताप
का भाव नहीं
उठेगा।
क्योंकि
तुमने यह
क्रोध किसी
दूसरे पर नहीं
उतारा, अपराध—
भाव की बात ही
नहीं उठती।
तुम बिलकुल
निर्भार हो
जाओगे, हलके
हो जाओगे। और
इस क्रोध के
जाने पर जो
शांति आएगी वह
सच्ची शांति
होगी, लादी
गई शांति नहीं
होगी।
तुम
बुद्ध की तरह
पद्यासन में, योगासन
में बैठ सकते
हो। तुम अपने
को जबरदस्ती
स्थिर बैठा
सकते हो।
लेकिन
तुम्हारे
भीतर का बंदर
तो उछलता ही
रहता है।
सिर्फ
तुम्हारा
शरीर स्थिर है,
मन पहले से
भी ज्यादा
पागल होने
लगता है। जब
भी तुम ध्यान
के लिए बैठो तो
निरीक्षण करो
कि क्या—क्या
होता है।
तुम्हारे
भीतर कभी उतना
शोरगुल नहीं
मचता जब तुम
ध्यान नहीं
करते होते हो,
फिर ध्यान
के समय ही
इतना शोरगुल
क्यों मचता है?
मन क्यों इतना
उपद्रवी हो
जाता है, भाग—दौड़
करने लगता है?
क्यों इतने
विचार बादलों
की तरह उमड़ने—घुमड़ुने
लगते हैं? क्योंकि
शरीर स्थिर है,
और इस
स्थिरता की
पृष्ठभूमि में,
इस कंट्रास्ट
में मन का बानरपन
स्पष्ट होकर
अनुभव में आने
लगता है।
लेकिन
जबरदस्ती लाई
गई शांति किसी
काम की नहीं
है। प्रथम तो
तुम उसमें सफल
नहीं हो सकते, और
यदि सफल भी
हुए तो तुम सो
जाओगे।
जबरदस्ती लाई
गई शांति सफल
होने पर नींद
बन जाती है।
जहां तक नींद
का संबंध है, यह ठीक है, अन्यथा यह
किसी काम की
नहीं है।
सच्ची
शाति तो सदा
तब आती है जब
कोई दमित ऊर्जा
समग्रत: मुक्त
हो जाती है।
जो उपद्रव था
वह दमित ऊर्जा
के कारण था।
वह दमित ऊर्जा
फूट पड़ने की
चेष्टा कर रही
थी,
वही समस्या
थी, वही
भीतर उपद्रव
था। जब वह
मुक्त हो जाती
है तो तुम
निर्भार हो
जाते हो। तब
तुम्हारे
प्राणों का रोआं—रोआं
विश्राम में
होता है।
विश्राम की उस
दशा में ही
तुम कह सकते
हो कि मैं
अक्रोध की दशा
में हूं। यह
अक्रोध क्रोध
के विरोध में
नहीं है; यह
केवल क्रोध की
अनुपस्थिति
है।
स्मरण
रहे,
सत्य सदा
अनुपस्थिति
है; विपरीत
नहीं है। सत्य
किसी के
विपरीत नहीं
है; वह सदा
अनुपस्थिति
है—लोभ की
अनुपस्थिति
है, कामवासना
की
अनुपस्थिति
है; ईर्ष्या
की
अनुपस्थिति
है। लेकिन उस
अनुपस्थिति
में ही
तुम्हारे
सत्य का फूल
खिलता है, क्योंकि
रोग चले गए।
अब तुम्हारे आंतरिक
स्वास्थ्य का
फूल खिल सकता
है। और जब यह
फूल खिलने
लगेगा तो तुम
क्रोध इकट्ठा
नहीं करोगे।
तुम
क्रोध इकट्ठा
ही इसलिए करते
हो क्योंकि तुम
स्वयं से
वंचित हो, स्वयं
को चूक रहे हो।
सच तो यह है कि
तुम किसी
दूसरे पर
क्रोधित नहीं
हो; तुम
अपने पर ही
क्रोधित हो।
लेकिन तुम उस
क्रोध को
दूसरों पर
प्रक्षेपित
करते रहते हो।
यदि ऐसा नहीं
करोगे तो तुम
पागल हो जाओगे।
इसलिए तुम
क्रोध करने के
बहाने ढूंढते
रहते हो।
और
असल में तुम
क्रोध में
इसलिए हो, क्योंकि
तुम स्वयं को
चूक रहे हो, अपनी नियति
को चूक रहे हो।
जो तुम्हारी
संभावना थी वह
वास्तविक
नहीं हो रही
है। तुम्हारे
क्रोध का यही
कारण है।
तुम्हें कुछ
भी नहीं घटित
हो रहा है, और
समय भागा जा
रहा है।
मृत्यु निकट
से निकटतर आ
रही है, और
तुम रिक्त के
रिक्त बने हो।
भराव की कोई
संभावना नजर
नहीं आ रही है।
इसलिए
तुम्हें
क्रोध है।
क्योंकि तुम
अपनी संभावना
को नहीं उपलब्ध
हो रहे हो, क्योंकि
तुम वह नहीं
हो सके हो जो
हो सकते हो, इसलिए तुम
क्रोधित हो, हिंसक हो।
और फिर तुम
बहाने खोजते
रहते हो। फिर
तुम इस या उस
व्यक्ति पर
अपना क्रोध
