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बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--34)

धर्म का गहन तत्‍व(प्रवचनचौतीसवां)

प्यारे ओशो!
श्रुति: विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना,
न एको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्
महाजनो येन गत: स पन्‍था:।।
अर्थात् श्रुतियां विभिन्न हैं, स्मृतियां भी भिन्न हैं और एक भी
मुनि के वचन प्रमाण नहीं हैं। धर्म का तत्व तो गहन है। इसलिए उसे
जानने के लिए तो महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं, वही केवल मार्ग है।
प्यारे ओशो! महाजन की पहचान क्या है? उनके मार्ग पर
चलने का अर्थ क्या है? समझाने की अनुकंपा करें।
नंद किरण! यह सूत्र अत्यन्त सारगर्भित है।

श्रुति: विभिन्ना शास्त्र दो प्रकार के हैं—एक श्रुति और एक स्मृति। श्रुति का अर्थ होता है, प्रबुद्ध पुरुष से सीधा—सीधा सुना गया। जिन्होंने गौतम बुद्ध के पास बैठकर सुना और उसे संकलित किया, वह श्रुति। जो महावीर के पास उठे—बैठे, जिन्होंने कबीर का सत्संग किया; जीवंत गुरु के पास जिन्होंने प्रेम के सेतु बनाए; जिन्होंने समर्पण किया—और सुना; जिन्होंने अपने को बाद दी—और सुना; जिन्होंने अपनी बुद्धि को एक तरफ रख दिया हटाकर—और सुना; जिन्होंने स्वयं के तर्क को बाधा न देनी दी, स्वयं की जानकारियों को बीच में न आने दिया—और सुना; इस तरह जो शास्त्र संकलित हुए, वे हैं श्रुतियां। लेकिन फिर श्रुतियों को सुनकर जिन्होंने समझा, जैसे बुद्ध को आनंद ने सुना और बुद्ध के वचन संकलित किए... इसलिए सारे बुद्ध—शास्त्र इस वचन से शुरू होते हैं : 'मैंने ऐसा सुना है।आनंद यह नहीं कहता कि मैं ऐसा जानता हूं इतना ही—कहता है कि मैंने ऐसा सुना है। पता नहीं ठीक भी हो, ठीक न भी हो। पता नहीं मैंने कुछ बाधादे दी हो। मेरे विचार की कोई तरंग आड़े आ गयी हो। पता नहीं मेरा मन धुंधवा गया हो। मेरी आंखों में जमी धूल कुछ का कुछ दिखा गयी हो। मैंने कोई और अर्थ निकाल लिए हों, कि अर्थ का अनर्थ हो गया हो। इसलिए पता नहीं बुद्ध ने क्या कहां था; इतना ही मुझे पता है कि ऐसा मैंने सुना था।
यह बड़े ईमानदारी का वचन है कि मैंने ऐसा सुना है। नहीं कि बुद्ध ने ऐसा कहां है। बुद्ध ने क्या कहां था, यह तो बुद्ध जानें, या कभी कोई बुद्ध होगा तो जानेगा। लेकिन फिर आनंद ने जो संकलित किया, आज उसे भी ढाई हजार वर्ष हो गये। उसको लोग पढ़ रहे हैं, गुन रहे, मनन कर रहे हैं, चिंतन कर रहे हैं, उस पर व्याख्याएं कर रहे हैं। ये जो शास्त्र निर्मित होते हैं, ये स्मृतियां।
ये तो जैसे कि कोई आकाश का चांद झील में अपना प्रतिबिम्ब बनाए और तुम झील को भी दर्पण में देखो तो तुम्हारे दर्पण में भी चांद का प्रतिबिम्ब बने—प्रतिबिम्ब का प्रतिबिम्ब। श्रुति तो ऐसे है जैसे चांद झील में छा गया और स्मृति ऐसे है जैसे झील की तस्वीर उतारी, कि झील को दर्पण में बांधा। स्मृति दूर की ध्वनि है, और दूर हो गयी। श्रुति भी दूर है, पर बहुत दूर नहीं; कम से कम गुरु और शिष्य के बीच सीधा—सीधा संबंध है। कुछ तो बात पते की कान में पड़ ही गयी होगी। सौ बातों में एक बात तो सार की पकड़ में आ ही गयी होगी। किसी संधि से, किसी द्वार से, किसी झरोखे से कोई किरण तो उतर ही गयी होगी। लेकिन स्मृति तो बहुत दूर है—प्रतिध्वनि की प्रतिध्वनि है।
यह सूत्र कहता है : श्रुति: विभिन्न?। यूं तो सुनने में ही बात बड़ी भिन्न भिन्न हो जाती है। अब जैसे तुम मुझे यहां सुन रहे, जितने लोग सुन रहे हैं उतनी श्रुतियां हो गयीं। मैं तो जो कह रहा हूं एक ही बात कह रहा हूं। लेकिन तुम सुननेवाले तो अनेक हो, तुम्हारी अलग पृष्ठभूमि है, तुम्हारी अलग धारणा है, अलग विचार हैं। तुम अपने—अपने ढंग से सुनोगे। तुम्हारा ढंग, तुम्हारी शैली निश्चित रूप से जो तुम सुनोगे उसे प्रभावित करेगी। हिदूं एक ढंग से सुनेगा, जैन दूसरे ढंग से, बौद्ध तीसरे ढंग से। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन सौ धर्मों के कोई तीन हजार सम्प्रदाय हैं और तीन हजार सम्प्रदायों के कोई तीस हजार उप—सम्प्रदाय हैं। तुम अपनी— अपनी धारणाओं के जाल में बंधे हो। मेरी बात तुम तक पहुंचेगी, पहुंचते—पहुंचते कुछ की कुछ हो जाएगी। आस्तिक सुनेगा एक ढंग से, नास्तिक सुनेगा और ढंग से; दोनों के पास कान एक जैसे हैं, मगर कानों के भीतर बैठा हुआ मन और मन के संस्कार तो भिन्न—भिन्न हैं।
बुद्ध ने एक दिन कहां कि तुम जितने लोग हो उतने ही ढंग से मुझे सुन रहे हो, उतने ही ढंग से मेरी व्याख्या कर रहे हो। आनंद ने रात्रि उनसे पूछा कि मैं समझा नहीं। आप अकेले हैं, जो आप बोलते हैं हम वही तो सुनते हैं। अन्य कैसे हो जाएगा, भिन्न कैसे हो जाएगा?
