प्यारे
ओशो!
तमसो
मा ज्योतिर्गमय
असतो
मा सद्गमय
मृत्योर्माउमृतं
गमय
उपनिषाद
की इस
प्रार्थना
में मनुष्य
की विकसित
चेतना
के
अनुरूप क्या
कुछ जोड़ा जा
सकता है?
नरेन्द्र
बोधिसत्व! यह
प्रार्थना
अपूर्व है! पृथ्वी
के किसी
शास्त्र में, किसी समय
में, किसी
काल में इतनी
अपूर्व
प्रार्थना को
जन्म नहीं
मिला। इसमें
पूरब की पूरी
मनीषा
सन्निहित है।
जैसे हजारों
गुलाब से
बूंदभर इत्र
निकले, ऐसी
यह प्रार्थना
है।
प्रार्थना ही
नहीं है, समस्त
उपनिषदें का
सार है। इसमें
कुछ भी जोड़ना
कठिन है।
लेकिन फिर भी
मनुष्य
निरंतर
गतिमान है, यह अजस्र
धारा है
मनुष्य की
चेतना की, जिसका
कोई पारावार
नहीं है। यह
रोज नित नये
आयाम छूती है,
नित नये
आकाश। बहुत
बार ऐसा लगता
है, आ गया
पड़ाव और फिर
आगे और भी उज्ज्वलतर
शिखर दिखायी
पड़ने लगते हैं।
लगता है ऐसे
कि आ गयी
मंजिल, लेकिन
हर मंजिल बस
सराय ही सिद्ध
होती है। और
यह शुभ भी है।
नहीं तो
मनुष्य जीए ही
कैसे? विकास
है तो जीवन है।
निरंतर विकास
है तो निरंतर
गति है।
गत्यात्मकता
जीवन है।
इसलिए इस
प्रार्थना
में यू तो कुछ
जोड़ा नहीं जा
सकता, ऐसे
बिलकुल भरी—पूरी
है, और फिर भी
कुछ जोड़ा जा
सकता है।
नानक
के जीवन में
ऐसा उल्लेख है
कि वे अपनी अनंत
यात्राओं
में.. बहुत
यात्राएं कीं
उन्होंने—
भारत में तो
कीं ही, भारत के
बाहर भी कीं।
काबा और मक्का
तक भी गये.. वे
एक ऐसे गांव
के पास पहुंचे
जो फकीरों की
ही बस्ती थी।
सूफियों का
गांव था। और
उन सूफी
दरवेशों का जो
प्रमुख था, उसे खबर
मिली कि भारत
से एक फकीर
आया है, पहुंचा
हुआ सिद्ध है,
गांव के
बाहर ठहरा हुआ
है—गाव के
बाहर ही सरहद
पर, एक
कुएं के पास, एक वृक्ष की
छाया में।
रात
नानक ने और
उनके शिष्य
मरदाना ने
विश्राम किया
था।
नानक
चलते थे तो
मरदाना सदा
उनके साथ चलता
था। मरदाना
उनका एक मात्र
संगी—साथी था।
नानक गाते गीत, मरदाना
धुन बजाता।
नानक
गुनगुनाते, मरदाना ताल
देता। नानक
प्रभु के
गुणों के गीत
उतारते, मरदाना
स्वर साधता।
मरदाना के
बिना नानक
अधूरे से थे।
गीत तो उनके
पास थे, मरदाना
जैसे उनकी
बांसुरी था।
सुबह—सुबह
नानक गा रहे
थे, सूरज
ज्या रहा था
और मरदाना ताल
दे रहा था।
तभी उस फकीर
का संदेशवाहक
आया। उस फकीर
ने सांकेतिक
रूप से—सूफियों
का ढंग, अलमस्तों
का ढंग, अल्हड़ों
का ढंग—एक
स्वर्ण पात्र
में दूध भरकर
भेज दिया था।
इतना भर दिया
था दूध कि एक
बूंद भी उसमें
अब और न समा
सके। जो लेकर
आया था पात्र,
उसे भी बड़ा
संभालकर लाना
पड़ा था।
क्योंकि अब
छलका तब छलका—इतना
भरा था, ऐसा
लबालब था।
पात्र
लाकर उसने
नानक को भेंट
दिया और कहां, मेरे
सद्गुरु ने
भेजा है; भेंट
भेजी है। नानक
ने एक क्षण
पात्र को देखा,
मरदाना
सुबह—सुबह ही
नानक के चरणों
पर लाकर कुछ
फूल चढ़ाया था,
उन्होंने
एक फूल उठाया
और दूध से भरे
पात्र में
तैरा दिया। अब
फूल का कोई
वजन ही न था, वह तैर गया
दूध पर। एक
बूंद दूध भी
बाहर न गिरा।
और कहां नानक
ने, ले जाओ
वापिस, मैंने
भेंट में कुछ
जोड़ दिया; तुम
न समझ सकोगे, तुम्हारा
गुरु समझ लेगा।
और
गुरु समझा।
भागा
हुआ आया, नानक के
चरणों में
गिरा और कहां
कि आप मेहमान
बनें। मैंने
पात्र भेजा था
भरकर यह कहने
कि अब और फकीरों
की इस बस्ती
में जरूरत
नहीं। यह
बस्ती फकीरों
से लबालब है।
यह मस्तों की
ही बस्ती है, अब आप यहां
किसलिए आए
हैं! लेकिन
आपने गजब कर
दिया। आपने एक
फूल तैरा दिया।
यह तो मैंने
सोचा भी न था, इसकी तो
कल्पना भी न
की थी, कि
फूल तैर सकता
है। क्योंकि
फूल कुछ
डूबेगा नहीं—ऊपर
ऊपर ही रहा।
रहा होगा हलका—फुलका
फूल—टेसू का
फूल, कि
चांदनी का फूल।
डूबा ही नहीं
तो पात्र से
दूध के गिरने
का सवाल ही न
उठा। समझ गया
आपका संदेश कि
आप आए हैं
बस्ती में, फl की तरह
समा जाएंगे।
आएं, स्वागत
है! बस्ती में
कितने ही फकीर
हों, आपके
लिए जगह है।
फूल ने खबर दे
दी।
यह
सूत्र यूं तो
लबालब है, यह पात्र
यूं तो दूध से
भरा है, इसमें
एक बूंद
जोड्ने की भी
गुंजाइश नहीं,
लेकिन फूल
तैराया जा
सकता है। और
जरूर तैराना
चाहिए।
तैराते ही
रहना चाहिए।
उपनिषद् मरने
नहीं चाहिए।
तब तो उपनिषद्
पर उपनिषद्
लिखे गये।
अन्यथा एक
उपनिषद् से
बात पूरी हो
गयी थी। एक
छान्दोग्य
उपनिषद् में
सब आ जाता। एक
कठोपनिषद्
में क्या बचता
है और, सब आ गया!
एक छोटे से
उपनिषद्
ईशावास्य में,
जिसको कि
पोस्टकार्ड
पर छापा जा
सकता है, सब
आ गया; सब
उपनिषद् आ गये,
सब वेद आ
गये, सब
पुराण आ गये।
लेकिन
उपनिषद् पर
उपनिषद् लिखे
जाते रहे।
तैरानेवाले
फूल पर फूल
तैराते चले
गये।
यूं ही
जीवन गतिमान
रहता है। नहीं
तो ठहर जाए, सड़ जाए।
जहां पानी
रुका, वहा
गंदा हुआ।
जहां बहता रहा,
वहा निर्मल
रहा।
बहता
रहे यह पानी
भी, इसलिए
तुमसे कहता
हूं—
इस
सूत्र का पहला
चरण हैं : ' तमसो मा
ज्योतिर्गमय।’
हे प्रभु!...
