मूलाधार से सहस्त्रार की ज्योति—यात्रा—(प्रवचन—सैतालीसवां)
सूत्र:
70—अपनी
प्राण—शक्ति
को मेरूदंड
में ऊपर उठती,
एक
केंद्र से
दूसरे केंद्र
की और गति
करती हुई
प्रकाश—किरण
समझों; ओरइस
भांति तुममें
जीवंतता
का उदय होता
है।
71—या बीच
के रिक्त स्थानों
में ये बिजली
कौंधने
जैसा
है—ऐसा भाव
करो।
72—भाव
करो कि
ब्रह्मांड एक
पारदर्शी
शाश्वत उपस्थिति
है।
मनुष्य
को तीन रूपों
में सोचा जा
सकता है—सामान्य, असामान्य
और अधिसामान्य।
पश्चिमी
मनोविज्ञान
असामान्य
मनुष्य की, रुग्ण
मनुष्य की
सामान्य से, औसत से नीचे
गिर गए मनुष्य
की चिंता लेता
है। और
पूर्वीय
मनोविज्ञान—तंत्र
और योग—अधिसामान्य
मनुष्य के
दृष्टिकोण से
मनुष्य पर
विचार करता है,
उस मनुष्य
के दृष्टिकोण
से मनुष्य पर
विचार करता है
जो सामान्य के, औसत के पार चला गया है। दोनों ही असामान्य हैं। जो मनुष्य रुग्ण है, बीमार है, वह असामान्य है; क्योंकि वह स्वस्थ नहीं है। और जो मनुष्य अधिसामान्य है वह भी असामान्य है; क्योंकि वह सामान्य मनुष्य से ज्यादा स्वस्थ है। भेद ऋण और धन का है।
जो सामान्य के, औसत के पार चला गया है। दोनों ही असामान्य हैं। जो मनुष्य रुग्ण है, बीमार है, वह असामान्य है; क्योंकि वह स्वस्थ नहीं है। और जो मनुष्य अधिसामान्य है वह भी असामान्य है; क्योंकि वह सामान्य मनुष्य से ज्यादा स्वस्थ है। भेद ऋण और धन का है।
पश्चिमी
मनोविज्ञान
मनोचिकित्सा
के अंग के रूप
में विकसित
हुआ। फ्रायड, कै,
एडलर तथा
दूसरे
मनोवैज्ञानिक
असामान्य लोगों
की, मानसिक
रूप से रुग्ण
लोगों की
चिकित्सा कर
रहे थे। इस
कारण मनुष्य
के प्रति
पश्चिम की
पूरी दृष्टि
भ्रांत हो गई
है। फ्रायड
बीमार लोगों
का अध्ययन कर
रहा था। कोई
स्वस्थ आदमी
क्यों उसके
पास जाता!
सिर्फ वे लोग
उसके पास जाते
थे जो मानसिक
रूप से रुग्ण
थे। उसने उन
लोगों का ही
अध्ययन किया,
और इस
अध्ययन से
उसने सोचा कि
मैंने मनुष्य
को समझ लिया।
लेकिन
बीमार मनुष्य
दरअसल पूरी
तरह मनुष्य नहीं
हैं। वे रुग्ण
हैं,
बीमार हैं।
और जो चीज
उनके अध्ययन
पर आधारित
होगी वह निश्चित
ही पूरी तरह
गलत होगी, हानिकारक
होगी। यह बात
हानिकारक
सिद्ध हुई, क्योंकि यह
मनुष्य को
रुग्णता के
दृष्टिकोण से
देखती है। अगर
चित्त की एक
विशेष दशा
चुनी जाती है
और वह दशा
रुग्ण है, बीमार
है, तो
मनुष्य का
पूरा चित्र
रोग— आधारित
हो जाता है।
इसी
दृष्टिकोण के
कारण सारा
पश्चिमी समाज
नीचे गिर गया, क्योंकि
रुग्ण मनुष्य
उसकी नींव बन
गया है, विकृत
मनुष्य उसका
आधार बन गया
है। और अगर
तुम सिर्फ असामान्य
लोगों का
अध्ययन करोगे
तो तुम अधिसामान्य
लोगों के होने
की कल्पना भी
नहीं कर सकते।
बुद्ध फ्रायड
के लिए असंभव
हैं, अकल्पनीय
हैं। निश्चित
ही, फ्रायड
के लिए बुद्ध
काल्पनिक हैं,
पौराणिक
हैं; वे
उसके लिए सत्य
नहीं हो सकते।
फ्रायड सिर्फ
बीमार लोगों
के संपर्क में
आया; वे
लोग सामान्य
भी नहीं थे।
इसलिए वह
सामान्य
लोगों के
संबंध में भी
जो कहता है वह
असामान्य
लोगों के
अध्ययन पर
आधारित है।
यह
ऐसा ही है
जैसे कि अगर
कोई चिकित्सक, कोई
डाक्टर
अध्ययन करना
चाहे तो वह बीमार
लोगों का ही
अध्ययन करेगा।
कोई स्वस्थ
आदमी क्यों
उसके पास
जाएगा? उसकी
जरूरत नहीं है।
अस्वस्थ लोग
ही उसके पास
जाएंगे। और
इतने अस्वस्थ
लोगों का
अध्ययन करके
वह अपने मन
में मनुष्य का
जो चित्र
निर्मित
करेगा वह
निश्चित ही
मनुष्य का
चित्र नहीं हो
सकता है। वह
मनुष्य का
चित्र नहीं हो
सकता है, क्योंकि
मनुष्य बस रोग
ही रोग नहीं
है। और अगर
तुम मनुष्य की
धारणा रोगों
पर आधारित बनाओगे
तो उसका
दुष्परिणाम
पूरे समाज को
भोगना पड़ेगा।
पूर्वीय
मनोविज्ञान
के पास, विशेषकर
तंत्र और योग
के पास भी
मनुष्य की एक धारणा
है; लेकिन
वह धारणा अधिसामान्य
लोगों के, बुद्ध,
पतंजलि, शंकर,
नागार्जुन,
कबीर, नानक
जैसे लोगों के
अध्ययन पर
आधारित है। ये
वे लोग हैं जो
मनुष्य की
क्षमता और
संभावना के
शिखर पर
पहुंचे। इस
अध्ययन में
निम्नतम का
विचार नहीं है,
सिर्फ
श्रेष्ठतम का
विचार है। और
जब तुम
श्रेष्ठतम का
विचार करते हो
तो तुम्हारा
चित्त एक द्वार
बन जाता है; तब तुम
जानते हो कि ऊंचाइयां
संभव हैं, ऊंचे
शिखर संभव हैं।
अगर
तुम निम्नतम
का विचार
करोगे तो कोई
विकास संभव
नहीं है।
उसमें चुनौती
नहीं है। और
अगर तुम
सामान्य हो तो
तुम प्रसन्न
अनुभव करते हो।
यह काफी है कि
तुम
विक्षिप्त
नहीं हो, तुम
किसी मानसिक
अस्पताल में
नहीं हो। तुम
अपने को ठीक
महसूस कर सकते
हो; लेकिन
इसमें कोई
चुनौती नहीं
है।
लेकिन
अगर तुम अधिसामान्य
की खोज करोगे, अगर
अपनी
श्रेष्ठतम
संभावना की
अभीप्सा करोगे,
अगर कोई
व्यक्ति उस
संभावना को
उपलब्ध हो
चुका है, तो
उस संभावना के
लिए द्वार
खुलता है; तब
तुम विकास कर
सकते हो।
तुमको एक
चुनौती मिलती
है, और
तुम्हें अब
अपने से
संतुष्ट होने
की जरूरत न
रही। ऊंचे
शिखर संभव हो
जाते हैं, दिखने
लगते हैं, और
तुम्हें
पुकारने लगते
हैं।
इस
बात को अच्छे
से समझने की
जरूरत है; तो
ही तंत्र का
मनोविज्ञान
समझा जा सकता
है। तुम जो
कुछ हो वह अंत
नहीं है; तुम
ठीक मध्य में
हो, बीच
में हो; यहां
से तुम नीचे
गिर सकते हो, यहां से तुम
ऊपर भी उठ
सकते हो।
तुम्हारा
विकास पूरा
नहीं हो गया
है। तुम मंजिल
पर नहीं हो, तुम अभी
मार्ग में हो।
तुम्हारे
भीतर कोई चीज
सतत विकसित हो
रही है। तंत्र
विकास की इसी
संभावना पर
अपनी समस्त साधना—पद्धति
को आधारित
करता है।
और
स्मरण रहे, जब
तक तुम वही
नहीं हो जाते
जो हो सकते हो,
तब तक तुम
तृप्त नहीं हो
सकते, कृतार्थ
नहीं हो सकते।
तुम्हें वह
होना ही है जो
तुम हो सकते
हो। यह
अनिवार्यता
है। अन्यथा
तुम विषाद में
पड़ोगे, तुम
अर्थहीन
अनुभव करोगे;
तुम्हें
लगेगा कि जीवन
व्यर्थ है।
तुम किसी तरह
जीवन को खींचे
जा सकते हो, लेकिन जीवन
में उत्कुल्लता
नहीं होगी। और
तुम कई अन्य
क्षेत्रों
में सफल भी हो
सकते हो, लेकिन
तुम अपने ही
साथ निष्फल हो
जाओगे।
और
यही हो रहा
है। कोई
व्यक्ति बहुत
धनवान हो जाता
है और लोग
सोचते हैं कि वह
सफल हो गया, लेकिन
वह खुद ऐसा
नहीं सोचता।
वह अपनी
निष्फलता को
जानता है। वह
जानता है कि
धन तो इकट्ठा
हो गया है, लेकिन
मैं निष्फल
हूं। तुम बड़े
आदमी हो, लीडर
हो, राजनेता
हो। सब लोग
सोचते है कि तुम
सफल हो गए; लेकिन
तुम हारे हुए हो।
यह बडी
अजीब दुनिया
है;
यहां तुम
अपने को छोड्कर
सब की निगाह
में सफल हो
जाते हो। हर
रोज मेरे पास
लोग आते हैं; वे कहते हैं
कि हमारे पास
सब कुछ है, लेकिन
अब क्या? वे
असफल लोग हैं।
लेकिन उनकी
असफलता क्या
है? जहां
तक बाहर की
चीजों का
संबंध है वे
असफल नहीं हैं।
फिर उन्हें यह
असफलता क्यों
महसूस होती है?