उतारते रहते
हो।
असल
में यह क्रोध
का प्रश्न
नहीं है। अगर
तुम इसे क्रोध
का प्रश्न
बनाते हो तो तुम्हारा
निदान गलत है।
यह प्रश्न
आत्मोपलब्धि
का है। क्यों
कोई हिंसक है? क्यों
कोई विध्वंसक
है? क्योंकि
वह स्वयं से
क्रुद्ध है; क्योंकि वह
जैसा है, अपने
ही विरोध में
है। और तब वह
पूरे जगत के
विरोध में हो
जाता है।
बुद्ध
शांत हैं, अहिंसक
हैं; इसलिए
नहीं कि उन्होंने
इसका अभ्यास
किया है, बल्कि
इसलिए कि वे
स्वयं को
उपलब्ध हो गए
हैं, वे
बुद्ध हो गए
हैं। उनका फूल
समग्रत: खिल
गया है; कुछ
खिलने को, कुछ
मुक्त होने को
बाकी नहीं है।
वे तृप्त हैं;
अस्तित्व
के प्रति
अहोभाव भर बचा
है। अब उन्हें
कोई शिकायत
नहीं है। अब
कुछ भी गलत
नहीं है।
जब
सच में
तुम्हारा फूल खिलता
है तो सब कुछ ठीक
हो जाता है, सब
कुछ शुभ हो
जाता है। यही
कारण है कि
बुद्ध को कोई
समस्या नहीं
दिखाई पड़ती; सब शुभ है।
और यही कारण
है कि बुद्ध क्रांतिकारी
नहीं हैं। क्रांतिकारी
होने के लिए
तुम्हें दुख
दिखाई पड़ना
जरूरी है; तुम्हें
चारों ओर
उपद्रव, चारों
ओर नरक दिखाई
पड़ना जरूरी है।
क्रांतिकारी
होने के लिए
यह खयाल जरूरी
है कि सब कुछ गलत
है। तो तुम क्रांतिकारी
हो सकते हो।
बुद्ध इसी भूमि
पर थे, महावीर
इसी भूमि पर
थे; लेकिन
वे क्रांतिकारी
नहीं थे।
क्यों? यह
प्रश्न उठता
है : वे क्यों क्रांतिकारी
नहीं थे?
जब
कोई अपने साथ
विश्राम में
होता है, संतुष्ट
होता है, तो
सब शुभ हो
जाता है। वह
विध्वंसक
नहीं हो सकता;
वह सिर्फ
सृजनात्मक हो
सकता है। उसकी
क्रांति
सिर्फ
सृजनात्मक हो
सकती है।
लेकिन
तुम्हें कुछ
भी सृजनात्मक
नहीं सूझता; तुम तो
सिर्फ
विध्वंस देख
सकते हो।
इसीलिए जब कोई
विध्वंस होता
है तो वह
समाचार बन
जाता है; तभी
तुम्हारा
ध्यान उस पर
जाता है।
लेनिन
क्रांतिकारी
मालूम पड़ता है; बुद्ध
क्रांतिकारी
नहीं मालूम
पड़ते। अभी
सारे संसार
में क्रांतिकारी
हैं, और
उनकी संख्या
बढ़ती जाती है।
कारण क्या है?
कारण यह है
कि अत्यंत कम
लोग अपनी
संभावना को वास्तविक
बना पाते हैं।
वे हिंसक हो
जाते हैं और
वे विध्वंस
करना चाहते
हैं। क्योंकि
अगर उनके जीवन
में अर्थ नहीं
है तो वे कैसे
समझ सकते हैं
कि दूसरों के
जीवन में कोई
अर्थ है?
महावीर
सावचेत हैं कि
उनसे एक चींटी
की भी, एक
मच्छर की भी
हत्या न हो; क्योंकि वे
आप्तकाम हो गए
हैं। अब वे
जानते हैं कि
एक मच्छर के
लिए भी क्या
संभव है।
मच्छर मच्छर
ही नहीं है, वह एक
संभावना है, अनंत
संभावना है, मच्छर
परमात्मा हो
सकता है।
इसलिए महावीर
विध्वंस नहीं
कर सकते, यह
असंभव है। वे
सहायता ही कर
सकते हैं।
उन्हें बस यही
फिक्र है कि
कैसे सहारा
दें कि छिपी
संभावना
वास्तविक हो
जाए।
तुम
केवल एक बीज
हो। तुममें एक
महान नियति
छिपी है; लेकिन
कुछ यथार्थ
नहीं हो रहा
है। संभावना
व्यर्थ हो रही
है, बीज
बीज ही बना
रहता है। तब
तुम्हें
क्रोध होता है।
आधुनिक पीढ़ी
पुरानी
पीढ़ियों से
बहुत ज्यादा क्रोधी
है; क्योंकि
संभावना का
बोध ज्यादा है
और उपलब्धि
बहुत थोड़ी है।
नई पीढ़ी को
पुरानी पीढी
से ज्यादा बोध
है कि क्या
संभव है, यह
पीढ़ी बखूबी
जानती है कि
बहुत कुछ संभव
है। लेकिन कुछ
हो नहीं रहा
है; संभावना
यथार्थ नहीं
बन रही है।
इसलिए बहुत
निराशा है। और
जब तुम सृजन
नहीं कर सकते
हो तो कम से कम
विध्वंस तो कर