प्रभु को सीधा—सीधा
उल्लेख नहीं
किया। वह
प्यारी बात है।
क्योंकि शब्द
में जो आ जाए, वह तो
परमात्मा
नहीं है। उसे
अनकहां छोड़
दिया है। उसे
समझो, उसे
कहो मत। इसलिए
सीधा—सीधा
प्रभु का कोई
उल्लेख नहीं।
मगर उसकी
उपस्थिति का
एहसास है।
क्योंकि यह
प्रार्थना है।
जहा
प्रार्थना है,
वहां प्रभु
की उपस्थिति
है। सच्ची
प्रार्थना
में प्रभु को
कहना नहीं
होता, प्रार्थना
काफी होती है।
प्रार्थना का धुआं—धूप—प्रार्थना
की ज्योति जिस
तरफ उठने लगती
है, जिस
आकाश की तरफ, जो
ऊर्ध्वगमन
करने लगती है
वही इशारा है
उसका। इशारा
भर होता है।
इसलिए तुम
कोष्ठक में
समझना : 'हे
प्रभु!' प्रत्यक्ष
नहीं है, प्रगट
नहीं है, कहां
नहीं है, मगर
समझना जरूर
क्योंकि बिना
उसके बात
बनेगी नहीं।
सूत्र अधूरा
है बिना उसके।
सूफियों
ने ईश्वर को
सौ नाम दिये
हैं; लेकिन
गिनाए केवल
निन्यान्नबे
हैं, सौवा कहां
नहीं है। वही
असली नाम है।
तुम जब
सूफियों के, फकीरों
के, अलमस्तों
के ईश्वर के
नामों की गणना
पढ़ोगे तो बहुत
चौकोगे। ऊपर
तो लिखा होता
है. परमात्मा
के सौ नाम—और
अगर तुमने
गिनती न की तो
तुम्हें पता
ही नहीं चलेगा,
क्योंकि
निन्यान्नबे
हैं कि सौ, कैसे
पता चलेगा? गिनोगे तो
बहुत चौंकोगे,
गिनोगे तो
निन्यान्नबे
पाओगे, सौ
कभी नहीं।
निन्यान्नबे
कहे हैं, सौवा
असली है, जो
कहां, वह
तो सिर्फ
इशारा है, जो
नहीं कहां, वही असली है।
निन्यान्नबे
से उसी की तरफ
इशारा किया है,
सौवें की
तरफ। मगर
अनकहे को भी
गिनती में
गिना है, सौ।
ऊपर तो लिखा
होता है : सौ
नाम परमात्मा
के, पाओगे
निन्यान्नबे।
ऐसा ही कहां
नहीं है, छिपा है।
सत्य को
पंक्तियों के
बीच में पढ़ना
होता है, जहां पृष्ठ
खाली होता है,
लकीरों में
नहीं।
तमसो
मा
ज्योतिर्गमय
'हे
प्रभु'….. कोष्ठक
लगा लेना...'मुझे
अंधकार से
प्रकाश की ओर
ले चल।’ कहां
तो इतना ही है
कि मुझे
अंधकार से
प्रकाश की ओर ले
चल। मगर किससे
कहां? किसी
से तो कहना ही
होगा। नहीं तो
सूत्र बेमानी
हो जाएगा।
इसका कुछ अर्थ
न रह जाएगा।
मुझे
ले चल अंधकार
से आलोक की ओर।
मगर कौन ले
चले? इसलिए
प्रार्थना
में प्रभु है;
मगर उसकी
उपस्थिति है,
अभिव्यक्ति
नहीं है।
असतो
मा सद्गमय
दूसरा
चरण है : कि, 'मुझे
असत्य से सत्य
की ओर ले चल।’ और तीसरा
चरण है :
मृत्योर्माउमृतं
गमय
'मुझे
मृत्यु से
अमृत की ओर ले
चल।’
तीनों
सूत्र अलग—
अलग नहीं हैं।
एक—दूसरे से
गुंथे हैं। एक
ही सत्य के
तीन पहलू हैं।
यूं समझो.
त्रिमूर्ति—परमात्मा
के जैसे तीन
रूप, ऐसे
तीन सूत्र!
जैसे तीनों
रूपों की
प्रार्थना कर
ली। इसमें फूल
तैराया जा
सकता है और
जरूर तैराना
चाहिए; ताकि
उपनिषद्
जिंदा रहे; उपनिषद् मर
न जाए; उपनिषद्
बढ़ता रहे, बहता
रहे। गंगा
चलती रहे, सागर
बनती रहे।
सागर उडता रहे,
बादल बनता
रहे। बादल
बरसता रहे, गंगा बनता
रहे। यह बहाव
ही जीवन है।
इसीलिए
मैं तुमसे
कहता हूं कि
इस प्रार्थना
से थोड़े और
ऊपर उठा जा
सकता है। फूल
तैराना होगा
तो थोड़े ऊपर
उठना होगा।
क्योंकि
पात्र तो
लबालब है, भरपूर है,
एक बूंद जगह
नहीं है। थोड़ा
ऊपर उठोगे तो
ही बात बनेगी।
अंधकार
तो होता ही
नहीं। अंधकार
का कोई
अस्तित्व ही
नहीं होता।
इसलिए यह
प्रार्थना कि
हे प्रभु, मुझे
अंधकार से
प्रकाश की ओर
ले चल, अंधकार
से ही भरी हुई
हो गयी।
अंधकार तो
होता ही नहीं।
अंधकार तो
केवल अभाव है।
अंधकार की कोई
स्थिति नहीं
है। अंधकार की
कोई सत्ता
नहीं है।
इसलिए तो तुम
अगर अंधकार के
साथ सीधा—सीधा
कुछ करना चाहो
तो न कर पाओगे।
तुम्हारे
कमरे में
अंधकार भरा हो
और मैं कहूं
निकाल बाहर कर
दो, तो तुम
लाख चिल्लाओ,
धक्के मारो,
तलवार
निकाल लो
म्यान से, कि
बंदूकें चलाओ,
कुछ भी न
होगा। कितने
ही बड़े पहलवान
क्यों न होओ
और कितने ही दाव—पेंच
क्यों न लगाओ,
लेकिन
हारोगे, अंधकार
को बाहर न
निकाल सकोगे;
टूटोगे, खुद
ही गिरोगे
थककर। और जब
गिरोगे थककर
तो तुम्हारा
तर्क कहेगा कि
शायद अंधकार
मुझसे ज्यादा
बलवान है।
यही तो
तर्क की भांति
है।
तर्क
बड़े भ्रांत
निष्कर्ष दे
देता है। लड़े
और हारे तो
जाहिर है कि
जिससे हारे, वह
शक्तिशाली
होना चाहिए।
मगर यह भी हो
सकता है—यह
तर्क को कभी
नहीं सूझता—कि
वह हो ही न
इसलिए तुम
हारे। अब जो
है ही नहीं, उससे लड़ोगे
तो जीतोगे
कैसे? जीतना
असंभव है।
अंधकार से
घूसेबाजी
करोगे तो खुद
ही थक जाओगे, थककर गिरोगे।
अंधकार का
क्या बिगाड़
लोगे? अंधकार
होता तो जरूर
कुछ बिगाड़ा जा
सकता था।
धक्का—मुक्की
करके बाहर
निकाल सकते थे।
शोरगुल मचा
सकते थे। हमला
बोल सकते थे।
लेकिन तुम
अंधकार का कुछ
भी न कर सकोगे,
क्योंकि
अंधकार है ही
नहीं। तलवार
चल जाएगी, कटेगा
नहीं। बंदूक
चल जाएगी, मरेगा
नहीं। जहां का
तहां रहेगा—क्योंकि
है ही नहीं।
होता तो कुछ न
कुछ कर लेते।
न तो
अंधकार को हटा
सकते हो। अगर
तुम हटा सकते
होते तो बड़ी
दिक्कतें
होतीं। भारत
की सड्कों पर
चलना मुश्किल
हो जाता। हर
आदमी अपने घर
का अंधकार
सड्कों पर डाल
देता। जैसे
कचरा डाल देते
हो।
और यहां
तो हर आदमी
दार्शनिक है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रास्ते से
गुजर रहा था कि
एक औरत ने
पूरी की पूरी
टोकरी कचरा—कबाड़
से भरी ऊपर से
उंडेल दी।
छज्जे के नीचे
झांककर भी न
देखा। उस
टोकरी में से
एक टीन का
डिब्बा
नसरुद्दीन के
सिर पर लगा।
बडे जोर से वह
चिल्लाया कि
अंधी है तू
तुझे दिखायी
नहीं पड़ता? अरे, स्त्री
ने कहां कि
यही कहो कि एक
ही डिब्बा लगा;
इसमें ईंट
भी थी, पत्थर
भी था।
सौभाग्य मानो
अपना, बड़े
मियां!