बुद्ध ने तीन नाम दिए आनंद को और कहां 'कल इन तीनों से पूछना कि क्या सुना था। मैंने जब प्रवचन पूरा किया था और अंतिम बात कही थी...।रोज अपने प्रवचन के अंत पर बुद्ध कहते थे—' अब रात बहुत हो गयी, अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य करो।यह केवल एक संकेत था भिक्षुओं को कि अब जाओ, सोने के पहले ध्यान में उतरो और ध्यान में उतरते—उतरते ही निद्रा में लीन हो जाओ। क्योंकि सुषुप्ति में और समाधि में बहुत भेद नहीं है। सुषुप्ति मुर्च्‍छित समाधि है। समाधि जागृत सुषुप्ति है। इसलिए नींद को समाधि में बदल लेना सबसे सुगम उपाय है आत्मसाक्षात्कार का। जरा—सी बात जोड़नी है। सुषुप्ति का अर्थ है. 'जब स्‍वप्‍न भी नहीं रह जाते, ऐसी गहन निद्रा। जब सारे स्‍वप्‍न भी तिरोहित हो गये, जहां स्‍वप्‍न भी न बचे, विचार भी न बचे, वासना भी न बची, वहां मन भी न बचा, तो अ—मनी दशा हो गयी। लेकिन बेहोशी है, होश नहीं है। सन्नाटा है, गहन शाति है, प्रगाढ मौन है। लेकिन काश, एक दीया और जल जाता, जरा—सा होश और होता! काश, हम इस प्रगाढ़ शाति को देख भी लेते, पहचान भी लेते! काश, हम जागे—जागे इसका अनुभव भी कर लेते! इसलिए नींद के पहले का ध्यान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उसमें जो गहरा उतर जाए तो रातभर एक अखंडित धारा शून्य की भीतर बहती चली जाती है, ज्योति जलती रहती है। उस ज्योति में पहले सपने दिखाई पड़ते हैं, फिर सपने खो जाते हैं, फिर सुषुप्ति दिखाई पड़ती है। और जब सुषुप्ति दिखाई पड़ती है तो वही समाधि है। देखनेवाला मौजूद हो तो सुषुप्ति समाधि है।
इसलिए बुद्ध ने.. रोज—राज क्या कहना कि अब ध्यान करो, इतना ही कह देते थे प्रतीक कि अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य... अब दिवस पूरा हुआ, अब आखिरी काम कर लो और सो जाओ। उसको करते—करते ही सो जाओ।
बुद्ध ने आनंद से कहां 'कल तू तीन व्यक्तिए हैं, इनसे पूछ लेना कि उन्होंने क्या समझा जब मैंने यह वचन कहां था। वे तीनों मेरे सामने ही बैठे हुए थे और तीनों को देखकर ही मैंने समझा कि उन्होंने अलग— अलग समझा है।
आनंद ने कल उन तीनों को पकड़ा और पूछा और कहां कि बुद्ध ने ही ये नाम दिये हैं। इसलिये सच—सच कहना, मैं नहीं पूछ रहा हूं जैसे उन्होंने ही ये पुछवाया है।
थोड़ा तो संकोच हुआ उन तीनों को, लेकिन फिर जब बुद्ध ने ही पुछवाया था तो अपना हृदय उघाड़ दिया। उनमें एक था भिक्षु—गहन साधना में लीन। उसने कहां, 'और क्या समझूंगा! यही समझा कि अब जाऊं, ध्यान में डूबूं और ध्यान में डूबा—डूबा ही निद्रा में उतर जाऊं। यही समझा। यही बुद्ध ने कहां था।
दूसरे से पूछा; वह एक चोर था। उसने कहां, 'छिपाना क्या, छिपाऊं कैसे? बुद्ध स्वयं पूछते हैं तो सत्य कहना ही होगा। जब बुद्ध ने यह वचन कहां तो मुझे याद आया कि अरे रात गहरी होने लगी, मेरे काम का समय हुआ, अब जाऊं, चोरी वगैरह करके जल्दी घर लौटूं और सोऊ।और तीसरी एक वेश्या थी। और जब आनंद ने उससे पूछा तो वह बहुत सकुचायी, बहुत लजायी। बड़ी प्रसिद्ध वेश्या थी—आम्रपाली, जो बाद में बुद्ध की भिक्षुणी बनी। बुद्ध की भिक्षुणी बनी, इससे जाहिर होता है कि एक प्रामाणिक स्त्री थी। सकुचायी जरूर, लेकिन फिर भी सत्य उसने कहां। उसने कहां कि छिपाना कैसे, छिपाना नहीं हो सकता। उन्होंने पूछा है तो वही कहना होगा जो मेरे भीतर हुआ था। यही हुआ कि अब जाऊं, अपने व्यवसाय में लग। मेरा व्यवसाय तो वेश्या का व्यवसाय है।
तो एक ध्यान में लगा, एक चोरी करने निकल गया, एक अपनी वेश्यागिरी में संलग्न हो गयी। और बुद्ध ने तो एक ही बात कही
श्रुति: विभिन्ना जितने सुननेवाले लोग हैं उतने ही अर्थ हो जाएंगे। स्मृतयश्च भिन्ना। और स्मृतियों का तो कहना ही क्या! वह तो मूलस्रोत से और भी बहुत दूर की बात हो गयी। मैंने तुमसे कही, तुमने किसी और से कही, उसने किसी और से कही; फिर बात का बतंगड़ हो जाता है। बात न भी हो तो बतंगड़ हो जाता है। चिंदी का सांप हो जाता है, कुछ का कुछ होने लगता है। और सदियां बीत जाती हैं और लोग स्मृतियों को पीढ़ी—दर—पीढ़ी एक दूसरे को देते चले जाते हैं और हर पीढ़ी उसमें कुछ जोड़ती चली जाती है। हर पीढ़ी उसको वैसा ही थोड़े लेती है।
एक स्त्री अपनी पड़ोसिन को... झगड़ा हो गया था दो महिलाओं का... उसकी बात बता रही थी। पड़ोसिन रस से सुन रही थी। फिर उस स्त्री ने कहां, ' अब मैं जाऊं, पति के घर आने का समय हुआ।
लेकिन पड़ोसिन ने कहां, 'कुछ और तो बताओ।
वह स्त्री बोली कि सच तो यह है कि जितना मैंने सुना उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी। अब और क्या बताना! जितना मैंने सुना उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी!