उनकी
आंतरिक
संभावना संभावना
ही रह गई; उनका
आतंरिक बीज बीज ही रह
गया। उनका फूल
नहीं खिला। वे
वहां नहीं
पहुंच सके जिसे
मैसलो
सेल्फ—एक्चुअलाइजेशन
कहता है। वे
असफल हैं, भीतर
से असफल हैं।
और अंततः उसका
कोई अर्थ नहीं
है जो दूसरे
समझते हैं; तुम खुद जो
समझते हो वही
सार्थक है।
अगर
तुम समझते हो
कि मैं असफल
हूं तो इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है कि
दूसरे
तुम्हें
नेपोलियन या
सिकंदर महान
समझते हों।
बल्कि उससे
तुम्हारा
विषाद बढ़ता ही
है। सब लोग
समझते हैं कि
तुम सफल हो, और
अब तुम यह
नहीं कह सकते
कि मैं सफल
नहीं हूं।
लेकिन तुम
जानते हो कि
मैं सफल नहीं
हूं तुम अपने
को धोखा नहीं
दे सकते। जहां
तक
आत्मोपलब्धि
का सवाल है, तुम अपने को
धोखा नहीं दे
सकते। देर—अबेर
तुम्हें
स्वयं से
मिलना होगा और
स्वयं में
गहरे झांकना
होगा कि क्या
हुआ। जीवन
व्यर्थ चला
गया। एक अवसर
तुमने गंवा
दिया, व्यर्थ
की चीजें
बटोरने में
गंवा दिया।
आत्मोपलब्धि
तुम्हारे
विकास का
उच्चतम शिखर
है,
जहां
तुम्हें गहन
परितोष का
अनुभव होता है,
जहां तुम कह
सकते हो कि यह
है मेरी नियति
जिसके लिए मैं
पैदा हुआ था, जिसके लिए
मैं यहां
पृथ्वी पर हूं।
तंत्र उसी
आत्मोपलब्धि
की फिक्र करता
है कि कैसे
तुम्हें
विकसित होने
में सहयोग दे।
और
स्मरण रहे, तंत्र
को तुम्हारी
फिक्र है; उसे
आदर्शों से
कुछ लेना—देना
नहीं है।
तंत्र
आदर्शों की
फिक्र नहीं
करता है; वह
तुम्हारी
फिक्र करता है।
तुम जो हो और
जो हो सकते हो
तंत्र उसकी
फिक्र करता है।
और यह बहुत
बड़ा फर्क है।
अन्य
सभी देशनाएं, दूसरे
सभी शास्त्र
आदर्शों की
फिक्र करते हैं।
वे कहते हैं
कि बुद्ध बनो,
जीसस बनो; यह बनो, वह
बनो। उनके
आदर्श हैं, और तुम्हें
उन आदर्शों के
अनुरूप बनना
है। तंत्र
तुम्हें कोई
आदर्श नहीं
देता है।
तुम्हारा
अज्ञात आदर्श
तुम्हारे
भीतर ही छिपा
है; वह
तुम्हें दिया
नहीं जा सकता।
तुम्हें
बुद्ध नहीं
बनना है; उसकी
कोई जरूरत
नहीं है। एक
बुद्ध काफी
हैं; पुनरुक्ति
का कोई मूल्य
नहीं है।
अस्तित्व
सदा अनूठा है, वह
अपने को कभी
नहीं दोहराता
है। दोहराना
ऊब पैदा करता
है। अस्तित्व
सदा नया है, नितनूतन है, शाश्वत
रूप से नया है।
वह बुद्ध को
भी दोबारा
नहीं पैदा
करता है; बुद्ध
जैसी सुंदर
घटना को भी
नहीं दोहराता
है।
क्यों? क्योंकि
बुद्ध भी यदि
दोहराए जाएं
तो ऊब ही पैदा
करेंगे। और
फिर उपयोग क्या
है? मौलिक
का ही, अनूठे
का ही मूल्य
है, नकल का
कोई मूल्य
नहीं है। अगर
तुम मौलिक हो
सको, स्वयं
हो सको, तो
ही तुम्हारी
नियति पूरी
होगी। यदि तुम
नकल हो, किसी
की अनुकृति हो,
तो तुम चूक
गए।
तो
तंत्र यह कभी
नहीं कहता कि
इसके जैसे बनो
या उसके जैसे
बनो,
कोई आदर्श
नहीं है।
तंत्र कभी
आदर्शों की
बात नहीं करता
है; इसीलिए
तो इसका नाम
तंत्र है।
तंत्र
विधियों की
चर्चा करता है;
वह कभी
आदर्शों की
बात नहीं करता।
वह समझाता है
कि तुम कैसे हो
सकते हो; यह
नहीं कि
तुम्हें क्या
होना है। उस 'कैसे' के
कारण ही तंत्र
का अस्तित्व
है; तंत्र
शब्द का अर्थ
ही विधि है, उपाय है।
तुम कैसे हो
सकते हो, तंत्र
इसकी फिक्र
करता है; तुम
क्या हो सकते
हो, तंत्र
इसकी फिक्र
नहीं करता।
वह
जो 'क्या' है
वह तुम्हारे
विकास से पैदा
होगा, तुम्हारी
वृद्धि से
आएगा। तुम
सिर्फ विधि का
प्रयोग करो, और धीरे—
धीरे
तुम्हारी आंतरिक
संभावना
वास्तविक
होती जाएगी।
तब वह अज्ञात,
अप्रकट
संभावना
प्रकट हो
जाएगी। और
जैसे—जैसे वह
प्रकट होगी, तुम्हें बोध
होगा कि वह
क्या है। और
कोई नहीं कह
सकता कि वह
क्या है; जब
तक तुम वह हो
ही नहीं जाते,
कोई
भविष्यवाणी
नहीं कर सकता
कि तुम क्या
हो सकते हो।
तो
तंत्र केवल
विधियां देता
है;
वह कभी
आदर्श नहीं
देता। और यहीं
वह सभी नैतिक
शिक्षाओं से
भिन्न है।
नैतिक शिक्षाएं
सदा आदर्श
देती हैं। अगर
वे विधियों की
बात भी करती
हैं तो वे
विधियां सदा
किसी आदर्श
विशेष के लिए
होती हैं।
तंत्र
तुम्हें कोई
आदर्श नहीं
देता; तुम
स्वयं आदर्श
हो। और
तुम्हारा
भविष्य
अज्ञात है।
अतीत से मिला
कोई भी आदर्श
काम का नहीं
है, क्योंकि
कुछ भी
पुनरुक्त
नहीं हो सकता।
और अगर
पुनरुक्त
होता है तो वह
व्यर्थ है।
झेन संत कहते
हैं कि स्मरण
रखो और सजग
रहो। अगर
तुम्हें
ध्यान में
बुद्ध मिल
जाएं तो तुरंत
उनकी हत्या कर
दो; उन्हें
वहां टिकने ही
मत दो। झेन
संत बुद्ध के
अनुयायी हैं;
तो भी वे
कहते हैं कि
यदि बुद्ध
ध्यान में मिल
जाएं तो
उन्हें तुरंत
समाप्त कर
देना। क्योंकि
बुद्ध का
व्यक्तित्व, बुद्ध का
आदर्श इतना
सम्मोहक हो
सकता है कि तुम
स्वयं को भूल
जा सकते हो।
और अगर तुम
स्वयं को भूल
गए तो तुम
मार्ग से च्युत
हो गए।
बुद्ध
आदर्श नहीं
हैं;
तुम स्वयं
आदर्श हो, तुम्हारा
अज्ञात
भविष्य आदर्श
है। उसे ही
आविष्कृत
करना है। तंत्र
उसे आविष्कृत
करने की विधि
देता है।
खजाना
तुम्हारे
भीतर ही है।
तो यह दूसरी
बात स्मरण रखो।
यह मानना बहुत
कठिन है कि
तुम स्वयं
आदर्श हो।
मानना कठिन
इसलिए है
क्योंकि हरेक
आदमी तुम्हारी
निंदा कर रहा
है। कोई
व्यक्ति
तुम्हें
स्वीकार नहीं
करता है, तुम
खुद भी तो
अपने को
स्वीकार नहीं
करते हो। तुम
सतत अपनी
निंदा करते
रहते हो। तुम
सदा किसी
दूसरे जैसे
होने की भाषा
में सोचते
रहते हो, और
यह गलत है, खतरनाक
है। अगर तुम
इस तरह सोचते
रहोगे तो तुम
नकली हो जाओगे,
तुम्हारा
सब कुछ झूठा
हो जाएगा।
अंग्रेजी
में नकली के
लिए एक शब्द
है : फोनी।
क्या तुम
जानते हो कि
यह फोनी
शब्द कहां से
आता है? यह
टेलीफोन से
आता है।
टेलीफोन के
आरंभिक दिनों
में संप्रेषण
में आवाज इतनी
बदल जाती थी
कि टेलीफोन से
असली आवाज और
एक नकली आवाज,
दोनों सुनाई
पड़ती थीं।
नकली आवाज वह
थी जो
यांत्रिक थी।
असली आवाज तो
उन शुरू के
दिनों म् में
न के बराबर
सुनाई पड़ती थी।
उससे ही नकली
के लिए
अंग्रेजी में फोनी शब्द
आया।
अगर
तुम किसी का
अनुकरण कर रहे
हो तो तुम फोनी
हो जाओगे, नकली
हो जाओगे; तुम
सच्चे नहीं
रहोगे।
तुम्हें
चारों ओर से
एक
यांत्रिकता
घेरे रहेगी, और उसमें
तुम्हारी अपनी
आवाज, तुम्हारा
यथार्थ, तुम्हारा
सत्य, सब
खो जाएगा। तो
नकली मत बनो, प्रामाणिक बनो,
सच्चे बनो।
तंत्र
को तुम पर
भरोसा है। यही
कारण है कि
तंत्र को
मानने वाले
इतने थोड़े हैं।
कोई व्यक्ति
अपने पर भरोसा
नहीं करता है।
तंत्र तुम पर
श्रद्धा करता
है,
और कहता है
कि तुम स्वयं
आदर्श हो।
इसलिए किसी का
अनुकरण मत करो;
अनुकरण
तुम्हारे
चारों ओर एक
झूठा
व्यक्तित्व
निर्मित कर
देगा। और तुम
उस झूठे
व्यक्तित्व
को यह सोचकर
ढोए जाओगे कि
वह तुम्हारा
अपना
व्यक्तित्व
है। लेकिन वह
तुम्हारा
व्यक्तित्व
नहीं है।
तो
दूसरी बात
स्मरण रखने की
यह है कि
तुम्हारा कोई
निश्चित, नियत
आदर्श नहीं है।
तुम भविष्य की
भाषा में नहीं
सोच सकते, केवल
वर्तमान की
भाषा में सोच
सकते हो—प्रत्यक्ष
भविष्य की
भाषा में ही
सोच सकते हो।
उसमें ही
विकास संभव है।
कोई
नियत भविष्य
नहीं है। और
यह अच्छा है
कि भविष्य
नियत नहीं है।
अन्यथा
स्वतंत्रता
संभव नहीं
होती; अगर
भविष्य नियत
है तो आदमी
रोबोट हो
जाएगा, यंत्र—मानव
हो जाएगा।
तुम्हारा
भविष्य नियत
नहीं है; तुम्हारी
संभावनाएं
अनंत हैं। तुम
अनेक आयामों
में विकास कर
सकते हो।
लेकिन जो चीज
तुम्हें परम
परितोष देगी,
वह यह है कि
तुम विकास करो।
और यह विकास
इस ढंग से हो
कि प्रत्येक
विकास और—और
विकास का
द्वार बने।
विधियां
सहयोगी हैं, क्योंकि
वे वैज्ञानिक
हैं। तुम
व्यर्थ के
भटकाव से बच
जाओगे; तुम्हें
बेकार ही इधर—उधर
टटोलना नहीं
पड़ेगा। अगर
तुम किसी विधि
का उपयोग नहीं
करते हो तो
तुम्हें अनेक
जन्म लग
जाएंगे। तुम
मंजिल पर तो
पहुंच जाओगे,
क्योंकि
तुम्हारे
अंदर की जीवन—ऊर्जा
तब तक गति
करती रहेगी जहां
से आगे गति
करना संभव
नहीं होगा।