धन्यवाद दो
परमात्मा का,
यह खाली टीन
का डिब्बा बजा,
इसमें क्या
बिगड़ गया?
इस देश
में ज्ञानी तो
सभी हैं। क्या
बात उसने भी
पते की कही कि
यह क्यों नहीं
सोचते, आशावादी बनो,
क्या
निराशावादी
बनते हो, यह
क्यों नहीं
सोचते कि ईंट
भी लग सकती थी!
सिर खुल जाता,
अभी
अस्पताल में
होते! सिर्फ
टीन का डिब्बा
लगा, धन्यवाद
तो देते नहीं,
उलटे मुझ आंखवाली
को अंधा कहते
हो!
और मैं
भी क्या करूं? अभी नयी—नयी
शादी होकर आयी
है, पहले
दिन मेरे पति
ने कहां कि
नीचे देख—दाखकर
फेंकना। सो
मैं आधा घंटे
खड़ी रही, जब
आदमी निकला एक
तब मैंने
फेंका। सो वह
आदमी लड़ने आ
गया। और मैंने
पति से कहां, तुमने ही तो कहां
था कि नीचे
देख लेना कि
आदमी है या
नहीं, तब
फेंकना। तो
उसने अपना सिर
पीट लिया—मेरे
पति ने और
उसने कहां कि
तू अब बिना
देखे ही फेंका
कर। तो आज
दूसरे दिन फिर
बिना देखे
फेंका; तो
आप झगड़ने को
खड़े हो गये!
आखिर आदमी कुछ
करे कि न करे?
अंधेरा
अगर फेंका जा
सकता होता तो
सडकों पर ढेर
लग जाते, निकलना
मुश्किल हो
जाता। तैरना
पड़ता अंघेरे
में से। नावें
खेनी पडती।
बड़ी मुश्किल
हो जाती। मगर
अच्छा है कि
अंधेरे को कोई
बाहर नहीं
फेंक सकता। न
अंधेरे को तुम
बाहर फेंक
सकते हो और न
अंधेरे को
भीतर ला सकते
हो। जैसे
दोपहर में
तुम्हें सोना
है और तुम
चाहो कि
अंधेरा भीतर
ले आएं ताकि
अच्छी नींद आए,
तो तुम
अंधेरे को
बटोरकर भीतर
भी नहीं ले आ
सकते। अंधेरे
के साथ कुछ
करना हो तो
प्रकाश के साथ
कुछ करना पड़ता
है। अंधेरा
हटाना है तो
प्रकाश जलाओ।
अंधेरा लाना
है तो प्रकाश
आओ। प्रकाश की
सत्ता है, अंधकार
की कोई सत्ता
नहीं।
यह
प्रार्थना
कहती है : हे
प्रभु, मुझे अंधकार
से आलोक की
तरफ ले चलो।
अंधकार तो है
ही नहीं, क्यों
परमात्मा को
कष्ट देते हो?
इतना जान लो
कि अंधकार
नहीं है, इतने
जान लेने में
ही प्रकाश हो
जाता है। इस
बोध में ही
प्रकाश हो
जाता है।
इसलिए
उपनिषदों से
आगे कदम बढ़े।
बुद्ध ने
परमात्मा की
बात नहीं की।
परमात्मा को
बीच में नहीं
लाए। क्यों उस
बिचारे को
परेशान करना!
बोध से ही बात
हल हो जाती है
तो प्रार्थना
क्यों करनी? जब अपने
से ही बात हल
हो जाती हो तो
क्यों उसके द्वार
पर दस्तक देनी?
हो तो ठीक, न हो तो ठीक।
परमात्मा
है या नहीं, इसकी भी
चर्चा बुद्ध
ने नहीं की।
कोई पूछता था
तो हंसकर टाल
जाते थे। कह
देते थे, अव्याख्य
है, मत पूछो।
न पूछो तो
अच्छा! कुछ भी
कहना उचित
नहीं है। हो
तो ठीक, न
हो तो ठीक, लेना—देना
क्या है? काम
की बात तो कुछ
और है। अंधकार
नहीं है, इस
सत्य की
प्रतीति
चाहिए। इसलिए
मैं तुम्हें
प्रार्थना
नहीं सिखाता,
मैं
तुम्हें
ध्यान सिखाता
हूं भेद इतना
ही है।
प्रार्थना और
ध्यान में
इतना ही भेद
है. प्रार्थना
सिर्फ हाथ
जोड़कर निवेदन
करती है, हे
प्रभु, ऐसा
करो। फिर वह
कितनी ही ऊंची
प्रार्थना
क्यों न हो! यह
उपनिषद् की ही
प्रार्थना
क्यों न हो! यह
अद्भुत, अपूर्व
प्रार्थना ही
क्यों न हो!
प्रार्थना में
मांग होती है।
तू कुछ कर! और
ध्यान में
स्वयं करने का
बल होता है; स्वयं करने
का भाव होता
है।
जब भी
कोई समाज
प्रार्थनाओं
से भर जाता है, तो आलसी
हो जाता है—हो
ही जाएगा।
क्योंकि वह हर
चीज के लिए
प्रार्थना
करने लगता है।
जब परम
अनुभूतियों
के लिए
प्रार्थना की
जा सकती है तो
फिर छोटी—मोटी
चीजों के लिए
क्यों नहीं कर
लेनी! जब
परमात्मा
अंधकार को
मिटाकर और
प्रकाश दे
सकता है, असत्य
को हटाकर और
सत्य दे सकता
है, मृत्यु
को हटाकर अमृत
दे सकता है, तो क्या
गरीबी मिटाकर
अमीरी नहीं दे
सकेगा? बेकारी
मिटाकर
कारबार नहीं
दे सकेगा? जरूर
दे सकेगा। ये
तो छोटी—मोटी
बातें हैं। ये
तो परमात्मा
के नौकर—चाकर
देवी—देवता कर
देंगे। यह तो
काली माई और
दुर्गा माई और
संतोषी मइथ्या
और ढांढन सती—यह
तो कोई भी कर
देगा। यह तो
नौकर—चाकर, नौकर—चाकरों
के नौकर—चाकर
कर देंगे। ये
छोटे—मोटे
काम! और भी
छोटे—मोटे
करने हों, बुरे
काम करवाने
हों, तो
भूत—प्रेत हैं,
वे कर देंगे।
किसी की जेब
कटवानी है, किसी को जहर
दिलवाना, किसी
की गर्दन
कटवानी है।
मगर कोई कर
देगा! हमें
नहीं करना है।
प्रार्थना
में एक
बुनियादी भूल
है कि यह टालती
है दूसरे पर।
और इसका
स्वाभाविक
परिणाम आलस्य
होता है।
मौसम
था बरसात का, भादौ आधी
रात,
आश्रम
श्रम से दूर
था, सुनो
वहा की बात।
सुनो
वहां की बात, जलेबी—दूध—पराठे,
खा—पी
करके गुरु ले
रहे थे
खर्राटे।
आंख
खुली तो चेले
को आवाज लगाई,
क्यों
रे छोरे!