'तुम जब कुछ बात किसी से कहते हो तो कुछ तो जोड़ ही देते हो, कुछ काट ही देते हो, कुछ संवार देते हो, कुछ रंग भर देते हो अपने। तो स्मृतियां तो फिर और बहुत हो जाएंगी।
यह सूत्र अद्भुत है; श्रुति: विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना। भूतिया विभिन्न हैं, स्मृतियां भी भिन्न हैं। इसलिए श्रुतियों और स्मृतियों में अगर तुमने धर्म खोजा, कभी न पा सकोगे। सत्य खोजा, कभी न पा सकोगे। सावधान! यह सूत्र सावचेत कर रहा है। सजग रहना। शब्दों में मत उलझ जाना। शब्दों के बड़े जंगल हैं, सिद्धांतों के बड़े मरुस्थल हैं। उनमें खो गये तो लौटना मुश्किल हो जाता है। अपने ही घर लौटना मुश्किल हो जाता है।
और एक भी मुनि के वचन भी प्रमाण नहीं हैं। लेकिन कोई कहे कि चलो, नहीं शब्दों में खोएंगे, नहीं शास्त्रों में, न स्मृतियों में; न श्रुतियों में लेकिन किसी महात्मा के, किसी मुनि के वचन पर तो भरोसा कर सकते हैं; किसी जाननेवाले की बात पर तो विश्वास कर सकते हैं। सूत्र कह रहा है. यह भी नहीं, यह भी नहीं। क्योंकि विश्वास अनुभव नहीं है। तुम जिसको मान लोगे, पहले तो तुमने उसे माना क्यों? तुम्हारी धारणाएं... तुम्हारी धारणाओं में अनुकूलता आ गयी होगी, उस व्यक्ति के और तुम्हारी धारणाओं के बीच कुछ अनुकूल पड़ गया होगा। जैसे कि कोई जैन रामकृष्ण को परमहंस नहीं मान सकता; मछली खाते देखे और परमहंस माने, असंभव है। एक जैन भी रामकृष्ण के पास नहीं पहुंचा। कैसे पहुंचता!
कल ही मुझे एक जैन महिला का बड़ा लंबा पत्र मिला है। बड़ी ज्ञानी महिला होगी। सारे जैन शास्त्रों का सार निचोड़कर रख दिया है। लिखा है कि आपकी बातें बहुत प्यारी लगती हैं, लेकिन आप महावीर जैसे वीतराग पुरुष के साथ कृष्ण का, क्राइस्ट का, मुहम्मद का, बुद्ध का, इनका नाम क्यों ले देते हैं। वीतराग ही केवल भगवान है, वीतरागता ही एकमात्र कसौटी है। वीतरागता की कसौटी पर राम तो न उतरेंगे, कृष्ण तो न उतरेंगे। कृष्ण और राम की तो बात ही छोड़ दो, बुद्ध भी नहीं उतरते, क्योंकि बुद्ध भी कम से कम वस्त्रों का तो उपयोग करते हैं, भिक्षापात्र तो रखते हैं—इतना राग तो है, इतना परिग्रह तो है। महावीर दिगंबर हैं, करपात्री हैं, हाथ से ही भोजन लेते हैं, लंगोटी भी नहीं। दिगम्बरत्व वीतरागता का प्रमाण है।
तो इस स्त्री को अड़चन हो रही कि कैसे मुहम्मद का नाम लेते हो—मुहम्मद, जो कि तलवार लिए हैं; कृष्ण, जो कि सभी तरह के राजनैतिक दावपेंचों में उलझे हैं; राम, जो कि युद्ध पर निकले हैं। यह सब माया—मोह है। यह तो राग का ही जाल है।
उस बेचारी को मेरी बातें प्रीतिकर लगती हैं लेकिन अड़चन सिर्फ एक आ जाती है कि मैं महावीर के साथ कभी बुद्ध का, कभी महावीर का, कभी जरथुस्त्र का, कभी लाओत्सु का, कभी मुहम्मद का साथ—साथ उल्लेख कर देता हूं इससे ही कष्ट हो जाता है। अब अपनी धारणा के अनुकूल जो होगा, तुम उसी को तो मुनि कहोगे। तुम्हारी धारणा के जरा अनुकूल न हुआ कि मुनि न हुआ। तुम ही निर्णायक हो। तुम्हारे पास कसौटी है। फिर किसको मुनि कहो? और अड़चन इसलिए भी आ जाएगी कि प्रत्येक मुनि के वचन भिन्न हैं, प्रत्येक ने अपने ढंग से कहां, अपने रंग से कहां। प्रत्येक की अपनी अद्वितीयता है, अपनी मौलिकता है और तुम्हारे सड़े—गले ढांचों में कोई जिंदा, कोई जीवंत बुद्ध, कोई जीवंत जिन नहीं बैठ सकता। तुम्हारे ढांचे मुर्दों के आधार पर बनते हैं और तुम जिंदा लोगों को उन ढांचों पर बिठाना चाहो, यह संभव नहीं है।