जीवन—ऊर्जा
अपने अंतिम
बिंदु तक, उच्चतम
शिखर तक
यात्रा करती
रहेगी। यही
कारण है कि
व्यक्ति को
बार—बार जन्म
लेना पड़ता है।
अपने आप भी
तुम पहुंच
सकते हो; लेकिन
तुम्हें बहुत—बहुत
लंबी यात्रा
करनी होगी, और वह
यात्रा बहुत
नीरस और उबाने
वाली होगी।
किसी
सदगुरु
के साथ, वैज्ञानिक
विधियों के
साथ तुम बहुत
समय, अवसर
और ऊर्जा की
बचत कर सकते
हो। और कभी—कभी
तो तुम क्षणों
में इतना
विकास कर सकते
हो जितना
जन्मों—जन्मों
में भी संभव
नहीं होगा।
अगर सम्यक
विधि प्रयोग
की जाए तो
विकास का विस्फोट
घटित होता है।
और
ये विधियां
लाखों वर्ष तक
प्रयोग में
लाई गई हैं।
ये किसी एक
व्यक्ति की
ईजाद नहीं हैं; अनेक—अनेक
साधकों ने
इनके
आविष्कार में
योगदान दिया
है। और यहां
इनका सार—सूत्र
ही दिया गया
है। इन एक सौ
बारह विधियों
में दुनियाभर
की सारी विधियां
सम्मिलित हैं;
कहीं कोई
ऐसी विधि नहीं
है जो इन एक सौ
बारह विधियों
में नहीं है, जो इन एक सौ
बारह विधियों
में नहीं
समाविष्ट की
गई है। ये
विधियां
समस्त
आध्यात्मिक
खोज का नवनीत
हैं।
लेकिन
सभी विधियां
सभी के लिए
नहीं हैं। तो
तुम्हें उनका
प्रयोग करके
देखना होगा। कोई—कोई
विधि ही
तुम्हारे काम
की होगी, और
तुम्हें उसे
खोजना होगा।
दो उपाय हैं।
एक कि स्वयं
के प्रयोग और
भूल के द्वारा
कोई विधि
तुम्हारे हाथ
लग जाए जो काम
करने लगे और
तुम
विकास करने
लगो। फिर तुम
उसे जारी रख
सकते हो।
दूसरा उपाय है
कि तुम किसी
गुरु के प्रति
समर्पित हो
जाओ और वह
तुम्हारे
योग्य विधि
चुन दे। ये दो
रास्ते हैं, और
चुनाव तुम पर
निर्भर है। अब
विधियों को
लें।
पहली
विधि :
अपनी
प्राण— शक्ति
को मेरुदंड
में ऊपर उठती
एक केंद्र से
दूसरे केंद्र
की ओर गति
करती हुई
प्रकाश— किरण
समझो; और इस
भांति तुममें
जीवंतता का
उदय होता है।
योग
के अनेक साधन, अनेक
उपाय इस विधि
पर आधारित हैं।
पहले समझो कि
यह क्या है, और फिर इसके
प्रयोग को
लेंगे।
मेरुदंड, रीढ़
तुम्हारे
शरीर और
मस्तिष्क
दोनों का आधार
है। तुम्हारा
मस्तिष्क, तुम्हारा
सिर तुम्हारे
मेरुदंड का ही
अंतिम छोर है।
मेरुदंड पूरे
शरीर की
आधारशिला है।
अगर मेरुदंड
युवा है तो
तुम युवा हो।
और अगर
मेरुदंड बूढ़ा
है तो तुम
बूढ़े हो। अगर
तुम अपने
मेरुदंड को
युवा रख सको
तो बूढ़ा होना
कठिन होगा। सब
कुछ इस
मेरुदंड पर
निर्भर है।
अगर तुम्हारा
मेरुदंड
जीवंत है तो
तुम्हारे मन—मस्तिष्क
में मेधा होगी,
चमक होगी।
और अगर
तुम्हारा
मेरुदंड जड़ और
मृत है तो
तुम्हारा मन
भी बहुत जड़
होगा। समस्त
योग अनेक
ढंगों से
तुम्हारे
मेरुदंड को
जीवंत, युवा,
ताजा और
प्रकाशपूर्ण
बनाने की
चेष्टा करता है।
मेरुदंड
के दो छोर हैं।
उसके आरंभ में
काम—केंद्र है
और उसके शिखर
पर सहस्रार है—सिर
के ऊपर जो
सातवां चक्र
है। मेरुदंड
का जो आरंभ है
वह पृथ्वी से
जुड़ा है; कामवासना
तुम्हारे
भीतर
सर्वाधिक
पार्थिव चीज
है। तुम्हारे
मेरुदंड के
आरंभिक चक्र
के द्वारा तुम
निसर्ग के
संपर्क में
आते हो, जिसे
सांख्य
प्रकृति कहता
है—पृथ्वी, पदार्थ। और
अंतिम चक्र से,
सहस्रार से
तुम परमात्मा
के संपर्क में
होते हो।
तुम्हारे
अस्तित्व के
ये दो ध्रुव
हैं। पहला काम—केंद्र
है,
और दूसरा
सहस्रार है।
अंग्रेजी में
सहस्रार के
लिए कोई शब्द
नहीं है। ये
ही दो ध्रुव
हैं।
तुम्हारा
जीवन या तो कामोन्यूख
होगा या सहस्रारोन्यूख
होगा। या तो
तुम्हारी
ऊर्जा काम—केंद्र
से बहकर
पृथ्वी में
वापस जाएगी, या तुम्हारी
ऊर्जा
सहस्रार से
निकलकर अनंत आकाश
में समा जाएगी।
तुम सहस्रार
से ब्रह्म में,
परम सत्ता
में प्रवाहित
हो जाते हो।
तुम काम—केंद्र
से पदार्थ जगत
में प्रवाहित
होते हो। ये
दो प्रवाह हैं;
ये दो
संभावनाएं
हैं।
जब
तक तुम ऊपर की
ओर विकसित
नहीं होते, तुम्हारे
दुख कभी
समाप्त नहीं
होंगे।
तुम्हें सुख
की झलकें मिल
सकती हैं; लेकिन
वे झलकें ही
होंगी, और
बहुत भ्रामक
होंगी। जब
ऊर्जा
ऊर्ध्वगामी
होगी, तुम्हें
सुख की
अधिकाधिक
सच्ची झलकें
मिलने लगेंगी।
और जब ऊर्जा
सहस्रार पर पहुंचेगी,
तुम परम
आनंद को
उपलब्ध हो
जाओगे। वही
निर्वाण है।
तब झलक नहीं
मिलती, तुम
आनंद ही हो
जाते हो।
योग
और तंत्र की
पूरी चेष्टा
यह है कि कैसे
ऊर्जा को
मेरुदंड के
द्वारा, रीढ़
के द्वारा
ऊर्ध्वगामी
बनाया जाए, कैसे उसे
गुरुत्वाकर्षण
के विपरीत
गतिमान किया
जाए। काम या
सेक्स आसान है,
क्योंकि वह
गुरुत्वाकर्षण
के विपरीत
नहीं है।
पृथ्वी सब
चीजों को अपनी
तरफ नीचे खींच
रही है; तुम्हारी
काम—ऊर्जा को
भी पृथ्वी
नीचे खींच रही
है। तुमने
शायद यह
नहीं
सुना हो, लेकिन
अंतरिक्ष
यात्रियों ने
यह अनुभव किया
है कि जैसे ही
वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण
के बाहर निकल
जाते हैं, उनकी
कामुकता बहुत
क्षीण हो जाती
है। जैसे—जैसे
शरीर का वजन
कम होता है, कामुकता
विलीन हो जाती
है।
पृथ्वी
तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा को
नीचे की तरफ
खींचती है, और
यह स्वाभाविक
है। क्योंकि
जीवन—ऊर्जा
पृथ्वी से आती
है। तुम भोजन
लेते हो, और
उससे तुम अपने
भीतर जीवन—ऊर्जा
निर्मित कर
रहे हो। यह
ऊर्जा पृथ्वी
से आती है, और
पृथ्वी उसे
वापस खींचती
रहती है।
प्रत्येक चीज
अपने
मूलस्रोत को
लौट जाती है।
और अगर यह ऐसे
ही चलता रहा, जीवन—ऊर्जा
फिर—फिर पीछे
लौटती रही और
तुम वर्तुल
में घूमते रहे,
तो तुम
जन्मों—जन्मों
तक ऐसे ही
घूमते रहोगे।
तुम इस ढंग से
अनंत काल तक
चलते रह सकते
हो, यदि
तुम अंतरिक्ष
यात्रियों की
तरह छलांग नहीं
लेते।
अंतरिक्ष
यात्रियों की
तरह तुम्हें
छलांग लेनी है
और वर्तुल के
पार निकल जाना
है। तब पृथ्वी
के
गुरुत्वाकर्षण
का पैटर्न टूट
जाता है। यह
तोड़ा जा सकता
है।
यह
कैसे तोड़ा जा
सकता है, ये
उसकी ही
विधियां हैं।
ये विधियां इस
बात की फिक्र
करती हैं कि
कैसे ऊर्जा
ऊर्ध्व गति
करे, नये
केंद्रों तक
पहुंचे; कैसे
तुम्हारे
भीतर नई ऊर्जा
का आविर्भाव
हो और कैसे
प्रत्येक गति
के साथ वह
तुम्हें नया
आदमी बना दे।
और जिस क्षण
तुम्हारे
सहस्रार से, कामवासना के
विपरीत ध्रुव
से तुम्हारी
ऊर्जा मुक्त
होती है, तुम
आदमी नहीं रह
गए; तब तुम
इस धरती के न
रहे, तब
तुम भगवान हो
गए।
जब
हम कहते हैं
कि कृष्ण या
बुद्ध भगवान
हैं तो उसका
यही अर्थ है।
उनके शरीर तो
तुम्हारे
जैसे ही हैं; उनके
शरीर भी रुग्ण
होंगे और
मरेंगे। उनके
शरीरों में सब
कुछ वैसा ही
होता है जैसे तुम्हारे
शरीरों में
होता है।
सिर्फ एक चीज
उनके शरीरों
में नहीं होती
जो तुममें
होती है; उनकी
ऊर्जा ने
गुरुत्वाकर्षण
के पैटर्न को
तोड़ दिया है।
लेकिन वह तुम
नहीं देख सकते;
वह
तुम्हारी आंखों
के लिए दृश्य
नहीं है।
लेकिन
कभी—कभी जब
तुम किसी
बुद्ध की
सन्निधि में
बैठते हो तो
तुम यह अनुभव
कर सकते हो।
अचानक
तुम्हारे
भीतर ऊर्जा का
ज्वार उठने लगता
है और
तुम्हारी
ऊर्जा ऊपर की
तरफ यात्रा करने
लगती है। तभी
तुम जानते हो
कि कुछ घटित
हुआ है। केवल
बुद्ध के
सत्संग में ही
तुम्हारी
ऊर्जा सहस्रार
की तरफ गति
करने लगती है।
बुद्ध इतने
शक्तिशाली
हैं कि पृथ्वी
की शक्ति भी
उनसे कम पड़
जाती है। उस
समय पृथ्वी की
ऊर्जा
तुम्हारी
ऊर्जा को नीचे
की तरफ नहीं
खींच पाती है।
जिन लोगों ने
जीसस, बुद्ध
या कृष्ण की
सन्निधि में
इसका अनुभव लिया
है, उन्होंने
ही उन्हें
भगवान कहा है।
उनके पास
ऊर्जा का एक
भिन्न स्रोत
है जो पृथ्वी
से भी
शक्तिशाली है।
इस
पैटर्न को
कैसे तोड़ा जा
सकता है? यह
विधि पैटर्न तोड्ने
में बहुत
सहयोगी है।
लेकिन पहले
कुछ बुनियादी
बातें खयाल
में ले लो।
पहली
बात कि अगर
तुमने
निरीक्षण
किया होगा तो तुमने
देखा होगा कि
तुम्हारी काम—ऊर्जा
कल्पना के साथ
गति करती है।
सिर्फ कल्पना
के द्वारा भी
तुम्हारी काम—ऊर्जा
सक्रिय हो
जाती है। सच
तो यह है कि
कल्पना के
बिना वह
सक्रिय नहीं हो