बिजली अब तक
नहीं बुझाई?
चेला
अड़ियल आलसी, गुरु
अजगरानंद,
कहने
लगा कि
मान्यवर, आंखें कर लो
बंद।
आंखें
कर लो बंद, समस्या
स्वयं
सुलझेगी,
मुंह
ढंककर सो जाओ, समझ लो
बत्ती बुझेगी।
बोले
गुरु, यह
तो बतला आलस
के चरखा,
बंद हो
गयी है या अभी
हो रही है
बरखा?
गुरु
जी बाहर से आई
है अपनी
बिल्ली
हाथ
फेरकर देखो, सूखी है
या गिल्ली?
गिल्ली
है तो जानिए, चालू है
बरसात,
सूखी
है तो बंद है, खत्म हो
गयी बात।
खत्म
हो गयी बात? न आती
तुझको लज्जा
टाल
रहा हर काम, बंद कर दे
दरवज्जा।
दो
मैंने कर दिये
कार्य अब सोने
दीजे,
काम
तीसरा, भगवान आप
स्वयं कर लीजे।
यह
होनेवाला है।
यह स्वाभाविक
है। जहां
प्रार्थना
प्रमुख हो
जाएगी वहां
अंतिम परिणाम
आलस्य होगा।
लोग भिखमंगे
हो जाएंगे।
भारत की पूरी
मनोदशा
भिखमंगे की हो
गयी है। जब
मांगने से मिल
जाए, तो
करना क्यूं? इसलिए
मंदिरों में
सिर पटको, कब्रों
पर मनौतियां
मनाओ, पीरों
की प्रार्थना
करो—और आशा
रखो कि सब हो
जाएगा। जब
उसकी मर्जी
होगी तब होगा।
अपने किये तो
कुछ होता नहीं।
उसकी मर्जी के
बिना तो पत्ता
नहीं हिलता, यह
प्रार्थना
करनेवाले लोग
समझते रहे, समझाते रहे।
सो ये पत्ता
भी नहीं
हिलाते। ये
खुद ही नहीं
हिलते।
इसका
स्वाभाविक
परिणाम हुआ कि
सारा देश गहन
आलस्य में, तंद्रा
में, निद्रा
में डूब गया।
इसका परिणाम
हुआ. गरीबी, दरिद्रता, दीनता। फिर
हम गरीबी, दरिद्रता
और दीनता के
लिए नये—नये
तर्काभास
खोजने लगे।
पहले हमने
तर्काभास
खोजा कि गरीब
वे ही लोग हैं,
जिन्होंने
पिछले जन्मों
में दुष्कर्म
किये थे। अमीर
वे लोग हैं, जिन्होंने
पिछले जन्मों
में पुण्यकर्म
किये थे। यूं
अपने को
समझाने लगे, सांत्वना
देने लगे।
फिर
महात्मा
गांधी आए और
उन्होंने कहां
कि गरीब? कोई छोटी—मोटी
बात नहीं! यह
तो
दरिद्रनारायण
है। तो
दरिद्रनारायण
की तो पूजा
करनी चाहिए।
उसके तो पैर
धोने चाहिए।
तो वर्ष में
एक दिन
महात्मा
गांधी किसी
दरिद्र के पैर
धो देते थे—औपचारिक,
वर्ष में एक
दिन। जैसे
वृक्षारोपण
समारोह होता
है! आज लग जाते हैं
वृक्ष, कल
नदारद हो जाते
हैं। आज यहां
लग जाते हैं
वही वृक्ष, कल दूसरी
जगह
वृक्षारोपण
उन्हीं का हो
जाता है।
तीसरे दिन
तीसरी जगह हो
जाता है—वही
वृक्ष जगह—जगह
रोपित होते
रहते हैं।
कहीं वृक्ष
ऊगते दिखायी
पड़ते नहीं।
करोड़ों वृक्ष
रोपित हो गये
इन तीस सालों
में, पूरा
देश हरियाली
से भर गया
होता; हरियाली
कहीं दिखायी
नहीं पड़ती! सब
वैसे ही का
वैसा है। कहां
जाते हैं ये
वृक्ष, पता
नहीं! ये
वृक्ष भी क्या
करें, इनको
रोपित ही नहीं
होने दिया
जाता। आज यहां,
कल वहां, परसों वहां—ये
तो यात्रा ही
करते रहते हैं
बेचारे। जैसे
.नेता को रोज—रोज
उद्घाटन करना
पड़ता है, वृक्षों
को रोज—रोज
रोपित होना
पड़ता है।
तो एक
दिन
प्रतीकात्मक
रूप से
दरिद्रनारायण
की सेवा कर ली।
किसी कोढ़ी के
पैर दबा दिये।
फिर दरिद्र को
इज्जत देना
शुरू कर दी
हमने। कि जैसे
दरिद्र होने
में बड़ी खूबी
है! जैसे दरिद्र
होने में बड़ी
गुणवत्ता है, बड़ी
महत्ता है।
पुराना
तर्क था
लक्ष्मीनारायण
का। नया तर्क
बना
दरिद्रनारायण
का। और मजा यह
कि महात्मा
गांधी सेठ
जमनालाल बजाज
के धन से चलते, उठते, बैठते
थे। जमनालाल
बजाज ने मंदिर
बनवाया वर्धा
में।
लक्ष्मीनारायण
का मंदिर उस
मंदिर का नाम
है। मैंने
जमनालाल की
पत्नी
जानकीदेवी
बजाज को पूछा,
वे मुझे
मिलने आयी थीं
वर्धा में, मैंने कहां
कि गांधीजी के
भक्त थे, कम—से—कम
इस मंदिर का
नाम
दरिद्रनारायण
का तो रखना था;
लक्ष्मीनारायण
रखा! उन्होंने
कहां, यह
कैसे हो सकता
है, हम परम
वैष्णव! नाम
मंदिर का तो
लक्ष्मीनारायण
ही होगा।
नाम तो
मंदिर का
लक्ष्मीनारायण
हुआ—पुराना
तर्क चलता रहा।
वह पुरानी
सांत्वना थी
कि जिसके पास
धन है, वह
प्रभु का
प्यारा है, सबूत है, नहीं
तो धन क्यों
होगा उसके पास।
गांधी ने तर्क
को बदला लेकिन
सांत्वना वही
है। अब जो
दरिद्र है, वह प्रभु का
प्यारा है।
दरिद्र
इसीलिए तो
बनाया उसको।
जरूर दरिद्र
उसको ज्यादा
प्यारे हैं, तभी तो
दरिद्र
ज्यादा लोग
बनाता है। और
अमीर तो कभी—कभी
कोई बनाता है—इक्के—दुक्के,
यहां—वहां।
जिनको ज्यादा
बनाता है, साफ
है, जाहिर
है बात कि
उसको वे लोग
ज्यादा पसंद
हैं जिनको
ज्यादा बनाता
है। नहीं तो
क्यों ज्यादा
बनाए?