फिर यह भी तो हो सकता है कि कोई कहता हो कि मैंने जाना है, लेकिन विक्षिप्त हो या बेईमान हो। क्या प्रमाण कि उसने जाना क्योंकि जाननेवालों की बात ही इतनी भिन्न है कि प्रमाण कैसे मानो? कृष्ण तो मानते हैं परमात्मा में भी, आत्मा में भी। महावीर परमात्मा में नहीं मानते, सिर्फ आत्मा में मानते हैं। और बुद्ध तो न परमात्मा में मानते, न आत्मा में मानते। फिर क्या करोगे? किस मुनि का वचन प्रमाण होगा? और एक भी मुनि का वचन प्रमाण नहीं।न एको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।
फिर वचन प्रमाण हो भी कैसे सकता है? क्योंकि सत्य विराट है और शब्द बहुत छोटे हैं। सत्य शब्दों में समाता नहीं। कहो, लाख कहो, फिर भी अनकहां रह जाता है। सत्य है आकाश जैसा और शब्द तो छोटे—छोटे घरपूले हैं। सत्य है सागर जैसा और शब्द तो छोटी—छोटी बूंदें भी नहीं। तो वचन कैसे प्रमाण होंगे? वचन प्रमाण नहीं हो सकते। सच तो यह है सत्य का सिवाय अनुभव के और कोई प्रमाण नहीं होता। और अनुभव अपना हो तो ही प्रमाण होता है। पर—अनुभव कैसे प्रमाण हो सकता है? लाख कोई सिर पटके और कहे कि मैंने परमात्मा देखा है—लेकिन तुम्हें कैसे भरोसा आए? या आदमी आत्मवचना में हो सकता है; या दूसरों को वंचना में डाल रहा हो सकता है। खुद सम्मोहित हो गया हो किसी धारणा से।
और इस तरह के लोग हैं जो कृष्ण को भजते हैं—निरंतर भजते हैं, उनको कृष्ण दिखाई पड़ने लगते हैं; उनका ही प्रक्षेपण है। उनकी ही कल्पना है। कहौ कौन कृष्ण हैं? क्राइस्ट को भजनेवाले को कृष्ण कभी प्रकट नहीं होते, उसे क्राइस्ट दिखायी पड़ते हैं। और कृष्ण के भजनेवाले को क्राइस्ट कभी दिखाई नहीं पड़ते। कभी भूल—चूक से आ भी जाएं बीच में तो कहेगा—' धत् तेरे की, हटो! कहां बीच में आ रहे हो?' नहाएगा, धोएगा, गंगा—जल से अपने को स्वच्छ करेगा। जैन विचार —सरणी के अनुसार तीर्थंकर को कांटा भी नहीं चुभ सकता है, क्योंकि उनके सारे पाप समाप्त हो गये, उनके सारे कर्म समाप्त हो गये। इसलिए तो वे तीर्थंकर हैं—कांटा भी नहीं चुभ सकता। अगर तीर्थंकर निकलते हों और रास्ते पर काटा पड़ा हो सीधा, तो उल्टा हो जाता है। तो फिर जीसस को वे कैसे मानें कि ये तीर्थंकर की कोटि के हैं, क्योंकि उनको तो सूली लग जाती है; काटा चुभना तो दूर, सूली लग जाती है। जरूर पिछले जन्मों के किसी महापाप का फल भोग रहे हैं!
लेकिन ईसाई को महावीर बिलकुल नहीं जंचते। क्या सार है कि नंग—धड़ंग खड़े हो गये? और आंखें बंद कर लीं और अपने मोक्ष की तलाश करने भी लगे, यह तो निपट स्वार्थ है। माना कि शात हो गये होओगे और माना कि प्रफुल्लित भी हुए, आनंदित भी हुए, लेकिन सेवा कहां? न अस्पताल खोला, न स्कूल चलाए, न अनाथों की सेवा की, न लूले—लगड़ों के पैर दबाए न कोढ़ियों का कोई इंतजाम किया। यह कैसा धर्म है? जीसस ने अंधों को आंखें दीं, बहरों को कान दिए, लंगड़ों को पैर दिए, बीमारों को चंगा किया, मुर्दों को जिलाया। ये लक्षण हैं। इन लक्षणों के अतिरिक्त कोई कैसे भगवत्ता को उपलब्ध माना जा सकता है?
तो ईसाइयों के हिसाब से महावीर और बुद्ध स्वार्थी हैं, निपट स्वार्थी हैं। अपने सुख की तलाश ही.. यह तो वही की वही बात हुई कि कोई अपना धन खोज रहा है, कोई अपना धर्म खोज रहा है। मगर अपना! कोई संसार में जीत जाना चाहता है, कोई मोक्ष में—मगर अपनी जीत!