सकती है। यही कारण
है कि जब तुम
किसी के प्रेम
में होते हो तो
काम—ऊर्जा
बेहतर काम —करती
है। क्योंकि प्रेम
के साथ कल्पना
प्रवेश कर
जाती है। अगर
तुम प्रेम में
नहीं हो तो वह
बहुत कठिन है; वह
काम नहीं करेगी।
इसीलिए
पुराने दिनों
में पुरुष—वेश्याएं
नहीं होती थीं; सिर्फ
स्त्री—वेश्याएं
होती थीं।
पुरुष—वेश्या
के लिए काम के
तल पर सक्रिय
होना कठिन है,
अगर वह
प्रेम में
नहीं है। और
सिर्फ पैसे के
लिए वह प्रेम
कैसे कर सकता
है? तुम
किसी पुरुष को
तुम्हारे साथ
संभोग में उतरने
के लिए पैसे
दे सकती हो; लेकिन अगर
उसे तुम्हारे
प्रति भाव
नहीं है, कल्पना
नहीं है, तो
वह सक्रिय
नहीं हो सकता।
स्त्रियां यह
कर सकती हैं, क्योंकि
उनकी
कामवासना निष्क्रिय
है। सच तो यह
है कि उनके
सक्रिय होने
की जरूरत नहीं
है। वे बिलकुल
अनासक्त रह
सकती हैं; संभव
है कि उन्हें
कोई भी भाव न
हो। उनके शरीर
लाशों की
भांति पड़े रह
सकते हैं।
वेश्या के साथ
तुम एक जीवित
शरीर के साथ
नहीं, एक
मृत लाश के
साथ संभोग
करते हो।
स्त्रियां
आसानी से
वेश्या हो
सकती हैं, क्योंकि
उनकी काम—ऊर्जा
निष्क्रिय
है।
तो
काम—केंद्र
कल्पना से काम
करता है।
इसीलिए स्वप्नों
में तुम्हें इरेक्शन
हो सकता है, और
वीर्यपात भी
हो सकता है।
वहां कुछ भी
वास्तविक
नहीं है; सब
कल्पना का खेल
है। फिर भी
देखा गया है
कि प्रत्येक
पुरुष को, अगर
वह स्वस्थ है,
रात में कम
से कम दस दफा इरेक्शन
होता है। मन
की जरा सी गति
के साथ, काम
का जरा—सा
विचार उठने से
ही इरेक्शन
हो जाएगा।
तुम्हारे
मन की अनेक
शक्तियां हैं, अनेक
क्षमताएं हैं;
और उनमें से
एक है संकल्प।
लेकिन तुम
संकल्प से काम—कृत्य
में नहीं उतर
सकते; काम
के लिए संकल्प
नपुंसक है।
अगर तुम
संकल्प से
किसी के साथ
संभोग में उतरने
की चेष्टा
करोगे तो
तुम्हें
लगेगा कि तुम
नपुंसक हो गए।
कभी चेष्टा मत
करो।
कामवासना में
संकल्प नहीं,
कल्पना काम
करती है।
कल्पना करो, और तुम्हारा
काम—केंद्र
सक्रिय हो
जाएगा।
लेकिन
मैं क्यों इस
तथ्य पर इतना
जोर दे रहा हूं? क्योंकि
यदि कल्पना
ऊर्जा को
गतिमान करने
में सहयोगी है,
तो तुम सिर्फ
कल्पना के
द्वारा उसे
चाहो तो ऊपर
ले जा सकते हो
और चाहो तो
नीचे ले जा
सकते हो। तुम
अपने खून को
कल्पना से
गतिमान नहीं
कर सकते; तुम
शरीर में और
कुछ कल्पना से
नहीं कर सकते।
लेकिन काम—ऊर्जा
कल्पना से
गतिमान की जा
सकती है; तुम
उसकी दिशा बदल
सकते हो।
यह
सूत्र कहता है
: 'अपनी प्राण—शक्ति
को प्रकाश—किरण
समझो।’ स्वयं
को, अपने
होने को
प्रकाश—किरण
समझो।’मेरुदंड
में ऊपर उठती
हुई, एक
केंद्र से
दूसरे केंद्र
की ओर गति
करती हुई।’ रीढ़ में ऊपर
उठती हुई।’और
इस भांति
तुममें
जीवंतता का
उदय होता है।’
योग
ने तुम्हारे
मेरुदंड को
सात चक्रों
में बांटा है।
पहला काम—केंद्र
है और अंतिम
सहस्रार है, और
इन दोनों के
बीच पांच
केंद्र हैं।
कोई—कोई साधना—पद्धति
मेरुदंड को नौ
केंद्रों में बांटती है;
कोई तीन में
ही और कोई चार
में। यह
विभाजन बहुत
अर्थ नहीं
रखता है; तुम
अपना विभाजन
भी निर्मित कर
सकते हो।
प्रयोग के लिए
पांच केंद्र
पर्याप्त हैं।
पहला काम—केंद्र
है; दूसरा
ठीक नाभि के
पीछे है; तीसरा
हृदय के पीछे
है; चौथा
केंद्र
तुम्हारी
दोनों भौंहों
के बीच में है—ठीक
ललाट के बीच
में, और
अंतिम केंद्र
सहस्रार
तुम्हारे सिर
के शिखर पर है।
ये पांच
पर्याप्त हैं।
यह
सूत्र कहता है
'अपने को
समझो, ' उसका
अर्थ है कि
भाव करो, कल्पना
करो। आंखें
बंद कर लो और
भाव करो कि
मैं बस प्रकाश
हूं। यह मात्र
भाव या कल्पना
नहीं है। शुरू—शुरू
में तो कल्पना
ही है, लेकिन
यथार्थ में भी
ऐसा ही है।
क्योंकि हरेक
चीज प्रकाश से
बनी है। अब
विज्ञान कहता
है कि सब कुछ
विद्युत है।
तंत्र ने तो
सदा से कहा है
कि सब कुछ
प्रकाश—कणों
से बना तुम भी
प्रकाश—कणों
से ही बने हो।
इसीलिए कुरान
कहता है कि
परमात्मा
प्रकाश है।
तुम प्रकाश
हो!
तो
पहले भाव करो
कि मैं बस
प्रकाश—किरण
हूं और फिर
अपनी कल्पना
को काम—केंद्र
के पास ले जाओ।
अपने अवधान को
वहां एकाग्र
करो और भाव
करो कि प्रकाश—किरणें
काम—केंद्र से
ऊपर उठ रही
हैं,
मानो काम—केंद्र
प्रकाश का
स्रोत बन गया
है और प्रकाश—किरणें
वहा से नाभि—केंद्र
की ओर ऊपर उठ
रही हैं।
विभाजन
इसीलिए जरूरी
है,
क्योंकि
तुम्हारे लिए
काम—केंद्र को
सीधे सहस्रार
से जोडना कठिन
होगा। छोटे—छोटे
विभाजन
इसीलिए
उपयोगी हैं; यदि तुम
सीधे सहस्रार
से जुड़ सको तो
किसी विभाजन
की जरूरत नहीं
है। तुम काम—केंद्र
के ऊपर के सभी
विभाजन गिरा
दे सकते हो; और ऊर्जा, जीवन—शक्ति
प्रकाश की
भांति सीधे
सहस्रार की ओर
उठने लगेगी।
लेकिन
विभाजन
ज्यादा
सहयोगी होंगे, क्योंकि
तुम्हारा मन
छोटे—छोटे
खंडों की
धारणा ज्यादा
आसानी से
निर्मित कर
सकता है। तो
भाव करो कि
ऊर्जा, प्रकाश—किरणें
तुम्हारे काम—केंद्र
से उठकर
प्रकाश की नदी
की भांति नाभि—केंद्र
की ओर
प्रवाहित हो
रही हैं।
तत्काल तुम
अपने भीतर ऊपर
उठती हुई
ऊष्मा अनुभव
करोगे, शीघ्र
ही तुम्हारी
नाभि गर्म हो
उठेगी। तुम उस
गरमाहट को
अनुभव कर सकते
हो; दूसरे
भी उस गरमाहट
को अनुभव कर
सकते हैं।
तुम्हारे भाव
के द्वारा
तुम्हारी काम—ऊर्जा
ऊर्ध्वगामी
हो जाएगी, ऊपर
को उठने लगेगी।
जब
तुम अनुभव करो
कि अब नाभि पर
स्थित दूसरा केंद्र
प्रकाश का
स्रोत बन गया
है,
कि प्रकाश—किरणें
वहां आकर
इकट्ठी होने
लगी हैं, तब
हृदय—केंद्र
की ओर गति करो,
और ऊपर बढ़ो।
और जैसे—जैसे
प्रकाश हृदय—केंद्र
पर पहुंचेगा,
जैसे—जैसे
उसकी किरणें
वहा इकट्ठी
होने लगेंगी,
वैसे—वैसे
तुम्हारे
हृदय की धड़कन
बदल जाएगी, तुम्हारी
श्वास गहरी
होने लगेगी, और तुम्हारे
हृदय में
गरमाहट
पहुंचने
लगेगी। तब
उससे भी और
आगे, और
ऊपर बढ़ो।
'अपनी प्राण—शक्ति
को मेरुदंड
में ऊपर उठती,
एक केंद्र
से दूसरे
केंद्र की ओर
गति करती हुई
प्रकाश—किरण
समझो; और
इस भांति
तुममें
जीवंतता का
उदय होता है।’
और
जैसे—जैसे
तुम्हें
गरमाहट अनुभव
होगी, वैसे—वैसे
ही, उसके
साथ—साथ ही, तुम्हारे
भीतर एक
जीवंतता का
उन्मेष होगा,
एक आंतरिक
प्रकाश का उदय
होगा।
काम—ऊर्जा
के दो हिस्से हैं
एक हिस्सा
शारीरिक है और
दूसरा मानसिक
है। तुम्हारे
शरीर में हरेक
चीज के दो
हिस्से हैं।
तुम्हारे
शरीर और मन की
भांति ही
तुम्हारे भीतर
प्रत्येक चीज
के दो हिस्से
हैं : एक भौतिक
है और दूसरा
अभौतिक। काम—ऊर्जा
के भी दो
हिस्से हैं।
वीर्य उसका
भौतिक हिस्सा
है। वीर्य ऊपर
नहीं उठ सकता; उसके
लिए मार्ग
नहीं है।
इसीलिए
पश्चिम के
अनेक शरीर—शास्त्री
कहते हैं कि
तंत्र और योग
की साधना बकवास
है, वे
उन्हें इनकार
ही करते हैं।
काम—ऊर्जा ऊपर
की ओर कैसे उठ
सकती है? उसके
लिए कोई मार्ग
नहीं है, और
वह ऊपर नहीं
उठ सकती।
वै
शरीर—शास्त्री
सही हैं, और
फिर भी गलत
हैं। काम—ऊर्जा
का जो भौतिक
हिस्सा है,
वह जो वीर्य है,
वह ऊपर उठ
सकता; लेकिन
वहीं सब कुछ।
सच तो यह है कि
वीर्य काम—ऊर्जा
का शरीर भर है;
वह स्वयं
काम—ऊर्जा
नहीं है। काम—ऊर्जा
तो उसका
अभौतिक
हिस्सा है, और यह
अभौतिक तत्व ऊपर
उठ सकता है।
और उसी अभौतिक
ऊर्जा के लिए
मेरुदंड
मार्ग का काम
करता है; मेरुदंड
और उसके चक्र
मार्ग का काम
करते हैं।
लेकिन उसको तो
अनुभव से
जानना होगा; और तुम्हारी
संवेदनशीलता
मर गई है।
मुझे
स्मरण आता है
कि किसी
मनोचिकित्सक
ने अपने एक
रोगी के संबंध
में,
एक स्त्री
के संबंध में
एक संस्मरण
लिखा है। वह
उससे कह रहा
था कि कुछ भाव
करो, कुछ
अनुभव करो।
लेकिन
मनोचिकित्सक
को लगा कि वह
जो भी करती थी,
वह उसकी
अनुभूति नहीं,
विचार भर
करती थी। वह
अनुभूति के
संबंध में
विचार करती थी,
जो कि
सर्वथा भिन्न
बात है। तो उस
चिकित्सक ने
अपना हाथ
स्त्री के हाथ
पर रखा और कहा
कि अपनी आंखें
बंद करो और
बताओ कि तुम
क्या अनुभव कर
रही हो?