ये
सारे
तर्काभास
आदमी खोजता है।
मगर इनके भीतर
छिपी हुई जड़
को नहीं देखता।
ये हमारी
मांगने की
वृत्ति का
परिणाम है। ये
हमारे आलस्य
का फल है।
सारी दुनिया
धनी होती चली
गयी, हम
गरीब होते चले
गये।
मेरा
जोर
प्रार्थना पर
नहीं है। मेरा
जोर ध्यान पर
है। फर्क समझ
लेना!
प्रार्थना
कहती है : ऐसा
कर दो, प्रभु!
ध्यान अपने
भीतर खोजता है
कि कैसा है।
और ध्यानी
पाता है कि
अंधकार तो है
ही नहीं, प्रार्थना
क्या करनी है!
जाओ भीतर और
देखो, आलोक
ही आलोक है।
क्या
प्रार्थना
में समय गंवा
रहे हो! तमसो
मा ज्योतिर्गमय।
किस तमस से और
किस ज्योति की
तरफ जाने की
बात कर रहे हो! नहीं
भीतर गये, मालूम
होता। नहीं तो
तुमने अंधकार
पाया ही नहीं
होता। ज्योति
ही ज्योति है।
फिर अगर
ज्योति के बाद
ही तुम्हारे
भीतर से धन्यवाद
का स्वर निकले,
अगर
तुम्हारी
प्रार्थना
मांग न हो, धन्यवाद
हो, तो फिर
धन्यवाद का
रूप दूसरा
होता। वह रूप
यह होता—अगर
धन्यवाद ही
देना होता और
प्रार्थना की
ही भाषा का
उपयोग करना
होता, तो
वह रूप ऐसा
होता कि हे
प्रभु, मुझे
प्रकाश से और
प्रकाश की तरफ
ले चल! यूं फूल
तैराया जा
सकता है।
अंधकार की बात
ही क्यों
छेड्नी! असत्य
से सत्य की
तरफ ले चल, ये
बात क्यों
छेड़नी, सत्य
से और बड़े
सत्य की तरफ
ले चल! मृत्यु
से अमृत की
तरफ ले चल, ये
बात क्यूं
छेड़नी, मृत्यु
है ही नहीं, मृत्यु झूठ
है। जिसको
लगता है कि
मृत्यु है, उसने अभी
कुछ जाना ही
नहीं। जिसने
भीतर झांका, उसने पाया
अमृत ही अमृत
है। न तुम कभी
जन्मे, न
तुम कभी मरे।
ध्यान में यही
तो उद्घाटन
होता है।
असत्य है ही
नहीं, सत्य
ही सत्य है।
फिर भी
अगर
प्रार्थना
में ही बांधना
हो इस अनुभव
को, अगर
तुम्हें
प्रार्थना का
स्वर ही
प्यारा हो, तो फिर यूं
प्रार्थना
करो : कि
प्रकाश से और
प्रकाश की तरफ
ले चल। सत्य
से और सत्य की
तरफ ले चल।
अमृत से और
अमृत की तरफ
ले चल। पूर्ण
से और पूर्णतर
की तरफ, पूर्णतर
से पूर्णतम की
तरफ!
लेकिन
यह जोड़ तभी
संभव है जब ध्यान
घटे!
उपनिषद्
प्रार्थना के
शास्त्र हैं।
उनमें अद्भुत
काव्य है।
लेकिन मेरी
रुझान
प्रार्थना की
तरफ नहीं है।
क्योंकि
प्रार्थना
में एक
बुनियादी बात
मानकर चलनी
पड़ती है कि
परमात्मा है।
और मैं नहीं
चाहता कि तुम
कुछ भी मानकर
चलो। क्योंकि
मानकर चलने का
अर्थ हुआ कि
तुमने बिना
जाने कोई बात
मान ली। तुम
अंधविश्वासी
हो गये। और
अंधविश्वासी
कैसे सत्य को
जान सकेगा? उसने तो
निष्कर्ष ले
ही लिया।
निष्कर्ष
किस आधार पर
लिया? किस
बुनियाद पर
लिया?
दूसरों
से सुनकर ले
लिया। औरों ने
कहां, इसलिए
ले लिया। अब
और ठीक कहते
थे या गलत, यह
क्या पता! और
और तो हजार
तरह की बातें
कहते हैं।
हिन्दू एक बात
कहते हैं, मुसलमान
दूसरी बात
कहते हैं, जैन
तीसरी बात
कहते हैं, बौद्ध
चौथी बात कहते
हैं, किसकी
मानो, किसकी
न मानो। तो
संयोगवशात्
लोग निष्कर्ष
लेते हैं।
संयोग
का अर्थ हुआ.
जिस घर में
जन्म हो गया।
अगर तुम भारत
में पैदा हुए
तो धार्मिक हो, मंदिर
जाते हो, घंटी
बजाते हो, आरती
उतारते हो।
अगर रूस में
होते, तो
अधार्मिक
होते, नास्तिक
होते। हिन्दू
बच्चे को
मुसलमान घर
में पालो, कभी
मंदिर नहीं
जाएगा बड़ा
होकर। कोई खून
में थोड़े ही
हिन्दू धर्म
होता है; न
मुसलमान धर्म
होता है।
हड्डियों में
थोड़े ही कोई
मुसलमान और
हिन्दू होता
है। कोई
डाक्टर
परीक्षा करके
तो बता दे
हड्डियों की
कि यह आदमी
ईसाई था, कि
जैन था, कि
पारसी था! ये
तो केवल बाहर
से डाले गये
संस्कार हैं।
जो सिखा दिया,
वही बच्चा
सीख लेता है।
जो सिखा दिया,
उसी को
मानकर जीने
लगता है।
एक
आदमी पागल हो
गया—दर्जी था—मगर
भगवान
चतुर्भुज का
भक्त था। कोई
अजनबी आदमी
उससे कमीज
सिलवाने गया—गांव
के लोग तो
उसके पास जाना
बंद ही कर
दिये थे।
क्योंकि
सिलवाओ कमीज, बना दे
पजामा। बटनें
आगे की न
लगाकर पीछे
लगा दे। बनवाओ
पजामा, गले
में बांधने की
सुथनी बना दे।
उलटा—सीधा कर
दे—पागल आदमी!
यह अजनबी था, आदमी बाहर
का था, यह
चला गया
बनवाने। जब
इसकी कमीज
बनकर तैयार
हुई और लेने
गया तो देखकर
बड़ा हैरान हुआ
कि उसमें चार
बांहें थीं।
उससे पूछा कि
भइथ्या, ये
चार बांहें
क्यों बनायीं?
उसने कहां,
मुझे तो..
मैं चतुर्भुज
भगवान का भक्त
हूं मुझे तो
सभी जगह
चतुर्भुज के
ही दर्शन होते
हैं।
तुम्हारी चार
बांहें नहीं
हैं? मुझे
तो चार ही
दिखायी पड़ रही
हैं। तो तुम
पहले ही कह
देते कि
तुम्हारी
कितनी बांहें
हैं, उतनी
बना देता। तुम
बोले क्यों
नहीं? तो
मुझे जैसा
दिखायी पड़ता
है वैसा मैंने
बना दिया।
अब कोई
चतुर्भुज
भगवान को
माननेवाला है।
कोई अर्ध—नारीश्वर
को माननेवाला
है कि आधे
भगवान नारी, आधे नर।
कोई नरसिंह
भगवान को
माननेवाला है
कि आधे पुरुष
और आधे सिंह।
फिर क्या—क्या
मान्यताएं
हैं! क्या—क्या
धारणाएं हैं!