ही सकते हो।
विध्वंसक
होने में
तुम्हें अपनी
शक्ति का अहसास
होता है।
क्रोध, हिंसा,
ये सब
विध्वंसक
शक्तियां हैं।
ये हैं, क्योंकि
सृजनात्मकता
नहीं है। इन
शक्तियों का
विरोध मत करो,
बल्कि
उन्हें मुक्त
होने में
सहायता दो।
उनका दमन नहीं
करो, उन्हें
विसर्जित
होने दो। और
तब तुम जिसे
इनका विपरीत
समझते थे वह
उपस्थित हो
जाता है। जब
ये विध्वंसक
शक्तियां
विसर्जित हो
जाती हैं तो
तुम्हें
अचानक बोध
होता है कि
शांति है, प्रेम
है, करुणा
है। इन गुणों
का अभ्यास
नहीं करना है।
वे तो चट्टानों
में छिपे झरने
की भांति हैं,
तुम
चट्टानों को
हटा दो और
झरना बहने
लगता है। झरना
चट्टान के
विरोध में
नहीं है; झरना
चट्टान का विपरीत
नहीं है। बस
चट्टानों के
हटते ही एक
मार्ग खुल
जाता है और झरना
प्रवाहित होने
लगता है।
प्रेम
तुम्हारे भीतर
झरने की भांति
है और क्रोध तुम्हारे
भीतर चट्टान की
भांति है। चट्टान
को हटाना भर
है। लेकिन तुम
तो उसे भीतर
की तरफ ही
ढकेलते जाते हो, उसे
गहरे दबाते
जाते हो। और
इस भांति तुम
झरने को और भी
अवरुद्ध कर
देते हो।
इस
चट्टान को
हटाओ। और इस
चट्टान से
किसी को चोट
पहुंचाने की
जरूरत नहीं है।
तुम किसी को
चोट पहुंचाना
चाहते हो, क्योंकि
तुम्हें नहीं
मालूम है कि
किसी को चोट
पहुंचाए बिना
इसे कैसे
फेंका जाए।
मैं यही
सिखाता हूं :
किसी को चोट
पहुंचाए बिना
इसे कैसे
फेंका जाए।
किसी को भी
चोट पहुंचाने
की जरूरत नहीं
है। और अगर
तुम किसी को
चोट पहुंचाए
बिना इस
चट्टान को
फेंक सको तो
सबको इससे लाभ
होगा।
शायद
तुम इसको
दूसरों के
सिरों पर न भी
फेंको तो भी
चट्टान तो है, और
सभी उसे महसूस
भी करते हैं।
जब तुम क्रोध
में होते हो
तो तुम चाहे
उसे कितना ही
छिपाओ, क्रोध
का पता चल ही
जाता है।
तुम्हारे
क्रोध की
सूक्ष्म तरंगें
निकलती रहती
हैं; तुम्हारे
चारों ओर एक
सूक्ष्म दुख
की छाया घेरे
चलती है। तुम जहां
जाते हो, लोग
समझते हैं, कोई रोग आ
गया। सब तुमसे
दूर भागना
चाहते हैं; तुम एक
विकर्षण पैदा
करते हो।
तुम्हारा रंग—ढंग
ही तुम्हें एक
दुर्गंध दे
देता है।
शायद
तुम्हें पता न
हो,
जीव—रसायन
शास्त्री
कहते हैं कि
जब कोई प्रेम
में होता है
या क्रोध में
होता है या
कामवासना में
होता है, तो
उसके शरीर से
अलग— अलग तरह
की गंध निकलती
है। यह बात
प्रतीकात्मक
नहीं है, यथार्थ
है। जब तुम
क्रोध में
होते हो, तुम्हारे
शरीर से एक
दुर्गंध
निकलती है; और जब तुम
प्रेम में
होते हो तो
गंध का गुण
भिन्न होता है।
और जब
कामवासना
तुम्हें
पकड़ती है तो
बिलकुल भिन्न
गंध निकलती है।
पशु
गंध से ही एक—दूसरे
के प्रति
आकर्षित होते
हैं। जब मादा
तैयार होती है
तो उसकी काम—ग्रंथियों
से एक सूक्ष्म
गंध निकलती है
और उससे ही नर
उसकी तरफ
आकर्षित होता
है। अगर वह
गंध नहीं है
तो उसका मतलब
है कि मादा तैयार
नहीं है। यही
कारण है कि
कुत्ते
सूंघते हैं, वे
कामवासना को
सूंघ सकते हैं।
तुम
अगर कामुक हो
तो तुम भी एक
सूक्ष्म गंध
छोड रहे हो।
और अगर तुम
क्रोध में हो
तो भी, क्योंकि
भिन्न—भिन्न
भावदशा में
रक्त—व्यवस्था
में भिन्न—भिन्न
रसायन पैदा
होते हैं।
शायद सचेतन
रूप से कोई न
भी जान सके, लेकिन अचेतन
रूप से इसे
सभी पहचान
लेते हैं।
क्रोध में, हिंसा में
तुम बोझ हो
जाते हो; विकर्षण
और विध्वंसक
हो जाते हो।
इस
विष को अपने
से निकालो। और