उस
स्त्री ने
तुरंत कहा कि
मैं तुम्हारा
हाथ अनुभव कर
रही हूं।
लेकिन
चिकित्सक ने
कहा कि यह
तुम्हारा
अनुभव नहीं है, यह
सिर्फ
तुम्हारा
विचार है, तुम्हारा
अनुमान है।
मैंने
तुम्हारे हाथ
में अपना हाथ
रखा, और
तुम कहती हो
कि मैं
तुम्हारा हाथ
अनुभव कर रही
हूं। लेकिन
तुम अनुभव
नहीं कर रही
हो; यह
तुम्हारा
अनुमान मात्र
है। बताओ कि
तुम क्या
अनुभव कर रही
हो?
तो
उस स्त्री ने
कहा कि मैं
तुम्हारी अंगुलियां
अनुभव कर रही
हूं। लेकिन
चिकित्सक ने
फिर कहा कि यह
भी तुम्हारा
अनुभव नहीं, अनुमान
ही है। अनुमान
मत करो; आंखें
बंद करो और
वहां जाओ जहां
मेरा हाथ है
और फिर मुझे
बताओ कि क्या
अनुभव कर रही
हो। तब उस
स्त्री ने कहा
: 'ओह, मैं
तो पूरी बात
ही चूक रही थी,
मैं थोड़ा
दबाव और
गरमाहट अनुभव
कर रही हूं।’
जब
कोई हाथ
तुम्हें
स्पर्श करता
है तो हाथ नहीं, दबाव
और गरमाहट
अनुभव होती है।
हाथ तो अनुमान
भर है; वह
बुद्धि है, भाव नहीं।
गरमाहट और
दबाव
अनुभूतियां
हैं। अब यह
स्त्री अनुभव
कर रही थी।
हमने
अनुभूति
बिलकुल खो दी
है;
तुम्हें
फिर से उसे
विकसित करना होगा।
केवल तभी इन
विधियों को
प्रयोग में ला
सकते हो।
अन्यथा ये
विधियां काम
नहीं करेंगी।
तुम केवल
बुद्धि से
सोचोगे कि मैं
अनुभव करता
हूं और कुछ भी
घटित नहीं
होगा। यही
कारण है कि
लोग मेरे पास
आते हैं और
कहते हैं कि
आप तो कहते
हैं कि यह
विधि बहुत
महत्वपूर्ण
है, लेकिन
कुछ भी घटित
नहीं होता है।
उन्होंने
प्रयोग तो
किया, लेकिन
वे एक आयाम
चूक गए; वे
अनुभव का आयाम
चूक गए। तो
तुम्हें पहले
इस आयाम को
विकसित करना
होगा। और उसके
कुछ उपाय हैं
जिन्हें तुम
प्रयोग में ला
सकते हो।
तुम
एक काम करो; अगर
तुम्हारे घर
में कोई छोटा
बच्चा है तो
प्रतिदिन एक
घंटा उस बच्चे
के पीछे —पीछे
चलो। बुद्ध के
पीछे चलने से
उसके पीछे
चलना बेहतर और
कहीं ज्यादा तृप्तिदायी
हो सकता है।
बच्चे को अपने
चारों हाथ—पांव
पर चलने को
कहो, घुटनों
के बल चलने को
कहो, और
तुम भी उसी
तरह अपने
चारों हाथ—पांव
पर चलो। बच्चे
के पीछे—पाछॅ
तुम भी चलो।
और
पहली बार
तुम्हें अपने
में एक नवजीवन
का उन्मेष
होगा। तुम फिर
बच्चे हो जाओगे।
बच्चे को देखो, और
उसके पीछे—पीछे
चलो। बच्चा घर
के कोने—कोने
में जाएगा वह
घर की हरेक
चीज को स्पर्श
करेगा। न केवल
स्पर्श करेगा,
वह एक—एक
चीज का स्वाद
लेगा, वह
एक—एक चीज को
सूंघेगा। तुम
बस उसका
अनुकरण करो; वह जो भी करे
तुम भी वही
करो।
कभी
तुम भी बच्चे
थे;
तुम भी कभी
यह सब कर चुके
हो। बच्चा
अनुभूति की
अवस्था में है;
वह सोच—विचार
नहीं कर रहा
है। उसे सुगंध
आती है और वह
उस कोने की
तरफ बढ
जाता है जहां
से सुगंध आ
रही है। उसे
एक सेव दिखाई
पड़ता है, और
वह उसे उठाकर
खाने लगता है।
तुम भी ठीक
बच्चे की तरह
स्वाद लो। जब
बच्चा सेव खा
रहा है तो उसे
गौर से देखो; वह उसे खाने
में पूरी तरह
डूबा हुआ है।
उसके लिए सारा
संसार खो गया
है, सिर्फ
सेव बचा है।
यहां तक कि
सेव भी नहीं
है और न बच्चा
है; सिर्फ
खाना है।
तो
एक घंटे तक
बच्चे का
अनुकरण मात्र
करो,
वह एक घंटा
तुम्हें इतना
समृद्ध बना
जाएगा जिसका
कि हिसाब नहीं।
तुम फिर से
बच्चे हो
जाओगे।
तुम्हारी सब
सुरक्षा—व्यवस्था
गिर जाएगी; तुम्हारा सब
कवच गिर जाएगा।
और तुम फिर
संसार को वैसे
ही देखने
लगोगे जैसे एक
बच्चा देखता
है। बच्चा
अनुभूति के
आयाम से उसे
देखता है। और
जब तुम्हें
लगे कि अब मैं
विचार नहीं, अनुभूति के
आयाम से देख
सकता हूं तो
तुम उस कालीन
की कोमलता का
भी सुख ले
सकते हो जिस
पर तुम बच्चे
की भांति चलते
हो। तुम उसके
दबाव और
गरमाहट को भी
महसूस कर सकोगे।
और यह सब
सिर्फ
निर्दोष भाव
से एक बच्चे
का अनुकरण
करने से होता
है।
मनुष्य
बच्चों से
बहुत कुछ सीख
सकता है। और
देर—अबेर
तुम्हारी
सच्ची
निर्दोषता
प्रकट हो जाएगी।
तुम भी कभी
बच्चे थे, और
तुम जानते हो
कि बच्चा होना
क्या है।
सिर्फ उसका
विस्मरण हो
गया है।
तो
अनुभूति के
केंद्रों को
फिर से सक्रिय
होना होगा; तो
ही ये विधियां
कारगर हो सकती
हैं। अन्यथा
तुम सोचते
रहोगे कि
ऊर्जा ऊपर उठ
रही है, लेकिन
उसकी कोई अनुभूति
नहीं होगी। और
अनुभूति के
अभाव में कल्पना
व्यर्थ है, बांझ है।
अनुभूति— भरा
भाव ही परिणाम
ला सकता है।
तुम
और भी कई
चीजें कर सकते
हो,
और उन्हें
करने में कोई
विशेष
प्रयत्न भी
नहीं है। जब
तुम सोने जाओ
तो बिस्तर को,
तकिए को
महसूस करो, उसकी ठंडक
को महसूस करो।
तकिए को छुओ, उसके साथ
खेलो। अपनी आंखें
बंद कर लो और
सिर्फ
एयरकंडीशनर
की आवाज को
सुनो। घड़ी की
आवाज को या
चलती सड़क के
शोरगुल को
सुनो। कुछ भी
सुनो। उसे नाम
मत दो; कुछ
कहो ही मत। मन
का उपयोग ही
मत करो, बस अनूभूति
में जीओ।
सुबह
जागने के पहले
क्षण में, जब
तुम्हें लगे
कि नींद जा
चुकी है, तो
तुरंत सोच—विचार
मत करने लगो।
कुछ क्षणों के
लिए तुम फिर
से बच्चे हो
सकते हो, निर्दोष
और ताजे हो
सकते हो।
तुरंत सोच—विचार
में मत लग जाओ।
यह मत सोचो कि
क्या—क्या
करना है, कब
दफ्तर के लिए
रवाना होना है,
कौन सी गाड़ी
पकड़नी है।
सोच—विचार मत शुरू
करो। उन मूढ़ताओं
के लिए तुम्हें
काफी समय
मिलेगा; अभी
रुको। अभी कुछ
क्षणों के लिए
सिर्फ
ध्वनियों पर
ध्यान दो। एक
पक्षी गाता है;
वृक्षों से हवाएं
गुजर रही हैं;
कोई बच्चा
रोता है या
दूध देने वाला
आया है और पुकार
रहा है; या
वह पतेली
में दूध डाल
रहा है। जो भी
हो रहा हो उसे
महसूस करो, उसके प्रति
संवेदनशील
बनो, खुले
रहो। उसकी
अनुभूति में डूबो। और
तुम्हारी
संवेदनशीलता
बढ़ जाएगी।
जब
स्नान करो तो
उसे अपने पूरे
शरीर पर अनुभव
करो,
पानी की
प्रत्येक
बूंद को अपने
ऊपर गिरते हुए
महसूस करो।
उसके स्पर्श
को, उसकी
शीतलता और
उष्णता को
महसूस करो।
पूरे दिन इसका
प्रयोग करो, जब भी अवसर
मिले प्रयोग
करो। और सब
जगह अवसर ही
अवसर है।
श्वास लेते
हुए सिर्फ
श्वास को
अनुभव करो, भीतर जाती
और बाहर आती
श्वास को
अनुभव करो; केवल अनुभव
करो। अपने
शरीर को ही
महसूस करो; तुमने उसे
भी नहीं अनुभव
किया है।
हम
अपने शरीरों
से भी इतने
भयभीत हैं कि
कभी कोई अपने
शरीर को
प्रेमपूर्वक
स्पर्श नहीं
करता है। क्या
तुमने कभी
अपने शरीर को
ही प्रेम किया
है?