अपनी विजय—पताका फहरानी है। कोई यहां जीतकर कहना चाहता है कि मैं महावीर हूं कोई वहां जीतकर कहना चाहता है कि मैं महावीर हूं। कोई यहां विजेता बनना चाहता और कोई वहां। जो वहां विजेता हो जाते हैं, उनको हम जिन कहते हैं, जिन्होंने जीत लिया। मगर वही जीत की भाषा हुई। ईसाइयों को नहीं जमती।
मुसलमानों से पूछो; न महावीर जमेंगे, न ईसा जमेंगे, न बुद्ध जमेंगे। मुसलमानों के हिसाब से तो मुहम्मद ही सच्चे पैगम्बर हैं असली पैगम्बर! क्यों? क्योंकि जीवनभर जूझे, अज्ञानियों को रूपांतरित करने के लिए तलवार उठायी, जान जोखिम में डाली। लेकिन कस्त किया था, संकल्प किया था कि जो—जो भटके हुए हैं उन्हें रास्ते पर लाएंगे। मुसलमान बनाना यानी रास्ते पर लाना। जो—जो गुमराह हैं, मार्गष्णुत हो गये हैं, अगर अपनी मर्जी से आ जाएं तो ठीक, लेकिन न आएं तो जबरदस्ती भी लाना पड़े तो लाएंगे।
यूं समझो न, जैसे तुम्हारा छोटा—सा बच्चा आग में हाथ डालना चाहे। मान जाए समझाने से तो ठीक, नहीं तो थप्पड़ भी मारोगे झपटकर उसे खींच भी लोगे। मुहम्मद की महाकरुणा है—मुसलमान के हिसाब से—कि वे तलवार लेकर तुम्हारे पीछे पड़े, कि 'गर्दन उतार दूंगा, चलते हो मस्जिद कि नहीं, पढ़ते हो कुरान या नहीं? लो अल्लाह का नाम, क्योंकि जो अल्लाह को याद करेगा और कुरान के मार्ग पर चलेगा, वही मोक्ष पाएगा, वही स्वर्ग पाएगा। शेष सब तो नर्क की अग्नि में गिर जाएंगे।तुम्हें नर्क की अग्नि से बचाने के लिए कैसा अथक श्रम किया मुहम्मद ने! तुम्हारे विपरीत भी। तुम्हारी ही फिकर न की। यह भी फिकर न की कि तुम जाना भी चाहते हो स्वर्ग या नहीं। इसे कहते हैं महाकरुणा! न तो जीसस ने ऐसी करुणा दिखायी। अंधों को आंखें देने से क्या हो जाएगा? इतने लोगों को तो आंखें वैसे ही हैं, उनको क्या हो गया है? और बहरों को कान मिल गये तो क्या फायदा? वही फिल्मी गाने सुनेंगे जो तुम सुन रहे हो। और लंगड़े चलने भी लगे तो क्या करेंगे, जाएंगे कहां? वही शराब—घर, वही वेश्या के मुहल्ले में। और मुर्दों को जिला भी दिया, तो पहले ही जिंदा थे, पहले ही कौन—सा बड़ा काम कर लिया था, अब क्या कर लेंगे?
लजारस को जिंदा कर दिया जीसस ने, फिर क्या किया, इसको तो कोई बताए? लजारस ने फिर किया क्या? फिर कुछ पता ही नहीं चलता कि लजारस का हुआ क्या? चलो जिंदा ही हो गये तो फिर वही गोरखधंधा किया होगा, जो पहले करते थे।
सूफियों के पास तो एक कहानी भी है कि जीसस एक गाव में आए और उन्होंने देखा एक आदमी नाली में पड़ा हुआ गालियां बक रहा है। उसके पास गये समझाने कि भाई, क्यों गालियां बकता है? परमात्मा ने यह वाणी दी है, भजन गाओ, कीर्तन करो, प्रभु का नाम लो। जब पास गये तो देखा यह तो शक्ल पहचानी हुई मालूम पड़ती है। याद किया तो पता चला—अरे, यह आदमी तो गूंगा था!. उस आदमी को हिलाया और कहां कि भई याद कर, मुझे भूल गया? उसने कहां, ' अं? सात जन्म नहीं भूलूंगा। मैं तो गूंगा था, भला था, यह तुमने ही मुझे जबान दी, अब इस जबान का क्या करूं? गालियां न दूं तो और क्या करूं? इस संसार में है क्या? सब तरह के दुष्ट हैं। पहले तो पूत था तो पी जाता था भीतर ही भीतर, अब जबान है तो कह देता हूं। इससे और अड़चन हो गयी है। इससे और मुश्किल हो गई है। इससे रोज झगड़ा—फसाद खडा हो जाता है। यह तुमने जबान क्या दे दी, जिंदगी में झगड़े—फसाद दे दिए। और झगड़े—फसाद और चिंता और उपद्रव के कारण शराब पीने लगा हूं। यह सबका जुम्मा तुम्हारा है।
जीसस तो बहुत हैरान हुए। थोड़े आगे बढ़े तो उन्होंने देखा, एक जवान आदमी एक वेश्या के पीछे चला जा रहा है—सीटी बजाता हुआ, एकदम मस्ती में गुनगुनाता हुआ! शक्ल पहचानी हुई मालूम पडी। रोका और कहां कि जवान आदमी हो और अभी से गलत रास्ते पर चले हो। अरे, इस जिंदगी को परमात्मा ने किसलिए दिया है?
उस आदमी ने कहां कि चुप, यह तू ही है। मैं तो बीमार था, मैं तो खाट से लगा था, खराब काम करना भी चाहता तो नहीं कर सकता था। तूने ही मुझे स्वस्थ किया। अब मुझे बता, इस स्वास्थ्य का क्या करूं? तूने मुझे जवानी दी, अब इस जवानी का क्या करूं? और अब बाधा डालने आया है? मैं तो इस झंझट से मुक्त ही था। हड्डी —हड्डी हो रहा था, उठ नहीं सकता था, बैठ नहीं सकता था, खांसता—खंखारता बिस्तर से लगा था। तूने मुझे जवान किया, —स्वस्थ किया, चंगा किया, अब क्या करूं? सीटी न बजाऊं तो और क्या करूं? और सुंदर स्त्रियों के पीछे न जाऊं तो कहां जाऊं?