स्मरण रहे, इसे
शून्य में
निकालना
अच्छा है। और
आकाश काफी बड़ा
है; वह उसे
तुम पर वापस
नहीं फेंकेगा।
आकाश उसे पी
जाएगा और तुम
हलके हो जाओगे,
मुक्त हो
जाओगे। तो जो
भी करो उसे
ध्यानपूर्वक
करो, समग्रता
से करो—क्रोध
को भी, हिंसा
को भी, कामवासना
को भी।
एकांत
में क्रोध
करने की बात
तो तुम आसानी
से सोच सकते
हो;
लेकिन तुम
एकांत में
ध्यानपूर्वक
संभोग भी
निर्मित कर
सकते हो। और उसके
बाद तुम्हारी
गुणवत्ता ही
और होगी। जब
बिलकुल अकेले
हो, कमरे
को बंद कर लो
और ऐसे गति
करो जैसे काम—कृत्य
में
करते
हो। अपने पूरे
शरीर को गति
करने दो; उछलो
और चीखो, जो
जी में आए करो।
और उसे
समग्रता से करो।
सामाजिक निषेध
आदि सब भूल
जाओ काम—कृत्य
में
ध्यानपूर्वक
और अकेले डूब
जाओ। लेकिन
अपनी समग्र
कामुकता को
प्रकट होने दो।
जब
दूसरा है तो
उसके साथ समाज
सदा उपस्थित
है। क्योंकि
दूसरा
व्यक्ति
उपस्थित है, समाज
उपस्थित है।
और इतने गहन
प्रेम में
होना कठिन है
कि तुम्हें
लगे कि दूसरा
उपस्थित नहीं
है। सिर्फ
अत्यंत गहन
प्रेम में, अति
घनिष्ठता में
ही संभव है कि
तुम अपने प्रेमी
या प्रेमिका
के साथ ऐसे
रहो जैसे कि
वह नहीं है।
घनिष्ठता
का यही अर्थ
है। अगर तुम
अपनी प्रेमिका
या अपने
प्रेमी के साथ
एक कमरे में
होकर भी अनुभव
करो कि तुम
अकेले हो, कि
तुम्हें किसी
दूसरे का डर
नहीं है, तो
ही तुम संभोग
में समग्रता
से उतर सकते
हो। अन्यथा
दूसरे की
उपस्थिति सदा
ही बाधा पैदा
करती है।
दूसरा
तुम्हें देख
रहा है, न
जाने वह अपने
मन में क्या
सोचेगा! हो
सकता है कि वह
सोचे कि यह
क्या करते हो,
जानवर की
तरह व्यवहार
करते हो!
कुछ
ही दिन पूर्व
एक महिला यहां
आई थी। वह
अपने पति की
शिकायत करने
आई थी। उसने
कहा : 'मैं यह
बरदाश्त नहीं
कर सकती; वे
जब भी मेरे
साथ संभोग में
उतरते हैं, वे जानवर की
तरह व्यवहार
करने लगते हैं।’
जब
दूसरा
उपस्थित है तो
दूसरा
तुम्हें देख
रहा है। उसके
देखने में यह
प्रश्न हो
सकता है कि यह
तुम क्या कर
रहे हो! और
तुम्हें
सिखाया गया है
कि कुछ चीजें
हैं जो करने
योग्य हैं, और
कुछ चीजें हैं
जो करने योग्य
नहीं हैं। तो
दूसरे की
उपस्थिति में
तुम्हें बाधा
पहुंचती है; तुम काम—कृत्य
में समग्र
नहीं हो सकते।
लेकिन
यदि गहन प्रेम
हो तो तुम
संभोग में ऐसे
उतर सकते हो
जैसे कि अकेले
हो। और जब दो
शरीर एक हो
जाते हैं तो
वे एक लय में
घड़कते हैं; तब
द्वैत मिट
जाता है, और
तब काम अपनी
समग्रता में
प्रकट हो सकता
है।
और
काम क्रोध की
तरह नहीं है।
क्रोध सदा ही
कुरूप होता है; काम
सदा कुरूप
नहीं होता।
कभी—कभी काम
अत्यंत सुंदर
होता है; लेकिन
कभी—कभी ही।
जब मिलन पूर्ण
होता है, जब
दो व्यक्ति एक
लयबद्धता में
खो जाते हैं, जब उनकी
श्वासें एक हो
जाती हैं, जब
उनके प्राण एक
वर्तुल में
घूमते हैं, जब दो पूरी
तरह विलीन हो
गए हैं और
दोनों शरीर मिलकर
एक इकाई हो गए
हैं, जब ऋण
और धन, स्त्री
और पुरुष विदा
हो जाते हैं, तब जो काम—कृत्य
घटित होता है
उससे सुंदर और
कुछ भी नहीं
हो सकता।
लेकिन
ऐसा सदा नहीं
होता है। यदि
यह संभव न हो
तो तुम अकेले
ही,
एकांत में
और
ध्यानपूर्वक
काम—कृत्य को
उन्माद के, पागलपन के
शिखर तक
पहुंचा सकते
हो। अपने कमरे
को बंद कर लो, उस पर ध्यान
करो, और
अपने शरीर को
किसी रोक—टोक
के बिना गति
करने दो। कोई
नियंत्रण मत
करो!