जो जिसको समझा
दिया। दूसरे
हंसेंगे।
क्योंकि
दूसरों की
धारणाएं और
हैं। तुम उनकी
धारणाओं पर
हंसोगे। ईसाई
हिन्दुओं पर
हंसते हैं, हिन्दू
ईसाइयों पर
हंसते हैं, मुसलमान
जैनियों पर
हंसते हैं, जैनी
बौद्धों पर
हंसते हैं—सारी
दुनिया एक—दूसरे
पर हंसती है।
समझदार अपने
पर हंसता है।
वह यह देखता
है कि मेरी
धारणाएं भी तो
इतनी ही बचकानी
हैं।
प्रार्थना
में एक
बुनियादी भूल
है कि तुम्हें
परमात्मा
मानकर चलना
होगा। नहीं तो
प्रार्थना
किससे करोगे? कैसे
करोगे, प्रार्थना
शुरू कैसे
होगी? प्रार्थना
की आधारशिला
अंधविश्वास
है। इसलिए मैं
प्रार्थना का
पक्षपाती
नहीं हूं।
ध्यान
की एक खूबी है, उसकी एक
वैज्ञानिकता
है। ध्यान
कहता है, कुछ
भी मानने की
आवश्यकता
नहीं है।
नास्तिक भी
ध्यान कर सकता
है, यह
उसकी गरिमा है।
नास्तिक को भी
ध्यान यह नहीं
कहता कि तुम
आस्तिक हो जाओ,
फिर ध्यान
करना। मेरे
पास नास्तिक
आते हैं, वे
कहते हैं, हम
ध्यान कर सकते
हैं? हम
नास्तिक हैं!
मैं कहता हूं
ध्यान पूछता
ही नहीं कि
तुम आस्तिक हो
कि नास्तिक हो।
ध्यान तो एक
वैज्ञानिक
विधि है, शांत
होने की। अब
नास्तिक को
शांत होना है
तो नास्तिक
शात हो सकता
है। मौन होने
की कला ही
ध्यान है। अब
नास्तिक को
मौन होना है
तो नास्तिक
मौन हो सकता
है।
आस्तिक
और नास्तिक
में फर्क क्या
है? इसके
भीतर आस्तिक
बकवास चल रही
है, उसके
भीतर नास्तिक
बकवास चल रही
है। ध्यान
कहता है, कोई
बकवास नहीं
चलनी चाहिए।
ध्यान कहता है,
भीतर कोई
विचार नहीं
चलना चाहिए—न
आस्तिक, न
नास्तिक।
हिन्दू करे, मुसलमान करे,
ईसाई करे, पारसी करे, कोई भी
ध्यान करे।
ध्यान की एक
अद्भुत महिमा
है। और वह यह
कि न
संप्रदायों
की कोई जरूरत
है, न
विश्वासों की
कोई जरूरत है,
न
मान्यताओं की
कोई जरूरत है,
न
संस्कारों की
कोई जरूरत है;
एक
वैज्ञानिक
प्रयोग है, जो कोई भी
पूर्वापेक्षा
नहीं करता कि
पहले तुम्हें
यह मानना पड़ेगा।
जो कहता है, तुम जैसे हो,
बस ऐसे ही
शात हो सकते
हो। और शांत
होने के बाद
जानने का
उद्घाटन होता
है, पर्दे
उठते हैं। जो
शात हुआ उसने
जाना, जो
मौन हुआ उसने
पहचाना।
जरूर
परमात्मा
जाना जाता है, लेकिन
मानो क्यों? जो जाना जा
सकता है, उसे
कभी मानना ही
मत। क्योंकि
मान लिया तो
फिर जान न
सकोगे।
माननेवाला
अभागा है।
सौभाग्यशाली
तो जाननेवाला
है। मुक्ति तो
जानने से होगी।
इसलिए
मैं तो कहूंगा
जानो! और
जानोगे, जागोगे अपने
भीतर तो पाओगे
अंधकार नहीं
है, असत्य
नहीं है, मृत्यु
नहीं है। यह
प्रार्थना
करने की
गुंजाइश ही
गयी। सत्य ही
है, आलोक
ही है, अमृत
ही है। फिर
तुम्हारी मौज
में आए और
गाना हो गीत, गुनगुनाना
हो तो मैं मना
नहीं करता।
मैं कौन हूं
किसी को मना
करूं! तुम्हें
नाचना हो
जानने के बाद,
गीत गाना हो
तो गाना, मगर
तब तुम्हारे
गीत का यह भाव
नहीं हो सकता
कि मुझे
अंधकार से
आलोक की तरफ
ले चल। तब यही
भाव हो सकता
है कि आलोक तो
है ही, हे
मेरे प्रभु, और आलोक की
तरफ ले चल! कौन
जाने, इतना
आलोक है तो और
भी आलोक हो! तब
तुम्हारी प्रार्थना
में भी एक
सत्य होगा, एक अंधी
धारणा नहीं।
एक अनुभव होगा,
एक प्रतीति
होगी। इतना—सा
फूल अगर आज्ञा
दो तो
तुम्हारे दूध
से भरे पात्र
में तैराना
चाहता हूं।
तुम्हारा
पात्र दूध से
भरा है, यानी
प्रार्थना से।
मैं ध्यान का
फूल उसमें
तैरा देना
चाहता हूं। यह
फूल तैर जाए
तो तुम्हारे
जीवन में चार
चांद जुड़ सकते
हैं।
लेकिन
मेरी बात को
समझने की
कोशिश करना, नरेन्द्र
बोधिसत्व!
अकसर खतरा हो
जाता है, मेरी
बात को समझने
में अकसर चूक
हो जाती है।
क्योंकि जो
मैं तुमसे
कहता हूं वह
तो मेरा अनुभव
है, तुम्हारा
नहीं। तुम
सुनते हो उसे
अपनी जगह से, अपनी
धारणाओं में
डूबे हुए।
तुम्हारी
धारणाओं को चोट
लग सकती है।
मेरी मजबूरी
है। मैं असहाय
हूं। चोट करना
नहीं चाहता, तुम्हें दुख
देना नहीं
चाहता, लेकिन
दुख हो सकता
है। दुख इसलिए
हो सकता है कि
तुम एक गलत
जीवनदृष्टि
को पकड़कर अगर
चल रहे हो, तो
तिलमिलाओगे; तो तुम्हें
बेचैनी हो
जाएगी; तुम
कुछ का कुछ
समझ लोगे।
मैं
उपनिषद् के
विरोध में
नहीं बोल रहा
हूं। उपनिषद्
से मुझे प्रेम
है। लेकिन
उपनिषद् के भी
पार और जगत है।
और भी आसमान
हैं, और
भी उड़ानें हैं।
और मैं चाहता
हूं कि जब
उड़ने ही निकले
हो, तो
किसी सीमा को
मत बांधना। न
उपनिषद् की, न वेद की, न
कुरान की, न
बाइबिल की। मानना
ही मत सीमाओं
को। जब उड़ने
ही चले हो, तो
पंखों को पूरी
स्वतंत्रता
देना।
दिल्ली
की घटना है।
एक आदमी रिक्शेवाले
से बोला, 'क्यों भाई, लाल किले का
क्या लोगे?'
रिक्शेवाला
बोला, 'लाल
किला क्या
मेरे बाप का
है?'
क्या
कहो और लोग
क्या समझ लें!