समूची
सभ्यता इस बात
से भयभीत है
कि कोई अपने को
ही स्पर्श करे,
क्योंकि
बचपन से ही
स्पर्श
वर्जित रहा है।
अपने को
प्रेमपूर्वक
स्पर्श करना
हस्तमैथुन
करने जैसा
मालूम पड़ता है।
लेकिन अगर तुम
अपने को ही
प्रेम से
स्पर्श नहीं
कर सकते तो
तुम्हारा
शरीर जड़ और
मृत हो जाएगा।
वह दरअसल जड
और मृत हो ही
गया है।
अपनी
आंखों को
स्पर्श करो और
उस स्पर्श को
अनुभव करो; और
तुम्हारी आंखें
तुरंत ताजी और
जीवंत हो उठेंगी।
अपने पूरे
शरीर को महसूस
करो; अपने
प्रेमी के
शरीर को महसूस
करो; अपने
मित्र के शरीर
को महसूस करो।
एक—दूसरे को
सहलाओ; एक—दूसरे
की मालिश करो।
मालिश बढ़िया
है। दो मित्र
एक—दूसरे की
मालिश कर सकते
हैं और एक—दूसरे
के शरीर को
अनुभव कर सकते
हैं। तुम अधिक
संवेदनशील हो
जाओगे।
संवेदनशीलता
और अनुभूति
पैदा करो। तभी
तुम इन
विधियों का
प्रयोग सरलता
से कर सकोगे।
और तब तुम्हें
अपने भीतर
जीवन—ऊर्जा के
ऊपर उठने का
अनुभव होगा।
इस ऊर्जा को
बीच में मत छोड़ो; उसे
सहस्रार तक
जाने दो।
स्मरण रहे कि
जब भी तुम यह
प्रयोग करो तो
उसे बीच में
मत छोड़ो; उसे पूरा
करो। यह भी
ध्यान रहे कि
इस प्रयोग में
कोई तुम्हें
बाधा न
पहुंचाए। अगर
तुम इस ऊर्जा
को कहीं बीच
में छोड़ दोगे
तो उससे
तुम्हें हानि
हो सकती है।
इस ऊर्जा को
मुक्त करना
होगा। तो उसे
सिर तक ले जाओ,
और भाव करो
कि तुम्हारा
सिर एक द्वार
बन गया है।
इस
देश में हमने
सहस्रार को
हजार पंखुड़ियों
वाले कमल के
रूप में
चित्रित किया
है। सहस्रार
का यही अर्थ
है : सहस्रदल
कमल का खिलना।
तो धारणा करो
कि हजार पंखुड़ियों
वाला कमल खिल
गया है, और
उसकी
प्रत्येक पंखुड़ी
से यह प्रकाश—ऊर्जा
ब्रह्मांड
में फैल रही
है। यह फिर एक
अर्थों में
संभोग है; लेकिन
यह प्रकृति के
साथ नहीं, परम
के साथ संभोग है।
फिर एक
आर्गाज्म
घटित होता है।
आर्गाज्म
दो प्रकार का
होता है। एक सेक्यूअल
और दूसरा स्प्रिचुअल।
सेक्यूअल
आर्गाज्य
निम्नतम
केंद्र से आता
है और स्तिचुअल
उच्चतम केंद्र
से। उच्चतम
केंद्र से तुम
उच्चतम से
मिलते हो और
निम्नतम
केंद्र से निम्नतम
से।
साधारण
संभोग में भी
तुम यह प्रयोग
कर सकते हो; दोनों
लोग यह प्रयोग
कर सकते हो।
ऊर्जा को
ऊर्ध्वगामी
बनाओ। और तब
संभोग तंत्र—साधना
बन जाता है; तब वह ध्यान बन
जाता है।
लेकिन
ऊर्जा को कहीं
शरीर में, किसी
बीच के केंद्र
पर मत छोड़ो।
कोई व्यक्ति
बीच में आ
सकता है जिसके
साथ तुम्हें
व्यावसायिक
सरोकार हो, या कोई फोन आ
जाए और
तुम्हें
प्रयोग को बीच
में ही छोड़ना
पड़े। इसलिए
ऐसे समय में
प्रयोग करो जब
कोई तुम्हें
बाधा न दे, और
ऊर्जा को किसी
केंद्र पर न
छोड़ना पड़े।
अन्यथा वह
केंद्र, जहां
तुम ऊर्जा को छोड़ोगे
घाव बन जाएगा
और तुम्हें
अनेक मानसिक रूणताओं
का शिकार होना
पड़ेगा।
तो
सावधान रहो; अन्यथा
यह प्रयोग मत
करो। इस विधि
के लिए नितांत
एकात
आवश्यक है, बाधा—रहितता
आवश्यक है। और
आवश्यक है कि
तुम उसे पूरा
करो। ऊर्जा को
सिर तक जाना
चाहिए और वहीं
से उसे मुक्त
होना चाहिए।
तुम्हें
अनेक अनुभव
होंगे। जब
तुम्हें
लगेगा कि
प्रकाश—किरणें
काम—केंद्र से
ऊपर उठने लगी
हैं तो काम—केंद्र
पर इरेक्शन
का और
उत्तेजना का
अनुभव होगा।
अनेक लोग बहुत
भयभीत और
आतंकित
स्थिति में
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं कि जब हम
ध्यान शुरू करते
हैं,
जब हम ध्यान
में गहरे जाने
लगते हैं, हमें
इरेक्शन
होता है। और
वे चकित होकर
पूछते हैं कि
यह क्या है!
वे
भयभीत हो जाते
हैं,
क्योंकि वे
सोचते हैं कि
ध्यान में कामुकता
के लिए जगह
नहीं होनी
चाहिए। लेकिन
तुम्हें जीवन
के रहस्यों का
पता नहीं है।
यह अच्छा
लक्षण है। यह
बताता है कि
ऊर्जा उठ रही
है, उसे
गति की जरूरत
है। तो आतंकित
मत होओ, और
यह मत सोचो कि
कुछ गलत हो
रहा है। यह
शुभ लक्षण है।
जब तुम ध्यान
शुरू करते हो
तो काम—केंद्र
ज्यादा
संवेदनशील, ज्यादा
जीवंत, ज्यादा
उत्तेजित हो
जाएगा, और
शुरू—शुरू में
यह उत्तेजना
साधारण कामुक
उत्तेजना
जैसी ही होगी।
लेकिन
केवल आरंभ में
ही ऐसा होगा।
जैसे—जैसे
तुम्हारा
ध्यान
गहराएगा वैसे—वैसे
ऊर्जा ऊपर
उठने लगेगी।
और जब ऊर्जा
ऊपर उठती है
तो काम—केंद्र
अनुत्तेजित, शांत
होने लगता है।
और जब ऊर्जा
बिलकुल
सहस्रार पर पहुंचेगी
तो काम—केंद्र
पर कोई
उत्तेजना
नहीं रहेगी; काम—केंद्र
बिलकुल स्थिर
और शात हो
जाएगा; वह
बिलकुल शीतल
हो जाएगा। अब
उष्णता सिर
में आ जाएगी।
और
यह शारीरिक
बात है। जब
काम—केंद्र
उत्तेजित
होता है तो वह
गरम हो जाता
है। तुम उस
गरमाहट को
महसूस कर सकते
हो,
वह शारीरिक
है। लेकिन जब
ऊर्जा ऊपर
उठती है तो
काम—केंद्र
ठंडा होने
लगता है, बहुत
ठंडा होने
लगता है, और
उष्णता सिर पर
पहुंच जाती है।
तब तुम्हें
सिर में चक्कर
आने लगेगा। जब
ऊर्जा सिर में
पहुंचेगी
तो तुम्हारा
सिर घूमने
लगेगा। कभी—कभी
तुम्हें
घबराहट भी
होगी; क्योंकि
पहली बार
ऊर्जा सिर में
पहुंची है, और तुम्हारा
सिर उससे
परिचित नहीं
है। उसे ऊर्जा
के साथ
सामंजस्य
बिठाना पड़ेगा।’
तो
भयभीत मत होओ।
यह होता है।
अगर बहुत सारी
ऊर्जा अचानक
उठ जाए और सिर
में पहुंच जाए
तो तुम बेहोश
भी हो जा सकते हो।
लेकिन यह
बेहोशी एक
घंटे से
ज्यादा देर
नहीं रहेगी; घंटे
भर के भीतर
ऊर्जा अपने आप
ही वापस लौट
जाएगी या
मुक्त हो जाएगी।
तुम उस अवस्था
में कभी एक
घंटे से
ज्यादा देर नहीं
रह सकते। मैं
कहता तो हूं
एक घंटा, लेकिन
असल में यह
समय अड़तालीस
मिनट का है।
यह उससे
ज्यादा नहीं
हो सकता; लाखों
वर्षों के
प्रयोग के
दौरान कभी ऐसा
नहीं हुआ है।
तो
डरो मत; तुम
बेहोश भी हो
जाओ तो ठीक है।
उस बेहोशी के
बाद तुम इतने
ताजा अनुभव
करोगे कि तुम्हें
लगेगा कि मैं
पहली बार नींद
से, गहनतम नींद से
गुजरा हूं।
योग में इसका
एक विशेष नाम
है; वे उसे
योग—तंद्रा
कहते हैं। यह
बहुत गहरी
नींद है; इसमें
तुम अपने गहनतम
केंद्र पर सरक
जाते हो।
लेकिन डरो मत।
और
अगर तुम्हारा
सिर गरम हो
जाए तो वह भी
शुभ लक्षण है।
ऊर्जा को
मुक्त होने दो।
भाव करो कि
तुम्हारा सिर
कमल के फूल की
भांति खिल रहा
है। भाव करो
कि ऊर्जा
ब्रह्मांड
में मुक्त हो
रही है, फैलती
जा रही है। और
जैसे—जैसे
ऊर्जा मुक्त
होगी, तुम्हें
शीतलता का
अनुभव होगा।
इस उष्णता के
बाद जो शीतलता
आती है, उसका
तुम्हें कोई
अनुभव नहीं है।
लेकिन विधि को
पूरा प्रयोग
करो; उसे
कभी आधा—अधूरा
मत छोड़ो।
प्रकाश—संबंधी
दूसरी विधि:
या बीच के
रिक्त
स्थानों में
यह बिजली कौधंने
जैसा है— ऐसा
भाव करो
थोड़े से
फर्क के साथ
यह विधि भी
पहली विधि जैसी
ही है।
'या बीच के
रिक्त
स्थानों में
यह बिजली
कौंधने जैसा
है—ऐसा भाव
करो।’
एक
केंद्र से
दूसरे केंद्र
तक जाती हुई
प्रकाश—किरणों
में बिजली के
कौंधने का
अनुभव करो—प्रकाश
की छलांग का
भाव करो। कुछ
लोगों के लिए
यह दूसरी विधि
ज्यादा अनुकूल
होगी, और कुछ
लोगों के लिए
पहली विधि
ज्यादा
अनुकूल होगी।
यही कारण है
कि इतना—सा
संशोधन किया
गया है।
ऐसे
लोग हैं जो
क्रमश: घटित
होने वाली
चीजों की
धारणा नहीं
बना सकते; और
कुछ लोग हैं
जो छलांगों
की धारणा नहीं
बना सकते। अगर
तुम क्रम की