जीसस तो इतने उदास हो गए कि गांव छोड्कर बाहर निकले। वहा देखा कि एक आदमी इंतजाम कर रहा है मरने का। हो सकता है, लजारस ही हो। फंदा लगाकर झाडू में लटकने के करीब ही है कि जीसस ने जाकर रोका कि रुक भाई, यह तू क्या कर रहा है? उस आदमी ने कहां कि पहचानो कि मैं कौन हूं! मैं तो मर गया था, उस वक्त भी तू आ गया औंर मुझे जिंदा कर दिया। और जिंदगी में मुझे कुछ सार मालूम होता नहीं, सिवाय दुख, सिवाय संताप के, चिंताओं के कुछ भी नहीं। अब तू जा, राह से लग अपनी। मुझे मरने दे। मुझे नहीं चाहिए यह जिंदगी। मुझे माफ कर। अब और चमत्कार न दिखा, देख चुका बहुत चमत्कार! अपने चमत्कार अपने पास रख।
सूफियों की यह कहानी बड़ी अद्भुत है। इसमें बात तो कुछ पते की है। क्या होगा आदमी को जिंदगी भी देने से? आंख दे दिए, पैर दे दिए, जबान दे दी, क्या होगा? आदमी वही करेगा जो सारी दुनिया के लोग कर रहे हैं।
तो मुसलमान नहीं कहता कि यह कोई चमत्कार है। चमत्कार तो सिर्फ एक है कि लोगों को अगर मर्जी से हो तो मर्जी से, और अगर न मर्जी से हो तो न मर्जी से—लेकिन अल्लाह की याद दिलाओ, उनको मुसलमान बनाओ।
तुम्हें लगेगा कि यह बात बड़ी जबरदस्ती की है, स्वतंत्रता छिन रही है। यह तो बच्चे को भी लगेगा कि वह आग की तरफ जा रहा है और मां उसकी खींच रही है, स्वतंत्रता छिन रही है। लेकिन ये सारे लोग इतनी विभिन्न भाषा में बोलते हैं; इतने अलग—अलग ढंग और अलग अलग लहजे हैं इनके। इनकी शैलियां और व्यवस्थाएं ऐसी हैं कि तुम किसको प्रमाण मानोगे?
'न एको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।
किसी भी एक मुनि का कोई वचन प्रमाण नहीं है। फिर क्या रास्ता है? सूत्र कहता है : ' धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्।' आनंद किरण, तुमने इसका अनुवाद किया कि धर्म का तत्व तो गहन है। उस अनुवाद में यूं तो कुछ भूल नहीं, भाषा के लिहाज से अनुवाद बिलकुल ठीक है; मगर अनुभव के लिहाज से भूल है।धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्।सिर्फ भाषांतर, शुद्ध भाषा का ही रूपांतरण करना हो, तो तुम्हारा अनुवाद ठीक है कि धर्म का तत्व तो गहन है। लेकिन अगर इसके भाव में उतरना हो, भाषा को ही न पकड़ना हो, तो इसका अर्थ बहुत और है। इसका अर्थ है : धर्म का तत्व तो स्वयं के भीतर की गुहा में छिपा हुआ है। गुहायाम्! वह जो अंतर—गुहा है, वह जो हृदय की गुफा है, वहां छिपा हुआ है। न तो मुनि के वचनों में मिलेगा, न श्रुतियों में, न स्मृतियों में—अंतर—गुहा में, हिमालय की गुफाओं में नहीं, भीतर की गुफा में। अपनी ही चेतना में डुबकी लगाओगे तो पाओगे।
'धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्।
क्योंकि भूतिया भी बाहर हैं, स्मृतियां भी बाहर हैं, मुनियों के वचन भी बाहर हैं और धर्म तो तुम्हारे भीतर है। धर्म तो तुम्हारा स्वभाव है, स्वरूप है।धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्!' खोजो उसे अपनी ही गुहा में। धर्म का तत्व तो मिलेगा समाधि से, क्योंकि समाधि है अपने में डुबकी।
'महाजनो येन गत: स द्य—था:।
और महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं वही केवल मार्ग है।
तुम पूछते हो, 'महाजन की पहचान क्या है?' बुद्धि के लिए तो महाजन की कोई पहचान नहीं हो सकती, क्योंकि महाजन की प्रतीति ही बुद्धि की प्रतीति नहीं। और पहचान की भाषा बुद्धि की भाषा है। तुम पूछ रहे हो, 'कौन—से लक्षण?' फिर उपद्रव शुरू हो जाएगा—वही उपद्रव जो मुनियों के लिए है, वही महाजन के लिए हो जाएगा। किस बात को लक्षण मानोगे? दिगम्बरत्व लक्षण है महापुरुष का? तो फिर नग्न दिगम्बर जैन मुनि ही केवल महाजन रह जाएंगे। फिर ईसा और जरथुस्त्र और बुद्ध और लाओत्से और च्चांगत्सु जैसे अद्भुत पुरुष महापुरुष न रह जाएंगे, महाजन न रह जाएंगे। किस बात को लक्षण मानोगे? अगर लोगों की सेवा करना ही लक्षण है तो महावीर ने कभी किसी की कोई सेवा नहीं की।
मेरे पास पत्र आ जाते हैं लोगों के। जैन भी मुझे पत्र लिख देते हैं कि आप गरीबों की सेवा क्यों नहीं करते? अगर ये महावीर को मिल जाएं, महावीर से भी कहेंगे कि गरीबों की सेवा क्यों नहीं करते! क्या तुम सोचते हो महावीर के समय में गरीब नहीं थे, कोढ़ी नहीं थे, अंधे नहीं थे, लंगड़े नहीं थे, लूले नहीं थे? सब थे। महावीर ने किसी की सेवा नहीं की, न बुद्ध ने किसी की सेवा की। लक्षण क्या है? अगर सेवा लक्षण है तो फिर ईसाई मिशनरी—महाजन! वे सेवा में ही लगे रहते हैं। उनका काम ही सेवा करना है। उनका धर्म ही सेवा है।