पति—पत्नी
या प्रेमी—प्रेमिका
इसमें, विशेषकर
तंत्र में, बहुत सहयोगी
हो सकते हैं।
तुम्हारी
पत्नी या
तुम्हारा पति
या तुम्हारा
मित्र बहुत
सहयोगी हो
सकता है—अगर
दोनों गहन रूप
से यह प्रयोग
कर रहे हों।
तब दोनों ही
सारा
नियंत्रण छोड़
दो। सभ्यता को
भूल जाओ—मानो
वह कभी थी ही
नहीं। अदन के
बगीचे में लौट
जाओ। ज्ञान के
वृक्ष के फल को,
उस सेव को
फेंक दो। अदन
के बगीचे से
निकाले जाने
के पूर्व के
आदम और ईव हो जाओ।
पीछे लौट जाओ।
निर्दोष
पशुओं जैसे हो
जाओ, और
अपनी कामुकता को
उसकी समग्रता
में
अभिव्यक्त
होने दो।
और
तुम फिर कभी
वही नहीं
रहोगे जो थे।
दो चीजें घटित
होंगी।
कामुकता
विलीन हो
जाएगी। काम
बना रह सकता
है;
लेकिन
कामुकता
बिलकुल विदा
हो जाएगी। और
जब कामुकता
नहीं है, तो
काम दिव्य है।
जब काम की
मानसिक दौड़
नहीं रहती, जब तुम उसके
विषय में सोच—विचार
नहीं करते, जब काम
तुम्हारा सरल
और समग्र
कृत्य बन जाता
है, जब वह
तुम्हारे
पूरे प्राणों
की—सिर्फ मन
की नहीं—संलग्नता
बन जाता है, तो वह दिव्य
है।
तो
पहले कामुकता
विदा होगी, और
फिर काम भी, सेक्स भी
विदा हो सकता
है। क्योंकि
जब तुम काम के
गहरे तलों को
जान लोगे तो
तुम संभोग के
बिना भी उन
तलों को
उपलब्ध हो सकते
हो।
लेकिन
जब तक तुमने
उन गहरे तलों
की झलक भी
नहीं जानी है, तब
तक तुम्हें
उनका खयाल भी
कैसे आ सकता
है! पहली झलक
समग्र काम से
प्राप्त होती
है। और एक बार
उसे जान लिया
जाए तो दूसरे
उपायों से भी
उसे पाया जा
सकता है। तब
एक फूल को
देखते हुए तुम
उसी समाधि में
हो सकते हो
जिसे तुमने
अपनी
प्रेमिका के
साथ गहन मिलन
के शिखर पर
अनुभव किया था।
तब तारों को
देखते हुए तुम
उसी समाधि में
उतर जा सकते
हो।
एक
बार मार्ग का
खयाल आ जाए तो
तुम जानते हो
कि वह परम
आनंद
तुम्हारे
भीतर ही है।
तुम्हारी
प्रेमिका
तुम्हें उसे
जानने में सिर्फ
सहयोगी होती
है। वैसे ही
तुम तुम्हारी
प्रेमिका को
उसे जानने में
सहयोगी होते
हो। यह
तुम्हारे
भीतर ही है!
दूसरा तो
सिर्फ बहाना
था,
प्रेरणा था,
दूसरा
मात्र चुनौती
था; उसने
तुम्हें उसे
जानने में
सहयोग दिया जो
दरअसल सदा
तुम्हारे
भीतर ही था।
और
ठीक ऐसा ही
सदगुरु और शिष्य
के बीच घटित
होता है।
सदगुरु
तुम्हें उसे
जानने के लिए
चुनौती बन सकता
है जो सदा
तुम्हारे
भीतर ही छिपा
है। गुरु
तुम्हें कुछ
देता नहीं है, वह
दे नहीं सकता।
देने को कुछ
है भी नहीं, और जो दिया
जा सकता है वह
दो कौड़ी का है,
क्योंकि वह
कोई वस्तु ही
हो सकती है। मूल्यवान
तो वह है जो
दिया तो नहीं
जा सकता, लेकिन
जिसके लिए
तुम्हें
प्रेरित किया
जा सकता है।
सदगुरु सिर्फ
तुम्हें
प्रेरणा देता
है, चुनौती
देता है कि
तुम उस जगह आ
जाओ जहां वह
उदघाटित हो
जाए जो सदा से
मौजूद है। और
एक बार तुमने
उसे जान लिया
तो फिर गुरु
की जरूरत न
रही।
तो
काम विलीन हो
सकता है, लेकिन
पहले कामुकता
विलीन होती है।
और तब काम एक
शुद्ध, निर्दोष
कृत्य बन जाता
है। और फिर वह
भी समाप्त हो
जाता है। तब
ब्रह्मचर्य
घटित होता है।
ब्रह्मचर्य
काम के विपरीत
नहीं है; वह
काम की
अनुपस्थिति
भर है। और इस
भेद को स्मरण
रखो, यह
तुम्हारे बोध
में नहीं है।
पुराने
धर्म क्रोध और
काम की इस तरह
निंदा करते
हैं जैसे कि
वे एक ही हों, जैसे
कि वे एक ही
कोटि के हों।
लेकिन वे एक
ही कोटि के
कतई नहीं हैं।
क्रोध
विध्वंसक है,
काम सृजनात्मक
है। पुराने
धर्म दोनों की
निंदा एक ही
ढंग से करते हैं—मानो
काम और क्रोध, काम और लोभ, काम और
ईर्ष्या समान
हों। वे समान
नहीं हैं।
ईर्ष्या सदा
विध्वंसक है।
ईर्ष्या
कभी
सृजनात्मक
नहीं होती, उससे
कोई सृजन नहीं
हो सकता। वैसे
ही क्रोध भी
