शब्द
जो साकार हो
गया है...
शब्द
साकार हुआ था
पहले—पहल यहीं, भारत में;
विपाशा, वितस्ता,
शतदु, सरस्वती
किसी पुण्य—सलिला
के तट पर।
आंखें
मूंदे, मौन खड़ा था
ऋषि, शब्द
का अनुसंधान
करते; उसे
लय में पिरोते।
सहसा
कुहासा—सा छटा; पूरब कुछ
लाल—लाल—सा
दिखा;
हवा
कुछ इठलाती—सी
लगी और
पाखियों का
संगीत
दिगन्तों तक
फैल गया।
उसने कहां, 'प्रकाश
हो' और
प्रकाश हो
गया!
.. .वह
भगवान था।
भगवत्ता उस
समय उसमें
अवतरित हुई थी।
ऋषियों की यह
परंपरा सनातन
है। सरस्वती
के किनारे भरतों
के कुल में
जन्मा बालक
मंत्र—दर्शन
करने लगा, विश्वामित्र
बन गया। उसकी
रची ऋचाएं
श्रुति बनीं,
स्मृतियों
ने सहेजा
उन्हें।
…..वह
शब्द—मात्र था,
जो
समोशरण में
खिरता था
चैत्यों
में गुंजित था;
सारनाथ
से फैल रहा था।
मछुहारों
की बस्ती में
तट से
दूर,
बीच
धार से आती
हुई ईसू की
आवाज,
वह
शब्द ही तो थी!
शब्द
स्वयं अपनी
अंतऊर्जा से
दमकता है। उसे
बांधा नहीं जा
सकता, कैद
नहीं किया जा
सकता; वह ''नैनं
छिदन्ति
शस्त्राणि
नैनं दहति
पावकः ''वाली
अमर्त्य
स्थिति में
पहुंचा हुआ
होता है।
रजनीश
आज की दुनिया
का वह शब्द है, जो साकार
है। आकार की
उम्र होती है,
और शब्द की
कोई उम्र नहीं
होती। आकार से
निराकार की ओर
होती है शब्द
की यात्रा।
रजनीश
भी कभी सिर्फ
शब्द रह
जायेगा। अभी
तो यह आकार से
जुड़ा है; इसीलिए मेरे
जैसे और भी
अनेक मिल
जायेंगे, जो
कहेंगे—'वह
मेरे साथ कुएं
में कूदकर
नहाया था।’ या 'रॉय
सर की फिलॉसफी
क्लास में वह
ऐसे —ऐसे सवाल
उठाता था', या
'जबलपुर की
तारण जयंती
में वह इस
प्रकार सभी धर्मों
के आचार्यों
के बीच अपनी
अनोखी बातें
बोलता था', या
'इस तरह
क्लास में
पढ़ाता था।’—गरज ये कि हम
सभी जो इस तरह
सोचते या
बोलते हैं; बस, हमारी
पहुंच सिर्फ
आकार तक ही है,
उसमें
निहित या मेरा
स्वर्णिम
भारत उससे
निःसृत शब्द
से जब तक हमारा
सरोकार नहीं
होता, हमारा
उससे जुड़ना
कोई मानी नहीं
रखता।
मैंने
इस बीच उसके
शब्दों से
सरोकार साधा
है। ज्यों—ज्यों
पास होता जाता
हूं शब्द गहरे
होते जाते हैं।
शब्द की शक्ति
उजागर होने
लगती है और
हमें भीतर ही
कुछ घटित होता—सा
महसूस होता है।
शब्द
से क्रांति
घटित होती है।
मजे की बात यह
है कि हम अभी
तक शब्द को भी
जड़ बना देने
की साजिशों के
शिकार होते
रहे हैं। शब्द
की हत्या से
बड़ा कोई और
पाप नहीं होता।
रजनीश ने शब्द
हत्या के पाप
के खिलाफ अपने
समय की दुनिया
को आगाह किया
है। उसने जीवन
को जितनी सरल
समग्रता में
देखा—दिखाया
है; वह
हमें उन सभी
मुद्दों पर
नये सिरे से
सोचने की
प्रेरणा देता
है, जिन पर
सोचना, हम
कतिपय जड़
मान्यताओं के
वशीभूत हो, कब का बंद कर
चुके हैं।
रजनीश ने इस 'विचार—बंद' की घातक
स्थिति को
साहस और
मजबूती के साथ
तोड़ा है।
वर्तमान
दुनिया गवाह
है इस बात की
कि एक अकेला
निहत्था आदमी, जो सिर्फ
बोलता है; वह
समूचे विश्व
की पाखंडी
व्यवस्थाओं
पर हावी है, वे उसके
होने—मात्र से
घबराए हुए हैं,
उसे अपनी
धरती पर हवाई—जहाज
से नीचे कदम
रखने की भी
इजाजत नहीं
देते। वह भी
नटखट बालक—सा
अपना काफिला
लिए उनके सभी आंगन
खूद आता है। जहां
उसके चरण पड़ते
हैं, रंगोली—सी
बिछ जाती है।
आरेगॉन
के बंजरों में
नखलिस्तान
लहलहा उठता है।
सरकारें सशंक
हैं। वे किसी
किस्म की
रिस्क लेना
नहीं चाहतीं, अपने मूल
अस्तित्व को
लेकर। रजनीश
इनकी असलियत
जानता है, और
कमबख्त चुप भी
तो नहीं बैठता;
चुप भी रहता
है तो बोलता
है; बडी—बड़ी
आंखों से, हाथों
के कोमल
संचालन से, मोहनी—मुस्कान
से, अंग—प्रत्यंग
से बोलता है।
उसके
शब्द साकार हो
रहे हैं; वे नाच रहे
हैं; वे
उत्सवित हो
रहे हैं।