अगर समाधि लक्षण है तो समाधि बड़ी भीतर की बात है। किसको मिली, किसको नहीं मिली? कौन तय करे? कैसे तय करे? रामकृष्ण मूर्च्छित हो जाते थे समाधि में। बुद्ध कभी मूर्च्छित नहीं हुए। अगर बौद्धों से पूछो तो रामकृष्ण की समाधि—जड़ समाधि, असली समाधि नहीं। यह कोई समाधि हुई? समाधि में तो चैतन्य प्रगाढ होना चाहिए। यह तो चेतना और खो गयी। और बौद्धों से मनोचिकित्सक भी राजी हैं। मनोचिकित्सक भी रामकृष्ण के संबंध में यही कहते हैं कि यह एक तरह का मिर्गी का फिट है। और लक्षण मिलते हैं कि मिर्गी में भी जो घटना घटती है वही रामकृष्ण को घटती थी। मुंह से फसूकर बहता था, आंखें ऊपर चढ़ जाती थीं, हाथ—पैर अकड़ जाते थे। अब बहुत मुश्किल है कि महाजन का लक्षण क्या? यह मिर्गी आ रही है कि समाधि लग रही है? बुद्ध को तो कभी ऐसी समाधि लगी नहीं। लेकिन अगर रामकृष्ण को माननेवाला इसको समाधि मानता हो, उसको बुद्ध की समाधि में शक होगा कि न तो हाथ—पैर अकड़ते हैं, न आंखें ऊपर चढ़ती हैं। दोनों आंखें ऊपर चढ़नी चाहिए, तब तो तृतीय नेत्र का अनुभव होगा! दात भिंच जाने चाहिए! उस बात का लक्षण है कि ऊर्जा ऊपर जा रही है। रामकृष्ण की जीभ कट जाती थी क्योंकि कभी—कभी दातों के बीच पड जाती थी। फसूकर तो निकलना ही चाहिए। वह इस बात का लक्षण है कि देह और आत्मा का तादात्मय छूट गया।
अब किसको लक्षण मानोगे? तो महाजन कौन है? बुद्धि के द्वारा कोई निर्णय नहीं हो सकता। फिर निर्णय होता है—हृदय से। जिससे तुम्हारी प्रीति लग जाए, जिससे तुम्हारे हृदय का छंद मिल जाए, जिसके पास बैठकर तुम्हारा आनंद—कमल खिले—वही महाजन है। बाकी ऊपरी बातें छोड़ दो। जिसको कार्ल गुस्ताव कं ने सिक्रानिसिटी कहां है। जिसके पास बैठकर तुम्हारे भीतर संगीत बज उठे। जिसके भीतर जीवन अपनी परिपूर्णता में जागा हो, निश्चित ही उसके पास अगर कोई मौन समर्पित भाव से बैठे तो उस जीवन की छाप, उस जीवन का धक्का तुम्हारी सोई हुई चेतना को भी लगेगा। वे किरणें तुम्हारे भीतर भी प्रेवश करेंगी और तुम्हारे भीतर भी एक नयी शृंखला का सूत्रपात होगा। तो जिसका जहां तालमेल बैठ जाए! सिक्रानिसिटी का अर्थ है. तालमेल, छंदबद्धता, लयबद्धता। जिसकी बांसुरी सुनकर तुम्हारे भीतर कोई नाच उठे, तुम्हारे पैरों में अचानक पूंघर बजने लगें—वही महाजन है।
महाजन की परीक्षा बौद्धिक नहीं है, हार्दिक है; तार्किक नहीं है, प्रीतिगत है। और प्रेम तो पागल होता है। प्रेम कोई हिसाब—किताब मानता है? जहां तुम्हारा मन—मयूर नाचे, वह महाजन। फिर तुम किसी की न सुनना, दुनिया कुछ भी कहे। अगर तुम्हारा मन—मयूर मुहम्मद के पास नाचे तो तुम फिर फिक्र मत करना कि कौन क्या कहता है, कि वीतराग हैं या नहीं? तुम्हारा मन—मयूर नाचा तो मुहम्मद तुम्हारे लिए महाजन तो हैं ही। और दुनिया में बहुत तरह के लोग हैं। किसी को बांसुरी प्यारी लगती है और किसी को न भी लगे। और किसी को सितार प्यारा लगता है और किसी को न लगे। तुम्हारा रुझान इतना भिन्न—भिन्न है कि कोई बुद्ध के साथ नाच उठेगा; कोई महावीर के साथ नाच उठेगा; कोई मुहम्मद के साथ, कोई जीसस के साथ, कोई कबीर के साथ—कहां तुम्हारी गुनगुन पैदा हो जाए—जहां तुम्हारे भीतर गुंजन आ जाए; जिसके माध्यम से तुम्हारे भीतर का पक्षी पंख फड़फड़ा दे, आकाश में उड़ने को आतुर हो जाए—वही महाजन है।
'महाजनो येन गत: स पन्‍था:।
फिर महाजन क्या कहता है, इसकी बहुत फिक्र मत करना। कैसे जीता है, इसकी चिंता करना। कहने में मत उलझना। उसके जीवन को, उसके जीवन के सौंदर्य को, उसके जीवन के प्रसाद को पीना। कैसे उठता, कैसे बैठता! गीता में कृष्ण ने स्थितिधी की परिभाषा की है—कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसे चलता! हर हाल में, दुख हो कि सुख, सम रहता। जीत हो कि हार, उससे अंतर नहीं पड़ता।
तुम महापुरुष के या महाजन के शब्दों की बहुत चिंता मत करना। तुम उसके जीवन की पहचान में उतरना। उसकी आंखों में झांकना। उसके प्राणों के साथ अपना तालमेल जोड़ना। उसकी जीवन—चर्या को ही तुम उसका संदेश समझना।
'महाजनो येन गत: स पन्‍था:।'