सदा विध्वंसक
है। लेकिन काम
के साथ ऐसी बात
नहीं है। काम
सृजनात्मकता का
स्त्रोत है। परमात्मा
ने सृजन के
लिए काम का
उपयोग किया है।
लेकिन
कामुकता
ईर्ष्या, क्रोध
और लोभ जैसी
चीज है; वह
सदा
विध्वंसात्मक
है। काम
विध्वंसात्मक
नहीं है।
लेकिन
हमें शुद्ध
काम का पता ही
नहीं है, हम
सिर्फ
कामुकता
जानते हैं। जो
आदमी अश्लील
चित्र देखता
है या जो कामुक
फिल्म देखने
जाता है, वह
काम नहीं, कामुकता
की खोज में है।
मैं ऐसे लोगों
को जानता हूं
जो अपनी पत्नी
के साथ संभोग
में उतरने से
पूर्व गंदी
पत्रिकाओं, पुस्तकों या
चित्रों को
उलट—पलट कर
देख लेते हैं।
इन्हें देखकर
ही उन्हें
कामोत्तेजना
होती है। असली
पत्नी उनके
लिए कुछ नहीं
है; एक
चित्र, एक
नग्न स्त्री
का चित्र उनके
लिए ज्यादा
उत्तेजक होता
है। यह
उत्तेजना
नैसर्गिक
नहीं है, यह
उनके
मस्तिष्क में
है। और काम जब
मस्तिष्क में
चला जाता है
तो वही कामुकता
है; काम का
चिंतन
कामुकता है।
काम
को जीना, काम
को भोगना
सर्वथा भिन्न
चीज है। और
अगर तुम काम
को जी सको तो
तुम उसके पार
जा सकते हो।
जो भी चीज
समग्रता से जी
ली जाए, तुम
उसका
अतिक्रमण कर
जाते हो। तो
किसी चीज से
डरो नहीं; उसे
जीओ। अगर तुम
सोचते हो कि
यह दूसरों के
लिए हानिप्रद
हो सकता है तो
उसमें अकेले
उतरो; तब
दूसरों के साथ
उसमें मत उतरो।
और अगर तुम
समझते हो कि
यह सृजनात्मक
होगा, रचनात्मक
होगा, तो
कोई भागीदार
खोजो, कोई
मित्र ढूंढो।
तब जोड़े बना
लो—तांत्रिक
युगल—और फिर
काम—कृत्य में
पूरी समग्रता
से प्रवेश करो।
फिर भी यदि
तुम्हें लगता
है कि दूसरे
की उपस्थिति
बाधा बन रही
है तो इसमें
अकेले ही
उतरना बेहतर
है।
अंतिम
प्रश्न:
क्या
बुद्ध पुरुष
भी कभी स्वप्न
देखते हैं? क्या
आप हमें बुद्ध
पुरुषों की नींद
कीं गुणवत्ता
और स्वभाव के
संबंध में कुछ
बताने की कृपा
करेंगे?
नहीं, बुद्ध
पुरुष स्वप्न
नहीं देख सकते
हैं। और अगर
तुम्हें स्वप्न
बहुत पसंद हैं
तो कभी बुद्ध
मत होना।
सावधान! स्वप्न
देखना नींद का
अंग है। स्वप्न
देखने के लिए
पहली चीज यह
है कि तुम्हें
नींद में जाना
होगा। साधारण स्वप्नों
के लिए
तुम्हें नींद
में उतरना
आवश्यक है।
नींद में तुम
अचेतन हो जाते
हो, और जब
तुम अचेतन
होते हो, तो
स्वप्न
घटित होते हैं।
वे तुम्हारे
अचेतन में ही
घटित हो सकते
हैं।
बुद्ध
पुरुष सोते
हुए भी चेतन
रहते हैं, वे
अचेतन नहीं हो
सकते। अगर तुम
उन्हें बेहोश
करने की दवा, क्लोरोफार्म
या वैसी ही
कोई चीज भी दे
दो तो भी उनकी
परिधि ही
सोएगी। वे
स्वयं जागरूक,
सचेतन रहते
हैं; उनका
चैतन्य खंडित
नहीं हो सकता।
कृष्ण
गीता में कहते
हैं कि जब सब
लोग सोते हैं, योगी
जागता है। ऐसा
नहीं है कि
योगी रात में
नींद नहीं
लेते, वे
भी सोते हैं।
लेकिन उनकी
नींद की
गुणवत्ता
भिन्न है; उनका
शरीर ही सोता
है। और तब
उनकी नींद' सुंदर होती है,
वह विश्राम
है।
तुम्हारी
नींद विश्राम
नहीं है। हो
सकता है कि
तुम्हारी
नींद भी श्रम
हो,
और सुबह उठकर
तुम शाम से भी
ज्यादा थके—मांदे
अनुभव करो।
सारी रात सोने
के बाद सुबह
तुम ज्यादा
थकावट अनुभव
करते हो। हो
क्या रहा है? तुम चमत्कार
कर रहे हो!
तुम्हारी
सारी रात एक आंतरिक
उपद्रव थी। तुम्हारा
शरीर विश्राम
नहीं कर सका, क्योंकि
तुम्हारा मन
बहुत सक्रिय
था। और मन की
सक्रियता
शरीर को
अनिवार्यत:
थकाती है, क्योंकि
मन शरीर के
बिना सक्रिय
नहीं हो सकता।
मन की
सक्रियता का
अर्थ है शरीर
की समांतर
सक्रियता; फलत:
सारी रात
तुम्हारा
शरीर करवटें
बदलता है, सक्रिय
रहता है। यही
कारण है कि
सुबह तुम
ज्यादा थके—मांदे
महसूस करते हो।
किसी
के बुद्ध होने
का क्या अर्थ
है?