सोच सकते हो, चीजों के कम
से होने की
कल्पना कर
सकते हो, तो
तुम्हारे लिए
पहली विधि ठीक
है। लेकिन अगर
तुम्हें पहली
विधि के
प्रयोग से पता
चले कि प्रकाश—किरणें
एक केंद्र से
दूसरे केंद्र
पर सीधे छलांग
लेती हैं तो
तुम पहली विधि
का प्रयोग मत
करो। तब
तुम्हारे लिए
यह दूसरी विधि
बेहतर है।
'यह बिजली
कौंधने जैसा
है—ऐसा भाव
करो।’
भाव
करो कि प्रकाश
की एक चिनगारी
एक केंद्र से
दूसरे केंद्र
पर छलांग लगा
रही है। और
दूसरी विधि
ज्यादा सच है, क्योंकि
प्रकाश सचमुच
छलांग लेता है।
उसमें कोई
क्रमिक, कदम—ब—कदम
विकास नहीं
होता है।
प्रकाश छलांग
है।
विद्युत
के प्रकाश को
देखो। तुम
सोचते हो कि
यह स्थिर है; लेकिन
वह भ्रम है।
उसमें भी
अंतराल हैं; लेकिन वे
अंतराल इतने
छोटे हैं कि
तुम्हें उनका
पता नहीं चलता
है। विद्युत छलांगों
में आती है।
एक छलांग, और
उसके बाद
अंधकार का
अंतराल होता
है। फिर दूसरी
छलांग, और
उसके बाद फिर
अंधकार का
अंतराल होता
है। लेकिन
तुम्हें कभी
अंतराल का पता
नहीं चलता है,
क्योंकि छलांग
इतनी तीव्र है।
अन्यथा
प्रत्येक
क्षण अंधकार
आता है; पहले
प्रकाश की
छलांग और फिर
अंधकार।
प्रकाश कभी
चलता नहीं, छलांग ही लेता
है। और जो लोग
छलांग की
धारणा कर सकते
हैं, यह दूसरी
संशोधित विधि
उनके लिए है।
'या बीच के
रिक्त
स्थानों में
यह बिजली
कौंधने जैसा
है—ऐसा भाव
करो।’
प्रयोग
करके देखो।
अगर तुम्हें
किरणों का
क्रमिक ढंग से
आना अच्छा
लगता है तो
वही ठीक है।
और अगर वह
अच्छा न लगे, और
लगे कि किरणें
छलांग ले रही
हैं, तो
किरणों की बात
भूल जाओ और
आकाश में
कौंधने वाली
विद्युत की, बादलों के
बीच छलांग
लेती विद्युत
की धारणा करो।
स्त्रियों
के लिए पहली
विधि आसान
होगी और पुरुषों
के लिए दूसरी।
स्त्री—चित्त
क्रमिकता की
धारणा ज्यादा
आसानी से बना
सकता है और
पुरुष—चित्त
ज्यादा आसानी
से छलांग लगा
सकता है।
पुरुष—चित्त
उछलकूद पसंद
करता है; वह एक
से दूसरी चीज
पर छलांग लेता
है। पुरुष—चित्त
में एक
सूक्ष्म
बेचैनी रहती
है। स्त्री—चित्त
में क्रमिकता
की एक
प्रक्रिया है।
स्त्री—चित्त
उछलकूद नहीं
पसंद करता है।
यही वजह है कि
स्त्री और
पुरुष के तर्क
इतने अलग होते
हैं। पुरुष एक
चीज से दूसरी
चीज पर छलांग
लगाता रहता है,
स्त्री को
यह बात बड़ी
बेबूझ लगती है।
उसके लिए
विकास, क्रमिक
विकास जरूरी
है।
लेकिन
चुनाव
तुम्हारा है।
प्रयोग करो, और
जो विधि
तुम्हें रास
आए उसे चुन लो।
इस
विधि के संबंध
में और दो—तीन
बातें। बिजली
कौंधने के भाव
के साथ
तुम्हें इतनी
उष्णता अनुभव
हो सकती है जो
असहनीय मालूम
पड़े। अगर ऐसा
लगे तो इस
विधि को
प्रयोग मत करो।
बिजली
तुम्हें बहुत
उष्ण कर दे
सकती है। और
अगर तुम्हें
लगे कि यह
असहनीय है तो
इसका प्रयोग
मत करो। तब
तुम्हारे लिए
पहली विधि है; अगर
वह तुम्हें
रास आए। अगर
बेचैनी महसूस
हो तो दूसरी
विधि का
प्रयोग मत करो।
कभी—कभी
विस्फोट इतना
बड़ा हो सकता
है कि तुम
भयभीत हो जा
सकते हो। और
यदि तुम एक
दफा डर गए तो
फिर तुम
दुबारा प्रयोग
न कर सकोगे।
तब भय पकड़
लेता है।
तो
सदा ध्यान रहे
कि किसी चीज
से भी भयभीत
नहीं होना है।
अगर तुम्हें
लगे कि भय
होगा और तुम
बरदाश्त न कर
पाओगे तो
प्रयोग मत करो।
तब प्रकाश—किरणों
वाली पहली
विधि
सर्वश्रेष्ठ
है।
लेकिन
यदि पहली विधि
के प्रयोग में
भी तुम्हें
लगे कि अतिशय
गर्मी पैदा हो
रही है—और ऐसा
हो सकता है, क्योंकि
लोग भिन्न—भिन्न
है—तो भाव करो
कि प्रकाश—किरणें
शीतल हैं, ठंडी
हैं। तब
तुम्हें सब
चीजों में
उष्णता की जगह
ठंडक महसूस
होगी। वह भी
प्रभावी हो
सकता है। तो
निर्णय तुम पर
निर्भर है; प्रयोग करके
निर्णय करो।
स्मरण
रहे,
चाहे इस
विधि के
प्रयोग में
चाहे अन्य
विधियों के
प्रयोग में, यदि तुम्हें
बहुत बेचैनी
अनुभव हो या
कुछ असहनीय
लगे, तो मत
करो। दूसरे
उपाय भी हैं, दूसरी
विधियां भी
हैं। हो सकता
है, यह
विधि
तुम्हारे लिए
न हो।
अनावश्यक
उपद्रवों में पड़कर तुम समाधान
की बजाय
समस्याएं ही
ज्यादा पैदा
करोगे।
इसीलिए
भारत में हमने
एक विशेष योग
का विकास किया
जिसे सहज योग
कहते हैं।
सहज
का अर्थ है
सरल,
स्वाभाविक,
स्वतःस्फूर्त।
सहज को सदा
याद रखो। अगर
तुम्हें
महसूस हो कि
कोई विधि
सहजता से तुम्हारे
अनुकूल पड़ रही
है, अगर वह
तुम्हें रास
आए, अगर
उसके प्रयोग
से तुम ज्यादा
स्वस्थ, ज्यादा
जीवंत, ज्यादा
सुखी अनुभव
करो, तो
समझो कि वह
विधि
तुम्हारे लिए
है। तब उसके
साथ यात्रा
करो, तुम
उस पर भरोसा
कर सकते हो।
अनावश्यक
समस्याएं मत
पैदा करो।
आदमी की आंतरिक
व्यवस्था
बहुत जटिल है।
अगर तुम कुछ
भी जबरदस्ती
करोगे तो तुम
बहुत सी चीजें
नष्ट कर दे
सकते हो।
इसलिए अच्छा
है कि किसी
ऐसी विधि के
साथ प्रयोग
करो जिसके साथ
तुम्हारा
अच्छा तालमेल
हो।
प्रकाश—संबंधी
तीसरी विधि:
भाव करो कि
ब्रह्मांड एक
पारदर्शी
शाश्वत उपस्थिति
है
यह विधि भी
प्रकाश से ही
संबंधित है।
'भाव करो कि
ब्रह्मांड एक
पारदर्शी
शाश्वत उपस्थिति
है।’
अगर
तुमने एल. एस
डी या उसी तरह
के किसी मादक
द्रव्य का
सेवन किया हो, तो
तुम्हें पता
होगा कि कैसे
तुम्हारे
चारों ओर का
जगत प्रकाश और
रंगों के जगत
में बदल जाता
है, जो कि
बहुत
पारदर्शी और
जीवंत मालूम
पड़ता है।
यह
एल .एस .डी के
कारण नहीं है।
जगत ऐसा ही है, लेकिन
तुम्हारी
दृष्टि शइमल
और मंद पड़ गई
है। एल. एस .डी.
तुम्हारे
चारों ओर
रंगीन जगत
नहीं निर्मित
करता है, जगत
पहले से ही
रंगीन है, उसमें
कोई भूल नहीं
है। यह रंगों
के इंद्रधनुष
जैसा है; रंगों
के रहस्यमय
लोक जैसा है; पारदर्शी
प्रकाश जैसा
है। लेकिन
तुम्हारी आंखें
धुंध से भरी
हैं, इसीलिए
तुम्हें कभी
नहीं प्रतीत
होता है कि जगत
इतना रंग— भरा
है। एल एस डी.
सिर्फ
तुम्हारी आंखों
से धुंध को
हटा देता है, वह जगत को
रंगीन नहीं
बनाता। एल. एस.
डी रासायनिक
ढंग से
तुम्हारी आंखों
को उनके
अंधेपन से
मुक्त कर देता
है, और तब
अचानक सारा
जगत तुम्हारे
सामने अपने सच्चे
रूप में उदघाटित
हो जाता है, प्रकट हो
जाता है।
एक
बिलकुल नया
जगत तुम्हारे
सामने होता है।
एक मामूली
कुर्सी भी
चमत्कार बन
जाती है; फर्श
पर पड़ा जूता
नए रंगों से, नई आभा से भर
जाता है, सज
—जाता है; तब
यातायात का
मामूली
शोरगुल भी संगीतपूर्ण
हो उठता है।
जिन वृक्षों
को तुमने बहुत
बार देखा होगा
और फिर भी
नहीं देखा
होगा, वे
मानो नया जन्म
ग्रहण कर लेते
हैं, यद्यपि
तुम बहुत बार
उनके पास से
गुजरे हो और तुम्हें
खयाल है कि तुमने
उन्हें देखा
है। वृक्ष का
पत्ता—पत्ता
एक चमत्कार बन
जाता है।
और
यथार्थ ऐसा ही
है,
एल. एस .डी. इस
यथार्थ का
निर्माण नहीं
करता। एल. एस.
डी. तुम्हारी जड़ता को, तुम्हारी
संवेदनहीनता
को मिटा देता
है, और तब
तुम जगत को
ऐसे देखते हो
जैसे तुम्हें
सच में उसे
देखना चाहिए।
लेकिन
एल. एस. डी
तुम्हें
सिर्फ एक झलक
दे सकता है।
और अगर तुम एल.
एस. डी. पर
निर्भर रहने
लगे,
तो देर—अबेर
वह भी
तुम्हारी आंखों
से धुंध को
हटाने में
असमर्थ हो
जाएगा। फिर
तुम्हें उसकी
अधिक मात्रा
की जरूरत पड़ेगी,
और यह
मात्रा बढ़ती
जाएगी और उसका
असर कम होता
जाएगा। और फिर
यदि तुम एल .एस.