जैसे महाजन चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, जीते है—बस वैसे ही जीना। और ध्यान रखें, इसका यह अर्थ नहीं कि तुम उनका अनुकरण करना, कि नकल करना। इसका कुल इतना अर्थ है कि तुम उसके साथ अपने छंद को जोडना। तुम इतने शून्य हो जाना कि तुम्हारे भीतर अहंकार न बचे, ताकि जिस महापुरुष से, जिस महाजन से तुम्हारी प्रीति लग गयी हो, उसका जीवन तुम्हें पूरा का पूरा आच्छादित कर ले, उसकी वर्षा तुम पर पूरी—पूरी हो जाए। अपने पात्र को खुला कर देना, ढांककर मत बैठे रहना। अपने सब पर्दे गिरा देना, ताकि उसकी किरणें तुम्हारे भीतर आ जाएं। अपने सब द्वार—दरवाजे खोल देना, ताकि उसकी हवाएं आएं और तुम्हारी धूल— धवांस को झाड़ ले जाएं।
'महाजनो येन गत: स द्य—था:।
इसलिए न तो श्रुतियों में भटकना, न स्मृतियों में, न मुनियों के वचनों में। क्योंकि सत्य तो तुम्हारे भीतर छिपा है। लेकिन तुम्हें अपने सत्य का अभी पता नहीं है; इसलिए जिसे पता हो... और किसे पता हो? जिसके पास बैठकर तुम्हारे भीतर का सत्य अंगडाई लेने लगे, बस उसे पता है, बस; इसके सिवाय और कोई प्रमाण नहीं है। जिसके पास बैठकर तुम्हें खुमारी छाने लगे, मस्ती आने लगे, समझ लेना इशारा कि यही है वह जगह, कि यही है वह मंजिल, जिसकी मैं तलाश करता था; कि यही है वह मंदिर जिसकी चौखट पर मेरे सिर को झुका देना है, फिर उठाना नहीं। तो वह जो धर्म का अत्यंत गहराइयों में छुपा हुआ तत्व है, उसका साक्षात्कार हो सकता है।
धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्
महाजनो येन गत: स पन्‍था:।।
योग प्रीतम का यह गीत:

बहो मेरी नदिया, बहो धीरे — धीरे
बहो भाव निर्झर, बहो धीरे — धीरे

 महाजन की पहचान भाव—निर्झर से होगी। जिसके पास तुम्हारे भाव का झरना बहने लगे—वह झरना जो सदियों से अवरुद्ध पडा है।

बहो मेरी नदिया, बहो धीरे—धीरे
बहो भाव—निर्झर, बहो धीरे—धीरे
बहो यों, जमाना बहे साथ तेरे
बनो इक तराना कि सब गुनगुनायें
हृदय के वनों में—गहन घाटियों में
कहो मौन—मुखरित स्वयं की कथाएं
उड़ो मेरी मैना, उडो हौले—हौले
उड़ो मेरे ताना, उड़ो धीरे—धीरे
उड़ो इस तरह चित्त—आकाश में तुम
तुम्हें देखकर पंख सब फडूफडायें
उड़ो यों, उन्हें याद आ जाए खुद की
जुड़ी यों कि सबके हृदय की जुड़ाये
खिलो मेरी कलियां, हृदय—वृन्तपर तुम
खिलो मेरे फुलवा, खिलो धीरे—धीरे
खिलो, देख तुमको खिले चित्त सारे
कोई गीत गाओ, गजल गुनगुनाओ
डुबा दो सभी को सुरभि—सिंधु में तुम
कि सौंदर्य का राज सबको सुनाओ
झरो मेरी बदली—सुधा—वर्षिणी बन
झरो मेरे मेहा, झरो धीरे—धीरे
झरो यों, बहारों के मेले जुड़े नित
कहीं मोर नाचे, पपीहा पुकारे
धरा लहलहाये, हृदय झूम गाये
बहो सुख—सरित तोड़कर सब किनारे
कहो मेरी मस्ती, बहकते हुए कुछ
कहो मेरे मनवा, कहो धीरे—धीरे
मदिर साक हो कुछ, मधुर साक हो कुछ
कि ज्यों कोकिला की कुहू आम्रवन से
कि जैसे चटककर कली कह उठे कुछ
छिड़े तान, जोड़े धरा को गगन से
रहो मेरे मितवा, रहो साथ मेरे
हृदय की कहानी, कहो धीरे—धीरे
बही मेरी नदिया, बही धीरे—धीरे
बही भाव—निर्झर, बहो धीरे—धीरे

 महाजन की पहचान भावों से होती है, तर्कों से नहीं, सिद्धांतों से नहीं। इसलिए महाजन की पहचान केवल दीवाने कर पाते हैं। शमा जलती है तो परवाने खिंचे चले आते हैं। बस परवाने ही पहचान पाते हैं। परवाने मरने चले आते हैं।
धर्म का तत्व तो अत्यन्त गहरी गुफाओं में छिपा पड़ा है—उन गुफाओं में जो तुम्हारे भीतर हैं, लेकिन जिनका तुम्हें कोई पता नहीं, कोई पहचान नहीं। लेकिन जिसके भीतर धर्म का अनुभव प्रगाढ़ हो गया हो, उसकी मौजूदगी में तुम्हारे भीतर भी टकार पड़ सकती है, तुम्हारी वीणा के तार भी उसकी बजती वीणा के कारण झंकृत हो सकते हैं। जो जाग गया है उसकी मौजूदगी तुम्हारी नींद को भी तोड्ने का कारण हो सकती है।
इसलिए महाजन की पहचान, आनंद किरण, बुद्धि की बात नहीं। बुद्धि के लक्षणों से कुछ भी न होगा। भाव की बात है, दीवानगी की बात है, मस्ती की बात है, खुमारी की बात है। यह मामला पियक्कड़ों का है, रिन्दों का है; मंदिरों का कम, मयकदों का ज्यादा है। शराबियों का ज्यादा, जुआरियों का ज्यादा, दुकानदारों का कम।
यह पूरी प्रक्रिया प्रेम की प्रक्रिया है। कैसे तुम पहचान लेते हो, किसी स्त्री से तुम्हारा प्रेम हो गया, किसी पुरुष से तुम्हारा प्रेम हो गया? कैसे? क्या प्रमाण होता है? कौन—सी श्रुति, कौन—सी स्मृति? होता है तो हो जाता है, नहीं होता तो नहीं होता। लाख उपाय करो तो नहीं होता। और हो जाए तो लाख उपाय करो, तो मिटा नहीं पाते। ठीक ऐसी ही घटना, इस प्रेम की हीं घटना एक बहुत ऊंचे तल पर गुरु और शिष्य के बीच भी घटती है। मगर वह घटना प्रेम की है।
आज इतना ही।

 'पीवत समरस लगी खुमारी' प्रवचनमाला से
दिनांक 15 जनवरी 1981; श्री रजनीश आश्रम पूना।

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