दो
अफीमची बैठे
थे। पीनक में
थे.. और यहां
कौन पीनक में
नहीं है! तरह—तरह
की अफीमें हैं।
कार्ल
मार्क्स ने तो
कहां ही है कि
तुम्हारा
तथाकथित धर्म
अफीम का नशा है।
और मैं उससे
निन्यान्नबे
प्रतिशत राजी
हूं निन्यान्नबे
प्रतिशत ही
लेकिन। जहां
तक भीड़ के
धर्म का संबंध
है, वह
तो अफीम का
नशा है ही। वह
तुम्हें
सुलाए रखता है।
लेकिन कार्ल
मार्क्स की
बात सौ
प्रतिशत सत्य नहीं
है। क्योंकि
उसे बुद्धों
के धर्म का
कोई पता नहीं
है। नहीं तो
वह बात बेशर्त
नहीं कह सकता
था। उसने
बेशर्त घोषणा
कर दी। उसने
तो यूं कह
दिया कि सभी
धर्म अफीम के
नशे हैं। धर्म
मात्र अफीम का
नशा है। वैसा
मैं नहीं
कहूंगा। धर्म
है तो अफीम का
नशा, लेकिन
तुम्हारा
धर्म, मेरा
नहीं।
…. वे
दो अफीमची
बैठे थे। पूरे
चांद की रात!
एक अफीमची ने कहां,
'अहा, क्या
प्यारा चांद
है! दिल होता
है खरीद ही
लूं। आज अगर
कोई लाख रुपये
भी मांगे तो
देने को राजी
हूं। है कोई
बेचनहार! '——दी
उसने जोर से
आवाज।
दूसरा
अफीमची
खिलखिलाकर
हंसा और उसने कहां, 'अरे, बकवास
बंद कर, अपनी
हैसियत का
खयाल कर। तेरी
क्या, तेरे
बाप की भी
हैसियत नहीं
कि चांद खरीद
ले!'
उसने कहां, 'क्या कहां?
जरा संभलकर
बोलना। आज सब
दांव पर लगा
दूंगा।’
'अरे!'
दूसरे ने कहां—'तू कितना भी
दांव पर लगा
दे, हमें
बेचना ही
नहीं! तू सारी
दुनिया दाव पर
लगा दे, मगर
जब बेचना ही
नहीं हमें तो
कोई खरीदेगा
कैसे?'
तुम्हारी
मान्यताओं का
लोक तुम्हारी
कल्पनाओं का
लोक है। पीनक
ही बातें हैं।
तुम्हें अपना
पता नहीं और
तुम ईश्वर की
बातें करते
हो! तुम्हें
अपना पता नहीं; अपना
ठिकाना नहीं
तुम्हें; तुम
कौन हो, इसका
उत्तर नहीं दे
सकते; और
तुम मोक्ष और
निर्वाण और
परलोक की
बातें करते
हो! और
तुम्हें शर्म
भी नहीं आती, संकोच भी
नहीं लगता? तो फिर मेरी
बातें सुनकर
तुम्हें चोट
लग सकती
कहां
पाव धरे हम,
किसे
याद करें हम,
यह
अजानी डगर है,
अजनबी —
सा शहर है।
सभी ओर
अंधेरे के
उभरते
हुए चेहरे,
इधर
सांप की
फुफकार
उधर
भूत के पहरे।
यहां
रात के
तहखानों में
मुर्दों
का सफर है।
अजनबी —
सा शहर है।
यहां
शक्सें सभी
बर्फ की
परतों
में जमी — सी,
कमरों
के पिरामिड
में
बंद
देह ममी — सी।
आंखों
में बंद नींद
की
टिकिया
है, जहर
है।
अजनबी —
सा शहर है।
सभी ओर
घूमती हैं
कबंधों
की जमातें,
जिंदों
को घेर करके
प्रेत
जश्न मनाते।
इधर
जिंदगी की चीख
उधर
मौत का घर है।
अजनबी —
सा शहर है।
यहां
सर्द कैदखाने —
सी
हर बंद
गली है,
सड़कें
लहूलुहान हैं
दीवारें
जली हैं
हर बात
यहां एक
हादसे
की खबर है।
अजनबी —
सा शहर है।
अपना
पता नहीं, औरों का
पता नहीं, सब
अजनबी—सा है, सब अपरिचित
है और तुम चले
जाते हो, चलते
चले जाते हो—भीड़
में, धक्कमधुक्की
में, एक—दूसरे
की नकल करते
हुए।
तुम्हारे
पिता ने तुमसे
कह दिया ईश्वर
है, उनके
पिता उनसे कह
गये कि ईश्वर
है और उनके पिता
उनसे कह गये।
इनमें से शायद
किसी को भी
पता नहीं।
शायद हजारों
साल पीछे किसी
को पता रहा हो,
तो रहा हो!
वह भी कुछ
पक्का नहीं है,
बात बिलकुल
सुनी हो सकती
है। यहां तो
चिंदी के सांप
बन जाते हैं।
यहां तो खबरों
को पंख लग
जाते हैं।
यहां तो बात
फैलती ही चली
जाती है, बड़ी
होती चली जाती
है। और फिर
लोग उस पर जी—जान
से लड़ने को
तैयार हो जाते
हैं।
नकल से
मत जीना।
प्रार्थना
में वही खतरा
है। उसमें नकल
है। ध्यान में
खतरा नहीं है।
उसमें नकल
नहीं है।
ध्यान में
तुम्हें अपने
भीतर जाना है, प्रार्थना
में किसी के
पीछे जाना है।
और नकल से कभी
काम होता नहीं।
सिखाये पूत
दरवाजे चढ़ते
नहीं, दीवारें
लांघते नहीं।
मैंने
सुना है, दो आदमी एक
जेलखाने में
बंद थे। एक था
मारवाड़ी
चंदूलाल... आ
गया था गिरफ्त
में! की होगी
तस्करी
वगैरह... और
दूसरे थे सरदार
विचित्तर
सिंह। दोनों
सोचते—विचारते,
कैसे निकल
भागें? एक
रात मौका हाथ
लग गया। होली
की रात थी; पहरेदार
डटकर भांग छान
गया था। सो
उन्होंने कहां
आज मौका है, आज निकल
भागें; आज
पहरेदार नशे
में है।
पहले
चंदूलाल निकले।
जब चंदूलाल
सरककर दरवाजे
के पास से
निकलने लगे, तो यू तो
पहरेदार भंग
के नशे में था,
मगर
जिंदगीभर की
पहरेदारी की
आदत, सो
नशे में भी
बोला : कौन है? चंदूलाल तो
पक्के
मारवाड़ी, होशियार
आदमी, बोले.
म्याऊं, म्याऊं।
पहरेदार ने कहां,
भाड़ में जा!
अपनी मस्ती
में बैठा था, कहां की
बिल्ली आ गयी
और!
सरदार
विचित्तर
सिंह ने सुना, उन्होंने
कहां, वाह,
गजब का
चंदूलाल है!
निकल गया
पट्ठा!
सरदार
विचित्तर
सिंह भी निकले।
फिर उस
पहरेदार ने
पूछा : कौन है? सरदार
विचित्तर
सिंह ने कहां :
अरे, अभी
वह मारवाड़ी
बिल्ली गयी, मैं पंजाबी
बिल्ला हूं—नाम
सरदार
विचित्तर
सिंह।
पकड़े
गये। फौरन
पकड़े गये।
जब
मजिस्ट्रेट
ने पूछा कि
तुम यह क्या
बकवास कर रहे
थे, उन्होंने
कहां, वह
चंदूलाल भाग
गया और उस
हरामजादे ने
भी सिर्फ
म्याऊं—म्याऊं
कहां था! और
मैंने तो पूरा—पूरा
उत्तर दिया था
कि मैं पंजाबी
बिल्ला हूं सरदार
विचित्तर
सिंह मेरा नाम
है और फिर भीं पकड़ा
गया। मेरी तो
राज समझ में
नहीं आता!