डी. या उस तरह
की चीजें लेना
छोड़ दोगे, तो
जगत तुम्हारे
लिए पहले से
भी ज्यादा
उदास और फीका
मालूम पड़ेगा;
तब तुम और
भी संवेदनहीन
हो जाओगे।
अभी
कुछ दिन पहले
एक लड़की मुझसे
मिलने आई।
उसने कहा कि
मुझे संभोग
में आर्गाज्य
का कोई अनुभव
नहीं होता है।
उसने अनेक
पुरुषों के
साथ प्रयोग
किया; लेकिन आर्गाज्य
का कभी अनुभव
नहीं हुआ। वह
शिखर कभी आता
नहीं; और
वह लड़की बहुत
हताश हो गई है।
तो
मैंने उस लड़की
से कहा कि
मुझे अपने
प्रेम और काम
जीवन के संबंध
में विस्तार
से बताओ, पूरी
कहानी कहो। और
तब मुझे पता
चला कि वह
संभोग के लिए
बिजली के एक
यंत्र का, इलेक्ट्रानिक
वाइब्रेटर
का उपयोग कर
रही थी। आजकल
पश्चिम में
इसका बहुत
उपयोग हो रहा
है। लेकिन तुम
अगर एक बार
पुरुष
जननेंद्रिय
के लिए
इलेक्ट्रानिक
वाइब्रेटर
का उपयोग कर लोगे,
तो कोई भी
पुरुष
तुम्हें
तृप्त नहीं कर
पाएगा; क्योंकि
इलेक्ट्रानिक
वाइब्रेटर
आखिर
इलेक्ट्रानिक
वाइब्रेटर
ही है।
तुम्हारी जननेंद्रिया
जड़ हो जाएंगी,
मुर्दा हो
जाएंगी। उस
हालत में आर्गाज्य,
काम का शिखर
अनुभव असंभव
हो जाएगा।
तुम्हें काम—संभोग
का शिखर कभी प्राप्त
न हो सकेगा।
और तब तुम्हें
पहले से
ज्यादा
शक्तिशाली
इलेक्ट्रानिक
वाइब्रेटर
की जरूरत
पड़ेगी। और यह
प्रक्रिया उस
अति तक जा
सकती है कि
तुम्हारा
पूरा काम—यंत्र
पत्थर जैसा हो
जाए।
और
यही दुर्घटना
हमारी
प्रत्येक
इंद्रिय के साथ
घट रही है।
अगर तुम कोई
बाहरी उपाय, कृत्रिम
उपाय काम में
लाओगे, तो
तुम जड़ हो
जाओगे। एल .एस
.डी. तुम्हें
अंततः जड़ बना
देगा; क्योंकि
उससे
तुम्हारा
विकास नहीं
होता है, तुम
ज्यादा
संवेदनशील
नहीं होते हो।
अगर तुम
विकसित होते
हो तो वह
बिलकुल ही
भिन्न
प्रक्रिया है।
तब तुम ज्यादा
संवेदनशील
होंगे। और
जैसे—जैसे तुम
ज्यादा
संवेदनशील
होते हो, वैसे—वैसे
जगत दूसरा
होता जाता है।
अब तुम्हारी
इंद्रियां
ऐसी अनेक
चीजें अनुभव
कर सकती हैं
जिन्हें
उन्होंने
अतीत में कभी नहीं
अनुभव किया था;
क्योंकि
तुम उनके
प्रति खुले
नहीं थे, संवेदनशील
नहीं थे।
यह
विधि आंतरिक
संवेदनशीलता
पर आधारित है।
पहले
संवेदनशीलता
को बढ़ाओ।
अपने द्वार—दरवाजे
बंद कर लो, कमरे
में अंधेरा कर
लो, और फिर
एक छोटी
मोमबत्ती
जलाओ। और उस
मोमबत्ती के
पास
प्रेमपूर्ण
मुद्रा में, बल्कि प्रार्थनापूर्ण
भावदशा
में बैठो। और
ज्योति से
प्रार्थना
करो : 'अपने
रहस्य को मुझ
पर प्रकट करो।’
स्नान कर लो,
अपनी आंखों
पर ठंडा पानी छिड़क लो और
फिर ज्योति के
सामने अत्यंत प्रार्थनापूर्ण
भावदशा
में होकर बैठो।
ज्योति को
देखो और शेष
सब चीजें भूल
जाओ। सिर्फ
ज्योति को
देखो। ज्योति
को देखते रहो।
पांच
मिनट बाद
तुम्हें
अनुभव होगा कि
ज्योति में
बहुत चीजें
बदल रही हैं।
लेकिन स्मरण
रहे,
यह बदलाहट
ज्योति में
नहीं हो रही
है; दरअसल
तुम्हारी
दृष्टि बदल
रही है।
प्रेमपूर्ण
भावदशा
में,
सारे जगत को
भूलकर, समग्र
एकाग्रता के
साथ, भावपूर्ण
हृदय के साथ
ज्योति को
देखते रहो।
तुम्हें
ज्योति के
चारों ओर नए
रंग, नई
छटाएं दिखाई
देंगी, जो
पहले कभी नहीं
दिखाई दी थीं।
वे रंग, वे
छटाएं सब वहां
मौजूद हैं; पूरा
इंद्रधनुष
वहां उपस्थित
है। जहां—जहां
भी प्रकाश है,
वहा—वहां
इंद्रधनुष है;
क्योंकि
प्रकाश
बहुरंगी है, उसमें सब
रंग हैं।
लेकिन उन्हें
देखने के लिए
सूक्ष्म
संवेदना की
जरूरत है। उसे
अनुभव करो और
देखते
रहो। यदि आंसू
भी बहने लगें, तो
भी देखते रहो।
वे आंसू
तुम्हारी आंखों
को निखार देंगे,
ज्यादा
ताजा बना
जाएंगे।
कभी—कभी
तुम्हें
प्रतीत होगा
कि मोमबत्ती
या ज्योति
बहुत
रहस्यपूर्ण
हो गई है।
तुम्हें
लगेगा कि यह
वही साधारण
मोमबत्ती
नहीं है जो
मैं अपने साथ
लाया था; उसने
एक नई आभा, एक
सूक्ष्म
दिव्यता, एक
भगवत्ता
प्राप्त कर ली
है। इस प्रयोग
को जारी रखो।
कई अन्य चीजों
के साथ भी तुम
इसे कर सकते
हो।
मेरे
एक मित्र मुझे
कह रहे थे कि
वे पांच—छह
मित्र
पत्थरों के
साथ एक प्रयोग
कर रहे थे।
मैंने उन्हें
कहा था कि
कैसे प्रयोग
करना, और वे
लौटकर मुझे
पूरी बात कह
रहे थे। वे
एकांत में एक
नदी के किनारे
पत्थरों के साथ
प्रयोग कर रहे
थे। वे उन्हें
फील करने की
कोशिश कर रहे
थे—हाथों से
छूकर, चेहरे
से लगाकर, जीभ
से चखकर, नाक से
सूंघकर—वे उन
पत्थरों को हर
तरह से फील
करने की कोशिश
कर रहे थे।
साधारण से
पत्थर, जो
उन्हें नदी
किनारे मिल गए
थे।
उन्होंने
एक घंटे तक यह
प्रयोग किया—हर
व्यक्ति ने एक
पत्थर के साथ।
और मेरे मित्र
मुझे कह रहे
थे कि एक बहुत
अदभुत घटना
घटी। हर किसी
ने कहा 'क्या
मैं यह पत्थर
अपने पास रख
सकता हूं? मैं
इसके साथ
प्रेम में पड़
गया हूं!'
एक
साधारण सा
पत्थर! अगर
तुम
सहानुभूतिपूर्ण
ढंग से उससे
संबंध बनाते
हो तो तुम
प्रेम में पड
जाओगे। और अगर
तुम्हारे पास
इतनी
संवेदनशीलता
नहीं है तो
सुंदर से
सुंदर
व्यक्ति के
पास होकर भी तुम
पत्थर के पास
ही हो, तुम
प्रेम में
नहीं पड़ सकते।
तो
संवेदनशीलता
को बढ़ाना है।
तुम्हारी
प्रत्येक
इंद्रिय को
ज्यादा जीवंत
होना है। तो
ही तुम इस
विधि का
प्रयोग कर
सकते हो।
'भाव करो कि
ब्रह्मांड एक
पारदर्शी
शाश्वत उपस्थिति
है।’
सर्वत्र
प्रकाश है; अनेक—अनेक
रूपों और
रंगों में
प्रकाश
सर्वत्र व्याप्त
है। उसे देखो।
सर्वत्र
प्रकाश है, क्योंकि
सारी सृष्टि
प्रकाश की
आधारशिला पर खड़ी
है। एक पत्ते
को देखो, एक
फूल को देखो
या एक पत्थर
को देखो, और
देर— अबेर
तुम्हें
अनुभव होगा कि
उससे प्रकाश
की किरणें
निकल रही हैं।
बस, धैर्य
से प्रतीक्षा
करो।
जल्दबाजी मत करो,
क्योंकि
जल्दबाजी में
कुछ भी प्रकट
नहीं होता है।
तुम जब जल्दी
में होते हो
तो तुम जड़ हो
जाते हो। किसी
भी चीज के साथ
धीरज से
प्रतीक्षा
करो, और
तुम्हें एक
अदभुत तथ्य से
साक्षात्कार
होगा जो सदा
से मौजूद था, लेकिन जिसके
प्रति तुम सजग
नहीं थे, सावचेत
नहीं थे।
'भाव करो कि
ब्रह्मांड एक
पारदर्शी
शाश्वत उपस्थिति
है।’
और
जैसे ही
तुम्हें इस
शाश्वत
अस्तित्व की
उपस्थिति
अनुभव होगी
वैसे ही
तुम्हारा
चित्त बिलकुल
मौन और शात हो
जाएगा। तुम तब
उसके एक अंश
भर होगे; किसी
अदभुत संगीत
में एक स्वर
भर! फिर कोई
चिंता नहीं है,
फिर कोई
तनाव नहीं है।
बूंद समुद्र
में गिर गई, खो गई।
लेकिन
आरंभ में एक
बड़ी कल्पना की
जरूरत होगी।
और अगर तुम संवेदनशीलता
बढ़ाने के अन्य
प्रयोग भी
करते हो, तो वह
सहयोगी होगा।
तुम कई तरह के
प्रयोग कर
सकते
हो।
किसी का हाथ
अपने हाथ में
ले लो, आंखें
बंद कर लो और
दूसरे के भीतर
के जीवन को महसूस
करो, उसे
महसूस करो और
उसे अपनी ओर
बहने दो, गति
करने दो। फिर
अपने जीवन को
महसूस करो, और उसे
दूसरे की ओर
प्रवाहित
होने दो। किसी
वृक्ष के निकट
बैठ जाओ और
उसकी छाल को
छुओ, स्पर्श
करो। अपनी आंखें
बंद कर लो और
वृक्ष में
उठते जीवन—तत्व
को अनुभव करो।
और तुम्हें
तुरंत बदलाहट
अनुभव होगी।
मैंने
एक प्रयोग के
बारे में सुना
है। एक डाक्टर
कुछ लोगों पर
प्रयोग कर रहा
था कि क्या भावदशा
से शरीर में
रासायनिक
परिवर्तन
होते हैं। अब
उसने
निष्कर्ष निकाला
है कि भावदशा
से शरीर में
तत्काल
रासायनिक
परिवर्तन
होते हैं।
उसने
बारह लोगों के
एक समूह पर 'प्रयोग
किया। उसने
प्रयोग के
आरंभ में उन
सबकी पेशाब की
जांच की; और
सबकी पेशाब
साधारण, सामान्य
पाई गई। फिर
हर व्यक्ति को
एक विशेष भावदशा
के प्रभाव में
रखा गया। एक
को क्रोध, हिंसा,
हत्या, मार—पीट
से भरी फिल्म
दिखाई गई। तीस
मिनट तक उसे
भयावह फिल्म
दिखाई गई। यह
मात्र फिल्म
ही थी, लेकिन
वह व्यक्ति उस
भावदशा
में रहा।
दूसरे को एक
हंसी—खुशी की,
प्रसन्नता
की फिल्म
दिखाई गई। वह
आनंदित रहा।
और इसी तरह
बारह लोगों पर
प्रयोग किया
गया।
फिर
प्रयोग के बाद
उनकी पेशाब की
जांच की गई; और
अब सबकी पेशाब
अलग थी। शरीर
में रासायनिक
परिवर्तन हुए
थे। जो हिंसा
और भय की भावदशा
में रहा वह अब
बुझा—बुझा, बीमार था; और जो हंसी—खुशी,
प्रसन्नता
की भावदशा
में रहा वह अब
स्वस्थ, प्रफुल्ल
था। उसकी
पेशाब अलग थी,
उसके शरीर
की रासायनिक
व्यवस्था अलग
थी।
तुम्हें
बोध नहीं है
कि तुम अपने
साथ क्या कर रहे
हो। जब तुम
कोई खून—खराबे
की फिल्म
देखने जाते हो, तो
तुम नहीं
जानते हो कि
तुम क्या कर
रहे हो; तुम
अपने शरीर की
रासायनिक
व्यवस्था बदल
रहे हो। जब
तुम कोई
जासूसी उपन्यास
पढ़ते हो, तो
तुम नहीं
जानते हो कि
तुम क्या कर
रहे हो; तुम
अपनी हत्या कर
रहे हो। तुम
उत्तेजित हो
जाओगे, तुम
भयभीत हो
जाओगे; तुम
तनाव से भर
जाओगे।
जासूसी
उपन्यास का
यही तो मजा है।
तुम जितने
उत्तेजित
होते हो, तुम
उसका उतना ही
सुख लेते हो।
आगे क्या घटित
होने वाला है,
इस बात को
लेकर जितना
सस्पेंस होगा,
तुम उतने ही
ज्यादा
उत्तेजित
होगे। और इस
भांति
तुम्हारे
शरीर का रसायन
बदल रहा है।
ये
सारी विधियां
भी तुम्हारे
शरीर के रसायन
को बदलती हैं।
अगर तुम सारे
जगत को जीवन
और प्रकाश से
भरा अनुभव
करते हो, तो
तुम्हारे शरीर
का रसायन
बदलता है। और
यह एक चेन रिएक्शन
है, इस
बदलाहट की एक
श्रृंखला बन
जाती है। जब
तुम्हारे
शरीर का रसायन
बदलता है और
तुम जगत को
देखते हो, तो
वही जगत
ज्यादा जीवंत
दिखाई पड़ता है।
और जब वह
ज्यादा जीवंत
दिखाई पड़ता है,
तो
तुम्हारे
शरीर की
रासायनिक
व्यवस्था और
भी बदलती है।
ऐसे एक
श्रृंखला
निर्मित हो
जाती है।
यदि
यह विधि तीन
महीने तक
प्रयोग की जाए, तो
तुम भिन्न ही
जगत में रहने
लगोगे, क्योंकि
अब तुम ही
भिन्न
व्यक्ति हो
जाओगे।
आज इतना
ही।
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