सरकारें
चौंकी हुई हैं।
उन्हें मालूम
है कि उनके
पांव के नीचे
की धरती ठोस
नहीं है। वे
एक
अवैज्ञानिक
प्रक्रिया के
तहत अपनी—अपनी
जनताओं पर
शासन जमाए हुए
हैं। सत्ता का
शब्द हावी है
दुनिया पर, रजनीश
में इसे उलट
देने की ताकत
है; वह
शब्द की सत्ता
का विश्व—प्रतीक
बन चुका है।
दुनिया
भर की सरकारें
डरी हुई हैं
उससे। वह उनकी
नक्शों पर
खींच ली गई
खूनी लकीरों
को नकारता है।
वह एक विश्व—व्यवस्था
का पक्षधर है; जो प्रेम
पर आधारित हो।
प्रेम से
ज्यादा ठोस
आधार और कुछ
नहीं। वह कबीर
के ढाई आखर को
आधार—रूप में
स्वीकारता है।
और नकारता है,
आधुनिक
विश्व की
कूटनीतिक—संबंधों
वाली कुत्सित
लचर व्यवस्था
को। उसके पास
आज के मनुष्य
की हर ज्वलंत
समस्या का
प्रेमाधारित;
पूर्ण तर्क—सम्मत
समाधान है।
अब
रजनीश के नाम
से नाक— भौं
सिकोड़कर अपना
बोगस
आभिजात्य
प्रदर्शित करने
का पाखंड
हास्यास्पद
हो गया है।
रजनीश के नाम
को हल्के—फुल्के
ढंग से अपनी
यौन—कुण्ठाओं
की जुगाली के
लिए इस्तेमाल
करने वाली
रुग्ण
मानसिकता भी
हतप्रभ है।
रजनीश सुनने—समझने
की चीज है।
रजनीश एक
रोशनी का नाम
है—शब्द की
रोशनी! उसके
पास हमारे
सुलगते
सवालों के सहज
रसभीगें मीठे
मानवीय जवाब
हैं। हमारी
ज्वलंत
समस्याओं के
सम्यक्
समाधान हैं, उसके पास।
रजनीश
एक विराट नकार
का
विश्वव्यापी
शब्द है। वह
सारी जडताओं
को नकारता है
और अंकुर
सहेजता है—अंकुर
जिन्हें
विकसित होना
है, नये
मनुष्य के लिए।
कार्ल
मार्क्स ने
नकार की
शृंखला को
प्रगति का
आधार निरूपित
करते समय अपनी
स्थापनाओं की
नियति को भी
समझ लिया था।
रजनीश
स्वयं साफ—साफ
कहता है कि
उसे अंतिम
सत्य मत मानो; उसके
शब्दों को
आजमाओ, अपने
घावों पर मरहम
की तरह लगाओ
और देखो मनुष्य
की छाती के
रिसते हुए छाव
ठीक होते हैं
या नहीं।
रजनीश शब्द को
आजमाने की
चुनौती देता
है और जिस दिन
विश्व—मानव
शब्द की शक्ति
के रूप में उठ
खड़ा होगा; क्रांति
हो जायेगी! —एक
नये युग की
शुरुआत!
निश्चित ही वह
बेहतर समय
होगा। रजनीश
कलियुग को
यहीं पूर्ण
विराम लगा
देना चाहता है।
वह
आगाह करना
चाहता है, उस खतरे
से जो पृथ्वी
पर जीवन के
अस्तित्व से जुडा
है। वर्तमान
व्यवस्था कै
रहते युद्धों
से ऊपर उठा
नहीं जा सकता।
इनकी अपनी
तुच्छ
अस्मिताओं की
रक्षा के लिए
युद्ध जरूरी
हैं। और युद्ध
अब पटा—बनैटी
का खेल नहीं
रह गया है।
भोले विज्ञान
ने इनकी
भस्मासुरी
विध्वंसक क्षमता
को वरदान दे
दिया है।
रजनीश वह 'मोहिनी'
है, जो नचाते—नचाते
इस भस्मासुर
का हाथ इसके
अपने ही सिर
पर रखवा देने
में सक्षम है।
नये
इंसान के अभ्युदय
के लिए पुराने
पाखंड को भस्म
होना ही होगा।
रजनीश के शब्द
उस आग की तरह
हैं, जिसमें
नया युग—सत्य
कुन्दन बन रहा
है। रजनीश एक
पूर्णपुरुष
हैं, जिसने
अर्थ— धर्म—काम—मोक्ष
चारों
पुरुषार्थ
हस्तगत किये
हैं। वह एक
जीवन—शैली है,
जीवन को
उसकी सहज
सम्पूर्णता
में जीने का
एक तरीका है, जो शुद्ध
वैज्ञानिक
सोच पर आधारित
है और सर्वोपरि
मानवीय है।
हमारे अपने
भीतर
शताब्दियों—सहस्राब्दियों
से जड़ीभूत
होते पाखंड को
खुरच फेंकने
का एक सशक्त
उपक्रम है,
रजनीश और आज
नहीं तो कल
शब्द की सत्ता
स्थापित होगी
और सत्ता के
शब्द झूठे पड़
जाएंगे।
सत्ता
वह धर्मों—सम्प्रदायों
की हो, राष्ट्रों—कबीलों
की हो, अन्याय
की नींव पर
ज्यादा दिनों
तक टिकी नहीं रह
सकती। रजनीश
वह भोर का
पाखी है, जो
हमें
सूर्योदय की
सूचना दे रहा
है और क्षितिज
अरुण हो रहे
हैं..!
—राजेन्द्र
अनुरागी (सुप्रसिद्ध
कवि व
साहित्यकार)
94/13 तुलसीनगर
भोपाल 462005
thank you guruji
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