नकल
में अकसर यह
भूल होनेवाली
है। कुछ का
कुछ हो जाएगा।
तोतों
की तरह लोग
दोहरा रहे हैं।
यह उपनिषद् की
प्रार्थना
कितनी दोहराई
जाती है। मगर
जो दोहराते
हैं, उनका
अंधकार मिटते
दिखता है? कहीं
दीये जलते
दिखते हैं? कहीं
दीपावली होती
दिखती है उनके
जीवन में? —वही
अंधकार, वही
का वही
अंधकार!
एक
हिन्दू
संन्यासी, स्वामी
दिव्यानंद, मैं जब छोटा
बच्चा था तो
मेरे घर
मेहमान हुए थे।
मेरे पिता से
उनकी काफी
बनती थी, तो
कई बार आकर
रुकते थे। वे
इस प्रार्थना
को रोज करते
थे। सो जब भी
आते—साल में
एक—दो बार
जरूर आते और
महीने—पंद्रह
दिन रुकते—रोज
नियम से वे इस
प्रार्थना को
करते। और मेरे
जिम्मे यह काम
था कि उनको
सुबह से घुमाने
ले जाऊं। सो
वे रास्तेभर
इस प्रार्थना
को करते रहते
थे। एक साल
मैंने सुना, दूसरी साल
मैंने सुना, तीसरी साल
मैंने सुना, जब चौथी साल
वे फिर आए और
फिर यही
प्रार्थना करने
लगे तो मैंने कहां
कि मामला कब
तक चलेगा? अभी
तक आलोक हुआ
नहीं? उसने
सुनी नहीं? अभी भी वही
बकवास जारी है?
आखिर तीन
साल से तो मैं
सुन रहा हूं
और कम से कम तीस
साल से आप
पहले से कर
रहे होंगे। कब
तक यह करते
रहोगे
प्रार्थना कि
ले चल अंधकार
से प्रकाश की
ओर? न वह
सुनता है, न
आपकी अकल में
यह आता है कि
तीस साल निकल
गये अभी तक
सुना नहीं, अब क्या खाक
सुनेगा! या तो
वज बहरा है, जैसा कि
कबीर ने कहां
कि क्या बहरा
हुआ खुदाय? अरे, यूं
चिल्ला रहा है,
इतने जोर से
चिल्ला रहा
है! चिल्लाता
है न मुल्ला, अजान देता
है सुबह से।
पकड़ लिया होगा
किसी मुल्ला
को और कहां
होगा कि क्यूं
चिल्लाता है
इतने जोर से, क्या तेरा
खुदा बहरा है?
और इतने जोर
से भी
चिल्लाएगा तो
भी क्या खुदा सुन
लेगा?
मैंने कहां, तीस साल
हो गये, कब
तुम्हें समझ
आएगी? अपना
दीया खुद
क्यों नहीं
जलाते? तुम्हारी
हालत तो यूं
है कि लालटेन
लिए बैठे हैं
और बस
प्रार्थना कर
रहे हैं, कि
हे प्रभु, जला
दे। तीस साल
हो गये, अब
तक नहीं जलाई,
जाहिर है कि
उसे तुम्हारी
लालटेन जलाने
में कोई रस
नहीं है।
उन्होंने कहां,
देखो जी, तुम मेरी
प्रार्थना
में गड़बड़ नहीं
कर सकते।
मैंने कहां, मैं, तीन
साल हो गया
सुनते, जब
मैं घबड़ा गया
तो परमात्मा
की तो सोचो!
तीस साल से
तुम्हारी सुन
रहा है और तीन
हजार साल से भारतीयों
की सुन रहा है,
उसकी खोपड़ी
भनभना गयी
होगी। और तुम
क्या करोगे? जब भी वह
तुम्हारी
लालटेन
जलाएगा! तुम
भी कुछ करोगे
कि नहीं? फिर
मैंने कहां, लालटेन कहां
है, यह भी
तो देखूं!
वे तो
मेरे पिता से
कहे कि मैं
इसको साथ नहीं
ले जा सकता, यह मेरी
प्रार्थना
में दखलंदाजी
करता है। मैं
तो सुबह—सुबह
जाता ही
इसीलिए हूं कि
एकांत में, मौन से, शांति
से, सुबह
के
ब्रह्ममुहूर्त
में अपनी
प्रार्थना दोहराऊं।
ये ऐसे उलटे—सीधे
सवाल करने
लगा! ये मुझसे
कहता है कि
आपकी लालटेन
कहां है जिसको
आप जलवाना
चाहते हैं? कि मैं जला
दूं यह मुझसे
कह रहा था। अब
नहीं जलाता
परमात्मा तो
छोड़ो, मैं
जला देता हूं।
और तुम
को अभी भी
भरोसा है कि
तुम मरोगे, जो तुम
अमृत की
प्रार्थना
कॅर रहे हो? फिर क्या
खाक जाना! फिर
जरा—सी भी
पहचान नहीं, जरा—सा भी
स्वाद नहीं
चखा आपने जीवन
का, नहीं
तो कहीं कोई
जन्मता है या
मरता है! न
जन्मे हो, न
मरोगे। इस देह
के पहले भी
तुम थे, इस
देह के बाद भी तुम
रहोगे। तुम
शाश्वत हो।
उन्होंने
मुझे ले जाना
बंद कर दिया
मगर प्रार्थना
उन्होंने
जारी रखी। वे
किसी और को ले
जाने लगे।
मैंने उससे
पूछा कि भई, तुम्हें
ले जाने लगे
हैं, प्रार्थना
कौन—सी करते
हैं? अगर
वही
प्रार्थना
करते हों तो
तुम दखलंदाजी दे
देना अगर बचना
हो। नहीं तो
रोज ले जाना
पड़ेगा। तीन
साल से मैं
परेशान रहा।
मैंने
दखलंदाजी की
कि छुट्टी
मिली।
प्रार्थना
से नहीं कुछ
हो सकता है।
प्रार्थना पर
खड़ी हुई धर्म
की पूरी धारणा
ही बचकानी है।
मांगने की बात
नहीं, जीने
की बात है।
जिओ तो पा
सकोगे। खोजो
तो पा सकोगे।
यूं आलस्य से
न चलेगा।
ये
शब्द तो
प्यारे हैं।
मगर शब्द
कितने ही
प्यारे हों, शब्दों
से क्या हो
सकता है? इनमें
अनुभव का अर्थ
चाहिए। और
अनुभव का अर्थ
कौन डालेगा? वह तुम ही
डाल सकते हो।
उपनिषद्
मुर्दा हैं, जब तक तुम
उनमें प्राण न
फूको...! तुम
प्राण फूको तो
तुम्हारे भीतर
का उपनिषद्
बोलने लगता है।
और जब
तुम्हारे
भीतर की कोयल
कुहू—कुहू
करती है, और
तुम्हारे
भीतर का पपीहा
पिहा—पिहा
पुकारता है, तब मजा है, तब रस है; रसौ
वै सः, तब
तुम्हें
अनुभव होगा कि
परमात्मा का
क्या स्वरूप
है!
आज इतना
ही।
'साहब मिल
साहेब भये' प्रवचनमाला
से
दिनांक
14 जुलाई 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
thank you guruji
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