एक ही अर्थ
है कि अब वह
पूर्णत:
जाग्रत है, सचेतन है; उसके मन में
जो भी चलता है
उसका उसे बोध
है। और जब तुम
बोधपूर्ण
होते हो तो
कुछ चीजें होनी
बिलकुल बंद हो
जाती हैं; बोध
के आते ही वे
बंद हो जाती
हैं। यह ऐसे
ही है जैसे इस
कमरा में
अंधेरा है, और तुम एक
दीया लाते हो
और अंधकार
गायब हो जाता
है। सब चीजें
नहीं गायब
होती हैं; किताबों
की अलमारिया
बनी रहती हैं,
हम जो बैठे
हैं बैठे रहते
हैं। दीया
लाने से सिर्फ
अंधकार विलीन
होता है।
जब
कोई व्यक्ति
आत्मोपलब्ध
होता है तो
उसे एक आंतरिक
प्रकाश
उपलब्ध होता
है। वह आंतरिक
प्रकाश बोध है; और
उस बोध से
मूर्च्छा
मिटती है, नींद
मिटती है—और
कुछ नहीं।
लेकिन नींद के
मिटते ही सब
चीजों की
गुणवत्ता बदल
जाती है। अब
वह जो भी
करेगा पूरे
होश में करेगा,
और अब वे
चीजें असंभव
हो जाएंगी
जिनके लिए मूर्च्छा
या नींद
अनिवार्य है।
अब
वह क्रोध नहीं
कर सकता है; इसलिए
नहीं कि उसने
क्रोध न करने
का कोई निर्णय
लिया है। नहीं,
अब क्रोध
करना उसके लिए
असंभव है। जब
तुम बेहोश हो,
मूर्च्छित
हो, तो ही
क्रोध संभव है।
मूर्च्छा के
जाते ही क्रोध
का आधार चला
जाता है और
क्रोध असंभव
हो जाता है।
वह घृणा भी
नहीं कर सकता,
क्योंकि
घृणा भी
मूर्च्छा में
ही संभव है।
वह व्यक्ति
प्रेम हो जाता
है; इसलिए
नहीं कि उसने
प्रेम का कोई
निर्णय लिया
है। जब प्रकाश
होता है, जब
बोध होता है, तो प्रेम
प्रवाहित
होता है। यह
स्वाभाविक है।
तो
बुद्ध पुरुष
के लिए स्वप्न
देखना असंभव
हो जाता है, क्योंकि
स्वप्न
देखने के लिए
सबसे पहले
मूर्च्छा
जरूरी है, और
वह मूर्च्छित
नहीं है।
बुद्ध
का शिष्य आनंद
उनके साथ ही, उनके
कमरे में ही
सोता था। एक
दिन उसने
बुद्ध से कहा : 'यह तो
चमत्कार है; यह बहुत
अदभुत बात है।
आप नींद में
कभी करवट नहीं
बदलते हैं।’ बुद्ध सारी
रात एक करवट
ही सोते थे; जिस करवट वे
रात सोने के
लिए लेटते थे,
सुबह नींद
से जागते समय
भी वे उसी
करवट में होते
थे। और उनके
हाथ भी सारी
रात एक ही
स्थान पर रखे
रहते थे।
संभवत: तुमने
बुद्ध की
शयनमुद्रा की
मूर्ति देखी
होगी। उसे
शयनासन कहते
हैं। वे इसी
एक आसन में
सारी रात सोते
थे। आनंद ने
वर्षों
उन्हें देखा
था। जब भी वह
बुद्ध को सोए
हुए देखता, वे सारी रात
एक ही तरह से
सोए होते। तो
उसने पूछा : 'मुझे कहें
कि सारी रात
आप क्या करते
हैं? आप एक
ही आसन में
होते हैं?'
कहते
हैं कि बुद्ध
ने कहा: 'सिर्फ
एक बार मैंने
नींद में करवट
बदली थी, लेकिन
तब मैं बुद्ध
नहीं था।
बुद्धत्व के
घटित होने के
कुछ दिन पूर्व
मैंने नींद
में करवट ली
थी, लेकिन तभी
मुझे अचानक
बोध हुआ और
आश्चर्य हुआ
कि मैं करवट
क्यों ले रहा
हूं! मैंने
मूर्च्छा में करवट
ली थी, जिसका
मुझे कोई होश नहीं
था। लेकिन बुद्धत्व
के बाद उसकी कोई
जरूरत न रही।
अगर मैं चाहूं
तो करवट ले
सकता हूं,
लेकिन उसकी
जरूरत नहीं है।
शरीर पूरे
विश्राम में
है।’
बोध
नींद में भी
प्रवेश कर
जाता है।
लेकिन तुम
सारी रात एक
ही करवट पड़े
रह सकते हो और
उससे तुम
बुद्ध नहीं
होगे। तुम
उसका अभ्यास
कर सकते हो; वह
कठिन नहीं है।
तुम अपने साथ
जबरदस्ती कर
सकते हो, और
थोड़े ही दिन
में तुम इसे
साध सकते हो।
लेकिन वह कोई
बात नहीं है।
और अगर तुम
जीसस को करवट
लेते देखो तो
मत सोचना कि
वे करवट क्यों
लेते हैं! यह
उन पर निर्भर
है। अगर जीसस
नींद में करवट
लेते हैं तो
भी वे सावचेत
हैं। वे चाहें
तो करवट ले
सकते हैं।
मेरे
साथ बिलकुल
उलटा हुआ। बोध
को उपलब्ध
होने के पूर्व
मैं सारी रात
एक ही करवट
सोता था; मुझे
नहीं याद है
कि मैंने कभी
करवट बदली हो।
लेकिन उसके
बाद से मैं
सारी रात
करवटें बदलता
रहता हूं एक
करवट में पांच
मिनट रहना
काफी है। मैं
बार—बार करवट
बदलता हूं।
मैं इतना
बोधपूर्ण हूं
कि असल में यह
नींद बिलकुल
नहीं है।
तो
यह व्यक्ति—व्यक्ति
पर निर्भर है।
लेकिन तुम
बाहर से कोई
निष्कर्ष
नहीं निकाल सकते, यह
सदा भीतर से
संभव होता है।
बुद्ध
पुरुष को नींद
में भी बोध
बना रहेगा; और
तब स्वप्न
संभव नहीं है।
स्वप्न के लिए
मूर्च्छा
जरूरी है—यह
एक बात हुई।
और स्वप्न के
लिए आधे—अधूरे
अनुभव जरूरी
हैं—यह दूसरी
बात। लेकिन
बुद्ध पुरुष
के कोई आधे—अधूरे
अनुभव नहीं
होते; उनकी
हर चीज पूरी
होती है।
उन्होंने
भोजन कर लिया
तो वे फिर
भोजन के संबंध
में सोच—विचार
नहीं करते हैं।
जब उन्हें फिर
भूख लगेगी तो
वे फिर भोजन
ले लेंगे; लेकिन
इस बीच वे
भोजन की नहीं
सोचेंगे।
उन्होंने
स्नान कर लिया
तो वे अब कल के
स्नान का
विचार नहीं
करेंगे। जब
उसका समय आएगा,
और अगर वे
जिंदा रहे, तो वे फिर
स्नान कर
लेंगे। यदि
परिस्थिति ने
इजाजत दी तो
स्नान हो
जाएगा, लेकिन
उसके संबंध
में कोई विचार
नहीं है।
कृत्य तो हैं;
लेकिन उनके
संबंध में
विचार नहीं
हैं।
लेकिन
तुम क्या करते
हो?
तुम सतत
पूर्वाभ्यास
करते हो, कल
के लिए निरंतर
रिहर्सल करते
हो। मानो तुम
कोई अभिनेता
हो और तुम्हें
किसी को अपना
नाटक दिखाना
है। तुम
रिहर्सल
क्यों करते हो?
जब समय आएगा
तो तुम तो
मौजूद ही
रहोगे।
बुद्ध
पुरुष क्षण में
जीते हैं, कृत्य
में पूरे
मौजूद होते
हैं। और वे
इतनी समग्रता
से जीते हैं
कि कुछ अधूरा नहीं
रहता है। जो
अधूरा रह जाता
है उसे ही स्वप्न
में पूरा करना
पड़ता है।
स्वप्न
परिपूरक है। स्वप्न
इसीलिए आता है
क्योंकि मन
किसी काम को
आधा—अधूरा
नहीं छोड़ सकता।
अगर कोई चीज
अधूरी रह गई
है तो मन को
बेचैनी महसूस होती
है कि कैसे
उसे पूरा किया
जाए। तब तुम स्वप्न
में उसे पूरा
करते हो और
तभी चैन पाते
हो। यदि वह स्वप्न
में भी पूरा
हो जाता है तो
मन को विश्राम
मिलता है।
तुम्हारे
सपने क्या हैं? तुम
क्या सपना
देखते हो? तुम
दिन में जिन
कामों को पूरा
नहीं कर सके, उन अपूर्ण
कामों को
स्वप्न में
पूरा करते हो।
दिन में तुम
किसी स्त्री
को चूमना
चाहते थे, लेकिन
चूम न सके। अब
तुम स्वप्न
में उसे
चूमोगे, और
तब तुम्हारा
मन चैन पाएगा।
उससे तनाव मिट
जाता है।
तुम्हारे
सपने देखने का
कारण तुम्हारा
आधा—अधूरा जीना
है; और बुद्ध पुरूष
पूर्ण है। वे
जो भी करते
हैं उसे इतनी
पूर्णता से, इतनी
समग्रता से
करते हैं कि
कुछ भी अधूरा
नहीं रह जाता
है। तब स्वप्न
देखने की कोई
जरूरत नहीं
रहती है। रात
में स्वप्न
खो जाते हैं
और दिन में
विचार खो जाते
हैं।
ऐसा
नहीं है कि वे
विचार करने
में असमर्थ हो
जाते हैं।
जरूरत होने पर
वे विचार कर
सकते हैं। यदि
तुम उन्हें
कोई प्रश्न
पूछोगे तो वे
तुरंत विचार
करेंगे; लेकिन
उन्हें किसी
पूर्वाभ्यास
की जरूरत नहीं
है। तुम तो
पहले विचार
करते हो और तब
उत्तर देते हो।
लेकिन उनकी
विचारणा ही
उनका उत्तर
होती है, वे
जो विचारते
हैं वही उत्तर
में कहते हैं।
ऐसा कहना भी
शायद ठीक नहीं
है; उनके
विचारने और
उत्तर देने
में कोई
अंतराल नहीं
होता है; दोनों
युगपत होते
हैं। उनके
विचार साथ ही
साथ वाणी से
अभिव्यक्त हो जाते
हैं।
लेकिन
वे कोई
पूर्वाभ्यास
नहीं करते, वे
विचार नहीं
करते, वे
स्वप्न नहीं
देखते; वे
जीवन को जीते
हैं। और तुम
विचार करने और
स्वप्न
देखने में ही
जीवन को गंवा
देते हो।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें